शासन व्यवस्था
जनजातियों में आजीविका संवर्द्धन
प्रिलिम्स के लिये:बहुआयामी गरीबी सूचकांक (MPI), राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 (NFSA), राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) 2019-21, स्टंटिंग, वेस्टिंग, कम वज़न, निर्वाह कृषि, अंतर्राष्ट्रीय कृषि विकास कोष, ओडिशा जनजातीय विकास परियोजना (OTDP), UNICEF, विश्व खाद्य कार्यक्रम, सामुदायिक वन अधिकार (CFR), भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास संघ (TRIFED), PDS, माइक्रोफाइनेंस, स्थानीय शासन निकाय। मेन्स के लिये:जनजातियों की आजीविका से संबंधित चुनौतियाँ। जनजातियों की आजीविका संवर्द्धन हेतु आवश्यक उपाय। |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
हाल ही में ओडिशा के कंधमाल में आम की गुठली खाने से हुई मौतें जनजातीय समुदायों के बीच गंभीर आजीविका संकट को प्रभावित करती हैं।
- आम की गुठली (रस निकालने के बाद बची हुई गुठली) में एमिग्डालिन जैसे साइनोजेनिक ग्लाइकोसाइड होते हैं, जिन्हें खाने पर विषाक्त हाइड्रोजन साइनाइड गैस निकलती है।
आजीविका हेतु जनजातीय समुदाय असुरक्षित उपभोग पर क्यों निर्भर हैं?
- गरीबी: जनजातीय समुदाय, गरीबी के कारण जंगली एवं चरागाह खाद्य पदार्थों पर निर्भर रहते हैं।
- वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (MPI) के अनुसार, 129 मिलियन जनजातियों में से 65 मिलियन बहुआयामी गरीबी में शामिल हैं।
- खाद्य असुरक्षा: भौगोलिक अलगाव, अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे और रसद संबंधी चुनौतियों से जनजातीय समुदाय राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 (NFSA) के तहत नियमित, पौष्टिक खाद्य आपूर्ति से लाभ नहीं ले पाते हैं।
- कुपोषण: कई जनजातीय परिवारों की अनाज, दालें, तेल या पौष्टिक तत्त्वों से भरपूर खाद्य सामग्री तक पर्याप्त पहुँच नहीं है।
- राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) 2019-21 की रिपोर्ट के अनुसार, जनजातीय बच्चों में स्टंटिंग, वेस्टिंग और कम वज़न की व्यापकता क्रमशः 40.9%, 23.2% और 39.5% है।
- वन अधिकारों का अभाव: ऐतिहासिक रूप से जनजातीय अपनी आजीविका के लिये जंगली खाद्य पदार्थों को इकट्ठा करने के साथ वनों पर निर्भर रहे हैं।
- हालाँकि विस्थापन, वनों की कटाई, वन अधिकारों के हनन और भूमि तक सीमित पहुँच से ये गरीबी की स्थिति में बने हुए हैं।
- आर्थिक शोषण: कुछ जनजातियों को अल्पकालिक ऋण राहत के बदले में अपने कल्याण संबंधी सुविधाओं (जैसे- राशन कार्ड) को स्थानीय साहूकारों के पास गिरवी रखने के लिये विवश होना पड़ता है।
- इन शोषणकारी प्रथाओं से अक्सर सरकारी लाभों के वास्तविक प्राप्तकर्त्ता वंचित हो जाते हैं, जिससे इनके ऊपर और अधिक कर्ज़ बढ़ जाता है।
- चरम स्थितियों में जीवनयापन: चरम गरीबी, खाद्यान्न की कमी और मौसमी सूखे के दौरान, जनजातीय परिवारों की बिगड़ती सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के कारण इन्हें जीवित रहने के क्रम में असुरक्षित खाद्य स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है।
- अपर्याप्त संस्थागत समर्थन: अंतर्राष्ट्रीय कृषि विकास कोष द्वारा समर्थित ओडिशा जनजातीय विकास परियोजना (OTDP) के साथ कम सक्षम ब्लॉकों में UNICEF की घरेलू खाद्य सुरक्षा परियोजना तथा दूर-दराज़ के जनजातीय क्षेत्रों में विश्व खाद्य कार्यक्रम की समुदाय-आधारित एंटी-हंगर परियोजनाओं का प्रभाव सीमित रहा है।
जनजातीय समुदायों के लिये सरकार की क्या पहल हैं?
जनजातीय समुदायों की आजीविका कैसे बेहतर की जा सकती है?
- PDS नवाचार: आवश्यक पौष्टिक खाद्य पदार्थों (जैसे- दालें, तेल) को शामिल करने के लिये प्रणाली का विस्तार करने से हाशिये पर पड़े जनजातीय समुदायों में पोषण की कमी को कम करने में सहायता मिल सकती है।
- PDS राशन की डोर-टू-डोर डिलीवरी सुनिश्चित करती है कि दूर-दराज़ के समुदायों को महत्त्वपूर्ण खाद्य आपूर्ति तक निरंतर पहुँच मिलती रहे।
- CFR तक बढ़ी हुई पहुँच: सामुदायिक वन अधिकारों (CFR) तक बेहतर पहुँच जनजातियों को वन संसाधनों पर नियंत्रण करने की अनुमति देती है, जिससे लघु वनोत्पाद (MFP) के सतत् संग्रहण को बढ़ावा मिलता है।
- उचित बाज़ार मूल्य: यह सुनिश्चित करना कि जनजातीय समुदायों को शहद, इमली, जंगली मशरूम और आम की गुठली जैसे लघु वनोत्पादो के लिये उचित मूल्य मिले, जो आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- सरकारी पहल, विशेष रूप से भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास संघ (TRIFED) जैसे संगठनों द्वारा समर्थित पहल, जनजातीय उत्पादकों को बड़े बाज़ारों से जोड़कर बाजार तक पहुँच को सुगम बना सकती है, जिससे उचित मुआवजा सुनिश्चित हो सके।
- वित्तीय संरक्षण: माइक्रोफाइनेंस प्रथाओं को विनियमित करके प्रेडटॉरी लेंडिंग देने को रोका जा सकता है, जिससे जनजातीय समुदायों को शोषणकारी ऋण और ऋण चक्रों से बचाया जा सकता है।
- अतीत के सबक का लाभ उठाना: अतीत की पहलों (जैसे, OTDP, PDS नवाचार) की सफलताओं और कमियों पर विचार करना, भविष्य के दृष्टिकोण को परिष्कृत करने और प्रभावी रणनीति बनाने के लिये आवश्यक है।
- रणनीतिक साझेदारियाँ: ज़िला प्रशासन, स्थानीय शासन निकायों, गैर-लाभकारी संगठनों और नागरिक समाज संगठनों के बीच सहयोगात्मक प्रयास सामुदायिक अनुकूलन बनाने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
- मूल्य संवर्धन: लघु वनोत्पादो के प्रसंस्करण को बढ़ावा देना, जैसे कि आम की गुठली को कन्फेक्शनरी, सौंदर्य प्रसाधन और फार्मास्यूटिकल्स के लिये मूल्यवान उत्पादों में परिवर्तित करना, जनजातीय समुदायों को विविध आय स्रोत प्रदान कर सकता है।
निष्कर्ष
ओडिशा में आम की गुठली खाने से हाल ही में हुई मौतें जनजातीय समुदायों के बीच गंभीर आजीविका संकट को रेखांकित करती हैं, जो गरीबी, खाद्य असुरक्षा और आर्थिक शोषण से प्रेरित है। वन अधिकारों को मज़बूत करना, बाज़ार तक पहुँच बढ़ाना, लघु वन उपज के लिये उचित मूल्य निर्धारण, लक्षित सरकारी पहल तथा रणनीतिक साझेदारी सामूहिक रूप से जनजातीय आबादी को स्थायी रूप से ऊपर उठा सकती है और सशक्त बना सकती है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत के जनजातीय समुदायों के बीच खाद्य असुरक्षा संकट में योगदान देने वाले कारकों पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न: राष्ट्रीय स्तर पर, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये कौन-सा मंत्रालय केंद्रक अभिकरण (नोडल एजेंसी) है? (2021) (a) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय उत्तर: (d) प्रश्न: भारत में विशिष्टत: असुरक्षित जनजातीय समूहों ख्पर्टिकुलरली वल्नरेबल ट्राइबल ग्रुप्स (PVTGs)] के बारे में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019) 1. PVTGs देश के 18 राज्यों तथा एक संघ राज्यक्षेत्र में निवास करते हैं। उपर्युक्त में से कौन-से कथन सही हैं? (a) 1, 2 और 3 उत्तर: (c) मेन्स:प्रश्न: स्वतंत्रता के बाद अनुसूचित जनजातियों (एस.टी.) के प्रति भेदभाव को दूर करने के लिये, राज्य द्वारा की गई दो मुख्य विधिक पहलें क्या हैं ? (2017) प्रश्न: क्या कारण है कि भारत में जनजातियों को 'अनुसूचित जनजातियाँ' कहा जाता है? भारत के संविधान में प्रतिष्ठापित उनके उत्थान के लिये प्रमुख प्रावधानों को सूचित कीजिये। (2016) |
भारतीय राजनीति
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा AMU के अल्पसंख्यक दर्जे का पुनर्मूल्यांकन करने का आदेश
प्रिलिम्स के लिये:अनुच्छेद 30, समाजवादी, मौलिक अधिकार, नीति निदेशक सिद्धांत, अनुच्छेद 14 और 19, प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951, संविधान संशोधन, संसद। मुख्य परीक्षा के लिये:अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान, AMU और अल्पसंख्यक संस्थान, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के निहितार्थ। |
स्रोत: IE
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे से संबंधित मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 7 न्यायाधीशों की पीठ ने (4:3 बहुमत से) एस. अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ के मामले में 1967 के निर्णय को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि किसी विधि द्वारा शामिल की गई संस्था अल्पसंख्यक संस्था होने का दावा नहीं कर सकती।
- संविधान के अनुच्छेद 30 के अनुसार AMU एक अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं, इस मुद्दे को अब बहुमत के इस दृष्टिकोण के आधार पर एक नियमित पीठ द्वारा तय किया जाना है।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के प्रमुख तथ्य क्या हैं?
न्यायालय द्वारा विचारित मामले के मुख्य पहलू:
- क्या एक विश्वविद्यालय जो किसी विधि (AMU अधिनियम 1920) द्वारा स्थापित और शासित है, अल्पसंख्यक दर्जे का दावा कर सकता है।
- एस. अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ में सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 1967 के निर्णय की सत्यता, जिसने AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को खारिज कर दिया था।
- AMU अधिनियम 1920 में वर्ष 1981 के संशोधन की प्रकृति और सत्यता, जिसने एस. अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ मामले में निर्णय के बाद विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा दिया था।
- क्या वर्ष 2006 में AMU बनाम मलय शुक्ला में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा एस. अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ के निर्णय पर भरोसा करना सही था, जिसमें यह निष्कर्ष निकाला गया था कि AMU एक गैर-अल्पसंख्यक संस्थान होने के कारण मेडिकल पीजी पाठ्यक्रमों में मुस्लिम उम्मीदवारों के लिये 50% सीटें आरक्षित नहीं कर सकता है।
हालिया निर्णय के प्रमुख तथ्य:
- अज़ीज़ बाशा निर्णय को खारिज करना: सर्वोच्च न्यायालय ने एस अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ मामले में वर्ष 1967 के निर्णय को पलट दिया।
- अज़ीज़ बाशा मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने माना था कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है और इसे यह दर्जा प्राप्त करने के लिये अल्पसंख्यक द्वारा ही स्थापित तथा प्रशासित होना चाहिये।
- अल्पसंख्यक दर्जे का प्रश्न नियमित पीठ को भेजा गया: न्यायालय ने सीधे तौर पर यह निर्णय नहीं किया कि AMU एक अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं तथा AMU की ऐतिहासिक स्थापना की जाँच करने का निर्णय नियमित पीठ पर छोड़ दिया।
- अल्पसंख्यक दर्जा निर्धारित करने के लिये नया परीक्षण:
- स्थापना: परीक्षण का पहला घटक अल्पसंख्यक संस्था की उत्पत्ति, इसकी स्थापना का उद्देश्य और संस्था के "विचार" को अंततः कैसे क्रियान्वित किया गया, इसकी जाँच करता है।
- कार्यान्वयन: संस्था के लिये निधि किसने दी? भूमि कैसे प्राप्त की गई या दान की गई? आवश्यक अनुमति किसने प्राप्त की तथा निर्माण और बुनियादी अवसरंचना को किसने संभाला?
- प्रशासन: न्यायालय यह निर्धारित करने के लिये प्रशासनिक ढाँचे की जाँच कर सकती हैं कि क्या यह संस्था की अल्पसंख्यक प्रकृति की "पुष्टि" करता है।
- यदि प्रशासन "अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा और संवर्धन" करने में सक्षम नहीं दिखता है, तो यह "उचित रूप से अनुमान लगाया जा सकता है कि इसका उद्देश्य अल्पसंख्यक समुदाय के लाभ के लिये कोई शैक्षणिक संस्थान स्थापित करना नहीं था।"
- अल्पसंख्यक दर्जा निर्धारित करने के लिये नया परीक्षण:
- किसी संस्था का अल्पसंख्यक चरित्र: न्यायालय ने माना कि किसी संस्था की अल्पसंख्यक स्थिति को केवल इसलिये खारिज नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि उसे विधि द्वारा बनाया गया था और न्यायालयों को इसकी स्थापना का निर्धारण करने के लिये विधायी भाषा पर पूरी तरह से निर्भर नहीं होना चाहिये। यह अनुच्छेद 30(1) को एक वैधानिक अधिनियम के अधीन एक मौलिक अधिकार बना देगा।
- न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 30(1) में प्रयुक्त शब्द "स्थापित" को संकीर्ण और विधिक अर्थ में नहीं समझा जा सकता तथा न ही समझा जाना चाहिए।
- अनुच्छेद 30 के खंड 1 में प्रयुक्त शब्दों की व्याख्या अनुच्छेद के उद्देश्य और प्रयोजन तथा इसके द्वारा प्रदत्त गारंटी एवं संरक्षण को ध्यान में रखते हुए की जानी चाहिये।
- अनुच्छेद 30(1) के तहत अधिकार संविधान के लागू होने पर परिभाषित अल्पसंख्यकों को गारंटीकृत है।
- न्यायालय ने अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यक चरित्र के "मुख्य अनिवार्यताओं" को भी सूचीबद्ध किया।
- यद्यपि अल्पसंख्यक संस्थान की स्थापना का उद्देश्य भाषा और संस्कृति का संरक्षण होना चाहिये, परंतु यह एकमात्र उद्देश्य नहीं होना चाहिये;
- किसी अल्पसंख्यक संस्थान द्वारा गैर-अल्पसंख्यक छात्रों को प्रवेश देकर अपना अल्पसंख्यक चरित्र नहीं खोना चाहिये;
- अल्पसंख्यक चरित्र प्रभावित करने के क्रम में पंथनिरपेक्ष शिक्षा को प्रदान किया जा सकता है;
- यदि किसी अल्पसंख्यक संस्थान को सरकार द्वारा सहायता प्राप्त होती है, तो किसी भी छात्र को धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता है;
- यदि संस्था का पूर्णतः रखरखाव राज्य निधि से किया जाता है तो वह धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं कर सकती है।
- हालाँकि इन संस्थाओं को अभी भी अल्पसंख्यक संस्थाएँ ही माना जाना चाहिये।
- निगमन बनाम स्थापना की प्रकृति: इस निर्णय में स्पष्ट किया गया है कि विधि द्वारा निगमन के तहत अल्पसंख्यक दर्जे को अस्वीकार नहीं किया गया है। किसी विश्वविद्यालय को विधि के माध्यम से औपचारिक रूप देने मात्र से इसमें परिवर्तन नहीं होता कि उसे मूल रूप से किसने स्थापित किया था।
- न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि वर्ष 1920 में मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं थे या वे स्वयं को अल्पसंख्यक नहीं मानते थे।
- इसमें कहा गया है कि संविधान लागू होने पर उक्त समूह अल्पसंख्यक होना चाहिये तथा संविधान-पूर्व संस्थाएँ भी अनुच्छेद 30 के तहत संरक्षण की हकदार हैं।
- अनुच्छेद 30 कमज़ोर होगा यदि इसे केवल उन संस्थाओं पर लागू किया जाए जो संविधान के लागू होने के बाद स्थापित हुई थीं।
- 'निगमन' और 'स्थापना' शब्दों का परस्पर एक दूसरे के स्थान पर उपयोग नहीं किया जा सकता है। AMU को शाही कानून द्वारा निगमित किये जाने का यह तात्पर्य नहीं है कि इसे अल्पसंख्यकों द्वारा 'स्थापित' नहीं किया गया था।
- इसमें यह तर्क नहीं दिया जा सकता है कि विश्वविद्यालय की स्थापना संसद द्वारा (केवल इसलिये कि इसे संसद द्वारा पारित किया गया था) की गई थी। इस तरह की औपचारिक व्याख्या से अनुच्छेद 30 के उद्देश्य विफल हो जाएंगे।
- असहमतिपूर्ण राय: तीन न्यायाधीशों ने बहुमत से असहमति जताते हुए, विधि द्वारा स्थापित संस्थाओं पर अनुच्छेद 30 की प्रयोज्यता के बारे में अलग-अलग विचार व्यक्त किये।
इस मामले से संबंधित अन्य पहलू क्या हैं?
- अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान (MEI) की परिभाषा: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 30(1) अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने का अधिकार देता है।
- अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग अधिनियम, 2004 के तहत परिभाषित किया गया है।
- इसमें अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान (MEI) को ऐसे कॉलेज या अन्य संस्थान के रूप में परिभाषित किया गया है जो अल्पसंख्यक या अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित या अनुरक्षित है।
- अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग अधिनियम, 2004 के तहत परिभाषित किया गया है।
- MEI पर ऐतिहासिक मामले:
- मदर प्रोविंशियल केस: अनुच्छेद 30(1) में "प्रशासन" को संस्थागत मामलों के प्रबंधन के रूप में परिभाषित किया गया, लेकिन शैक्षिक मानकों में सरकार के हस्तक्षेप की अनुमति दी गई।
- AP क्रिश्चियन मेडिकल एसोसिएशन केस: योग्यता प्राप्त करने के लिये MEI को अल्पसंख्यक समुदाय के एक महत्त्वपूर्ण हिस्से को लाभ पहुँचाना होगा।
- योगेन्द्र नाथ सिंह केस: किसी संस्थान को अल्पसंख्यक संस्थान माने जाने के लिये उसकी स्थापना और प्रशासन दोनों का अल्पसंख्यकों द्वारा होना आवश्यक है।
- MEI स्थिति के लिये अनसुलझे मानदंड: TMA पाई वाद में यह स्थापित किया गया था कि अल्पसंख्यक स्थिति राज्य स्तर पर निर्धारित की जाती है, लेकिन MEI पदनाम के लिये मानदंड अनिर्णायक छोड़ दिये गए थे।
- AMU पर अजीज़ बाशा वाद: सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है क्योंकि इसकी स्थापना अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा नहीं बल्कि संसद द्वारा पारित AMU अधिनियम, 1920 द्वारा की गई थी।
- अल्पसंख्यक स्थिति छूट: अनुच्छेद 15(5) अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को SC/ST के लिये सीटें आरक्षित करने से छूट देता है, जिसका असर AMU पर पड़ता है, जिसमें वर्तमान में SC/ST कोटा नहीं था, क्योंकि इसका अल्पसंख्यक स्थिति न्यायिक समीक्षा के अधीन था।
- सेंट स्टीफन कॉलेज संदर्भ: वर्ष 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने सेंट स्टीफन कॉलेज के स्वतंत्र रूप से प्रशासन करने और ईसाइयों के लिये 50% सीटें आरक्षित करने के अधिकार को बरकरार रखा।
AMU विवाद का घटनाक्रम क्या है?
- मुहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना, 1875:
- सर सैयद अहमद खान ने अलीगढ़ में मुहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज (Muhammadan Anglo Oriental College) की स्थापना की, जिसका उद्देश्य भारत में मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा प्रदान करना था, जिन्हें सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा माना जाता था। यह संस्थान बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ।
- AMU का स्वरूप, 1920:
- अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम भारतीय विधान परिषद द्वारा पारित किया गया, जिसने औपचारिक रूप से MOA कॉलेज को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) में परिवर्तित कर दिया।
- एस. अजीज़ बाशा बनाम भारत संघ, 1967:
- सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि AMU को अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।
- फैसले में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि AMU एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, न कि केवल मुस्लिम समुदाय द्वारा “स्थापित या प्रशासित”, इसलिये यह अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान के रूप में योग्य नहीं है।
- अल्पसंख्यक स्थिति देने के लिये AMU अधिनियम में संशोधन, 1981:
- वर्ष 1967 के फैसले के जवाब में केंद्र सरकार ने वर्ष 1981 में AMU अधिनियम में संशोधन किया, जिसमें घोषणा की गई कि AMU वास्तव में मुसलमानों की शैक्षिक और सांस्कृतिक उन्नति को बढ़ावा देने के लिये “भारत के मुसलमानों द्वारा स्थापित” किया गया था।
- यह संशोधन AMU को अल्पसंख्यक दर्जा प्रदान करता है।
- वर्ष 1967 के फैसले के जवाब में केंद्र सरकार ने वर्ष 1981 में AMU अधिनियम में संशोधन किया, जिसमें घोषणा की गई कि AMU वास्तव में मुसलमानों की शैक्षिक और सांस्कृतिक उन्नति को बढ़ावा देने के लिये “भारत के मुसलमानों द्वारा स्थापित” किया गया था।
- AMU आरक्षण विवाद, 2005:
- AMU ने स्नातकोत्तर चिकित्सा पाठ्यक्रमों में मुस्लिम छात्रों के लिये 50% आरक्षण लागू किया।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2006 में आरक्षण नीति को रद्द कर दिया था तथा निर्णय दिया था कि AMU अल्पसंख्यक दर्जे का दावा नहीं कर सकता, क्योंकि वर्ष 1967 के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार यह अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है।
- यह इस तर्क पर आधारित है कि AMU मुस्लिम समुदाय द्वारा “स्थापित या प्रशासित” नहीं है, इसलिये यह अनुच्छेद 30 के तहत मानदंडों को पूरा नहीं करता है।
- सरकार ने अपील वापस ली, 2016:
- सरकार ने AMU के अल्पसंख्यक दर्जे के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपनी अपील वापस ले ली है, यह तर्क देते हुए कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में योग्य नहीं है तथा वर्ष 1967 के फैसले के आधार पर इसकी स्थिति बहाल कर दी गई है।
- सरकार का कहना है कि 1920 में केंद्रीय विश्वविद्यालय के रूप में स्थापना के समय AMU ने अपना धार्मिक दर्जा त्याग दिया था।
- सात न्यायाधीशों की पीठ, 2019:
- तीन न्यायाधीशों की पीठ ने AMU के अल्पसंख्यक दर्जे से जुड़े कानूनी सवालों को सुलझाने के लिये इस मुद्दे को सात न्यायाधीशों की बड़ी पीठ को भेज दिया।
- नवीनतम निर्णय, 2024:
- सर्वोच्च न्यायालय की सात न्यायाधीशों की पीठ ने 4:3 के बहुमत से एस अज़ीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में अल्पसंख्यक दर्जे के मानदंड पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया।
- इस फैसले से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के लिये अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में मान्यता प्राप्त करने की संभावना खुल गई है।
AMU का इतिहास क्या है?
- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: AMU की शुरुआत 1860 के दशक में सर सैयद अहमद खान द्वारा भारत में एक "मुस्लिम" विश्वविद्यालय बनाने के प्रयासों से हुई थी। 1857 के विद्रोह के दौरान उनके अनुभव ने, विशेषकर मुस्लिम समुदाय की दुर्दशा के संबंध में, उन पर गहरा प्रभाव डाला।
- शैक्षिक दृष्टि: पश्चिमी शिक्षा से प्रेरित होकर, सर सैयद चाहते थे कि AMU "पूर्व के ऑक्सब्रिज" का प्रतीक बने, जिसमें आधुनिक विज्ञान को सांस्कृतिक मूल्यों के साथ मिश्रित किया जाए।
- MAO कॉलेज की स्थापना: वर्ष 1875 में मदरसातुल उलूम मुसलमानन-ए-हिंद (Madrasatul Uloom Musalmanan-e-Hind) की स्थापना की गई, जो बाद में AMU के पूर्ववर्ती मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज बन गया।
- मुस्लिम विश्वविद्यालय आंदोलन: सर सैयद की मृत्यु के बाद, मोहसिन-उल-मुल्क और आगा खान जैसे नेताओं ने कॉलेज को विश्वविद्यालय में अपग्रेड करने के लिये अभियान चलाया तथा इसे मुस्लिम समुदाय के लिये एक राजनीतिक एवं शैक्षिक आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत किया।
- ब्रिटिश शर्तें: ब्रिटिश सरकार ने विश्वविद्यालय की स्थापना को मंज़ूरी दे दी, लेकिन कुछ शर्तें भी लगाई, जिनमें सरकारी नियंत्रण बढ़ाना और अन्य मुस्लिम संस्थानों के साथ संबद्धता सीमित करना शामिल था।
- जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना: गांधीजी के असहयोग आंदोलन से प्रेरित होकर शौकत और मोहम्मद अली ने औपनिवेशिक भारत में एक स्वतंत्र मुस्लिम शैक्षणिक संस्थान के रूप में जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना की, जिससे राष्ट्रवादी शिक्षा और साझा भारतीय संस्कृति को बढ़ावा मिला।
निष्कर्ष:
AMU के अल्पसंख्यक दर्जे पर पुनर्विचार करने के लिये हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने अनुच्छेद 30 पर चल रही कानूनी और संवैधानिक बहस को उजागर किया है, जो अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार देता है।
1967 के अज़ीज बाशा फैसले को पलटकर, न्यायालय ने AMU के लिये अपने अल्पसंख्यक दर्जे को पुनः प्राप्त करने का राह प्रशस्त करता है। चूंकि यह मुद्दा अब नियमित पीठ के पास है, इसलिये अंतिम निर्णय अल्पसंख्यक शैक्षणिक अधिकारों के भविष्य को आकार देगा और पूरे भारत में इसी तरह के संस्थानों के लिये एक मिसाल कायम करेगा।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे की समीक्षा करने के सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय के अल्पसंख्यक अधिकारों के संदर्भ में भारत के संवैधानिक ढाँचे पर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा कीजिये। |
भारतीय अर्थव्यवस्था
विकास अर्थशास्त्र
प्रिलिम्स के लिये:विकास अर्थशास्त्र, आर्थिक विकास, निर्धनता, GDP, सतत् विकास। मेन्स के लिये:विकास अर्थशास्त्र, विकास अर्थशास्त्र का दृष्टिकोण, भारत में आर्थिक विकास को बढ़ावा देने वाले प्रमुख कारक, विकास अर्थशास्त्र से संबंधित वर्तमान चुनौतियाँ। |
स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स
चर्चा में क्यों?
आईएमएफ विश्व आर्थिक परिदृश्य के हालिया अक्टूबर 2024 संस्करण ने राजनीतिक और आर्थिक वास्तविकताओं को संरेखित करने के लिये विकास अर्थशास्त्र की आवश्यकता पर चर्चा को बढ़ावा दिया है।
- रिपोर्ट में वैश्विक आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिये एकीकृत दृष्टिकोण पर जोर दिया गया है, तथा प्रभावी शासन के लिये आर्थिक नीतियों और राजनीतिक निहितार्थों के बीच अंतर्सम्बन्ध को समझने के महत्व पर प्रकाश डाला गया है।
विश्व आर्थिक परिदृश्य रिपोर्ट
- WEO के बारे में: WEO अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा तैयार की जाने वाली एक प्रमुख रिपोर्ट है, जो अप्रैल और अक्टूबर में द्विवार्षिक रूप से प्रकाशित होती है।
- फोकस: वैश्विक अर्थव्यवस्था और अलग-अलग देशों के लिये विश्लेषण और अनुमान प्रदान करता है।
- उद्देश्य: आर्थिक विकास का आकलन करना, प्रवृत्तियों की पहचान करना और नीतिगत सिफारिशें प्रस्तुत करना।
- अवयव:
- आर्थिक विकास अनुमान: वैश्विक और क्षेत्रीय आर्थिक प्रदर्शन के लिये पूर्वानुमान।
- मुद्रास्फीति के रुझान: मुद्रास्फीति दरों और उनके निहितार्थों पर अंतर्दृष्टि।
- वित्तीय स्थिरता मूल्यांकन: वित्तीय प्रणालियों और बाजारों के लिये जोखिमों का मूल्यांकन करता है।
- महत्त्व:
- यह नीति निर्माताओं, शोधकर्ताओं और निवेशकों के लिये आर्थिक परिदृश्य को समझने और उसमें मार्गदर्शन करने के लिये एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में कार्य करता है।
विकास अर्थशास्त्र क्या है?
- परिचय:
- यह अर्थशास्त्र की एक शाखा है जो इस अध्ययन पर केंद्रित है कि देश किस प्रकार सतत् आर्थिक विकास प्राप्त करने एवं निर्धनता को कम करने के साथ अपनी जनसंख्या के जीवन स्तर में सुधार कर सकते हैं।
- इसमें आर्थिक विकास की प्रक्रियाओं, इसमें योगदान देने वाले कारकों तथा इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में विकासशील देशों के समक्ष आने वाली चुनौतियों का परीक्षण किया जाता है।
- इसका विकास द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुआ (विशेष रूप से नव स्वतंत्र राष्ट्रों के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों के प्रत्युत्तर में)।
- प्रमुख लक्षित क्षेत्र:
- आर्थिक विकास: इसमें इस बात पर ध्यान केंद्रित किया जाता है कि अर्थव्यवस्थाएँ किस प्रकार विस्तारित होती हैं इसके साथ ही दीर्घकालिक विकास को बढ़ावा देने के लिये निवेश, प्रौद्योगिकी, मानव पूंजी, बुनियादी ढाँचे और संस्थानों जैसे कारकों पर बल दिया जाता है।
- निर्धनता में कमी: इसका उद्देश्य जीवन स्तर में सुधार के क्रम में धन पुनर्वितरण, सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों एवं समावेशी आर्थिक नीतियों जैसी रणनीतियों के माध्यम से निर्धनता को कम करना है।
- असमानता: इसके तहत राष्ट्रों के भीतर और उनके बीच आय एवं धन असमानताओं का पता लगाने के साथ यह पता लगाया जाता है कि असमानता सामाजिक सामंजस्य और आर्थिक स्थिरता को किस प्रकार प्रभावित करती है। इसके साथ ही इसके समाधान हेतु सिफारिशें दी जाती हैं।
- सतत् विकास: इसके तहत यह सुनिश्चित किया जाता है कि आर्थिक विकास से पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे, साथ ही यह जलवायु परिवर्तन और संसाधनों की कमी जैसी चुनौतियों का समाधान करने पर केंद्रित है।
- वैश्वीकरण और व्यापार: इसके तहत विकासशील देशों पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) एवं वैश्विक वित्तीय बाज़ारों के प्रभाव का विश्लेषण किया जाता है तथा व्यापार असंतुलन एवं बाज़ार पहुँच जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
- संस्थागत विकास: इसके तहत आर्थिक विकास के लिये मज़बूत संस्थाओं (विधिक प्रणाली, लोकतांत्रिक शासन, लोक प्रशासन) के महत्त्व पर बल देता है तथा इस बात की जाँच की जाती है कि संस्थाओं में सुधार कैसे किया जा सकता है।
- सैद्धांतिक दृष्टिकोण: विकास अर्थशास्त्र में कई विचारधाराएँ शामिल हैं, जिनमें से प्रत्येक आर्थिक विकास को प्राप्त करने के संबंध में अलग-अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं।
- नवशास्त्रीय सिद्धांत: इसके तहत आर्थिक विकास के चालकों के रूप में मुक्त बाज़ार, निजी संपत्ति अधिकार और प्रतिस्पर्द्धा पर ध्यान केंद्रित किया जाता है तथा न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप को बल दिया जाता है।
- संरचनावादी सिद्धांत: इसके तहत खराब बुनियादी ढाँचे, प्राथमिक क्षेत्रों पर अत्यधिक निर्भरता और कमज़ोर औद्योगिकीकरण जैसे संरचनात्मक मुद्दों को संबोधित करने की आवश्यकता पर बल दिया जाता है तथा राज्य के नेतृत्व वाले विकास की वकालत की जाती है।
- क्षमता दृष्टिकोण: इसे अमर्त्य सेन द्वारा प्रस्तुत किया गया था। यह दृष्टिकोण सकल घरेलू उत्पाद से ध्यान हटाकर मानव कल्याण पर केंद्रित है तथा विकास में व्यक्तियों की स्वतंत्रता एवं विकल्पों के विस्तार के महत्त्व पर प्रकाश डाला जाता है।
- संस्थागत अर्थशास्त्र: इसके तहत आर्थिक परिणामों को आकार देने में संस्थाओं (औपचारिक और अनौपचारिक दोनों) की भूमिका पर बल दिया जाता है तथा तर्क दिया जाता है कि विकास, शासन की गुणवत्ता एवं सामाजिक मानदंडों से प्रभावित होता है।
विकास अर्थशास्त्र के प्रति वर्तमान दृष्टिकोण का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता क्यों है?
- वृहद-स्तरीय चुनौतियाँ: वर्तमान विकास अर्थशास्त्र के तहत अक्सर सूक्ष्म-स्तरीय हस्तक्षेपों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है तथा राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा, राजकोषीय बाधाओं एवं वैश्विक व्यापार असंतुलन जैसी बड़े पैमाने की वृहद-आर्थिक चुनौतियों की अनदेखी की जाती है।
- इन व्यापक आर्थिक मुद्दों के समाधान के लिये अधिक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
- राजनीतिक वास्तविकताएँ: भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में लोकलुभावन नीतियों जैसी राजनीतिक वास्तविकताएँ अक्सर दीर्घकालिक संरचनात्मक सुधारों को कमज़ोर करती हैं।
- विकास अर्थशास्त्र को राजनीतिक व्यवहार्यता के साथ संरेखित करने के साथ यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रस्तावित समाधान मौजूदा राजनीतिक ढाँचे के तहत व्यावहारिक रूप से कार्यान्वयन योग्य हों।
- वैश्विक गतिशीलता एवं तकनीकी बदलाव: तीव्र तकनीकी प्रगति और वैश्विक बाज़ार में उथल-पुथल के साथ विकास अर्थशास्त्र को बदलती वैश्विक गतिशीलता के अनुकूल होना चाहिये। इसमें प्रतिस्पर्द्धात्मकता, नवाचार और राष्ट्रीय विकास पर नई प्रौद्योगिकियों के प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करना शामिल है।
- IMF की विश्व आर्थिक परिदृश्य (WEO) रिपोर्ट में श्रम उत्पादकता के कारण चीन में इलेक्ट्रिक वाहन उत्पादन में वृद्धि पर प्रकाश डाला गया है, जिससे वैश्विक बाज़ारों में उथल-पुथल हुई है। इसके साथ ही इसमें वैश्विक बदलावों के अनुकूल विकास अर्थशास्त्र की आवश्यकता को दर्शाया गया है।
- सतत् एवं समावेशी विकास: यह सुनिश्चित करने के लिये पुनर्मूल्यांकन आवश्यक है कि विकास अर्थशास्त्र से समावेशी विकास, निर्धनता उन्मूलन एवं सतत् विकास को बढ़ावा मिलने के साथ असमानता एवं तीव्र औद्योगिकीकरण तथा शहरीकरण से उत्पन्न पर्यावरणीय चुनौतियों का समाधान हो सके।
- अंतःविषयक दृष्टिकोण: विकास अर्थशास्त्र के तहत राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र और पर्यावरण विज्ञान जैसे अन्य क्षेत्रों को एकीकृत करने की आवश्यकता है जिससे एक अधिक समग्र रूपरेखा तैयार हो सके ताकि आर्थिक नीतियों, राजनीतिक स्थिरता और सामाजिक कल्याण के बीच जटिल अंतर-निर्भरताओं पर विचार किया जा सके।
भारत का आर्थिक प्रदर्शन वैश्विक विकास अर्थशास्त्र के साथ किस प्रकार संरेखित है?
- उच्च विकास दर: भारत की GDP वृद्धि लगातार वैश्विक औसत से आगे रह रही है और वर्ष 2024-25 में 7% की पूर्वानुमानित विकास दर (IMF) संभावित है। इससे भारत उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में स्थापित हुआ है।
- वैश्विक मंदी के बावजूद भारत की संवृद्धि दर मज़बूत बनी हुई है, जो वैश्विक मंच पर इसकी आर्थिक क्षमता को दर्शाती है।
- विकास चालक के रूप में घरेलू मांग: भारत की आर्थिक संवृद्धि का एक प्रमुख हिस्सा मज़बूत घरेलू मांग से प्रेरित है, जिसमें उपभोक्ता खर्च सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 60% है (विश्व बैंक, 2023)।
- विशेष रूप से बुनियादी अवसरंचना और सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों में सरकारी निवेश भी वैश्विक आर्थिक मंदी जैसे बाह्य असंतुलन को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- जनसांख्यिकीय लाभांश: भारत की जनसंख्या मुख्य रूप से युवा है, जिसकी वर्ष 2024 में औसत आयु 28.4 वर्ष होगी (संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग), जो पर्याप्त कार्यबल और दीर्घकालिक आर्थिक विकास की क्षमता प्रदान करेगी।
- अनुमान है कि वर्ष 2030 तक भारत के पास विश्व का सबसे बड़ा कार्यबल होगा, जिसका यदि प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाए तो उत्पादकता में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हो सकती है।
- सेवा क्षेत्र का प्रभुत्व: सेवा क्षेत्र, विशेष रूप से सूचना प्रौद्योगिकी (IT) और बिज़नेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग (BPO) भारत के आर्थिक प्रदर्शन के लिये केंद्रीय है। वित्त वर्ष 2022-2023 में भारत का IT निर्यात लगभग 194 बिलियन अमेरिकी डॉलर रहा (नैसकॉम) जिससे यह इस क्षेत्र में वैश्विक अभिकर्त्ता बन गया।
- यह क्षेत्र न केवल निर्यात में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है, बल्कि रोज़गार सृजन भी करता है और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) भी आकर्षित करता है।
- अवसंरचना विकास: भारत ने अवसंरचना में सार्वजनिक निवेश को बढ़ाया है, सरकार ने अवसंरचना विकास के लिये 1.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर (राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन 2020-2025) आवंटित किया है।
- भारतमाला परियोजना (सड़क अवसंरचना) और उड़ान (क्षेत्रीय हवाई संपर्क) जैसी प्रमुख पहलों से नए आर्थिक अवसर उत्पन्न करने और प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ने की उम्मीद है।
- डिजिटल परिवर्तन और वित्तीय समावेशन: भारत ने डिजिटल परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है, विशेषकर UPI जैसी डिजिटल भुगतान प्रणाली की शुरुआत के साथ। UPI लेनदेन का मूल्य वर्ष-दर-वर्ष 40% बढ़कर जून 2024 में 20.07 ट्रिलियन रुपए हो गया, जो जनवरी 2023 में 12.98 ट्रिलियन रुपए था।
- अक्तूबर 2024 में 23.5 ट्रिलियन रुपए मूल्य के 16.58 बिलियन यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (UPI) लेनदेन हुए, जो अप्रैल 2016 में इसकी शुरुआत के बाद से डिजिटल सिस्टम के लिये सबसे अधिक संख्या है।
- जन धन खातों और आधार-आधारित पहचान प्रणालियों जैसी डिजिटल पहलों ने वित्तीय समावेशन में सुधार किया है, जिससे पहले वंचित रहे लाखों व्यक्तियों को लाभ हुआ है।
भारत के लिये विकास अर्थशास्त्र में चुनौतियाँ क्या हैं?
- राजनीतिक आर्थिक बाधाएँ: भारत का विकास राजनीतिक गतिशीलता से प्रभावित होता है, जहाँ चुनावी चक्र अक्सर श्रम, कर तथा उद्योग में दीर्घकालिक सुधारों की तुलना में नकद हस्तांतरण और सब्सिडी जैसी लोकलुभावन नीतियों को प्राथमिकता देते हैं।
- यह अल्पकालिक फोकस उन आवश्यक सुधारों को सीमित करता है जो स्थाई आर्थिक विकास को समर्थन देंगे।
- श्रम बाज़ार की कठोरता: भारत को कौशल अंतराल, कम उत्पादकता और कठोर श्रम कानूनों का सामना करना पड़ रहा है, जो भर्ती में लचीलेपन को प्रतिबंधित करते हैं।
- कौशल विकास में सुधार और अधिक श्रम लचीलेपन के बिना, भारत अपने कार्यबल को उच्च विकास वाले क्षेत्रों और वैश्विक मानकों के अनुरूप बनाने में संघर्ष करता है।
- सामाजिक अशांति और विरोध: श्रम-व्यवसाय तनाव, विशेष रूप से विनिर्माण क्षेत्रों में, श्रमिक सुरक्षा और व्यावसायिक आवश्यकताओं के बीच संतुलन स्थापित करने में सामाजिक चुनौतियों को उजागर करता है।
- यदि इन तनावों को प्रबंधित नहीं किया गया तो ये निवेश को बाधित कर सकते हैं और विनिर्माण प्रतिस्पर्द्धा को कमज़ोर कर सकते हैं।
- भू-राजनीतिक अनिश्चितताएँ: विशेष रूप से अमेरिका और चीन के बीच व्यापार तनाव, भारत के लिये अवसर एवं जोखिम दोनों प्रस्तुत करते हैं।
- जबकि भारत चीन से विविध निवेश आकर्षित कर सकता है, उसे पारंपरिक बाज़ारों पर निर्भरता कम करनी होगी तथा बदलती वैश्विक अर्थव्यवस्था में लचीला बने रहने के लिये विविध व्यापार साझेदारियाँ बनानी होंगी।
आगे की राह
- विकास और समानता में संतुलन: यह सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है कि सुधार न केवल विकास को बढ़ावा दें बल्कि आय असमानता और सामाजिक न्याय को भी संबोधित करें। इसके लिये ऐसी नीतियों की आवश्यकता है जो समावेशी विकास, उचित वेतन और शिक्षा में निवेश को बढ़ावा दें।
- प्रौद्योगिकी को अपनाना: वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिये भारत को कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), स्वचालन और हरित प्रौद्योगिकियों सहित तकनीकी नवाचार को अपनाना होगा।
- इसके लिये सहायक नीतिगत वातावरण, बुनियादी अवसरंचना में निवेश और कौशल विकास पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
- श्रम-प्रधान क्षेत्रों को बढ़ावा देना: भारत को वस्त्र और परिधान जैसे क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये, जहाँ सस्ते श्रम और बुनियादी अवसरंचना के मामले में उसे प्रतिस्पर्द्धात्मक लाभ प्राप्त है।
- तकनीकी नवाचार को बढ़ावा देना: भारत को इलेक्ट्रॉनिक्स, माइक्रोचिप्स और नवीकरणीय ऊर्जा जैसे अत्याधुनिक उद्योगों में निवेश करना चाहिये। इसे मूल्य शृंखला को आगे बढ़ाने और अनुसंधान एवं विकास तथा उद्यम पूंजी के माध्यम से नवाचार को बढ़ावा देने के लिये STEM शिक्षा को भी मज़बूत करना चाहिये।
- इसके लिये अनुसंधान एवं विकास हेतु अधिक अनुकूल वातावरण, पूंजी तक बेहतर पहुँच और एक मज़बूत शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता होगी जो उच्च तकनीक क्षेत्रों के लिये प्रशिक्षित कार्यबल तैयार कर सके।
- श्रम कानूनों और विनियामक ढाँचों में सुधार: भारत को IMF की विश्व आर्थिक परिदृश्य (WEO) रिपोर्ट के अनुसार अधिक व्यापार-अनुकूल वातावरण बनाने के लिये अपने श्रम कानूनों को सरल और आधुनिक बनाना चाहिये।
- विनियामक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना, अनुपालन बोझ को कम करना तथा "मेक इन इंडिया" और "ईज ऑफ डूइंग बिज़नेस" सुधारों जैसी पहलों के माध्यम से कारोबार में आसानी सुनिश्चित करना विदेशी निवेश को आकर्षित करने तथा प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ाने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- मानव पूंजी में निवेश को लक्षित करना: श्रम उत्पादकता को बढ़ावा देने और दीर्घकालिक विकास को समर्थन देने के लिये शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल एवं कौशल विकास को प्राथमिकता देना।
- नकद हस्तांतरण से हटकर उच्च मूल्य वाले क्षेत्रों से जुड़े कुशल कार्यबल के निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना।
- शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण पर सार्वजनिक व्यय में वृद्धि से भारत का कार्यबल प्रतिस्पर्धी वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिये तैयार होगा।
- अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ सहभागिता: भारत को व्यापार की अनुकूल शर्तें सुनिश्चित करने तथा वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं और व्यापार समझौतों की जटिलताओं से निपटने के लिये IMF, विश्व बैंक एवं WTO जैसी वैश्विक आर्थिक संस्थाओं के साथ अपने सहयोग को मज़बूत करना चाहिये।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. विकास अर्थशास्त्र क्या है? विकास अर्थशास्त्र के वर्तमान दृष्टिकोण का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता क्यों है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न.'आठ मूल उद्योगों के सूचकांक (इंडेक्स ऑफ एट कोर इंडस्ट्रीज़)' में निम्नलिखित में से किसको सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है? (2015) (a) कोयला उत्पादन उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. "सुधारोत्तर अवधि में सकल-घरेलू-उत्पाद (जी.डी.पी.) की समग्र संवृद्धि में औद्योगिक संवृद्धि दर पिछड़ती गई है।" कारण बताइए। औद्योगिक-नीति में हाल में किये गए परिवर्तन औद्योगिक संवृद्धि दर को बढ़ाने में कहां तक सक्षम हैं ? (2017) प्रश्न: सामान्यतः देश कृषि से उद्योग और बाद में सेवाओं को अन्तरित होते हैं पर भारत सीधे ही कृषि से सेवाओं को अन्तरित हो गया है। देश में उद्योग के मुकाबले सेवाओं की विशाल संवृद्धि के क्या कारण हैं? क्या भारत सशक्त औद्योगिक आधार के बिना एक विकसित देश बन सकता है? (2014) |
भारतीय अर्थव्यवस्था
पवन ऊर्जा उत्पादन का उन्नयन
प्रिलिम्स के लिये:उच्च न्यायालय, पवन ऊर्जा, पवन टरबाइन, नवीकरणीय ऊर्जा, राष्ट्रीय पवन ऊर्जा संस्थान (NIWE), चेन्नई, उत्पादन लिंक्ड प्रोत्साहन (PLI) योजना, ग्रीन हाइड्रोजन, इलेक्ट्रिक मोबिलिटी, पंचामृत, संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC), कार्बन गहनता। मेन्स के लिये:वैश्विक जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने में नवीकरणीय ऊर्जा की भूमिका। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
अगस्त 2024 में तमिलनाडु सरकार ने पुराने टरबाइनों को बदलने और पवन ऊर्जा के उपयोग को अनुकूलित करने के लिये “पुनर्शक्तीकरण, नवीनीकरण और परिचालन अवधि विस्तार नीति” प्रस्तुत की।
- इस क्रम में पवन ऊर्जा उत्पादकों ने इस नीति का विरोध किया और मद्रास उच्च न्यायालय का रुख किया।
पवन ऊर्जा परियोजनाओं के लिये तमिलनाडु पुनर्शक्तीकरण, नवीनीकरण और परिचालन अवधि विस्तार नीति, 2024 क्या है?
- संदर्भ: इसके तहत तमिलनाडु में 20 वर्ष से अधिक पुरानी पवन चक्कियों वाले पवन ऊर्जा उत्पादकों की ऊर्जा दक्षता हेतु उन्नयन की आवश्यकता निर्धारित की गई।
- नीति फोकस: नीति में तीन प्रमुख पहलू शामिल हैं:
- परिचालन अवधि विस्तार: 20 वर्ष से अधिक पुरानी पवन चक्कियों की परिचालन अवधि बढ़ाना।
- पुनर्शक्तीकरण: पुरानी पवन चक्कियों को नई मशीनों से बदलना।
- नवीनीकरण: पुरानी पवन चक्कियों का उन्नयन या मरम्मत करना।
- क्षमता अवलोकन: तमिलनाडु में 9,000 मेगावाट पवन ऊर्जा क्षमता में से लगभग 300 मेगावाट 20 वर्ष से अधिक पुरानी मशीनरी से संबंधित है।
- विरोध का कारण: परिचालन अवधि के विस्तार हेतु पवन ऊर्जा उत्पादकों से प्रत्येक पाँच वर्ष में 30 लाख रुपए प्रति मेगावाट का खर्च करने की अपेक्षा है।
- पुनः विद्युतीकरण के लिये पुरानी मशीनों को नई मशीनों से बदलने के लिये 30 लाख रुपए प्रति मेगावाट की दर से एकमुश्त खर्च की आवश्यकता है।
नोट: नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (MNRE) ने सबसे पहले पवन ऊर्जा परियोजनाओं के लिये राष्ट्रीय पुनर्शक्ति एवं परिचालन अवधि विस्तार नीति-2023 प्रस्तुत की।
- भारत में पवन ऊर्जा के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?
- पवन ऊर्जा क्षमता: भारत में जमीनी स्तर से 150 मीटर ऊँचाई वाली पवन ऊर्जा क्षमता 1,163.86 गीगावाट है जबकि 120 मीटर ऊँचाई (टरबाइन) के संदर्भ में यह 695.51 गीगावाट है।
- पवन ऊर्जा उपयोग: भारत की पवन ऊर्जा क्षमता का केवल 6.5% ही राष्ट्रीय स्तर पर उपयोग किया जाता है तथा तमिलनाडु में लगभग 15% उपयोग किया जाता है।
- पवन ऊर्जा उत्पादन: वर्ष 2024 तक भारत को पवन ऊर्जा क्षमता और नवीकरणीय ऊर्जा स्थापित क्षमता में चौथा स्थान दिया गया है।
- लागत प्रतिस्पर्द्धी: वर्ष 2025-30 के दौरान भारत में पवन ऊर्जा परियोजनाओं से विद्युत उत्पादन, ताप विद्युत उत्पादन की तुलना में लागत प्रतिस्पर्द्धी होने की संभावना है।
- पवन टरबाइन का रखरखाव:
- पुनर्शक्तिकरण: 15 वर्ष से अधिक पुराने या 2 मेगावाट से कम क्षमता वाले पवन टरबाइनों को नए टरबाइनों से बदलना।
- नवीनीकरण: ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये टरबाइनों की ऊँचाई बढ़ाना, ब्लेड बदलना या उच्च क्षमता वाले गियरबॉक्स लगाकर उन्हें उन्नत करना।
- परिचालन अवधि का विस्तार: पुराने टरबाइनों की परिचालन अवधि बढ़ाने के लिये सुरक्षा उपायों को अपनाना।
- पवन ऊर्जा आधारित राज्य: प्रमुख पवन ऊर्जा उत्पादक राज्यों में गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान और आंध्र प्रदेश शामिल हैं, जो मिलकर देश की स्थापित पवन ऊर्जा क्षमता में 93.37% का योगदान देते हैं।
- तमिलनाडु में 10,603.5 मेगावाट के साथ गुजरात के बाद दूसरी सबसे बड़ी स्थापित पवन ऊर्जा क्षमता है।
पवन टरबाइनों को पुनः शक्ति प्रदान करने और नवीनीकरण करने में क्या चुनौतियाँ हैं?
- भूमि की आवश्यकताएँ: नई टर्बाइनों, विशेष रूप से उच्च क्षमता वाली टर्बाइनों (2 मेगावाट और 2.5 मेगावाट) को पुरानी छोटी टर्बाइनों की तुलना में अधिक भूमि (3.5 से 5 एकड़) की आवश्यकता होती है।
- विस्थापन: 1980 के दशक से जब टर्बाइन स्थापित किये गए, तब से पवन स्थलों के बीच आवास विकसित हो गए हैं, जिससे जनसंख्या के विस्थापन और पुनर्वास की नई चुनौतियाँ उत्पन्न हो गई हैं।
- प्रौद्योगिकी विकास: प्रगति के साथ तालमेल बनाए रखने के लिये टर्बाइनों, ब्लेडों और गियरबॉक्सों को उन्नत करने के लिये महत्त्वपूर्ण निवेश, समय तथा विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है।
- बैंकिंग समस्या: तमिलनाडु में वर्ष 2018 के बाद स्थापित पवन टर्बाइनों में बैंकिंग सुविधाएँ नहीं हैं, जिसका अर्थ है कि पुनः शक्ति प्रदान की गई टर्बाइनों को नई स्थापनाओं के रूप में माना जाता है और जनरेटर वित्तीय व्यवहार्यता को प्रभावित करते हुए उत्पन्न ऊर्जा को बैंक में नहीं रख सकते हैं।
भारत का नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्य
- भारत ने ग्लासगो यूनाइटेड किंगडम में आयोजित जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क अभिसमय (UNFCCC) में COP-26 में भारत की जलवायु कार्रवाई के निम्नलिखित पाँच अमृत तत्त्व (पंचामृत) प्रस्तुत किये हैं:
- इसका लक्ष्य वर्ष 2030 तक 500 गीगावाट गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता तक पहुँचना है।
- वर्ष 2030 तक अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं का 50% नवीकरणीय ऊर्जा से प्राप्त करना।
- अभी से वर्ष 2030 तक कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में एक बिलियन टन की कमी।
- वर्ष 2005 के स्तर की तुलना में वर्ष 2030 तक अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता में 45% की कमी।
- वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य को प्राप्त करना।
नवीकरणीय ऊर्जा संक्रमण से संबंधित प्रमुख सरकारी पहल क्या हैं?
आगे की राह
- बेहतर टैरिफ तंत्र: प्रतिस्पर्धी नवीकरणीय टैरिफ की पेशकश से स्थिर मूल्य निर्धारण सुनिश्चित होगा और परियोजना डेवलपर्स के लिये वित्तीय जोखिम कम होंगे।
- परियोजना पूर्ण होने की समय-सीमा: परियोजना पूर्ण होने की समय-सीमा का सख्ती से पालन सुनिश्चित करने से देरी को रोका जा सकेगा, परियोजना की दक्षता में सुधार होगा और पवन ऊर्जा क्षेत्र की विश्वसनीयता बढ़ेगी।
- सौर ऊर्जा के साथ एकीकरण: भारत को सौर-पवन ग्रिड एकीकरण में सुधार करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये ताकि रात जैसे कम सौर उत्पादन वाले समय में ऊर्जा का दोहन किया जा सके।
- ट्रांसमिशन इंफ्रास्ट्रक्चर: उन्नत ऊर्जा भंडारण प्रणालियों में निवेश और ट्रांसमिशन इंफ्रास्ट्रक्चर को अपग्रेड करने से पवन ऊर्जा दक्षता अधिकतम होगी।
- दीर्घकालिक विद्युत क्रय समझौते (PPA): डिस्कॉम के साथ दीर्घकालिक PPA सुरक्षित करने से डेवलपर्स के लिये एक स्थिर राजस्व प्रवाह उपलब्ध होगा और पवन ऊर्जा परियोजनाओं में अधिक रुचि उत्पन्न होगी।
- प्रौद्योगिकी उन्नयन: बड़े और अधिक कुशल टर्बाइन, अपतटीय पवन प्रौद्योगिकी और हाइब्रिड सिस्टम जैसे नवाचार भारत की पवन ऊर्जा क्षमता को और बढ़ा सकते हैं।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: पवन ऊर्जा क्षमता में भारत विश्व स्तर पर चौथे स्थान पर है, लेकिन अपनी क्षमता का केवल एक छोटा-सा हिस्सा ही उपयोग करता है। इस क्षेत्र में चुनौतियों से निपटने के लिये किन समाधानों की आवश्यकता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. ‘‘मोमेंटम फॉर चेंज: क्लाइमेट न्यूट्रल नाउ’’ यह पहल किसके द्वारा प्रवर्तित की गई है? (2018) (a) जलवायु परिवर्तन पर अन्तर-सरकारी पैनल उत्तर: (c) प्रश्न: वर्ष, 2015 में पेरिस में UNFCCC बैठक में हुए समझौते के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2016)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये। (a) केवल 1 और 3 उत्तर: (b) प्रश्न: भारतीय अक्षय ऊर्जा विकास एजेंसी लिमिटेड (IREDA) के संदर्भ में, निम्नलिखित में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (2015)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये। (a) केवल 1 उत्तर: (c) मेन्स:प्रश्न: संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (यू.एन.एफ.सी.सी.सी.) के सी.ओ.पी. के 26वें सत्र के प्रमुख परिणामों का वर्णन कीजिये। इस सम्मेलन में भारत द्वारा की गई वचनबद्धताएँ क्या हैं ? (2021) |