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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

यूरोपीय संघ का 'राइट टर्न'!

यूरोपीय संघ केवल ‘एक बाजार-एक मुद्रा’ वाला व्यापारिक संगठन नहीं है बल्कि यह गारंटी है लोकतंत्र की, आज़ादी की, न्याय की और मानव अधिकारों की। जो राष्ट्र इन गारंटियों की इज़्ज़त नहीं करते हैं, वो यूरोपीय संघ में भी नहीं रह सकते- जॉन ब्रूटन, अमेरिका में ईयू के पूर्व राजदूत.

सवाल यही है कि क्या वाकई वे राष्ट्र यूरोपीय संघ के सदस्य नहीं हो सकते? क्या यूरोपीय संसद के नतीजों ने बता दिया है कि अब इन गारंटियों की इज़्ज़त उतनी भी ज़रूरी नहीं है क्योंकि सदस्य राष्ट्रों में जो अब सरकारें चुन कर आ रही हैं वे कट्टर राष्ट्रवाद और मानव अधिकारों को कम तवज्जो देकर चुनी जा रही हैं। दक्षिणपंथी सदस्यों की संख्या बढ़ी है और संभव है कि आने वाला समय गहरे उथल-पुथल वाला हो। अब तक एक होकर दुनिया को मिसाल देने वाला रहा ईयू शायद वैसा ना रहे। बोलने का मौका तो यूक्रेन पर हमला करने वाले रूस को भी मिल ही गया है।

इटली की प्रधानमंत्री हैं लोकप्रिय चेहरा

भारत में इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी का वह विडियो खूब देखा जा रहा है, जिसमें वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उल्लास में कह रही हैं-: "हेलो फ्रॉम द मेलोडी टीम"। दरअसल उनके इस उल्लास और उत्साह की बड़ी वजह ईयू संसद यानी यूरोपीय पार्लियामेंट के चुनाव हैं। इन चुनावो में जिस तरह से इटली और उनकी पार्टी को जगह मिली है और जिस तरह से यूरोपीय संघ में धुर दक्षिणपंथियों का दबदबा कायम हो गया है, उससे टीम मेलोनी का उत्साह भी बढ़ा हुआ है। इधर उनकी पार्टी ब्रदर्स ऑफ़ इटली की ईयू संसद में सीटें बढ़ी हैं तो उधर उदारवादियों के माथे पर चिंता की लकीरें आ गई हैं। इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी ने तो अपने चुनावी अभियान में ही इस बात का तगड़ा प्रचार कर दिया था कि अब इटली तय करेगा यूरोपीय संघ के कायदे-कानून और इसका दफ्तर अब कहीं ओर नहीं बल्कि रोम होगा। इटली ईयू की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है। इसके बाद 2022 में मेलोनी ना केवल प्रधानमंत्री बनीं बल्कि अब तो यूरोपीय संघ के चुनावों में भी उन्होंने बाज़ी मार ली है। दक्षिण पंथियों के यूरोपीय संघ की संसद में मज़बूत होने का सीधा अर्थ है अप्रवासी विरोधी नियमों में सख्ती और पर्यावरण के नियमों में ढीलापन आने की आशंका। हंगरी, फिनलैंड, पोलैंड जैसे देश भी अब इसी राह पर हैं जबकि फ्रांस और बेल्जियम में इस झटके का असर इस कदर हुआ कि फ्रांस के राष्ट्रपति को अचानक मध्यावधि चुनाव की घोषणा करनी पड़ी और बेल्जियम की सत्तारूढ़ पार्टी के प्रधानमंत्री ने ईयू चुनाव में हार के बाद इस्तीफा ही दे दिया है।

क्या बादल जाएगा अब संघ का रवैया

यूरोप में इस हलचल से तत्काल भले ही बड़े परिवर्तन ना हों लेकिन आने वाले वक्त में यूरोपीय संघ को कई मोर्चों पर सख्त रवैया अपनाते हुए देखा जा सकता है। वह उस कट्टर सोच का प्रतिनिधित्व कर सकता है, जिसकी चंगुल में धीरे-धीरे अब पूरी दुनिया आ रही है। कट्टर राष्ट्रवाद, अपनी सीमा में संकटग्रस्त इंसानों को शरण देने से बचना, सुरक्षा, कृषि, उद्योग और पर्यावरण को बचाने के लिए ज़्यादा टैक्स न चुकाने जैसे मुद्दों पर ईयू के देश अलग-अलग राय रखते आए हैं, जिसकी झलक अब इस संसद में भी मिल सकती है। बेशक इससे ईयू की एक करेंसी (यूरो ), ‘एक बाज़ार और सबके अधिकार’ जैसे उद्देश्य पर असर पड़ सकता है। अब तक ईयू अपनी उदार नीतियों, मानवता में गहरे यकीन जैसे विचारों की बदौलत दुनिया में बड़ा और सम्मानित कद रखता आया है। असल में यहां से चले कई सुधार दुनिया को नई दिशा दिखाते आए हैं। यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद ईयू यूक्रेन के साथ खड़ा रहा तो इसराइल के फिलिस्तीन पर आक्रमण की भी सभी मंचों से मुख़ालिफ़त की गई। यूरोपीय यूनियन ने कोविड महामारी के समय समूचे यूरोप में बेहतर नीति के साथ काम किया और यहां वैक्सीनेशन भी इस तरह हुआ जैसे यह कई देशों का समूह नहीं बल्कि एक देश हो।

बैलेट पेपर से होता है मतदान

यूरोप में कुल 50 देश हैं जिनमें केवल 27 ही ईयू के सदस्य हैं। बीते 6 से 9 जून के बीच यूरोप के इन 27 देशों के लगभग 40 करोड़ मतदाताओं ने यूरोपीय संसद के लिए 720 सांसदों को चुना था। हर देश की अपनी चुनी हुई सरकारें हैं लेकिन ईयू के सदस्य ‘एक मुद्रा, एक बाजार’ से जुड़े हैं और इनके साझे अधिकार हैं। संघ को चलाने के लिए यूरोपीय कमीशन, यूरोपीय काउंसिल और यूरोपीय पार्लियामेंट है। ये तीनों मिलकर काम करते हैं। इस संसद के मूल में तीन डी काम करते हैं। वो तीनों डी हैं, डिबेट ,डिसिशन और डेमोक्रेटिक राइट। यूरोपीय संसद के इन 720 सदस्यों को चुनने का काम इन देशों की जनता करती है। वे अपने-अपने देश की अलग-अलग पार्टियों को वोट देते हैं। पहले-पहल वे ज़रूर अपनी पार्टी के सदस्य होते हैं लेकिन एक बार यूरोपीय संघ से जुड़ जाने के बाद वे अपने राजनीतिक झुकाव के हिसाब से संगठित हो जाते हैं। मसलन वाम ,मध्यमार्गी या दक्षिण पंथी। फ़िलहाल ऐसे सात समूह ईयू में हैं और इनके अलावा कुछ निर्दलीय सदस्य भी हैं।

भारत के बाद दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव

भारत के बाद यही दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव है। ईयू के चुनाव मतपत्रों से कराए जाते हैं, किसी मशीन से नहीं। हर देश से चुने जाने वाले सदस्यों की संख्या उस देश की आबादी पर निर्भर करती है। जैसे जर्मनी की आबादी (साढ़े आठ करोड़) सबसे ज़्यादा हैं इसलिए उनके पास ईयू संसद में सबसे अधिक (96) सीटें हैं। माल्टा की सबसे कम आबादी होने के कारण उनके पास सबसे कम (केवल 6) सीटें हैं। 2019 के ईयू चुनाव में 751 प्रतिनिधियों को चुना गया था। ईयू चुनाव में अधिकतर सदस्य देशों में वोटिंग के लिए तय उम्र 18 साल है लेकिन 2022 में बेल्जियम ने इसे घटाकर 16 साल कर दिया था। जर्मनी, माल्टा और ऑस्ट्रिया में भी 16 साल तक की उम्र के लोग वोट कर सकते हैं। ग्रीस में ईयू चुनाव के लिए वोटिंग की तय उम्र 17 साल है। वहीं, अधिकतर देशों में ईयू के चुनाव लड़ने की उम्र 18 साल है जबकि इटली और ग्रीस में 25 साल। यह चुनाव हर पांच वर्षों में होते हैं। दरअसल यूरोपीय संसद यूरोपीय लोगों और यूरोपीय संघ की संस्थाओं के बीच संपर्क स्‍थापित करने की सीधी कड़ी है। यह दुनिया की अकेली सीधी चुनी हुई अंतर्राष्ट्रीय संसद है। इसमें संसद के सदस्य यूरोपीय संघ के नागरिकों के हितों की बात करते हैं। मेंबर ऑफ यूरोपियन यूनियन (एमईपी) सदस्य देशों की सरकारों के साथ मिलकर नए-नए कानून बनाते हैं। वे क्लाइमेट चेंज और रिफ्यूजी पॉलिसी जैसे ग्लोबल मुद्दों पर फैसला लेते हैं। वे ईयू का बजट तय करते हैं।

यूरोपीय संसद नहीं बना सकती है कानून

सवाल यही है कि क्या दक्षिणपंथी सांसदों की संख्या बढ़ने से तत्काल कोई बदलाव सामने आएगा? ईयू संसद बेशक शक्तिशाली है लेकिन उतनी नहीं कि वह अपने कानून पेश कर सके। यह शक्ति यूरोपीय आयोग के पास है। संसद उसे पारित या रद्द कर सकती है लेकिन नए कानून बना नहीं सकती। अब जब दक्षिण पंथी सदस्यों की संख्या बढ़ी है तब एकाएक राष्ट्रवाद, पर्यावरण और माइग्रेशन जैसे मुद्दों पर यूरोपीय संघ का रवैया नहीं बदल पाएगा। ऐसा कर पाना यूरोपिय कमीशन और यूरोपिय कॉउंसिल के बिना संभव नहीं है और यहां अब भी सेंट्रिस्ट या मध्यमार्गियों का कब्ज़ा है। दक्षिण पंथियों के लिए 'यूरोस्केप्टिक' शब्द का प्रयोग किया जाता है यानी वे सदस्य जो राष्ट्रवाद, अप्रवासी विरोधी नीतियों, अधिनायकवाद और यहां तक कि ईयू के विरोध में ही यकीन रखते हैं। उनकी सोच है कि ईयू उनकी राष्ट्रीय सम्प्रभुता को काम आंकता है, कठोर नियमन लादता है और जिसके निर्णय सीधे जनता से जुड़े नहीं होते। उन्हें यहां ज़िम्मेदारी लेने के भाव में कमी के आलावा पारदर्शिता की कमी भी नज़र आती है। अतीत में ब्रिटेन ने इन्हीं कारणों को आधार बनाकर ईयू से नाता तोड़ा था। 2016 में वहां जनमत संग्रह कराया गया था, जिसमें जनता ने ईयू से अलग होने के पक्ष में अपना मत दिया था।

कौन हैं यूरोस्केप्टिक

फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनूअल मैक्रों बेशक उदारवादी रवैये के पक्षधर है लेकिन वहां की नेशनल रैली पार्टी को (जिसकी प्रमुख मरीन ले पैन हैं) 'यूरोस्केप्टिक' श्रेणी में रखा जा सकता है। इस पार्टी ने इन चुनावों में 30 फीसदी मत हासिल किये हैं जो मैक्रों की पार्टी से लगभग दुगुने हैं। इसीलिए ताबड़तोड़ मैक्रों को मध्यावधि चुनाव की घोषणा करनी पड़ी है। इटली की जॉर्जिया मेलोनी की ब्रदर्स ऑफ़ इटली को 28 फीसदी वोट मिले, नतीजतन वे यूरोपीय संघ और देश, दोनों में ही बड़ी नेता के तौर पर उभरी हैं। हालिया जी -7 देशों की इटली में हुई बैठक में यह जोश झलका भी। पोलैंड, जर्मनी, हंगरी ,नेदरलैंड,ऑस्ट्रिया ग्रीस में भी ऐसा ही झुकाव जोर पकड़ रहा है। ऐसा होने की पर्याप्त वज़ह है क्योंकि 2019 के बाद कई देशों में नई दक्षिणपंथी सरकारें आईं है। इटली, हंगरी, स्लोवाकिया ऐसे ही देश हैं और फ़िनलैंड, नेदरलैंड, स्वीडन में भी साझा सरकारें हैं। ईयू के वजूद पर निकट भविष्य में कोई खतरा नहीं है क्योंकि ये सभी सदस्य अभी भी बंटे हुए हैं और अपने-अपने देशों में जीत इनके लिए ज़्यादा महत्व रखती है। इनकी पहली प्राथमिकता ज़िम्मेदारी उनका अपना देश ही है। यूरोपीय संसद में उदारवादियों के पास 400 सीटें हैं। कुल 130 सीटें दक्षिणपंथियों के कब्ज़े में आई हैं जो कि कुल वोटों का 20 फीसदी हैं। इस बदलाव के बाद रूस ने ख़ुशी ज़ाहिर की है। मास्को से प्रतिक्रिया आई है कि फ्रांस और जर्मनी की इस हार से पता चलता है कि यूरोपीय संसद में दक्षिणपंथियों का संख्या बल बढ़ा है और दोनों ही देशों की युद्ध में यूक्रेन का समर्थन करने की अयोग्य नीति का जनता ने समर्थन नहीं किया है। जबकि रूस के पूर्व राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव ने कहा कि समय आ गया है, आप रिटायर हो जाएं, आप इतिहास की राख में शामिल हो चुके हैं।

बेहतरीन भूमिका में ईयू अध्यक्ष

जिस शख्सियत ने बीते पांच साल से इस पद पर कार्यरत रहकर समन्वय की मिसाल कायम की, वे हैं ईयू आयोग की अध्यक्ष और जर्मन राजनेता उर्सेला वॉन डेर लाएन। वे अब दोबारा अध्यक्ष चुन ली गई हैं। उन्होंने हर मंच से कट्टरपंथियों को चुनौती दी है। मानव मूल्यों की हिमायत की है। यूरोपीय संसद में कही गईं उनकी पंक्तियों का ज़िक्र ज़रूरी है -"हम हर इंसान की गरिमा का सम्मान करते हैं, इसे कभी भी नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए, फिर चाहे वह किसी भी हिस्से से ताल्लुक रखता हो। नफ़रत ने कभी भी सही रास्ता नहीं दिखाया है। यकीनन दक्षिणपंथियों का रुख यहां अलग है और वे अब भी असहज हो रहे हैं। यहीं लोकतंत्र है, आपको हमें भी सुनना होगा।"

  वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा  

(लेखिका वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा ढाई दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। ये दैनिक भास्कर, नईदुनिया, पत्रिका टीवी, राजस्थान पत्रिका, जयपुर में डिप्टी न्यूज़ एडिटर पद पर काम कर चुकी हैं। इन्हें संवेदनशील पत्रकारिता के लिए दिए जाने वाले ‘लाडली मीडिया अवार्ड’ के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। )


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