कृषि नीति निगरानी और मूल्यांकन 2024
प्रिलिम्स के लिये:आर्थिक सहयोग और विकास संगठन, बाज़ार मूल्य समर्थन, न्यूनतम समर्थन मूल्य मेन्स के लिये:सरकारी खरीद और वितरण का प्रभाव, सरकारी नीतियाँ और पहल, कृषि नीति और भारतीय किसानों पर इसका प्रभाव |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) द्वारा अपनी कृषि नीति निगरानी और मूल्यांकन रिपोर्ट 2024 में बताया गया है कि भारत वर्ष 2023 में अपने किसानों पर 120 बिलियन अमेरिकी डॉलर का कर लगाएगा, जो 54 देशों में सबसे अधिक है।
- यह निर्यात प्रतिबंध और शुल्क जैसी सरकारी नीतियों का उद्देश्य उद्देश्य उपभोक्ताओं के लिये खाद्य कीमतों को कम रखना है, लेकिन इससे कृषि क्षेत्र पर भारी वित्तीय बोझ बढ़ता है।
OECD की रिपोर्ट की मुख्य बातें क्या हैं?
- कृषि में वित्तीय सहायता: वर्ष 2021 से 2023 तक 54 देशों में कृषि क्षेत्र के लिये कुल सहायता औसतन 842 बिलियन अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष रही है। यद्यपि वर्ष 2021 के शिखर की तुलना में वर्ष 2022 और 2023 में इसमें गिरावट आई, फिर भी यह कोविड-19 महामारी से पहले के स्तर से काफी अधिक है।
- वर्ष 2021-23 के बीच बाज़ार मूल्य समर्थन (MPS) में 28 बिलियन अमेरिकी डॉलर की गिरावट आई, लेकिन फिर भी यह कुल समर्थन का एक बड़ा हिस्सा बना रहा।
- MPS एक नीतिगत उपाय है जिसका उद्देश्य घरेलू बाज़ार में किसी विशिष्ट कृषि उत्पाद की कीमत को एक निश्चित न्यूनतम (सरकार द्वारा निर्धारित) स्तर पर बनाए रखना है, जिससे घरेलू कीमतों को विश्व कीमतों से ऊपर उठने में मदद मिलेगी।
- भारत में कृषि सहायता: वर्ष 2023 में चावल, चीनी, प्याज और तेल रहित चावल की भूसी पर भारत के निर्यात प्रतिबंधों के कारण MPS नकारात्मक हो गया, जिससे 110 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ।
- परिणामस्वरूप, किसानों को उनकी उपज के लिये उतना मूल्य नहीं मिला जितना इन नीतियों के बिना मिलता, जिससे उनकी आय में उल्लेखनीय कमी आई।
- वर्ष 2023 में भारत का समग्र बाज़ार मूल्य समर्थन नकारात्मक था, जिससे 110 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ, जिसका अर्थ है कि किसानों को उनकी उपज के लिये मूल्य उतना नहीं मिला जितना उन्हें इन नीतियों के बिना मिलता था।
- भारत में सबसे ज़्यादा नकारात्मक मूल्य समर्थन था, उसके बाद वियतनाम और अर्जेंटीना का स्थान था। वर्ष 2023 में वैश्विक नकारात्मक मूल्य समर्थन में भारत का हिस्सा 62.5% था। यह हिस्सा 2000-02 में 61% से बढ़कर 2021-23 में 75% हो गया है, जो भारतीय किसानों पर बढ़ते बोझ को दर्शाता है।
- सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के माध्यम से कुल 10 बिलियन अमेरिकी डॉलर के सकारात्मक समर्थन के बावजूद, मूल्य-निराशाजनक नीतियों ने इन उपायों को के प्रभाव को कम कर दिया।
- वैश्विक कृषि चुनौतियाँ: चल रहे संघर्षों (जैसे कि यूक्रेन के खिलाफ रूस का युद्ध और मध्य पूर्व में अशांति) ने कृषि बाज़ारों को बाधित किया है, जिसने विशेष रूप से व्यापार और वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं को प्रभावित किया है।
- चरम मौसमी घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति और गंभीरता, कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता के लिये चुनौती बनी हुई है।
- कुछ देशों के निर्यात प्रतिबंध से कृषि वस्तुओं का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और अधिक विकृत हो गया है।
- विभिन्न देशों में किसानों के बढ़ते विरोध प्रदर्शन से किसानों के आर्थिक एवं सामाजिक संघर्ष पर प्रकाश पड़ता है।
- वैश्विक कृषि उत्पादकता की वृद्धि धीमी होने से स्थिरता बनाए रखते हुए बढ़ती वैश्विक खाद्य मांगों को पूरा करना जटिल हो गया है।
- सरकारें भुगतान को कृषि पद्धतियों से जोड़ रही हैं जिससे भूमि स्वास्थ्य, जैवविविधता और स्थिरता को समर्थन मिलता है, लेकिन पर्यावरणीय सार्वजनिक वस्तु भुगतान (EPGP) कुल उत्पादक समर्थन का केवल 0.3% है।
- EPGP पर्यावरण को लाभ पहुँचाने वाले सार्वजनिक क्षेत्रों (जैसे जलवायु संरक्षण) को वित्तपोषित करने का एक तरीका है।
- दिशा-निर्देश: सरकारों को धारणीय उत्पादकता हेतु मापनीय लक्ष्य निर्धारित करने की आवश्यकता है तथा कुल कारक उत्पादकता (TFP) एवं कृषि-पर्यावरण संकेतक (AEIs) जैसी निगरानी प्रणालियों में निवेश करना चाहिये।
- TFP द्वारा कृषि इनपुट की दक्षता को मापा जाता है। TFP वृद्धि दर्शाती है कि किसान समान या कम संसाधनों से अधिक उत्पादन कर सकते हैं, जो इसे धारणीय कृषि हेतु एक महत्वपूर्ण उपागम बनाता है।
- AEIs से कृषि से होने वाले प्रमुख पर्यावरणीय प्रभावों और जोखिमों को मापने के साथ उत्पादकों के प्रबंधन के तरीकों का आकलन किया जाता है। ये कृषि के प्रदर्शन एवं इसके अंतर्निहित कारणों को समझाने में भी सहायक हैं।
- इस रिपोर्ट में उत्पादकता बढ़ाने के क्रम में नवाचार की आवश्यकता पर प्रकाश डालने के साथ उत्पादन का प्रमुख भाग धारणीय कृषि पद्धतियों से जोड़ने का आह्वान किया गया है।
आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (OECD) क्या है?
- परिचय:
- OECD एक अंतर-सरकारी आर्थिक संगठन है जिसकी स्थापना आर्थिक प्रगति व विश्व व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिये की गई है।
- अधिकांश OECD सदस्य राष्ट्र उच्च आय वाली अर्थव्यवस्थाएँ हैं जिनका मानव विकास सूचकांक (HDI) बहुत उच्च है एवं उन्हें विकसित देश माना जाता है।
- स्थापना:
- इसके मुख्यालय की स्थापना वर्ष 1961 में पेरिस, फ्राँस में की गई थी तथा इसमें कुल 38 सदस्य देश हैं।
- OECD में शामिल होने वाले सबसे हालिया देश थे- अप्रैल 2020 में कोलंबिया तथा मई 2021 में कोस्टा रिका।
- भारत इसका सदस्य नहीं है अपितु एक प्रमुख आर्थिक भागीदार है।
- OECD द्वारा जारी रिपोर्ट और सूचकांक:
- गवर्नमेंट एट अ ग्लांस
- OECD बेटर लाइफ इंडेक्स
भारतीय कृषि नीतियाँ किसानों पर नकारात्मक प्रभाव कैसे डालती हैं?
- नकारात्मक बाज़ार मूल्य समर्थन: भारत की नीतियों के परिणामस्वरूप किसानों के लिये नकारात्मक बाज़ार मूल्य समर्थन हुआ है। वर्ष 2014 से 2016 तक, उत्पादक समर्थन अनुमान (PSE) लगभग -6.2% था, जो नकारात्मक बाज़ार मूल्य समर्थन (-13.1%) से प्रेरित था।
- PSE एक मीट्रिक है जो उपभोक्ताओं और सरकार से कृषि उत्पादकों को होने वाले हस्तांतरण के वार्षिक मूल्य को मापता है।
- निर्यात प्रतिबंध और रोक: चावल और चीनी जैसी आवश्यक वस्तुओं पर निर्यात प्रतिबंध और कोटा लगाने से बाज़ार तक पहुँच सीमित हो जाती है, जिससे घरेलू कीमतें कम हो सकती हैं।
- नियामक बाधाएँ: आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 और कृषि उत्पाद बाज़ार समिति (APMC) अधिनियम 2003 कृषि वस्तुओं के मूल्य निर्धारण, भंडारण और व्यापार पर कठोर नियम लागू करते हैं।
- यद्यपि इन अधिनियमों का उद्देश्य खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना है, लेकिन सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य नियंत्रण और कम खरीद मूल्यों के कारण अक्सर कृषि उत्पादों की कीमतें कम हो जाती हैं, जो कभी-कभी अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार मूल्यों से भी कम होती हैं, जिससे उत्पादकों पर मूल्य-निराशाजनक प्रभाव पड़ता है।
- कम न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP): MSP का उद्देश्य किसानों की रक्षा करना है, लेकिन कुछ अवधियों के दौरान इसे अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों से भी कम निर्धारित किया गया है, जिसके कारण किसानों को खुले बाज़ार की तुलना में कम मूल्य प्राप्त हो रहा है।
- विपणन में अकुशलताएँ: आधुनिक बुनियादी ढाँचे की कमी और उच्च लेन-देन लागत के कारण किसानों को उनकी उपज के लिये मिलने वाली कीमतें कम हो जाती हैं, जिससे मूल्य दमन को बढ़ावा मिलता है।
- अकुशल संसाधन आवंटन: उर्वरक, सिंचाई और बिजली के लिये सब्सिडी अल्पकालिक राहत प्रदान करती है, लेकिन जलवायु परिवर्तन, बाज़ार पहुँच और कृषि अनुसंधान में गिरावट जैसे दीर्घकालिक मुद्दों को हल करने में विफल रहती है, जो अंततः किसानों के लिये सतत् विकास और लाभप्रदता में बाधा उत्पन्न करती है।
कृषि से संबंधित भारत की पहल
- राष्ट्रीय सतत् कृषि मिशन
- परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY)
- कृषि वानिकी पर उप-मिशन (SMAF)
- राष्ट्रीय कृषि विकास योजना
- एग्रीस्टैक
- डिजिटल कृषि मिशन
- एकीकृत किसान सेवा मंच (UFSP)
- पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिये जैविक मूल्य शृंखला विकास मिशन (MOVCDNER)
आगे की राह
- निर्यात नीतियों में सुधार: निर्यात प्रतिबंधों और कोटा को धीरे-धीरे कम करना, बुनियादी ढांचे (शीत भंडारण, परिवहन, प्रसंस्करण) में निवेश करना तथा प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देने और उचित मुआवजा सुनिश्चित करने के लिये MSP को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार मूल्यों के अनुरूप बनाना।
- बजटीय प्राथमिकताओं में बदलाव: लचीलेपन, स्थिरता, बुनियादी ढाँचे में सुधार और आपूर्ति शृंखला की अकुशलताओं को कम करने की दिशा में संसाधनों को पुनर्निर्देशित करना।
- बेहतर बाज़ार कार्यप्रणाली: समन्वय में सुधार, विखंडन को कम करने और क्षेत्र की चुनौतियों का समाधान करने के लिये राज्य और केंद्रीय नीतियों के बीच अधिक एकीकरण को बढ़ावा देना।
- डिजिटल प्लेटफॉर्म को बढ़ावा देना: किसानों को उपभोक्ताओं से जोड़ने के लिये राष्ट्रीय कृषि बाज़ार (ई-नाम) जैसे प्रत्यक्ष विपणन और ई-कॉमर्स को प्रोत्साहित करना, जिससे पारंपरिक बाज़ारों पर निर्भरता कम हो।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत की कृषि नीतियों का किसानों पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस पर चर्चा कीजिये। निर्यात प्रतिबंध और न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी नीतियाँ कृषि क्षेत्र को कैसे प्रभावित करती हैं? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न: भारत में, निम्नलिखित में से किन्हें कृषि में सार्वजनिक निवेश माना जा सकता है? (2020)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1, 2 और 5 उत्तर: (c) मेन्स:प्रश्न: भारतीय कृषि की प्रकृति की अनिश्चितताओं पर निर्भरता के मद्देनज़र, फसल बीमा की आवश्यकता की विवेचना कीजिये और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पी० एम० एफ० बी० वाइ०) की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिये। (2016) प्रश्न: भारत में स्वतंत्रता के बाद कृषि में आई विभिन्न प्रकारों की क्रांतियों को स्पष्ट कीजिये। इन क्रांतियों ने भारत में गरीबी उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा में किस प्रकार सहायता प्रदान की है ? (2017) |
भारत में मानसिक स्वास्थ्य का मौन संकट
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, मानसिक विकार, WHO, दिव्यांगता-समायोजित जीवन वर्ष (DALYs), संयुक्त राष्ट्र दिव्यांगजन अधिकार सम्मेलन (UNCRPD), मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017, NIMHANS मेन्स के लिये:भारत में आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्या 2021, मानसिक विकार, भारत में पुरुषों का मानसिक स्वास्थ्य। |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
भारत में आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्या 2021 नामक रिपोर्ट में भारत में मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बढ़ती चिंता पर प्रकाश डाला गया है। सार्वजनिक स्वास्थ्य में प्रमुख निहितार्थों के बावजूद इस मुद्दे पर काफी कम ध्यान दिया गया है।
भारत में मानसिक स्वास्थ्य संकट:
- चिंताजनक आँकड़े:
- आत्महत्या दर: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में आत्महत्या करने वालो में 72.5% पुरुष हैं, जिससे एक गंभीर मानसिक स्वास्थ्य संकट का संकेत मिलता है।
- वर्ष 2021 में महिलाओं की तुलना में 73,900 से अधिक पुरुषों ने आत्महत्या की, जबकि शोध से पता चलता है कि महिलाओं में चिंता और अवसाद की दर अधिक है।
- आयु समूहों में असमानता: 18-59 आयु वर्ग के पुरुषों में आत्महत्याओं में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है, वर्ष 2014 से 2021 तक दैनिक वेतन भोगियों के बीच आत्महत्याओं में 170.7% की वृद्धि हुई है।
- आत्महत्या दर: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में आत्महत्या करने वालो में 72.5% पुरुष हैं, जिससे एक गंभीर मानसिक स्वास्थ्य संकट का संकेत मिलता है।
- सामाजिक मानदंडों का प्रभाव:
- सांस्कृतिक अपेक्षाएँ: सांस्कृतिक मानदंडों के कारण अक्सर पुरुषों के भावनात्मक संघर्षों की उपेक्षा होने के साथ इनसे धैर्य और साहस की अपेक्षा की जाती है।
- इसके कारण मानसिक बीमारी की स्थिति में इन्हें कम सहायता मिल पाने से भारतीय पुरुषों के बीच मानसिक स्वास्थ्य संकट और भी बदतर हो जाता है।
- समाधान के तरीके: पुरुष भावनात्मक समर्थन प्राप्त करने के बजाय आक्रामकता या मादक द्रव्यों के सेवन के माध्यम से मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करते हैं।
- महिलाएँ आमतौर पर प्रियजनों से भावनात्मक समर्थन चाहती हैं जबकि पुरुष अक्सर अपनी भावनाओं से दूरी बनाते हुए समस्या-केंद्रित रणनीति अपनाते हैं।
- मानसिक विकारों में अंतराल: जहाँ पुरुषों में आत्महत्या की दर अधिक है वहीं महिलाओं में चिंता और अवसाद जैसे मानसिक विकार अधिक पाए जाते हैं।
- सांस्कृतिक अपेक्षाएँ: सांस्कृतिक मानदंडों के कारण अक्सर पुरुषों के भावनात्मक संघर्षों की उपेक्षा होने के साथ इनसे धैर्य और साहस की अपेक्षा की जाती है।
- शारीरिक और मनोवैज्ञानिक कारक:
- तनाव प्रतिक्रियाएँ: शोध से पता चलता है कि पुरुष आमतौर पर तनाव के प्रति "लड़ो या भागो" प्रतिक्रिया के साथ प्रतिक्रिया करते हैं, जिससे नोरपाइनफ्राइन और कॉर्टिसोल जैसे तनाव हार्मोन निकलते हैं।
- सामना करने की रणनीतियों में अंतर: ऑक्सीटोसिन स्राव से प्रभावित महिलाओं की "प्रवृत्त और मित्रवत" प्रतिक्रिया, अक्सर उन्हें सामाजिक समर्थन प्राप्त करने के लिये प्रेरित करती है, जो पुरुषों की अपनी भावनाओं से दूरी बनाने की प्रवृत्ति के विपरीत है।
भारत में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल की स्थिति क्या है?
- विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के अनुसार, भारत में मानसिक स्वास्थ्य समस्या प्रति 100 00 जनसंख्या पर 2443 दिव्यांगता-समायोजित जीवन वर्ष (Disability-Adjusted Life Years- DALY) है, तथा प्रति 100,000 जनसंख्या पर आयु-समायोजित आत्महत्या दर 21.1 है।
- राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान के आँकड़ों के अनुसार, भारत में 80% से अधिक लोगों की मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच नहीं है।
- राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (National Mental Health Survey- NMHS) 2015-16 के अनुसार, भारत में 10.6% वयस्क मानसिक विकारों से पीड़ित हैं, जबकि विभिन्न विकारों के लिये उपचार अंतराल 70% से 92% के बीच है।
नोट:
- दिव्यांगता-समायोजित जीवन वर्ष (DALYs) असामयिक मृत्यु के कारण खोए गए जीवन के वर्षों की संख्या और किसी बीमारी या चोट के कारण दिव्यांगता के साथ जीए गए वर्षों का भारित माप है। भारत की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 द्वारा रोग भार पर नज़र रखने के लिये DALY के उपयोग की अनुशंसा की गई है।
- मानसिक स्वास्थ्य सेवा अधिनियम, 2017 मानसिक बीमारियों से पीड़ित लोगों के अधिकारों की रक्षा, संवर्धन और पूर्ति के लिये सेवाएँ प्रदान करने हेतु कानूनी ढाँचा प्रदान करता है। ये दिव्यांग लोगों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (United Nations Convention on the Rights of People with Disabilities- UNCRPD) के अनुरूप हैं।
भारत में मानसिक स्वास्थ्य की समस्या से निपटने हेतु सरकार द्वारा क्या कदम उठाए गए हैं?
- राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (NMHP): मानसिक विकारों के भारी बोझ और मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में योग्य पेशेवरों की कमी को दूर करने के लिये, सरकार वर्ष 1982 से NMHP को क्रियान्वित कर रही है।
- कार्यक्रम को वर्ष 2003 में पुनः रणनीतिबद्ध किया गया, जिसमें दो योजनाएँ- राज्य मानसिक अस्पतालों का आधुनिकीकरण और मेडिकल कॉलेजों/सामान्य अस्पतालों के मनोचिकित्सा विंग का उन्नयन शामिल की गई।
- मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017: यह प्रत्येक प्रभावित व्यक्ति को सरकार द्वारा संचालित या वित्तपोषित सेवाओं से मानसिक स्वास्थ्य देखभाल और उपचार तक पहुँच की गारंटी देता है।
- इसने BNS की धारा 224 के प्रयोग के दायरे को काफी कम कर दिया है तथा आत्महत्या के प्रयास को केवल अपवाद के रूप में दंडनीय बना दिया है।
- इस धारा के अनुसार, किसी लोक सेवक को उसके कर्तव्यों से विवश करने या रोकने के लिये आत्महत्या का प्रयास करने पर एक वर्ष तक का साधारण कारावास, ज़ुर्माना, दोनों या सामुदायिक सेवा का दंड दिया जा सकता है।
- किरण हेल्पलाइन: वर्ष 2020 में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने चिंता, तनाव, अवसाद, आत्महत्या के विचार और अन्य मानसिक स्वास्थ्य चिंताओं का सामना कर रहे लोगों को सहायता प्रदान करने के लिये 24/7 टोल-फ्री हेल्पलाइन 'किरण' शुरू की।
- मानस मोबाइल ऐप: विभिन्न आयु समूहों में मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिये, भारत सरकार ने वर्ष 2021 में मानस (मानसिक स्वास्थ्य और सामान्य स्थिति वृद्धि प्रणाली) लॉन्च किया।
मानसिक स्वास्थ्य में तकनीकी नवाचार क्या हैं?
- मानसिक स्वास्थ्य सहायता में AI: कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) पुरुषों की मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों का समाधान करने के लिये नए अवसर प्रस्तुत करती है, विशेष रूप से उन लोगों के लिये जो पारंपरिक सहायता लेने में अनिच्छुक हैं।
- AI-संचालित उपकरण: फोर्टिस हेल्थकेयर के अदायु माइंडफुलनेस ऐप (Fortis Healthcare’s Adayu Mindfulness app) और मनोदयम जैसे प्लेटफॉर्म पहले से ही व्यक्तिगत मानसिक स्वास्थ्य संबंधी जानकारी तथा मिश्रित उपचार विकल्प प्रदान करने के लिये AI का उपयोग कर रहे हैं।
- नवीन एल्गोरिदम: यह विधि भाषा और व्यवहार प्रारूप की पहचान करने में मदद करती है जो अवसाद या चिंता जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के प्रारंभिक लक्षणों का संकेत दे सकती है।
- अनुकूलित उपचार रणनीतियाँ: AI व्यक्तिगत चिकित्सा प्रतिक्रियाओं का विश्लेषण कर सर्वोत्तम उपचार विकल्पों का सुझाव दे सकता है, जिससे परिणामों में सुधार हो सकता है।
- ब्रेन स्टिमुलेशन:
- ट्रांसक्रेनियल डायरेक्ट करंट स्टिमुलेशन (TDCS): यह एक गैर-आक्रामक उपचार है, जिसमें विशिष्ट मस्तिष्क क्षेत्रों को लक्षित करने के लिये चुंबकीय स्पंदनों का उपयोग किया जाता है, जो गंभीर अवसाद के लिये आशाजनक है, जिस पर मानक दवाओं का कोई असर नहीं होता।
- क्लोज्ड-लूप न्यूरोस्टिम्यूलेशन: यह मस्तिष्क की गतिविधि पर निगरानी के लिये सेंसर का उपयोग करता है तथा वास्तविक समय में पता लगाई गई मस्तिष्क तरंगों के आधार पर स्टिमुलेशन सेटिंग्स को स्वचालित रूप से समायोजित करता है।
संकट से निपटने के लिये क्या सिफारिशें हैं?
- मानसिक स्वास्थ्य साक्षरता में वृद्धि: इस संकट को कम करने के लिये पुरुषों में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के बारे में जागरूकता और समझ बढ़ाने की अत्यंत आवश्यकता है।
- नवीन दृष्टिकोण: AI और अन्य तकनीकी समाधानों का लाभ उठाकर मानसिक स्वास्थ्य संसाधनों तक पहुँच को सुगम बनाया जा सकता है।
- प्राकृतिक भाषा प्रसंस्करण और मशीन लर्निंग का उपयोग करते हुए AI-संचालित चैटबॉट और वर्चुअल असिस्टेंट, वास्तविक समय में सुलभ एवं व्यक्तिगत मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रदान कर सकते हैं।
- अनुकूल वातावरण: सामाजिक बाधाओं को समाप्त कर तथा मानसिक स्वास्थ्य के बारे में संवाद को बढ़ावा देकर लोगों को सहायता एवं समर्थन लेने हेतु प्रोत्साहित किया जा सकता है।
- भविष्य की परिकल्पना: ऐसे भविष्य की कल्पना करें जहाँ मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी जाए, तथा पुरुष बिना किसी संकट के सहायता लेने में सक्षम महसूस करें।
- समुचित कार्यबल सुनिश्चित करना: भारत में प्रति 100,000 व्यक्तियों पर मात्र 0.3 मनोचिकित्सक, 0.07 मनोवैज्ञानिक और 0.07 सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं।
- विकसित देशों में मनोचिकित्सकों की तुलना में यह 100,000 पर 6.6 है तथा वैश्विक स्तर पर मानसिक अस्पतालों की औसत संख्या 100,000 पर 0.04 है, जबकि भारत में यह केवल 0.004 है।
निष्कर्ष:
भारत में मानसिक स्वास्थ्य के मूक संकट के लिये बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें मानसिक स्वास्थ्य साक्षरता को बढ़ाना, नवीन तकनीकी समाधानों को बढ़ावा देना और भावनात्मक भेद्यता से जुड़े सामाजिक संकट को समाप्त करना शामिल है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न प्रश्न: भारत में पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य संकट हेतु उत्तरदायी सामाजिक-सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक एवं प्रणालीगत कारकों का परीक्षण करते हुए मानसिक स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच और जागरूकता बढ़ाने हेतु उपाय बताइये। |
विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस 2022
मेन्सQ. "जब तक हम अपने भीतर शांति प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक हम बाहरी दुनिया में शांति प्राप्त नहीं कर सकते। (2021) |
अमेरिकी गृह युद्ध (1861-1865)
प्रिलिम्स के लिये:दासता, अफ्रीका, मध्य पूर्व, अर्थशास्त्र, बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम 1976, संप्रभुता, आव्रजन। मेन्स के लिये:विश्व इतिहास, अमेरिकी गृह युद्ध, दासता उन्मूलन। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को हराकर संयुक्त राज्य अमेरिका (US) के राष्ट्रपति बने।
- अमेरिकी गृह युद्ध दासता, आर्थिक मतभेदों और राज्यों के अधिकारों पर तनाव से प्रेरित था, जिसमें रिपब्लिकन पार्टी ने गुलामी का विरोध किया था और डेमोक्रेटिक पार्टी ने शुरू में इसका समर्थन किया था।
मानव इतिहास में दास प्रथा का विकास कैसे हुआ?
- उत्पत्ति एवं प्रारंभिक विकास:
- हज़ारों वर्ष पहले कृषि बस्तियों में दास प्रथा का उदय हुआ, जब विजयी जनजातियों ने पराजित लोगों को मारने के बजाय उन्हें दास/गुलाम बना लिया।
- मेसोपोटामिया, मिस्र, ग्रीस और रोम सहित प्राचीन सभ्यताओं ने जटिल दास-आधारित आर्थिक प्रणालियाँ विकसित कीं।
- दासता के विभिन्न रूप उभरे, जिनमें ऋण बंधन, विजित लोगों की दासता, बाल श्रम और पीढ़ीगत बंधन शामिल थे।
- वैश्विक विस्तार एवं व्यापार:
- अरब दास व्यापार ने 7वीं से 19वीं शताब्दी तक हिंद महासागर मार्गों पर अपना प्रभुत्व कायम रखा, जो अफ्रीका, मध्य पूर्व और एशिया को जोड़ता था।
- ट्रांस -सहारा दास व्यापार ने लाखों लोगों को उप-सहारा अफ्रीका से उत्तरी अफ्रीका और मध्य पूर्व तक पहुँचाया।
- ट्रांसाटलांटिक दास व्यापार (16वीं -19वीं शताब्दी) ने लगभग 12 मिलियन अफ्रीकियों को जबरन विश्व के विभिन्न भागों में भेज दिया।
- यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों ने महाद्वीपों में व्यवस्थित दास व्यापार नेटवर्क स्थापित किये।
- भारत में दासता:
- अर्थशास्त्र और मनुस्मृति जैसे प्रारंभिक संस्कृत ग्रंथों में दासता को मान्यता दी गई और उसे विनियमित किया गया।
- बौद्ध और जैन ग्रंथों में भी दयालु व्यवहार की वकालत करते हुए दासता का उल्लेख किया गया है।
- इस्लामी शासकों ने सैन्य गुलामी और घरेलू दासता प्रणालियों की शुरुआत की।
- मुगल काल में दक्षिण एशिया में व्यापक दास व्यापार नेटवर्क देखा गया।
- गिरमिटिया प्रणाली, वर्ष 1833 में दास प्रथा के उन्मूलन के बाद चीनी बागानों में श्रमिकों की कमी को दूर करने के लिये ब्रिटिश उपनिवेशों में शुरू की गई एक प्रकार की गिरमिटिया श्रम पद्धति थी।
- वर्ष 1843 के भारतीय दासता अधिनियम ने तकनीकी रूप से ब्रिटिश शासन के अधीन दासता को समाप्त कर दिया।
- स्वतंत्रता के बाद भारत ने संविधान के अनुच्छेद 23 और तत्पश्चात बंधुआ मज़दूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम 1976 के माध्यम से बंधुआ मज़दूरी पर प्रतिबंध लगा दिया।
अमेरिकी गृहयुद्ध का कारण और उसका स्वरूप क्या था?
- अमेरिकी गृहयुद्ध के कारण:
- गुलामी और वर्गीय विभाजन: अमेरिकी गृह युद्ध मुख्य रूप से दासता के विरुद्ध था।
- उत्तरी संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) की अर्थव्यवस्था विविधतापूर्ण थी, जिसमें उद्योग और कृषि दोनों ही स्वतंत्र श्रम पर निर्भर थे।
- इसके विपरीत, दक्षिणी संयुक्त राज्य अमेरिका अपनी कृषि अर्थव्यवस्था, विशेषकर कपास के लिये दास श्रम पर बहुत अधिक निर्भर था।
- इस आर्थिक अंतर के कारण दासता के मुद्दे पर असहमति उत्पन्न हुई, जहाँ कई उत्तरी लोग नए पश्चिमी राज्यों में दासता पर रोक लगाने की मांग कर रहे थे, वहीं दक्षिणी लोग ऐसे कानून चाहते थे जो इसकी रक्षा करें।
- जैसे-जैसे अमेरिका पश्चिम की ओर बढ़ा, दासता का मुद्दा संघर्ष का प्रमुख विषय (विशेष रूप से उत्तरी राज्यों के लिये) बन गया।
- उन्हें डर था कि नए क्षेत्रों में दास प्रथा की अनुमति देने से दक्षिण को कॉन्ग्रेस में अधिक राजनीतिक शक्ति मिल जाएगी।
- दासता के मुद्दे पर बढ़ते विभाजन ने राजनीतिक तनाव को बढ़ावा दिया, जिसके कारण अंततः दक्षिणी राज्यों को संघ से अलग होने की मांग करनी पड़ी।
- विवाद राज्यों के अधिकार बनाम संघीय प्राधिकार पर भी केंद्रित था, दक्षिणी राजनेताओं का तर्क था कि राज्यों को संघ छोड़ने का अधिकार है, जबकि अधिकांश उत्तरी लोगों का मानना था कि संविधान के तहत संघ स्थायी था।
- उत्तरी संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) की अर्थव्यवस्था विविधतापूर्ण थी, जिसमें उद्योग और कृषि दोनों ही स्वतंत्र श्रम पर निर्भर थे।
- गुलामी और वर्गीय विभाजन: अमेरिकी गृह युद्ध मुख्य रूप से दासता के विरुद्ध था।
- उत्तर बनाम दक्षिण के बीच वैचारिक विभाजन:
- उत्तर और दक्षिण के बीच वैचारिक मतभेद बहुत स्पष्ट थे, उत्तर एक विविध अर्थव्यवस्था और मुक्त श्रम का समर्थन करता था, जबकि दक्षिण की अर्थव्यवस्था दास श्रम पर आधारित थी।
- यह संघर्ष न केवल दासता के बारे में था, बल्कि लोकतंत्र की प्रकृति के बारे में भी था, क्योंकि दोनों पक्ष अपने मूल्यों और जीवन शैली के अनुसार राष्ट्र के भविष्य को आकार देने की मांग कर रहे थे।
- गृह युद्ध का क्रम:
- दासता विरोधी प्रदर्शन: वर्ष 1854 के कैंसास-नेब्रास्का अधिनियम ने कैंसास और नेब्रास्का में बसने वालों को लोकप्रिय संप्रभुता के माध्यम से अपने क्षेत्रों में दासता की वैधता पर निर्णय लेने की अनुमति दी, जिससे अमेरिका में सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया।
- नेब्रास्का विधेयक के पारित होने के जवाब में, दासता-विरोधी कार्यकर्त्ता संगठित होकर एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने के लिये एकजुट हुए, जिसका नाम रिपब्लिकन पार्टी रखा गया।
- फरवरी, 1856 में, दासता-विरोधी कार्यकर्त्ता रिपब्लिकन पार्टी को औपचारिक रूप देने के लिये पिट्सबर्ग में एकत्र हुए, जिनमें अब्राहम लिंकन भी उपस्थित थे।
- अलगाव और युद्ध का प्रभाव: वर्ष 1860 में जब लिंकन राष्ट्रपति चुने गए तो संघर्ष चरम पर पहुँच गया। गुलामी के प्रसार के प्रति उनके विरोध के कारण दक्षिणी राज्यों का अलगाव हुआ, जिससे कॉन्फेडरेट स्टेट्स ऑफ अमेरिका का गठन हुआ।
- अप्रैल, 1861 में, कॉन्फेडरेट फाॅर्स ने साउथ कैरोलिना में फोर्ट सुमटर पर हमला किया, जिससे युद्ध की शुरुआत हुई। लिंकन ने सेना को विद्रोही राज्यों को संघ में वापस लाने का आदेश दिया।
- यद्यपि दक्षिण क्षेत्र के पास बेहतर सैन्य नेतृत्व था, लेकिन उत्तर की बड़ी आबादी, औद्योगिक क्षमता एवं बुनियादी ढाँचे के कारण अंततः अप्रैल 1865 में दक्षिण ने आत्मसमर्पण कर दिया।
- मुक्ति उद्घोषणा: वर्ष 1863 में, लिंकन ने मुक्ति उद्घोषणा जारी की, जिसमें घोषणा की गई कि संघ राज्यों में सभी दास स्वतंत्र है।
- इस कदम का अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व भी था, जिसने यूरोपीय देशों को संघ का समर्थन करने से हतोत्साहित किया।
- हालाँकि, लिंकन ने घोषणा की कि युद्ध संघ को बचाए रखने के लिये लड़ा जा रहा था, दासता को समाप्त करने के लिये नहीं।
- तेरहवाँ संशोधन और दासता का उन्मूलन: युद्ध के बाद वर्ष 1865 में अमेरिकी संविधान में 13वाँ संशोधन किया गया, जिसके तहत दासता को समाप्त किया गया।
अमेरिकी गृहयुद्ध की चुनौतियाँ और प्रभाव क्या थे?
- अमेरिका का पुनर्निर्माण और युद्धोत्तर चुनौतियाँ:
- पुनर्निर्माण और दक्षिणी प्रतिरोध: पुनर्निर्माण काल (1865-1877) में दक्षिणी राज्यों के पुनः एकीकृत होने के साथ अफ्रीकी अमेरिकियों के लिये नागरिक अधिकारों को लागू करने का प्रयास हुआ।
- 14वें और 15वें संशोधन से अफ्रीकी अमेरिकियों को नागरिकता एवं मतदान का अधिकार प्रदान किया गया, जिससे अमेरिका के सामाजिक एवं राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव आया।
- आर्थिक परिवर्तन और औद्योगीकरण: युद्ध से अमेरिका में औद्योगीकरण को गति मिली। वर्ष 1914 तक अमेरिका एक प्रमुख औद्योगिक शक्ति (युद्ध के दौरान बड़े पैमाने पर उत्पादन की आवश्यकता के कारण) बन गया।
- औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने में अप्रवासन ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, वर्ष 1870 और 1914 के बीच लगभग 20 मिलियन अप्रवासी आए।
- रेलमार्ग प्रणाली के विकास (विशेष रूप से वर्ष 1869 में ट्राँसकॉन्टिनेंटल रेलमार्ग के पूरा होने से) से व्यापार और औद्योगिक विकास को सुगम बनाने, पूर्वी अमेरिका को पश्चिम से जोड़ने एवं वस्तुओं की आवाजाही को सुलभ बनाने में मदद मिली।
- युद्धोत्तर आर्थिक विस्तार: युद्ध से रेलमार्गों के विकास को भी बढ़ावा मिला, जिससे कृषक समुदाय औद्योगिक शहरों से जुड़ सके।
- रेलवे के विस्तार के साथ ही इस्पात एक महत्त्वपूर्ण संसाधन बन गया तथा मक्का, गेहूँ के साथ मवेशियों की आवाजाही सुगम होने से 20वीं सदी तक अमेरिका को कृषि और उद्योग में विश्व में अग्रणी बनने में मदद मिली।
- पुनर्निर्माण और दक्षिणी प्रतिरोध: पुनर्निर्माण काल (1865-1877) में दक्षिणी राज्यों के पुनः एकीकृत होने के साथ अफ्रीकी अमेरिकियों के लिये नागरिक अधिकारों को लागू करने का प्रयास हुआ।
- कपास व्यापार पर वैश्विक प्रभाव और भारत पर इसका प्रभाव:
- कपास निर्यात में व्यवधान: गृह युद्ध के कारण वैश्विक कपास व्यापार में व्यवधान उत्पन्न हो गया।
- ब्रिटिश वस्त्र निर्माताओं ने वैकल्पिक स्रोत के रूप में भारत की ओर रुख किया, जिसके परिणामस्वरूप भारत में कपास की मांग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
- भारत में कपास की मांग में वृद्धि: युद्ध के दौरान भारत, ब्रिटिश उद्योगों के लिये कपास का प्रमुख आपूर्तिकर्ता बन गया।
- इस मांग से भारतीय व्यापारियों द्वारा गुजरात और महाराष्ट्र जैसे क्षेत्रों में किसानों को अधिक कपास की खेती करने के लिये प्रोत्साहित किया गया, जिसके परिणामस्वरूप आर्थिक उन्नति को बढ़ावा मिला। हालांकि इससे किसानों का अक्सर शोषण भी हुआ।
- कपास निर्यात में व्यवधान: गृह युद्ध के कारण वैश्विक कपास व्यापार में व्यवधान उत्पन्न हो गया।
- भारत के लिये दीर्घकालिक आर्थिक परिणाम: यद्यपि भारत को कपास निर्यात में वृद्धि से लाभ हुआ, लेकिन इससे मुख्य रूप से ब्रिटिश उद्योगों को ही लाभ हुआ।
- कपास की खेती में इस वृद्धि के कारण कुछ क्षेत्रों में खाद्यान्न की कमी भी उत्पन्न हो गई (क्योंकि किसानों को खाद्यान्न फसलों के स्थान पर कपास उगाने के लिये प्रोत्साहित किया गया)। जिसके परिणामस्वरूप भारतीय किसानों के समक्ष अकाल और आर्थिक संकट की स्थिति बनी।
- ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था में भारत से धन का बहिर्गमन बना रहा, जिससे किसान ऋण और गरीबी से ग्रसित हुए।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: अमेरिकी गृहयुद्ध के दौरान भारत के कपास व्यापार पर क्या प्रभाव पड़ा तथा भारतीय किसानों पर इसके कौन से दीर्घकालिक परिणाम हुए? |
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)मेन्स:Q. भारत से अन्य उपनिवेशों में ब्रिटिशों द्वारा गिरमिटिया मज़दूरों को क्यों ले जाया गया? क्या वे वहाँ अपनी सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित कर पाए? (2018) |
सेक्स ट्रैफिकिंग की निष्क्रियता पर सर्वोच्च न्यायालय की चिंताएँ
प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय, लोकसभा, राष्ट्रीय जाँच एजेंसी, भारतीय न्याय संहिता, 2023, संगठित अपराध, रोहिंग्या शरणार्थी, अनुसूचित जाति, दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन मेन्स के लिये:महिलाओं से संबंधित मुद्दे, मानव तस्करी, सेक्स ट्रैफिकिंग और लैंगिक शोषण |
स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने सेक्स ट्रैफिकिंग के खिलाफ व्यापक कानून लागू करने में केंद्र सरकार की विफलता पर गंभीर असंतोष व्यक्त किया। सरकार ने ‘संगठित अपराध जाँच एजेंसी’ (OCIA) स्थापित ( या व्यापक तस्करी विरोधी कानून नहीं बनाने) करने के सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 2015 के निर्देश का पालन नहीं किया।
- इस विफलता ने सेक्स ट्रैफिकिंग के बढ़ते खतरे से निपटने के लिये मौजूदा ढाँचे की प्रभावशीलता के बारे में महत्त्वपूर्ण चिंताएँ उत्पन्न कर दी हैं।
सर्वोच्च न्यायालय OCIA की स्थापना को लेकर चिंतित क्यों है?
- न्यायालय के निर्देशों के बावजूद निष्क्रियता: प्रज्वला बनाम भारत संघ, 2015 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने गृह मंत्रालय को सेक्स ट्रैफिकिंग से निपटने के लिये OCIA की स्थापना करने का निर्देश दिया।
- हालाँकि, 30 सितंबर, 2016 की अंतिम तिथि तथा 1 दिसंबर, 2016 की नियोजित परिचालन तिथि के बावजूद, एजेंसी का गठन नहीं हो पाया है, जिससे सेक्स ट्रैफिकिंग के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई में देरी हो रही है।
- तस्करी से निपटने का महत्त्व:
- मामलों की उच्च मात्रा: गृह मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2018 और 2022 के बीच 10,659 से अधिक तस्करी के मामले दर्ज किये गए, जो दर्शाता है कि तस्करी एक प्रणालीगत मुद्दा बना हुआ है।
- प्रतिवर्ष औसतन लगभग 2,000 मामले सामने आते हैं, जो सुदृढ़ नीतियों, कानून प्रवर्तन और सामुदायिक जागरूकता की आवश्यकता को दर्शाते हैं।
- उच्च गिरफ्तारियों के बावजूद दोषसिद्धि दर कम: यद्यपि पिछले कुछ वर्षों में हज़ारों लोगों को गिरफ्तार किया गया, फिर भी दोषसिद्धि दर बेहद कम है।
- गिरफ्तारी और दोषसिद्धि के बीच यह अंतर अपर्याप्त जाँच और न्यायालय में मामले की कमज़ोर प्रस्तुति जैसे मुद्दों की ओर इशारा करता है।
- पीड़ितों की भेद्यता: तस्करी के शिकार कई लोग \आर्थिक रूप से वंचित पृष्ठभूमि से आते हैं, जिन्हें अक्सर पर्याप्त सहायता नहीं मिल पाती है।
- पीड़ितों को मुआवजा राशि वितरित करने में आने वाली चुनौतियाँ उनकी कमज़ोरियों को और बढ़ा देती हैं, जिससे कभी-कभी वित्तीय कठिनाई और संसाधनों की कमी के कारण वे न्यायालय में अपने बयान से पलट जाते हैं।
- पीड़ितों को सहायता: तस्करी रोधी इकाइयों और खुफिया तंत्र में सुधार के बावजूद, दोषसिद्धि की कम दरें, बेहतर कानून प्रवर्तन प्रशिक्षण, मज़बूत पीड़ित सहायता तथा अधिक प्रभावी मामले से निपटने के लिये शीघ्र मुआवजे की आवश्यकता को उजागर करती हैं।
- मामलों की उच्च मात्रा: गृह मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2018 और 2022 के बीच 10,659 से अधिक तस्करी के मामले दर्ज किये गए, जो दर्शाता है कि तस्करी एक प्रणालीगत मुद्दा बना हुआ है।
- सर्वोच्च न्यायालय की चिंताओं पर सरकार की प्रतिक्रिया:
- लंबित विधायी प्रयास: सरकार ने पहले मानव तस्करी (रोकथाम, संरक्षण और पुनर्वास) विधेयक, 2018 का मसौदा तैयार किया था, जो लोकसभा में पारित हो गया, लेकिन वर्ष 2019 में राज्यसभा में पेश किये बिना ही व्यपगत हो गया।
- इस विधायी चूक के कारण व्यापक तस्करी विरोधी कानून के प्रति प्रतिबद्धता को पूरा करने में देरी हुई है।
- NIA को सेक्स ट्रैफिकिंग के मामलों में भूमिका सौंपी गई: अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (ASG) द्वारा प्रतिनिधित्त्व किये गए केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को सूचित किया कि सरकार द्वारा OCIA की स्थापना के बजाय राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (NIA) को सेक्स ट्रैफिकिंग के मामलों को संभालने का अतिरिक्त कार्य सौंपने का फैसला किया गया है।
- सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने इस दृष्टिकोण की प्रभावकारिता पर सवाल उठाया तथा इस बात पर बल दिया कि NIA के पास तस्करी पीड़ितों को पर्याप्त सुरक्षा और पुनर्वास सेवाएँ प्रदान करने के लिये संसाधनों और अधिदेश की कमी हो सकती है।
- भारतीय न्याय संहिता, 2023 का संदर्भ: ASG ने सर्वोच्च न्यायालय को सूचित किया कि भारतीय न्याय संहिता, 2023 (धारा 111 और 112) के हालिया प्रावधानों में संगठित अपराध से निपटने के उपाय शामिल हैं, जिनमें सेक्स ट्रैफिकिंग से निपटने के लिये एक आंशिक फ्रेमवर्क का सुझाव दिया गया है।
- लंबित विधायी प्रयास: सरकार ने पहले मानव तस्करी (रोकथाम, संरक्षण और पुनर्वास) विधेयक, 2018 का मसौदा तैयार किया था, जो लोकसभा में पारित हो गया, लेकिन वर्ष 2019 में राज्यसभा में पेश किये बिना ही व्यपगत हो गया।
भारत में सेक्स ट्रैफिकिंग किस प्रकार जारी है?
- प्रवास के माध्यम से शोषण: महिलाओं और लड़कियों को (विशेष रूप से गरीब क्षेत्रों से) तस्करों द्वारा शहरों में नौकरी का लालच देकर लाया जाता है।
- इसके बाद उन्हें घरेलू कार्य, स्पा और ब्यूटी पार्लरों में कार्य करने के लिये मजबूर किया जाता है, जहाँ उन्हें अक्सर यौन या श्रम तस्करी से गुजरना पड़ता है।
- दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों में शोषण बड़े पैमाने पर होता है, जहाँ तस्कर बेहतर आर्थिक अवसरों का वादा करके अवसर का फायदा उठाते हैं।
- व्यावसायिक सेक्स ट्रैफिकिंग: भारत में प्रमुख रूप से अनुसूचित जाति और जनजाति सहित हाशिये के समुदायों की महिलाएँ और लड़कियाँ तस्करी की शिकार होती हैं।
- तस्करों ने सेक्स ट्रैफिकिंग के कार्य को पारंपरिक रेड-लाइट क्षेत्रों से हटाकर डांस बार और निजी आवासों जैसे अधिक गुप्त स्थानों पर स्थानांतरित किया है, जिससे इनका पता लगा पाना जटिल हो गया है।
- व्यावसायिक देह व्यापार में अधिकांश नाबालिग भी संलग्न हैं। यह ऋण जाल में फँस जाने के कारण इस स्थिति से मुक्त होने में असमर्थ हो जाती हैं।
- तस्कर, डिजिटल प्लेटफॉर्म को तीव्रता से अपना रहे हैं जिसके कारण सेक्स ट्रैफिकिंग का विकेंद्रीकरण पारंपरिक वेश्यालयों से परे छोटे प्रतिष्ठानों और निजी आवासों तक हो रहा है।
- सांस्कृतिक शोषण: कुछ क्षेत्रों में दलित महिलाओं और लड़कियों का “देवदासी” या “जोगिनी” जैसी प्रथाओं के तहत शोषण किया जाता है, जहाँ उनका औपचारिक विवाह देवताओं से कर दिया जाता है, लेकिन स्थानीय समुदायों द्वारा उन्हें यौन शोषण के लिये मजबूर किया जाता है।
- धार्मिक और पर्यटन केंद्र भी सेक्स ट्रैफिकिंग के लिये अनुकूल स्थल (तस्कर इन स्थानों का उपयोग कमज़ोर महिलाओं और बच्चों का शोषण करने के लिये करते हैं) बन चुके हैं।
- हालाँकि मध्य प्रदेश के बाँछड़ा जैसे कुछ आदिवासी समुदायों में वेश्यावृत्ति को जीवनयापन का साधन (जहाँ लड़की के जन्म को वेश्यावृत्ति के माध्यम से कमाई का अवसर समझा जाता है) माना जाता है।
- वेश्यावृत्ति को सामान्य मानने से सेक्स ट्रैफिकिंग को बढ़ावा मिलता है और इससे महिलाओं का शोषण होता है।
- सीमा पार तस्करी: राज्यों के बीच तथा नेपाल और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों के साथ सीमित सहयोग के कारण सीमा पार तस्करी के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई में बाधा आती है।
- मानव तस्करी से निपटने और पीड़ितों के शीघ्र प्रत्यावर्तन से संबंधित समझौते अभी भी अधूरे हैं।
- तस्कर मध्य एशिया, पूर्वी यूरोप, अफ्रीका और रोहिंग्या शरणार्थियों की महिलाओं और लड़कियों को भी अपना निशाना बनाते हैं तथा अक्सर रोज़गार के झूठे बहाने बनाकर भारत में यौन शोषण और श्रम के रूप में उनका शोषण करते हैं।
- तस्कर खाड़ी देशों, दक्षिण-पूर्व एशिया और यूरोप में भारतीय नागरिकों का शोषण करते हैं।
मानव तस्करी से निपटने हेतु भारत द्वारा क्या उपाय किये गए हैं?
संवैधानिक और विधायी प्रावधान:
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 23(1): इसके तहत मानव तस्करी और बलात् श्रम को प्रतिषेध किया गया है।
- अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम, 1956 (ITPA): यह वाणिज्यिक यौन शोषण हेतु होने वाली तस्करी को रोकने पर केंद्रित है।
- आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013: यह यौन शोषण, दासता और अंग निकालने हेतु की जाने वाली मानव तस्करी को रोकने पर केंद्रित है।
- यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012: यह बच्चों को यौन दुर्व्यवहार एवं शोषण से बचाने पर केंद्रित है।
उठाए गए कदम:
- तस्करी रोधी प्रकोष्ठ (ATC): तस्करी रोधी कार्रवाइयों के समन्वय और अनुवर्ती कार्रवाई के लिये गृह मंत्रालय द्वारा स्थापित।
- मानव तस्करी रोधी इकाइयाँ (AHTU): गृह मंत्रालय ने मानव तस्करी पर कानून प्रवर्तन प्रतिक्रिया से निपटने के लिये AHTU की स्थापना की है, जिसमें विधायी, कल्याण और प्रचार संबंधी पहलू शामिल नहीं हैं, जो महिला एवं बाल विकास विभाग के विषय हैं।
- मिशन वात्सल्य कार्यक्रम: यह तस्करी सहित अपराध के शिकार बच्चों को सहायता प्रदान करता है।
- क्षमता निर्माण और जागरूकता: मानव तस्करी के संबंध में न्यायिक अधिकारियों को संवेदनशील बनाने के लिये कार्यशालाओं और न्यायिक संगोष्ठियों के माध्यम से कानून प्रवर्तन एजेंसियों और अभियोजकों को प्रशिक्षण दिया जाएगा।
तस्करी पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन:
- संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन: संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन ऑन ट्रांसनेशनल ऑर्गनाइज्ड क्राइम (United Nations Convention on Transnational Organised Crime- UNCTOC ) में मानव तस्करी, विशेषकर महिलाओं और बच्चों की तस्करी की रोकथाम, दमन और दंड के लिये एक प्रोटोकॉल शामिल है।
- भारत ने कन्वेंशन का अनुसमर्थन किया तथा मानव तस्करी संबंधी प्रोटोकॉल के अनुरूप आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2013 को क्रियान्वित किया।
- हालाँकि UNCTOC "संगठित आपराधिक समूह" को परिभाषित करता है, लेकिन "संगठित अपराध" के लिये कोई परिभाषा नहीं देता है। स्पष्ट परिभाषा का अभाव सेक्स ट्रैफिकिंग जैसे संगठित अपराधों से प्रभावी ढंग से निपटने के प्रयासों में बाधा उत्पन्न कर सकता है।
- सार्क कन्वेंशन: भारत ने वेश्यावृत्ति के लिये महिलाओं और बच्चों की तस्करी को रोकने और उसका मुकाबला करने पर दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (South Asian Association for Regional Cooperation- SAARC) कन्वेंशन का अनुसमर्थन किया है।
OCIA जैसी एजेंसी भारत में सेक्स ट्रैफिकिंग से निपटने में कैसे मदद कर सकती है?
- विशेष जाँच इकाइयाँ: OCIA शहरी केंद्रों और सीमाओं जैसे उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में सेक्स ट्रैफिकिंग के साथ-साथ अन्य संगठित अपराधों को लक्षित करने के लिये इकाइयाँ बना सकता है, तथा खुफिया जानकारी जुटाने और बचाव के लिये प्रशिक्षित कार्यकर्त्ताओं को तैनात कर सकता है।
- त्वरित बचाव के लिये त्वरित प्रतिक्रिया दल तैनात किये जा सकते हैं तथा पीड़ितों को समाज में पुनः एकीकृत करने में सहायता के लिये पुनर्वास सेवाएँ प्रदान करने वाले गैर-सरकारी संगठनों के साथ सहयोग किया जा सकता है।
- डेटा संग्रहण और खुफिया जानकारी साझा करना: एक केंद्रीकृत डेटाबेस सक्रिय हस्तक्षेप और बेहतर सूचना साझाकरण के लिये पूर्वानुमानात्मक विश्लेषण का उपयोग करके तस्करी के मामलों और अपराधियों पर नज़र रख सकता है।
- कानून प्रवर्तन के साथ सहयोग: OCIA तस्करी के मामलों पर पुलिस और सीमा बलों को प्रशिक्षित कर सकता है तथा कुशल बचाव एवं छापे के लिये संयुक्त अभियानों का समन्वय कर सकता है।
- सीमा पार संचालन: OCIA पड़ोसी देशों के साथ संयुक्त संचालन, खुफिया जानकारी साझा करने और सीमा पार तस्करी के मामलों में कानूनी सहायता के लिये काम कर सकता है।
- जन जागरूकता अभियान: OCIA कमजोर आबादी को शिक्षित करने के लिये अभियान चला सकता है और तस्करी गतिविधियों की सुरक्षित रिपोर्टिंग के लिये हेल्पलाइन स्थापित कर सकता है।
- नीति समर्थन: OCIA मज़बूत तस्करी विरोधी कानूनों का समर्थन कर सकता है और उनके कार्यान्वयन की निगरानी कर सकता है, जिससे पीड़ितों को बेहतर सुरक्षा तथा तस्करों के लिये कठोर दंड सुनिश्चित हो सके।
- न्यायिक सहायता: OCIA पीड़ितों के लिये न्यायालयों को साक्ष्य और कानूनी सहायता प्रदान कर सकता है, जिससे तस्करों के अभियोजन में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो सके।
निष्कर्ष
भारत ने सेक्स ट्रैफिकिंग से निपटने में थोड़ी प्रगति की है, लेकिन प्रवर्तन, पीड़ित संरक्षण और कानूनी ढाँचे में प्रणालीगत चुनौतियाँ बनी हुई हैं। विधायी सुधारों तथा सुसंगत नीति कार्यान्वयन के साथ एक व्यापक दृष्टिकोण इस मुद्दे को संबोधित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है। सरकार को तस्करी को प्रभावी ढंग से कम करने एवं अंततः समाप्त करने के लिये इन प्रयासों को प्राथमिकता देनी चाहिये।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत में सेक्स ट्रैफिकिंग और अन्य संगठित अपराधों से निपटने के लिये एक संगठित अपराध जाँच एजेंसी की आवश्यकता पर चर्चा कीजिये तथा ऐसे मुद्दों से निपटने में विशेष एजेंसियों की भूमिका पर प्रकाश डालिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)मेन्सप्रश्न: संसार के दो सबसे बड़े अवैध अफीम उगाने वाले राज्यों से भारत की निकटता ने भारत की आंतरिक सुरक्षा चिंताओं को बढ़ा दिया है। नशीली दवाओं के अवैध व्यापार एवं बंदूक बेचने, गुपचुप धन विदेश भेजने और मानव तस्करी जैसी अवैध गतिविधियों के बीच कड़ियों को स्पष्ट कीजिये। इन गतिविधियों को रोकने के लिये क्या-क्या प्रतिरोधी उपाय किये जाने चाहिये? (2018) |
बुलडोज़र न्याय पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश
प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय, अनुच्छेद 142, नगरपालिका कानून, कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधि का शासन, सम्मान से जीने का अधिकार, अनुच्छेद 21, अनुच्छेद 300A, अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 51, जिनेवा कन्वेंशन 1949, विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया, विधि की सम्यक प्रक्रिया, मेनका गांधी मामला 1978, हेट स्पीच, न्यायाधिकरण, वैकल्पिक विवाद समाधान। मेन्स के लिये:संपत्तियों को ध्वस्त करने हेतु उचित प्रक्रिया का पालन। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अखिल भारतीय दिशा-निर्देश दिये हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि नागरिकों की संपत्तियों को ध्वस्त करने हेतु उचित प्रक्रिया का पालन किया जाए।
- सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि उचित प्रक्रिया का पालन किये बिना किसी आरोपी या दोषी की संपत्ति को ध्वस्त करना “असंवैधानिक” है।
- संबंधित मामले में अपराध के आरोपी व्यक्तियों के घरों को "अवैधानिक" तरीके से ध्वस्त करने को चुनौती दी गई थी, जैसा कि हाल ही में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और उत्तराखंड में देखा गया है।
नोट: बुलडोज़र न्याय से तात्पर्य उन संपत्तियों को ध्वस्त करने की प्रथा (कभी-कभी उचित कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किये बिना) से है जो अक्सर अपराध के आरोपी लोगों की होती हैं।
बुलडोज़र न्याय पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देश क्या हैं?
- नोटिस देना: किसी भी प्रकार की तोड़फोड़ से पहले संपत्ति के मालिक को कम से कम 15 दिन का नोटिस दिया जाना चाहिये।
- नोटिस में ध्वस्त किये जाने वाले ढाँचे का विवरण तथा ध्वस्त किये जाने के कारण स्पष्ट रूप से उल्लिखित होने चाहिये।
- निष्पक्ष सुनवाई: व्यक्तिगत सुनवाई के लिये निर्धारित समय देना चाहिये, जिससे प्रभावित पक्ष को विध्वंस का विरोध करने या स्थिति को स्पष्ट करने का अवसर मिल सके।
- पारदर्शिता: प्राधिकारियों को नोटिस भेजने के बाद स्थानीय कलेक्टर या ज़िला मजिस्ट्रेट को ई-मेल के माध्यम से सूचित करना होगा।
- अंतिम आदेश जारी करना: अंतिम आदेश में संपत्ति मालिक के तर्क, ध्वस्तीकरण को एकमात्र विकल्प मानने का प्राधिकारी का औचित्य तथा यह कि क्या संपूर्ण संरचना या आंशिक संरचना को ध्वस्त किया जाना है, शामिल होना चाहिये।
- अंतिम आदेश के बाद की अवधि: यदि ध्वस्तीकरण का आदेश जारी किया जाता है, तो इसके क्रियान्वयन से पहले 15 दिन का समय दिया जाए, जिससे संपत्ति मालिक को संरचना को हटाने या आदेश को न्यायालय में चुनौती देने का मौका मिल सके।
- विध्वंस का दस्तावेज़ीकरण: प्राधिकरण को विध्वंस का वीडियो रिकॉर्ड करना होगा और पहले से ही एक "निरीक्षण रिपोर्ट" तैयार करनी होगी, साथ ही इसमें शामिल कर्मियों की सूची वाली एक "विध्वंस रिपोर्ट" भी तैयार करनी होगी।
- दोहरे उल्लंघन के लिये परीक्षण: सर्वोच्च न्यायालय ने उन मामलों के लिये एक अलग परीक्षण निर्धारित किया है, जहाँ ध्वस्त की गई संपत्ति में किसी आरोपी का निवास हो और अवैध निर्माण के रूप में उस संपत्ति द्वारा नगरपालिका कानूनों का उल्लंघन होता हो।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यदि केवल एक संरचना को ध्वस्त किया जाता है, जबकि समान संरचनाओं को अछूता छोड़ दिया जाता है, तो इसका अर्थ यह हो सकता है कि इसका उद्देश्य आरोपी को दंडित करना है, न कि अवैध निर्माण को हटाना।
- अपवाद: सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि उसके निर्देश उन मामलों में लागू नहीं होंगे, जहाँ सड़क, गली या फुटपाथ जैसे किसी सार्वजनिक स्थान पर, रेलवे लाइन या किसी नदी या जल निकाय के समीप कोई अनधिकृत संरचना है तथा उन मामलों में भी लागू नहीं होंगे, जहाँ न्यायालय द्वारा ध्वस्तीकरण का आदेश दिया गया है।
अनुच्छेद 142
- संविधान का अनुच्छेद 142 सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी मामले में पूर्ण न्याय के लिये आवश्यक आदेश और डिक्री पारित करने का अधिकार देता है।
- अनुच्छेद 142(1) सर्वोच्च न्यायालय को सम्पूर्ण न्याय करने के लिये पूरे भारत में प्रवर्तनीय आदेश पारित (राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित) करने की शक्ति प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 142(2) न्यायालय को उपस्थिति सुनिश्चित करने, दस्तावेज़ों की खोज करने या अवमानना के लिये दंड देने की शक्ति प्रदान करता है।
- समय के साथ, इस प्रावधान का उपयोग "पूर्ण न्याय" सुनिश्चित करने और विधायी खामियों को दूर करने के लिये किया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों का क्या महत्त्व है?
- शक्तियों का पृथक्करण: फैसले में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि न्यायपालिका के पास दोष तय करने तथा यह निर्धारित करने की शक्ति है कि क्या राज्य के किसी अंग ने अपनी सीमाओं का अतिक्रमण किया है।
- कार्यपालिका अपने मूल कार्यों के निष्पादन में न्यायपालिका का स्थान नहीं ले सकती।
- विधि का शासन: न्यायालय ने कहा कि बिना उचित सुनवाई के किसी को दण्ड के रूप में ध्वस्त करना कार्यपालिका के लिये अनुचित है। यह सुनिश्चित करके विधि के शासन को कायम रखता है कि राज्य की कार्रवाई संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन न करे।
- ऐसे विध्वंस जो कुछ समुदायों (जैसे झुग्गीवासियों) को असमान रूप से प्रभावित करते हैं, उन्हें अनुच्छेद 14 के तहत भेदभावपूर्ण के रूप में चुनौती दी जा सकती है।
- अधिकारियों की जवाबदेही: यह अनिवार्य करके कि ध्वस्तीकरण की कार्रवाई की सार्वजनिक रूप से जाँच की जाए तथा विस्तृत रिकॉर्ड (जैसे वीडियो रिकॉर्डिंग और निरीक्षण रिपोर्ट) प्रस्तुत किए जाएँ, दिशा-निर्देशों का उद्देश्य सत्ता के दुरुपयोग को रोकना तथा अधिक जवाबदेही को बढ़ावा देना है।
- आवास का अधिकार: संपूर्ण संपत्ति को प्रभावित करने वाला विध्वंस, जिसमें आरोपी न होने वाले लोग भी शामिल हैं, असंवैधानिक होगा क्योंकि यह आवास के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सम्मान के साथ जीवन जीने के अधिकार में आश्रय या आवास का अधिकार भी शामिल है।
- अनुच्छेद 300A गारंटी देता है कि किसी भी व्यक्ति को कानून के अलावा उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा। यह प्रावधान इस बात पर ज़ोर देता है कि संपत्ति को केवल उचित प्रक्रिया एवं वैध कानूनों के तहत ही छीना जा सकता है।
- व्यक्तिगत अधिकारों का संरक्षण: उचित प्रक्रिया और शक्तियों के पृथक्करण पर न्यायालय व्यक्तियों को राज्य की मनमानी कार्रवाइयों से बचाता है तथा यह सुनिश्चित करता है कि कानून प्रवर्तन की आड़ में अधिकारों का उल्लंघन न हो।
- जिनेवा कन्वेंशन, 1949: जिनेवा कन्वेंशन 1949 का अनुच्छेद 87(3) सामूहिक दंड पर प्रतिबंध लगाता है।
- इस तरह के विध्वंस भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 का भी उल्लंघन करते हैं, जिसमें कहा गया है कि भारत को अंतर्राष्ट्रीय संधियों और कानूनों का सम्मान करना चाहिये।
बुलडोज़र न्याय एक चिंता का विषय क्यों है?
- दंडात्मक विध्वंस में वृद्धि: आवास और भूमि अधिकार नेटवर्क (HLRN) के वर्ष 2024 के अनुमान में पाया गया कि अधिकारियों ने वर्ष 2022 और 2023 में 153,820 घरों को ध्वस्त कर दिया, जिससे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में 738,438 से अधिक लोग विस्थापित हो गए।
- नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध (ICCPR): ICCPR के अनुच्छेद 17 में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से या दूसरों के साथ मिलकर संपत्ति रखने का अधिकार है, और किसी को भी मनमाने ढंग से उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।
- सामूहिक दंड: सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि ध्वस्तीकरण अभियान न केवल अपराध के कथित अपराधियों को निशाना बनाता है, बल्कि उनके निवास स्थान को नष्ट करके उनके परिवारों पर एक प्रकार का "सामूहिक दंड" भी लगाता है।
- त्वरित न्याय: अतिक्रमण या अनधिकृत निर्माण के खिलाफ कार्रवाई के रूप में तोड़फोड़ को उचित ठहराया गया है। दंडात्मक हिंसा के ऐसे राज्य-स्वीकृत कृत्यों को "त्वरित न्याय" के रूप में सराहा गया है।
संपत्ति विध्वंस से संबंधित अन्य न्यायिक घोषणाएँ
- मेनका गांधी केस, 1978: सर्वोच्च न्यायालय ने "कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया" के दायरे का विस्तार करते हुए निर्णय दिया कि यह न्यायसंगत, निष्पक्ष और उचित होनी चाहिये, जिससे "कानून की उचित प्रक्रिया" के सिद्धांत का प्रवर्तन हुआ।
- इसलिये संदेह या निराधार आरोपों के आधार पर की गई तोड़फोड़ न्याय, निष्पक्षता और गैर-मनमानी के सिद्धांतों के विपरीत है।
- ओल्गा टेलिस केस, 1985: सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की कि जीवन के अधिकार की गारंटी देने वाले अनुच्छेद 21 में आजीविका और आश्रय का अधिकार भी शामिल है।
- इसका अर्थ है कि बिना उचित प्रक्रिया के घरों को ध्वस्त करना संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है।
- के.टी. प्लांटेशन (P) लिमिटेड केस, 2011: सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि अनुच्छेद 300-A के तहत संपत्ति से वंचित करने का प्रावधान करने वाला कानून न्यायसंगत, निष्पक्ष और उचित होना चाहिये।
सर्वोच्च न्यायालय दिशा-निर्देशों के कार्यान्वयन में क्या चुनौतियाँ हैं?
- राजनीतिक इच्छाशक्ति पर निर्भरता: प्रतिशोध या निवारण के रूप में विध्वंस का उपयोग करने का राजनीतिक दबाव, विशेष रूप से राजनीतिक रूप से आवेशित वातावरण में, बना रह सकता है।
- दंड से मुक्ति की संस्कृति: हालाँकि दिशा-निर्देश अधिकारियों पर जवाबदेही थोपते हैं, लेकिन ऐतिहासिक उदाहरण, जैसे कि हेट स्पीच या मॉब लिंचिंग जैसे मुद्दों को संबोधित करने के लिये न्यायालय के पिछले प्रयास, यह सुझाव देते हैं कि इसी तरह के प्रयासों से हमेशा पर्याप्त परिणाम या जवाबदेही नहीं मिली है।
- निगरानी का अभाव: यह जोखिम बना रहता है कि स्थानीय प्राधिकारी या अधिकारी इन नियमों को दरकिनार करने के तरीके ढूंढ लेंगे, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जहाँ न्यायिक निगरानी कमज़ोर है।
- दीर्घकालिक सांस्कृतिक परिवर्तन: अकेले दिशा-निर्देश व्यापक सांस्कृतिक और संस्थागत प्रथाओं को बदलने के लिये पर्याप्त नहीं हो सकते हैं जो इस तरह की कार्रवाइयों की अनुमति देते हैं।
आगे की राह
- कानून के शासन को कायम रखना: सभी राज्य कार्रवाई कानून के सख्त अनुपालन में होनी चाहिये। कानूनी प्रणाली को आपराधिक न्याय और सामूहिक दंड के बीच अंतर करना चाहिये, यह सुनिश्चित करते हुए कि निर्दोषता की धारणा कायम रहे।
- न्यायिक निगरानी को बढ़ाना: संपत्ति के विध्वंस से संबंधित विवादों से विशेष रूप से निपटने के लिये विशेष न्यायाधिकरणों की स्थापना की जानी चाहिये, जिनके पास सरकारी निर्णयों की समीक्षा करने की शक्तियाँ हों।
- वैकल्पिक विवाद समाधान: संपत्ति अधिकारों और विध्वंस से संबंधित विवादों को हल करने के प्रभावी तरीके के रूप में मध्यस्थता और पंचनिर्णय जैसे तंत्रों को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- पुनर्वास योजनाएँ: विध्वंस से प्रभावित व्यक्तियों के लिये विस्तृत पुनर्वास योजनाएँ बनाना महत्त्वपूर्ण है, जिसमें वैकल्पिक आवास, आजीविका सहायता और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच का प्रावधान हो।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: 'बुलडोज़र न्याय' के संदर्भ में संपत्ति विध्वंस पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश किस प्रकार उचित प्रक्रिया, पारदर्शिता और जवाबदेही के सिद्धांतों को सुदृढ़ करते हैं? |