भारतीय राजव्यवस्था
देश की आपराधिक न्यायिक प्रणाली में सुधार
- 18 Aug 2023
- 27 min read
यह एडिटोरियल 11/08/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित Sedition ‘repealed’, death penalty for mob lynching: the new Bills to overhaul criminal laws पर आधारित है। इसमें देश की आपराधिक न्याय प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता के बारे में चर्चा की गई है।
प्रिलिम्स के लिये:भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860, आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872, भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार, भारतीय न्याय संहिता विधेयक 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता विधेयक 2023, भारतीय साक्ष्य विधेयक 2023, आपराधिक न्याय सुधार संबंधी सिफारिशें, वोहरा समिति, मलिमथ समिति, माधव मेनन समिति, पुलिस सुधारों पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश। मेन्स के लिये:आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधारों से संबंधित मुद्दे, कानूनी सुधारों में मानवाधिकार संबंधी चिंताएँ, विधेयक के प्रारूपण में पारदर्शिता की कमी, प्रस्तावित कानूनी परिवर्तनों में विसंगतियाँ। |
हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री ने लोकसभा में तीन नए विधेयक पेश किये जो देश की आपराधिक न्याय प्रणाली में संपूर्ण बदलाव का प्रस्ताव करते हैं जैसे:
- भारतीय न्याय संहिता विधेयक, 2023, जो IPC, 1860 को प्रतिस्थापित करेगा
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता विधेयक, 2023, जो CrPC, 1898 को प्रतिस्थापित करेगा
- भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023, जो साक्ष्य अधिनियम, 1872 को प्रतिस्थापित करेगा
टिप्पणी:
- भारतीय दंड संहिता (IPC) भारत की आधिकारिक आपराधिक संहिता है जिसे चार्टर अधिनियम, 1833 के तहत वर्ष 1834 में स्थापित प्रथम विधि आयोग के मद्देनजर वर्ष 1860 में तैयार किया गया था।
- दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) भारत में आपराधिक कानून के प्रशासन के लिये प्रक्रियाएँ प्रदान करती है। यह वर्ष 1973 में अधिनियमित हुआ और 1 अप्रैल 1974 को प्रभावी हुआ।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, जो मूल रूप से ब्रिटिश राज के दौरान वर्ष 1872 में इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल द्वारा भारत में पारित किया गया था, में भारतीय न्यायालयों में साक्ष्य की स्वीकार्यता को नियंत्रित करने वाले नियमों और संबद्ध मुद्दों का समूह शामिल है।
आपराधिक न्याय प्रणाली:
- आपराधिक न्याय प्रणाली कानूनों, प्रक्रियाओं और संस्थानों का समूह है जिसका उद्देश्य सभी व्यक्तियों के अधिकारों तथा सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए अपराधों को रोकना, पता लगाना, दोषियों पर मुकदमा चलाना व दंडित करना है।
- इसमें पुलिस बल, न्यायिक संस्थान, विधायी निकाय और फोरेंसिक एवं जाँच एजेंसियों जैसे अन्य सहायक संगठन शामिल हैं।
भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रस्तावित परिवर्तन:
- भारतीय न्याय संहिता विधेयक, 2023 में प्रस्तावित परिवर्तन:
- यह विधेयक आतंकवाद एवं अलगाववाद, सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह, देश की संप्रभुता को चुनौती देने जैसे अपराधों को परिभाषित करता है, जिनका पूर्व में कानून के विभिन्न प्रावधानों के तहत उल्लेख किया गया था।
- यह राजद्रोह के अपराध को रोकने पर केंद्रित है, जिसकी औपनिवेशिक विरासत के रूप में व्यापक रूप से आलोचना की गई थी जो स्वतंत्र भाषण और असहमति पर अंकुश लगाता है।
- यह मॉब लिंचिंग के लिये अधिकतम सज़ा के रूप में मृत्युदंड का प्रावधान करता है, जो हाल के वर्षों में एक खतरा रहा है।
- इसमें विवाह के झूठे वादे पर महिलाओं के साथ यौन संबंध बनाने के लिये 10 वर्ष की कैद का प्रस्ताव है, जो धोखे और शोषण का एक सामान्य रूप है।
- यह विधेयक विशिष्ट अपराधों के लिये सजा के रूप में सामुदायिक सेवा का परिचय देता है, जो अपराधियों को सुधारने और जेलों में भीड़भाड़ को कम करने में मदद कर सकता है।
- इस विधेयक में चार्जशीट दाखिल करने के लिये अधिकतम 180 दिनों की सीमा तय की गई है, जिससे मुकदमे की प्रक्रिया में तेज़ी आ सकती है और अनिश्चितकालीन देरी को रोका जा सकता है।
- इस विधेयक में कहा गया है कि पुलिस को शिकायत की स्थिति के विषय में 90 दिनों में सूचित करना होगा, जिससे जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ सकती है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता विधेयक, 2023 में प्रस्तावित परिवर्तन:
- यह परीक्षणों, अपीलों और गवाही की रिकॉर्डिंग के लिये प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ावा देता है, जिससे कार्यवाही के लिये वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग की अनुमति मिलती है।
- यह विधेयक यौन हिंसा के व्यक्तियों के बयान की वीडियो-रिकॉर्डिंग को अनिवार्य बनाता है, जो सबूतों को संरक्षित करने और बलपूर्वक या हेरफेर को रोकने में मदद कर सकता है।
- इस विधेयक में यह आवश्यक है कि पुलिस सात वर्ष या उससे अधिक की सज़ा वाले मामले को वापस लेने से पहले पीड़ित से परामर्श करे, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि न्याय से समझौता या उसे अस्वीकार नहीं किया जाए।
- CrPC की धारा 41A को धारा 35 के रूप में पुनः क्रमांकित किया जाएगा। इस परिवर्तन में एक अतिरिक्त सुरक्षा शामिल है, जिसमें कहा गया है कि कम से कम पुलिस उपाधीक्षक (DSP) रैंक के किसी अधिकारी की पूर्व स्वीकृति के बिना कोई गिरफ्तारी नहीं की जा सकती है, खासकर 3 वर्ष से कम सज़ा वाले दंडनीय अपराधों के लिये या 60 वर्ष से अधिक आयु वाले व्यक्तियों के लिये।
- यह फरार अपराधियों के संबंध में न्यायलय को उनकी अनुपस्थिति में मुकदमा चलाने और सज़ा सुनाने की अनुमति देता है, जो भगोड़ों को न्याय से बचने से रोक सकता है।
- यह मजिस्ट्रेटों को ईमेल, एसएमएस, व्हाट्सएप संदेशों आदि जैसे इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के आधार पर अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार देता है, जिससे साक्ष्य संग्रह और सत्यापन की सुविधा मिल सकती है।
- मृत्युदण्ड के मामलों में दया याचिका राज्यपाल के पास 30 दिन के अंतर्गत और राष्ट्रपति के पास 60 दिन के अंतर्गत दाखिल की जानी चाहिये।
- राष्ट्रपति के निर्णय के विरुद्ध किसी भी न्यायालय में अपील नहीं की जा सकेगी।
- यह परीक्षणों, अपीलों और गवाही की रिकॉर्डिंग के लिये प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ावा देता है, जिससे कार्यवाही के लिये वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग की अनुमति मिलती है।
भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023 में प्रस्तावित परिवर्तन:
- यह विधेयक इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य को किसी भी उपकरण या सिस्टम द्वारा उत्पन्न या प्रसारित किसी भी जानकारी के रूप में परिभाषित करता है जो किसी भी माध्यम से संग्रहित या पुनर्प्राप्त करने में सक्षम है।
- यह इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता जैसे प्रमाणिकता, अखंडता, विश्वसनीयता आदि के लिये विशिष्ट मानदंड निर्धारित करता है, जो डिज़िटल डेटा के दुरुपयोग या छेड़छाड़ को रोक सकता है।
- यह DNA साक्ष्य जैसे सहमति, हिरासत की श्रृंखला आदि की स्वीकार्यता के लिये विशेष प्रावधान प्रदान करता है, जो जैविक साक्ष्य की सटीकता और विश्वसनीयता को बढ़ा सकता है।
- यह विशेषज्ञ की राय को मेडिकल राय, लिखावट विश्लेषण आदि जैसे साक्ष्य के रूप में मान्यता देता है, जो किसी मामले से संबंधित तथ्यों या परिस्थितियों को स्थापित करने में सहायता कर सकता है।
- यह आपराधिक न्याय प्रणाली के मूल सिद्धांत के रूप में निर्दोष होने की धारणा का परिचय देता है, जिसका अर्थ है कि अपराध के आरोपी प्रत्येक व्यक्ति को उचित संदेह से परे दोषी साबित होने तक निर्दोष माना जाता है।
भारत की वर्तमान आपराधिक न्याय प्रणाली:
- लंबित मामलों की संख्या: राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के अनुसार, भारतीय न्यायालयों में न्यायपालिका के विभिन्न स्तरों पर 4.7 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। इससे न्याय देने में देरी होती है, त्वरित सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन होता है और इस व्यवस्था में लोगों का विश्वास कम होता है।
- संसाधनों और बुनियादी ढाँचे का अभाव: आपराधिक न्याय प्रणाली अपर्याप्त धन, जनशक्ति और सुविधाओं से ग्रस्त है। न्यायाधीशों, अभियोजकों, पुलिस कर्मियों, फोरेंसिक विशेषज्ञों और कानूनी सहायता वकीलों की कमी है।
- 135 मिलियन लोगों के देश में, प्रति दस लाख जनसंख्या पर (फरवरी 2023 तक) केवल 21 न्यायाधीश हैं।
- उच्च न्यायालयों में लगभग 400 रिक्तियाँ हैं। वहीं निचली न्यायपालिका में करीब 35% पद खाली पड़े हैं।
- जाँच और अभियोजन की खराब गुणवत्ता: जाँच और अभियोजन एजेंसियाँ अक्सर संपूर्ण, निष्पक्ष और पेशेवर जाँच करने में विफल रहती हैं। उन्हें राजनीतिक और अन्य प्रभावों के हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और जवाबदेही की कमी का सामना करना पड़ता है।
- मानवाधिकारों का उल्लंघन: आपराधिक न्याय प्रणाली पर अधिकतर आरोपियों, पीड़ितों, गवाहों और अन्य हितधारकों के मानवाधिकारों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया जाता है। हिरासत में यातना, न्यायेत्तर हत्याएँ, झूठी गिरफ्तारियाँ अवैध हिरासत, जबरन बयान, अनुचित परीक्षण और कठोर दंड इसके उदाहरण हैं।
- पुराने कानून और प्रक्रियाएँ: आपराधिक न्याय प्रणाली उन कानूनों और प्रक्रियाओं पर आधारित है जो 1860 में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए थे। ये कानून पुराने हैं और समकालीन समय के अनुरूप नहीं हैं। ये साइबर अपराध, आतंकवाद, संगठित अपराध, मॉब लिंचिंग आदि जैसे अपराधों के नए रूपों को हल नहीं करते हैं।
- सार्वजनिक धारणा: द्वितीय ARC ने नोट किया है कि भारत में पुलिस-जनता के संबंध असंतोषजनक हैं क्योंकि लोग पुलिस को भ्रष्ट, अक्षम और अनुत्तरदायी मानते हैं और अक्सर उनसे संपर्क करने में संकोच करते हैं।
भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार हेतु समितियाँ और उनकी सिफारिशें:
- वोहरा समिति, 1993: राजनीति के अपराधीकरण और राजनेताओं, नौकरशाहों, अपराधियों तथा असामाजिक तत्त्वों के बीच साँठगाँठ की बढ़ती समस्या से निपटान हेतु इस समिति का गठन किया गया।
- इसने सिफारिश की कि विभिन्न स्रोतों से खुफिया जानकारी एकत्र करके तथा ऐसे तत्त्वों के खिलाफ उचित कार्रवाई करके इस खतरे से प्रभावी ढंग से निपटान के लिये एक संस्थान स्थापित किया जाना चाहिये।
- मलिमथ समिति, 2003: आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार हेतु इसने विभिन्न पहलुओं को शामिल करते हुए सिफारिशें कीं। कुछ प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार थीं:
- छोटे-मोटे उल्लंघनों के लिये अपराधों की एक नई श्रेणी 'सामाजिक कल्याण अपराध (Social Welfare Offences)' कहलाती है, जिससे ज़ुर्माना लगाकर या सामुदायिक सेवा द्वारा निपटा जा सकता है।
- प्रतिकूल प्रणाली को एक 'मिश्रित प्रणाली' से बदलना जिसमें तार्किक प्रणाली के कुछ तत्त्व शामिल हैं जैसे न्यायाधीशों को साक्ष्य एकत्र करने तथा गवाहों की जाँच करने में सक्रिय भूमिका निभाने की अनुमति देना।
- दोषसिद्धि के लिये आवश्यक साक्ष्य के मानक को 'उचित संदेह से परे' से घटाकर 'स्पष्ट और ठोस साक्ष्य' करना।
- वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के समक्ष की गई स्वीकारोक्ति को साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य बनाना।
- माधव मेनन समिति, 2007: इस समिति की स्थापना आपराधिक न्याय पर एक राष्ट्रीय नीति का मसौदा तैयार करने के लिये की गई थी। इसने सुधार प्रक्रिया को निर्देशित करने के लिये विभिन्न सिद्धांतों और रणनीतियों का सुझाव दिया जैसे:
- आपराधिक न्याय के हर चरण में मानवीय गरिमा तथा मानवाधिकारों के लिये सम्मान सुनिश्चित करना।
- पुनर्स्थापनात्मक न्याय को बढ़ावा देना जो सज़ा देने के बजाय अपराध से होने वाले नुकसान को ठीक करने पर केंद्रित है।
- आपराधिक न्याय में शामिल विभिन्न एजेंसियों जैसे पुलिस, न्यायपालिका, अभियोजन आदि के बीच समन्वय एवं सहयोग में सुधार करना।
- पुलिस सुधार पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश, 2006: दो पूर्व पुलिस अधिकारियों प्रकाश सिंह और एन.के. सिंह द्वारा दायर एक जनहित याचिका के जवाब में, भारत में पुलिस सुधारों की मांग करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस बल की कार्यात्मक स्वायत्तता, जवाबदेही और व्यावसायिकता सुनिश्चित करने के लिये सात निर्देश जारी किये। कुछ निर्देश इस प्रकार थे:
- पुलिस कार्यप्रणाली के लिये नीतियाँ बनाने, प्रदर्शन का मूल्यांकन करने तथा यह सुनिश्चित करने के लिये राज्य सुरक्षा आयोग की स्थापना करना कि राज्य सरकारें पुलिस पर अनुचित प्रभाव या दबाव न डालें।
- पुलिस महानिदेशक के लिये एक निश्चित कार्यकाल सुनिश्चित करना, जिसका चयन वस्तुनिष्ठ मानदंडों के आधार पर एक पैनल के तहत किया जाना चाहिये न कि राजनीतिक कार्यपालिका की अनुशंसा के आधार पर।
- त्वरित जाँच, बेहतर विशेषज्ञता तथा लोगों के साथ बेहतर तालमेल सुनिश्चित करने के लिये पुलिस की जाँच और वैधानिक कार्यों को अलग करना।
- पुलिस कर्मियों द्वारा गंभीर कदाचार और अधिकारों के दुरुपयोग के आरोपों की जाँच हेतु राज्य एवं ज़िला स्तर पर एक पुलिस शिकायत प्राधिकरण की स्थापना करना।
प्रस्तावित सुधारों का महत्त्व:
- इन सुधारों का उद्देश्य आपराधिक कानूनों को आधुनिक और सरल बनाना है, जो पुराने और जटिल हैं। यह सुधार कानूनों को भारतीय भावना और लोकाचार के अनुरूप बनाने में सहायक होंगे।
- यह सुधार IPC की धारा 124A के तहत कठोर राजद्रोह कानून को निरस्त कर देगा, जिसकी सरकार के आलोचकों के खिलाफ दुरुपयोग हेतु व्यापक रूप से आलोचना की जाती है।
- इन सुधारों से आतंकवाद, भ्रष्टाचार, मॉब लिंचिंग और संगठित अपराध जैसे नए अपराध भी शामिल होंगे, जो मौजूदा कानूनों द्वारा पर्याप्त रूप से कवर नहीं किये गए हैं।
- यह सुधार कुछ यौन अपराधों को लिंग तटस्थ बना देगा, जिसमें महिलाओं के अलावा पुरुषों और ट्रांसजेंडरों को संभावित पीड़ितों और अपराधियों के रूप में शामिल किया जाएगा।
- इन सुधारों से जाँच, अभियोजन और निर्णय के दौरान इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य तथा फोरेंसिक का उपयोग बढ़ेगा।
- यह सुधार नागरिकों को किसी भी पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज करने की अनुमति देकर सशक्त बनाएगा, चाहे अपराध किसी भी स्थान पर हुआ हो। यह सुधार नागरिकों के जीवन के अधिकार, स्वतंत्रता, गरिमा, गोपनीयता और निष्पक्ष सुनवाई जैसे संवैधानिक अधिकारों की प्रभावी सुरक्षा भी प्रदान करेंगे।
आपराधिक न्याय प्रणाली में वर्तमान प्रस्तावित सुधारों से संबंधित मुद्दे
- परामर्श एवं पारदर्शिता का अभाव: विधेयकों का प्रारूप आपराधिक कानून सुधार समिति, 2020 द्वारा तैयार किया गया था।
- इसमें न्यायपालिका, बार, नागरिक समाज या हाशिये पर रहने वाले समुदायों का कोई प्रतिनिधि शामिल नहीं था। इस समिति ने व्यापक परामर्श एवं प्रतिक्रिया के लिये अपनी रिपोर्ट अथवा मसौदा विधेयक भी सार्वजनिक नहीं किया।
- मानवाधिकारों का संभावित उल्लंघन: विधेयक की आलोचना अस्पष्ट और व्यापक शब्दों का उपयोग करने के लिये की गई है जो आरोपियों, पीड़ितों, गवाहों के साथ अन्य हितधारकों के मानवाधिकारों का उल्लंघन कर सकते हैं।
- उदाहरण के लिये, BNS ने धारा 150 के अंर्तगत "भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्यों" को अपराध घोषित किया है, जो IPC की धारा 124A के अंर्तगत राजद्रोह के निरस्त अपराध के समान है। इसका प्रयोग असहमति और स्वतंत्र भाषण को दबाने के लिये किया जा सकता है।
- इसी प्रकार से, BSB धारा 27A के अंर्तगत एक पुलिस अधिकारी के समक्ष किये गए बयानों को साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होने की अनुमति देता है, जिससे हिरासत में यातना तथा दबाव का खतरा बढ़ सकता है।
- BNSS, पुलिस को बिना किसी न्यायिक निगरानी या सुरक्षा उपायों के गिरफ्तारी, तलाशी, जब्ती एवं हिरासत में लेने की व्यापक शक्तियाँ भी प्रदान करता है।
- सुसंगति एवं एकरूपता का अभाव: इसे अन्य व्याप्त कानूनों के साथ-साथ एक-दूसरे के साथ विरोधाभासी होने का आरोप लगाया गया है। उदाहरण के लिये,
- इसके अतिरिक्त, BSB दोषसिद्धि के लिये सबूत के मानक "उचित संदेह" को "स्पष्ट और ठोस सबूत" से बदल देता है, जिसे विधेयक में परिभाषित नहीं किया गया है और न ही समझाया गया है।
- BNSS अपराधों की एक नई श्रेणी भी निर्मित करता है जिसे "सामाजिक कल्याण अपराध" कहा जाता है, जिसे ज़ुर्माना अथवा सामुदायिक सेवा लगाकर समाधान किया जा सकता है, लेकिन यह निर्दिष्ट नहीं करता है कि कौन से अपराध इस श्रेणी में आते हैं।
क्या किये जाने की आवश्यकता है?
प्रस्तावित सुधारों में चुनौतियों और संभावित कमियों का समाधान करने के लिये अधिक समावेशी एवं व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
- समावेशी परामर्श: किसी भी सुधार को लागू करने से पहले विविध दृष्टिकोणों को समायोजित करने के लिये सामान्य जनता सहित सभी हितधारकों को शामिल करते हुए एक व्यापक परामर्श प्रक्रिया प्रारंभ करना।
- मानवाधिकारों की रक्षा: मानवाधिकार सिद्धांतों और सुरक्षा उपायों को शामिल करना, संभावित दुरुपयोग को रोकने के लिये अस्पष्ट शर्तों को परिभाषित करना और उन्हें सीमित करना।
- सुसंगत कानूनी ढाँचा: प्रस्तावित अध्यादेशों और मौज़ूदा कानूनों में स्थिरता और सुसंगतता सुनिश्चित करना।
- प्रौद्योगिकी एकीकरण: आपराधिक न्याय प्रक्रिया में प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ाना, जिसमें डिजिटल साक्ष्य संग्रह, ऑनलाइन कार्यान्वयन और त्वरित सुनवाई हेतु वीडियो-रिकॉर्ड किये गए बयान, बैकलॉग कम करना और पारदर्शिता बढ़ाना शामिल है।
- क्षमता निर्माण: कानून प्रवर्तन एजेंसियों, न्यायपालिका और कानूनी सेवाओं की क्षमता बढ़ाने के लिये प्रशिक्षण, भर्ती और बुनियादी ढाँचे में निवेश करना, जिसके परिणामस्वरूप पर्याप्त संसाधनों द्वारा न्याय प्रशासन अधिक कुशल और निष्पक्ष हो सकेगा।
- पुनर्स्थापनात्मक न्याय (Restorative Justice): पुनर्स्थापनात्मक न्याय सिद्धांतों को अपनाना जो अपराध के मूल कारणों को हल करते हैं, अपराध की पुनरावृत्ति को कम करना और पीड़ितों को समाधान प्रदान करने के लिये सुलह, पुनर्स्थापन तथा पुनर्वास पर ध्यान केंद्रित करना।
जन-जागरूकता: पुलिस-जन संपर्कों को बेहतर बनाने के लिये आपराधिक न्याय प्रणाली के तहत जनता को उनके अधिकारों और उत्तरदायित्वों के बारे में शिक्षित करने के लिये जागरूकता अभियान संचालित करना।
इन प्रगतिशील कदमों को आगे बढ़ाकर एक राष्ट्र के रूप में हम एक आपराधिक न्याय प्रणाली की दिशा में कार्य कर सकते हैं जो विधि के शासन को कायम रखती है, मानवाधिकारों की रक्षा करती है और सामान्य जन की विविध आवश्यकताओं को प्रभावी ढंग से पूर्ण करती है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न :
भारतीय न्याय संहिता विधेयक, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता विधेयक और भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023 में उल्लिखित भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली के प्रस्तावित बदलावों (निरीक्षण) पर चर्चा कीजिये। इन प्रस्तावित बदलावों से संबंधित संभावित लाभों और चिंताओं का विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्सप्रश्न. निम्नलिखित में से किस सुधार के लिये भारत सरकार द्वारा वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया था? (2008)
उत्तर: D मेन्स:प्रश्न. हम देश में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों में वृद्धि देख रहे हैं। इसके खिलाफ मौजूदा कानूनी प्रावधानों के बावजूद ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ रही है। इस खतरे से निपटने के लिये कुछ अभिनव उपाय सुझाइये। ( 2014) प्रश्न. भीड़ हिंसा भारत की कानून-व्यवस्था के समक्ष एक गंभीर समस्या के रूप में उभर रही है। उपयुक्त उदाहरण देते हुए ऐसी हिंसा के कारणों एवं परिणामों का विश्लेषण कीजिये। (2015) |