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इस्पात क्षेत्र का डीकार्बोनाइज़ेशन

  • 20 Sep 2024
  • 24 min read

प्रारंभिक परीक्षा:

उत्पादन -आधारित प्रोत्साहन, कार्बन कैप्चर , प्राकृतिक गैस, कार्बन डाइऑक्साइड , ग्रीनहाउस गैस (GHG), जीवाश्म ईंधन, ग्रीन हाइड्रोजन, सर्कुलर इकोनॉमी, PAT (प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार) योजना

मुख्य परीक्षा:

भारत का इस्पात उद्योग और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, भारत के इस्पात क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने का महत्त्व, सरकारी पहल और नीतियाँ

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों? 

इस्पात मंत्रालय, बढ़ती पर्यावरणीय चिंताओं और सतत् उद्योग प्रथाओं पर दबाव की प्रतिक्रिया में इस्पात क्षेत्र में डीकार्बोनाइज़ेशन पहलों का समर्थन करने के लिये वित्तपोषित नीतियों पर सक्रिय रूप से विचार कर रहा है ।

इस्पात क्षेत्र के डीकार्बोनाइज़ेशन के लिये किन विकल्पों पर विचार किया जा रहा है?

  • उत्पादन-आधारित प्रोत्साहन (PLI): इस्पात मंत्रालय डीकार्बोनाइज़ेशन परियोजनाओं को वित्तपोषित करने के लिये PLI योजनाओं का उपयोग करने पर विचार कर रहा है। हालाँकि ये चर्चाएँ अभी प्रारंभिक चरण में हैं और सटीक व्यवस्था को अभी अंतिम रूप दिया जाना बाकी है।
    • इस्पात मंत्रालय की एक रिपोर्ट का अनुमान है कि व्यापक डीकार्बोनाइज़ेशन के लिये लगभग 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता होगी। इसमें लघु इस्पात मिलों में प्रौद्योगिकी उन्नयन के लिये 13 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक और लोहे की प्रत्यक्ष कमी और कार्बन कैप्चर जैसी उन्नत प्रौद्योगिकियों के लिये अतिरिक्त 150 बिलियन अमेरिकी डॉलर शामिल हैं।
      • लोहे का प्रत्यक्ष अपचयन, ठोस अवस्था में लौह अयस्क या अन्य लौह युक्त पदार्थों से ऑक्सीजन के निष्कासन की प्रक्रिया है, अर्थात बिना पिघले, जैसा कि वात्याभट्टी में होता है।
    • भारत की हरित इस्पात नीति पर काम चल रहा है तथा इस क्षेत्र में डीकार्बोनाइज़ेशन गतिविधियों के लिये विभिन्न PLI योजनाओं पर चर्चा की जा रही है, हालाँकि ये अभी भी प्रारंभिक चरण में हैं।
  • प्राकृतिक गैस: उत्सर्जन को कम करने के लिये वात्याभट्टियों में कोयले या कोक के संभावित विकल्प के रूप में प्राकृतिक गैस पर विचार किया जा रहा है।
    • अधिकांश भारतीय इस्पात संयंत्रों में ऊर्जा खपत 6-6.5 गीगा कैलोरी (GCAL)/टन है, जो कोयले के उपयोग और पुरानी प्रौद्योगिकियों के कारण  विदेशी संयंत्रों की तुलना में 4.5-5 GCAL/टन से अधिक है।
      • भारत के इस्पात उद्योग में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) की तीव्रता वर्ष 2005 में 3.1 T/tcs( (उत्पादित कच्चे इस्पात का टन/टन) से घटकर वर्ष 2020 तक 2.64 T/tcs हो जाने का अनुमान है, तथा वर्ष 2030 तक इसे 2.4 T/tcs (1% वार्षिक कमी) तक पहुँचाने का लक्ष्य है।
  • आयात शुल्क और संरक्षण उपाय: मूल्य समायोजन, आयात शुल्क में वृद्धि (संभावित रूप से 7.5% से 10-12% तक) और सुरक्षा शुल्क जैसे तंत्रों के माध्यम से घरेलू उद्योग को विदेशी आयात से बचाने के लिये चर्चा चल रही है ।
    • इसका लक्ष्य आयात और निर्यात की प्रवृत्तियों को संतुलित करना है, क्योंकि भारत वित्त वर्ष 2024 में इस्पात का शुद्ध निर्यातक से शुद्ध आयातक बन गया है, जिसमें व्यापार घाटा 1.1 मिलियन टन है।
    • ये उपाय, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों से प्रतिस्पर्द्धात्मक दबावों का समाधान करते हुए, इस्पात क्षेत्र के डीकार्बोनाइज़ेशन प्रयासों का समर्थन करने की व्यापक रणनीति का हिस्सा है।

इस्पात क्षेत्र का डीकार्बोनाइज़ेशन क्या है?

  • इस्पात क्षेत्र के डीकार्बोनाइज़ेशन से तात्पर्य इस्पात उत्पादन में कार्बन-डाई-ऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन और समग्र कार्बन फुटप्रिंट को कम करने और हरित इस्पात के उत्पादन की प्रक्रिया से है । यह जलवायु परिवर्तन और स्थिरता को कम करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • भारत के इस्पात उद्योग का अवलोकन: भारत 179.5 मिलियन टन क्षमता के साथ दूसरा सबसे बड़ा कच्चा इस्पात उत्पादक है और 55 मिलियन टन (वित्त वर्ष 2023-24) के साथ सबसे बड़ा स्पंज आयरन उत्पादन करता है ।
    • भारत का प्रति व्यक्ति इस्पात खपत 97.7 किलोग्राम (वित्त वर्ष 2024) है, जो वैश्विक औसत 221.8 किलोग्राम (2022) से कम है। राष्ट्रीय इस्पात नीति 2017 का लक्ष्य वर्ष 2030 तक खपत को 160 किलोग्राम तक पहुँचाना है, जिसके पश्चात् इसमें तीव्र वृद्धि की उम्मीद है।
    • भारत इस्पात का शुद्ध आयातक बना हुआ है, जिसमें विगत वर्ष की तुलना में आयात में 25% की वृद्धि हुई है , तथा वित्त वर्ष 2025 के अप्रैल माह से अगस्त माह की अवधि के दौरान निर्यात में 40% की कमी आई है। 
  • भारत की जलवायु प्रतिबद्धता: वैश्विक ग्रीनहाउस गैस (GHG) संचय में केवल 4% का योगदान देने के बावज़ूद, वैश्विक जनसंख्या का 17% हिस्सा यहीं रहता है, भारत निम्न-कार्बन विकास के लिये प्रतिबद्ध है ।
  • इस्पात के डीकार्बोनाइज़ेशन का महत्त्व: भारत के कुल उत्सर्जन में इस्पात उद्योग का योगदान 10-12% है, जिससे देश के जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिये इसका डीकार्बोनाइज़ेशन महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
    • इस्पात मंत्रालय ने डीकार्बोनाइज़ेशन के लिये 14 कार्यबलों का गठन किया है, जो हरित इस्पात को प्रोत्साहित करने, डीकार्बोनाइज़ेशन लीवर को सक्षम करने और परिवर्तन का समर्थन करने पर ध्यान केंद्रित करेंगे।
  • हरित इस्पात: इसका अर्थ यह है कि जीवाश्म ईंधन के बगैर इस्पात विनिर्माण। ग्रीन हाइड्रोजन, अक्षय ऊर्जा का उपयोग करके इलेक्ट्रोलिसिस के माध्यम से उत्पादित , और ब्लू हाइड्रोजन, कार्बन कैप्चर के साथ जीवाश्म ईंधन से उत्पादित, इस्पात उद्योग के कार्बन फुटप्रिंट को कम करना है।
    • इस्पात क्षेत्र के कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये हरित इस्पात की ओर परिवर्तन में तेजी लाना महत्त्वपूर्ण है।

भारत के इस्पात क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने की प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

  • स्क्रैप और पेलेट का उपयोग: विकसित देश स्क्रैप पर अधिक निर्भर हैं, वहाँ पेलेट का उपयोग अधिक है तथा उनके पास न्यून कार्बन ईंधन का उपयोग होता है, जबकि भारत में स्क्रैप की कमी है तथा प्राकृतिक गैस महंगी है।
    • ऊर्जा स्रोत: भारत निम्न श्रेणी के कोयले और लौह अयस्क का उपयोग करता है, जिससे उत्सर्जन और ऊर्जा खपत में वृद्धि हो रही है।
  • भारतीय इस्पात की उत्सर्जन तीव्रता: 2.54 टन CO2/टन कच्चा इस्पात (tCO2/tcs), जो वैश्विक औसत की तुलना में 1.91 टन अधिक है।
    • भारत में एकीकृत इस्पात संयंत्र कोयला आधारित कैप्टिव विद्युत संयंत्रों का उपयोग करते हैं, जिसके कारण अन्य स्थानों के स्वच्छ ग्रिडों की तुलना में उत्सर्जन अधिक होता है।
    • अनुसंधान, विकास और प्रदर्शन (RD&D): RD&D इस्पात उद्योग में स्थिरता प्राप्त करने के लिये महत्त्वपूर्ण है, जिसमें हाइड्रोजन आधारित DRI उत्पादन जैसी उभरती प्रौद्योगिकियाँ प्रमुख भूमिका निभाती हैं। 
      • भारत का RD&D व्यय वैश्विक मानकों की तुलना में अपेक्षाकृत न्यून है, जिसमें सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का केवल 0.64% आवंटित किया गया है, इसका केवल 36% निजी क्षेत्र से प्राप्त होता है।
      • बौद्धिक संपदा अधिकारों को साझा करने जैसी चिंताओं के कारण अनुसंधान एवं विकास में समन्वित प्रयासों का अभाव है।
    • वित्त: इस्पात क्षेत्र को कार्बन-मुक्त करने के लिये वृहद् स्तर पर वित्तीय निवेश की आवश्यकता है। इस क्षेत्र को शुद्ध-शून्य बनाने की वैश्विक लागत 5.2-6.1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के बीच अनुमानित है।
  • एकमात्र भारतीय इस्पात संयंत्रों को हरित प्रौद्योगिकियों को अपनाने के लिये लगभग 283 बिलियन डॉलर की आवश्यकता होगी।
    • वित्तपोषण में आने वाली बाधाओं में इस्पात उत्पादन प्रक्रियाओं की जटिलता, उच्च पूंजी लागत और निम्न-कार्बन प्रौद्योगिकियों से संबंधित जानकारी का अभाव शामिल है।
  • CO2 उत्सर्जन निगरानी: भारत में एकीकृत इस्पात संयंत्र (ISP) उत्सर्जन प्रकटीकरण के लिये विश्व इस्पात संघ (WSA) पद्धति का उपयोग करते हैं। इस प्रक्रिया में चुनौतियों में जटिल आपूर्ति श्रृंखलाएँ, अविश्वसनीय और खंडित डेटा, अपर्याप्त मापनीय बुनियादी ढाँचा और कार्बन प्रबंधन के लिये कुशल विशेषज्ञों की कमी शामिल है, जो संपूर्ण क्षेत्र में प्रभावी CO2 उत्सर्जन की निगरानी में बाधा डालती है।

भारतीय इस्पात उद्योग में डीकार्बोनाइज़ेशन को बढ़ावा देने के लिये सरकार की क्या पहलें हैं?

  • टास्क फोर्स और रोडमैप: इस्पात क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने के लिये विभिन्न रणनीतियों का पता लगाने और सिफारिश करने के लिये इस्पात मंत्रालय के तहत 14 टास्क फोर्स का गठन किया गया। 
  • इस्पात/स्टील स्क्रैप पुनर्चक्रण नीति, 2019: यह नीति घरेलू स्तर पर उत्पन्न स्क्रैप की उपलब्धता को बढ़ाकर सर्कुलर इकोनॉमी और हरित संक्रमण को बढ़ावा देती है।
  • राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन : नवीन और नवकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (MNRE) द्वारा आरंभ किया गया यह मिशन हरित हाइड्रोजन उत्पादन और उपयोग पर केंद्रित है , जिसमें इस्पात उद्योग एक हितधारक है।
  • मोटर वाहन स्क्रैपिंग नियम, 2021: ये नियम वाहन स्क्रैपिंग के लिये एक ढाँचा स्थापित करके इस्पात क्षेत्र के लिये स्क्रैप की उपलब्धता बढ़ाते हैं।
  • राष्ट्रीय सौर मिशन: जनवरी 2010 में आरंभ किया गया यह मिशन सौर ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देता है , तथा इस्पात उद्योग में उत्सर्जन में कमी लाने में योगदान देता है।
  • प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार (PAT) योजना : राष्ट्रीय संवर्द्धित ऊर्जा दक्षता मिशन के तहत, यह योजना इस्पात क्षेत्र में ऊर्जा बचत को प्रोत्साहित करती है। 
    • PAT चक्र-III के अंत तक इस क्षेत्र ने 5.583 मिलियन टन ऑइल इक्विवैलेंट –MTOE ऊर्जा की बचत की थी, जिसके परिणामस्वरूप 20.52 मिलियन टन CO2 उत्सर्जन में कमी आई ।
  • कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम (CCTS) : जून 2023 में स्थापित यह योजना ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिये कार्बन क्रेडिट के व्यापार के लिये एक रूपरेखा प्रदान करती है । इसका उद्देश्य सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्र की कंपनियों को उनकी उत्सर्जन लागत कम करने में मदद करना है।

भारतीय इस्पात उद्योग में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये डीकार्बोनाइज़ेशन संबंधी रणनीतियाँ क्या हैं?

  • ऊर्जा दक्षता (EE): PAT (प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार) योजना ने महत्त्वपूर्ण ऊर्जा बचत को बढ़ावा दिया है, जिससे इस क्षेत्र ने 6.137 मिलियन टन ऑइल इक्विवैलेंट (MTOE) की बचत हासिल की है, जो अनुमानित लक्ष्य की तुलना में अधिक है।
  • सर्वोत्तम उपलब्ध प्रौद्योगिकियों (BAT) को अपनाकर ऊर्जा तीव्रता में और कमी लाना संभव है। हालाँकि प्रवेश दर वर्तमान की तुलना में कम है, और चुनौतियों में रेट्रोफिटिंग संबंधी बाधाएँ और उच्च पूंजी लागत शामिल हैं।
  • सामग्री दक्षता: लौह अयस्क की पेलेटीकरण प्रक्रियाओं को बढ़ाने से उत्पादकता में सुधार हो सकता है, जिससे कोयले की खपत कम हो सकती है। इस्पात मंत्रालय इन प्रौद्योगिकियों के लिये प्रोत्साहन और समर्थन पर विचार कर रहा है।
  • ग्रीन हाइड्रोजन: ग्रीन हाइड्रोजन ब्लास्ट और शाफ्ट भट्टियों में जीवाश्म ईंधन का स्थान ले सकता है और 100% हाइड्रोजन-आधारित डायरेक्ट रिड्यूस्ड आयरन (DRI) के लिये इसकी खोज की जा रही है। हालाँकि इस पर शोध चल रहा है, जिसमें टाटा स्टील और JSW जैसी कंपनियाँ भारत में अग्रणी हैं।
  • हाइड्रोजन इंजेक्शन से कोयले की खपत और CO2 उत्सर्जन में कमी आ सकती है। यदि ग्रीन हाइड्रोजन की लागत घटकर 1 अमेरिकी डॉलर प्रति किलोग्राम हो जाए, तो खपत में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है।
  • कार्बन कैप्चर, उपयोग और भंडारण (CCUS): CCUS इस्पात क्षेत्र में गहन डीकार्बोनाइजेशन प्राप्त करने के लिये महत्त्वपूर्ण है, जो वर्तमान प्रौद्योगिकियों से होने वाले उत्सर्जन में 56% की कमी ला सकता है।
  • भारत के पास CCUS के साथ कुछ अन्य अनुभव है, जिसमें कुछ पायलट प्रोजेक्ट भी शामिल हैं। हालाँकि, उच्च लागत और उच्च शुद्धता वाले CO2 की आवश्यकता संबंधी महत्त्वपूर्ण बाधाएँ हैं । इस्पात मंत्रालय गैर-हरित हाइड्रोजन-आधारित CCU अनुप्रयोगों और कार्बन रीसाइक्लिंग जैसी नवीन तकनीकों की खोज कर रहा है।
  • बायोचार: इसका उत्पादन फसल अवशेष, बाँस, वन अवशेष और खोई जैसे  बायोमास से किया जाता है, जो लौह एवं इस्पात क्षेत्र में कार्बन उत्सर्जन को काफी कम कर सकता है।
  • इसमें कोयले तथा कोक के समतुल्य धातुकर्म गुण हैं, इसमें इन जीवाश्म ईंधनों का आंशिक या पूर्ण रूप से स्थानापन्न करने की क्षमता है।
  • बायोचार का उपयोग विभिन्न प्रक्रियाओं में किया जा सकता है, जिसमें लौह अयस्क सिंटरिंग, पैलेट विनिर्माण, कोक उत्पादन और विद्युत आर्क भट्टियाँ शामिल हैं। इसमें प्रति टन स्टील में 1.19 टन CO2 तक उत्सर्जन में कमी करने की क्षमता है।
  • चुनौतियों में अपर्याप्त बायोमास आपूर्ति शृंखला, मशीनीकरण की कमी, भंडारण अवसंरचना का अभाव और सीमित वैज्ञानिक डेटा शामिल हैं। 
  • इस्पात मंत्रालय बायोचार प्रौद्योगिकियों के विकास को समर्थन देने के लिये अनुसंधान एवं विकास सहायता, सम्मिश्रण अधिदेश और बाज़ार तंत्र सहित उपायों पर विचार कर रहा है।

आगे की राह

  • हरित इस्पात की परिभाषा: इस्पात क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने तथा कम उत्सर्जन वाले स्टील उत्पादों की मांग को बढ़ावा देने  के लिये हरित इस्पात की स्पष्ट परिभाषा आवश्यक है।
    • वर्तमान में हरित इस्पात की कोई सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत परिभाषा नहीं है, यद्यपि कई संगठन और देश इस दिशा में काम कर रहे हैं।
  • नीतिगत समर्थन: ब्लास्ट फर्नेस-बेसिक ऑक्सीजन फर्नेस (BF-BOF) और डायरेक्ट रिडक्शन आयरन-इलेक्ट्रिक आर्क फर्नेस प्रक्रियाओं में BAT को अपनाने से वैश्विक ऊर्जा खपत मानदंडों को पूरा करने में सहायता मिल सकती है।
  • स्क्रैप रीसाइक्लिंग: स्क्रैप रीसाइक्लिंग को बढ़ावा देने से महत्त्वपूर्ण संसाधनों की बचत हो सकती है और उत्सर्जन में कमी आ सकती है। इस्पात मंत्रालय स्क्रैप रीसाइक्लिंग क्षेत्र को औपचारिक बनाने और सर्कुलर अर्थव्यवस्था पहलों का समर्थन करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है।
  • अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण: वैश्विक इस्पात उद्योग को प्रभावी डीकार्बोनाइजेशन के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है। भारत अंतर्राष्ट्रीय मंचों के साथ समन्वय करके, वैश्विक सलाहकार परिषद् का निर्माण करके और घरेलू संघ बनाकर वैश्विक अनुभवों का लाभ उठा सकता है। 
    • भारत को बहुपक्षीय वित्तीय विकल्पों की खोज करनी चाहिये तथा वैश्विक विशेषज्ञता और वित्तीय सहायता को एकीकृत करते हुए इस्पात डीकार्बोनाइजेशन में नेतृत्व करने के लिये एक राष्ट्रीय हरित इस्पात थिंक टैंक की स्थापना करनी चाहिये ।
  • कौशल विकास: हरित इस्पात उद्योग में परिवर्तन के लिये कार्यबल को नवीन प्रौद्योगिकियों और प्रक्रियाओं के अनुकूल बनाने की आवश्यकता होगी, जिसमें हाइड्रोजन आधारित उत्पादन, CCUS और अन्य निम्न-कार्बन नवाचार शामिल हैं।
    • सरकार, शैक्षिक संस्थानों और निजी क्षेत्र के बीच सहयोगात्मक प्रयास यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि कार्यबल इन परिवर्तनों के लिये तैयार है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत की जलवायु प्रतिबद्धताओं को प्राप्त करने में इस्पात क्षेत्र के डीकार्बोनाइजेशन की भूमिका पर चर्चा कीजिये। भारत पर्यावरणीय स्थिरता के साथ औद्योगिक विकास की आवश्यकता को कैसे संतुलित कर सकता है?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

प्रारंभिक:

‘आठ कोर उद्योग सूचकांक' में निम्नलिखित में से किसको सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है? (2015)

(a) कोयला उत्पादन
(b) विद्युत उत्पादन
(c) उर्वरक उत्पादन
(d) इस्पात उत्पादन


उत्तर: (b)


प्रश्न 2. भारत में इस्पात उत्पादन उद्योग को निम्नलिखित में से किसके आयात की अपेक्षा होती है (2015)

(a) शोरा
(b) शैल फॉस्फेट (रॉक फॉस्फेट)
(c) कोककारी कोयला
(d) उपरोक्त सभी

उत्तर: (c)


प्रश्न 3. निम्नलिखित में से कौन-से कुछ महत्त्वपूर्ण प्रदूषक हैं जो भारत में इस्पात उद्योग द्वारा मुक्त किये जाते हैं? (2014)

  1. सल्फर के ऑक्साइड
  2. नाइट्रोजन के ऑक्साइड
  3. कार्बन मोनोऑक्साइड
  4. कार्बन डाइऑक्साइड

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1, 3 और 4
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (d)


प्रश्न 4. इस्पात स्लैग निम्नलिखित में से किसके लिये सामग्री हो सकता है? (2020)

  1. आधार सड़क के निर्माण के लिये
  2. कृषि मृदा के सुधार के लिये
  3. सीमेंट के उत्पादन के लिये

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)


मुख्य परीक्षा:

1. कच्चे माल के स्रोत से दूर लौह और इस्पात उद्योगों की वर्तमान स्थिति का उदाहरण देते हुए वर्णन कीजिये। (2020)

2. विश्व में लौह एवं इस्पात उद्योग के स्थानिक प्रतिरूप में परिवर्तन का विवरण दीजिये। (2014)

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