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जैव विविधता और पर्यावरण

सामुदायिक अधिकार और वन संरक्षण

  • 15 Nov 2023
  • 20 min read

यह एडिटोरियल 13/11/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Community rights and forest conservation” लेख पर आधारित है। इसमें वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम 2023 के बारे में चर्चा की गई है, जहाँ इसके लक्ष्यों, संबद्ध चुनौतियों और वनों के मूल निवासियों पर इसके परिणामों के संबंध में विशेष रूप से विचार किया गया है।

प्रिलिम्स के लिये:

वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम 2023, शुद्ध शून्य उत्सर्जन, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC), वन अधिनियम 1927, वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC), नियंत्रण रेखा (LOC), प्रतिपूरक वनीकरण, EIA

मेन्स के लिये:

वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम के प्रमुख प्रावधान, वन संरक्षण संशोधन अधिनियम के लाभ, संशोधन से संबंधित प्रमुख मुद्दे, अधिनियम के बेहतर कार्यान्वयन के लिये आगे की राह।

हाल ही में पारित वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 भारत में वन संरक्षण को नियंत्रित करने वाले एक प्रमुख पर्यावरण कानून ‘वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980’ में महत्त्वपूर्ण विधायी परिवर्तन लेकर आया है। हालाँकि, इस पर सीमित ध्यान दिया गया है और वनों एवं उनके निवासियों पर इसके प्रभाव के बारे में बहुत कम चर्चा हुई है। 

संशोधन के प्रमुख प्रावधान क्या हैं? 

  • प्रस्तावना का प्रवेश:
    • संशोधन अधिनियम वन (संरक्षण) अधिनियम में एक उद्देशिका या प्रस्तावना (Preamble) को शामिल करता है।
    • यह प्रस्तावना वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने, वर्ष 2030 तक राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) लक्ष्यों को पूरा करने और भारत के वन एवं वृक्ष आवरण को इसकी भूमि क्षेत्र के एक तिहाई भाग तक विस्तारित करने की देश की प्रतिबद्धता को आधिकारिक तौर पर स्वीकार या चिह्नित करती है।
  • अधिनियम के दायरे में आने वाली भूमि:
    • संशोधन के अनुसार, वन कानून अब विशेष रूप से वन अधिनियम 1927 के तहत वर्गीकृत क्षेत्रों पर और उन क्षेत्रों पर लागू होगा जिन्हें 25 अक्टूबर 1980 को या उसके बाद इस रूप में नामित किया गया था। यह अधिनियम उन वनों पर लागू नहीं होगा जिन्हें 12 दिसंबर 1996 को या उसके बाद गैर-वन उपयोग के लिये रूपांतरित किया गया था।
    • इन संशोधनों का उद्देश्य दर्ज वन भूमि, निजी वन भूमि, वृक्षारोपण आदि पर अधिनियम के अनुप्रयोग को सुव्यवस्थित करना है।
  • भूमि की छूट प्राप्त श्रेणियाँ:
    • विधेयक में वनों के बाहर वनीकरण और वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करने के लिये कुछ छूट का प्रस्ताव किया गया है।
    • उदाहरण के लिये, सड़कों और रेलवे के किनारे स्थित बस्तियों एवं प्रतिष्ठानों के लिये कनेक्टिविटी प्रदान करने हेतु 0.10 हेक्टेयर वन भूमि, सुरक्षा से संबंधित अवसंरचना के लिये 10 हेक्टेयर तक भूमि और वामपंथी उग्रवाद प्रभावित ज़िलों में सार्वजनिक उपयोगिता परियोजनाओं के लिये 5 हेक्टेयर तक वन भूमि प्रस्तावित है। 
    • इन छूटों में अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं, वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC), नियंत्रण रेखा (LoC) आदि के 100 किमी के भीतर क्रियान्वित राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित रणनीतिक परियोजनाएँ शामिल हैं।
  • वन भूमि का पट्टा:
    • अधिनियम के तहत, राज्य सरकार को सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण से रहित किसी भी इकाई को वन भूमि आवंटित करने के लिये केंद्र सरकार की पूर्व-मंज़ूरी की आवश्यकता है।
    • अधिनियम के तहत, यह शर्त सभी इकाइयों पर लागू होती है, जिनमें सरकार के स्वामित्व एवं नियंत्रण वाली इकाइयाँ भी शामिल हैं। इसके लिये यह भी आवश्यक है कि पूर्व अनुमोदन केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित नियमों और शर्तों के अधीन हो।
  • वन भूमि में अनुमत गतिविधियाँ:
    • यह अधिनियम वनों को अनारक्षित (de-reservation) करने या गैर-वन उद्देश्यों के लिये वन भूमि का उपयोग करने को प्रतिबंधित करता है। ऐसे प्रतिबंध केंद्र सरकार की पूर्वानुमति से हटाए जा सकते हैं।
    • अधिनियम कुछ गतिविधियों को निर्दिष्ट करता है जिन्हें गैर-वन उद्देश्यों से बाहर रखा जाएगा, जिसका अर्थ यह है कि ऐसे गैर-वन उद्देश्यों के लिये वन भूमि के उपयोग पर प्रतिबंध लागू नहीं होगा।
    • इन गतिविधियों में वनों और वन्यजीवों के संरक्षण, प्रबंधन एवं विकास से संबंधित कार्य शामिल हैं, जैसे चेक पोस्ट, फायर लाइन या बाड़ का निर्माण और वायरलेस संचार स्थापित करना।
  • केंद्र सरकार की प्रत्यायोजित विधान की शक्ति का विस्तार:
    • संशोधन से पहले, केंद्र सरकार द्वारा प्रत्यायोजित विधान का निर्माण कर सकने की शक्ति केवल नियम बनाने तक ही सीमित थी।
    • अधिनियम के प्रावधानों के उचित प्रवर्तन को सुनिश्चित करने के लिये केंद्र सरकार द्वारा प्रत्यायोजित विधान का निर्माण कर सकने की शक्ति का विस्तार किया गया है और अब इसे किसी भी केंद्रीय सरकारी प्राधिकरण, राज्य सरकारों, संघ क्षेत्रों या उनके द्वारा मान्यता प्राप्त किसी संगठन, इकाई या निकाय को ‘निर्देश’ (directions) जारी करने की शक्ति प्रदान की गई है।

वन संरक्षण संशोधन अधिनियम, 2023 के प्रमुख लाभ क्या हैं?

  • ‘वन’ (Forest) की परिभाषा पर स्पष्टता:
    • संशोधन वन की परिभाषा को स्पष्ट करता है जो ‘डीम्ड फॉरेस्ट’ और विविध व्याख्याओं के संबंध में मौजूद अस्पष्टता को संबोधित करता है।
    • संशोधन अस्पष्टता का समाधान करते हुए केवल अधिसूचित और दर्ज वनों के लिये FCA अनुप्रयोग को स्पष्ट करता है।
    • छूट (जो पहले से ही व्यवहार में है) को अब वैधानिक समर्थन प्राप्त है, जो सार्वजनिक उपयोगिताओं, राष्ट्रीय सुरक्षा परियोजनाओं और नागरिक हितों के लिये स्पष्टता प्रदान करता है।
  • जलवायु परिवर्तन शमन और संरक्षण:
    • इसका उद्देश्य NDCs और कार्बन तटस्थता की देश की राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को प्राप्त करना, अस्पष्टताओं को समाप्त करना एवं विभिन्न भूमियों के संबंध में अधिनियम की प्रयोज्यता के बारे में स्पष्टता लाना, गैर-वन भूमि में वृक्षारोपण को बढ़ावा देना, वनों की उत्पादकता में वृद्धि करना आदि है। 
  • विकास के प्रावधान:
    • संशोधन को गोदावर्मन थिरुमुलपाद मामले की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और निजी भूमि मालिकों, संगठनों एवं व्यक्तियों के विरोध (जो तर्क देते हैं कि वन संरक्षण कानून औद्योगिक प्रगति में बाधा डालते हैं) में प्रासंगिक रूप प्रदान किया गया है।
    • यह अधिनियम कुछ वन क्षेत्रों को कानूनी अधिकार क्षेत्र से हटाकर, विविध उपयोगों की अनुमति देकर (रैखिक परियोजनाओं एवं सुरक्षा अवसंरचना सहित) आर्थिक शोषण की सुविधा प्रदान करेगा।
  • राष्ट्रीय सुरक्षा:
    • अधिनियम कुछ रैखिक अवसंरचना परियोजनाओं (जैसे कि सड़क एवं राजमार्ग) को वन मंज़ूरी की अनुमति लेने से छूट देता है यदि वे राष्ट्रीय सीमा के 100 किमी के भीतर स्थित हैं।
    • इससे सीमावर्ती क्षेत्रों में अवसंरचना के विकास में मदद मिलने की उम्मीद है, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • प्रतिपूरक वनीकरण:
    • यह संशोधन प्रतिपूरक वनीकरण को बढ़ावा देता है, जहाँ निजी संस्थाओं को वनीकरण या पुनर्वनीकरण परियोजनाएँ शुरू करने की अनुमति दी गई है।
  • स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाना:
    • यह विधेयक चिड़ियाघरों की स्थापना, सफारी और इकोटूरिज्म जैसी गतिविधियों को प्रोत्साहित करता है, जिनका स्वामित्व सरकार के पास होगा और इन्हें संरक्षित क्षेत्रों के बाहर अनुमोदित योजनाओं में स्थापित किया जाएगा।
    • ये गतिविधियाँ न केवल वन संरक्षण और वन्यजीव संरक्षण के बारे में जागरूकता बढ़ाती हैं बल्कि स्थानीय समुदायों के लिये आजीविका के अवसर भी पैदा करती हैं और उन्हें समग्र विकास के साथ एकीकृत करती हैं।

संशोधन से जुड़ी प्रमुख समस्याएँ क्या हैं?

  • वनों को पुनः परिभाषित करना:
    • इस अधिनियम ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 1996 के एक आदेश में परिभाषित वन की पहले से मौजूद परिभाषा से विरोधाभास पैदा कर दिया है, जहाँ कहा गया था कि किसी भी सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज वृक्षों की कोई भी पट्टी स्वतः ‘डीम्ड फॉरेस्ट बन जाएगी। 
    • पंजाब स्थित पब्लिक एक्शन कमेटी (PAC) के अनुसार, मौजूदा अधिनियम में इस संशोधन के तहत परिभाषा के संशोधन के कारण भारत के वनों के लगभग 1/5 से 1/4 भाग ने अपनी कानूनी सुरक्षा खो दी है।
  • अवसंरचनात्मक अतिक्रमण:
    • राष्ट्रीय सुरक्षा परियोजनाओं के लिये सीमावर्ती क्षेत्रों के पास भूमि को छूट देने से पूर्वोत्तर राज्यों में वन क्षेत्र और वन्य जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
    • चिड़ियाघरों, पर्यावरण-पर्यटन सुविधाओं एवं टोही सर्वेक्षणों जैसी परियोजनाओं के लिये पूर्ण छूट से वन भूमि और वन्य जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
  • जनजातीय अधिकारों की उपेक्षा:
    • यह संशोधन गैर-वन उद्देश्यों के लिये वनों में परिवर्तन हेतु आदिवासी/जनजातीय ग्राम सभा से पूर्व सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता को हटा देता है।
    • निजी कंपनियों को ईकोटूरिज़्म के लिये वन भूमि का उपयोग करने की अनुमति जनजातीय समुदायों की आजीविका की कीमत पर कॉर्पोरेट हितों को बढ़ावा दे सकती है।
    • बड़े पैमाने पर पर्यटन के कारण स्थानीय संस्कृतियों और परंपराओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
  • ‘टॉप-डाउन ऑथोरिटी’:
    • संशोधनों ने निजी, लाभ-संचालित कंपनियों या फर्मों द्वारा संभावित वन दोहन और केंद्र सरकार के हाथों में अधिक शक्ति को समेकित कर राज्य सरकारों की चिंताओं की उपेक्षा करने के बारे में चिंता उत्पन्न की है।
  • मानव-पशु संघर्ष:
    • यदि वन भूमि पर अवसंरचना विकास की अनुमति दी गई तो मानव-पशु संघर्ष बढ़ जाएगा।
    • यह संशोधन जनजातीय बस्तियों में बढ़ते मानव-पशु संघर्षों को संबोधित नहीं करता है, जो आजीविका और वन्य जीवन दोनों के लिये खतरा पैदा करता है।

क्या हो आगे की राह?

  • हितधारक परामर्श:
    • चिंताओं को संबोधित करने और विविध दृष्टिकोणों को शामिल करने के लिये पर्यावरण विशेषज्ञों, जनजातीय समुदायों, स्थानीय हितधारकों और गैर-सरकारी संगठनों के साथ व्यापक परामर्श में संलग्न हुआ जाए।
    • निर्णय लेने में समावेशिता, स्थानीय भागीदारी और पारदर्शिता पर बल दिया जाए।
  • निर्णय लेने में पारदर्शिता:
    • हितधारकों के बीच भरोसे को बढ़ावा देते हुए वन भूमि उपयोग, छूट और अवसंरचनात्मक परियोजनाओं से संबंधित निर्णय लेने की प्रक्रिया में पारदर्शिता सुनिश्चित करें।
  • आवधिक समीक्षा तंत्र:
    • वनों, जैव विविधता एवं स्थानीय समुदायों पर अधिनियम के प्रभाव का आकलन करने और निष्कर्षों के आधार पर आवश्यक समायोजन करने के लिये एक सुदृढ़ आवधिक समीक्षा तंत्र स्थापित करें।
    • फीडबैक और उभरती परिस्थितियों के आधार पर अधिनियम में संशोधन पर विचार करें, ताकि उभरती पर्यावरणीय चुनौतियों के प्रति समावेशिता एवं प्रतिक्रिया सुनिश्चित हो सके।
  • स्थानीय समुदायों का सशक्तीकरण:
    • स्थानीय समुदायों, विशेषकर जनजातीय समूहों को निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में शामिल कर, उनके पारंपरिक ज्ञान को पहचानकर और वन संसाधनों से समान लाभ सुनिश्चित कर सशक्त बनाएँ।
    • स्वदेशी समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिये कानूनी सुरक्षा उपायों को सुदृढ़ करना, वन भूमि से उनके ऐतिहासिक संबंध को स्वीकार करना और संरक्षण प्रयासों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना।
  • पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA):
    • प्रस्तावित परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभाव का व्यापक आकलन करने के लिये EIA प्रक्रिया को सुदृढ़ करें, जहाँ पारिस्थितिक क्षति को न्यूनतम करते हुए सतत विकास सुनिश्चित हो सके।
  • संघर्ष समाधान तंत्र:
    • अधिनियम से उत्पन्न होने वाले विवादों के समाधान के लिये कुशल संघर्ष समाधान तंत्र स्थापित करना; सभी हितधारकों को चिंताओं को व्यक्त करने और समाधान की मांग कर सकने के लिये एक उचित मंच प्रदान करना।
    • प्रासंगिक अधिकारियों के लिये क्षमता निर्माण में निवेश करें, अधिनियम के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करें, दिशानिर्देशों का पालन करें और सक्षम निर्णय लें।
  • वैज्ञानिक अनुसंधान और निगरानी:
    • सूचित नीति समायोजन के लिये डेटा-संचालित अंतर्दृष्टि का उपयोग करते हुए वन पारिस्थितिकी तंत्र, जैव विविधता और जलवायु लक्ष्यों पर अधिनियम के प्रभाव की निगरानी के लिये वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा देना।
    • अनुकूली प्रबंधन रणनीतियाँ विकसित करें जो अप्रत्याशित चुनौतियों और उभरती पर्यावरणीय परिस्थितियों का जवाब दे सकने में लचीलापन प्रदान करें।

निष्कर्ष

राष्ट्रीय विकास का मार्ग एक सामूहिक अभियान होना चाहिये, जो पर्यावरणीय संवहनीयता के प्रति ऐसी प्रतिबद्धता से चिह्नित हो जो प्रगति की दिशा में लगातार मार्गदर्शन करता हो। वन संरक्षण अधिनियम इस जटिल संतुलन को कायम करने की क्षमता के साक्ष्य के रूप में कार्य करता है, जो एक ऐसे भविष्य का मार्ग प्रशस्त करता है जहाँ एक समृद्ध राष्ट्र एक संपन्न पर्यावरण के साथ सहज रूप से सह-अस्तित्व में रह सकता है।

अभ्यास प्रश्न: वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 से जुड़े लाभों एवं प्रमुख चुनौतियों की चर्चा कीजिये। यह संशोधन एक ऐसे क्रम के संचालन में किस प्रकार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है जहाँ विकास और पर्यावरणीय संवहनीयता राष्ट्रीय प्रगति की दिशा में एक-दूसरे का सक्रिय रूप से समर्थन कर सकती हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)

  1. भारतीय वन अधिनियम, 1927 में हाल में हुए संशोधन के अनुसार, वन निवासियों को वन क्षेत्रों में उगने वाले बाँस को काट गिराने का अधिकार है। 
  2.  अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के अनुसार, बाँस एक गौण वनोपज है। 
  3.  अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006, वन निवासियों को गौण वनोपज के स्वामित्त्व की अनुमति देता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 3       
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (b)


मेन्स

“विभिन्न प्रतियोगी क्षेत्रों और साझेदारों के मध्य नीतिगत विरोधाभासों के परिणामस्वरूप पर्यावरण के ‘संरक्षण तथा उसके निम्नीकरण की रोकथाम’ अपर्याप्त रही है।” सुसंगत उदाहरणों सहित टिप्पणी कीजिये। 

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