डेली न्यूज़ (20 Sep, 2024)



केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा एक साथ चुनाव को मंज़ूरी

प्रिलिम्स लिये:

केंद्रीय मंत्रिमंडल, एक साथ चुनाव, लोकसभा, राज्य विधानसभाएँ, एक राष्ट्र एक चुनाव, नगर पालिकाएँ, पंचायतें, भारत निर्वाचन आयोग, राज्य निर्वाचन आयोग, अविश्वास प्रस्ताव, EVMs, VVPATs, विधि आयोग, आदर्श आचार संहिता, अनुच्छेद 356, मंत्रिपरिषद

मेन्स के लिये:

एक साथ चुनाव की आवश्यकता और संबंधित चिंताएँ।

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी, जिसके तहत पूरे भारत में लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और स्थानीय निकायों के चुनाव एक साथ होंगे।

  • यह निर्णय पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली एक उच्च स्तरीय समिति द्वारा 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' योजना पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद लिया गया।

एक साथ चुनाव संबंधी समिति की प्रमुख सिफारिशें क्या हैं?

  • संविधान में संशोधन: दो विधेयकों में एक साथ चुनाव कराने के लिये संविधान में संशोधन किया जाना चाहिये।
    • विधेयक 1: लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएंगे। इसके लिये संविधान संशोधन के लिये राज्यों द्वारा अनुसमर्थन की आवश्यकता नहीं होगी।
    • विधेयक 2: नगर पालिकाओं और पंचायतों के चुनाव, लोक सभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों के साथ इस प्रकार समन्वयित किये जाएंगे कि स्थानीय निकाय के चुनाव, लोक सभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों के 100 दिनों के अंदर कराए जाएँ।
      • इसके लिये कम से कम आधे राज्यों के अनुमोदन की आवश्यकता होगी।
  • आवश्यक संशोधन: एक साथ चुनाव कराने के लिये समिति ने भारत के संविधान में 15 संशोधनों की सिफारिश की थी। कुछ प्रमुख संशोधनों में शामिल हैं:
  • अनुच्छेद 82A: कोविंद समिति द्वारा अनुशंसित पहला विधेयक संविधान में एक नया अनुच्छेद 82A जोड़ने से शुरू होगा।
  • अनुच्छेद 82A द्वारा वह प्रक्रिया स्थापित होगी जिसके द्वारा देश में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिये एक साथ चुनाव कराने की प्रणाली लागू होगी।
    • इसने सिफारिश की है कि अनुच्छेद 327 के तहत संसद की शक्ति का विस्तार करके इसमें “एक साथ चुनाव कराने” को भी शामिल किया जाना चाहिये
  • अनुच्छेद 83 और अनुच्छेद 172: इसने सिफारिश की कि अनुच्छेद 83(4) और 172(4) के तहत लोकसभा या राज्य विधानसभा शेष “अधूरे कार्यकाल” के लिये कार्य करेगी और फिर निर्धारित समय के तहत एक साथ चुनाव कराए जाने के अनुसार उसे भंग कर दिया जाएगा।
  • अनुच्छेद 324A: इस समिति ने संविधान में एक नया अनुच्छेद 324A शामिल करने का सुझाव दिया है।
    • यह नया अनुच्छेद संसद को यह सुनिश्चित करने के लिये कानून बनाने का अधिकार देगा कि नगर पालिका और पंचायत चुनाव, लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के साथ-साथ आयोजित किये जाएँ।
  • एकल मतदाता सूची और निर्वाचन पहचान पत्र: भारत निर्वाचन आयोग (ECI) राज्य निर्वाचन आयोगों (SEC) के परामर्श से चुनाव के सभी तीन स्तरों के लिये एकल मतदाता सूची और निर्वाचन पहचान पत्र तैयार कर सकता है।
    • राज्य स्तर पर मतदाता सूची और निर्वाचन पहचान पत्र के संबंध में राज्य निर्वाचन आयोग की शक्ति को भारत निर्वाचन आयोग को हस्तांतरित करने के लिये संविधान संशोधन के लिये कम से कम आधे राज्यों के अनुमोदन की आवश्यकता होगी।
  • त्रिशंकु विधानसभा या समयपूर्व विघटन: त्रिशंकु सदन अविश्वास प्रस्ताव या ऐसी किसी घटना की स्थिति में सदन की शेष अवधि के लिये नई लोकसभा या राज्य विधानसभा का गठन करने के लिये चुनाव कराए जाने चाहिये।
  • रसद आवश्यकताओं को पूरा करना: भारत निर्वाचन आयोग, राज्य निर्वाचन आयोगों के परामर्श से अग्रिम रूप से योजना बनाएगा और आकलन करेगा तथा जनशक्ति, मतदान कर्मियों, सुरक्षा बलों, ईवीएम/वीवीपीएटी आदि  के नियोजन हेतु कदम उठाएगा।
  • चुनावों का समन्वयन: चुनावों का समन्वयन करने के लिये समिति ने सुझाव दिया है कि राष्ट्रपति आम चुनावों के बाद लोकसभा की पहली बैठक पर जारी अधिसूचना के माध्यम से एक 'नियत तिथि' निर्धारित करें । 
    • यह तिथि नये चुनावी चक्र की शुरुआत का प्रतीक होगी ।
    • प्रस्तावित अनुच्छेद 82A के तहत , "नियत तिथि" के बाद आयोजित किसी भी आम चुनाव में निर्वाचित सभी राज्य विधानसभाएँ, लोकसभा के पूर्ण कार्यकाल के अंत में समाप्त होंगी , भले ही उन्होंने अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा किया हो या नहीं।
    • उदाहरण: पश्चिम बंगाल (2026) और कर्नाटक (2028) में अगले विधानसभा चुनाव के बाद मई या जून 2029 में इन विधानसभाओं का कार्यकाल समाप्त हो जाएगा और अगली लोकसभा के कार्यकाल के साथ इनको समन्वित किया जाएगा।

एक साथ चुनाव कराने पर पूर्व की सिफारिशें क्या हैं?

  • विधि आयोग: वर्ष 2018 में स्थापित 21 वें विधि आयोग ने प्रस्ताव दिया कि एक साथ चुनाव कराने से कई लाभ होंगे जिसमें लागत बचत एवं प्रशासनिक संरचनाओं और सुरक्षा बलों पर दबाव कम होना आदि शामिल हैं ।
    • वर्ष 1999 में भारत के विधि आयोग ने देश में चुनाव प्रणाली में सुधार के उपायों की जाँच करते हुए लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिये एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की थी।
  • कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय संबंधी विभाग-संबंधित संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 79 वीं रिपोर्ट में एक साथ चुनाव कराने के लिये  एक वैकल्पिक और व्यावहारिक पद्धति की सिफारिश की थी।
  • नीति आयोग: नीति आयोग ने वर्ष 2017 में एक साथ चुनाव कराने के विचार का समर्थन किया गया था।

एक साथ चुनाव क्या हैं ?

  • परिचय: एक साथ चुनाव का अर्थ लोकसभा, सभी राज्य विधानसभाओं और स्थानीय निकायों अर्थात नगर पालिकाओं और पंचायतों का एक साथ चुनाव कराना है।
    • इसका प्रभावी अर्थ यह है कि एक मतदाता एक ही दिन और एक ही समय में सरकार के सभी स्तरों के सदस्यों के चुनाव के लिये अपना वोट डालता है।
    • वर्तमान में  ये सभी चुनाव एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से होते हैं तथा प्रत्येक निर्वाचित निकाय की शर्तों के अनुसार समय-सीमा निर्धारित की जाती है।
    • इसका तात्पर्य यह नहीं है कि देश भर में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिये मतदान एक ही दिन में हो जाना चाहिये । इसे चरणबद्ध तरीके से कराया जा सकता है।
    • इसे लोकप्रिय रूप से एक राष्ट्र, एक चुनाव के रूप में जाना जाता है।
  • इतिहास: वर्ष 1967 के चौथे आम चुनाव तक एक साथ चुनाव प्रचलन में थे।
    • हालाँकि उत्तरोत्तर केंद्र सरकारों ने संवैधानिक प्रावधानों का प्रयोग करते हुए राज्य सरकारों को उनके कार्यकाल की समाप्ति से पहले ही बर्खास्त कर दिया तथा राज्यों और केंद्र में गठबंधन सरकारें विघटित होती रहीं , इसलिये एक साथ चुनाव कराने की प्रथा समाप्त हो गई।
    • इसके बाद एक साथ चुनाव कराने के चक्र के बाधित होने से देश में अब एक वर्ष में पाँच से छह चुनाव होते हैं। 
      • यदि नगर पालिका और पंचायत चुनावों को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो चुनावों की संख्या कई गुना बढ़ जाएगी
  • एक साथ चुनाव की आवश्यकता: एक साथ चुनाव की वांछनीयता पर लागत, शासन, प्रशासनिक सुविधा और सामाजिक सामंजस्य के दृष्टिकोण से चर्चा की जा सकती है।
    • लागत में कमी: लोकसभा के लिये आम चुनाव कराने में केंद्र सरकार को लगभग 4,000 करोड़ रुपये का खर्च करना होता है। राज्य के आकार के आधार पर राज्य विधानसभा चुनावों में भी काफी खर्च होता है।
      • एक साथ चुनाव कराने से इन समग्र लागतों में कमी आ सकती है।
    • अभियान मोड: मंत्रियों सहित राजनीतिक दल अक्सर राज्य में लगातार होने वाले चुनावों के कारण ‘अभियान' में लगे रहते हैं जिससे प्रभावी नीति-निर्माण एवं शासन में बाधा उत्पन्न होती है।
    • आदर्श आचार संहिता: चुनाव अवधि के दौरान (जो 45-60 दिनों तक चलती है) आदर्श आचार संहिता लागू होने के कारण केंद्र या राज्य सरकारों द्वारा नई योजनाओं या परियोजनाओं की घोषणा नहीं की जा सकती है, जिससे शासन पर और अधिक प्रभाव पड़ता है।
    • कार्यकुशलता पर प्रभाव: चुनावों के दौरान प्रशासनिक प्रक्रिया शिथिल हो जाती है क्योंकि पूरा ध्यान चुनाव कराने पर केंद्रित हो जाता है। इसके साथ ही चुनावों में अर्द्धसैनिक बलों को भी शामिल किया जाता है ।
    • सामाजिक सामंजस्य: प्रतिवर्ष चुनावों के कारण ध्रुवीकरण अभियान से बहु-धार्मिक और बहुभाषी देश में सामाजिक विभाजन और भी गहरा हो सकता है।
    • अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता: असमय चुनाव, अनिश्चितता और अस्थिरता का कारण बनते हैं जिससे आपूर्ति श्रृंखला, व्यावसायिक निवेश और आर्थिक विकास बाधित होते हैं।
    • मतदाताओं पर प्रभाव: बार-बार चुनाव होने से मतदाताओं की भागीदारी सुनिश्चित करने में चुनौती आती है। एक साथ चुनाव होने से एक बार में ही वोट डालने का अवसर मिलता है।

एक साथ चुनाव कराने से संबंधित चिंताएँ क्या हैं?

  • संघीय भावना का कमज़ोर होना: राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को क्षेत्रीय दलों पर बढ़त मिलने से संघीय भावना कमजोर हो सकती है ।
    • इससे क्षेत्रीय दल हाशिये पर जा सकते हैं जो स्थानीय मुद्दों और जमीनी स्तर के प्रचार पर निर्भर रहते हैं जबकि राष्ट्रीय दलों को बड़े संसाधनों और मीडिया प्रभाव से लाभ मिलता है ।
    • पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी ने एक साथ चुनाव कराने की आलोचना करते हुए कहा कि इससे राष्ट्रीय और स्थानीय मुद्दों के बीच का अंतर कम हो जाता है , जिससे संघवाद कमज़ोर होता है।
  • चुनावी फीडबैक: चुनाव सरकारों के लिये फीडबैक तंत्र के रूप में कार्य करते हैं । हर पाँच वर्ष में केवल एक बार चुनाव कराने से प्रभावी शासन के लिये ज़रूरी समय पर फीडबैक लूप बाधित हो सकता है
  • समयपूर्व विघटन: यदि एक साथ चुनाव कराए जाते हैं और सरकार लोकसभा में अपना बहुमत खो देती है तो यह प्रश्न उठता है कि क्या सभी राज्यों में नए चुनाव कराने की आवश्यकता होगी, भले ही सत्तारूढ़ दल के पास उन राज्यों में पूर्ण बहुमत हो। 
  • संवैधानिक संशोधन: एक साथ चुनाव कराने के लिये संविधान के अनुच्छेद 83, 85, 172 और 174 में संशोधन की आवश्यकता होगी , जो लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की अवधि और विघटन से संबंधित हैं।
    • अनुच्छेद 356 में भी परिवर्तन करने की आवश्यकता होगी, जिससे राष्ट्रपति शासन के तहत राज्य विधानसभाओं को भंग करने की अनुमति मिलती है।
  • मतदाता समन्वय: क्षेत्रीय दल मतदाताओं को शामिल करने के लिये व्यक्तिगत तरीकों पर निर्भर होते हैं जैसे घर-घर जाकर प्रचार करना, स्थानीय बैठकें और छोटी रैलियाँ आयोजित करना आदि। एक साथ होने वाले चुनावों में मतदाता कॉर्पोरेट मीडिया के प्रभाव और बड़ी संगठित रैलियों से प्रभावित हो सकते हैं।
    • एक अध्ययन में पाया गया कि 77% संभावना है कि दोनों चुनाव एक साथ होने पर मतदाता एक ही पार्टी को वोट देंगे।

एक साथ चुनाव से संबंधित चिंताओं का समाधान?

  • भारतीय शासन की लोकतांत्रिक प्रकृति: राजनेताओं को अपने कार्यकाल के अंत में पुनः चुनाव लड़ना पड़ता है , जिससे वे विधायिका के  "स्थायी सदस्य" बनने से वंचित हो जाते हैं।
    • भारतीय शासन की इस लोकतांत्रिक संरचना से यह सुनिश्चित होता है कि राजनेता अपने मतदाताओं के प्रति जवाबदेह रहें।
  • जवाबदेही तंत्र की स्थापना: मंत्रिपरिषद, विधायिका के प्रति जवाबदेह है और न्यायिक निगरानी राजनीतिक जवाबदेही बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 
    • इसलिये बार-बार चुनाव कराना राजनेताओं को जवाबदेह बनाए रखने का एकमात्र या सबसे प्रभावी साधन नहीं है।
  • भ्रष्टाचार पर लगाम: चुनावों में काफी खर्च की आवश्यकता होती है और राजनेता अक्सर चुने जाने के बाद इस खर्च की भरपाई करना चाहते हैं। इससे भ्रष्टाचार और समानांतर  ब्लैक इकॉनमी को बढ़ावा मिलता है।
  • एक साथ चुनाव कराने से भ्रष्टाचार पर काफी हद तक अंकुश लग सकता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय उदाहरण: दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन और जर्मनी जैसे संसदीय लोकतंत्रों ने अपने विधानमंडलों का कार्यकाल निश्चित कर रखा है। 
    • दक्षिण अफ्रीका में हर पाँच वर्ष में  एक साथ राष्ट्रीय और प्रांतीय चुनाव होते हैं।
    • स्वीडन और जर्मनी अपने प्रधानमंत्री और चांसलर का चुनाव हर चार वर्ष में करते हैं तथा इनमें समय से पहले चुनाव कराए बिना अविश्वास की स्थिति से निपटने की व्यवस्था होती है।

निष्कर्ष:

एक साथ चुनाव कराने से लागत में कमी, प्रशासनिक दक्षता में वृद्धि तथा शासन में कम व्यवधान जैसे संभावित लाभ मिलते हैं। हालाँकि इसमें संवैधानिक संशोधनों, तार्किक जटिलताओं और संघवाद पर चिंताओं सहित चुनौतियाँ भी शामिल हैं। परिवर्तनकारी उपायों के साथ अक्सर अल्पकालिक कठिनाइयाँ आती हैं, जिससे उन्हें लागू करना राजनीतिक रूप से जोखिम भरा हो जाता है । हितधारकों के परामर्श और चरणबद्ध कार्यान्वयन एवं संतुलित दृष्टिकोण से इन चिंताओं को दूर करने के साथ ही पूरे भारत में एक साथ चुनाव कराने के लाभों को प्राप्त किया जा सकता है। 

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत में एक साथ चुनाव कराने से संभावित लाभ और चुनौतियाँ क्या हैं?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स

निम्नलिखित में से कौन-सा कारक किसी उदार लोकतंत्र में स्वतंत्रता की सर्वोत्तम सुरक्षा को नियत करता है?

(a) एक प्रतिबद्ध न्यायपालिका
(b) शक्तियों का केन्द्रीकरण
(c) निर्वाचित सरकार
(d) शक्तियों का पृथक्करण

उत्तर: (d)


प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये-

  1. भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है जो प्रत्याशियों को किसी एक लोकसभा चुनाव में तीन निर्वाचन-क्षेत्रों से लड़ने से रोकता है।
  2.  1991 में लोकसभा चुनाव में श्री देवी लाल ने तीन लोकसभा निर्वाचन-क्षेत्रों से चुनाव लड़ा था।
  3.  वर्तमान नियमों के अनुसार, यदि कोई प्रत्याशी किसी एक लोकसभा चुनाव में कई निवार्चन-क्षेत्रों से चुनाव लड़ता है, तो उसकी पार्टी को उन निर्वाचन-क्षेत्रों के उप-चुनावों का खर्च उठाना चाहिये, जिन्हें उसने खाली किया है बशर्ते वह सभी निर्वाचन-क्षेत्रों से विजयी हुआ हो।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1      
(b)  केवल 2
(c) 1 और 3      
(d) 2 और 3

उत्तर: (b)


मेन्स

प्रश्न: राष्ट्रीय विधि निर्माता के रूप में व्यक्तिगत सांसद की भूमिका में कमी आ रही है, जिसके परिणामस्वरूप बहस की गुणवत्ता एवं परिणाम पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। चर्चा कीजिये। (2019)

प्रश्न: “भारत में स्थानीय स्वशासन प्रणाली, शासन का प्रभावी उपकरण सिद्ध नहीं हुई है।” इस कथन का आलोचनात्मक परीक्षण करते हुए इस स्थिति में सुधार हेतु उपाय बताइये। (2017)


इस्पात क्षेत्र का डीकार्बोनाइज़ेशन

प्रारंभिक परीक्षा:

उत्पादन -आधारित प्रोत्साहन, कार्बन कैप्चर , प्राकृतिक गैस, कार्बन डाइऑक्साइड , ग्रीनहाउस गैस (GHG), जीवाश्म ईंधन, ग्रीन हाइड्रोजन, सर्कुलर इकोनॉमी, PAT (प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार) योजना

मुख्य परीक्षा:

भारत का इस्पात उद्योग और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, भारत के इस्पात क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने का महत्त्व, सरकारी पहल और नीतियाँ

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों? 

इस्पात मंत्रालय, बढ़ती पर्यावरणीय चिंताओं और सतत् उद्योग प्रथाओं पर दबाव की प्रतिक्रिया में इस्पात क्षेत्र में डीकार्बोनाइज़ेशन पहलों का समर्थन करने के लिये वित्तपोषित नीतियों पर सक्रिय रूप से विचार कर रहा है ।

इस्पात क्षेत्र के डीकार्बोनाइज़ेशन के लिये किन विकल्पों पर विचार किया जा रहा है?

  • उत्पादन-आधारित प्रोत्साहन (PLI): इस्पात मंत्रालय डीकार्बोनाइज़ेशन परियोजनाओं को वित्तपोषित करने के लिये PLI योजनाओं का उपयोग करने पर विचार कर रहा है। हालाँकि ये चर्चाएँ अभी प्रारंभिक चरण में हैं और सटीक व्यवस्था को अभी अंतिम रूप दिया जाना बाकी है।
    • इस्पात मंत्रालय की एक रिपोर्ट का अनुमान है कि व्यापक डीकार्बोनाइज़ेशन के लिये लगभग 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता होगी। इसमें लघु इस्पात मिलों में प्रौद्योगिकी उन्नयन के लिये 13 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक और लोहे की प्रत्यक्ष कमी और कार्बन कैप्चर जैसी उन्नत प्रौद्योगिकियों के लिये अतिरिक्त 150 बिलियन अमेरिकी डॉलर शामिल हैं।
      • लोहे का प्रत्यक्ष अपचयन, ठोस अवस्था में लौह अयस्क या अन्य लौह युक्त पदार्थों से ऑक्सीजन के निष्कासन की प्रक्रिया है, अर्थात बिना पिघले, जैसा कि वात्याभट्टी में होता है।
    • भारत की हरित इस्पात नीति पर काम चल रहा है तथा इस क्षेत्र में डीकार्बोनाइज़ेशन गतिविधियों के लिये विभिन्न PLI योजनाओं पर चर्चा की जा रही है, हालाँकि ये अभी भी प्रारंभिक चरण में हैं।
  • प्राकृतिक गैस: उत्सर्जन को कम करने के लिये वात्याभट्टियों में कोयले या कोक के संभावित विकल्प के रूप में प्राकृतिक गैस पर विचार किया जा रहा है।
    • अधिकांश भारतीय इस्पात संयंत्रों में ऊर्जा खपत 6-6.5 गीगा कैलोरी (GCAL)/टन है, जो कोयले के उपयोग और पुरानी प्रौद्योगिकियों के कारण  विदेशी संयंत्रों की तुलना में 4.5-5 GCAL/टन से अधिक है।
      • भारत के इस्पात उद्योग में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) की तीव्रता वर्ष 2005 में 3.1 T/tcs( (उत्पादित कच्चे इस्पात का टन/टन) से घटकर वर्ष 2020 तक 2.64 T/tcs हो जाने का अनुमान है, तथा वर्ष 2030 तक इसे 2.4 T/tcs (1% वार्षिक कमी) तक पहुँचाने का लक्ष्य है।
  • आयात शुल्क और संरक्षण उपाय: मूल्य समायोजन, आयात शुल्क में वृद्धि (संभावित रूप से 7.5% से 10-12% तक) और सुरक्षा शुल्क जैसे तंत्रों के माध्यम से घरेलू उद्योग को विदेशी आयात से बचाने के लिये चर्चा चल रही है ।
    • इसका लक्ष्य आयात और निर्यात की प्रवृत्तियों को संतुलित करना है, क्योंकि भारत वित्त वर्ष 2024 में इस्पात का शुद्ध निर्यातक से शुद्ध आयातक बन गया है, जिसमें व्यापार घाटा 1.1 मिलियन टन है।
    • ये उपाय, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों से प्रतिस्पर्द्धात्मक दबावों का समाधान करते हुए, इस्पात क्षेत्र के डीकार्बोनाइज़ेशन प्रयासों का समर्थन करने की व्यापक रणनीति का हिस्सा है।

इस्पात क्षेत्र का डीकार्बोनाइज़ेशन क्या है?

  • इस्पात क्षेत्र के डीकार्बोनाइज़ेशन से तात्पर्य इस्पात उत्पादन में कार्बन-डाई-ऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन और समग्र कार्बन फुटप्रिंट को कम करने और हरित इस्पात के उत्पादन की प्रक्रिया से है । यह जलवायु परिवर्तन और स्थिरता को कम करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • भारत के इस्पात उद्योग का अवलोकन: भारत 179.5 मिलियन टन क्षमता के साथ दूसरा सबसे बड़ा कच्चा इस्पात उत्पादक है और 55 मिलियन टन (वित्त वर्ष 2023-24) के साथ सबसे बड़ा स्पंज आयरन उत्पादन करता है ।
    • भारत का प्रति व्यक्ति इस्पात खपत 97.7 किलोग्राम (वित्त वर्ष 2024) है, जो वैश्विक औसत 221.8 किलोग्राम (2022) से कम है। राष्ट्रीय इस्पात नीति 2017 का लक्ष्य वर्ष 2030 तक खपत को 160 किलोग्राम तक पहुँचाना है, जिसके पश्चात् इसमें तीव्र वृद्धि की उम्मीद है।
    • भारत इस्पात का शुद्ध आयातक बना हुआ है, जिसमें विगत वर्ष की तुलना में आयात में 25% की वृद्धि हुई है , तथा वित्त वर्ष 2025 के अप्रैल माह से अगस्त माह की अवधि के दौरान निर्यात में 40% की कमी आई है। 
  • भारत की जलवायु प्रतिबद्धता: वैश्विक ग्रीनहाउस गैस (GHG) संचय में केवल 4% का योगदान देने के बावज़ूद, वैश्विक जनसंख्या का 17% हिस्सा यहीं रहता है, भारत निम्न-कार्बन विकास के लिये प्रतिबद्ध है ।
  • इस्पात के डीकार्बोनाइज़ेशन का महत्त्व: भारत के कुल उत्सर्जन में इस्पात उद्योग का योगदान 10-12% है, जिससे देश के जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिये इसका डीकार्बोनाइज़ेशन महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
    • इस्पात मंत्रालय ने डीकार्बोनाइज़ेशन के लिये 14 कार्यबलों का गठन किया है, जो हरित इस्पात को प्रोत्साहित करने, डीकार्बोनाइज़ेशन लीवर को सक्षम करने और परिवर्तन का समर्थन करने पर ध्यान केंद्रित करेंगे।
  • हरित इस्पात: इसका अर्थ यह है कि जीवाश्म ईंधन के बगैर इस्पात विनिर्माण। ग्रीन हाइड्रोजन, अक्षय ऊर्जा का उपयोग करके इलेक्ट्रोलिसिस के माध्यम से उत्पादित , और ब्लू हाइड्रोजन, कार्बन कैप्चर के साथ जीवाश्म ईंधन से उत्पादित, इस्पात उद्योग के कार्बन फुटप्रिंट को कम करना है।
    • इस्पात क्षेत्र के कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये हरित इस्पात की ओर परिवर्तन में तेजी लाना महत्त्वपूर्ण है।

भारत के इस्पात क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने की प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

  • स्क्रैप और पेलेट का उपयोग: विकसित देश स्क्रैप पर अधिक निर्भर हैं, वहाँ पेलेट का उपयोग अधिक है तथा उनके पास न्यून कार्बन ईंधन का उपयोग होता है, जबकि भारत में स्क्रैप की कमी है तथा प्राकृतिक गैस महंगी है।
    • ऊर्जा स्रोत: भारत निम्न श्रेणी के कोयले और लौह अयस्क का उपयोग करता है, जिससे उत्सर्जन और ऊर्जा खपत में वृद्धि हो रही है।
  • भारतीय इस्पात की उत्सर्जन तीव्रता: 2.54 टन CO2/टन कच्चा इस्पात (tCO2/tcs), जो वैश्विक औसत की तुलना में 1.91 टन अधिक है।
    • भारत में एकीकृत इस्पात संयंत्र कोयला आधारित कैप्टिव विद्युत संयंत्रों का उपयोग करते हैं, जिसके कारण अन्य स्थानों के स्वच्छ ग्रिडों की तुलना में उत्सर्जन अधिक होता है।
    • अनुसंधान, विकास और प्रदर्शन (RD&D): RD&D इस्पात उद्योग में स्थिरता प्राप्त करने के लिये महत्त्वपूर्ण है, जिसमें हाइड्रोजन आधारित DRI उत्पादन जैसी उभरती प्रौद्योगिकियाँ प्रमुख भूमिका निभाती हैं। 
      • भारत का RD&D व्यय वैश्विक मानकों की तुलना में अपेक्षाकृत न्यून है, जिसमें सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का केवल 0.64% आवंटित किया गया है, इसका केवल 36% निजी क्षेत्र से प्राप्त होता है।
      • बौद्धिक संपदा अधिकारों को साझा करने जैसी चिंताओं के कारण अनुसंधान एवं विकास में समन्वित प्रयासों का अभाव है।
    • वित्त: इस्पात क्षेत्र को कार्बन-मुक्त करने के लिये वृहद् स्तर पर वित्तीय निवेश की आवश्यकता है। इस क्षेत्र को शुद्ध-शून्य बनाने की वैश्विक लागत 5.2-6.1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के बीच अनुमानित है।
  • एकमात्र भारतीय इस्पात संयंत्रों को हरित प्रौद्योगिकियों को अपनाने के लिये लगभग 283 बिलियन डॉलर की आवश्यकता होगी।
    • वित्तपोषण में आने वाली बाधाओं में इस्पात उत्पादन प्रक्रियाओं की जटिलता, उच्च पूंजी लागत और निम्न-कार्बन प्रौद्योगिकियों से संबंधित जानकारी का अभाव शामिल है।
  • CO2 उत्सर्जन निगरानी: भारत में एकीकृत इस्पात संयंत्र (ISP) उत्सर्जन प्रकटीकरण के लिये विश्व इस्पात संघ (WSA) पद्धति का उपयोग करते हैं। इस प्रक्रिया में चुनौतियों में जटिल आपूर्ति श्रृंखलाएँ, अविश्वसनीय और खंडित डेटा, अपर्याप्त मापनीय बुनियादी ढाँचा और कार्बन प्रबंधन के लिये कुशल विशेषज्ञों की कमी शामिल है, जो संपूर्ण क्षेत्र में प्रभावी CO2 उत्सर्जन की निगरानी में बाधा डालती है।

भारतीय इस्पात उद्योग में डीकार्बोनाइज़ेशन को बढ़ावा देने के लिये सरकार की क्या पहलें हैं?

  • टास्क फोर्स और रोडमैप: इस्पात क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने के लिये विभिन्न रणनीतियों का पता लगाने और सिफारिश करने के लिये इस्पात मंत्रालय के तहत 14 टास्क फोर्स का गठन किया गया। 
  • इस्पात/स्टील स्क्रैप पुनर्चक्रण नीति, 2019: यह नीति घरेलू स्तर पर उत्पन्न स्क्रैप की उपलब्धता को बढ़ाकर सर्कुलर इकोनॉमी और हरित संक्रमण को बढ़ावा देती है।
  • राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन : नवीन और नवकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (MNRE) द्वारा आरंभ किया गया यह मिशन हरित हाइड्रोजन उत्पादन और उपयोग पर केंद्रित है , जिसमें इस्पात उद्योग एक हितधारक है।
  • मोटर वाहन स्क्रैपिंग नियम, 2021: ये नियम वाहन स्क्रैपिंग के लिये एक ढाँचा स्थापित करके इस्पात क्षेत्र के लिये स्क्रैप की उपलब्धता बढ़ाते हैं।
  • राष्ट्रीय सौर मिशन: जनवरी 2010 में आरंभ किया गया यह मिशन सौर ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देता है , तथा इस्पात उद्योग में उत्सर्जन में कमी लाने में योगदान देता है।
  • प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार (PAT) योजना : राष्ट्रीय संवर्द्धित ऊर्जा दक्षता मिशन के तहत, यह योजना इस्पात क्षेत्र में ऊर्जा बचत को प्रोत्साहित करती है। 
    • PAT चक्र-III के अंत तक इस क्षेत्र ने 5.583 मिलियन टन ऑइल इक्विवैलेंट –MTOE ऊर्जा की बचत की थी, जिसके परिणामस्वरूप 20.52 मिलियन टन CO2 उत्सर्जन में कमी आई ।
  • कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम (CCTS) : जून 2023 में स्थापित यह योजना ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिये कार्बन क्रेडिट के व्यापार के लिये एक रूपरेखा प्रदान करती है । इसका उद्देश्य सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्र की कंपनियों को उनकी उत्सर्जन लागत कम करने में मदद करना है।

भारतीय इस्पात उद्योग में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये डीकार्बोनाइज़ेशन संबंधी रणनीतियाँ क्या हैं?

  • ऊर्जा दक्षता (EE): PAT (प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार) योजना ने महत्त्वपूर्ण ऊर्जा बचत को बढ़ावा दिया है, जिससे इस क्षेत्र ने 6.137 मिलियन टन ऑइल इक्विवैलेंट (MTOE) की बचत हासिल की है, जो अनुमानित लक्ष्य की तुलना में अधिक है।
  • सर्वोत्तम उपलब्ध प्रौद्योगिकियों (BAT) को अपनाकर ऊर्जा तीव्रता में और कमी लाना संभव है। हालाँकि प्रवेश दर वर्तमान की तुलना में कम है, और चुनौतियों में रेट्रोफिटिंग संबंधी बाधाएँ और उच्च पूंजी लागत शामिल हैं।
  • सामग्री दक्षता: लौह अयस्क की पेलेटीकरण प्रक्रियाओं को बढ़ाने से उत्पादकता में सुधार हो सकता है, जिससे कोयले की खपत कम हो सकती है। इस्पात मंत्रालय इन प्रौद्योगिकियों के लिये प्रोत्साहन और समर्थन पर विचार कर रहा है।
  • ग्रीन हाइड्रोजन: ग्रीन हाइड्रोजन ब्लास्ट और शाफ्ट भट्टियों में जीवाश्म ईंधन का स्थान ले सकता है और 100% हाइड्रोजन-आधारित डायरेक्ट रिड्यूस्ड आयरन (DRI) के लिये इसकी खोज की जा रही है। हालाँकि इस पर शोध चल रहा है, जिसमें टाटा स्टील और JSW जैसी कंपनियाँ भारत में अग्रणी हैं।
  • हाइड्रोजन इंजेक्शन से कोयले की खपत और CO2 उत्सर्जन में कमी आ सकती है। यदि ग्रीन हाइड्रोजन की लागत घटकर 1 अमेरिकी डॉलर प्रति किलोग्राम हो जाए, तो खपत में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है।
  • कार्बन कैप्चर, उपयोग और भंडारण (CCUS): CCUS इस्पात क्षेत्र में गहन डीकार्बोनाइजेशन प्राप्त करने के लिये महत्त्वपूर्ण है, जो वर्तमान प्रौद्योगिकियों से होने वाले उत्सर्जन में 56% की कमी ला सकता है।
  • भारत के पास CCUS के साथ कुछ अन्य अनुभव है, जिसमें कुछ पायलट प्रोजेक्ट भी शामिल हैं। हालाँकि, उच्च लागत और उच्च शुद्धता वाले CO2 की आवश्यकता संबंधी महत्त्वपूर्ण बाधाएँ हैं । इस्पात मंत्रालय गैर-हरित हाइड्रोजन-आधारित CCU अनुप्रयोगों और कार्बन रीसाइक्लिंग जैसी नवीन तकनीकों की खोज कर रहा है।
  • बायोचार: इसका उत्पादन फसल अवशेष, बाँस, वन अवशेष और खोई जैसे  बायोमास से किया जाता है, जो लौह एवं इस्पात क्षेत्र में कार्बन उत्सर्जन को काफी कम कर सकता है।
  • इसमें कोयले तथा कोक के समतुल्य धातुकर्म गुण हैं, इसमें इन जीवाश्म ईंधनों का आंशिक या पूर्ण रूप से स्थानापन्न करने की क्षमता है।
  • बायोचार का उपयोग विभिन्न प्रक्रियाओं में किया जा सकता है, जिसमें लौह अयस्क सिंटरिंग, पैलेट विनिर्माण, कोक उत्पादन और विद्युत आर्क भट्टियाँ शामिल हैं। इसमें प्रति टन स्टील में 1.19 टन CO2 तक उत्सर्जन में कमी करने की क्षमता है।
  • चुनौतियों में अपर्याप्त बायोमास आपूर्ति शृंखला, मशीनीकरण की कमी, भंडारण अवसंरचना का अभाव और सीमित वैज्ञानिक डेटा शामिल हैं। 
  • इस्पात मंत्रालय बायोचार प्रौद्योगिकियों के विकास को समर्थन देने के लिये अनुसंधान एवं विकास सहायता, सम्मिश्रण अधिदेश और बाज़ार तंत्र सहित उपायों पर विचार कर रहा है।

आगे की राह

  • हरित इस्पात की परिभाषा: इस्पात क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने तथा कम उत्सर्जन वाले स्टील उत्पादों की मांग को बढ़ावा देने  के लिये हरित इस्पात की स्पष्ट परिभाषा आवश्यक है।
    • वर्तमान में हरित इस्पात की कोई सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत परिभाषा नहीं है, यद्यपि कई संगठन और देश इस दिशा में काम कर रहे हैं।
  • नीतिगत समर्थन: ब्लास्ट फर्नेस-बेसिक ऑक्सीजन फर्नेस (BF-BOF) और डायरेक्ट रिडक्शन आयरन-इलेक्ट्रिक आर्क फर्नेस प्रक्रियाओं में BAT को अपनाने से वैश्विक ऊर्जा खपत मानदंडों को पूरा करने में सहायता मिल सकती है।
  • स्क्रैप रीसाइक्लिंग: स्क्रैप रीसाइक्लिंग को बढ़ावा देने से महत्त्वपूर्ण संसाधनों की बचत हो सकती है और उत्सर्जन में कमी आ सकती है। इस्पात मंत्रालय स्क्रैप रीसाइक्लिंग क्षेत्र को औपचारिक बनाने और सर्कुलर अर्थव्यवस्था पहलों का समर्थन करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है।
  • अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण: वैश्विक इस्पात उद्योग को प्रभावी डीकार्बोनाइजेशन के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है। भारत अंतर्राष्ट्रीय मंचों के साथ समन्वय करके, वैश्विक सलाहकार परिषद् का निर्माण करके और घरेलू संघ बनाकर वैश्विक अनुभवों का लाभ उठा सकता है। 
    • भारत को बहुपक्षीय वित्तीय विकल्पों की खोज करनी चाहिये तथा वैश्विक विशेषज्ञता और वित्तीय सहायता को एकीकृत करते हुए इस्पात डीकार्बोनाइजेशन में नेतृत्व करने के लिये एक राष्ट्रीय हरित इस्पात थिंक टैंक की स्थापना करनी चाहिये ।
  • कौशल विकास: हरित इस्पात उद्योग में परिवर्तन के लिये कार्यबल को नवीन प्रौद्योगिकियों और प्रक्रियाओं के अनुकूल बनाने की आवश्यकता होगी, जिसमें हाइड्रोजन आधारित उत्पादन, CCUS और अन्य निम्न-कार्बन नवाचार शामिल हैं।
    • सरकार, शैक्षिक संस्थानों और निजी क्षेत्र के बीच सहयोगात्मक प्रयास यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि कार्यबल इन परिवर्तनों के लिये तैयार है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत की जलवायु प्रतिबद्धताओं को प्राप्त करने में इस्पात क्षेत्र के डीकार्बोनाइजेशन की भूमिका पर चर्चा कीजिये। भारत पर्यावरणीय स्थिरता के साथ औद्योगिक विकास की आवश्यकता को कैसे संतुलित कर सकता है?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

प्रारंभिक:

‘आठ कोर उद्योग सूचकांक' में निम्नलिखित में से किसको सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है? (2015)

(a) कोयला उत्पादन
(b) विद्युत उत्पादन
(c) उर्वरक उत्पादन
(d) इस्पात उत्पादन


उत्तर: (b)


प्रश्न 2. भारत में इस्पात उत्पादन उद्योग को निम्नलिखित में से किसके आयात की अपेक्षा होती है (2015)

(a) शोरा
(b) शैल फॉस्फेट (रॉक फॉस्फेट)
(c) कोककारी कोयला
(d) उपरोक्त सभी

उत्तर: (c)


प्रश्न 3. निम्नलिखित में से कौन-से कुछ महत्त्वपूर्ण प्रदूषक हैं जो भारत में इस्पात उद्योग द्वारा मुक्त किये जाते हैं? (2014)

  1. सल्फर के ऑक्साइड
  2. नाइट्रोजन के ऑक्साइड
  3. कार्बन मोनोऑक्साइड
  4. कार्बन डाइऑक्साइड

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1, 3 और 4
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (d)


प्रश्न 4. इस्पात स्लैग निम्नलिखित में से किसके लिये सामग्री हो सकता है? (2020)

  1. आधार सड़क के निर्माण के लिये
  2. कृषि मृदा के सुधार के लिये
  3. सीमेंट के उत्पादन के लिये

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)


मुख्य परीक्षा:

1. कच्चे माल के स्रोत से दूर लौह और इस्पात उद्योगों की वर्तमान स्थिति का उदाहरण देते हुए वर्णन कीजिये। (2020)

2. विश्व में लौह एवं इस्पात उद्योग के स्थानिक प्रतिरूप में परिवर्तन का विवरण दीजिये। (2014)


वर्ष 2050 तक परिवहन क्षेत्र से CO2 उत्सर्जन में कमी

प्रिलिम्स के लिये:

विश्व संसाधन संस्थान (WRI) , कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन , वर्ष 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन लक्ष्य , इलेक्ट्रिक वाहन , आंतरिक दहन इंजन (ICE) वाहन , जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) , राष्ट्रीय हाइड्रोजन मिशन , PM-KUSUM , इथेनॉल मिश्रण , FAME पहल , अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) , राष्ट्रीय स्मार्ट ग्रिड मिशन (NSGM) , प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार (PAT) योजना

मेन्स के लिये:

परिवहन डी-कार्बोनाइज़ेशन को प्राप्त करने के लिये प्रमुख चुनौतियाँ और उपाय।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

विश्व संसाधन संस्थान (WRI) इंडिया द्वारा हाल ही में किये गए एक अध्ययन से पता चलता है कि भारत के परिवहन क्षेत्र से उच्च-महत्वाकांक्षी रणनीतियों के कार्यान्वयन के माध्यम से वर्ष 2050 तक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को 71% तक कम कर सकता है।

  • यह महत्त्वपूर्ण कमी तीन प्रमुख उपायों पर निर्भर करती है , जिनमें विद्युतीकरण को आगे बढ़ाना, ईंधन अर्थव्यवस्था मानकों को बढ़ाना, तथा परिवहन एवं गतिशीलता के स्वच्छ साधनों को अपनाना शामिल है।

विश्व संसाधन संस्थान (WRI) 

  • यह 1982 में स्थापित एक वैश्विक अनुसंधान संगठन है, जिसका मुख्यालय वाशिंगटन, संयुक्त राज्य अमेरिका में स्थित है।
  • इसका विस्तार 60 से अधिक देशों में है और पर्यावरण एवं  विकास के बीच जुड़े छह महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करता है: जलवायु, ऊर्जा, भोजन, वन, जल, तथा शहर और परिवहन।
  • WRI उच्च गुणवत्ता वाले आँकड़ों और वस्तुनिष्ठ विश्लेषण के आधार पर महत्वाकांक्षी कार्रवाई करने के लिये  सरकार, व्यवसाय और नागरिक समाज के साथ मिलकर कार्य करता है ।

रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष क्या हैं?

  • वर्तमान उत्सर्जन और लक्ष्य की आवश्यकता:
    • वर्ष 2020 में , भारत का परिवहन क्षेत्र कुल ऊर्जा-संबंधी CO2 उत्सर्जन के 14% के लिये ज़िम्मेदार था। इस क्षेत्र के लिये उत्सर्जन में कमी का रोडमैप और विशिष्ट लक्ष्य निर्धारित करने की त्वरित आवश्यकता है।
  • शुद्ध-शून्य उत्सर्जन लक्ष्यों पर प्रभाव:
  • डीकार्बोनाइजेशन की लागत-प्रभावशीलता:
    • निम्न-कार्बन परिवहन को सबसे अधिक लागत प्रभावी दीर्घकालिक नीति के रूप में पहचाना गया है , जिसमें प्रति टन CO2 समतुल्य पर 12,118 रुपए की संभावित बचत होगी।
  • इलेक्ट्रिक वाहन अधिदेश:
    • इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री बढ़ाना विशेष रूप से प्रभावी है, क्योंकि इससे सालाना 121 मिलियन टन CO2 उत्सर्जन में कमी की संभावना है। बिजली उत्पादन के डी-कार्बोनाइज़ेशन के साथ इसे पूरक बनाने से परिणाम बेहतर हो सकते हैं।
  • अतिरिक्त नीतिगत लाभ:
    • 75% नवीकरणीय ऊर्जा के साथ कार्बन-मुक्त विद्युत् मानक को लागू करने से वर्ष 2050 तक उत्सर्जन में 75% की कमी हो सकती है। 
  • भविष्य में जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता:
    • यदि कोई महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप नहीं किया गया तो वर्ष 2050 तक परिवहन क्षेत्र में जीवाश्म ईंधन की खपत चार गुना बढ़ जाने की उम्मीद है, जिसका मुख्य कारण यात्रियों और वस्तु ढुलाई की मांग में वृद्धि है।
  • वर्तमान उत्सर्जन स्रोत:
    • कार्बन उत्सर्जक क्षेत्रों में 90% हिस्सेदारी सड़क परिवहन क्षेत्र की है। रेलवे, विमानन और जलमार्ग क्षेत्र का ऊर्जा खपत में एक छोटा हिस्सा हैं।

नोट: 

  • परिवहन क्षेत्र में डी-कार्बोनाइज़ेशन: परिवहन का डी-कार्बोनाइज़ेशन, परिवहन क्षेत्र से कार्बन उत्सर्जन को न्यूनतम करने या समाप्त करने की प्रक्रिया को संदर्भित करता है, जिसका उद्देश्य परिवहन को पर्यावरणीय रूप से अधिक सतत् बनाना, साथ ही इसके कार्बन फुटप्रिंट को कम करना है।

डी-कार्बोनाइज़ेशन हेतु परिवहन क्षेत्र के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं? 

  • जीवाश्म ईंधन पर उच्च निर्भरता:
    • वैश्विक परिवहन क्षेत्र गैसोलीन और डीजल जैसे  जीवाश्म ईंधनों पर बहुत अधिक निर्भर है, जिससे स्वच्छ विकल्पों की ओर निर्भरता चुनौतीपूर्ण हो गई है।
    • जीवाश्म ईंधन अवसंरचना बहुत गहराई के साथ अंतर्निहित है, जिसके पूर्ण सुधार के लिये काफी समय एवं संसाधनों की आवश्यकता होगी।
  • BAU (सामान्य व्यवसाय) परिदृश्य:
    • BAU परिदृश्य के तहत, भारत में जीवाश्म ईंधन  (LPG, डीजल और पेट्रोल) की खपत वर्ष 2050 तक चार गुना बढ़ने की उम्मीद है, जिसका मुख्य कारण यात्रियों और वस्तु परिवहन में बढ़ती मांग है।
    • वर्ष 2050 तक यात्रियों की यात्रा में तीन गुना वृद्धि होग , जबकि वस्तु परिवहन में सात गुना वृद्धि होगी का अनुमान है।
  • स्वच्छ ऊर्जा अवसंरचना का अभाव:
    • ई.वी. चार्जिंग, हाइड्रोजन ईंधन भरने और जैव ईंधन की उपलब्धता के लिये अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे के कारण परिवहन में स्वच्छ ऊर्जा को व्यापक रूप से अपनाने में बड़ी बाधा उत्पन्न हो रही है।
  • ऊर्जा संरक्षण बाधाएँ:
    • परिवहन का डी-कार्बोनाइजेशन पावर ग्रिड के लिये नवीकरणीय ऊर्जा की उपलब्धता से निकटता से जुड़ा हुआ है।
    • कई क्षेत्रों में, विद्युत् उत्पादन में अभी भी जीवाश्म ईंधन का प्रभुत्व है, जिससे विद्युतीकरण के लाभ सीमित हो जाते हैं।
  • धीमी नीति कार्यान्वयन और विनियामक अंतराल:
    • परिवहन डी-कार्बोनाइज़ेशन के लिये नीति निर्माण और प्रवर्तन की गति अक्सर धीमी होती है। 
    • कई देशों में ईंधन दक्षता, उत्सर्जन नियमों और वैकल्पिक ईंधन के लिये सख्त नियामक ढाँचे का अभाव या अपर्याप्त है, जो विकास में बाधा डालता है।
  • उपभोक्ता व्यवहार और बाज़ार स्वीकृति:
    •  अपरिचितता, लागत संबंधी चिंताओं और कथित असुविधा के कारण वैकल्पिक परिवहन साधनों या वाहनों को अपनाने में जनता को की बाधाओं का सामना करना पड़ता है। 
    • पारंपरिक वाहनों के प्रति लगाव स्वच्छ परिवहन समाधानों को बढ़ाने के लिये एक महत्त्वपूर्ण चुनौती पेश करते हैं।
  • प्रौद्योगिकी और आपूर्ति शृंखला संबंधी बाधाएँ:
    • परिवहन डी-कार्बोनाइजेशन को प्राप्त करने के लिये बैटरी प्रौद्योगिकी, हाइड्रोजन उत्पादन और सतत् जैव ईंधन उत्पादन में प्रगति की आवश्यकता है। 
    • लिथियम और दुर्लभ पृथ्वी धातुओं जैसे महत्त्वपूर्ण घटकों के लिये आपूर्ति शृंखला व्यवधान संक्रमण को और जटिल बना सकते हैं।
  • वित्तपोषण एवं निवेश संबंधी बाधाएँ:
    • बड़े पैमाने पर परिवहन को डी-कार्बोनाइज़ करने के लिये बुनियादी ढाँचे, प्रौद्योगिकी और अनुसंधान एवं विकास में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश की आवश्यकता होती है। 
    • विकासशील देशों में, सीमित वित्तीय संसाधन और प्रतिस्पर्द्धी विकास प्राथमिकताएँ, सतत् परिवहन समाधानों में निवेश करने की क्षमता को सीमित करती हैं। 
  • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग:
    • परिवहन उद्योग के प्रभावी डीकार्बोनाइजेशन के लिए अंतर्राष्ट्रीय समन्वय की आवश्यकता होती है, लेकिन राष्ट्रीय कानूनों, मानदंडों और प्रतिबद्धता स्तरों के कारण सहयोग में बाधा आती है।

भारत की ऊर्जा संक्रमण हेतु कौन-सी पहल है?

  • राष्ट्रीय सौर मिशन:
    • जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NPECC) के तहत शुरू किये गए इस मिशन का लक्ष्य वर्ष 2022 तक 100 गीगावाट सौर क्षमता हासिल करना है, जिसे बाद में वर्ष 2030 तक संशोधित कर 280 गीगावाट कर दिया गया।
    • यह सौर ऊर्जा अवसंरचना के विकास को बढ़ावा देता है, तथा बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा संयंत्रों और छतों (Rooftop) पर सौर ऊर्जा स्थापनाओं पर ध्यान केंद्रित करता है।
  • राष्ट्रीय हाइड्रोजन मिशन (NHM):
    • 2021 में शुरू किए गए NHM का लक्ष्य भारत को हरित हाइड्रोजन के उत्पादन और व्यापार के लिये एक वैश्विक केंद्र के रूप में स्थापित करना है।
    • मिशन स्वच्छ ऊर्जा स्रोत के रूप में हाइड्रोजन के अनुसंधान, उत्पादन और उपयोग पर केंद्रित है, जिसमें वर्ष 2070 तक भारत की औद्योगिक हाइड्रोजन मांग का 19% हरित हाइड्रोजन से पूरा करने की योजना है।
  • राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति:
    • नीति जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने के लिये पारंपरिक ईंधन के साथ जैव ईंधन के मिश्रण को प्रोत्साहित करती है।
    • भारत का लक्ष्य वर्ष 2025 तक 20% ‘इथेनॉल ब्लेंडिंग’ लक्ष्य को हासिल करना है, जो परिवहन क्षेत्र में उत्सर्जन में कमी लाने हेतु वर्ष 2030 के प्रारंभिक लक्ष्य को आगे बढ़ाता है।
  • (हाइब्रिड एवं) इलेक्ट्रिक वाहनों को तेज़ी से अपनाना एवं विनिर्माण (FAME):
    • FAME पहल के तहत, सरकार ईवी और हाइब्रिड वाहनों को अपनाने को प्रोत्साहित करती है।
    • वर्ष 2019 में लॉन्च किया गया FAME-II स्वच्छ गतिशीलता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इलेक्ट्रिक दोपहिया वाहनों, बसों और चार्जिंग बुनियादी ढाँचे के लिये सब्सिडी प्रदान करता है।

आगे की राह:

  • नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग में वृद्धि:
    • भारत वर्ष 2030 के लक्ष्यों को पूरा करने और उससे आगे बढ़ने हेतु सौर और पवन ऊर्जा परियोजनाओं की स्थापना में तेज़ी ला सकता है।
    • ऊर्जा संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान मिल सकता है।
  •  ऊर्जा भंडारण अवसंरचना को मज़बूत करना:
    • नवीकरणीय ऊर्जा एकीकरण और ग्रिड स्थिरता सुनिश्चित करने के लिये बड़े पैमाने पर बैटरी भंडारण समाधान विकसित करना आवश्यक है।
    • पंप किये गए हाइड्रो-स्टोरेज हेतु उपयुक्त स्थलों की पहचान और उपयोग अतिरिक्त ऊर्जा भंडारण क्षमता प्रदान कर सकता है।
  • ग्रिड एकीकरण और आधुनिकीकरण को आगे बढ़ाना:
    • स्मार्ट मीटर और ग्रिड ऑटोमेशन तकनीकें लागू करने से ऊर्जा दक्षता में वृद्धि हो सकती है तथा नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के एकीकरण में लाभ मिल सकता है।
  • स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में नवाचार को बढ़ावा देना:
    • हरित हाइड्रोजन और उन्नत ऊर्जा भंडारण सहित उभरती हुई स्वच्छ प्रौद्योगिकियों के लिये अनुसंधान एवं विकास (R&D) में निवेश बढ़ाना भारत को ऊर्जा संक्रमण में वैश्विक अभिनेता के रूप में स्थापित कर सकता है।
  • नीति और नियामक ढाँचे को मज़बूत करना:
    • ऊर्जा नीतियों में स्थिरता और स्पष्टता सुनिश्चित करने से निवेश आकर्षित हो सकता है साथ ही ऊर्जा परियोजनाओं के सुचारू कार्यान्वयन में मदद मिल सकती है।
    • बाधाओं को दूर करने के लिये विनियमों को सुव्यवस्थित करना और नवीकरणीय ऊर्जा हेतु प्रोत्साहन शुरू करना ऊर्जा संक्रमण को गति प्रदान कर सकता है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: परिवहन के डी-कार्बोनाइज़ेशन से जुड़ी प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं, तथा वर्ष 2070 तक सतत् ऊर्जा लक्ष्यों को प्राप्त करने के तरीके सुझाइये?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स: 

Q2.  "कार्बन क्रेडिट" के संबंध में निम्नलिखित में से कौन सा कथन सही नहीं है?  (वर्ष 2011)

(A) क्योटो प्रोटोकॉल के साथ कार्बन क्रेडिट सिस्टम की पुष्टि की गई थी।
(B) कार्बन क्रेडिट उन देशों या समूहों को दिया जाता है जिन्होंने ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन अपने उत्सर्जन कोटा से कम कर दिया है।
(C) कार्बन क्रेडिट सिस्टम का लक्ष्य कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की वृद्धि को सीमित करना है।
(D) संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा समय-समय पर निर्धारित मूल्य पर कार्बन क्रेडिट का कारोबार किया जाता है।

उत्तर: (D)


मेन्स

Q. क्या कार्बन क्रेडिट के मूल्य में भारी गिरावट के बावजूद UNFCCC के तहत स्थापित कार्बन क्रेडिट और स्वच्छ विकास तंत्र की खोज को बनाए रखा जाना चाहिये?  आर्थिक विकास के लिए भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं के संबंध में चर्चा करें।  (वर्ष 2014)


भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन, चंद्र एवं शुक्र मिशन तथा NGLV

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO), चंद्रयान -4, वीनस ऑर्बिटर मिशन (VOM), भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन (BAS), नेक्स्ट जेनरेशन लॉन्च व्हीकल (NGLV), प्रक्षेपण यान Mk III, शुक्र, अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन, तियांगोंग, पृथ्वी की निम्न कक्षा (LEO), PSLV, GSLV, SSLV, जियो-सिंक्रोनस ट्राँसफर ऑर्बिट (GTO), गगनयान मिशन

मेन्स के लिये:

इसरो के मिशन और उनकी प्रासंगिकता।

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) द्वारा शुरू की जाने वाली चार अंतरिक्ष परियोजनाओं को मंजूरी दी।

  • नव स्वीकृत अंतरिक्ष परियोजनाओं में चंद्रयान-4, वीनस ऑर्बिटर मिशन (VOM), भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन (BAS) और नेक्स्ट जेनरेशन लॉन्च व्हीकल (NGLV) शामिल हैं

नव स्वीकृत अंतरिक्ष परियोजनाएँ क्या हैं?

  • चंद्रयान-4: इस मिशन को चंद्र सतह पर उतरने, नमूने एकत्र करने, उन्हें वैक्यूम कंटेनर में संग्रहीत करने और उन्हें पृथ्वी पर वापस लाने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
    • इसमें अंतरिक्ष यान का विकास, दो अलग-अलग प्रक्षेपण यान Mk III का प्रक्षेपण, गहन अंतरिक्ष नेटवर्क समर्थन और विशेष परीक्षण शामिल होंगे।
    • इसमें डॉकिंग और अनडॉकिंग भी होगी- दो अंतरिक्ष यान संरेखित होंगे और कक्षा में एक साथ आएंगे- जिसका भारत ने अब तक प्रयास नहीं किया है। 
      • इससे भारत को मानव मिशन के लिये प्रौद्योगिकियों में आत्मनिर्भर बनने में मदद मिलेगीभारत की योजना वर्ष 2040 तक चंद्रमा पर मानव भेजने की है।
  • वीनस ऑर्बिटर मिशन (VOM): इसका उद्देश्य शुक्र की परिक्रमा करना है ताकि ग्रह की सतह, उपसतह, वायुमंडलीय प्रक्रियाओं और उसके सघन वायुमंडल की जाँच करके उसके वायुमंडल पर सूर्य के प्रभाव का अध्ययन किया जा सके।
    • शुक्र ग्रह का अध्ययन इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि कभी इस पर भी पृथ्वी की तरह जीवन संभव था। 
    • यह मिशन मार्च 2028 में प्रक्षेपित किया जाएगा जब पृथ्वी और शुक्र सबसे निकट होंगे।
    • यह वर्ष 2014 के मंगल ऑर्बिटर मिशन के बाद भारत का दूसरा अंतरग्रहीय मिशन होगा।
  • भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन (BAS): BAS वैज्ञानिक अनुसंधान के लिये भारत का अपना अंतरिक्ष स्टेशन होगा।
    • भारत वर्ष 2028 तक अपना स्वयं का अंतरिक्ष स्टेशन प्रक्षेपित करेगा, भारत वर्ष 2035 तक इसे क्रियाशील करने की योजना बना रहा है तथा वर्ष 2040 तक मानवयुक्त चंद्र मिशन को पूरा करने की योजना बना रहा है
    • वर्तमान में केवल दो ही कार्यशील अंतरिक्ष स्टेशन हैं- अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन और चीन का तियांगोंग
  • नेक्स्ट जेनरेशन लॉन्च व्हीकल (NGLV): सरकार ने इसके विकास को भी मंजूरी दी है
    • NGLV, LVM3 की वर्तमान पेलोड क्षमता से तीन गुना अधिक क्षमता वाला है तथा इसकी लागत 1.5 गुना अधिक है। 
    • इसे पृथ्वी की निम्न कक्षा (LEO) तक 30 टन तक भार ले जाने के लिये डिज़ाइन किया गया है
    • भारत के मौजूदा प्रक्षेपण यानों (जिनमें SSLV, PSLV, GSLV और LVM3 शामिल हैं), की पेलोड क्षमता LEO के लिये 500 किलोग्राम से 10,000 किलोग्राम तक और जियो-सिंक्रोनस ट्रांसफर ऑर्बिट (GTO) के लिये 4,000 किलोग्राम तक है।

नोट: केंद्रीय मंत्रिमंडल ने गगनयान मिशन को जारी रखने की भी मंजूरी दी है। 

  • इसमें आठ मिशन (जिनमें से चार अंतरिक्ष स्टेशन बनाने के लिये आवश्यक) होंगे। 
  • यह दो मानवरहित और एक मानवयुक्त मिशन के अतिरिक्त होगा, जिन्हें गगनयान मिशन के तहत प्रथम मानव अंतरिक्ष उड़ान के रूप में पहले ही मंजूरी दी जा चुकी है।

अंतरिक्ष स्टेशन से भारत को क्या लाभ होगा?

  • माइक्रोग्रेविटी एक्सपेरिमेंट: अंतरिक्ष स्टेशन से माइक्रोग्रेविटी में अद्वितीय वैज्ञानिक प्रयोगों के संचालन हेतु एक मंच मिलेगा जिससे पदार्थ विज्ञान, जीव विज्ञान और चिकित्सा में सफलता मिल सकती है।
  • नवप्रवर्तन: अंतरिक्ष स्टेशन के विकास और संचालन से तकनीकी प्रगति को बढ़ावा मिलेगा तथा जीवन सहायक प्रणालियों, रोबोटिक्स एवं अंतरिक्ष आवास जैसे क्षेत्रों में नवप्रवर्तन को बढ़ावा मिलेगा।
    • वेजी ग्रोथ सिस्टम के तहत ISS पर उगाई गई चीन की गोभी के बायोमास में कमी देखी गई।
  • नेतृत्व और प्रतिष्ठा: अपना स्वयं का अंतरिक्ष स्टेशन होने से अंतरिक्ष अन्वेषण में वैश्विक नेतृत्वकर्त्ता के रूप में भारत की स्थिति मज़बूत होगी, इसकी तकनीकी क्षमता का प्रदर्शन होगा और अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी मज़बूत होगी।
    • इससे भारतीय कंपनियों को उपग्रह निर्माण, सर्विसिंग में व्यापक पहुँच मिलेगी तथा एयरोस्पेस क्षेत्र को बढ़ावा मिलेगा
  • मानव अंतरिक्ष उड़ान अनुभव: गगनयान मिशन की सफलता के आधार पर अंतरिक्ष स्टेशन, भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को अनुभव प्राप्त कराने और लंबी अवधि के मिशनों में योगदान करने के लिये अधिक अवसर प्रदान करेगा।

अंतरिक्ष स्टेशनों के निर्माण और संचालन में क्या चुनौतियाँ हैं?

  • डिज़ाइन और इंजीनियरिंग: अंतरिक्ष स्टेशनों को उन्नत इंजीनियरिंग की आवश्यकता होती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे कठोर वातावरण में जीवन का समर्थन कर सकें। इससे संबंधित चुनौतियों में संबंधित ढाँचे को बनाए रखना, विकिरण सुरक्षा सुनिश्चित करना और वैज्ञानिक प्रयोगों के लिये एक स्थिर वातावरण बनाए रखना शामिल है।
  • जीवन रक्षक प्रणाली: वायु, जल और अपशिष्ट प्रबंधन के लिये विश्वसनीय प्रणाली विकसित करना महत्त्वपूर्ण है। इन प्रणालियों को लंबे समय तक स्वायत्त रूप से कार्य करना चाहिये, जिसमें अधिक तकनीकी की आवश्यकता होती है।
  • भारत के लिये वहनीयता: अंतरिक्ष स्टेशन में अधिक वित्तीय निवेश की आवश्यकता होती है। लागत में मॉड्यूल का निर्माण, लॉन्च व्यय और जीवन रक्षक तथा वैज्ञानिक उपकरणों का विकास शामिल है। 
    • उदाहरण के लिये कई देशों द्वारा साझा किये जाने वाले ISS की लागत 150 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक है। एक छोटे राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन की लागत 10-30 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बीच हो सकती है।
    • वर्ष 2024-25 के लिये ISRO का बजट लगभग 1.95 बिलियन अमेरिकी डॉलर (जो NASA के लगभग 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर से काफी कम है) है
    • सोवियत संघ ने अपने मीर अंतरिक्ष स्टेशन का रखरखाव बंद कर दिया क्योंकि इसके संचालन और रखरखाव की लागत लगातार बढ़ती जा रही थी।
  • अंतरिक्ष क्षेत्र में प्रतिस्पर्द्धा: विशेष रूप से अमेरिका, रूस और चीन जैसे देशों के साथ अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी से संबंधित प्रतिस्पर्द्धा जटिल हो सकती है
  • चालक दल का स्वास्थ्य और सुरक्षा: अंतरिक्ष यात्रियों का शारीरिक और मानसिक कल्याण सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है। लंबे समय तक माइक्रोग्रेविटी और अलगाव के कारण स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
    • लंबे समय तक माइक्रोग्रेविटी के संपर्क में रहने से अंतरिक्ष यात्रियों की अस्थियों का द्रव्यमान प्रति माह 1% तक कम हो सकता है
    • शरीर के द्रव वितरण में परिवर्तन से अंतःकपालीय स्ट्रेस बढ़ सकता है जिससे दृष्टि संबंधी समस्याएँ हो सकती हैं।
  • आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन: स्टेशन को बनाए रखने के लिये नियमित रूप से पुनः आपूर्ति मिशन आवश्यक हैं जिसमें भोजन, उपकरण और वैज्ञानिक नमूने पहुँचाना शामिल है। इसके लिये उचित योजना और समन्वय की आवश्यकता होती है।
    • उदाहरण के लिये भारत के पास पुन: प्रयोज्य रॉकेटों का बेड़ा नहीं है जिनका उपयोग अंतरिक्ष स्टेशन तक आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन हेतु किया जा सके।

निष्कर्ष

भारत के दूरदर्शी अंतरिक्ष कार्यक्रम में अंतरिक्ष स्टेशन का विकास तथा चंद्रयान-4 और शुक्र अन्वेषण मिशन शामिल हैं। ये पहल वैज्ञानिक अनुसंधान को आगे बढ़ाने के साथ चंद्रमा के बारे में समझ को बढ़ाएंगी और शुक्र की स्थितियों के बारे में जानकारी प्रदान करेंगी। यह महत्त्वाकांक्षी योजना अंतरिक्ष अन्वेषण में भारत की बढ़ती भूमिका को रेखांकित करती है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: ISRO के प्रस्तावित अंतरिक्ष मिशन वैज्ञानिक अनुसंधान, तकनीकी उन्नति और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में किस प्रकार योगदान देंगे?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2016)

इसरो द्वारा प्रक्षेपित मंगलयान

  1. को मंगल ऑर्बिटर मिशन भी कहा जाता है। 
  2. के कारण अमेरिका के बाद मंगल ग्रह की परिक्रमा करने वाला भारत दूसरा देश बना। 
  3. ने भारत को अपने अंतरिक्ष यान को अपने पहले ही प्रयास में मंगल ग्रह की परिक्रमा करने में सफल होने वाला एकमात्र देश बना दिया।

उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं?

(a) केवल
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (c)


मेन्स

Q. भारत के तीसरे चंद्रमा मिशन का मुख्य कार्य क्या है जिसे इसके पहले के मिशन में हासिल नहीं किया जा सका? जिन देशों ने इस कार्य को हासिल कर लिया है उनकी सूची दीजिये। प्रक्षेपित अंतरिक्ष यान की उपप्रणालियों को प्रस्तुत कीजिये और विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र के 'आभासी प्रक्षेपण नियंत्रण केंद्र' की उस भूमिका का वर्णन कीजिये जिसने श्रीहरिकोटा से सफल प्रक्षेपण में योगदान दिया है। (2023)

Q. प्रश्न: भारत की अपना स्वयं का अंतरिक्ष केंद्र प्राप्त करने की क्या योजना है और हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम को यह किस प्रकार लाभ पहुँचाएगी? (वर्ष 2019)


भारतीय राज्यों का सापेक्ष आर्थिक प्रदर्शन रिपोर्ट

प्रारंभिक परीक्षा:

सकल घरेलू उत्पाद (GDP), प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (EAC-PM)

मुख्य परीक्षा:

भारत में विनिर्माण और सेवा क्षेत्र के विकास चालक, संबंधित चुनौतियाँ, भारत में औद्योगिक क्षेत्र के विकास के लिये सरकारी पहल और सुधार।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (EAC-PM) ने 'भारतीय राज्यों का सापेक्ष आर्थिक प्रदर्शन: 1960-61 से 2023-24' शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की।

  • रिपोर्ट में वर्ष 1960-61 से वर्ष 2023-24 तक भारतीय राज्यों के आर्थिक प्रदर्शन में महत्त्वपूर्ण असमानता पर प्रकाश डाला गया है।

EAC-PM रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष क्या हैं?

  • आर्थिक प्रदर्शन:
    • दक्षिणी राज्यों की वृद्धि: दक्षिणी राज्य (कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, तमिलनाडु) भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में प्रमुख योगदानकर्त्ता के रूप में उभरे हैं, जिनका मार्च 2024 तक 30% योगदान होगा।
      • उदारीकरण के पश्चात् उनकी वृद्धि में तेजी आई, साथ ही प्रौद्योगिकी एवं उद्योग जैसे क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई।
    • पश्चिम बंगाल का आर्थिक क्षरण: पश्चिम बंगाल का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में योगदान वर्ष 1960-61 में 10.5% से घटकर वर्ष 2024 में 5.6% हो गया है। 
      • पश्चिम बंगाल की प्रति व्यक्ति आय वर्ष 1960 के दशक में राष्ट्रीय औसत के 127.5% से गिरकर वर्ष 2024 में 83.7% हो जाएगी, जो वर्तमान में राजस्थान और ओडिशा से पीछे है।
      • पश्चिम बंगाल की क्षरण नीतियों में गतिरोध, औद्योगिक क्षरण, राजनीतिक अस्थिरता और कुशल प्रतिभाओं के पलायन का परिणाम है, जिससे विकास में बाधा उत्पन्न हुई है और निवेश हतोत्साहित हुआ है।

  • महाराष्ट्र 13.3% के साथ सकल घरेलू उत्पाद में सबसे बड़ा योगदानकर्त्ता बना हुआ है, हालाँकि इसकी भागीदारी में 15% से अधिक की कमी आई है।

  • प्रति व्यक्ति आय डेटा:
    • दिल्ली, तेलंगाना, कर्नाटक और हरियाणा में वर्ष 2023-24 में प्रति व्यक्ति सापेक्ष आय सबसे अधिक होगी।
      • दिल्ली की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत की तुलना में 250.8% अधिक है। 
    • गुजरात (राष्ट्रीय औसत का 160.7%) और महाराष्ट्र (राष्ट्रीय औसत का 150.7%) ने वर्ष 1960 के दशक से औसत से अधिक आय बनाए रखी है।
    • ओडिशा की प्रति व्यक्ति आय में उल्लेखनीय सुधार हुआ है, जो वर्ष 2000-01 में 55.8% से बढ़कर वर्ष 2023-24 में 88.5% हो गयी है।
    • पंजाब बनाम हरियाणा: पंजाब में वर्ष 1991 के पश्चात् से आर्थिक विकास में स्थिरता देखी गई है, प्रति व्यक्ति आय में राष्ट्रीय औसत की तुलना में 106% तक की कमी आई है। 
      • इसके विपरीत हरियाणा में पर्याप्त वृद्धि हुई है, तथा प्रति व्यक्ति आय बढ़कर 176.8% हो गई है।
    • छोटे राज्यों में: सिक्किम की प्रति व्यक्ति आय वर्ष 1990-91 में राष्ट्रीय औसत के 93% से बढ़कर 2023-24 में 319% हो गई, जबकि गोवा की वर्ष 1970-71 में 144% से बढ़कर 290% हो गई। वर्तमान में दोनों प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से भारत के सबसे अमीर राज्य हैं।

  • सबसे गरीब राज्यों के लिये चुनौतियाँ: उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य समन्वय बनाए रखने के लिये संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें उत्तर प्रदेश सकल घरेलू उत्पाद में केवल 9.5% और बिहार केवल 4.3% का योगदान देता है
    • ओडिशा जैसे राज्यों में कुछ सुधार के बावजूद, बिहार आर्थिक विकास में काफी पीछे रह गया है।

  • नीतिगत जाँच की आवश्यकता: रिपोर्ट में राज्य स्तरीय आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाली नीतियों और कारकों की गहन जांँच, विशेष रूप से भारत में बढ़ती क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने के लिये, की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है। 

पश्चिमी और दक्षिणी राज्यों में स्थिर वृद्धि के क्या कारण हैं?

  • मज़बूत औद्योगिक आधार: गुजरात एवं महाराष्ट्र में वस्त्र, रसायन और इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में सुदृढ़, विविध विनिर्माण आधार है। 
  • उनकी निवेश-अनुकूल नीतियों ने ऐसे व्यापार-अनुकूल वातावरण का निर्माण किया है, जिससे महत्त्वपूर्ण घरेलू और विदेशी निवेश आकर्षित हुए हैं
  • सेवा क्षेत्र में उन्नति: कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्यों में तीव्र शहरीकरण हुआ है साथ ही अवसंरचना में भी सुधार हुआ है, जिससे उनके आईटी और सेवा क्षेत्र को बढ़ावा मिला है । 
    • शिक्षा और कौशल विकास पर विशेष ध्यान देने से कुशल कार्यबल का सृजन हुआ है, जिससे उत्पादकता और आर्थिक विकास में वृद्धि हुई है।
  • कृषि उन्नति: महाराष्ट्र और केरल ने जैविक कृषि, फसल विविधीकरण, जल-कुशल सिंचाई तकनीक, कृषि वानिकी और विविध उत्पादन जैसी सतत् कृषि पद्धतियों को अपनाया है, जिससे उत्पादकता और खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा मिला है।
    • सिंचाई, बाज़ार पहुँच और प्रौद्योगिकी में सरकारी सहायता से कृषि प्रदर्शन और आर्थिक विकास में और भी वृद्धि हुई है।
  • मज़बूत क्षेत्रीय संपर्क: पश्चिमी और दक्षिणी क्षेत्रों में मज़बूत परिवहन और लॉजिस्टिक्स नेटवर्क हैं, गुजरात के बंदरगाह और तमिलनाडु के सड़क मार्ग व्यापार को बढ़ावा दे रहे हैं। 
  • प्रमुख बाज़ारों की निकटता से स्थानीय मांग में वृद्धि हुई है, जिससे इन राज्यों में आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलता है।

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (EAC-PM)

  • यह एक गैर-संवैधानिक, गैर-सांविधिक, स्वतंत्र निकाय है जिसका गठन भारत सरकार, विशेष रूप से प्रधानमंत्री को आर्थिक और संबंधित मुद्दों पर सलाह देने के लिये किया गया है।
  • यह परिषद तटस्थ दृष्टिकोण से भारत सरकार के समक्ष प्रमुख आर्थिक मुद्दों को उज़ागर करने का कार्य करती है।
  • नीति आयोग EAC-PM के लिये प्रशासनिक, रसद, योजना और बजट के लिये नोडल एजेंसी के रूप में कार्य करता है।
  • आवधिक रिपोर्ट: वार्षिक आर्थिक परिदृश्य, अर्थव्यवस्था की समीक्षा।

राज्यों के आर्थिक प्रदर्शन को बढ़ाने के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं?

  • विकेंद्रीकृत योजना और शासन: स्थानीय सरकारों को क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप विकास योजनाएँ बनाने और उन्हें क्रियान्वित करने के लिये सशक्त बनाना, समावेशिता सुनिश्चित करने के लिये निर्णय लेने की प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों को शामिल करना।
  • बुनियादी ढाँचे का विकास: व्यापार और गतिशीलता को बढ़ाने, समय पर निष्पादन और संसाधन एकत्रित करने को सुनिश्चित करने हेतु सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) के माध्यम से सड़कों, रेलवे, बंदरगाहों और डिजिटल कनेक्टिविटी में निवेश को प्राथमिकता दी जाएगी।
  • क्षेत्रीय दृष्टिकोण और विविधीकरण: कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा देते हुए प्रौद्योगिकी अपनाने और बेहतर सिंचाई के माध्यम से कृषि उत्पादकता में वृद्धि करना।
    • क्षेत्रीय लाभ के आधार पर विनिर्माण (जैसे, वस्त्र, इलेक्ट्रॉनिक्स) और सेवाओं (जैसे, आईटी, पर्यटन) को बढ़ावा देने वाली क्षेत्र-विशिष्ट नीतियों को प्रोत्साहित करना।
  • कौशल विकास और मानव पूंजी: रोज़गार क्षमता में वृद्धि हेतु उद्योग की आवश्यकताओं के अनुरूप व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों को लागू करना, साथ ही आलोचनात्मक सोच और उच्च शिक्षा तक पहुँच पर ध्यान केंद्रित करके शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करना है।
  • नवाचार और उद्यमिता: इनक्यूबेटर और वित्त पोषण के माध्यम से स्टार्टअप्स को समर्थन देकर नवाचार की संस्कृति को बढ़ावा देना, तथा तकनीकी प्रगति की ओर ले जाने वाले अनुसंधान पहलों के लिये शिक्षा, उद्योग और सरकार के बीच सहयोग को प्रोत्साहित करना।
  • डिजिटल परिवर्तन: सार्वजनिक सेवा वितरण में पारदर्शिता और दक्षता सुनिश्चित करने के लिये शासन हेतु डिजिटल समाधान लागू करना, साथ ही नागरिकों को आवश्यक कौशल से लैस करने के लिये डिजिटल साक्षरता कार्यक्रमों को बढ़ावा देना।
  • सहयोगात्मक शासन: सर्वोत्तम प्रथाओं और संसाधनों को साझा करने के लिये राज्यों के बीच सहयोग को बढ़ावा देना, विकास के लिये नीतियों और संसाधनों को संरेखित करने के लिये केंद्र तथा राज्य सरकारों के बीच प्रभावी समन्वय सुनिश्चित करना।

निष्कर्ष

पश्चिमी और दक्षिणी राज्यों में स्थिर विकास रणनीतिक योजना, सुदृढ़ औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों, प्रभावी सरकारी नीतियों और संधारणीय प्रथाओं पर ध्यान केंद्रित करने का परिणाम है। चूँकि ये राज्य निरंतर नवाचार में अग्रणी हैं और परिवर्तित आर्थिक गतिशीलता के अनुकूल स्वयं को ढाल रहे हैं, इसलिये ये भारत को वर्ष 2030 तक 7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के लक्ष्य की ओर ले जाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इस प्रगति को बनाए रखने और संपूर्ण देश में संतुलित विकास सुनिश्चित करने के लिये क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करना और समावेशी विकास को बढ़ावा देना आवश्यक होगा।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

भारत में राज्यों के आर्थिक प्रदर्शन को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों पर चर्चा कीजिये। नीतिगत हस्तक्षेपों की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये और राज्य स्तर पर सतत् आर्थिक विकास को बढ़ाने के उपाय सुझाइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स

Q. अटल नवप्रवर्तन (इनोवेशन) मिशन किसके अधीन स्थापित किया गया है? (2019)

(a) विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग
(b) श्रम एवं रोजगार मंत्रालय
(c) नीति आयोग
(d) कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय

उत्तर: (c)


Q. भारत सरकार ने नीति आयोग की स्थापना निम्नलिखित में से किसका स्थान लेने के लिये की है। (2015)

(a) मानवाधिकार आयोग
(b) वित्त आयोग
(c) विधि आयोग
(d) योजना आयोग

उत्तर: (d)


Q. सतत विकास को उस विकास के रूप में वर्णित किया जाता है जो भविष्य की पीढ़ियों की अपनी जरूरतों को पूरा करने की क्षमता से समझौता किए बिना वर्तमान की जरूरतों को पूरा करता है। इस परिप्रेक्ष्य में, सतत विकास की अवधारणा निम्नलिखित अवधारणाओं में से किसके साथ जुड़ी हुई है? (2010)

(a) सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण 
(b) समावेशी विकास 
(c) वैश्वीकरण 
(d) वहन क्षमता

उत्तर: (d)


मेन्स

Q. भारत में नीति आयोग द्वारा अनुसरण किये जा रहे सिद्धांत इससे पूर्व के योजना आयोग द्वारा अनुसरित सिद्धांतों में से किस प्रकार भिन्न हैं? (2018)

Q. वहनीय, विश्वसनीय, धारणीय तथा आधुनिक ऊर्जा तक पहुँच संधारणीय विकास लक्ष्यों (SDG) को प्राप्त करने के लिये अनिवार्य है।” भारत में इस संबंध में हुई प्रगति पर टिप्पणी कीजिये। (2018)