भारतीय राजव्यवस्था
विधि की न्यायिक संपरीक्षा
- 03 Aug 2024
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प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय, जनहित याचिका (PIL), राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA), कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 मेन्स के लिये:न्यायिक समीक्षा और न्यायपालिका की भूमिका, भारत में कल्याणकारी कानून, झुग्गी पुनर्विकास नीतियाँ, शासन में जवाबदेही, न्यायिक सक्रियता बनाम न्यायिक संयम, शहरीकरण और आवास चुनौतियाँ |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को उसके वैधानिक कानूनों का "निष्पादन लेखा-परीक्षण" करने का निर्देश देने के न्यायपालिका के अधिकार को बनाए रखा।
- यह निर्णय महाराष्ट्र में झुग्गी क्षेत्र विकास के लिये एक अधिनियम के संबंध में की गई अपील से सामने आया, जिसमें लक्षित लाभार्थियों के लिये स्थिति में सुधार करने में कानून की प्रभावशीलता पर चिंता व्यक्त की गई थी।
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय क्या है?
- सर्वोच्च न्यायालय ने बॉम्बे उच्च न्यायालय को महाराष्ट्र स्लम एरिया (सुधार, निकासी और पुनर्विकास) अधिनियम, 1971 का निष्पादन लेखा-परीक्षण करने का निर्देश दिया, क्योंकि इस अधिनियम से संबंधित 1,600 से अधिक मामले लंबित हैं।
- न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि यद्यपि अधिनियम का उद्देश्य हाशिए पर रहे व्यक्तियों को आवास और सम्मान प्रदान करना था, परंतु इसके कार्यान्वयन के कारण बड़े पैमाने पर मुकदमेबाज़ी हुई है, परिणामस्वरूप इसका उद्देश्य मूलरूप से प्रभावित हुआ हैं।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि न्यायपालिका के पास कानूनों का प्रभाव सुनिश्चित करने की शक्ति और कर्त्तव्य हैं। न्यायालय ने कहा कि यदि कोई कानून अपने लक्षित लाभार्थियों को लाभ पहुँचाने में विफल रहता है, तब निष्पादन लेखा-परीक्षण करने की आवश्यकता होती है।
- इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने कानून के दीर्घकालिक प्रभाव के मूल्यांकन में "संस्थागत स्मृति" के महत्त्व पर ज़ोर दिया।
इस निर्णय के निहितार्थ क्या हैं?
- न्यायिक सक्रियता: यह शासन में सक्रिय न्यायिक भागीदारी में हो रहे परिवर्तन का प्रतीक है, जिसमें न्यायपालिका न्याय प्रदाता के रूप में कार्य कर सकती है तथा जब प्रशासनिक देरी वैधानिक प्रावधानों के प्रवर्तन में बाधा उत्पन्न करती है, तब वह इसमें हस्तक्षेप कर सकती है।
- इससे अन्य कल्याणकारी कानूनों तथा योजनाओं के समान लेखा-परीक्षण हेतु एक मिसाल कायम हो सकती है।
- निष्पादन लेखा-परीक्षण: निष्पादन लेखापरीक्षा का उद्देश्य अधिनियम की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करना तथा मुकदमेबाज़ी में योगदान देने वाले प्रणालीगत मुद्दों की पहचान करना है।
- इससे कानून में आवश्यक सुधार हो सकते हैं, परिणामस्वरूप इसके इच्छित लक्ष्यों को प्राप्त करने में इसकी प्रभावकारिता में वृद्धि हो सकती है।
- कानून के निष्पादन लेखा-परीक्षण के भय से विधायिकाएँ कानून के प्रवर्तन से पहले तथा उसके दौरान किसी भी विसंगति और कमियों को दूर करने के लिये कानूनों की गहन जाँच करने के लिये बाध्य हो सकती हैं।
- विधायिका एवं कार्यकारी जवाबदेही: यह निर्णय विधानमंडल तथा कार्यपालिका के संवैधानिक कर्त्तव्य पर ज़ोर देता है कि वे कानून बनाएँ, उसकी निगरानी करें और साथ ही साथ उसके प्रभाव का आकलन भी करें। इससे कल्याणकारी कानूनों के कार्यान्वयन में सरकारी प्राधिकारियों की जवाबदेही और संवेदनशीलता में वृद्धि हो सकती है। ए
- हाशिए पर रहने वाले समुदायों पर ध्यान देना: न्यायालय द्वारा हाशिए पर रहने वाले समुदायों को लाभ पहुँचाने के उद्देश्य पर बल देने से ऐसी नीतियों की आवश्यकता पर ज़ोर पड़ता है जो वास्तव में उनकी ज़रूरतों को पूरा करती हों। यह कमज़ोर आबादी की सुरक्षा के उद्देश्य से आगे की कानूनी एवं नीतिगत पहलों को प्रोत्साहित कर सकता है।
- अधिनियम पर सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियों से महत्त्वपूर्ण सुधार हो सकते हैं, जिससे झुग्गी पुनर्विकास के लिये बेहतर ढाँचा तैयार हो सकेगा और साथ ही प्रभावित समुदायों के जीवन स्तर में भी सुधार हो सकेगा।
सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित न्यायिक सक्रियता के पिछले निर्णय क्या हैं?
- अनुन धवन एवं अन्य बनाम भारत संघ, 2024:
- इसमें कार्यकर्त्ताओं ने भूख और कुपोषण से निपटने के लिये सामुदायिक रसोई की स्थापना की वकालत करते हुए एक जनहित याचिका (PIL) दायर की। याचिका में इन मुद्दों के कारण होने वाली भयावह बाल मृत्यु दर पर प्रकाश डाला गया और साथ ही यह तर्क भी दिया गया कि यह स्थिति भोजन और जीवन के अधिकार सहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है।
- सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों को भूख और कुपोषण से निपटने के लिये सामुदायिक रसोई की एक विशिष्ट योजना को लागू करने का निर्देश देने की अनुमति प्रदान नही की।
- न्यायालय ने सरकारी नीतिगत मामलों से संबंधित न्यायिक समीक्षा के सीमित दायरे पर ज़ोर देते हुए कहा कि वह राज्यों को किसी विशेष नीति को अपनाने के लिये केवल इसलिये आदेश नहीं दे सकता क्योंकि किसी विकल्प बेहतर माना जा सकता है।
- इसके स्थान पर इसने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के तहत मौजूदा ढाँचे को स्वीकार किया तथा इसे राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों पर छोड़ दिया ताकि वे वैकल्पिक कल्याण योजनाओं की जानकारी प्राप्त कर सकें।
- विशाखा बनाम राजस्थान राज्य, 1997:
- यह मामला भारत में एक ऐतिहासिक निर्णय तथा जिसने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने के लिये महत्त्वपूर्ण दिशा-निर्देश स्थापित किये हैं।
- इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने विशाखा गाइडलाइन नाम से व्यापक दिशा-निर्देश निर्धारित किये, जिनमें परिभाषाएँ, नियोक्ता के दायित्व, शिकायत तंत्र एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता को रेखांकित किया गया।
- इस निर्णय के परिणामस्वरूप कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 लागू हुआ, जिससे कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
विधानमंडल द्वारा अप्रभावी कानून बनाने के क्या कारण हैं?
- मुद्दों की जटिलता: भारत की विविध जनसंख्या और परस्पर संबंधित सामाजिक, आर्थिक तथा पर्यावरणीय समस्याओं के कारण सार्वभौमिक रूप से प्रभावी कानूनों का मसौदा तैयार करना कठिन हो जाता है।
- अनुसंधान और डेटा का अभाव: कई कानून पर्याप्त अनुभवजन्य साक्ष्य या संपूर्ण प्रभाव आकलन के बिना बनाए जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप अप्रभावी समाधान सामने आते हैं।
- उदाहरण: संसद में पारित तीन कृषि कानूनों पर संयुक्त संसदीय समिति (JPC) द्वारा जाँच की कमी के कारण विस्तृत जाँच और सार्वजनिक इनपुट के अवसर सीमित हो गए।
- राजनीतिक दबाव: पक्षपातपूर्ण राजनीति और अल्पकालिक चुनावी दबाव सार्वजनिक हित पर हावी हो सकते हैं, जिसके परिणामस्वरूप खराब तरीके से कानून बनाए जा सकते हैं।
- नौकरशाही चुनौतियाँ: नौकरशाही के भीतर परिवर्तन के प्रति प्रतिरोध और सीमित संसाधन नए कानूनों के कार्यान्वयन और प्रवर्तन में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं।
- हितधारकों के साथ अपर्याप्त परामर्श: नागरिक समाज और हाशिये पर रह रहे समूहों के साथ सीमित सहभागिता के कारण ऐसे कानून बन सकते हैं जो वास्तविक ज़रूरतों को पूरा करने में विफल हो जाते हैं।
- उदाहरण के लिये, वन अधिकार अधिनियम (FRA) 2006 का उद्देश्य वन भूमि और संसाधनों पर स्वदेशी व आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करना है। हालाँकि स्थानीय समुदायों के साथ अपर्याप्त परामर्श के कारण इसके कार्यान्वयन में कठिनाई हुई है, जिससे उनके अधिकारों की प्रभावी मान्यता में बाधा आ रही है।
- क्षेत्राधिकारों का अतिव्यापी होना: परस्पर-विरोधी कानून और क्षेत्राधिकार संबंधी विवाद प्रवर्तन में भ्रम और अकुशलता उत्पन्न कर सकते हैं।
- उदाहरण के लिये, केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर भूमि अधिग्रहण कानून, भूमि उपयोग तथा मुआवज़ा प्रथाओं के संबंध में टकराव उत्पन्न कर सकते हैं।
- प्रारूपण की गुणवत्ता: कानूनों में अस्पष्ट भाषा और तकनीकी जटिलता के कारण गलत व्याख्या हो सकती है तथा जनता की समझ सीमित हो सकती है।
- उदाहरण के लिये: POCSO अधिनियम बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिये बाल पोर्नोग्राफी के भंडारण को सख्ती से अपराध घोषित करता है। इसके विपरीत, IPC केवल अश्लील सामग्रियों के निर्माण और वितरण को संबोधित करता है, जिससे बाल पोर्नोग्राफी के भंडारण के बारे में एक अंतर रह जाता है।
आगे की राह
- हितधारकों की भागीदारी बढ़ाना: कानून निर्माण प्रक्रिया में नागरिक समाज, विशेषज्ञों और प्रभावित समुदायों को शामिल करना, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कानून व्यावहारिक तथा प्रभावी हों।
- उदाहरण: UK का सिटीज़न स्पेस प्लेटफॉर्म (Citizen Space platform) प्रस्तावित कानून पर सार्वजनिक परामर्श की अनुमति देता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि विविध विचारों या मतों को संबोधित किया जाए।
- भारत में इसी प्रकार की पहल से ऐसे कानून बन सकते हैं जो लोगों की आवश्यकताओं को बेहतर ढंग से प्रतिबिंबित करेंगे।
- डेटा-संचालित कानून: नीतिगत निर्णय लेने के लिये अनुसंधान और डेटा संग्रहण में निवेश करना, यह सुनिश्चित करना कि कानून मूल कारणों को संबोधित करें तथा अनुभवजन्य साक्ष्य पर आधारित हों।
- सुव्यवस्थित नौकरशाही प्रक्रियाएँ: प्रशासनिक प्रक्रियाओं को सरल बनाकर तथा प्रभावी कानून कार्यान्वयन के लिये समय पर नियम-निर्माण सुनिश्चित करके नौकरशाही देरी को कम करना।
- स्पष्ट प्रारूपण मानक: गलत व्याख्या को न्यूनतम करने तथा सुसंगत प्रवर्तन सुनिश्चित करने के लिये कानूनों के स्पष्ट एवं शुद्ध प्रारूपण के लिये दिशा-निर्देश स्थापित करना।
- उदाहरण: UK में प्लेन लैंग्वेज कमीशन (Plain Language Commission) स्पष्ट और संक्षिप्त कानूनी लेखन को बढ़ावा देता है। भारत को अपने कानूनों की पठनीयता में सुधार के लिये इसी तरह के दिशा-निर्देशों से लाभ हो सकता है।
- सुदृढ़ निगरानी और मूल्यांकन: कानून के लागू होने के बाद उसकी प्रभावशीलता का आकलन करने के लिये व्यापक तंत्र लागू करना, जिससे आवश्यक समायोजन और सुधार संभव हो सके।
- उदाहरण: ऑस्ट्रेलिया की विनियामक प्रभाव विश्लेषण (Regulatory Impact Analysis- RIA) प्रणाली प्रस्तावित विनियमों के कार्यान्वयन से पहले उनके संभावित लागतों और लाभों का मूल्यांकन करने के लिये डिज़ाइन की गई है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विनियम कुशल और प्रभावी दोनों हैं।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: विधायी प्रक्रिया में जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के संदर्भ में कानून की न्यायिक लेखापरीक्षा की अवधारणा पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) मेन्स:प्रश्न. भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014’ पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) |