भारतीय राजनीति
मौलिक अधिकार (भाग -2)
- 28 Jun 2021
- 22 min read
शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 और 24)
- मानव तस्करी और बलात् श्रम पर प्रतिबंध: भारत में पुराने समय में ज़मींदार, सूदखोर और अन्य धनी लोग बंधुआ मज़दूरी करवाते थे। देश में अभी भी खासतौर से भट्ठे के काम में बंधुआ मज़दूरी करवाई जाती है लेकिन अब इसे अपराध घोषित कर दिया गया है और कानून द्वारा दंडनीय है।
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 23 मानव तस्करी, बेगार (बलात् श्रम) और इसी प्रकार के अन्य बलात् श्रम के प्रकारों पर प्रतिबंध लगाता है, जिससे देश के लाखों अल्प-सुविधा प्राप्त और वंचित लोगों की रक्षा की जा सके।
- यह अधिकार भारत के नागरिक और गैर-नागरिक दोनों के लिये उपलब्ध है।
- मानव तस्करी के विरुद्ध अधिकार में निम्नलिखित शामिल हैं:
- पुरुष, महिला और बच्चों की खरीद-बिक्री।
- वेश्यावृत्ति।
- देवदासी।
- दास।
- इस तरह के कृत्यों के लिये दंडित करने हेतु संसद ने अनैतिक दुर्व्यापार (निवारण) अधिनियम 13, 1956 [Immoral Traffic (Prevention) Act 13, 1956] को लागू किया।
- बाल श्रम पर रोक: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 24 किसी फैक्ट्री, खान अथवा अन्य परिसंकटमय गतिविधियों तथा निर्माण कार्य या रेलवे में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के नियोजन का प्रतिषेध करता है।
- हालाँकि यह किसी नुकसान न पहुँचने वाले अथवा गैर-जोखिम युक्त कार्यों में नियोजन का प्रतिषेध नहीं करता है।
- बाल श्रम (प्रतिषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 इस दिशा में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कानून है।
- बाल श्रम (निषेध और रोकथाम) संशोधन अधिनियम, (Child labour (Prohibition and Prevention) Amendment Act)- 2016 को लागू किया गया।
- यह अधिनियम 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को सभी प्रकार के व्यावसायिक कार्यों में लगाने पर तथा 14 से 18 वर्ष के किशोरों को ‘खतरनाक व्यवसायों’ (Hazardous Occupations) के कार्यों में लगाने पर प्रतिबंध लगाता है।
धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
अंतःकरण और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण व प्रचार करने की स्वतंत्रता:
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता, धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का सामान अधिकार होगा। यह अधिकार नागरिकों एवं गैर-नागरिकों के लिये भी उपलब्ध है।
- अंतःकरण की स्वतंत्रता: किसी भी व्यक्ति को भगवान या उसके रूपों के साथ अपने ढंग से अपने संबंध को बनाने की आंतरिक स्वतंत्रता।
- धर्म को मानने का अधिकार: व्यक्ति को अपनी धार्मिक आस्था और विश्वास का सार्वजनिक तथा बिना भय के घोषणा करने का अधिकार।
- आचरण का अधिकार: धार्मिक पूजा, परंपरा, समारोह करने और अपनी आस्था तथा विचारों के प्रदर्शन की स्वतंत्रता।
- प्रचार का अधिकार: अपनी धार्मिक आस्थाओं का प्रचार और प्रसार करना या अपने धर्म के सिद्धांतों को प्रकट करना। परंतु इसमें किसी व्यक्ति को अपने धर्म में धर्मांतरित करने का अधिकार सम्मिलित नहीं है।
- अनुच्छेद 25 केवल धार्मिक विश्वास को ही नहीं बल्कि धार्मिक आचरण को भी समाहित करता है।
- सीमाएँ: सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के आधार पर सरकार धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकती है।
- कुछ सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिये सरकार धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कर सकती है। उदाहरण के तौर पर सरकार ने सती प्रथा, एक से अधिक विवाह या मानव बलि जैसी कुप्रथाओं पर प्रतिबंध के लिये अनेक कदम उठाए हैं।
- ऐसे प्रतिबंधों को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में हस्तक्षेप नहीं माना जा सकता है।
- कुछ सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिये सरकार धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कर सकती है। उदाहरण के तौर पर सरकार ने सती प्रथा, एक से अधिक विवाह या मानव बलि जैसी कुप्रथाओं पर प्रतिबंध के लिये अनेक कदम उठाए हैं।
- धार्मिक कार्यों के प्रबंधन की स्वतंत्रता: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 26 के अनुसार, प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त होंगे:
- धार्मिक और मूर्त प्रयोजनों के लिये संस्थानों की स्थापना और रख-रखाव का अधिकार।
- अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का अधिकार।
- इसके अतिरिक्त चल और अचल संपत्ति के अर्जन तथा स्वामित्व का अधिकार, ऐसी संपत्ति का कानून के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार।
- अनुच्छेद 26 भी सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य संबंधी अधिकार देता है।
- धर्म की अभिवृद्धि के लिये करों के संदाय से स्वतंत्रता: अनुच्छेद 27 में उल्लिखित है कि किसी व्यक्ति को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संप्रदाय की अभिवृद्धि या उसके रख-रखाव में व्यय करने के लिये कोई कर देने हेतु बाध्य नहीं किया जाएगा।
- इसमें कहा गया है कि राज्य कर के रूप में एकत्रित धन को किसी विशिष्ट धार्मिक उत्थान एवं रख-रखाव के लिये व्यय नहीं कर सकता है।
- यह व्यवस्था राज्य को किसी धर्म का दूसरे के मुकाबले पक्ष लेने से रोकता है।
- यह केवल कर लगाने पर प्रतिबंध लगाता है, न कि शुल्क लगाने पर।
- शुल्क लगाने का उद्देश्य धर्मनिरपेक्ष प्रशासन द्वारा धार्मिक संस्थानों को नियंत्रित करना है।
- इसमें कहा गया है कि राज्य कर के रूप में एकत्रित धन को किसी विशिष्ट धार्मिक उत्थान एवं रख-रखाव के लिये व्यय नहीं कर सकता है।
- धार्मिक शिक्षा में उपस्थित होने की स्वतंत्रता: अनुच्छेद 28 के अंतर्गत राज्य (भारत का क्षेत्र) निधियों से पूर्णत: पोषित किसी भी शैक्षणिक संस्थान में कोई धार्मिक शिक्षा न दी जाए।
- हालाँकि यह प्रावधान उन शैक्षणिक संस्थानों में लागू नहीं होता है जिनका प्रशासन तो राज्य कर रहा हो लेकिन उसकी स्थापना किसी विन्यास या न्यास के अधीन हुई हो।
- राज्य से मान्यता प्राप्त या राज्य-निधि से सहायता पाने के लिये शिक्षा संस्थान में उपस्थित होने वाले किसी व्यक्ति को ऐसी संस्था में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा या उपासना में भाग लेने के लिये उसकी अपनी सहमति के बिना बाध्य नहीं किया जाएगा।
- अवयस्क के मामले में उसके संरक्षक की सहमति की आवश्यकता होगी।
संस्कृति एवं शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29 और 30)
- अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण: अनुच्छेद 29 यह प्रावधान करता है कि भारत के किसी भी भाग में रहने वाले नागरिकों के किसी भी अनुभाग को अपनी बोली, भाषा, लिपि या संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार है।
- इसके अतिरिक्त किसी भी नागरिक को राज्य के अंतर्गत आने वाले संस्थान या उससे सहायता प्राप्त संस्थान में धर्म, जाति या भाषा के आधार पर प्रवेश से रोका नहीं जा सकता।
- अनुच्छेद 29 धार्मिक अल्पसंख्यकों एवं भाषायी अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करता है।
- हालाँकि उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि इस अनुच्छेद की व्यवस्था केवल अल्पसंख्यकों तक ही सीमित नहीं है, जैसा कि सामान्यतः माना जाता है, क्योंकि ‘नागरिकों के अनुभाग’ शब्द का अभिप्राय अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक दोनों से है।
- शिक्षा संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार: अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों (चाहे धार्मिक या भाषायी) को निम्नलिखित अधिकार प्रदान करता है:
- सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।
- राज्य द्वारा अल्पसंख्यक वर्ग की शिक्षा संस्था की किसी भी संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण के लिये निर्धारित क्षतिपूर्ति राशि से उनके लिये प्रत्याभूत अधिकार प्रतिबंधित या निरस्त नहीं होंगे।
- यह उपबंध 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया है।
- राज्य आर्थिक सहायता में अल्पसंख्यक द्वारा प्रबंधित किसी भी शैक्षणिक संस्थान के साथ भेदभाव नहीं करेगा।
- इस तरह अनुच्छेद 30 के तहत संरक्षण अल्पसंख्यकों (धार्मिक, सांस्कृतिक या भाषायी ) की सुरक्षा का विस्तार नागरिकों के किसी अन्य अनुभाग के लिये (जैसा कि अनुच्छेद 29) नहीं है।
अनुच्छेद 31, 31A, 31B और 31C
- संविधान के भाग 3 में उल्लिखित 7 मौलिक अधिकारों में से संपत्ति का अधिकार एक था।
- हालाँकि संविधान लागू होने के समय से ही संपति का मौलिक अधिकार सबसे अधिक विवादास्पद रहा।
- 44वें संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा मौलिक अधिकारों में से संपत्ति के अधिकार, भाग 3 में अनुच्छेद 19 (1) (च) को समाप्त कर दिया गया और इसके लिये संविधान के भाग XII में नए अनुच्छेद 300 A के रूप में प्रावधान किया गया।
- संपत्ति का अधिकार अब भी एक कनूनी अधिकार (संवैधानिक अधिकार) है।
- अनुच्छेद 31 ने कई संवैधानिक संशोधनों का नेतृत्व किया जैसे- 1, 4वें, 7वें, 25वें, 39वें, 40वें और 42वें संशोधन।
- प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 ने अनुच्छेद 31A और 31B को संविधान में सम्मिलित किया।
- 25वें संशोधन अधिनियम, 1971 द्वारा संविधान में अनुच्छेद 31C को शामिल किया गया था।
- प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 ने अनुच्छेद 31A और 31B को संविधान में सम्मिलित किया।
- अनुच्छेद 31A: यह कानूनों की पाँच श्रेणियों से व्यावृत्ति प्रदान करता है और इन्हें अनुच्छेद 14 तथा अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर चुनौती देकर अवैध नहीं ठहराया जा सकता है।
- इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
- राज्य द्वारा संपदाओं का अधिग्रहण और संबंधित अधिकार।
- राज्य द्वारा संपत्ति के प्रबंधन का दायित्व संभालना।
- निगमों का विलय।
- निगमों के निदेशकों या शेयरधारकों के अधिकारों का पुनर्निर्धारण या समाप्ति।
- खनन पट्टे का पुनर्निर्धारण या उनकी समाप्ति।
- इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
- अनुच्छेद 31B: यह नौवीं अनुसूची में उल्लिखित अधिनियमों एवं नियमों को व्यावृत्ति प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 31B का दायरा अनुच्छेद 31A से अधिक व्यापक है। अनुच्छेद 31B नौवीं अनुसूची में सम्मिलित किसी भी विधि को सभी मौलिक अधिकारों से उन्मुक्ति प्रदान करता है फिर चाहे विधि अनुच्छेद 31A में उल्लिखित पाँच श्रेणियों में से किसी के अंतर्गत हो या नहीं।
- हालाँकि I.R. कोएल्हो केस (2007) में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा कि नौवीं अनुसूची में सम्मिलित विधियों को न्यायिक समीक्षा से उन्मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। न्यायालय ने कहा कि न्यायिक समीक्षा संविधान की मूल विशेषता है और किसी विधि को नौवीं अनुसूची के अंतर्गत रखकर इसकी यह विशेषता समाप्त नहीं की जा सकती।
- 24 अप्रैल, 1973 को सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार केशवानंद भारती मामले में अपने ऐतिहासिक फैसले में संविधान के मौलिक ढाँचे के सिद्धांत को प्रतिपादित किया।
- अनुच्छेद 31C: इसमें दो प्रावधान शामिल थे:
- यह कहता है कि कोई भी कानून जिसमें अनुच्छेद 39 (B) और (C) में विनिर्दिष्ट समाजवादी निर्देशक सिद्धांतों को लागू करने की मांग की गई है, अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार अमान्य घोषित नहीं होंगे।
- इसके अतिरिक्त कोई भी कानून जो यह घोषणा करे कि यह ऐसी नीति को प्रभावित करने हेतु है, उसे किसी भी न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि यह ऐसी नीति को प्रभावित नहीं करता है।
लेख 31A, 31B और 31C को मौलिक अधिकारों के अपवाद के रूप में बरकरार रखा गया है।
संवैधानिक उपचार का अधिकार (अनुच्छेद 32)
- अनुच्छेद 32 को संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद माना जाता है क्योंकि यह प्रावधान करता है कि मौलिक अधिकारों के संरक्षण का अधिकार स्वयं में एक मौलिक अधिकार है।
- यह एक पीड़ित नागरिक के मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये उपायों का अधिकार प्रदान करता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि अनुच्छेद 32 में संविधान की मूल विशेषताएँ हैं। इस तरह इसे संविधान संशोधन के तहत बदला नहीं जा सकता।
- इसमें निम्नलिखित चार प्रावधान शामिल हैं:
- मौलिक अधिकारों को प्रवर्तित करने के लिये समुचित कार्यवाहियों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में सामावेदन करने का अधिकार प्रत्याभूत है।
- सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी मौलिक अधिकार के संबंध में निर्देश या आदेश (रिट) जारी करने का अधिकार होगा।
- संसद को यह शक्ति प्राप्त है कि वह किसी भी अन्य न्यायालय को सभी प्रकार के निर्देश, आदेश (रिट) जारी करने की शक्ति प्रदान कर सकती है।
- यहाँ कोई अन्य न्यायालय, उच्च न्यायालय सहित शामिल नहीं हैं क्योंकि (अनुच्छेद 226) पहले ही निर्धारित करता है कि ये उच्च शक्तियाँ उच्च न्यायालय में निहित हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय में जाने के अधिकार को इस संविधान द्वारा अन्यथा उपबंधित के सिवाय निलंबित नही किया जाएगा।
- राष्ट्रपति राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 359) के तहत इनको स्थगित कर सकता है।
- संविधान द्वारा अनुच्छेद 32 के तहत मौलिक अधिकारों की ही गारंटी दी गई है, अन्य अधिकारों की नहीं, जैसे-गैर-मौलिक संवैधानिक अधिकार, असंवैधानिक अधिकार, लौकिक अधिकार आदि।
- अनुच्छेद 32 के अनुसार, मौलिक अधिकारों का हनन इसके प्रयोग की अनिवार्य शर्त है।
- दूसरे शब्दों में अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों से संबंधित मामलों पर प्रश्न नहीं उठा सकता।
अनुच्छेद 33, 34 और 35
- अनुच्छेद 33: यह संसद को यह अधिकार देता है कि वह सशस्त्र बलों, अर्द्धसैनिक बलों, पुलिस बलों, खुफिया एजेंसियों और अन्य के मौलिक अधिकारों को युक्तियुक्त प्रतिबंधित कर सके।
- इस प्रावधान का उद्देश्य उनके समुचित कार्य करने एवं उनके बीच अनुशासन को बनाए रखना है।
- अनुच्छेद 33 के तहत कानून बनाने का अधिकार सिर्फ संसद को है न कि राज्य विधानमंडल को।
- संसद द्वारा बनाए गए कानून को किसी न्यायालय में किसी मौलिक अधिकार के उल्लंघन के संबंध में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
- सैन्य बलों के सदस्यों की अभिव्यक्ति का अभिप्राय है इसमें वे कर्मचारी भी शामिल हैं जो सेना में नाई, बढ़ई, मैकेनिक, बावर्ची, चौकीदार, बूट बनाने वाला, दर्जी आदि का कार्य करते हैं।
- अनुच्छेद 34: यह मौलिक अधिकारों पर तब प्रतिबंध लगाता है जब भारत में कहीं भी मार्शल लॉ लागू हो। 'मार्शल लॉ' के सिद्धांत को ब्रिटिश कानून से लिया गया है। हालाँकि 'मार्शल लॉ' की व्याख्या संविधान में नहीं की गई, लेकिन इसका शाब्दिक अर्थ है, 'सैन्य शासन'।
- मार्शल लॉ को असाधारण परिस्थितियाँ जैसे- युद्ध, अशांति, दंगा या कानून का उल्लंघन आदि स्थिति में लागू किया जाता है।
- अनुच्छेद 34 संसद को यह अधिकार देता है कि वह किसी भी सरकारी कर्मचारी या अन्य व्यक्ति को उसके द्वारा किये जाने वाले कार्य की व्यवस्था को बरकरार रखे या पुनर्निर्मित करे, संसद किसी मार्शल लॉ वाले क्षेत्र में जारी दंड या अन्य आदेश को वैधता प्रदान कर सकता है।
- संसद द्वारा बनाए गए क्षतिपूर्ति अधिनियम को किसी न्यायालय में केवल इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि वह किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
- अनुच्छेद 35: यह अनुच्छेद केवल संसद को कुछ विशेष मौलिक अधिकारों को प्रभावी बनाने के लिये कानून बनाने की शक्ति प्रदान करता है। यह अधिकार राज्य विधानमंडल को प्राप्त नहीं है।
- संसद के पास निम्नलिखित मामले में कानून बनाने का अधिकार:
- किसी राज्य/केंद्रशासित प्रदेश/स्थानीय या अन्य प्राधिकरण में किसी रोज़गार या नियुक्ति के लिये निवास की व्यवस्था।
- मौलिक अधिकारों के क्रियान्वयन के लिये निर्देश, आदेश, रिट जारी करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को सशक्त बनाना।
- सशस्त्र बलों, पुलिस बलों आदि के सदस्यों के मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध।
- किसी सरकारी कर्मचारी या अन्य व्यक्ति को किसी क्षेत्र में मार्शल लॉ के दौरान किये गए किसी भी कृत्य हेतु क्षतिपूर्ति देना।
- अनुच्छेद 35 संसद के उपरोक्त विषयों पर कानून बनाने का प्रावधान सुनिश्चित करता है, यद्यपि इनमें से कुछ अधिकार राज्य विधानमंडल (यानी राज्य सूची) के पास भी होते हैं।
- संसद के पास निम्नलिखित मामले में कानून बनाने का अधिकार:
निष्कर्ष
- बहुत सारे अपवाद प्रतिबंध और स्थायित्व की कमी के बावजूद मौलिक अधिकार, भारत के संविधान का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं:
- यह मनुष्य की वस्तुओं और नैतिक सुरक्षा के लिये आवश्यक शर्तें प्रदान करता है तथा प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है।
- यह अधिकार अल्पसंख्यकों एवं समाज के कमज़ोर वर्गों के हितों की रक्षा करता है और धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में भारत की धारणा को भी मज़बूत करता है।
- ये सामाजिक समानता एवं न्याय की नींव रखकर व्यक्तियों की गरिमा और सम्मान सुनिश्चित करते हैं।