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डेली न्यूज़

  • 25 Nov, 2024
  • 74 min read
इन्फोग्राफिक्स

CBD की प्रमुख कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़

और पढ़ें: जैवविविधता सम्मेलन का COP-16


भारतीय अर्थव्यवस्था

नई जनसंख्या रणनीति पर पुनर्विचार

प्रारंभिक परीक्षा के लिये:

दो बच्चों की नीति, स्थानीय निकाय निर्वाचन, वृद्ध जनसंख्या, प्रजनन दर, कुल प्रजनन दर (TFR), प्रतिस्थापन स्तर, श्रम की कमी कौशल प्रशिक्षण, रोज़गार सृजन, इंडिया एजिंग रिपोर्ट, 2023, भारत रोज़गार रिपोर्ट 2024, अनियोजित शहरीकरण, अधिकार-आधारित कार्यक्रम, गरीबी उन्मूलन

मुख्य परीक्षा के लिये:

भारत के लिये जनसांख्यिकीय लाभांश प्राप्त करने के लिये जनसांख्यिकीय नीतियों का महत्त्व।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

हाल ही में आंध्र प्रदेश ने अपनी लंबे समय से चली आ रही दो-बच्चों की नीति को उलट दिया, जो लगभग तीन दशकों से लागू थी और जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने के लिये दो से अधिक बच्चों वाले व्यक्तियों को स्थानीय निकाय निर्वाचन लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया था।

  • सरकार ने तर्क दिया कि राज्य तेज़ी से वृद्ध होती आबादी और घटती प्रजनन दर की चुनौतियों का सामना कर रहाहै, जिसके दीर्घकालिक आर्थिक तथा सामाजिक परिणाम गंभीर हो सकते हैं। 

भारत में नई जनसंख्या रणनीति की क्या आवश्यकता है?

  • कुल प्रजनन दर में गिरावट: भारत की कुल प्रजनन दर (Total Fertility Rate- TFR) में हाल के दशकों में लगातार गिरावट देखी गई है। NFHS-5 (2019-21) के अनुसार, भारत की TFR प्रति महिला 2.0 बच्चे है, जो 2.1 के प्रतिस्थापन स्तर से नीचे है, जिसके नीचे आने पर लंबे समय में जनसंख्या कम होने लगती है। 
    • आंध्र प्रदेश (1.5 का कुल प्रजनन दर) जैसे कुछ राज्य पहले से ही इस सीमा से काफी नीचे हैं, जिससे कार्यबल में कमी आने की चिंता बढ़ गई है। 
    • इस जनसांख्यिकीय बदलाव के परिणामस्वरूप श्रम की कमी हो सकती है और कार्यशील आयु वर्ग की आबादी पर दबाव बढ़ सकता है, जिससे आर्थिक विकास की संभावना कम हो सकती है।
  • आर्थिक विकास के लिये जनसांख्यिकीय लाभांश: लगभग 68% जनसंख्या कार्यशील आयु वर्ग (15-64 वर्ष) में तथा 26% जनसंख्या 10-24 आयु वर्ग में होने के कारण , भारत विश्व में सबसे युवा देशों में से एक बनने की ओर अग्रसर है। 
    • इस क्षमता का दोहन करने और भविष्य की चुनौतियों का समाधान करने के लिये एक नई जनसंख्या नीति महत्त्वपूर्ण है साथ ही शिक्षा, कौशल प्रशिक्षण और रोज़गार सृजन में पर्याप्त निवेश भी आवश्यक है
  • वृद्ध होती जनसंख्या: संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की इंडिया एजिंग रिपोर्ट, 2023 के अनुसार, भारत की 20% से अधिक जनसंख्या 60 वर्ष या उससे अधिक आयु की होगी।
    • भारत में वृद्ध होती जनसंख्या के कारण चुनौतियाँ उत्पन्न हो रही हैं, जैसे दीर्घकालिक और वृद्धावस्था देखभाल के लिये उच्च स्वास्थ्य देखभाल मांग में वृद्धि, जिसके कारण परिवार नियोजन नीतियों की आवश्यकता है, जो स्वस्थ वृद्धावस्था तथा बुजुर्गों की देखभाल पर ध्यान केंद्रित करती हों।
  • संसाधनों की कमी और पर्यावरणीय दबाव: भारत की बढ़ती जनसंख्या के कारण प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है, दिल्ली और बंगलूरू जैसे शहरों में गंभीर जल संकट उत्पन्न हो गया है, क्योंकि प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता कम हो रही है।
    • इसके अलावा उच्च जनसंख्या वृद्धि से प्रेरित अनियोजित शहरीकरण के कारण बुनियादी ढाँचे पर अत्यधिक बोझ पड़ता है, प्रदूषण होता है और मलिन बस्तियाँ बढ़ती हैं, जिससे विषम विकास से बचने के लिये नई जनसंख्या नीति की आवश्यकता पर बल मिलता है।
  • बढ़ती असमानता और निम्न जीवन स्तर: तीव्र जनसंख्या वृद्धि सार्वजनिक संसाधनों पर दबाव डालती है, जिससे स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और सामाजिक सेवाओं तक पहुँच सीमित हो जाती है। 
    • गरीब क्षेत्रों में उच्च प्रजनन दर आर्थिक असमानता के लिये अधिक व्यापक जनसंख्या नीति को बढ़ावा देती है

भारत की जनसंख्या नीतियाँ

  • स्वतंत्रता के बाद की पहल (1952): भारत ने वैश्विक परिवार नियोजन कार्यक्रमों में अग्रणी भूमिका निभाई, जिसमें गर्भ निरोधकों और जागरूकता अभियानों के माध्यम से  जन्म दर को कम करने पर ध्यान केंद्रित किया गया।
    • राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 1976: जनसंख्या नियंत्रण और आर्थिक विकास के बीच संबंध को मान्यता देते हुए, इस नीति में नसबंदी को प्रोत्साहित करने, कानूनी विवाह की आयु (लड़कियों के लिये 18 वर्ष और लड़कों के लिये 21 वर्ष) बढ़ाने और शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच का विस्तार करने जैसे उपायों पर ज़ोर दिया गया।
    • आपातकालीन काल (1975-1977): यह चरण जबरन नसबंदी के लिये बदनाम हो गया, जिससे सरकार द्वारा संचालित जनसंख्या नियंत्रण उपायों में जनता का विश्वास खत्म हो गया। 
      • इसमें अधिक समावेशी एवं स्वैच्छिक दृष्टिकोण की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया।
  • राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 2000: इस नीति में गर्भनिरोधक आवश्यकताओं को पूरा करने और मातृ एवं शिशु मृत्यु दर को कम करने के लिये तात्कालिक लक्ष्य, प्रतिस्थापन स्तर प्रजनन क्षमता (TFR 2.1) प्राप्त करने का एक मध्यम अवधि लक्ष्य और जनसंख्या स्थिरीकरण का एक दीर्घकालिक उद्देश्य निर्धारित किया गया।
  • वर्तमान फोकस क्षेत्र: आधुनिक रणनीतियाँ गर्भनिरोधकों तक पहुँच में सुधार, मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने तथा देरी से विवाह करने की वकालत पर ज़ोर देती हैं।
  • जनसंख्या स्थिरीकरण को अब आर्थिक विकास और पर्यावरणीय स्थिरता के व्यापक लक्ष्यों के साथ एकीकृत कर दिया गया है।
  • राज्य स्तरीय नीतियाँ: उत्तर प्रदेश और असम जैसे कुछ राज्यों ने दो बच्चों के मानदंड को बढ़ावा देने वाली नीतियाँ शुरू की हैं, तथा इसे सरकारी नौकरियों, कल्याणकारी लाभों और चुनावी भागीदारी जैसे क्षेत्रों में प्रोत्साहन या प्रतिबंधों से जोड़ा है।

आगे की राह

  • स्वैच्छिक परिवार नियोजन पर ध्यान केंद्रित करना: भारत में अधिकार-आधारित परिवार नियोजन नीतियाँ होनी चाहिये जो व्यक्तियों को सशक्त बनाएँ।
    • परिवार नियोजन रणनीतियों को लिंग-चयनात्मक गर्भपात के खिलाफ कानून लागू करके, महिला साक्षरता को बढ़ावा देकर और शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता और सामाजिक सुरक्षा के साथ-साथ समान कार्यबल के अवसर सुनिश्चित करके महिलाओं को सशक्त बनाना चाहिये।
  • क्षेत्र-विशिष्ट दृष्टिकोण पर ज़ोर: भारत की जनसांख्यिकीय विविधता को देखते हुए, क्षेत्र-विशिष्ट दृष्टिकोण आवश्यक है। 
    • उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे उच्च प्रजनन दर वाले राज्यों को क्षेत्र-विशिष्ट रणनीतियों की आवश्यकता हो सकती है, जबकि तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे कम प्रजनन दर वाले राज्यों को उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप नीतियों की आवश्यकता होगी।
  • समग्र विकास एजेंडा के रूप में परिवार नियोजन: परिवार नियोजन को व्यापक सामाजिक-आर्थिक विकास ढाँचे में एकीकृत किया जाना चाहिये। 
    • परिवार नियोजन को शिक्षा, रोज़गार सृजन और गरीबी उन्मूलन के साथ जोड़ने से एक अधिक धारणीय विकास मॉडल तैयार होगा जो भारत के दीर्घकालिक विकास और सामाजिक न्याय लक्ष्यों के साथ संरेखित होगा।
  • सामाजिक और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों को मज़बूत करना: भारत को विशेष रूप से वृद्ध होती आबादी द्वारा उत्पन्न चुनौतियों का समाधान करने के लिये स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढाँचे और सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों में निवेश करना चाहिये। 
    • वृद्धावस्था देखभाल सुविधाओं का विस्तार, रजत अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना, तथा वृद्ध श्रमिकों के लिये लचीली कार्य व्यवस्था की पेशकश, सिकुड़ते कार्यबल के दबाव को कम कर सकती है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: भारत को अपनी वृद्ध होती जनसंख्या के कारण किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, तथा परिवार नियोजन नीतियाँ इन मुद्दों का समाधान कैसे कर सकती हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. जनांकिकीय लाभांश के पूर्ण लाभ को प्राप्त करने के लिये भारत को क्या करना चाहिये?

(a) कुशलता विकास का प्रोत्साहन
(b) और अधिक सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का प्रारंभ
(c) शिशु मृत्यु दर में कमी
(d) उच्च शिक्षा का निजीकरण

उत्तर: (a)


मेन्स:

प्रश्न. "भारत में जनांकिकीय लाभांश तब तक सैद्धांतिक ही बना रहेगा जब तक कि हमारी जनशक्ति अधिक शिक्षित, जागरूक, कुशल और सृजनशील नहीं हो जाती।" सरकार ने हमारी जनसंख्या को अधिक उत्पादनशील और रोज़गार-योग्य बनने की क्षमता में वृद्धि के लिये कौन-से उपाय किये हैं?  (2016)

प्रश्न. "जिस समय हम भारत के जनसांख्यिकीय लाभांश (डेमोग्राफिक डिविडेंड) को शान से प्रदर्शित करते हैं, उस समय हम रोज़गार-योग्यता की पतनशील दरों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।" क्या हम ऐसा करने में कोई चूक कर रहे हैं? भारत को जिन जॉबों की बेसबरी से दरकार है, वे जॉब कहाँ से आएँगे? स्पष्ट कीजिये। (2014)


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

11 वीं ADMM बैठक और बौद्ध धर्म

प्रिलिम्स के लिये:

आसियान रक्षा मंत्रियों की बैठक-प्लस, बौद्ध सिद्धांत, एक्ट ईस्ट पॉलिसी, समुद्री कानून पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCLOS), 1982, आसियान, ग्लोबल कॉमन्स, हाई सी, अंटार्कटिका, बाह्य अंतरिक्ष, विनय पिटक, बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिये बंगाल की खाड़ी पहल (BIMSTEC), भारत-म्याँमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग परियोजना, हिंद महासागर रिम एसोसिएशन (IORA)

मेन्स के लिये:

भारत की एक्ट ईस्ट नीति, भारत और उसके पड़ोसी-संबंध।

स्रोत: पी.आई.बी

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, भारत के रक्षा मंत्री ने लाओ PDR के वियनतियाने में आयोजित 11 वें आसियान रक्षा मंत्रियों की बैठक-प्लस (ADMM-प्लस) फोरम को संबोधित किया।

  • उन्होंने संघर्षों के समाधान में बौद्ध सिद्धांतों की भूमिका पर ज़ोर दिया और भारत की एक्ट ईस्ट पॉलिसी (AEP) के एक दशक पूरे होने का जश्न मनाया।

11 वीं ADMM बैठक-प्लस  की मुख्य बातें क्या हैं?

  • नौवहन की स्वतंत्रता: भारत ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में नौवहन और उड़ान की स्वतंत्रता के लिये समुद्री कानून पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCLOS), 1982 के अनुपालन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
    • भारत ने एक ऐसी आचार संहिता की वकालत की जो राष्ट्रों के अधिकारों और हितों की रक्षा करती हो तथा अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुरूप हो।
  • अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था: भारत ने ऐसे विश्व में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के बौद्ध सिद्धांतों को अधिकाधिक अपनाने का आह्वान किया, जो तीव्रता के साथ ब्लॉकों और शिविरों में केंद्रित है।
  • संवाद की वकालत: सीमा विवादों, व्यापार समझौतों और अन्य चुनौतियों के प्रति भारत का दृष्टिकोण विश्वास, समझ और सहयोग को बढ़ावा देने के लिये खुले संचार में उसके विश्वास को दर्शाता है।
  • एशियाई शताब्दी: भारत ने 21 वीं शताब्दी को "एशियाई शताब्दी" के रूप में वर्णित किया तथा आसियान की आर्थिक गतिशीलता तथा इसके जीवंत व्यापार, वाणिज्य और सांस्कृतिक आदान-प्रदान पर बल दिया।
  • एक्ट ईस्ट पॉलिसी का दशक: भारत ने अपनी एक्ट ईस्ट पॉलिसी की सफलता पर प्रकाश डाला , जिसने पिछले दशक में आसियान और हिंद-प्रशांत देशों के साथ संबंधों को मज़बूत किया है।
    • एक्ट ईस्ट पॉलिसी की शुरुआत नवंबर 2014 में म्याँमार की राजधानी नेपीता में आयोजित 12 वें आसियान-भारत शिखर सम्मेलन में की गई थी।
  • जलवायु परिवर्तन और रक्षा: भारत ने परस्पर जुड़ी सुरक्षा और पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के लिये जलवायु परिवर्तन पर ADMM-प्लस रक्षा रणनीति के विकास का प्रस्ताव रखा।
  • वैश्विक साझा संपत्ति: भारत ने ग्लोबल कॉमन्स की सुरक्षा के महत्त्व को रेखांकित किया, जिसमें राष्ट्रीय सीमाओं से परे साझा प्राकृतिक संसाधन भी शामिल हैं।

नोट: भारत ने रवींद्रनाथ टैगोर की वर्ष 1927 की दक्षिण-पूर्व एशिया यात्रा के दौरान की गई टिप्पणी को उद्धृत किया: "मैं हर जगह भारत को देख सकता था, फिर भी मैं इसे पहचान नहीं पाया।"

  • यह वक्तव्य भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच गहरे और व्यापक सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक संबंधों का प्रतीक है।

ADMM-प्लस फोरम क्या है?

  • परिचय: यह एक बहुपक्षीय रक्षा सहयोग ढाँचा है, जो 10 आसियान सदस्य देशों, 8 से अधिक देशों (वार्ता साझेदारों) और तिमोर लेस्ते के रक्षा मंत्रियों को एक साथ लाता है।
    • आसियान सदस्यों में ब्रुनेई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्याँमार, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम शामिल हैं।
    • 8 संवाद साझेदारों में भारत , चीन, रूस, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और अमेरिका शामिल हैं
  • स्थापना: ADMM-प्लस का उद्घाटन 12 अक्तूबर 2010 को हनोई, वियतनाम में आयोजित किया गया था।
    • वर्ष 2017 से, ADMM-प्लस की वार्षिक बैठक होती है, ताकि आसियान और प्लस देशों के बीच संवाद एवं सहयोग को बढ़ाया जा सके।
  • केंद्रित क्षेत्र: ADMM-प्लस वर्तमान में व्यावहारिक सहयोग के सात क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करता है, अर्थात्
    • समुद्री सुरक्षा (MS)
    • आतंकवाद निरोधक (CT)
    • मानवीय सहायता और आपदा प्रबंधन (HADR) 
    • शांति स्थापना अभियान (PKO) 
    • सैन्य चिकित्सा (MM) 
    • ह्यूमिनैटेरियन माइन ऐक्शन (HMA) 
    • साइबर सुरक्षा (CS)  
  • विशेषज्ञ कार्य समूह (EWG): इन क्षेत्रों में सहयोग को सुविधाजनक बनाने के लिये EWG की स्थापना की गई है। 
    • प्रत्येक EWG की सह-अध्यक्षता एक आसियान सदस्य देश और एक प्लस देश द्वारा की जाती है, जो तीन-वर्षीय चक्र में कार्य करते हैं।

दक्षिण-पूर्व एशिया में बौद्ध धर्म का प्रसार

  • सांस्कृतिक केंद्र: भारतीय व्यापारियों, नाविकों और भिक्षुओं ने दक्षिण-पूर्व एशिया में बौद्ध धर्म के प्रसार में सहायता की, श्रीविजय (सुमात्रा, इंडोनेशिया) और चंपा (वियतनाम) जैसे बंदरगाह 7वीं से 13वीं शताब्दी तक शिक्षा और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के प्रमुख केंद्र के रूप में कार्य करते रहे।
  • शासकों की वैधता: दक्षिण-पूर्व एशियाई शासकों ने अपनी सत्ता को सुदृढ़ करने के लिये बौद्ध धर्म को अपनाया, तथा अपने शासन को वैध बनाने के लिये बुद्ध या हिंदू देवी-देवताओं की अधीनता स्वीकार की
    • सुमात्रा में केंद्रित श्रीविजय साम्राज्य बौद्ध धर्म के प्रसार में एक प्रमुख भूमिका निभाता था।
  • हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म का सम्मिश्रण: दक्षिण पूर्व एशिया में, बौद्ध धर्म अक्सर स्थानीय मान्यताओं और हिंदू धर्म के साथ मिश्रण है
    • दक्षिण-पूर्व एशिया के बौद्ध और हिंदू मंदिर, जैसे अंकोरवाट (कंबोडिया) और बोरोबुदुर (इंडोनेशिया), इस सम्मिश्रण को प्रदर्शित करते हैं। 
  • सांस्कृतिक प्रसार: बौद्ध धर्म ने बाली और जावा जैसे स्थानों की स्थानीय संस्कृतियों को प्रभावित किया, जिसे उनके नृत्य, अनुष्ठानों और मंदिर स्थापत्य में देखा जा सकता है।

संघर्ष समाधान में बौद्ध आदर्शों की क्या भूमिका है? 

  • बौद्ध दृष्टिकोण: तीन महत्त्वपूर्ण बौद्ध दृष्टिकोण, जो संघर्ष को हल करने या कम करने में हमारी मदद कर सकते हैं।
    • प्रत्येक व्यक्ति बुद्ध है, अत्यंत सम्मान का पात्र है।
    • संवाद, लोगों के बीच समझ और सम्मान पैदा करने का सबसे शक्तिशाली साधन है।
    • हमारा आंतरिक परिवर्तन ही विश्व के परिवर्तन की कुंजी है ( क्रोध रूपी विष को कम करना जिसमें लोभ (लोभ), घृणा (द्वेष) और भ्रम (मोह) शामिल हैं)।
  • अधिकरण शमथ धम्म: बौद्ध पाठ विनय पिटक में अधिकरण शमथ धम्म, भिक्षुओं के संघर्षों को हल करने के सिद्धांतों की रूपरेखा दी गई है।
    • यह भिक्षुओं को स्वीकारोक्ति, मेल-मिलाप, विवादों को सुलझाने और संघ में मतभेदों को दूर करने के बारे में विस्तृत दिशा-निर्देश प्रदान करता है।
      • यह उन सभी लोगों पर लागू होता है, जो मतभेदों में सामंजस्य स्थापित करना चाहते हैं, चाहे वे मतभेद व्यक्तिगत हों या राजनीतिक।
  • मध्यम मार्ग: संतुलित नीतियों का समर्थन करना, जिसमें सभी हितधारकों की आवश्यकताओं पर विचार किया जाए, अतिवाद से बचते हुए न्यायसंगत समाधानों को बढ़ावा दिया जाए।
  • परस्पर निर्भरता (प्रतीत्यसमुत्पाद): जलवायु परिवर्तन और संसाधन संघर्ष जैसे वैश्विक मुद्दों के समाधान के लिये राष्ट्रों के बीच आपसी समझ तथा साझा ज़िम्मेदारी को बढ़ावा देना।
  • करुणा: मानवीय सहायता को प्राथमिकता देना और संघर्ष क्षेत्रों में दुख के मूल कारणों, जैसे गरीबी तथा असमानता का समाधान करना।

भारत की एक्ट ईस्ट पॉलिसी (AEP) क्या है?

  • भारत की AEP एक रणनीतिक पहल है जिसका उद्देश्य दक्षिण पूर्व एशिया, पूर्वी एशिया और व्यापक हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ भारत के साथ संबंधों को मज़बूत करना है।
    • यह 1992 की पूर्वोन्मुखी नीति से विकसित हुआ है, जो आर्थिक विकास, क्षेत्रीय सुरक्षा और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने के लिये सक्रिय भागीदारी पर केंद्रित है।
  • सामरिक साझेदारी: भारत ने इंडोनेशिया, वियतनाम, मलेशिया, जापान, कोरिया गणराज्य (ROK), ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर सहित क्षेत्र के कई प्रमुख देशों के साथ अपने संबंधों को सामरिक साझेदारी तक उन्नत किया है।
  • क्षेत्रीय सहभागिता: भारत आसियान क्षेत्रीय मंच (ARF), पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन (EAS), बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिये बंगाल की खाड़ी पहल (BIMSTEC), एशिया सहयोग वार्ता (ACD), मेकांग गंगा सहयोग (MGC) और हिंद महासागर रिम एसोसिएशन (IORA) में सक्रिय रूप से शामिल है।
  • बुनियादी ढाँचा और कनेक्टिविटी: प्रमुख बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं में कलादान मल्टी-मॉडल ट्रांजिट ट्रांसपोर्ट परियोजना, भारत-म्याँमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग परियोजना, रि-टिडिम रोड परियोजना और बॉर्डर हाट (Border Haats) शामिल हैं। 
  • सुरक्षा सहयोग: अंतर्राष्ट्रीय समुद्री कानूनों और मानदंडों को बनाए रखने तथा क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा देने के लिये भारत और आसियान के बीच साझा प्रतिबद्धता है ।
  • पूर्वोत्तर भारत: व्यापार, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और बुनियादी ढाँचे के विकास के माध्यम से पूर्वोत्तर भारत और आसियान के बीच संपर्क में सुधार लाने पर ध्यान केंद्रित किया गया।
    • भारत-म्याँमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग (एशियाई त्रिपक्षीय राजमार्ग) म्याँमार के माध्यम से भारत (मोरेह, मणिपुर) और थाईलैंड (माए सोत) को जोड़ेगा तथा इसे कंबोडिया, लाओस एवं वियतनाम तक विस्तारित करने की योजना है।

निष्कर्ष

11वें ADMM-प्लस में भारत की भागीदारी क्षेत्रीय शांति, सुरक्षा और सहयोग के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को दर्शाती है। संघर्ष समाधान के लिये बौद्ध सिद्धांतों पर जोर, एक्ट ईस्ट पॉलिसी की सफलता तथा जलवायु परिवर्तन रक्षा रणनीतियाँ शांतिपूर्ण, एकीकृत एवं सतत् हिंद-प्रशांत क्षेत्र हेतु  भारत के व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाती हैं। 

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: आज की वैश्विक शांति और सद्भावना के लिये बौद्ध सिद्धांतों की प्रासंगिकता का परीक्षण कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

प्रिलिम्स 

प्रश्न: निम्नलिखित देशों पर विचार कीजिये: (2018)

  1. ऑस्ट्रेलिया 
  2. कनाडा
  3. चीन 
  4. भारत
  5. जापान 
  6. यू.एस.ए.

उपर्युक्त में से कौन-कौन आसियान ( ए. एस. इ. ए एन.) के 'मुक्त-व्यापार भागीदारों' में से हैं?

(a) 1, 2, 4 और 5
(b) 3, 4, 5 और 6
(c) 1, 3, 4 और 5
(d) 2, 3, 4 और 6

उत्तर: (c)


प्रश्न: 'रीजनल कॉम्प्रिहेन्सिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (Regional Comprehensive Economic Partnership)' पद प्रायः समाचारों में देशों के एक समूह के मामलों के संदर्भ में आता है। देशों के उस समूह को क्या कहाँ जाता है? (2016) 

(a) G20
(b) ASEAN
(c) SCO
(d) SAARC

उत्तर: (B)


मुख्य परीक्षा

Q. शीतयुद्धोत्तर अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के संदर्भ में, भारत की पूर्वोन्मुखी नीति के आर्थिक और सामरिक आयामों का मूल्यांकन कीजिये। (2016)


भारतीय अर्थव्यवस्था

एक्सेस टू मेडिसिन इंडेक्स रिपोर्ट 2024

प्रिलिम्स के लिये:

मलेरिया, तपेदिक, उष्णकटिबंधीय रोग, गैर-संचारी रोग, वैक्सीन, मातृ स्वास्थ्य, आपूर्ति श्रृंखला, प्राकृतिक आपदाएँ, अफ्रीकी संघ, सार्वजनिक-निजी भागीदारी, डिजिटल स्वास्थ्य, अनुसंधान एवं विकास प्रयास

मेन्स के लिये:

गरीब तथा निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों के लिये दवाओं, टीकों और स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता का महत्त्व।

स्रोत: डाउन टू अर्थ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में एक्सेस टू मेडिसिन फाउंडेशन ने अपनी वर्ष 2024 की इंडेक्स रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में चल रही चुनौतियों के बावजूद निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों (LMICs) में दवा की पहुँच बढ़ाने के क्रम में 20 दवा कंपनियों के प्रयासों का मूल्याँकन किया गया है। 

एक्सेस टू मेडिसिन इंडेक्स रिपोर्ट 2024 की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

  • क्लिनिकल परीक्षणों की कमी: वैश्विक जनसंख्या में 80% की भागीदारी होने के बावजूद, विश्व भर में किये गए सभी क्लिनिकल परीक्षणों में LMIC की केवल 43% ही हिस्सेदारी है।
    • इससे नई दवाओं के विकास में LMIC देशों की भागीदारी सीमित होने के साथ नवीन उपचारों तक इनकी पहुँच में देरी होती है।
  • सीमित प्रौद्योगिकी हस्तांतरण एवं दवा तक सीमित पहुँच: स्वैच्छिक लाइसेंसिंग एवं प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के संदर्भ में ब्राज़ील, चीन और भारत जैसे देश केंद्रबिंदु हैं, जिससे उप-सहारा अफ्रीका का अधिकांश भाग इससे बाहर रहने से कई निम्न आय वाले क्षेत्रों में दवाओं की उपलब्धता सीमित हो जाती है।
  • निम्न आय वाले देशों के संदर्भ में पहुँच अंतराल: कुछ कंपनियाँ समावेशी व्यापार मॉडल अपना रही हैं लेकिन मूल्याँकन किये गए 61% से अधिक उत्पादों में निम्न आय वाले देशों हेतु विशिष्ट रणनीतियों का अभाव है। 
    • इससे निरंतर असमानताओं पर प्रकाश पड़ता है क्योंकि सुविधाएँ अभी भी उच्च-मध्यम आय वाले क्षेत्रों तक ही केंद्रित हैं।
  • प्राथमिकता वाले रोगों के संदर्भ में अनुसंधान तथा विकास में कमी: फार्मास्युटिकल कंपनियाँ प्राथमिकता वाले रोगों जैसे मलेरिया, तपेदिक और उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोगों के संदर्भ में अनुसंधान एवं विकास पर कम ध्यान दे रही हैं, जिससे LMIC असमान रूप से प्रभावित होते हैं।
    • इस रिपोर्ट में दवा कंपनियों द्वारा दवाओं तक समान पहुँच हेतु प्रयास करने तथा पारदर्शी रणनीति बनाने की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है।

LMIC में दवाओं तक पहुँच की आवश्यकताएँ और चुनौतियाँ क्या हैं?

दवाओं तक बेहतर पहुँच की आवश्यकता: 

  • विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, LMIC को संक्रामक और गैर-संचारी रोगों (NCD) के दोहरे बोझ का सामना करना पड़ता है, जो कमज़ोर स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों पर दबाव डालता है। प्रतिवर्ष 70 वर्ष की आयु से पूर्व 17 मिलियन लोग NCD से मर जाते हैं, इनमें से 86% मौतें LMIC में होती हैं।
    • इन चुनौतियों से निपटने और मृत्यु दर को कम करने के लिये सस्ती, उच्च गुणवत्ता वाली दवाईयाँ, उपचार और वैक्सीन की आवश्यकता है। 
  • इसके अतिरिक्त आवश्यक दवाओं की विश्वसनीय आपूर्ति और LMIC में आयात पर निर्भरता कम करने के लिये स्थानीय औषधि विनिर्माण और वितरण नेटवर्क को सुदृढ़ करना महत्त्वपूर्ण है।

LMIC में दवाएँ उपलब्ध कराने में चुनौतियाँ:

  • आर्थिक बाधाएँ: निम्न और मध्यम आय वाले देशों (LMIC) में दवाओं तक पहुँच आर्थिक बाधाओं के कारण सीमित है
    • विशेष रूप से, पेटेंट दवाओं सहित आवश्यक दवाओं की उच्च लागत, सीमित क्रय शक्ति वाले रोगियों और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों के लिये पहुँच को सीमित कर देती है।
  • वित्तीय परिणाम: स्वास्थ्य देखभाल पर जेब से होने वाला खर्च परिवारों को आवश्यक दवाओं और अन्य बुनियादी आवश्यकताओं के बीच विनाशकारी विकल्प चुनने के लिये मज़बूर करता है, जिसके परिणामस्वरूप प्रायः भयावह वित्तीय परिणाम सामने आते हैं जो स्वास्थ्य संबंधी असमानताओं को बढ़ाते हैं
  • बुनियादी ढाँचे की चुनौतियाँ: अपर्याप्त परिवहन बुनियादी ढाँचा, जिसमें खराब रखरखाव वाली सड़कें और अपर्याप्त कोल्ड चेन सुविधाएँ शामिल हैं। 
    • इससे दवाओं के कुशल वितरण में बाधा उत्पन्न होती है, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, जबकि अविश्वसनीय विद्युत तापमान-संवेदनशील दवाओं की अखंडता से समझौता करती है।
    • आपूर्ति शृंखलाओं में व्यवधान, विशेषकर महामारी या प्राकृतिक आपदाओं के दौरान, LMIC में दवाओं की कमी को बढ़ा देता है।
  • विनियामक मुद्दे: कमज़ोर विनियामक ढाँचे घटिया और नकली दवाओं के प्रसार में योगदान करते हैं, उपचार की प्रभावकारिता और सुरक्षा को कमज़ोर करते हैं, क्योंकि अपर्याप्त प्रवर्तन क्षमताएँ औषधि गुणवत्ता मानकों को बनाए रखने में विफल रहती हैं
    • औषधि नवाचार प्रायः उच्च आय वाले देशों में प्रचलित बीमारियों पर केंद्रित है, जिससे मातृ स्वास्थ्य और बाल्यावस्था संबंधी बीमारियों जैसी LMIC-विशिष्ट स्वास्थ्य चुनौतियों पर काफी हद तक ध्यान नहीं दिया जाता है।
  • कार्यबल की सीमाएँ: प्रशिक्षित स्वास्थ्य पेशेवरों की कमी, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में,  उचित उपचार और दवा प्रबंधन को प्रतिबंधित करती है।
    • इसके अतिरिक्त, न्यून स्वास्थ्य साक्षरता और सांस्कृतिक मान्यताएँ निर्धारित उपचारों के पालन में बाधा डालती हैं, जिससे LMIC में आवश्यक दवाओं तक समान पहुँच सुनिश्चित करने के प्रयास जटिल हो जाते हैं।

UHC 2030 का लक्ष्य

  • सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (UHC) 2030 का उद्देश्य वित्तीय कठिनाई के बिना आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करना, समतामूलक पहुँच को बढ़ावा देना और विश्व भर में स्वास्थ्य प्रणालियों को सुदृढ़ बनाना है।
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व बैंक और आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (OECD) द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित UHC 2030, राजनीतिक प्रतिबद्धता और जवाबदेही प्रयासों के माध्यम से UHC को आगे बढ़ाने के लिये हितधारकों को संगठित करता है।

आगे की राह

  • स्थानीय विनिर्माण को मज़बूत करना: क्षेत्रीय दवा उत्पादन केंद्र स्थापित करने से आयात पर निर्भरता कम होगी और दवाओं की स्थिर आपूर्ति सुनिश्चित होगी। 
    • उदाहरण के लिये, अफ्रीकी संघ की वर्ष 2040 तक महाद्वीप की वैक्सीन आवश्यकताओं का 60% उत्पादन करने की पहल, आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिये एक मॉडल है।
  • LMIC आवश्यकताओं के लिये अनुसंधान एवं विकास में निवेश: मेडिसिन पेटेंट पूल सहयोग जैसी सार्वजनिक-निजी भागीदारी को मलेरिया, तपेदिक और उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोगों जैसी प्राथमिकता वाली बीमारियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये। 
    • इन सहयोगों में LMIC की विशिष्ट स्वास्थ्य चुनौतियों से निपटने के लिये किफायती, क्षेत्र-विशिष्ट समाधानों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
  • डिजिटल स्वास्थ्य सेवा का विस्तार: डिजिटल स्वास्थ्य प्रौद्योगिकियाँ और AI-संचालित उपकरण रोग निगरानी में सुधार, निदान को बढ़ाने और दूरस्थ स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच को सक्षम करके LMIC में स्वास्थ्य सेवा वितरण में क्रांति ला सकते हैं।
    • उदाहरण के लिये, टेलीमेडिसिन और परामर्श प्लेटफॉर्म जैसी प्रौद्योगिकी संचालित पहलें दूरस्थ स्वास्थ्य सेवा पहुंच को सुविधाजनक बना सकती हैं, और भारत के U-Win (सार्वभौमिक टीकाकरण के लिये पोर्टल) और को-विन (कोविड-19 टीकाकरण प्रबंधन के लिये पोर्टल) जैसे प्लेटफॉर्म टीकाकरण और स्वास्थ्य सेवा समन्वय प्रदान करते हैं।
  • विनियामक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना: सामंजस्यपूर्ण विनियामक ढाँचे की स्थापना से दवाओं की मंजूरी में तेज़ी आएगी और जीवन रक्षक उपचारों की तेज़ी से तैनाती में सुविधा होगी।
    • पेटेंट एवरग्रीनिंग को रोकना, LMIC में स्थानीय जेनेरिक उत्पादन को प्रोत्साहित करना, और उच्च मानकों वाले देशों के साथ अनुमोदन की पारस्परिक मान्यता को सक्षम करना।
  • वित्तपोषण तंत्र का विस्तार: अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को संयुक्त खरीद मॉडल बनाने और दवाओं को अधिक किफायती और सुलभ बनाने के लिये वित्तपोषण बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
  • लैंगिक असमानताओं को संबोधित करना: महिलाओं और ट्रांसजेंडर के स्वास्थ्य को शामिल करने के लिये अनुसंधान एवं विकास प्रयासों का विस्तार करना तथा स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच में लिंग आधारित बाधाओं को संबोधित करने वाली नीतियों को प्राथमिकता देना, LMIC में समग्र स्वास्थ्य समानता में सुधार के लिये महत्त्वपूर्ण है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों को किफायती दवाओं और टीकों तक पहुँच बनाने में किन प्रमुख चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और भारत ने इसका कैसे जवाब दिया है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारत में न्यूमोकोकल संयुग्मी वैक्सीन (Pneumococcal Conjugate Vaccine) के उपयोग का क्या महत्त्व है?

  1. ये वैक्सीन न्यूमोनिया और साथ ही तानिकाशोथ और सेप्सिस के विरुद्ध प्रभावी हैं।
  2. उन प्रतिजैविकियों पर निर्भरता कम की जा सकती है जो औषध-प्रतिरोधी जीवाणुओं के विरुद्ध प्रभावी नहीं हैं।
  3. इन वैक्सीन के कोई गौण प्रभाव (side effects) नहीं हैं और न ही ये वैक्सीन कोई प्रत्यूर्जता संबंधी अभिक्रियाएँ (allergic reactions) करती हैं।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये :

(a) केवल 1
(b) केवल 1 और 2
(c) केवल 3
(d) 1,2 और 3

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न. भारत सरकार दवा के पारंपरिक ज्ञान को दवा कंपनियों द्वारा पेटेंट कराने से कैसे बचा रही है?(2019)


भारतीय अर्थव्यवस्था

एक महत्त्वपूर्ण खनिज के रूप में कोकिंग कोल

प्रिलिम्स के लिये:

नीति आयोग, कोकिंग कोल, महत्त्वपूर्ण खनिज, इस्पात उत्पादन, यूरोपीय संघ, लिथियम, रेयर अर्थ, अवसादी चट्टान, विशेष प्रयोजन वाहन, वाष्पशील यौगिक  

मेन्स के लिये:

भारत के लिये कोकिंग कोल और महत्त्वपूर्ण खनिजों का महत्त्व।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में नीति आयोग की रिपोर्ट, जिसका शीर्षक था 'कोकिंग कोल के आयात को कम करने के लिये घरेलू कोकिंग कोल की उपलब्धता बढ़ाना', में कोकिंग कोल को महत्त्वपूर्ण खनिजों की सूची में शामिल करने की वकालत की गई थी।

कोकिंग कोयले को महत्त्वपूर्ण खनिज क्यों घोषित किया जाना चाहिये?

  • महत्त्वपूर्ण खनिज मानदंडों को पूरा करना: कोकिंग कोयला भारत के लिये 'महत्त्वपूर्ण खनिज' घोषित करने के लिये सभी मानदंडों को पूरा करता है।
    • राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों के लिये महत्त्वपूर्ण खनिजों का आर्थिक महत्त्व है।
    • महत्त्वपूर्ण खनिजों की आपूर्ति का ज़ोखिम उच्च है, क्योंकि आयात पर निर्भरता बहुत अधिक है तथा विशेष देशों में महत्त्वपूर्ण कच्चे माल का संकेंद्रण भी बहुत अधिक है।
    • इन सामग्रियों के अद्वितीय और विश्वसनीय गुणों के कारण, वर्तमान तथा भविष्य के अनुप्रयोगों के लिये इनके (व्यवहार्य) विकल्पों का अभाव है।
  • इस्पात उत्पादन: कोकिंग कोयला इस्पात उत्पादन के लिये एक महत्त्वपूर्ण कच्चा माल है, जो इस्पात की लागत का लगभग 42% है, जो भारत में  बुनियादी ढाँचे के विकास और रोज़गार सृजन क्षेत्रों के लिये महत्त्वपूर्ण है।
    • किफायती कोकिंग कोयले की उपलब्धता अर्थव्यवस्था के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • उच्च आयात निर्भरता: भारत अपनी आवश्यकता का लगभग 85% कोकिंग कोयला आयात करता है, जो यूरोपीय संघ (EU) के 62% से बहुत अधिक है, जिससे इसके इस्पात उद्योग और आर्थिक स्थिरता के लिये खतरा पैदा हो रहा है।
    • कोकिंग कोयले के घरेलू उत्पादन से वित्त वर्ष 2023-24 में 58 मीट्रिक टन कोकिंग कोयले के आयात पर 1.5 लाख करोड़ रुपए की बचत हो सकती है।
  • विशाल घरेलू भंडार: भारत में कोकिंग कोयले के व्यापक प्रमाणित भंडार हैं- 16.5 बिलियन टन मध्यम गुणवत्ता वाला कोयला और 5.13 बिलियन टन उत्तम गुणवत्ता वाला कोयला। 
    • धातुकर्म प्रयोजनों के लिये इन भंडारों का उपयोग करने से ऊर्जा सुरक्षा बढ़ सकती है, आपूर्ति श्रृंखला संबंधी जोखिम कम हो सकते हैं तथा घरेलू इस्पात उत्पादन को समर्थन मिल सकता है।
  • इस्पात उद्योग की प्रतिस्पर्द्धात्मकता: वित्त वर्ष 2023-24 में एकीकृत इस्पात संयंत्रों (ISP) द्वारा 58 मीट्रिक टन कोकिंग कोयले का आयात किया गया, जिसकी लागत लगभग 1.5 लाख करोड़ रुपए थी। 
    • कोकिंग कोयले को महत्त्वपूर्ण खनिज घोषित करने से घरेलू उत्पादन को बढ़ावा मिलने के साथ इस्पात उत्पादन लागत कम हो सकती है तथा वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ सकती है।
  • पूर्ण क्षमता उपयोग: वित्त वर्ष 2022-23 में PSU वाशरीज़ का क्षमता उपयोग 32% से कम था जबकि वाश्ड (स्वच्छ) कोयले का उत्पादन केवल 35-36% था।
    • वाशरी उपकरणों में कुशल प्रौद्योगिकियों को अपनाने हेतु निवेश तथा सब्सिडी से उनकी दक्षता में सुधार होने के साथ लागत कम हो सकती है। 
  • वैश्विक प्रथाएँ: यूरोपीय संघ द्वारा कोकिंग कोयले को 29 अन्य कच्चे पदार्थों (जिसमें लिथियम, कोबाल्ट और दुर्लभ मृदा तत्त्व जैसे ' हरित ऊर्जा ' खनिज शामिल हैं) के साथ एक महत्त्वपूर्ण कच्चा पदार्थ घोषित किया गया है।
    • कोकिंग कोयले को इसी प्रकार वर्गीकृत करने का भारत का निर्णय वैश्विक प्रथाओं के अनुरूप होगा तथा इसे आर्थिक विकास के लिये एक प्रमुख संसाधन के रूप में प्राथमिकता मिलेगी। 
  • ऊर्जा सुरक्षा और स्थिरता: घरेलू कोकिंग कोल भंडार विकसित करने पर भारत के ध्यान से आयात पर निर्भरता कम होने के साथ ऊर्जा सुरक्षा मज़बूत हो सकती है साथ ही वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन लक्ष्य को भी प्राप्त करने में सहायता मिलेगी।

कोकिंग कोल और भारत

  • आयात पर उच्च निर्भरता: वित्त वर्ष 2025 की पहली छमाही (अप्रैल-सितंबर) में भारत का कोकिंग कोल आयात 29.6 मिलियन टन (mt) तक पहुँच गया, जो छह साल का उच्चतम स्तर है।
    • विश्व स्तर पर भारत, कोकिंग कोयले का सबसे बड़ा आयातक है।
  • उच्च इस्पात उत्पादन: कोकिंग कोयले के आयात में वृद्धि भारत के इस्पात उत्पादन में वृद्धि के अनुरूप है।
    • विश्व स्तर पर भारत, चीन के बाद कच्चे इस्पात का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।
  • शीर्ष आयातक देश: ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और रूस कोकिंग कोयले के संदर्भ में भारत के सबसे बड़े आपूर्तिकर्त्ता हैं।
  • आयात का रुझान: वित्त वर्ष 2024 की पहली छमाही और वित्त वर्ष 2025 की पहली छमाही के बीच रूस से आयात में 200% की उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई। 
    • भारत के कोकिंग कोल आयात में ऑस्ट्रेलिया की हिस्सेदारी H1FY25 में घटकर 54% (16 मिलियन टन) हो गई, जो H1FY22 में 80% (21.7 मिलियन टन) थी।
  • विविधीकरण: मोजाम्बिक और इंडोनेशिया से सोर्सिंग में मामूली वृद्धि हुई है।

Coking_Coal_Import_by_India

कोकिंग कोल के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • कोकिंग कोयला (या धातुकर्म कोयला) भू-पर्पटी में पाया जाने वाला एक प्राकृतिक अवसादी चट्टान है।
    • इसमें हार्ड कोकिंग कोल, सेमी-हार्ड कोकिंग-कोल और सेमी-सॉफ्ट कोकिंग कोल सहित गुणवत्ता श्रेणी की एक विस्तृत शृंखला शामिल है। सभी का उपयोग स्टील निर्माण के लिये किया जाता है। 
    • कोकिंग कोयले में आमतौर पर थर्मल कोयले की तुलना में अधिक कार्बन, न्यून राख और न्यूनतम आर्द्रता होती है, जिसका उपयोग विद्युत उत्पादन के लिये किया जाता है।
  • कोक का निर्माण: कोकिंग कोयले को कोक भट्टियों में वायु की अनुपस्थिति में उष्ण किया जाता है जिससे कोक का निर्माण होता है, जो एक छिद्रयुक्त, कार्बन युक्त पदार्थ है। 
    • कोकिंग नामक इस प्रक्रिया में कोयले से वाष्पशील यौगिक निकाल दिये जाते हैं, जिससे कोक ब्लास्ट फर्नेस में उपयोग के लिये उपयुक्त हो जाता है। 
  • इस्पात विनिर्माण में भूमिका:
    • ईंधन: कोक उच्च तापमान (लगभग 1,000°C से 1,200°C) पर दहन से कार्बन मोनोऑक्साइड (CO) उत्पन्न करता है, जिसका उपयोग लौह अयस्क (Fe2O3) को विगलित लोहे में परिवर्तन के लिये किया जाता है।
    • अपचायक कारक: कार्बन मोनोऑक्साइड (CO) ब्लास्ट फर्नेस में लौह अयस्क के साथ अभिक्रिया करके आयरन ऑक्साइड (Fe2O3 ) को आयरन (Fe) में परिवर्तित कर देता है।
  • कोकिंग कोल उत्पादन: वर्ष 2022 में कोकिंग कोल के सबसे बड़े उत्पादक चीन (62%), ऑस्ट्रेलिया (15%), रूस (9%), यूएसए (5%) और कनाडा (3%) थे। 
  • सामरिक महत्त्व: निम्न-कार्बन संक्रमण से संबंधित सभी उद्योगों में  इस्पात को एक सामरिक सामग्री के रूप में उद्धृत किया जाता है।
    • एक टन इस्पात उत्पादन के लिये लगभग 780 किलोग्राम कोकिंग कोयले की आवश्यकता होती है।
  • कोक उत्पादन के उप-उत्पाद: टार, बेंज़ोल, अमोनिया सल्फेट, सल्फर और कोक ओवन गैस जैसे उप-उत्पादों का उपयोग रासायनिक विनिर्माण और ताप/विद्युत उत्पादन के लिये किया जाता है।

भारत के लिये महत्त्वपूर्ण खनिज कौन-से हैं?

  • वैश्विक परिदृश्य: महत्त्वपूर्ण खनिजों की सूची विभिन्न देशों में उनके उद्योगों और प्राथमिकताओं  के आधार पर भिन्न-भिन्न होती है।
    • उदाहरण के लिये, संयुक्त राज्य अमेरिका ने 50 महत्त्वपूर्ण खनिजों की पहचान की है, इसके अतिरिक्त जापान ने 34, यूनाइटेड किंगडम ने 18, यूरोपीय संघ ने 34 तथा कनाडा ने 31 खनिजों की पहचान की है।
  • भारतीय परिदृश्य: भारत ने कुल 30 खनिजों की पहचान की है जो भारत के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण हैं, जहाँ भारत को निर्बाध आपूर्ति शृंखला सुनिश्चित करने के लिये अपने प्रयासों को प्राथमिकता देनी चाहिये।
    • सूची: पहचाने गए खनिजों में एंटीमनी, बेरिलियम, बिस्मथ, कोबाल्ट, ताँबा, गैलियम, जर्मेनियम, ग्रेफाइट, हाफ्नियम, इंडियम, लिथियम, मॉलिब्डेनम, नियोबियम, निकल, पीजीई, फॉस्फोरस, पोटाश, REE, रेनियम, सिलिकॉन, स्ट्रोंटियम, टैंटालम, टेल्यूरियम, टिन, टाइटेनियम, टंगस्टन, वैनेडियम, जिरकोनियम, सेलेनियम और कैडमियम शामिल हैं।
    • महत्त्वपूर्ण खनिजों वाले राज्य/केंद्र शासित प्रदेश: इन खनिजों वाले राज्य/केंद्र शासित प्रदेश बिहार, गुजरात, झारखंड, ओडिशा, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और जम्मू और कश्मीर हैं।

Critical_Minerals

  • भारत की आयात निर्भरता: भारत महत्त्वपूर्ण खनिजों के लिये आयात पर बहुत अधिक निर्भर है, लिथियम, कोबाल्ट और निकल जैसे खनिजों के लिये 100% आयात निर्भरता है।
    • यह निर्भरता जारी रहने की संभावना है, क्योंकि इन खनिजों की मांग वर्ष 2030 तक दोगुनी हो जाने की उम्मीद है।

India's_Import_Dependency_of_Key_Minerals_vs_Geopolitical_Risk

महत्त्वपूर्ण खनिजों को सुरक्षित करने के लिये भारत की क्या पहल हैं?

 निष्कर्ष

  • कोकिंग कोल को 'महत्त्वपूर्ण खनिज': नीति आयोग की सिफारिश के अनुसार, घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने, इस्पात क्षेत्र की प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ाने तथा कुशल विनिर्माण रोज़गार सृजित करने के लिये कोकिंग कोयले को महत्त्वपूर्ण खनिज घोषित किया जाना चाहिये।
  • संपूर्ण सरकार का दृष्टिकोण: घरेलू धातुकर्म कोयले की कमी को दूर करने के लिये, नीति आयोग ने कई मंत्रालयों (कोयला, इस्पात, पर्यावरण और वन) को शामिल करते हुए 'संपूर्ण सरकार' दृष्टिकोण की सिफारिश की है।
  • निजी भागीदारी: कोयला क्षेत्र भंडारों के विकास के लिये सार्वजनिक-निजी भागीदारी (Public-Private Partnership- PPP) मोड में विशेष प्रयोजन वाहन (Special Purpose Vehicles- SPV) का गठन किया जाना चाहिये।
  • कोयला उत्पादन को अनुकूलित करना: धातुकर्म कोयले के उत्पादन के लिये खान योजनाकारों, भूवैज्ञानिकों, खनन इंजीनियरों और वाशरी संचालकों के बीच  सहयोगात्मक टीमवर्क की आवश्यकता होती है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: भारत के इस्पात उद्योग और अर्थव्यवस्था के लिये कोकिंग कोल के रणनीतिक महत्त्व पर चर्चा कीजिये। भारत कोकिंग कोल के आयात पर अपनी उच्च निर्भरता को कैसे संबोधित कर सकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स 

प्रश्न. भारत में इस्पात उत्पादन उद्योग को निम्नलिखित में से किसके आयात की अपेक्षा होती है? (2015)

(a) शोरा 
(b) शैल फ़ॉस्फ़ेट (रॉक फ़ॉस्फ़ेट)
(c) कोककारी (कोकिंग) कोयला
(d) उपर्युक्त सभी

उत्तर: (c)  


प्रश्न: कोयले के बृहत् सुरक्षित भण्डार होते हुए भी भारत क्यों मिलियन टन कोयले का आयात करता है? (2012)

  1. भारत की यह नीति है कि वह अपने कोयले के भण्डार को भविष्य के लिए सुरक्षित रखे और वर्तमान उपयोग के लिए इसे अन्य देशों से आयात करें।
  2. भारत के अधिकतर विद्युत् संयंत्र कोयलें पर आधारित हैं और उन्हें देश से पर्याप्त मात्रा में कोयले की आंतरिक आपूर्ति नहीं हो पाती।
  3. इस्पाव कम्पनियों को बड़ी मात्रा में कोक कोयले की आवश्यकता पड़ती है, जिसे आयात करना पड़ता है।

उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं?

(a) केवल 1 
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3 
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (b)


मेन्स

प्रश्न: गोंडवानालैंड के देशों में से एक होने के बावजूद भारत के खनन उद्योग अपने सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) में बहुत कम प्रतिशत में योगदान देते है। विवेचना कीजिये। (2021)

प्रश्न: “प्रतिकूल पर्यावरणीय पर प्रभाव के बावजूद, कोयला खनन विकास के लिये अभी भी अपरिहार्य है” विवेचना कीजिये। (2017)


जैव विविधता और पर्यावरण

UNFCCC COP29- बाकू

प्रिलिम्स के लिये:

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन, नया सामूहिक परिमाणित लक्ष्य, कार्बन बाज़ार, संयुक्त राष्ट्र, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान, वैश्विक मीथेन प्रतिज्ञा, लीमा वर्क प्रोग्राम ऑन जेंडर, खाद्य और कृषि संगठन, ग्रीन क्लाइमेट फंड, पर्यावरण के लिये जीवन शैली (LiFE), जलवायु के लिये मैंग्रोव गठबंधन। 

मेन्स के लिये:

भारत की जलवायु नीति, COP29 और इसके परिणाम, वैश्विक जलवायु शासन, वैश्विक जलवायु पहल में भारत का नेतृत्व 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCC) के पार्टियों के 29वें सम्मेलन (सीओपी29) का समापन बाकू, अजरबैजान में हुआ। इस सम्मेलन में लगभग 200 देशों के मध्य वैश्विक जलवायु चुनौतियों से निपटने के उद्देश्य संबंधी समझौतों पर वार्ता हुई।

COP29 की मुख्य बातें क्या हैं?

  • नया जलवायु वित्त लक्ष्य: COP29 में एक बड़ी सफलता जलवायु वित्त पर नया सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (NCQG) है। इसका उद्देश्य विकासशील देशों के लिये जलवायु वित्त को वर्ष 2035 तक पूर्व लक्ष्य 100 अमेरिकी डॉलर से बढ़ाकर 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष तक अर्थात् तीन गुना कर विकसित देशों को आगे रखना है। 
    • इसमें सभी हितधारकों से वर्ष 2035 तक समस्त सार्वजनिक और निज़ी स्रोतों से जलवायु वित्तपोषण को बढ़ाकर 1.3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष करने का आह्वान किया गया है, ताकि विकासशील देशों को जलवायु प्रभावों को कम करने और उनसे अनुकूलन करने में सहायता मिल सके।
  • कार्बन बाज़ार समझौता: COP29 ने कार्बन बाज़ारों के लिये तंत्र को अंतिम रूप देने के लिये एक ऐतिहासिक समझौता किया, जिसमें देश-दर-देश व्यापार (पेरिस समझौते का अनुच्छेद 6.2) और संयुक्त राष्ट्र (UN) के तहत एक केंद्रीकृत कार्बन बाज़ार (पेरिस समझौते का अनुच्छेद 6.4) शामिल है।
  • मीथेन कम करने पर घोषणा: अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन और संयुक्त अरब अमीरात समेत 30 से अधिक देशों ने जैविक अपशिष्ट से मीथेन कम करने पर COP29 घोषणा का समर्थन किया (भारत इसमें हस्ताक्षरकर्त्ता नहीं है)। 
    • घोषणापत्र में अपशिष्ट क्षेत्र के मीथेन उत्सर्जन को लक्षित किया गया है, जो वैश्विक मीथेन उत्सर्जन में 20% का योगदान देता है। यह पाँच प्राथमिकता वाले क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करता है: राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC), विनियमन, डेटा, वित्त और भागीदारी।
    • देशों को अपने NDC में जैविक अपशिष्ट से मीथेन उत्सर्जन को कम करने के लिये क्षेत्रीय लक्ष्य शामिल करने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है। 
    • यह वैश्विक मीथेन प्रतिज्ञा (भारत इस पर हस्ताक्षरकर्त्ता नहीं है) पर आधारित है, जिसका लक्ष्य वर्ष 2030 तक वैश्विक मीथेन उत्सर्जन को 30% तक कम करना है, तथा कृषि, अपशिष्ट एवं जीवाश्म ईंधन से निष्कासित मीथेन की समस्या का समाधान करना है।
  • स्वदेशी लोग और स्थानीय समुदाय: COP29 ने जलवायु परिवर्तन से निपटने में स्वदेशी लोगों और स्थानीय समुदायों के महत्त्व पर ज़ोर दिया।
    • COP29 ने बाकू कार्ययोजना को अपनाया और स्थानीय समुदाय और स्वदेशी लोगों के मंच (LCIPP) के तहत सुविधाजनक कार्य समूह (FWG) के अधिदेश को नवीनीकृत किया।
      • बाकू कार्ययोजना में स्वदेशी ज्ञान को आधुनिक विज्ञान के साथ जोड़ने, जलवायु संवादों में स्वदेशी भागीदारी को बढ़ाने तथा जलवायु नीतियों में स्वदेशी मूल्यों को शामिल करने को प्राथमिकता दी गई है।
      • FWG बाकू कार्ययोजना को लिंग-संवेदनशील और सहयोगात्मक तरीके से क्रियान्वित करेगा, जिसकी प्रगति की समीक्षा 2027 में की जाएगी।
      • LCIPP का FWG एक गठित निकाय है जिसकी स्थापना COP24 में LCIPP को और अधिक क्रियाशील बनाने तथा विविध निकायों के साथ कार्य करते हुए ज्ञान, सहभागिता और जलवायु नीतियों पर इसके कार्यों को सुगम बनाने के लिये की गई थी।
  • लिंग और जलवायु परिवर्तन: लैंगिक दृष्टिकोण पर लीमा वर्क प्रोग्राम (LWPG) को अगले 10 वर्षों के लिये बढ़ाने का निर्णय लिया गया, जिससे जलवायु कार्यवाही में लैंगिक समानता की पुष्टि हुई और COP30 (बेलेम, ब्राज़ील) में एक नई लैंगिक कार्यवाही योजना को अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया गया।
    • 2014 में स्थापित LWPG का उद्देश्य लैंगिक संतुलन को बढ़ावा देना तथा लैंगिक विचारों को एकीकृत करना है, ताकि कन्वेंशन और पेरिस समझौते के तहत लैंगिक-संवेदनशील जलवायु नीति और कार्यवाही सुनिश्चित की जा सके।
  • किसानों के लिये बाकू हार्मोनिया जलवायु पहल: खाद्य और कृषि संगठन (FAO) के साथ साझेदारी में COP29 प्रेसीडेंसी ने किसानों के लिये बाकू हार्मोनिया जलवायु पहल शुरू की है।
  • यह एक ऐसा मंच है जो खाद्य और कृषि के क्षेत्र में मौजूदा जलवायु पहलों के बिखरे हुए परिदृश्य को एक साथ लाता है, ताकि किसानों के लिये समर्थन प्राप्त करना आसान हो सके और वित्त तक उनकी पहुँच सुगम हो सके। 

COP 29 पर भारत का रुख क्या है?

  • समझौते का विरोध: भारत ने NCQG की अपर्याप्तता की आलोचना करते हुए उसे अस्वीकार कर दिया। विकासशील देशों के सामने आने वाली जलवायु चुनौतियों से निपटने के लिये 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर की प्रतिबद्धता को अपर्याप्त माना गया।
    • भारत, अन्य ग्लोबल साउथी देशों के साथ मिलकर, विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन की बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिये कम से कम 1.3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर प्रतिवर्ष की वकालत कर रहा है, जिसमें 600 बिलियन अमेरिकी डॉलर अनुदान या अनुदान-समतुल्य संसाधन के रूप में शामिल हैं। 
  • पेरिस समझौते का अनुच्छेद 9: भारत ने इस बात पर ज़ोर दिया कि विकसित देशों को पेरिस समझौते के अनुच्छेद 9 के अनुरूप जलवायु वित्त जुटाने में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिये, जिसमें विकसित देशों पर ज़िम्मेदारी डाली गई है। 
    • हालाँकि, अंतिम समझौते ने विकसित देशों को उनके ऐतिहासिक उत्सर्जन और वित्तीय प्रतिबद्धताओं के लिये जवाबदेह ठहराने के बजाय, विकासशील देशों सहित सभी पक्षों पर ज़िम्मेदारी डाल दी।
  • कमज़ोर राष्ट्रों के साथ एकजुटता: भारत ने अल्प विकसित देशों (LDC) और लघु द्वीप विकासशील राज्यों (SIDS) की चिंताओं का समर्थन किया, जिन्होंने यह कहते हुए वार्ता से किनारा कर लिया कि उचित और पर्याप्त वित्तीय लक्ष्य की उनकी मांगों को नजरअंदाज किया जा रहा है। 

भारत के लिये COP क्यों महत्त्वपूर्ण है?

  • भारत की जलवायु प्रतिबद्धताएँ और उपलब्धियाँ:  भारत की पहली NDC वर्ष 2015 में प्रस्तुत की गई थी, और इसने वर्ष 2022 में अपने जलवायु लक्ष्यों को अद्यतन किया, जिसमें उत्सर्जन तीव्रता को 33-35% तक कम करने और गैर-जीवाश्म ईंधन से अपनी ऊर्जा क्षमता का 40% पूरा करने जैसी उपलब्धियों पर प्रकाश डाला गया।
  • जलवायु वित्त को सुरक्षित करना: भारत हरित जलवायु कोष और कार्बन क्रेडिट बाज़ार जैसे तंत्रों के माध्यम से प्राप्त धन का प्रमुख लाभार्थी रहा है।
    • भारत के लिये बाढ़ और चक्रवात जैसे जलवायु-प्रेरित प्रभावों से निपटने के लिये वित्तीय सहायता प्राप्त करने हेतु हानि और क्षति कोष पर COP चर्चाएँ महत्त्वपूर्ण हैं।
  • वैश्विक जलवायु नेतृत्व: COP भारत को वैश्विक जलवायु कार्रवाई में अपने नेतृत्व का दावा करने का अवसर प्रदान करता है, जिसमें वैश्विक जलवायु चुनौती के लिये स्थायी समाधान को आगे बढ़ाने के क्रम में अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) जैसी पहल शामिल हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव का लाभ उठाना: भारत COP में समान विचारधारा वाले विकासशील देशों (LMDC) और BASIC समूह का नेतृत्व करता है, जो ग्लोबल साउथ के प्रभाव को बढ़ाने के साथ न्यायसंगत जलवायु कार्रवाई एवं वित्तपोषण में सहायक है।
    • COP जैसे मंच भारत को पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली (LiFE) के साथ जलवायु हेतु मैंग्रोव गठबंधन जैसी पहलों को बढ़ावा देने के अवसर प्रदान करते हैं।

वैश्विक जलवायु शासन में भारत की भूमिका किस प्रकार विकसित हुई है?

  • 1970 से 2000 का दशक: इस दौरान भारत पश्चिमी पर्यावरणीय आह्वानों के प्रति सतर्क था क्योंकि भारत को आशंका थी कि इससे उसके आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न होगी।
    • वर्ष 1972 के स्टॉकहोम सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पर्यावरण संरक्षण और गरीबी उन्मूलन के बीच संतुलन की आवश्यकता पर बल दिया था।
    • वर्ष 1992 के रियो डी जेनेरियो में आयोजित पृथ्वी शिखर सम्मेलन में UNFCCC पर हस्ताक्षर करके भारत ने औपचारिक रूप से सतत् विकास को अपनाया तथा साझा लेकिन विभेदित उत्तरदायित्वों (CBDR) का समर्थन किया, जिसमें विकसित तथा विकासशील देशों की अलग-अलग क्षमताओं एवं ज़िम्मेदारियों को मान्यता दी गई।
    • भारत ने वर्ष 2002 में COP8 की मेजबानी की थी, जो जलवायु वार्ता में निष्क्रिय भागीदारी से सक्रिय भूमिका की ओर भारत के बदलाव का प्रतीक थी।
    • भारत ने वर्ष 2008 में जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (NAPCC) को अपनाया था, जो उत्सर्जन को कम करने एवं नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के प्रति भारत की प्रतिबद्धता का परिचायक है।
  • वर्ष 2015 के बाद: पेरिस समझौता, 2015 से वैश्विक जलवायु शासन में प्रमुख बदलाव आने के साथ भारत जैसे विकासशील देशों को असंगत दायित्वों का सामना किये बिना जलवायु कार्रवाई में योगदान करने का प्रोत्साहन मिला।
    • कठोर उत्सर्जन न्यूनीकरण लक्ष्यों के क्रम में राष्ट्रीय स्तर पर अभिनिर्धारित योगदान (NDC) की ओर परिवर्तन से भारत को अपनी जलवायु प्रतिबद्धताओं को विकासात्मक प्राथमिकताओं के साथ संरेखित करने में सहायता मिलती है।
    • भारत ने राष्ट्रीय स्तर पर अभिनिर्धारित योगदान (NDC) प्रस्तुत किये तथा वर्ष 2022 में उन्हें अद्यतन किया।
    • भारत ने वर्ष 2022 में अन्य विकासशील देशों के लिये जलवायु वित्तपोषण हेतु 1.28 बिलियन अमेरिकी डॉलर का योगदान दिया, जिससे जलवायु नेतृत्वकर्त्ता के रूप में इसकी भूमिका मज़बूत हुई।
  • जलवायु समानता एवं न्याय के लिये वकालत: भारत विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को वित्तीय एवं तकनीकी सहायता प्रदान करने की वकालत करने के साथ हरित जलवायु कोष एवं लाॅस एंड डैमेज फंड जैसी व्यवस्थाओं का सक्रिय रूप से समर्थन करता है।
  • अग्रणी वैश्विक पहल: 
    • अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA): वर्ष 2015 में भारत और फ्राँस द्वारा पेरिस में COP21 शिखर सम्मेलन में शुरू किये गए ISA का उद्देश्य वैश्विक स्तर पर सौर ऊर्जा को बढ़ावा देना है। 
    • पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली (LiFE): इसके तहत कार्बन फुटप्रिंट को कम करने के लिये धारणीय उपभोग पैटर्न की वकालत की गई है।
    • जलवायु हेतु मैंग्रोव गठबंधन: यह जलवायु प्रभावों को कम करने के लिये मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण को बढ़ावा देने पर केंद्रित है। 

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: COP29 के परिणामों एवं वैश्विक जलवायु शासन हेतु उनके निहितार्थों पर चर्चा कीजिये। भारत का दृष्टिकोण जलवायु लक्ष्यों एवं विकास प्राथमिकताओं के साथ किस प्रकार संतुलित है?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स

प्रश्न. संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (यू.एन.एफ.सी.सी.सी.) के सी.ओ.पी. के 26वें सत्र के प्रमुख परिणामों का वर्णन कीजिये। इस सम्मेलन में भारत द्वारा की गई वचनबद्धताएँ क्या हैं? (2021)


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