जैव विविधता और पर्यावरण
भारत में जैवविविधता संरक्षण की पुनर्कल्पना
- 03 Aug 2024
- 28 min read
यह एडिटोरियल 31/07/2024 को ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित “Biodiversity needs a win against oil and gas” लेख पर आधारित है। इसमें विकास पर संरक्षण को प्राथमिकता देने की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है, विशेष रूप से असम के हूलोंगापार गिब्बन अभयारण्य में वेदांता के स्वामित्व वाली केयर्न के ड्रिलिंग प्रस्ताव के संबंध में, जो लुप्तप्राय हूलॉक गिब्बन प्रजाति और क्षेत्रीय जैव विविधता को खतरे में डाल सकता है। यह रेलवे विद्युतीकरण जैसे सतत लक्ष्यों और नाजुक पारिस्थितिकी प्रणालियों की रक्षा करने की अनिवार्यता के बीच संघर्ष को रेखांकित करता है।
प्रिलिम्स के लिये:जैव विविधता संरक्षण, असम का होलोंगापार गिब्बन अभयारण्य, पश्चिमी घाट, सुंदरवन, आयुर्वेद, सिद्ध और यूनानी, अनुच्छेद 48A, पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986, जैव-विविधता अधिनियम, 2002, माधव गाडगिल समिति की सिफारिशें, कस्तूरीरंगन समिति की सिफारिशें, लैंटाना कैमारा, भारत की प्रवाल भित्तियाँ, माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण। मेन्स के लिये:भारत के लिये जैव-विविधता का महत्त्व, भारत में जैव-विविधता संरक्षण से संबंधित प्रयास, भारत में जैव-विविधता के लिये प्रमुख खतरे |
भारत विकास और जैव-विविधता संरक्षण की अपनी यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। विश्व के सबसे विविध देशों में से एक के रूप में (जो पृथ्वी के केवल 2.4% भू-भाग में वैश्विक जैव विविधता के 8% भाग को पर्यावास प्रदान करता है), भारत प्रकृति संरक्षण के प्रति एक अनूठी ज़िम्मेदारी रखता है। लेकिन, देश की तीव्र आर्थिक वृद्धि, शहरीकरण और औद्योगिक विस्तार इसके समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र को तेज़ी से खतरे में डाल रहे हैं।
वेदांता के स्वामित्व वाली केयर्न कंपनी (Cairn) द्वारा असम के हूलोंगापार गिब्बन अभयारण्य (Hollongapar Gibbon Sanctuary) में ड्रिलिंग के प्रस्ताव को लेकर उभरे विवाद से प्रगति और संरक्षण के बीच का यह नाजुक संतुलन फिर उजागर हुआ है। यह परियोजना भारत की एकमात्र वानर प्रजाति, लुप्तप्राय हूलॉक गिब्बन (Hoolock Gibbon) के पर्यावास को खतरे में डालती है, जो जैव विविधता संरक्षण के साथ विकास संबंधी आवश्यकताओं को सामंजित कर सकने में देश के समक्ष विद्यमान व्यापक चुनौतियों को परिलक्षित करती है।
दुनिया के सबसे विविधतापूर्ण देशों में से एक के रूप में भारत को वैश्विक जैव विविधता संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है। हालाँकि, तीव्र शहरीकरण, औद्योगिक विस्तार और संसाधनों के दोहन से इसके समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र के लिये खतरा बढ़ रहा है। इस समस्या से निपटने के लिये, भारत को अपनी पर्यावरणीय प्रभाव आकलन प्रक्रियाओं को सुदृढ़ करने, व्यापक जैव विविधता मानचित्रण में निवेश करने और महत्त्वपूर्ण पर्यावासों के संरक्षण को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।
भारत के लिये जैव विविधता (Biodiversity) का क्या महत्त्व है?
- पारिस्थितिक महत्त्व: भारत 17 अत्यंत विविध या ‘मेगा-डाइवर्स’ (megadiverse) देशों में से एक है। यह समृद्ध जैव विविधता पारिस्थितिक संतुलन, पोषक चक्रण और जलवायु विनियमन को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- उदाहरण के लिये, पश्चिमी घाट (जो जैव विविधता का ‘हॉट-स्पॉट’ है) मानसून पैटर्न को प्रभावित करता है, जो देश भर में कृषि के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- सुंदरबन के मैंग्रोव वन चक्रवातों और सुनामी के विरुद्ध प्राकृतिक अवरोधक के रूप में कार्य करते हैं तथा तटीय समुदायों की रक्षा करते हैं।
- भारत में उगाए जाने वाले 50% से अधिक पादप फल, बीज और फली (nuts) पैदा करने के लिये परागणकों पर निर्भर हैं।
- आर्थिक महत्त्व: जैव विविधता भारत में विभिन्न आर्थिक क्षेत्रों की रीढ़ है।
- भारत की वन जैव विविधता लगभग 275 मिलियन लोगों की आजीविका को सहारा देती है जो वन संसाधनों पर निर्भर हैं।
- भारत के विविधतापूर्ण वनस्पति एवं जंतुओं के आसपास केंद्रित पारिस्थितिक पर्यटन (Eco-tourism) अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।
- सांस्कृतिक और पारंपरिक महत्त्व: भारत की जैव विविधता उसके सांस्कृतिक ढाँचे के साथ गहराई से जुड़ी हुई है।
- वैज्ञानिक और औषधीय महत्त्व: भारत की जैव विविधता वैज्ञानिक अनुसंधान और औषधि खोज के लिये अपार संभावनाएँ प्रदान करती है।
- देश ने पहले ही वैश्विक चिकित्सा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, जिसमें सिनकोना वृक्ष से प्राप्त मलेरिया-रोधी दवा जैसे उदाहरण शामिल हैं।
- भारत में औषधीय पौधों की 8000 से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती हैं। फसल की जंगली प्रजातियों (Wild Crop Relatives- WCRs) में मौजूद आनुवंशिक विविधता जलवायु-प्रतिरोधी और उच्च उपज देने वाली फसल किस्मों के विकास के लिये महत्त्वपूर्ण है, जो भविष्य की खाद्य सुरक्षा के लिये आवश्यक है।
- जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन: जैव विविधता भारत की जलवायु परिवर्तन रणनीतियों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- वन, जो भारत के भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 21.67% भाग पर विस्तृत हैं, ‘कार्बन सिंक’ के रूप में कार्य करते हैं और भारत के कुल GHG उत्सर्जन के लगभग 7% का पृथक्करण (sequestration) करते हैं।
भारत में जैव विविधता संरक्षण से संबंधित प्रयास
- परिचय: भारत विभिन्न प्रजातियों और पारिस्थितिकी तंत्र की विविधता के मामले में अत्यंत समृद्ध है। देश के 10 जैव-भौगोलिक क्षेत्रों में 1,03,258 से अधिक जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ और 55,048 से अधिक वनस्पतियों की प्रजातियाँ दर्ज की गई हैं।
- पुष्प विविधता पर विचार करें तो भारत में ज्ञात 55,048 पादप प्रजातियों में से 12,095 स्थानिक हैं।
- संवैधानिक और विधिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 48A राज्य को पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्द्धन और वनों एवं वन्यजीवों की रक्षा करने का निर्देश देता है, जबकि अनुच्छेद 51A(G) वन, झील, नदी और वन्यजीवों सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा एवं संवर्द्धन को नागरिकों का मूल कर्तव्य बनाता है।
- पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 केंद्र सरकार को प्रदूषण, खतरनाक पदार्थों एवं औद्योगिक गतिविधियों का प्रबंधन करने, उत्सर्जन मानक निर्धारित करने और राज्य प्राधिकरणों के साथ समन्वय करने का अधिकार देता है, जिससे अप्रत्यक्ष रूप से जैव विविधता संरक्षण को बढ़ावा मिलता है।
- जैव-विविधता अधिनियम 2002 को जैविक संसाधनों के संरक्षण, इसके सतत उपयोग के प्रबंधन और स्थानीय समुदायों के साथ जैविक संसाधनों के उपयोग एवं ज्ञान से उत्पन्न लाभों को उचित और न्यायसंगत रूप से साझा करने के लिये अधिनियमित किया गया था।
- पशु कल्याण बोर्ड बनाम ए. नागराजा एवं अन्य (2014) के ऐतिहासिक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संवैधानिक अधिदेश पर बल देते हुए माना कि प्रत्येक प्रजाति को जीने का अंतर्निहित अधिकार प्राप्त है और इसे कानून द्वारा संरक्षित किया जाना चाहिये।
- एम.के. रंजीत सिंह बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वस्थ पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से सुरक्षा के अधिकार की पुष्टि की तथा जलवायु कार्रवाई के प्रयासों के साथ प्रजातियों के संरक्षण को संतुलित करने पर बल दिया।
- जैव विविधता संरक्षण से संबंधित प्रमुख समितियाँ:
- माधव गाडगिल समिति की सिफारिशें:
- 64% क्षेत्र को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र (Ecologically Sensitive Area- ESA) में शामिल किया जाए।
- संवेदनशील क्षेत्रों में कोई नया बड़ा बाँध या प्रदूषणकारी उद्योग स्थापित नहीं किया जाए।
- मौजूदा उद्योगों का वर्ष 2016 तक शून्य प्रदूषण तक पहुँचना।
- सांविधिक शक्तियों के साथ पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी प्राधिकरण की स्थापना करना।
- कस्तूरीरंगन समिति की सिफारिशें:
- पश्चिमी घाट के 37% भाग को ESA घोषित किया जाए।
- खनन, उत्खनन और नई ताप विद्युत परियोजनाओं पर प्रतिबंध।
- जल विद्युत परियोजनाओं और निर्माण पर नियंत्रण हो।
- माधव गाडगिल समिति की सिफारिशें:
भारत में जैव विविधता के लिये प्रमुख खतरे क्या हैं?
- पर्यावास की क्षति - लुप्त होते जंगल: भारत में तीव्र शहरीकरण और कृषि विस्तार के कारण पर्यावास की गंभीर क्षति हो रही है।
- वर्ष 2001 से 2020 के बीच भारत ने 1.93 मिलियन हेक्टेयर वृक्षावरण खो दिया, जो वर्ष 2000 से 5.2% की कमी के बराबर है।
- पश्चिमी घाट जैसे क्षेत्रों में वनों के विखंडन से लायन-टेल्ड मकाक जैसी स्थानिक प्रजातियों के लिये खतरा पैदा हो गया है।
- मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन जैसी हाल की परियोजना, जो ठाणे क्रीक फ्लेमिंगो अभयारण्य से होकर गुज़रती है, इस बात की पुष्टि करती है कि किस प्रकार महत्त्वपूर्ण पर्यावासों की कीमत पर विकास प्राप्त किया जाता है।
- आक्रामक प्रजातियाँ- मूक आक्रमणकारी: गैर-देशी प्रजातियाँ भारत के पारिस्थितिकी तंत्र पर कहर बरपा रही हैं।
- भारत के जैवविविध पारिस्थितिकी तंत्र को ब्रिटिश उपनिवेशीकरण के दौरान पेश किये गए लैंटाना कैमारा, पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस, प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा जैसे विभिन्न विदेशी पादप प्रजातियों से खतरा पहुँच रहा है।
- अकेले लैंटाना ने ही भारत के 44% वनों पर व्यापक रूप से आक्रमण कर दिया है।
- अंडमान द्वीप समूह में बाहर से आई विशाल अफ्रीकी घोंघा प्रजाति स्थानीय जैव विविधता के लिये खतरा बन गई है।
- फॉल आर्मीवर्म (Fall Armyworm) के प्रसार ने वर्ष 2018 से विभिन्न भारतीय राज्यों में मक्का की फसलों को प्रभावित किया है, जो आक्रामक प्रजातियों के आर्थिक प्रभाव को उजागर करता है।
- भारत के जैवविविध पारिस्थितिकी तंत्र को ब्रिटिश उपनिवेशीकरण के दौरान पेश किये गए लैंटाना कैमारा, पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस, प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा जैसे विभिन्न विदेशी पादप प्रजातियों से खतरा पहुँच रहा है।
- जलवायु परिवर्तन – एक मंडराता खतरा: जलवायु परिवर्तन भारत भर में पर्यावास और प्रवासन पैटर्न को बदल रहा है।
- सुंदरबन जैसे मैंग्रोव वन समुद्र-स्तर में वृद्धि, पंक (mud) की कमी और सिकुड़ते पर्यावासों जैसे ‘तिहरे खतरे’ का सामना कर रहे हैं।
- हिमालय क्षेत्र में तापमान में वृद्धि के कारण प्रजातियाँ अधिक ऊँचाई की ओर जा रही हैं, जिससे उच्च-तुंगता पर वास करने वाले हिम तेंदुए जैसे जीवों के लिये खतरा उत्पन्न हो रहा है।
- भारत की प्रवाल भित्तियाँ, जो लगभग 5,790 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत हैं, जलवायु परिवर्तन के कारण अनेक खतरों का सामना कर रही हैं।
- भारत के प्रमुख प्रवाल क्षेत्रों में से एक मन्नार की खाड़ी में औसत जीवित प्रवाल आवरण वर्ष 2005 में 37% से घटकर वर्ष 2021 में 27.3% रह गया।
- मानव-वन्यजीव संघर्ष – एक असहज सह-अस्तित्व: जैसे-जैसे मानव बस्तियों का विस्तार हो रहा है, वन्यजीवों के साथ मानव संघर्ष भी तीव्र होता जा रहा है।
- भारत में प्रति वर्ष मानव-हाथी संघर्ष के कारण 500 से अधिक लोगों और 100 हाथियों की मृत्यु हो जाती है।
- रणथम्भौर अभ्यारण्य में मानव संघर्ष के बाद एक बाघ को स्थानांतरित करने का हालिया मामला मौजूदा चुनौती को उजागर करता है।
- आनुवंशिक क्षरण – सिकुड़ता जीन पूल: भारत की समृद्ध कृषि जैव विविधता आधुनिक कृषि पद्धतियों के कारण खतरे में है।
- कई किसान आधुनिक संकर किस्मों की ओर आगे बढ़ गए हैं, जिसके कारण पारंपरिक फसल किस्में खोती जा रही हैं।
- भारत में धान किस्मों की संख्या 1970 के दशक में 110,000 से घटकर आज लगभग 6,000 रह गई है।
- यह क्षरण न केवल खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करता है, बल्कि कीटों और जलवायु परिवर्तन के प्रति प्रत्यास्थता को भी कम करता है।
- प्रदूषण: प्रदूषण के विभिन्न रूपों से जैव विविधता पर गंभीर असर पड़ रहा है। 50 से अधिक मछली प्रजातियों को पोषण देने वाली यमुना नदी अब औद्योगिक अपशिष्टों के कारण दिल्ली में लगभग 22 किलोमीटर के क्षेत्र में जैविक रूप से मृत हो चुकी है।
- माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण गंगा नदी में कई मछली प्रजातियों को प्रभावित कर रहा है।
- तटीय क्षेत्रों में प्रकाश प्रदूषण के कारण समुद्री कछुए भ्रम का शिकार बनते हैं।
- नीति कार्यान्वयन – निष्पादन संबंधी चुनौती: यद्यपि भारत में मज़बूत पर्यावरण कानून मौजूद हैं, उनका कार्यान्वयन प्रायः अपर्याप्त सिद्ध होता है।
- अरुणाचल प्रदेश में एटालिन जलविद्युत परियोजना के लिये पर्यावरणीय मंज़ूरी पर हालिया विवाद (जिसे वर्तमान स्वरूप में अस्वीकृत कर दिया गया) नीति कार्यान्वयन में खामियों को उजागर करता है।
- शहरी जैव विविधता हानि – ‘कंक्रीट जंगल इफ़ेक्ट’: तीव्र शहरीकरण शहरी पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट कर रहा है।
- पिछले चार दशकों में शहरीकरण, कृषि विस्तार और प्रदूषण के कारण भारत ने अपनी लगभग एक-तिहाई प्राकृतिक आर्द्रभूमि खो दी है।
- शहरों में गौरैया की संख्या में कमी (कुछ क्षेत्रों में 80% से अधिक) सामान्य प्रजातियों पर पड़ने वाले प्रभाव का उदाहरण है।
भारत में जैव विविधता संरक्षण में सुधार के लिये कौन-सी रणनीतियाँ लागू की जा सकती हैं?
- पारिस्थितिकी तंत्र आधारित प्रबंधन: भारत को प्रजाति-केंद्रित से पारिस्थितिकी तंत्र आधारित संरक्षण की ओर आगे बढ़ना चाहिये।
- इसमें केवल पृथक संरक्षित क्षेत्रों को ही नहीं, बल्कि संपूर्ण पारिस्थितिक नेटवर्क की पहचान करना और उसे संरक्षित करना शामिल है।
- उदाहरण के लिये, नीलगिरी में मुदुमलाई टाइगर रिज़र्व (MTR) के आसपास के 438.904 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र (ESZ) घोषित करने की वर्ष 2018 की पहल इस दिशा में एक कदम है।
- बेहतर कार्यान्वयन के लिये निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं:
- राज्य और ज़िला स्तर पर भूमि उपयोग नियोजन में मानचित्रण को एकीकृत करना
- इन गलियारों को बनाए रखने के लिये स्थानीय समुदायों को प्रोत्साहन प्रदान करना
- समुदाय-नेतृत्व संरक्षण: संरक्षण प्रयासों में स्थानीय समुदायों को शामिल करने से उल्लेखनीय सफलता मिली है।
- उत्तराखंड में वन पंचायतें समुदाय-नेतृत्व वाले संरक्षण की क्षमता को प्रदर्शित करती हैं।
- चंबल का एक पूर्व डकैत ‘चीता मित्र’ बन गया है जो कूनो, श्योपुर में चीतों के बारे में जागरूकता का प्रसार कर रहा है।
- केरल के एक दंपति पामेला और अनिल मल्होत्रा ने भारत में निजी संरक्षण प्रयासों का एक प्रेरणादायक उदाहरण प्रस्तुत किया है।
- उन्होंने वर्ष 1991 में कोडागु ज़िले में 55 एकड़ परित्यक्त भूमि खरीदी, जो मानवीय गतिविधियों के कारण क्षरित हो चुकी थी।
- तीन दशकों में उन्होंने इस बंजर भूमि को एक हरे-भरे 300 एकड़ के निजी वन्यजीव अभयारण्य में बदल दिया है, जिसका नाम साई (Save Animals Initiative- SAI) अभयारण्य रखा गया है।
- उत्तराखंड में वन पंचायतें समुदाय-नेतृत्व वाले संरक्षण की क्षमता को प्रदर्शित करती हैं।
- इस दृष्टिकोण को बड़े पैमाने पर ले जाने के लिये निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:
- संयुक्त वन प्रबंधन समितियों को सुदृढ़ और विस्तारित करना
- सामुदायिक संरक्षित क्षेत्रों को कानूनी मान्यता और सहायता प्रदान करना
- संरक्षण तकनीकों में स्थानीय समुदायों के लिये क्षमता निर्माण कार्यक्रम विकसित करना
- हरित अवसंरचना: अवसंरचना विकास में जैव विविधता को शामिल करना अत्यंत आवश्यक है।
- सड़क परियोजनाओं में पशुओं के आवागमन के संबंध में भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण द्वारा हाल ही में जारी दिशानिर्देश एक सकारात्मक कदम है।
- आगे के उपायों में निम्नलिखित शामिल हो सकते हैं:
- सभी प्रमुख अवसंरचना परियोजनाओं के लिये जैव विविधता प्रभाव आकलन को अनिवार्य करना
- वन्यजीव क्रॉसिंग और हरित पुलों के लिये राष्ट्रीय मानक विकसित करना
- हरित छतों (green roofs), ऊर्ध्वाधर उद्यानों (vertical gardens) और शहरी वनों के माध्यम से शहरी जैव विविधता को बढ़ावा देना
- जैवविविधता के अनुकूल अवसंरचना समाधानों का राष्ट्रीय डेटाबेस तैयार करना
- सतत् कृषि: भारत के लगभग 60% भूमि क्षेत्र पर कृषि का कब्जा है, जो इसे जैव विविधता संरक्षण के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण बनाता है।
- अन्य उपायों में निम्नलिखित शामिल हो सकते हैं:
- आंध्र प्रदेश में शून्य बजट प्राकृतिक कृषि (Zero Budget Natural Farming) जैसे सफल कृषि-पारिस्थितिक मॉडल को आगे बढ़ाना
- फसल विविधीकरण और ऑन-फ़ार्म जैव विविधता के रखरखाव के लिये प्रोत्साहन/इंसेंटिव प्रदान करना
- आर्थिक व्यवहार्यता सुनिश्चित करने के लिये कृषि जैवविविधता उत्पादों के लिये बाज़ार संपर्क का निर्माण करना
- अन्य उपायों में निम्नलिखित शामिल हो सकते हैं:
- प्रौद्योगिकी-संचालित संरक्षण: प्रौद्योगिकी का लाभ उठाकर संरक्षण प्रयासों को महत्त्वपूर्ण रूप से बेहतर बनाया जा सकता है।
- सुंदरवन में बाघों की निगरानी के लिये भारत द्वारा ड्रोन का उपयोग आशाजनक है।
- अन्य अनुप्रयोगों में शामिल हैं:
- पर्यावास परिवर्तनों और अवैध गतिविधियों की रियल-टाइम निगरानी के लिये उपग्रह इमेजरी और AI का उपयोग करना
- जलीय पारिस्थितिकी तंत्रों में गैर-आक्रामक जैव विविधता निगरानी के लिये eDNA तकनीकों का उपयोग
- जैव विविधता वित्तपोषण: दीर्घकालिक संरक्षण प्रयासों के लिये सतत वित्तपोषण महत्त्वपूर्ण है। भारत निम्नलिखित क्षेत्रों में भी आगे बढ़ सकता है:
- व्यापक जैव विविधता संरक्षण परियोजनाओं को शामिल करने के लिये अपर्याप्त प्रतिपूरक वनीकरण का विस्तार करना
- जैव विविधता संरक्षण परियोजनाओं के लिये विशेष रूप से हरित बॉण्ड विकसित करना
- जलवायु-अनुकूली संरक्षण: चूँकि जलवायु परिवर्तन के कारण जैव विविधता पर प्रभाव पड़ रहा है, अनुकूली रणनीतियाँ (adaptive strategies) आवश्यक हैं:
- प्रमुख पारिस्थितिकी प्रणालियों और प्रजातियों की भेद्यता का आकलन करना
- जलवायु-प्रत्यास्थी संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क का विकास करना
- विभिन्न जैवभौगोलिक क्षेत्रों में जलवायु शरणस्थलों (climate refugia) का निर्माण और रखरखाव
- आक्रामक प्रजातियों का प्रबंधन: आक्रामक प्रजातियों के मुद्दे से निपटने के लिये एक समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता है:
- ‘राष्ट्रीय आक्रामक प्रजाति निगरानी और पूर्व चेतावनी प्रणाली’ की स्थापना करना
- बंदरगाहों और सीमाओं पर संगरोध (quarantine) उपायों को सशक्त करना
- आक्रामक प्रजातियों के प्रभावों पर जन जागरूकता अभियान शुरू करना
- आनुवंशिक संसाधन संरक्षण: भविष्य की अनुकूलनशीलता के लिये आनुवंशिक विविधता को संरक्षित रखना आवश्यक है:
- जंगली और घरेलू दोनों प्रजातियों के लिये जीन बैंकों के नेटवर्क का विस्तार करना
- फसल की जंगली प्रजातियों के लिये स्व-स्थाने संरक्षण कार्यक्रमों को लागू करना
- भारत के आनुवंशिक संसाधनों का डिजिटल डेटाबेस तैयार करना
- संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण के लिये जीनोमिक्स पर अनुसंधान को बढ़ावा देना
अभ्यास प्रश्न: भारत में वर्तमान जैव विविधता संरक्षण रणनीतियों का मूल्यांकन कीजिये। विभिन्न स्व-स्थाने और बाह्य-स्थाने विधियों की प्रभावशीलता पर चर्चा कीजिये और जैव विविधता संरक्षण प्रयासों को बेहतर बनाने के उपाय सुझाइये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा पिछले वर्ष प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन सा भौगोलिक क्षेत्र की जैवविविधता के लिये खतरा हो सकता है? (2012)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग करे सही उत्तर का चयन कीजिये: (a) केवल 1, 2 और 3 उत्तर: A प्रश्न. जैवविविधता निम्नलिखित तरीकों से मानव अस्तित्व के लिये आधार बनाती है: (2011)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर का चयन कीजिये: (a) केवल 1, 2 और 3 उत्तर: D |