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डेली न्यूज़

  • 16 Dec, 2024
  • 43 min read
शासन व्यवस्था

संसदीय उत्पादकता में वृद्धि

प्रिलिम्स के लिये:

उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति, संसद की उत्पादकता, संसदीय बहस, स्थगन, संसद में प्रस्ताव

मेन्स के लिये:

संसद की कार्य प्रणाली से संबंधित मुद्दे

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति ने संसद में बढ़ते व्यवधानों पर प्रकाश डाला तथा टकरावपूर्ण राजनीति से रचनात्मक चर्चा की ओर जाने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।

  • उन्होंने राजनीतिक दलों से संसदीय शिष्टाचार को बनाए रखने, आम सहमति को बढ़ावा देने, लोकतंत्र को सुदृढ़ करने और जनता का विश्वास पुनः स्थापित करने के लिये सार्थक संवाद को प्राथमिकता देने का आग्रह किया।

भारत में संसद की कार्य प्रणाली में क्या चुनौतियाँ हैं?

  • सदन में बार-बार व्यवधान:
    • अक्सर विपक्षी विरोधों के कारण होने वाले व्यवधानों से बहुमूल्य समय और संसाधनों की बर्बादी होती है तथा संसद के विधायी और प्रतिनिधि कार्यों को नुकसान पहुँचता है। 
      • इसके परिणामस्वरूप प्रमुख विधेयक पर्याप्त चर्चा के बिना पारित कर दिये जाते हैं, जिससे विधायी बहस की गुणवत्ता और संसदीय कार्यवाही की प्रभावशीलता कम हो जाती है।
      • उदाहरण के लिये संसद के 2023 के शीतकालीन सत्र में महत्त्वपूर्ण व्यवधानों का सामना करना पड़ा, जिसमें संसदीय सुरक्षा में उल्लंघन जैसे मुद्दों से संबंधित विरोध प्रदर्शनों पर 141 विपक्षी सांसदों को निलंबित करना भी शामिल था।
  • राजनीतिक ध्रुवीकरण और प्रतिकूल राजनीति:
    • सरकार और विपक्ष के बीच  तीव्र ध्रुवीकरण ने विरोधी राजनीति को बढ़ावा दिया है, जिससे विधायी प्रगति अवरुद्ध हो गई है।
      • यह विभाजनकारी दृष्टिकोण प्रभावी शासन के लिये आवश्यक सर्वसम्मति को कमज़ोर करता है।
  • सत्रों में भागीदारी का अभाव:
    • 17वीं लोकसभा (2019-2024) के दौरान सभी सत्रों में औसत उपस्थिति 79% थी, लेकिन चर्चा में भागीदारी सीमित थी, जिसमें प्रत्येक संसद सदस्य ने औसतन 45 चर्चाओं में भाग लिया। 
    • कुछ सत्रों में उपस्थिति कम देखी गई, जैसे कि वर्ष 2021 का बजट सत्र, जिसमें मुख्य रूप से महामारी के प्रभाव के कारण 69% तक की गिरावट दर्ज की गई​। 
  • विधि की खराब गुणवत्ता:
    • विधि की गुणवत्ता अक्सर अपर्याप्त बहस और जाँच के कारण प्रभावित होती है तथा कभी-कभी विधेयक जल्दबाज़ी में पारित कर दिये जाते हैं, जिससे स्पष्टता और प्रभावी कार्यान्वयन प्रभावित होता है।
      • सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2019 को सूचना आयोग की स्वायत्तता को कमज़ोर करने तथा हितधारकों के साथ अपर्याप्त परामर्श को दर्शाने के लिये आलोचना का सामना करना पड़ा।
  • लैंगिक समानता का अभाव:
    • 18 वीं लोकसभा में 74 महिलाएँ निर्वाचित हुईं, जो कुल सदस्यों का 13.6% थीं।
      • यह 17 वीं लोकसभा की तुलना में थोड़ी कम हैं, जहाँ महिलाएँ 14.4% सदस्य थीं। 
    • इसके अतिरिक्त राज्यसभा में महिलाओं की हिस्सेदारी 14.05% है।
      • अप्रैल 2024 तक विश्व भर में संसद सदस्यों में महिलाओं की संख्या 26.9% है

संसद का समुचित संचालन सुनिश्चित करने के लिये क्या कदम उठाए गए हैं?

  • आचार संहिता: संसद सदस्यों (MPs) के आचरण का मार्गदर्शन करने, शिष्टाचार को बढ़ावा देने, व्यवधान को कम करने तथा सक्रिय भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिये एक आचार संहिता स्थापित की गई है। 
  • प्रौद्योगिकी अपनाना: संसद ने अपनी कार्यकुशलता बढ़ाने के लिये प्रौद्योगिकी को अपनाया है। 
    • भारत में संसदीय कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग से सांसदों के बीच अधिक जवाबदेही और शिष्टाचार को बढ़ावा मिला है , क्योंकि वास्तविक समय के प्रसारण से सार्वजनिक जाँच बढ़ जाती है। 
      • इससे उनका व्यवहार अधिक अनुशासित हुआ है तथा संसद सदस्यों को इस बात का अनुभव हो गया है कि उन पर नज़र रखी जा रही है। 
    • इसके अतिरिक्त सांसदों के बीच बेहतर संचार के लिये ऑनलाइन प्लेटफॉर्म तथा ऐप विकसित किये गए हैं।
  • समिति प्रथा: संसद विधेयकों, नीतियों और सरकारी पहलों को मुख्य सदन में पहुँचने से पहले जाँचने के लिये एक मज़बूत समिति प्रथा का उपयोग करती है, जिससे विधायी प्रक्रियाओं की गुणवत्ता में सुधार होता है।
    • इससे यह सुनिश्चित होता है कि विशेषज्ञों की राय एकीकृत हो, जिससे विधायी कार्यों की प्रभावशीलता और गुणवत्ता में सुधार हो।
  • अनुशासनात्मक कार्रवाई:
    • सांसदों के व्यवधानकारी व्यवहार को अनुशासनात्मक कार्रवाई के माध्यम से संबोधित किया जाता है। जो सांसद अनियंत्रित आचरण में संलिप्त होते हैं, उन्हें सदन से निलंबन या निष्कासन का सामना करना पड़ सकता है। 
      • यह उपाय जवाबदेही सुनिश्चित करता है और संसदीय प्रक्रिया को कमज़ोर करने वाले व्यवहार को हतोत्साहित करता है।

भारत में संसदीय कार्यप्रणाली की उत्पादकता कैसे बढ़ाई जा सकती है?

  • रचनात्मक परिचर्चा के प्रति प्रतिबद्धता: 
    • राजनीतिक दलों को रचनात्मक संवाद को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये और बाधा उत्पन्न करने वाली रणनीतियों से दूर रहना चाहिये। 
      • आम सहमति निर्माण को बढ़ावा देना चाहिये, जिसमें सरकार विपक्ष की चिंताओं का समाधान करे और विपक्ष संबंधी व्यवहार्य विकल्प प्रस्तुत करे। 
      • यह दृष्टिकोण अधिक उत्पादक परिचर्चा सुनिश्चित करता है, तथा संसदीय कार्यवाही की समग्र प्रभावशीलता में योगदान देता है।
  • पीठासीन अधिकारी की भूमिका को सुदृढ़ करना: 
    • संसदीय कार्यकुशलता में सुधार लाने के लिये सदन के अध्यक्ष/सभापति को व्यवधानों का त्वरित समाधान करने तथा संसदीय नियमों का पालन सुनिश्चित करने के लिये अधिक शक्तियाँ प्रदान की जानी चाहिये।
    • इससे शिष्टाचार बनाए रखने में सहायता मिलेगी, जिससे विधायी प्रक्रिया अनावश्यक रुकावटों के बगैर सुचारू रूप से आगे बढ़ सकेगी।
  • जवाबदेही संस्कृति को बढ़ावा देना: 
    • संसद में जवाबदेही को बढ़ावा देने के लिये राजनीतिक दलों को सांसदों की उपस्थिति, परिचर्चा में भागीदारी और मतदान रिकॉर्ड की निगरानी करके यह सुनिश्चित करना चाहिये कि वे विधायी प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लें।
    • साथियों का दबाव, पार्टी अनुशासन और अनुकरणीय सांसदों के उदाहरणों का अनुसरण करने से सत्यनिष्ठा और रचनात्मक संवाद को बढ़ावा मिलेगा तथा लोकतांत्रिक मूल्यों को दृढ़ता  मिलेगी।
    • इसके अतिरिक्त सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम का लाभ उठाकर यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि सांसदों के कार्य और रिकॉर्ड जनता के लिये सुलभ हों, जिससे अधिक जवाबदेही को बढ़ावा मिलेगा।
  • जन सहभागिता और पारदर्शिता: संसद की कार्य-पद्धति के बारे में लोगों को अधिक जागरूक करने से संस्था में लोक न्यास का निर्माण हो सकता है। 
    • बेहतर मीडिया कवरेज और निर्णय लेने में पारदर्शिता से अधिक जवाबदेही सुनिश्चित होगी।
  • राजनीति में युवाओं की सहभागिता: नैतिक आचरण और प्रभावी शासन को बढ़ावा देते हुए युवा नेताओं को सत्यनिष्ठा, पारदर्शिता और जवाबदेही जैसे मूल्यों पर ध्यान केंद्रित करने के लिये प्रोत्साहित करने से संसदीय कार्यवाही में नए दृष्टिकोण शामिल किये जा सकते हैं।

निष्कर्ष

भारतीय संसद को निरंतर व्यवधान, अल्प सहभागिता और अप्रभावी विधान जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। हालाँकि आचार संहिता को लागू करना, प्रौद्योगिकी को उपयोग में लाना, समिति प्रणालियों को सुदृढ़ करना और अनुशासनात्मक उपायों के कार्यान्वन जैसे सुधार इन मुद्दों का समाधान करने हेतु महत्त्वपूर्ण हैं। अपने लोकतांत्रिक कार्य में सुधार लाने हेतु, संसद को पारदर्शिता, जवाबदेही और समावेशिता बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये। इससे संसद द्वारा लोगों का प्रभावी प्रतिनिधित्व और प्रभावशाली, सार्थक विधि निर्माण सुनिश्चित होगा।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

Q. संसद में अक्सर व्यवधान उत्पन्न होने के क्या कारण हैं? निर्बाध बहस सुनिश्चित करने के लिये प्रक्रियाओं में किस प्रकार सुधार किया जा सकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सी लोकसभा की अनन्य शक्तियाँ हैं? (2022)

  1. आपात की उद्घोषणा का अनुसमर्थन करना। 
  2. मंत्रिपरिषद के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करना। 
  3. भारत के राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाना।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) 1 और 2 
(b) केवल 2 
(c) 1 और 3 
(d) केवल 3

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न. आपकी दृष्टि में भारत में कार्यपालिका की जवाबदेही को निश्चित करने में संसद कहाँ तक समर्थ है? (2021)


भारतीय अर्थव्यवस्था

भारत और वैश्वीकरण का बदलता परिदृश्य

प्रारंभिक परीक्षा के लिये:

वैश्वीकरण, भारत और वैश्वीकरण, भारत में एफडीआई, आत्मनिर्भर भारत, अमेरिका-चीन व्यापार, भारत-चीन संबंध, जनसांख्यिकीय लाभांश

मुख्य परीक्षा के लिये:

वैश्वीकरण का प्रभाव, विवैश्वीकरण, संरक्षणवाद और वैश्वीकरण का मुद्दा

स्रोत: फाइनेंसियल एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों?

हाल के भू-राजनीतिक बदलावों, जैसे कि रूस-यूक्रेन युद्ध , मध्य-पूर्व में संघर्ष और चीन तथा पश्चिम के बीच बिगड़ते राजनीतिक संबंधों ने वैश्वीकरण के भविष्य और भारत जैसे देशों के लिये इसके निहितार्थ पर सवाल उठाए हैं। 

  • साथ ही भारत का आत्मनिर्भर भारत का दृष्टिकोण वैश्विक एकीकरण के साथ आत्मनिर्भरता के संतुलन संबंधी परिचर्चा को जन्म देता है।
  • नोट: वैश्वीकरण वस्तुओं, सेवाओं, प्रौद्योगिकी और विचारों के आदान-प्रदान के माध्यम से देशों की बढ़ती अंतर्संबंधता है, जो संचार, परिवहन और व्यापार उदारीकरण में प्रगति से प्रेरित है।  

समय के साथ वैश्वीकरण किस प्रकार विकसित हुआ है?

वैश्वीकरण की नींव:

  • प्रारंभिक व्यापार नेटवर्क: सिल्क रोड, हिंद महासागर व्यापार और ट्रांस-सहारा व्यापार मार्ग जैसे व्यापार मार्ग विविध क्षेत्रों को जोड़ते थे, जिससे रेशम, मसाले, सोना, नमक और हाथीदाँत जैसी वस्तुओं का आदान-प्रदान संभव हो पाता था। 
  • सांस्कृतिक और धार्मिक आदान-प्रदान: व्यापार और प्रवास ने बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म तथा इस्लाम जैसे धर्मों के प्रसार को सुगम बनाया, साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में कला, वास्तुकला और वैज्ञानिक ज्ञान के आदान-प्रदान को भी संभव बनाया। 
  • उपनिवेशवाद और औद्योगीकरण: यूरोपीय औपनिवेशिक विस्तार और औद्योगिक क्रांति ने मशीनीकृत उत्पादन तथा लंबी दूरी के व्यापार के माध्यम से दूरस्थ अर्थव्यवस्थाओं को जोड़ा। 

युद्धोत्तर काल में वैश्वीकरण को संस्थागत बनाना:

आधुनिक वैश्वीकरण: 

  • उत्प्रेरक के रूप में प्रौद्योगिकी: 20वीं सदी के उत्तरार्ध में इंटरनेट और डिजिटल संचार के उदय से त्वरित वैश्विक कनेक्टिविटी सक्षम हुई तथा ई-कॉमर्स, सोशल मीडिया और इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) के माध्यम से अंत: संबद्ध विश्व को बढ़ावा दिया।
  • बहुराष्ट्रीय कंपनियों का उदय: एप्पल, गूगल और टोयोटा जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं का उदाहरण हैं, जो समग्र विश्व में नवाचार, निवेश एवं रोज़गार सृजन को बढ़ावा देते हुए विभिन्न महाद्वीपों में उत्पादन तथा सेवाओं का प्रसार कर रही हैं।
  • वैश्विक वित्तीय प्रवाह: आर्थिक उदारीकरण ने सीमा पार निवेश और वैश्विक वित्तीय बाज़ार एकीकरण को बढ़ावा दिया, जिसमें यूरोज़ोन, BRICS और ASEAN जैसी पहलों ने वैश्विक ढाँचे के भीतर क्षेत्रीय अंतरनिर्भरता का उदाहरण प्रस्तुत किया।
  • वैश्वीकरण की आघात सहनीयता: 2008 के वित्तीय संकट और कोविड-19 महामारी जैसी असफलताओं के बावजूद , वैश्विक व्यापार और संचार में तेज़ी आई, जो सुदृढ़ वैश्विक अंतर्संबंध का द्योतक है।

21वीं सदी में वैश्वीकरण से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं ?

  • वैश्वीकरण की चुनौतियाँ:
    • आर्थिक राष्ट्रवाद और संरक्षणवाद: राष्ट्रवादी सरकारें सामान्यतः उच्च आयात शुल्क, व्यापार बाधाएँ और घरेलू उद्योगों के लिये सब्सिडी जैसे संरक्षणवादी उपाय अपनाती हैं, जिससे वैश्विक व्यापार और निवेश प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती है।
      • उदाहरण के लिये, भारत के आत्मनिर्भर भारत संकल्पना को अंतर्मुखी या संरक्षणवादी होने के कारण इसकी आलोचना की गई।
    • भू-राजनीतिक संघर्ष: अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध, रूस-यूक्रेन संघर्ष और आर्थिक प्रतिबंध जैसे तनाव वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं को बाधित करते हैं और बहुपक्षीय सहयोग को कमज़ोर करते हैं।
    • आर्थिक असमानताएँ: बाज़ार पहुँच, तकनीकी प्रगति और संसाधन वितरण के संदर्भ में विकसित और विकासशील देशों के बीच असमानताएँ वैश्वीकरण की समावेशिता के समक्ष  चुनौती हैं।
  • वैश्वीकरण से उत्पन्न चुनौतियाँ:
    • आर्थिक असमानताएँ: वैश्वीकरण से प्रायः धनी देशों और बहुराष्ट्रीय निगमों को अधिक लाभ होता है, जिससे आय अंतराल बढ़ता है और छोटी अर्थव्यवस्थाएँ कमज़ोर हो जाती हैं।
      • इसके अतिरिक्त कंपनियाँ अपने उत्पादन को उन देशों में स्थानांतरित करने की प्रवृत्ति रखती हैं जहाँ पारिश्रमिक कम होता है तथा श्रम विधि कम कठोर होती है, जिससे रोज़गार सृजन एवं श्रमिक शोषण के बीच संतुलन के संबंध में चिंताएँ उजागर होती हैं।
    • सांस्कृतिक क्षरण: वैश्विक संस्कृति के प्रसार से अक्सर स्थानीय परंपराओं पर ग्रहण लगने का संकट  रहता है - वैश्विक मीडिया और उपभोक्तावाद के माध्यम से पश्चिमी संस्कृति का प्रभुत्व स्थानीय रीति-रिवाजों, भाषाओं और सांस्कृतिक पहचानों के लिये संकट उत्पन्न करता है।
    • पर्यावरणीय प्रभाव: वैश्वीकरण द्वारा प्रेरित बढ़ता औद्योगीकरण, वैश्विक परिवहन और संसाधनों का दोहन पर्यावरणीय क्षरण और जलवायु परिवर्तन में योगदान देता है ।

वैश्वीकरण के युग में भारत की उपलब्धियाँ क्या हैं?

  • पृष्ठभूमि: भारत ने भुगतान संतुलन का संकट  से उत्पन्न आर्थिक सुधारों के माध्यम से वर्ष 1991 में वैश्वीकरण को अपनाया।
    • सुधारों में उदारीकरण, निजीकरण और विदेशी निवेश के लिये रास्ता खोलना शामिल था, जिससे अर्थव्यवस्था संरक्षणवाद से बाजार संचालित प्रणाली में परिवर्तित हो गयी।
  • आर्थिक योगदान:
    • आईटी एवं  डिजिटल क्रांति: वैश्विक स्तर पर सूचना प्रौद्योगिकी में अग्रणी भारत, बेंगलुरु जैसे शहरों और इंफोसिस एवं टीसीएस जैसी कंपनियों के साथ, विश्वभर के ग्राहकों को डिजिटल सेवाओं की सुविधा प्रदान करने वाला केंद्र बन गया है।
    • वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं में भागीदारी: भारत विनिर्माण को बढ़ावा देने और विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिये मेक इन इंडिया जैसी पहलों के समर्थन से फार्मास्यूटिकल्स, वस्त्र एवं ऑटोमोटिव घटकों जैसे क्षेत्रों में वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं में एकीकृत हो रहा है।
    • व्यापार और निवेश: भारत ने आसियान, यूरोपीय संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे समूहों के साथ व्यापार साझेदारी का विस्तार किया है, जबकि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के प्रवाह में उतार-चढ़ाव वैश्विक निवेश गंतव्य के रूप में इसके आकर्षण को दर्शाता है।
    • जनसांख्यिकीय लाभांश: युवा कार्यबल और विशाल प्रवासी समुदाय के साथ, भारत वैश्विक श्रम बाजार में, विशेष रूप से स्वास्थ्य सेवा और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में, महत्वपूर्ण योगदान देता है, जबकि डायस्पोरा धन प्रेषण से उसके वैश्विक आर्थिक संबंध मजबूत होते हैं।
  • राजनीतिक और रणनीतिक भूमिका: 
    • बहुपक्षवाद को बढ़ावा देना: संयुक्त राष्ट्र (यूएन), जी-20, ब्रिक्स एवं शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) जैसे वैश्विक मंचों में भारत की सक्रिय भागीदारी, साथ ही जी-20 की अध्यक्षता, विकासशील देशों के लिये इसकी वकालत और समावेशी, सतत् विकास के प्रति इसकी प्रतिबद्धता को उजागर करती है।
  •  शक्तियों में संतुलन: भारत की रणनीतिक स्थिति अमेरिका, रूस एवं चीन जैसी प्रमुख शक्तियों के साथ संतुलित संबंध बनाने में सक्षम बनाती है। 
  • सॉफ्ट पॉवर डिप्लोमेसी: भारत योग, बॉलीवुड और पारंपरिक व्यंजनों समेत अपनी सांस्कृतिक विरासत का लाभ उठाता है, तथा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस जैसी पहलों के माध्यम से अपने वैश्विक प्रभाव को बढ़ाता है तथा एक शांतिप्रिय राष्ट्र के रूप में अपनी छवि को बढ़ावा देता है।
  • सुरक्षा एवं संरक्षण: संयुक्त राष्ट्र शांति मिशनों में भारत का योगदान तथा इसके रक्षा निर्यात एवं इज़रायल तथा अमेरिका जैसे देशों के साथ सहयोग वैश्विक सुरक्षा और सामरिक मामलों में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते हैं।

भारत की विकास रणनीति में राष्ट्रवाद और वैश्वीकरण एक साथ कैसे रह सकते हैं?

  • वैश्विक स्तर पर स्वदेशी उत्पादों और संस्कृति को बढ़ावा देना: भारतीय हस्तशिल्प, पारंपरिक दवाओं और स्थानीय वस्तुओं के निर्यात के लिये वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट और वोकल फॉर लोकल जैसी पहलों का विस्तार करना, साथ ही भारत की सॉफ्ट पॉवर को मज़बूत करने और पारंपरिक शिल्प को वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में एकीकृत करने के लिये सांस्कृतिक कूटनीति का लाभ उठाना
  • नवीकरणीय ऊर्जा में अग्रणी: वैश्विक जलवायु कार्रवाई के साथ राष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा को संतुलित करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) और नवीकरणीय ऊर्जा नवाचारों में भारत की भूमिका को मज़बूत करना।
  • व्यापार के लिये प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: व्यापार को आधुनिक बनाने, पारदर्शिता, दक्षता और सतत् विकास के साथ संरेखण सुनिश्चित करने के लिये ब्लॉकचेन, फिनटेक और डिजिटल उपकरणों को एकीकृत करना।
  • वैश्विक साझेदारियों में विविधता लाना: महत्त्वपूर्ण खनिजों, अर्द्धचालकों और नवकरणीय ऊर्जा घटकों जैसे संसाधनों के लिये एकल राष्ट्र पर निर्भरता कम करने के लिये उभरते बाज़ारों के साथ लचीले संबंधों को बढ़ावा देना, तथा पारस्परिक विकास को बढ़ावा देना। 
  • जनसांख्यिकीय लाभांश का उपयोग: भारत कौशल में वृद्धि, उद्यमशीलता को बढ़ावा देने और आर्थिक विकास को गति देने के लिये वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं में एकीकरण करके अपने जनसांख्यिकीय लाभांश का उपयोग कर सकता है।

निष्कर्ष

वैश्वीकरण में वृद्धि हो रही है, यह भू-राजनीतिक तनाव और जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों का समाधान करने के लिये अनुकूल रणनीतियों की मांग कर रहा है, साथ ही नवाचार और स्थिरता के अवसरों का लाभ उठा रहा है। भारत अपनी जनसांख्यिकीय क्षमता, आर्थिक प्रभाव और वैश्विक पहलों में नेतृत्व के साथ इस परिवर्तन को आगे बढ़ाने के लिये अच्छी स्थिति में है। आत्मनिर्भरता को वैश्विक एकीकरण के साथ जोड़कर, भारत एक लचीली, समावेशी और दूरदर्शी वैश्विक व्यवस्था को आकार दे सकता है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: 21वीं सदी में वैश्वीकरण के समक्ष आने वाली चुनौतियों और अवसरों पर चर्चा कीजिये। भारत अपनी आत्मनिर्भरता की महत्त्वाकांक्षाओं को वैश्वीकृत दुनिया की मांगों के साथ किस प्रकार संतुलित कर सकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

मुख्य:

प्रश्न 1. वैश्वीकरण ने भारत में सांस्कृतिक विविधता के आंतरक (कोर) को किस सीमा तक प्रभावित किया है?स्पष्ट कीजिये। (2016)

प्रश्न 2. भारत में महिलाओं पर वैश्वीकरण के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों पर चर्चा कीजिये। (2015)


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

पेरिस समझौते के नौ वर्ष

प्रिलिम्स के लिये:

पेरिस समझौता, UNFCCC, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC), क्योटो प्रोटोकॉल बनाम पेरिस समझौता, जलवायु वित्त, साझा लेकिन विभेदित ज़िम्मेदारियाँ (CBDR), विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) रिपोर्ट, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ), लघु द्वीपीय विकासशील राज्य (SIDS)

मेन्स के लिये:

पेरिस समझौते की उपलब्धियाँ और चुनौतियाँ, वैश्विक जलवायु वित्त संबंधी मुद्दे और उनका निवारण

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों?

12 दिसंबर, 2015 को अंगीकृत पेरिस समझौते के नौ वर्ष पूर्ण होने के साथ इसकी संवीक्षा की जा रही है।

  • वैश्विक तापमान वृद्धि को सीमित करने के अपने महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों के बावजूद, हालिया रुझान जलवायु परिवर्तन का शमन करने में इसकी प्रभावहीनता को उजागर करते हैं। पिछले नौ वर्षों में, वैश्विक उत्सर्जन में 8% की वृद्धि हुई है और अनुमानतः वर्ष 2024 में पहली बार यह पूर्व-औद्योगिक स्तरों से ऊपर 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा से अधिक हो जाएगा।

पेरिस समझौता क्या है?

  • परिचय:
    • यह जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के तहत विधिक रूप से बाध्यकारी वैश्विक समझौता है जिसका अंगीकार वर्ष 2015 (COP 21) में किया गया था।
    • इसका उद्देश्य तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने की महत्त्वाकांक्षा के साथ जलवायु परिवर्तन का शमन करना और वैश्विक तापमान को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित रखना है।
    • इसने क्योटो प्रोटोकॉल का स्थान लिया जो जलवायु परिवर्तन के शमन हेतु एक पूर्व समझौता था।
    • पेरिस समझौते के अंतर्गत, प्रत्येक देश को हर पाँच वर्ष में अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) प्रस्तुत करना और उसे अद्यतन करना होता है, जिसमें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने तथा जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने की उनकी योजनाओं की रूपरेखा होती है।
      • NDC, देशों द्वारा अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने तथा जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल कार्य करने हेतु की गई प्रतिज्ञाएँ हैं।
  • उपलब्धियाँ:
    • वैश्विक सहमति और समावेशिता: ऐसा प्रथमतः है जब, लगभग सभी राष्ट्र, विकसित, विकासशील और अल्प विकसित, एक सार्वभौमिक ढाँचे के तहत जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये प्रतिबद्ध हैं, जहाँ सभी देश राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) के माध्यम से योगदान करते हैं, जिससे वैश्विक भागीदारी और जवाबदेही सुनिश्चित होती है।
    • विकासशील देशों के लिये वित्तीय सहायता: विकसित देशों ने विकासशील देशों को शमन और अनुकूलन में सहायता देने के लिये 2020 तक प्रतिवर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाने का संकल्प लिया है, जिसमें कमज़ोर देशों के लिये सतत् विकास को सक्षम बनाने के लिये वर्ष 2020 के बाद वित्तीय प्रतिबद्धताओं को बढ़ाने का प्रावधान भी शामिल है।
    • समानता और विभेदित ज़िम्मेदारियाँ: राष्ट्रीय परिस्थितियों के आधार पर प्रतिबद्धताओं को संतुलित करने के लिये "साझा लेकिन विभेदित ज़िम्मेदारियाँ (CBDR)” के UNFCCC सिद्धांत को शामिल किया गया, जिससे विकासशील और अल्प विकसित देशों के लिये निष्पक्षता सुनिश्चित हुई।
  • आलोचना: विश्व  विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) की वर्ष 2022 की स्टेट ऑफ द ग्लोबल क्लाइमेट रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता अपने एजेंडे को पूरा करने में अप्रभावी रहा है।
    • समझौते पर हस्ताक्षर के बाद, पिछले आठ वर्ष (2015-2022) लगातार वैश्विक स्तर पर सबसे गर्म वर्ष रहे हैं।
      • यदि पिछले तीन वर्षों में ला नीना मौसम घटना नहीं घटी होती, तो स्थिति और भी संकटपूर्ण हो सकती थी, जिसका मौसम प्रणाली पर शीतलन प्रभाव पड़ता है।
    • वर्तमान राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) प्रतिबद्धताएँ वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिये अपर्याप्त हैं, जिसमें 2.5-2.9 डिग्री सेल्सियस का अनुमान है तथा लक्ष्यों एवं वास्तविक कार्यान्वयन के बीच अंतर के कारण वर्ष 2030 तक उत्सर्जन और भी अधिक हो सकता है।
    • विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) की रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि वर्ष  2015 का पेरिस समझौता पर्याप्त नहीं है तथा इसके पूरक के रूप में जीवाश्म ईंधन संधि की आवश्यकता है।
    • यद्यपि कई देशों में एनडीसी और आपदा जोखिम न्यूनीकरण योजनाएँ लागू हैं, फिर भी उनकी पर्याप्तता एवं कार्यान्वयन प्रभावशीलता अलग-अलग हैं।
      • उदाहरण के लिये, जबकि यूरोपीय संघ के एनडीसी यूरोपीय ग्रीन डील की तरह सुदृढ़ लक्ष्य और कार्यान्वयन को दर्शाते हैं, दक्षिण अफ्रीका जैसे देश कोयले पर निर्भरता तथा  सीमित संसाधनों के कारण प्रभावी कार्यान्वयन के लिये संघर्ष करते हैं।

UNFCCC 

पेरिस समझौते पर विकसित, विकासशील और अल्पविकसित देशों के अलग-अलग दृष्टिकोण क्या हैं?

पहलू

विकसित देश

विकासशील देश

अल्प-विकसित देश (LDCs)

एनडीसी के प्रति दृष्टिकोण

लचीलेपन के लिये स्वैच्छिक एनडीसी का पक्ष लें।

स्वैच्छिक एनडीसी की अपर्याप्त एवं असमान बताते हुए आलोचना करना।

मज़बूत वैश्विक कार्रवाई के लिये कानूनी रूप से बाध्यकारी प्रतिबद्धताओं की मांग करना।

जलवायु वित्त

कम औद्योगिकीकृत देशों पर अधिक ज़िम्मेदारी डालने के लिये आलोचना का सामना करना पड़ रहा है।

विकसित देशों से पर्याप्त एवं समय पर वित्तीय सहायता का समर्थन करना।

वादा किये गए वित्तपोषण में विलंब और अपर्याप्तता से निराशा, विशेष रूप से अनुकूलन और हानि एवं क्षति के लिये।

प्रौद्योगिकी हस्तांतरण

सीमित, बाज़ार-आधारित प्रौद्योगिकी साझाकरण का समर्थन करना।

हरित अर्थव्यवस्थाओं में परिवर्तन के लिये सुलभ एवं किफायती प्रौद्योगिकी की मांग करना।

महत्त्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों तक पहुँच की कमी पर प्रकाश डालना, जिससे उनकी भेद्यता वृद्धि होती है।

ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी

ऐतिहासिक उत्सर्जन जवाबदेही से आगे बढ़ने का प्रयास करना।

विकसित देशों को जवाबदेह ठहराने के लिये "साझा लेकिन विभेदित ज़िम्मेदारियों" (CBDR) के सिद्धांत पर परिचर्चा करना।

वैश्विक कार्रवाई में निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिये ऐतिहासिक उत्सर्जन को संबोधित करने के महत्त्व पर ज़ोर देना।

अनुकूलन हेतु आवश्यकताएँ

अनुकूलन की अपेक्षा शमन रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करना।

वर्तमान और भविष्य के जलवायु प्रभावों से निपटने के लिये शमन एवं अनुकूलन दोनों पर ज़ोर देना।

गंभीर कमज़ोरियों, विशेषकर समुद्र-स्तर में वृद्धि और चरम मौसमी घटनाओं के कारण अनुकूलन को प्राथमिकता देना।

लॉस एंड डैमेज

मुआवज़ा या क्षतिपूर्ति देने में अनिच्छा प्रदर्शित करना।

हानि और क्षति से निपटने के लिये मज़बूत तंत्र की स्थापना का समर्थन करना।

उनके अस्तित्त्व को संकट में डालने वाले अपरिवर्तनीय जलवायु प्रभावों के लिये तत्काल कार्रवाई और क्षतिपूर्ति की मांग करना।

पेरिस समझौते के कार्यान्वयन में कमियों को दूर करने के लिये क्या किया जा सकता है?

  • एनडीसी को सुदृढ़ और लागू करना: एनडीसी को तापमान लक्ष्यों के साथ संरेखित करने के लिये समय-समय पर समीक्षा के साथ कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाना, साथ ही यह सुनिश्चित करना कि विकसित देश अपने ऐतिहासिक उत्सर्जन एवं वित्तीय क्षमता को दर्शाते हुए उच्च शमन लक्ष्य को  अपनाएँ।
  • जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना: जीवाश्म ईंधनों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लिये एक बाध्यकारी वैश्विक ढाँचा स्थापित करना, स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन के लिये विकासशील देशों को वित्तीय एवं तकनीकी सहायता प्रदान करना तथा नवीकरणीय ऊर्जा निवेशों को प्राथमिकता देने के लिये जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को समाप्त करना।
  • जलवायु वित्त को बढ़ावा देना: विकसित देशों को वर्ष 2035 तक 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर के वार्षिक जलवायु वित्त लक्ष्य को पार करना होगा, कमज़ोर देशों के लिये अनुकूलन और लॉस एंड डैमेज वित्तपोषण पर ध्यान केंद्रित करना होगा तथा कार्बन कर एवं विमानन कर जैसे नवीन तंत्रों को लागू करना होगा।
  • प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को बढ़ावा देना: किफायती प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की सुविधा प्रदान करना, प्रशिक्षण और अनुसंधान के माध्यम से तकनीकी क्षमता का निर्माण करना तथा टिकाऊ नवाचार एवं  परिनियोजन के लिये सार्वजनिक-निजी भागीदारी को बढ़ावा देना।
  • अनुकूलन और जोखिम न्यूनीकरण पर ध्यान केंद्रित करना: आपदा जोखिम न्यूनीकरण रणनीति विकसित करना, लचीले बुनियादी ढाँचे में निवेश करना तथा जलवायु-प्रेरित चरम मौसम की घटनाओं के प्रभाव को कम करने के लिये पूर्व चेतावनी प्रणाली स्थापित करना।
  • न्यायसंगत कार्यान्वयन और जवाबदेहिता: सीबीडीआर को बहाल करके समानता को बनाए रखना , एनडीसी और वित्त के लिये पारदर्शी जवाबदेहिता स्थापित करना तथा गैर-अनुपालन के लिये दंड के साथ अनुपालन के लिये प्रोत्साहन को लागू करना।
  • वैश्विक सहयोग में वृद्धि: बाकू में COP29 के हालिया घटनाक्रमों के मद्देनजर, एकीकृत वैश्विक कार्रवाई को सुविधाजनक बनाने के लिये बहुपक्षीय संस्थाओं को मज़बूत करने और गैर-अनुपालन के लिये जवाबदेहिता सुनिश्चित करने वाले मज़बूत विधिक ढाँचे की स्थापना की आवश्यकता है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: पेरिस समझौते की उपलब्धियों पर चर्चा कीजिये और इसके कार्यान्वयन में चुनौतियों का विश्लेषण कीजिये। इसकी प्रभावशीलता बढ़ाने के उपाय सुझाइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

प्रिलिम्स

प्रश्न 1. जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आइ० पी० सी० सी०) ने वैश्विक समुद्र-स्तर में 2100 ईस्वी तक लगभग एक मीटर की वृद्धि का पूर्वानुमान लगाया है। हिंद महासागर क्षेत्र में भारत और दूसरे देशों में इसका क्या प्रभाव होगा? (2023)

प्रश्न 2. ग्लोबल वार्मिंग (वैश्विक तापन) की चर्चा कीजिये और वैश्विक जलवायु पर इसके प्रभावों का उल्लेख कीजिये। क्योटो प्रोटोकॉल, 1997 के आलोक में ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनने वाली ग्रीनहाउस गैसों के स्तर को कम करने के लिये नियंत्रण उपायों को समझाइये। (2022)

प्रश्न 3. संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) के पक्षकारों के सम्मेलन (COP) के 26वें सत्र के प्रमुख परिणामों का वर्णन कीजिये। इस सम्मेलन में भारत द्वारा की गई प्रतिबद्धताएँ क्या हैं? (2021)


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