जैव विविधता और पर्यावरण
हिमालय में चरम मौसमी घटनाओं का बढ़ता खतरा
- 02 Mar 2024
- 14 min read
प्रिलिम्स के लिये:हिमालय क्षेत्र, ग्लोबल वॉर्मिंग, सिंधु-गंगा का मैदान, ग्रीनहाउस गैस मेन्स के लिये:हिमालय पर ग्लोबल वॉर्मिंग का प्रभाव, वृहद स्तर पर शहरीकरण के कारण, हिमालय क्षेत्र में पारिस्थितिक चुनौतियाँ। |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
बादल फटने और चरम मौसमी घटनाओं से ग्रस्त हिमालय क्षेत्र, ग्लोबल वॉर्मिंग के त्वरित प्रभावों का अनुभव कर रहा है।
मौसमी परिवर्तन से चरम घटनाओं की आवृत्ति कैसे बढ़ रही है?
- मानसूनी पैटर्न में बदलाव:
- ऐसे साक्ष्य मिले हैं, जो दक्षिण-पश्चिम मानसून के पैटर्न में बदलाव को व्यक्त करते हैं, जिसमें उपमहाद्वीप के दक्षिणी भाग के बजाय भारतीय गंगा के मैदान में अधिक विचलन देखने को मिलता है।
- इसमें भारत के शुष्क और अर्द्ध-शुष्क पश्चिमी आधे भाग में अत्यधिक वर्षा तथा पूर्वी अर्द्ध एवं तटीय क्षेत्रों में कम वर्षा शामिल है, जो ऐतिहासिक वर्षा पैटर्न के परिवर्तन का संकेत देता है।
- अरब सागर में तापमान वृद्धि:
- अरब सागर की सबसे ऊपरी परत में असामान्य तापमान वृद्धि हुई है, जिससे वाष्पीकरण बढ़ गया है और संभावित रूप से दक्षिण-पश्चिम मानसून में परिवर्तन आ रहा है।
- इस ग्रीष्म प्रवृत्ति ने अरब सागर में अधिक चक्रवाती तूफानों में भी योगदान दिया है, जिनमें से कुछ का तूफानी घटनाएँ भारत के पश्चिमी तट पर देखने को मिली हैं।
- वर्ष 2001 से वर्ष 2019 के बीच अरब सागर में चक्रवातों की आवृत्ति में 50% की वृद्धि हुई है। इनमें से लगभग आधे चक्रवात उतरने से पहले ही नष्ट हो जाते हैं।
- अत्यधिक वर्षा और मेघ प्रस्फुटन:
- मेघ प्रस्फुटन सिर्फ तीव्र वर्षा बौछार नहीं है, बल्कि वर्षा का आनुवंशिक रूप से भिन्न स्वरूप है। भारी वर्षा में भी, वर्षा की बूँदों का आकार आमतौर पर लगभग 2 मिमी. व्यास का होता है।
- तीव्र आंधी और मेघ प्रस्फुटन के दौरान इनका आकार 4-6 मिमी. तक हो जाता है। भारी वर्षा होने के कारण, ये वर्षा की बूँदें तीव्रता से गिरती हैं, जो अपनी तीव्रता से भूस्खलन का कारण बनती हैं।
- मात्र हिमाचल प्रदेश में वर्ष 1970-2010 के बीच चार दशकों के दौरान तूफान, मेघ प्रस्फुटन और ओलावृष्टि की संख्या प्रति वर्ष दो से चार के बीच बढ़कर वर्ष 2023 में 53 हो गई है।
- हिमनदों का पिघलना और हिमनद झील का विस्फोट:
- हिमालय में बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं, जिससे हिमनद झीलों का निर्माण हो रहा है।
- मेघ प्रस्फुटन की बढ़ती तीव्रता के कारण ये झीलें ओवरफ्लो हो रही हैं या उनके तटों का विघटन हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप बाढ़ आ रही है और मैदानी क्षेत्रों में जान-माल का नुकसान देखने को मिल रहा है।
- उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के पूर्वी क्षेत्रों में ऐसी झीलों की संख्या वर्ष 2005 में 127 से बढ़कर वर्ष 2015 में 365 हो गई है।
- हिमानी बर्फ का नुकसान:
- हिमालय पूर्व में ही अपनी 40% से अधिक बर्फ खो चुका है और यह प्रवृत्ति जारी रहने की उम्मीद है, अनुमान है कि शताब्दी के अंत तक 75% तक की संभावित हानि हो सकती है।
- बर्फ की यह हानि क्षेत्र में वनस्पति सीमा, कृषि पद्धतियों और जल संसाधनों को प्रभावित कर रही है।
- हिमालय पूर्व में ही अपनी 40% से अधिक बर्फ खो चुका है और यह प्रवृत्ति जारी रहने की उम्मीद है, अनुमान है कि शताब्दी के अंत तक 75% तक की संभावित हानि हो सकती है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने के लिये अनुकूलन उपाय
- ग्लेशियरों और हिमनद झीलों की बेहतर निगरानी के साथ-साथ भूस्खलन तथा हिमनद झील के विस्फोट के लिये बेहतर पूर्वानुमान एवं प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली की आवश्यकता बढ़ रही है।
- हालाँकि ये उपाय मात्र हिमालय में जलवायु परिवर्तन के दीर्घकालिक प्रभावों को संबोधित करने के लिये पर्याप्त नहीं हो सकते हैं।
- ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों में परिवर्तन को ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रभावों को कम करने तथा हिमालय क्षेत्र एवं इसके निवासियों की सुरक्षा के लिये आवश्यक कदमों के रूप में देखा जाता है।
- हिमालय क्षेत्र में सतत् निर्माण गतिविधियाँ होनी चाहिये, जो किसी भी विपत्तिपूर्ण घटना के घटित होने पर उसका सामना कर सकें। कुछ कदम इस प्रकार हैं-
- भू-भाग की विशेषताओं को समझना: किसी क्षेत्र द्वारा सहन किये जा सकने वाले तनाव पर ढाल, जल निकासी और वनस्पति आवरण के प्रभाव को पहचानना मौलिक है। इन कारकों के आधार पर क्षेत्रों का निर्धारण करके, अधिकारी निर्माणकारी गतिविधियों को बेहतर ढंग से प्रबंधित कर सकते हैं और अस्थिर क्षेत्र से संबंधित जोखिमों को कम कर सकते हैं।
- जलवायु भेद्यता का आकलन: बाढ़ और भूस्खलन जैसी चरम मौसमी घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति को देखते हुए, भविष्य के जलवायु परिदृश्यों को प्रोजेक्ट करना और संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करना आवश्यक है। अनुमान और अनुकरण जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को अनुकूलित करने तथा कम करने के लिये रणनीति तैयार करने में सहायक हो सकते हैं।
- विकास प्रभावों का प्रबंधन: विकास परियोजनाओं, विशेष रूप से जलविद्युत उद्यमों, प्रायः पहाड़ी क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिक परिणाम होते हैं। विनियमों में जोखिम मूल्यांकन को शामिल किया जाना चाहिये और वन अपरदन, नदी मार्गों में परिवर्तन तथा जैवविविधता के नुकसान से बचाव के लिये संचयी प्रभावों पर विचार किया जाना चाहिये।
- अनुकूलन क्षमता में वृद्धि: जैसे-जैसे पहाड़ी शहरों की आबादी बढ़ती है, जल की कमी, अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे और सीमित आजीविका विकल्पों जैसी विभिन्न चुनौतियों के कारण जलवायु परिवर्तन से निपटने की उनकी क्षमता कम हो जाती है।
- अनुकूलन क्षमता में सुधार में सामुदायिक भागीदारी के साथ स्थायी समाधानों को प्राथमिकता देते हुए सेवाओं और बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करना शामिल है।
हिमालय से संबंधित सरकारी पहलें
- नेशनल मिशन ऑन सस्टेनिंग हिमालयन ईकोसिस्टम (2010):
- इसमें 11 राज्य (हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, सभी पूर्वोत्तर राज्य और पश्चिम बंगाल) और 2 केंद्रशासित प्रदेश (जम्मू एवं कश्मीर और लद्दाख) शामिल हैं।
- जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना का हिस्सा, जिसमें आठ मिशन शामिल हैं।
- भारतीय हिमालयी जलवायु अनुकूलन कार्यक्रम (IHCAP):
- इसका उद्देश्य ग्लेशियोलॉजी एवं संबंधित क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने के साथ जलवायु विज्ञान में भारतीय संस्थानों की क्षमताओं को मज़बूत करके भारतीय हिमालय में निवास करने वाले कमज़ोर समुदायों के लचीलेपन को बढ़ाना है।
- SECURE हिमालय परियोजना:
- यह ग्लोबल एन्वायरनमेंट फैसिलिटी द्वारा वित्त पोषित "सतत् विकास हेतु वन्यजीव संरक्षण और अपराध रोकथाम पर वैश्विक भागीदारी" (वैश्विक वन्यजीव कार्यक्रम) का अभिन्न अंग है।
- इसमें उच्च श्रेणी के हिमालयी पारिस्थितिक तंत्र में अल्पाइन चारागाहों और वनों के स्थायी प्रबंधन को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
- मिश्रा समिति रिपोर्ट 1976:
- इसका नाम उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गढ़वाल आयुक्त एम.सी. मिश्रा के नाम पर रखा गया था। जिन्होंने जोशीमठ में भूमि धँसाव पर निष्कर्ष प्रदान किये।
- सिफारिशों में क्षेत्र में भारी निर्माण कार्य, विस्फोट, सड़क मरम्मत और अन्य निर्माणकारी गतिविधियों के लिये खुदाई तथा वृक्षों की कटाई पर प्रतिबंध लगाना शामिल था।
निष्कर्ष:
- मानसून पैटर्न में हालिया बदलाव और चरम मौसमी घटनाएँ भारतीय उपमहाद्वीप में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को संबोधित करने के लिये सक्रिय उपायों की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती हैं।
- सरकारों और हितधारकों के लिये इन बदलती जलवायु परिस्थितियों से उत्पन्न सामाजिक-आर्थिक तथा पर्यावरणीय जोखिमों को कम करने हेतु अनुकूलन एवं शमन रणनीतियों को प्राथमिकता देना अनिवार्य है।
- केवल सतत् विकास, नवीकरणीय ऊर्जा अपनाने और आपदा तैयारियों में ठोस प्रयासों के माध्यम से हम जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को कम कर सकते हैं तथा संपूर्ण उपमहाद्वीप में समुदायों के लचीलेपन को सुनिश्चित कर सकते हैं।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये: (2020) शिखर पर्वत
उपर्युक्त युग्मों में से कौन-सा/से सही सुमेलित है/हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (B) प्रश्न. यदि आप हिमालय से होकर यात्रा करते हैं, तो आपको वहाँ निम्नलिखित में से किस पादप/ किन पादपों को प्राकृतिक रूप में उगते हुए दिखने की संभावना है? (2014)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: A प्रश्न. जब आप हिमालय की यात्रा करेंगे, तो आप निम्नलिखित को देखेंगे: (2012)
उपर्युक्त में से किसे हिमालय के युवा वलित पर्वत होने का प्रमाण कहा जा सकता है? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: D मेन्स:प्रश्न. हिमालय क्षेत्र और पश्चिमी घाट में भूस्खलन के कारणों के बीच अंतर बताइये। (2021) प्रश्न. हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने से भारत के जल संसाधनों पर कौन से दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे? (2020) प्रश्न . "हिमालय में भूस्खलन की अत्यधिक संभावना है।" इसके कारणों पर चर्चा करते हुए इसके शमन हेतु उपयुक्त उपाय बताइये। (2016) |