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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

बढ़ती प्राकृतिक आपदाएँ: अनसुनी ख़तरे की घंटी

“अशक्यं प्रकृते: ऋते जीवनम्” अर्थात्– प्रकृति के बिना मानव जीवन संभव नहीं है।

मानव हमेशा से ही अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति पर निर्भर रहा है। चाहे प्राणवायु के रूप में ऑक्सीजन हो, जीवन के लिए अनिवार्य जल हो, पोषण के लिए आवश्यक प्रकाश हो अथवा मिट्टी, फल-फूल, पेड़-पौधे आदि। ये सभी संसाधन हमे प्रकृति से ही प्राप्त होते हैं। प्रकृति हमें आत्मसुख देती है परंतु मनुष्य की कभी ख़त्म न होने वाली इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाती। इसी के चलते मानव ने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कर हमेशा उसके दुष्परिणाम भोगे हैं।

मानव और प्रकृति अस्तित्व के आरंभ से ही एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। प्रकृति सदैव मनुष्य को सिखाती रही है। आज तक हमने जो हासिल किया है, वह सब प्रकृति से सीखकर ही किया है। महान वैज्ञानिक न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत भी प्रकृति की सहायता से ही समझा था। प्रकृति ने हमें सदैव देना सिखाया है। प्रकृति अपने किसी भी संसाधन का उपभोग स्वयं नहीं करती परंतु कोई प्रकृति के साथ अनावश्यक खिलवाड़ करने की कोशिश करे तो सूखा, बाढ़, तूफ़ान, सैलाब जैसी आपदाओं के माध्यम से वह हमें सचेत भी करती है।

प्रकृति द्वारा ऐसी एक चेतावनी हमें हाल ही में देखने को मिली जब दुबई में और आसपास के इलाकों में कुछ ही घंटे में तूफान आने के बाद बहुत भारी बेमौसम बरसात हुई। यह बरसात कितनी भयंकर थी इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1949 में रिकॉर्ड की गणना शुरू होने के बाद से यह एक दिन में सर्वाधिक वर्षा थी। यह इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि प्राकृतिक रूप से यह क्षेत्र मरुस्थल है और मरुस्थल में इतनी वर्षा होना बड़े खतरे की घंटी है। इस हालिया आपदा का प्रत्यक्ष कारण जलवायु परिवर्तन को ही माना जाएगा। हालाँकि दुबई व समूचे संयुक्त अरब अमीरात में पर्यटन का विकास करने के उद्देश्य से यहाँ के प्राकृतिक पारितंत्र से काफी छेड़छाड़ की जा रही है। इसलिए इस आपदा में कथित छेड़छाड़ की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

ऐसा नहीं है कि प्रकृति का यह प्रकोप दुबई या अरब देशों तक ही सीमित हो। संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन जैसे देश प्राकृतिक आपदाओं से सर्वाधिक प्रभावित देशों की श्रेणी में आते हैं। भारत भी इस सूची में बहुत पीछे नहीं है। 21वीं सदी की शुरुआत से ही भारत में ऐसी अनेक आपदाएँ आई हैं, जिन्होंने प्रभावित जनसंख्या के साथ-साथ पूरे देश के मानस को झकझोर कर रख दिया है। उत्तराखण्ड के जोशीमठ में कुछ ही माह पहले आई आपदा इसका हालिया उदाहरण है। इसके अलावा उत्तराखण्ड में ही 2013 में आई भीषण बाढ़, 2004 में हिंद महासागर में आई सुनामी, 2001 में गुजरात के कच्छ में आया भूकंप और 2014 की कश्मीर की बाढ़ इत्यादि आपदाओं के ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें केवल हज़ारों लोगों की जानें ही नहीं गईं बल्कि स्थानीय अवसंरचना भी इनके कारण दीर्घकालिक रूप से ध्वस्त हो गई व अभी तक इन जगहों का आपदा से पहले का स्वरूप बहाल नहीं हो सका है।

इन सभी आपदाओं और इनकी आवृत्ति में वृद्धि के मूल कारण में किसी एक कारण को रेखांकित करने का प्रयास किया जाए, तो वह कारण है- जलवायु परिवर्तन। जलवायु परिवर्तन के कारण आज दुनियाभर में हलचल की स्थिति है। ऐसा लग रहा है मानो प्रकृति अपने साथ सदियों से हुए दुर्व्यवहार के कारण अकुलाने लगी है। स्थिति यह है कि जहाँ अक्सर सूखा पड़ता था, वहाँ भारी बारिश हो रही है। रूस के वर्षभर बर्फ़ से ढके रहने वाले शहरों में भी औसत वार्षिक तापमान निरंतर बढ़ता जा रहा है। भूकंप, चक्रवात और भूस्खलनों की घटनाओं में वृद्धि के लिए भी कहीं-न-कहीं जलवायु परिवर्तन ही उत्तरदायी है। जंगलों का अचानक धधक उठना भी इसी बात की ओर इंगित करता है कि जलवायु में कितनी उथल-पुथल हो रही है।

जलवायु परिवर्तन के कारकों पर विचार करें तो इसका सबसे प्रमुख कारण विषैली गैसों का वातावरण में उत्सर्जन माना जा सकता है। इस उत्सर्जन के फलस्वरूप पृथ्वी को सूर्य से आ रही घातक पराबैंगनी किरणों से संरक्षित करने वाली ओज़ोन परत का क्षरण हो रहा है। पृथ्वी में एयरोसोल की बढ़ती मात्रा पृथ्वी के जल चक्र को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रही है। इसका परिणाम हमें वर्षण के असंतुलन व वैश्विक तापन के रूप में देखने को मिलता है। वैश्विक तापन के कारण 2000 ई. के बाद हम प्रतिवर्ष अनुमानतः 267 अरब टन हिम (बर्फ) खो दे रहे हैं। अनियंत्रित रूप से बढ़ते हुए पृथ्वी के तापमान को देखते हुए ही Institute for Atmospheric & Climate Science से जुड़े वैज्ञानिक एरिक फिशर ने कहा है, “जलवायु ऐसे व्यवहार कर रही है जैसे कोई एथलीट स्टेरॉयड सेवन के बाद करता है।”

जलवायु की ऐसी दशा के मूल में मानव का वह लालची स्वभाव है, जो प्रकृति की अंतिम बूँद तक का दोहन कर लेना चाहता है। गांधी जी ने मानव की इसी मंशा के विरुद्ध चेतावनी के रूप में कहा था कि पृथ्वी सभी मनुष्यों की आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराती है परंतु किसी एक भी व्यक्ति के लालच की पूर्ति करने में इसके संसाधन कम पड़ जाएंगे। विकास की अंधी दौड़ में आगे निकलने की होड़ में मानव का सृष्टा की भूमिका में स्थापित होने की कोशिश करना चिंताजनक है। बुद्धि और तर्क की सीमाओं का परीक्षण करना और उनके पार जाना अच्छी बात है परंतु ऐसी कोशिशों के दौरान प्रकृति की ही सीमाएँ तोड़ देने से मानव के ही विनाश की पृष्ठभूमि तैयार होती है और विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के रूप में हमारे समक्ष प्रकट होती है। सैकड़ों वर्षों तक प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करने के बाद बीसवीं शताब्दी के द्वितीय अर्धांश में मानव समाज का ध्यान पृथ्वी और पर्यावरण की संरक्षण की आवश्यकता पर गया तो 1992 के रियो में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन से इस दिशा में गंभीर प्रयासों की शुरुआत हुई। हालाँकि ऐसे सभी प्रयास तब तक अपर्याप्त हैं जब तक इन्हें वास्तविकता के धरातल पर लागू नहीं किया जाए। पेरिस जलवायु समझौते में जिन बातों पर सहमति बनी थी उन्हें लागू करने से विश्व अभी भी बहुत दूर है। भारत जैसे वैश्विक दक्षिण के देश तो अपनी सीमाओं के अनुसार पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने का प्रयास कर रहे हैं परंतु इस संदर्भ में सामूहिक प्रयास किया जाना अभी भी शेष है।

और अंत में यही कहा जा सकता है कि पृथ्वी पर मानवों और अन्य जीवधारियों का निवास कर पाना दिन-प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है। और इसे पुनः निवास-योग्य बनाने के लिए किए जाने वाले प्रयास बहुत कम, बहुत धीमे और अपर्याप्त हैं। यदि इस पर शीघ्र ध्यान नहीं दिया गया तो जो हमने दुबई में देखा, वह कल राजस्थान में भी दिखेगा और सहारा मरुस्थल में भी दिखेगा। आज जहाँ वर्षावन हैं, कल वहाँ मरुस्थल होगा। जहाँ आज हिमनद हैं, कल वहाँ मैदान होंगे। जहाँ आज मैदान और भरी-पूरी आबादी है, कल वो निर्जन होंगे। इसी संदर्भ में किसी अज्ञात लेखक की निम्नलिखित पंक्तियां प्रासंगिक हो उठती हैं-

"अंतिम वृक्ष को काट दिए जाने के बाद,
अंतिम नदी को विषाक्त कर देने के बाद,
अंतिम मछली पकड़ लिए जाने के बाद,
हम पाएंगे कि पैसे को खाया नहीं जा सकता है"

  चार्वी दवे  

(लेखिका चार्वी दवे मूलत: राजस्थान की हैं। उन्होंने मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से स्नातक और सिंबायोसिस पुणे से एचआर (मानव संसाधन) में परास्नातक की उपाधि प्राप्त की है। वर्तमान में वे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। साहित्य में विशेष रुचि होने के चलते ये लेखन का कार्य करती रही हैं और लेखन में करियर बनाना चाहती हैं। संगीत में इनकी विशेष रुचि है।)

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