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शासन व्यवस्था

जनहित याचिका

  • 04 Oct 2021
  • 6 min read

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, जनहित याचिका, रिट याचिका

मेन्स के लिये:

जनहित याचिका (PIL) का महत्त्व एवं दुरुपयोग

चर्चा में क्यों?

सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने एक याचिकाकर्त्ता को पर्याप्त शोध के बिना जनहित याचिका (PIL) दायर करने के लिये चेतावनी दी।

प्रमुख बिंदु

  • परिचय:
    • जनहित याचिका (PIL) मानव अधिकारों और समानता को आगे बढ़ाने या व्यापक सार्वजनिक चिंता के मुद्दों को उठाने के लिये कानून का उपयोग है।
    • ‘जनहित याचिका (Public Interest Litigation-PIL)’ की अवधारणा अमेरिकी न्यायशास्त्र से ली गई है।
    • भारतीय कानून में PIL का मतलब जनहित की सुरक्षा के लिये याचिका या मुकदमा दर्ज करना है। यह पीड़ित पक्ष द्वारा नहीं बल्कि स्वयं न्यायालय या किसी अन्य निजी पक्ष द्वारा विधिक अदालत में पेश किया गया मुकदमा है। 
      • यह न्यायिक सक्रियता के माध्यम से अदालतों द्वारा जनता को दी गई शक्ति है।
    • इसे केवल सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में दायर किया जा सकता है।
    • यह रिट याचिका से अलग है, जो व्यक्तियों या संस्थानों द्वारा अपने लाभ के लिये दायर की जाती है, जबकि जनहित याचिका आम जनता के लाभ के लिये दायर की जाती है।
    • जनहित याचिका की अवधारणा भारत के संविधान के अनुच्छेद 39 A में निहित सिद्धांतों के अनुकूल है ताकि कानून की मदद से त्वरित सामाजिक न्याय की रक्षा और उसे विस्तारित किया जा सके।
    • वे क्षेत्र जहाँ जनहित याचिका दायर की जा सकती है: प्रदूषण, आतंकवाद, सड़क सुरक्षा, निर्माण संबंधी खतरे आदि। 
  • महत्त्व:
    • जनहित याचिका सामाजिक परिवर्तन और कानून के शासन को बनाए रखने तथा कानून एवं न्याय के बीच संतुलन को तीव्र गति देना का एक महत्त्वपूर्ण साधन है।
    • जनहित याचिकाओं का मूल उद्देश्य गरीबों और हाशिये के वर्ग के लोगों के लिये न्याय को सुलभ या न्याय संगत बनाना है। यह सभी के लिये न्याय की पहुँच का लोकतंत्रीकरण करता है।
    • यह राज्य संस्थानों जैसे- जेलों, आश्रयों, सुरक्षात्मक घरों आदि की न्यायिक निगरानी में मदद करता है।
    • न्यायिक समीक्षा की अवधारणा को लागू करने के लिये यह एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है।
  • मुद्दे:
    • दुरुपयोग:
      • अदालतों में लंबित मामलों की संख्या पहले से ही अधिक है और जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग बढ़ रहा है।
      • वर्ष 2010 में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यक्तिगत या अप्रासंगिक मामलों से जुड़ी जनहित याचिकाओं पर काफी नाराज़गी व्यक्त की थी और जनहित याचिकाओं को स्वीकार करने के लिये अदालतों को कुछ दिशा-निर्देश जारी किये थे।
    • प्रतिस्पर्द्धी अधिकारों की समस्या:
      • जनहित याचिका की कार्रवाइयाँ कभी-कभी प्रतिस्पर्द्धी अधिकारों की समस्या को जन्म दे सकती है।
      • उदाहरण के लिये जब कोई न्यायालय प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग को बंद करने का आदेश देती है तो कामगारों और उनकी आजीविका से वंचित उनके परिवारों के हितों को न्यायालय द्वारा ध्यान में नहीं रखा जा सकता है।
    • विलंब:
      • शोषित और वंचित समूहों से संबंधित जनहित याचिकाएँ कई वर्षों से लंबित हैं।
      • जनहित याचिका के मामलों के निपटान में अत्यधिक देरी से कई प्रमुख निर्णय अव्यवहारिक/अक्रियात्मक मूल्य (Academic Value) के हो सकते हैं।
  • न्यायिक अतिरेक:
    • जनहित याचिकाओं के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक या पर्यावरणीय समस्याओं को हल करने की प्रक्रिया में न्यायपालिका द्वारा न्यायिक अतिक्रमण के मामले हो सकते हैं।

आगे की राह

पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी की राय में जनहित याचिका के दुरुपयोग को नियंत्रित करने के लिये 3 बुनियादी नियम:

  • संदिग्ध जनहित याचिका को उपयुक्त मामलों में अनुकरणीय लागत के साथ अस्वीकार करना।
  • ऐसे मामलों में जहाँ महत्त्वपूर्ण परियोजना या सामाजिक आर्थिक नियमों में अधिक विलंब के बाद चुनौती दी जाती है, ऐसी याचिकाओं को निलंबित कर देना चाहिये। 
  • यदि जनहित याचिका को अंततः खारिज कर दिया जाता है, तो जनहित याचिका को सख्त शर्तों के तहत होना चाहिये जैसे कि याचिकाकर्त्ताओं को क्षतिपूर्ति प्रदान करना या हर्ज़ाने को कवर करना।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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