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शासन व्यवस्था

भूमि संघर्ष पर वन अधिकार अधिनियम का प्रभाव

  • 17 Apr 2024
  • 14 min read

प्रिलिम्स के लिये:

वन अधिकार अधिनियम, 2006

मेन्स के लिये:

जनजातीय मुद्दे, FRA, 2006 के कार्यान्वयन में मुद्दे, भारत में भूमि संघर्ष

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत में भूमि संबंधी संघर्षों पर नज़र रखने वाली डेटा अनुसंधान एजेंसी लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच ने भूमि संघर्ष और वन अधिकार अधिनियम (FRA) के प्रवर्तन के बीच एक महत्त्वपूर्ण संबंध अनुभव किया है।

इस विश्लेषण से भूमि संघर्ष के बारे में क्या पता चलता है?

  • वन अधिकार अधिनियम (FRA) के निर्वाचन क्षेत्रों में भूमि संबंधी संघर्ष:
    • लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच (LCW) के डेटाबेस में दर्ज़ 781 संघर्षों में से, 264 संघर्षों का एक उपसमूह संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों से निकटता से जुड़ा हुआ है जहाँ वन अधिकार अधिनियम (FRA) एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है।
    • पीपुल्स फाॅरेस्ट रिपोर्ट (विज्ञान और पर्यावरण केंद्र द्वारा) के आधार पर इन निर्वाचन क्षेत्रों को आमतौर पर 'FRA निर्वाचन क्षेत्रों' के रूप में जाना जाता है।
    • 117 संघर्ष सीधे वन-निवासी समुदायों को प्रभावित करते हैं, जो लगभग 2.1 लाख हेक्टेयर भूमि को कवर करते हैं और इससे लगभग 6.1 लाख लोग प्रभावित होते हैं।
  • संघर्ष के कारण: 
    • संरक्षण और वानिकी परियोजनाएँ: इन निर्वाचन क्षेत्रों में लगभग 44% संघर्ष संरक्षण और वानिकी परियोजनाओं के कारण उत्पन्न होते हैं, जिनमें वृक्षारोपण जैसी गतिविधियाँ भी शामिल हैं।
    • FRA का गैर-कार्यान्वयन और उल्लंघन: लगभग 88.1% संघर्ष वन अधिकार अधिनियम (FRA) के भीतर महत्त्वपूर्ण प्रावधानों के गैर-कार्यान्वयन या उल्लंघन से उत्पन्न होते हैं। इन प्रावधानों में शामिल हैं:
      • बेदखली पर रोक: वनों में रहने वाले समुदायों को उनके अधिकारों के दावे निहित होने से पूर्व ही बेदखल कर दिया जाता है।
      • पूर्व सहमति की आवश्यकता का पालन न करना: अक्सर ग्राम सभा की पूर्व सहमति के बिना वन भूमि का अन्य उद्देश्यों के लिये उपयोग करना।
    • भूमि अधिकारों पर कानूनी सुरक्षा का अभाव: कई वन-निवास समुदायों के पास अपने भूमि अधिकारों के लिये पर्याप्त कानूनी सुरक्षा उपायों का अभाव है।
    • वन प्रशासन और संरक्षित क्षेत्र प्रबंधन: वन विभाग स्थानीय समुदायों के वन भूमि अधिकारों को खतरे में डालने वाले संघर्षों में प्राथमिक प्रतिकूल पक्ष के रूप में उभरता है।
  • सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्य:
    • महाराष्ट्र, ओडिशा और मध्य प्रदेश में कोर FRA निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या सबसे अधिक है।
    • महत्त्वपूर्ण FRA निर्वाचन क्षेत्रों में सबसे अधिक वन अधिकार मुद्दों वाले राज्य ओडिशा, छत्तीसगढ़ और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर हैं।
    • लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच (LCW) डेटाबेस में दर्ज 781 मामलों में से 187 मामले 69 आरक्षित संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों से सामने आए हैं।
  • संघर्षों की प्रकृति:
    • सामान्य भूमि विवाद: आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में अधिकांश मामले सामुदायिक वनों और गैर-जंगलों दोनों सहित सामान्य भूमि से संबंधित होते हैं।
      • विवादों में अक्सर भूमि लेनदेन में प्रक्रियात्मक अनियमितताओं के खिलाफ शिकायतें शामिल होती हैं।
    • निजी भूमि संघर्ष: इसके विपरीत, अनारक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में निजी भूमि, विशेष रूप से राजस्व पट्टा भूमि पर संघर्ष की उच्च आवृत्ति देखी जाती है।
    • संघर्षों में शामिल सामान्य आर्थिक गतिविधियाँ:
      • बुनियादी ढाँचा परियोजनाएँ: बुनियादी ढाँचे का विकास आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में संघर्ष को जन्म देता है। उदाहरण के लिये, खनन और बिजली क्षेत्र, सड़क तथा रेलवे परियोजनाएँ भूमि संघर्ष का प्राथमिक कारण हैं।
    • लघु वन उपज के संग्रहण के संबंध में अतीत में ऐसे मुद्दे रहे हैं जिनके कारण संघर्ष हुआ है।

FRA के कार्यान्वयन की स्थिति:

  • शीर्षक समझौता: फरवरी 2024 तक, आदिवासियों और वनवासियों को लगभग 2.45 मिलियन स्वामित्व प्रदान किये गए हैं।
    • हालाँकि, प्राप्त पाँच मिलियन दावों में से लगभग 34% खारिज़ कर दिये गए हैं।
  • पहचान दर: विशाल संभावनाओं के बावजूद, वन अधिकारों की वास्तविक मान्यता सीमित रही है। 31 अगस्त, 2021 तक, FRA लागू होने के बाद से वन अधिकारों के लिये पात्र न्यूनतम संभावित वन क्षेत्रों में से केवल 14.75% को ही मान्यता दी गई है।
  • राज्यों की भिन्नताएँ:
    • आंध्र प्रदेश: इसे न्यूनतम संभावित वन क्षेत्रीय दावे का 23% मान्यता प्राप्त है।
    • झारखंड: अपने न्यूनतम संभावित वन क्षेत्र का केवल 5% ही मान्यता प्राप्त है।
    • अंतरराज्यीय विविधताएँ: यहाँ तक कि राज्यों के भीतर भी मान्यता दरें भिन्न-भिन्न होती हैं। उदाहरण के लिये, ओडिशा में नबरंगपुर ज़िले ने 100% IFR मान्यता दर प्राप्त की, जबकि संबलपुर की दर 41.34% है।

वन अधिकार अधिनियम, 2006 क्या है?

  • परिचय:
    • वर्ष 2006 के वन अधिकार अधिनियम (FRA) का उद्देश्य अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पारंपरिक वन निवासियों को औपचारिक रूप से वन अधिकारों एवं वन भूमि पर अधिकार को मान्यता एवं अनुदान देना था, जो पीढ़ियों से इन जंगलों में रहते हैं, भले ही उनके अधिकार औपचारिक रूप से प्रलेखित नहीं थे।
    • इसका उद्देश्य औपनिवेशिक तथा उत्तर-औपनिवेशिक भारत की वन प्रबंधन नीतियों के कारण वनवासी समुदायों द्वारा सामना किये गए ऐतिहासिक अन्याय को संबोधित करना था, जो वनों के साथ उनके दीर्घकालिक सहजीवी संबंध को स्वीकार करने में विफल रहे थे।
    • इसके अतिरिक्त, अधिनियम ने वनवासियों को वन संसाधनों तक निरंतर पहुँच एवं उपयोग करने, जैवविविधता तथा पारिस्थितिक संतुलन को बढ़ावा देने के साथ ही उन्हें गैरकानूनी बेदखली एवं विस्थापन से बचाने में सक्षम बनाकर उन्हें सशक्त बनाने की मांग की।
  • कार्यान्वयन में समस्याएँ:
    • व्यक्तिगत वन अधिकारों (IFR) की मान्यता में कमी रही है, जिसका कारण प्राय: वन विभाग का विरोध, अन्य विभागों की उदासीनता एवं प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग है।
    • मध्य प्रदेश में वनमित्र सॉफ्टवेयर जैसी डिजिटल प्रक्रियाओं का कार्यान्वयन खराब कनेक्टिविटी एवं कम साक्षरता दर वाले क्षेत्रों में चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है।
    • सामुदायिक वन अधिकारों (CFR) की शिथिल एवं अधूरी मान्यता FRA को लागू करने में अत्यधिक अंतर है।
      • जबकि महाराष्ट्र, ओडिशा तथा छत्तीसगढ़ ने  CFR को पहचानने में कुछ प्रगति की है, लेकिन अधिकांश राज्य अभि भी पिछड़े हुए हैं।
    • अधिकांश राज्यों में 'वन ग्रामों' के मुद्दे को पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं किया गया है, जो FRA के व्यापक कार्यान्वयन की कमी को दर्शाता है।
    • दिल्ली स्थित संगठन कॉल फॉर जस्टिस द्वारा गठित एक तथ्य-खोज समिति ने पाँच राज्यों (असम, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओडिशा एवं कर्नाटक) में वर्ष 2006 के वन अधिकार अधिनियम (FRA) को "मिश्रित" रूप से कार्यान्वित किया है। समिति द्वारा रिपोर्ट किये गए प्रमुख मुद्दों में शामिल हैं:
      • अद्वितीय कृषि प्रथाओं को मान्यता देने में चुनौतियाँ: असम में FRA स्थानांतरित खेती जैसी प्रथाओं को समायोजित नहीं करता है, जिससे वन अधिकारों को मान्यता देने में समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
      • भूमि परिवर्तन को लेकर चिंताएँ: जबकि महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ज़िले ने संतोषजनक प्रगति दिखाई, वहाँ सामुदायिक वन भूमि को गैर-वन उद्देश्यों के लिये परिवर्तित करने को लेकर चिंताएँ थीं।
      • कुछ वनवासियों का बहिष्कार: कुछ पारंपरिक वनवासियों को FRA मान्यता प्रक्रिया से बाहर रखा गया था।

आगे की राह:

  • ग्राम सभा को दृढ़ बनाना: वन प्रबंधन निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में ग्राम सभा की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना।
  • समावेशी निर्णय लेने को बढ़ावा देना: समावेशी निर्णय लेने में अधिकार धारकों का समर्थन करना ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनके दृष्टिकोण और आवश्यकताओं पर विचार किया जाए।
  • शैक्षिक दृष्टिकोण: वनवासियों को FRA के तहत उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित करने के लिये जागरुकता कार्यक्रम और प्रशिक्षण सत्र आयोजित करना।
  • क्षमता वृद्धि: वनवासियों के अधिकारों के लिये प्रभावी ढंग से समर्थन करने के लिये नागरिक समाज संगठनों की क्षमता का निर्माण करना।
  • निगरानी ढाँचा: वन विभाग और अन्य संबंधित अधिकारियों द्वारा FRA के अनुपालन की निगरानी हेतु निगरानी प्रणाली स्थापित करना।
  • जवाबदेही सुनिश्चित करना: FRA के किसी भी उल्लंघन या गैर-अनुपालन के लिये ज़िम्मेदार अधिकारियों को जवाबदेह ठहराने के उपायों को लागू करना।
  • समग्र योजना: एकीकृत योजनाएँ विकसित करना, जो वनवासियों के अधिकारों और हितों को बरकरार रखते हुए वनों के विकास एवं संरक्षण दोनों आवश्यकताओं को संबोधित करना।

निष्कर्ष:

  • अंततः निष्कर्ष यह स्पष्ट है कि FRA और आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों दोनों में भूमि संघर्ष को कम करने के लिये कानूनी सुधार, सामुदायिक सशक्तिकरण एवं सतत् विकास पहल को शामिल करने वाला एक समग्र दृष्टिकोण आवश्यक है।
  • अंतर्निहित कारणों को संबोधित करके और समावेशी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को बढ़ावा देकर, नीति निर्माता न्यायसंगत भूमि प्रशासन का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं तथा समुदायों एवं पर्यावरण संरक्षण प्रयासों के बीच सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व को बढ़ावा दे सकते हैं।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न.अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के कार्यान्वयन का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। इस कानून ने भारत में वन समुदायों और संरक्षण प्रयासों को कैसे प्रभावित किया है? (250 शब्द)

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न.राष्ट्रीय स्तर पर, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये कौन-सा मंत्रालय केंद्रक अभिकरण (नोडल एजेंसी) है? (2021)

(a) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय
(b) पंचायती राज मंत्रालय
(c) ग्रामीण विकास मंत्रालय
(d) जनजातीय कार्य मंत्रालय

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न. भैषजिक कंपनियों के द्वारा आयुर्वेद के पारंपरिक ज्ञान को पेटेंट कराने से भारत सरकार किस प्रकार रक्षा कर रही है? (2019)

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