‘मृत्युपूर्व घोषणा’ और संबंधित नियम
प्रिलिम्स के लियेकेंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, मृत्युपूर्व घोषणा मेन्स के लियेमृत्युपूर्व घोषणा: महत्त्व और संबंधित विवाद |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में ‘केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो’ (CBI) की एक विशेष अदालत ने हत्या के एक आरोपी की हिरासत में मौत के लिये दो पुलिसकर्मियों को उम्रकैद की सज़ा सुनाई, जो कि पीड़ित द्वारा की गई ‘मृत्युपूर्व घोषणा' पर आधारित है।
- ‘केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो’ (CBI) भारत की प्रमुख जाँच एजेंसी है। यह भारत सरकार के कार्मिक, पेंशन तथा लोक शिकायत मंत्रालय के कार्मिक विभाग [जो प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) के अंतर्गत आता है] के अधीक्षण में कार्य करता है।
प्रमुख बिंदु
‘मृत्युपूर्व घोषणा' का आशय
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा-32(1) ‘मृत्युपूर्व घोषणा' को मृत व्यक्ति द्वारा दिये गए प्रासंगिक तथ्यों के लिखित या मौखिक बयान के रूप में परिभाषित करती है। यह उस व्यक्ति का कथन होता है जो अपनी मृत्यु की परिस्थितियों के बारे में बताते हुए मर गया था।
- यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि ‘एक व्यक्ति झूठ के साथ अपने सृजनकर्त्ता के समक्ष नहीं जा सकता।
- अधिनियम की धारा 60 के तहत सामान्य नियम यह है कि सभी मौखिक साक्ष्य प्रत्यक्ष होने चाहिये यानी पीड़ित ने इसे सुना, देखा या महसूस किया हो।
‘मृत्युपूर्व घोषणा' संबंधी नियम
- ‘मृत्युपूर्व घोषणा' को मुख्यतः दो व्यापक नियमों के आधार पर स्वीकृति दी जा सकती है:
- जब पीड़ित प्रायः अपराध का एकमात्र प्रमुख प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य हो।
- ‘आसन्न मृत्यु का बोध’, जो न्यायालय में शपथ दायित्व के समान ही होता है।
‘मृत्युपूर्व घोषणा' की रिकॉर्डिंग:
- कानून के अनुसार, कोई भी व्यक्ति मृतक का मृत्युपूर्व बयान दर्ज कर सकता है। हालाँकि न्यायिक या कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया गया मृत्युकालीन बयान अभियोजन मामले में अतिरिक्त शक्ति प्रदान करेगा।
- ‘मृत्युपूर्व घोषणा' कई मामलों में "घटना की उत्पत्ति को साबित करने के लिये साक्ष्य का प्राथमिक हिस्सा" हो सकती है।
- इस तरह की घोषणा के लिये अदालत में पूरी तरह से जवाबदेह होने की एकमात्र आवश्यकता पीड़ित के लिये स्वेच्छा से बयान देना और उसकी मानसिक स्थिति का स्वस्थ्य होना है।
- मृत्यु से पहले की गई घोषणा को दर्ज करने वाले व्यक्ति को इस बात से संतुष्ट होना चाहिये कि पीड़ित की मानसिक स्थिति ठीक है।
ऐसी स्थितियाँ जहाँ न्यायालय इसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं करता है:
- हालाँकि ‘मृत्युपूर्व घोषणा' अधिक प्रभावकारी होती है क्योंकि आरोपी के पास जिरह की कोई गुंजाइस नहीं होती है।
- यही कारण है कि अदालतों ने सदैव इस बात पर ज़ोर दिया है कि ‘मृत्युपूर्व घोषणा' इस तरह की होनी चाहिये कि अदालत को इसकी सत्यता पर पूरा भरोसा हो।
- अदालतें इस बात की जाँच करने के मामले में सतर्क होती हैं कि मृतक का बयान किसी प्रोत्साहन या कल्पना का उत्पाद तो नहीं है।
पुष्टि की आवश्यकता (सबूत के समर्थन में):
- कई निर्णयों में यह उल्लेख किया गया है कि यह न तो कानून का नियम है और न ही विवेक का, कि मृत्यु से पहले की घोषणा की बिना पुष्टि किये कार्रवाई नहीं की जा सकती है।
- यदि न्यायालय इस बात से संतुष्ट है कि मृत्युपूर्व घोषणा सत्य और स्वैच्छिक है तो बिना पुष्टि के उस आधार पर दोषसिद्ध किया जा सकता है।
- जहाँ मृत्युपूर्व घोषणापत्र संदेहास्पद हो, उस पर बिना पुष्ट साक्ष्य के कार्रवाई नहीं की जानी चाहिये क्योंकि मृत्युपूर्व घोषणा में घटना के बारे में विवरण नहीं होता है।
- इसे केवल इसलिये खारिज नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि यह एक संक्षिप्त कथन है। इसके विपरीत कथन की संक्षिप्तता ही सत्य की गारंटी देती है।
- इसे केवल इसलिये खारिज नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि यह एक संक्षिप्त कथन है। इसके विपरीत कथन की संक्षिप्तता ही सत्य की गारंटी देती है।
चिकित्सकीय राय की वैधता:
- आमतौर पर अदालत इस बात की संतुष्टि के लिये चिकित्सकीय राय ले सकती है कि क्या व्यक्ति मृत्युकालीन घोषणा करने के समय स्वस्थ मानसिक स्थिति में था।
- लेकिन जहाँ चश्मदीद गवाह के कथन के अनुसार व्यक्ति ने मौत से पहले घोषणा मानसिक रूप से स्वस्थ और सचेत अवस्था में की है, वहाँ चिकित्सकीय राय मान्य नहीं हो सकती।