इन्फोग्राफिक्स
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
समरक्तता
प्रिलिम्स के लिये:समरक्तता, जेनेटिक रोग, इनब्रीडिंग, सिस्टिक फाइब्रोसिस मेन्स के लिये:समरक्तता से संबंधित लाभ और चुनौतियाँ, स्वास्थ्य |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में किये गए एक अध्ययन में आनुवंशिकी और स्वास्थ्य पर समरक्तता के प्रभावों पर प्रकाश डाला गया है। इस अध्ययन में विश्व भर के समुदायों में रोग की संवेदनशीलता तथा मानवीय लक्षणों के विकास पर समरक्तता के प्रभावों को स्पष्ट किया गया है।
समरक्तता (Consanguinity):
- समरक्तता के अंतर्गत सामाजिक और आनुवंशिक दोनों आयाम मौजूद होते हैं। सामाजिक रूप से इसका अर्थ है चचेरे भाई अथवा बहन जैसे रक्त संबंधियों से विवाह करना, जबकि आनुवंशिक रूप से यह निकट संबंधी व्यक्तियों के बीच विवाह को संदर्भित करता है, इसे अक्सर अंतःप्रजनन कहा जाता है।
- यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसका परिवार और जनसंख्या आनुवंशिकी दोनों पर प्रभाव पड़ता है।
अध्ययन के मुख्य बिंदु:
- विश्व की लगभग 15-20% आबादी में समरक्तता की विशेषता पाई जाती है, इसका प्रचलन एशिया और पश्चिम अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में अधिक है।
- माना जाता है कि मिस्र और इंकास सहित कुछ प्राचीन मानव सभ्यताओं में समरक्तता का अभ्यास किया जाता था।
- आनुवंशिक साक्ष्यों से पता चलता है कि मिस्र के राजा तूतनखामुन का जन्म ऐसे माता-पिता से हुआ था जो आपस में समरक्त संबंध रखते थे।
- भारत रक्तसंबंध अध्ययन के लिये एक समृद्ध स्थान है क्योंकि यहाँ 4,000 से अधिक अंतर्विवाही समूहों या एक ही जाति, जनजाति या कबीले के सदस्य रहते हैं।
- आमतौर पर यह पाया गया कि जिन समुदायों में इस प्रकार के विवाह का प्रचलन है वहाँ सजातीयता के कारण आबादी में मृत्यु दर और पुनरावर्ती आनुवंशिक रोगों की व्यापकता में वृद्धि हुई है।
रक्त-संबंध से संबंधित लाभ और चुनौतियाँ:
- लाभ:
- सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराओं का संरक्षण: कुछ समाजों में परिवार के भीतर विवाह करना एक लंबे समय से चली आ रही परंपरा है जो सांस्कृतिक और सामाजिक मानदंडों को संरक्षित करने में सहायता करती है।
- सामाजिक सुरक्षा जाल: सजातीय संबंध एक अंतर्निहित सामाजिक सुरक्षा जाल प्रदान कर सकते हैं।
- वित्तीय, भावनात्मक या चिकित्सा संकट के समय रिश्तेदारों द्वारा एक-दूसरे की सहायता करने की संभावनाएँ अधिक होती हैं, जिससे बाह्य सामाजिक सेवाओं पर बोझ कम हो जाता है।
- असंगति के न्यूनतम जोखिम: कुछ मामलों में किसी निकट संबंधी से विवाह करने से सांस्कृतिक, धार्मिक या सामाजिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में असंगति का जोखिम कम हो सकता है। इससे विवाह अधिक स्थायी हो सकते हैं।
- पशु और पौधों के प्रजनन कार्यक्रमों में आनुवंशिक सुधार: नियंत्रित प्रजनन सेटिंग्स में पौधों और जीव-जंतुओं में हानिकारक आनुवंशिक लक्षणों को रणनीतिक रूप से समाप्त करने तथा वांछनीय गुणों को बढ़ाने के लिये निकट संबंधित एकल जीव का संसर्ग एक व्यापक रूप से प्रयुक्त की जाने वाली तकनीक है।
- समरक्तता संबंधी चुनौतियाँ:
- आनुवंशिक विकारों का बढ़ता जोखिम: रक्तसंबंध की सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौती सामान्य अप्रभावी जीनों के साझा होने के कारण संतानों में आनुवंशिक विकार विकसित होने का बढ़ता जोखिम है।
- सिस्टिक फाइब्रोसिस असमर्थता जैसी स्थितियाँ निकट संबंधियों की संतानों में अधिक पाई जाती हैं।
- सीमित आनुवंशिक विविधता: निकट संबंधियों से विवाह करने से जनसंख्या में आनुवंशिक विविधता सीमित हो सकती है, जिससे संभावित रूप से बीमारियों और पर्यावरणीय परिवर्तनों के प्रति समुत्थानशीलता न्यून हो सकती है।
- जटिल पारिवारिक गतिशीलता: जब अनेक भूमिकाएँ और संबंध सामने आते हैं तो समरक्तता परिवारों में जटिल पारिवारिक गतिशीलता उत्पन्न कर सकती है।
- समरक्तता से निर्णय लेने और पारिवारिक पदानुक्रम से संबंधित संघर्ष एवं तनाव उत्पन्न हो सकता है।
- व्यक्तिगत स्वायत्तता का संभावित क्षरण: घनिष्ठ रूप से जुड़े समरक्तता समुदायों में, व्यक्तिगत स्वायत्तता का क्षरण हो सकता है, जहाँ विवाह, परिवार नियोजन और अन्य जीवन से संबंधित निर्णयों पर परिवार अथवा समुदाय का अधिक प्रभाव हो सकता है, यह संभावित रूप से व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सीमित करती है।
- घरेलू हिंसा के मामलों में महिलाओं की चुप्पी: समरक्तता संबंधों में पारिवारिक सम्मान बनाए रखने के पारिवारिक और सांस्कृतिक दबाव बनाकर महिलाओं को घरेलू हिंसा की रिपोर्ट करने से हतोत्साहित किया जा सकता है।
- यह चुप्पी दुर्व्यवहार के चक्र को बनाए रख सकती है, जिससे घरेलू हिंसा के मामलों में सहायता लेना या हस्तक्षेप करना मुश्किल हो जाता है।
- आनुवंशिक विकारों का बढ़ता जोखिम: रक्तसंबंध की सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौती सामान्य अप्रभावी जीनों के साझा होने के कारण संतानों में आनुवंशिक विकार विकसित होने का बढ़ता जोखिम है।
आगे की राह
समरक्तता, संस्कृति, आनुवंशिकी और सामाजिक मानदंडों से जुड़ी एक प्रथा है, जिसके लिये एक नाज़ुक संतुलन की आवश्यकता होती है। इसकी चुनौतियों से निपटने के लिये शिक्षा, कानूनी सुरक्षा उपायों और व्यक्तिगत चिकित्सा तथा आनुवंशिक परामर्श जैसी सहायता सेवाओं के माध्यम से सामाजिक व स्वास्थ्य मुद्दों को संबोधित करते हुए सांस्कृतिक मूल्यों का सम्मान करने की आवश्यकता है। सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करते हुए व्यक्तियों को सूचित विकल्प चुनने के लिये सशक्त बनाना भी महत्त्वपूर्ण है।
जैव विविधता और पर्यावरण
ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिये मीथेन शमन
प्रिलिम्स के लिये:मीथेन, अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP), जलवायु और स्वच्छ वायु गठबंधन मेन्स के लिये:मीथेन उत्सर्जन- प्रभाव, कृषि और मीथेन उत्सर्जन, मीथेन उत्सर्जन को नियंत्रित करने हेतु पहलें |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (United Nations Environment Programme- UNEP) एवं UNEP द्वारा गठित जलवायु और स्वच्छ वायु गठबंधन द्वारा संयुक्त रूप से जारी "जीवाश्म ईंधन के दहन से उत्सर्जित होने वाले मीथेन को कम करने की अनिवार्यता (The Imperative of Cutting Methane from Fossil Fuels)" नामक एक नई रिपोर्ट में ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिये मीथेन उत्सर्जन में कमी लाने के महत्त्व पर बल दिया गया है।
रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु:
- मीथेन उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग:
- ग्लोबल वार्मिंग को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिये मीथेन उत्सर्जन में कमी लाना आवश्यक है।
- मीथेन एक अत्यधिक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है, औद्योगिक क्रांति के बाद से वैश्विक स्तर पर कुल ग्लोबल वार्मिंग के लगभग 30% के लिये यह एकल रूप से ज़िम्मेदार है।
- ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिये मीथेन उत्सर्जन में कमी लाने वाले प्रयासों से वर्ष 2050 तक लगभग 0.1°C तापमान वृद्धि को ही नियंत्रित किया जा सकता है।
- ग्लोबल वार्मिंग को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिये मीथेन उत्सर्जन में कमी लाना आवश्यक है।
- मीथेन उत्सर्जन का वर्तमान परिदृश्य:
- विश्व स्तर पर प्रतिवर्ष लगभग 580 मिलियन टन मीथेन उत्सर्जित होता है।
- इस उत्सर्जन में मानवीय गतिविधियों का योगदान 60% है।
- वर्ष 2022 में केवल जीवाश्म ईंधनों के उपयोग से लगभग 120 मिलियन टन मीथेन उत्सर्जित हुआ।
- उत्सर्जन की वर्तमान गति एवं तीव्रता को देखते हुए वर्ष 2020 और 2030 के बीच मानवजनित मीथेन उत्सर्जन में 13% तक की वृद्धि हो सकती है।
- विश्व स्तर पर प्रतिवर्ष लगभग 580 मिलियन टन मीथेन उत्सर्जित होता है।
- लक्षित रूप से मीथेन उत्सर्जन में कमी लाने की आवश्यकता:
- जीवाश्म ईंधन के उपयोग में भारी कटौती के बावजूद, मीथेन उत्सर्जन की समस्या का समाधान नहीं करने से वर्ष 2050 तक वैश्विक तापमान में 1.6 डिग्री सेल्सियस से अधिक की वृद्धि हो सकती है।
- डीकार्बोनाइज़ेशन प्रयासों के साथ ही हमें मीथेन उत्सर्जन में लक्षित रूप से कमी लाने का प्रयास करना चाहिये।
- मौजूदा प्रौद्योगिकियों के उपयोग से वर्ष 2030 तक जीवाश्म ईंधन जनित 80 मिलियन टन से अधिक वार्षिक मीथेन उत्सर्जन को नियंत्रित किया जा सकता है।
- अनुमान है कि इस तरह के समाधान लागत प्रभावी होंगे।
- नेट ज़ीरो परिदृश्य में तेल और गैस क्षेत्र में सभी मीथेन कटौती उपायों के लिये वर्ष 2030 तक लगभग 75 बिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता है।
- ऊर्जा क्षेत्र से मीथेन उत्सर्जन को कम करने के लिये नियमित वेंटिंग व फ्लेरिंग को खत्म करने और लीक की मरम्मत करने जैसी कार्रवाइयाँ आवश्यक हैं तथा इसके लिये संगठनों ने उचित नियामक ढाँचे का आह्वान किया है।
- अधिकांश उपायों को उद्योग द्वारा ही वित्त पोषित किया जाना चाहिये, लेकिन कई निम्न और मध्यम आय वाले देशों को कुछ हस्तक्षेपों के लिये पूंजी तक पहुँच बनाने में बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है, जिन्हें रियायती वित्तपोषण के बिना लागू नहीं किया जा सकता है।
- आर्थिक एवं स्वास्थ्य लाभ:
- मीथेन ज़मीनी स्तर पर ओज़ोन प्रदूषण का प्राथमिक कारण है और इसके शमन प्रयासों से "वर्ष 2050 तक लगभग 10 लाख असामयिक मौतों को रोकने में मदद मिलेगी।
- मीथेन शमन लक्ष्यों को प्राप्त करने से गेहूँ, चावल, सोया और मक्का (मकई) की 95 मिलियन टन फसल के नुकसान को रोका जा सकेगा।
- ये बचत वर्ष 2021 में अफ्रीका में उत्पादित गेहूँ, चावल, सोया और मक्का की मात्रा के लगभग 60% के बराबर है।
- फसलों, श्रम एवं वानिकी के ऐसे नुकसान से बचने से "वर्ष 2020 और 2050 के दौरान कुल प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ 260 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक होगा"।
- विनियामक ढाँचे:
- प्रभावी मीथेन शमन के लिये उचित नियामक ढाँचे महत्त्वपूर्ण हैं।
मीथेन:
- परिचय:
- मीथेन सबसे सरल हाइड्रोकार्बन है, जिसमें एक कार्बन परमाणु और चार हाइड्रोजन परमाणु (CH4) होते हैं।
- यह ज्वलनशील है और विश्व में ईंधन के रूप में इसका उपयोग किया जाता है।
- मीथेन एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस (GHG) है, जिसका वायुमंडलीय जीवनकाल लगभग एक दशक का होता है और यह जलवायु को सैकड़ों वर्षों तक प्रभावित करती है।
- वायुमंडल में अपने जीवनकाल के प्रारंभिक 20 वर्षों में मीथेन की वार्मिंग क्षमता कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 80 गुना अधिक है।
- मीथेन के सामान्य स्रोत तेल एवं प्राकृतिक गैस प्रणालियाँ, कृषि गतिविधियाँ, कोयला खनन और अपशिष्ट हैं।
- मीथेन सबसे सरल हाइड्रोकार्बन है, जिसमें एक कार्बन परमाणु और चार हाइड्रोजन परमाणु (CH4) होते हैं।
- मीथेन उत्सर्जन से निपटने हेतु पहल:
- अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी:
- यह वर्ष 1974 में पेरिस, फ्राँस में स्थापित एक स्वायत्त अंतर सरकारी संगठन है।
- यह मुख्य रूप से अपनी ऊर्जा नीतियों पर ध्यान केंद्रित करता है जिसमें आर्थिक विकास, ऊर्जा सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण शामिल हैं।
- मिशन: अपने सदस्य देशों और अन्य देशों के लिये विश्वसनीय, सस्ती एवं स्वच्छ ऊर्जा सुनिश्चित करना।
- प्रमुख रिपोर्ट: विश्व ऊर्जा आउटलुक रिपोर्ट, विश्व ऊर्जा निवेश रिपोर्ट, और भारत ऊर्जा आउटलुक रिपोर्ट।
- भारत वर्ष 2017 में IEA में शामिल हुआ।
- संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम:
- UNEP एक अग्रणी वैश्विक पर्यावरण प्राधिकरण है जिसकी स्थापना 5 जून, 1972 को हुई थी।
- यह वैश्विक पर्यावरण एजेंडा निर्धारित करता है, संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के भीतर सतत् विकास को बढ़ावा देता है और वैश्विक पर्यावरण संरक्षण के लिये आधिकारिक वकालत करता है।
- प्रमुख रिपोर्ट्स: उत्सर्जन गैप रिपोर्ट, अनुकूलन गैप रिपोर्ट, वैश्विक पर्यावरण आउटलुक, फ्रंटियर्स, इन्वेस्ट इन हेल्दी प्लेनेट।
- प्रमुख अभियान: बीट पॉल्यूशन, UN75, विश्व पर्यावरण दिवस, वाइल्ड फॉर लाइफ।
- मुख्यालय: नैरोबी, केन्या।
- UNEP अपने 193 सदस्य देशों को सतत् विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने और प्रकृति के साथ सद्भाव से रहने का समर्थन करता है।
- भारत UNEP का सदस्य है।
- UNEP-संयोजित जलवायु एवं स्वच्छ वायु गठबंधन (Convened Climate and Clean Air Coalition- CCAC)
- यह सरकारों, अंतर-सरकारी संगठनों, व्यवसायों, वैज्ञानिक संस्थानों और नागरिक-समाज संगठनों की एक स्वैच्छिक वैश्विक साझेदारी है जो अल्पकालिक जलवायु प्रदूषकों (SLCP) को कम करने के लिये कार्य कर रही है, जिनका जलवायु परिवर्तन तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
- भारत वर्ष 2019 से CCAC का भागीदार रहा है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. ‘मीथेन हाइड्रेट’ के निक्षेपों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-से सही हैं? (2019)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न. "वहनीय (ऐफोर्डेबल), विश्वसनीय, धारणीय तथा आधुनिक ऊर्जा तक पहुँच सधारणीय (सस्टेनबल) विकास लक्ष्यों (एस.डी.जी.) को प्राप्त करने के लिये अनिवार्य है।" भारत में इस संबंध में हुई प्रगति पर टिप्पणी कीजिये। (2018) |
जैव विविधता और पर्यावरण
पराली दहन से निपटने हेतु जैव-अपघटक
प्रिलिम्स के लिये:पराली दहन से निपटने हेतु जैव-अपघटक, पराली दहन, वायु प्रदूषण, दक्षिण-पश्चिम मानसून, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR), वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (CAQM) मेन्स के लिये:पराली दहन से निपटने हेतु जैव-अपघटक, किसानों की सहायता के लिये ई-प्रौद्योगिकी, संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में दिल्ली सरकार ने पराली दहन से निपटने हेतु खेतों में जैव-अपघटकों का छिड़काव शुरू किया है। हालाँकि किसानों के अनुसार, माइक्रोबियल विलयन की प्रभावशीलता काफी हद तक इसके उपयोग के समय पर निर्भर करती है।
- हालाँकि दिल्ली में प्रदूषण के स्तर में पराली जलाने का विशेष योगदान नहीं है तथा हाल के वर्षों में इसकी न्यूनतम संख्या दर्ज़ की गई है।
पराली दहन की समस्या:
- परिचय:
- पराली दहन दक्षिण पश्चिम मानसून की वापसी के साथ सितंबर के आखिरी सप्ताह से नवंबर तक गेहूँ की बुआई हेतु धान की फसल के अवशेषों को खेत से साफ करने की एक विधि है।
- यह आमतौर पर उन क्षेत्रों में आवश्यक होता है जहाँ संयुक्त कटाई विधि का उपयोग किया जाता है जो फसल के अवशेष छोड़ देता है।
- यह पूरे उत्तर पश्चिम भारत में अक्तूबर और नवंबर के माह में की जाने वाली सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन मुख्य रूप से यह पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश में की जाती है।
- पराली दहन के प्रभाव:
- प्रदूषण: वायुमंडल में बड़ी मात्रा में विषैले प्रदूषक उत्सर्जित होते हैं जिनमें मीथेन (CH4), कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOC) और कार्सिनोजेनिक पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसी हानिकारक गैसें होती हैं।
- ये प्रदूषक वातावरण में फैल जाते हैं तथा भौतिक और रासायनिक परिवर्तन होने के बाद ये अंततः धुंध की मोटी परत का रूप धारण करके मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
- मृदा उर्वरता: भूमि पर भूसी/पराली जलाने से मृदा के पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं, जिससे मृदा की उर्वरता क्षीण हो जाती है।
- ऊष्मा प्रवेश: पराली जलाने से उत्पन्न उष्मा के मृदा में प्रवेश के कारण आवश्यक नमी और उपयोगी सूक्ष्मजीव नष्ट हो जाते हैं।
- प्रदूषण: वायुमंडल में बड़ी मात्रा में विषैले प्रदूषक उत्सर्जित होते हैं जिनमें मीथेन (CH4), कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOC) और कार्सिनोजेनिक पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसी हानिकारक गैसें होती हैं।
- पराली दहन के विकल्प:
- पराली का स्व-स्थानिक उपचार: उदाहरण के लिये, ज़ीरो-टिलर मशीन द्वारा फसल अवशेष प्रबंधन और जैव-अपघटकों का उपयोग।
- गैर-स्थानिक(ऑफ-साइट) उपचार: उदाहरण के लिये, पशु चारे के रूप में चावल के भूसे का उपयोग।
- प्रौद्योगिकी का उपयोग: उदाहरण के लिये टर्बो हैप्पी सीडर (THS) मशीन, जो पराली को उखाड़ सकती है और साफ किये गए क्षेत्र में बीजों की बुवाई भी कर सकती है।
पराली दहन से निपटने हेतु जैव-अपघटक:
- परिचय:
- जैव-अपघटकों को फसल अवशेषों की प्राकृतिक अपघटन प्रक्रिया को तेज़ करने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
- यह आम तौर पर कवक, बैक्टीरिया और एंज़ाइम जैसे विभिन्न सूक्ष्मजीवों का मिश्रण होता है जो पादप सामग्री के कार्बनिक पदार्थों में अपघटन के लिये मिलकर काम करते हैं तथा मृदा को समृद्ध करते हैं।
- उदाहरण:
- बैक्टीरिया: बैसिलस, क्लॉस्ट्रिडियम, ई. कोलाई, साल्मोनेला
- कवक: मशरूम, फफूँद, यीस्ट
- केंचुआ
- कीट: भृंग, मक्खियाँ, चींटियाँ, कीड़े
- आर्थ्रोपोड्स: मिलिपेडेस, दीमक (वुडलाइस)
- पूसा जैव-अपघटक:
- यह एक कवक-आधारित तरल विलयन है जो पराली को इतना गला/सड़ा सकता है कि इसे मिट्टी के साथ मिलाकर खाद के रूप में आसानी से उपयोग किया जा सके।
- इसमें कवक 30-32 डिग्री सेल्सियस पर पनपता है, जो कि धान की कटाई और गेहूँ की बुवाई के लिये आवश्यक प्रचलित तापमान है।
- यह धान के भूसे में सेल्यूलोज़, लिग्निन और पेक्टिन को पचाने योग्य एंज़ाइम का उत्पादन करता है।
- यह भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (Indian Council of Agricultural Research- ICAR) द्वारा विकसित किया गया है और दिल्ली के पूसा स्थित ICAR परिसर के नाम पर रखा गया है।
- यह फसल अवशेष, पशु अपशिष्ट, गोबर और अन्य कचरे को तेज़ी से जैविक खाद में परिवर्तित करता है।
- यह एक कवक-आधारित तरल विलयन है जो पराली को इतना गला/सड़ा सकता है कि इसे मिट्टी के साथ मिलाकर खाद के रूप में आसानी से उपयोग किया जा सके।
- लाभ:
- यह जैव-अपघटक मृदा की उर्वरता और उत्पादकता में सुधार करता है क्योंकि पराली अन्य फसलों के लिये खाद के रूप में उपयोगी होती है, साथ ही इससे भविष्य में फसलों के लिये उर्वरक की आवश्यकता कम होती है।
- यह पराली के सही उपयोग की एक कुशल, प्रभावी, सस्ती, साध्य एवं व्यावहारिक तकनीक है।
- यह पर्यावरण के अनुकूल और पर्यावरण की दृष्टि से उपयोगी तकनीक है तथा स्वच्छ भारत मिशन के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होगी।
- प्रभावकारिता:
- माइक्रोबियल विलयन का उद्देश्य फसल के बाद खेत में बचे धान के भूसे को विघटित करना है। कटाई के बाद इसका छिड़काव करना होगा, मिट्टी में जुताई करनी होगी और 20-25 दिनों की अवधि में भूसे को नष्ट करने के लिये हल्की सिंचाई करनी होगी।
- किसानों ने डीकंपोजर की प्रभावशीलता को अधिकतम करने के लिये फसल की अवधि के साथ छिड़काव प्रक्रिया को संरेखित करने के महत्त्व पर ज़ोर दिया है।
- फसल चक्र, श्रम उपलब्धता और उगाई गई फसल के प्रकार जैसे कारकों का किसानों के लिये डीकंपोज़र की प्रासंगिकता एवं उपयोगिता पर प्रभाव पड़ता है।
- माइक्रोबियल विलयन की प्रभावशीलता मौसम की स्थिति पर भी निर्भर करती है, सितंबर और अक्तूबर में कम बारिश वाले महीने इसके अनुप्रयोग के लिये अनुकूल होते है।
पराली दहन का निपटान करने के लिये अन्य पहलें:
- पंजाब सरकार, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (Government of National Capital Territory of Delhi- GNCTD) ने पराली दहन होने वाले वायु प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिये वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (Commission for Air Quality Management- CAQM) द्वारा तैयार ढाँचे के आधार पर विस्तृत निगरानी योग्य कार्य योजनाएँ विकसित की हैं।
आगे की राह
- किसानों को ज़ीरो टिलेज (खेत को जोते बिना बुआई का काम), सीधी बुआई और फसल विविधीकरण जैसी वैकल्पिक कृषि पद्धतियों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये। ये प्रथाएँ फसल अवशेषों के उत्पादन को कम कर सकती हैं तथा पराली जलाने की आवश्यकता को भी कम कर सकती हैं।
- कंबाइन हार्वेस्टर जैसी आधुनिक कटाई मशीनरी के उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिये जिससे कटाई के बाद कम पराली निकलती है। इससे पराली जलाने की आवश्यकता में काफी कमी आ सकती है।
- किसानों को पराली जलाने के हानिकारक प्रभावों और उपलब्ध विकल्पों के बारे में शिक्षित करने के लिये जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिये। जानकारी को प्रभावी ढंग से प्रसारित करने के लिये कृषक समूहों, कृषि विश्वविद्यालयों और स्थानीय समुदायों के साथ जुड़ाव को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न. मुंबई, दिल्ली और कोलकाता देश के तीन विराट नगर हैं, परंतु दिल्ली में वायु प्रदूषण, अन्य दो नगरों की तुलना में कहीं अधिक गंभीर समस्या है। इसका क्या कारण है? (2015) |
सामाजिक न्याय
प्रजनन स्वायत्तता और अजन्मे बच्चे के अधिकारों के बीच संतुलन
प्रिलिम्स के लिये:भारत का सर्वोच्च न्यायालय, मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (MTP) अधिनियम, 1971, भारत में गर्भपात कानून, प्रजनन अधिकार मेन्स के लिये:भारत में गर्भपात से संबंधित कानूनी प्रावधान, महिलाओं से संबंधित प्रमुख मुद्दे |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (MTP) अधिनियम, 1971 के प्रावधानों के तहत एक विवाहित महिला के लिये 26 सप्ताह की गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया।
मामला:
- उक्त मामला गर्भावस्था के 26वें सप्ताह से गुजर रही एक 27 वर्षीय विवाहित महिला से संबंधित था और वह अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने के लिये कानूनी अनुमति की मांग कर रही थी।
- महिला ने अपनी पहले से मौजूद बीमारियों और प्रसवोत्तर अवसाद के अनुभवों का हवाला देते हुए दूसरे बच्चे को पालने, जन्म देने अथवा पालन-पोषण करने में अपनी शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक, वित्तीय एवं चिकित्सीय अक्षमता का दावा किया।
- महिला ने अपने मामले की पैरवी के लिये मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) अधिनियम 1971 का सहारा लेने की मांग की थी।
न्यायालय का फैसला:
- सफल गर्भधारण होने और महिला के जीवन पर कोई जोखिम न होने की स्थिति में न्यायालय ने गर्भपात कराने की अनुमति प्रदान करने के प्रति असहमति जताई है।
- यह निर्णय MTP अधिनियम, 1971 की धारा 5 की व्याख्या पर आधारित है, जो केवल तभी गर्भपात की अनुमति देता है जब महिला का जीवन और स्वास्थ्य तत्काल रूप से खतरे में हो।
- भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की अगुवाई वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने इस बात पर बल दिया कि कोई महिला गर्भपात के लिये "पूर्ण, सर्वोपरि अधिकार" का दावा नहीं कर सकती है, विशेषकर जब चिकित्सा रिपोर्ट यह पुष्टि करती है कि गर्भावस्था उसके जीवन के लिये तात्कालिक समस्या उत्पन्न नहीं करती है।
- CJI ने MTP अधिनियम, 1971 की धारा 5 में 'जीवन' शब्द को संविधान के अनुच्छेद 21 में इसके व्यापक उपयोग से अलग किया और जीवन तथा मृत्यु की स्थितियों में इसके अनुप्रयोग पर बल दिया।
- अनुच्छेद 21 किसी व्यक्ति के गरिमापूर्ण और सार्थक जीवन के मौलिक अधिकार की रक्षा करता है।
- CJI ने MTP अधिनियम, 1971 की धारा 5 में 'जीवन' शब्द को संविधान के अनुच्छेद 21 में इसके व्यापक उपयोग से अलग किया और जीवन तथा मृत्यु की स्थितियों में इसके अनुप्रयोग पर बल दिया।
सरकार का रुख:
- सरकार का तर्क है कि महिला की प्रजनन स्वायत्तता उसके अजन्मे बच्चे के अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकती है।
- यह मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (संशोधन) अधिनियम, 2021 को संदर्भित करता है, जिसने महत्त्वपूर्ण भ्रूण असामान्यताओं के मामलों में गर्भपात की समय सीमा को 24 सप्ताह तक बढ़ा दिया है।
- उनका मानना है कि एक बार जब एक व्यवहार्य शिशु अस्तित्व में आ जाए, तो मिलने वाली राहत एकतरफा नहीं होनी चाहिये और महिला की शारीरिक स्वायत्तता का अधिकार अधिनियम के तहत प्रदान किये जाने वाले अधिकारों से बाहर नहीं जाना चाहिये।
- तर्क यह है कि महिला के पसंद के मौलिक अधिकार में कटौती की जा सकती है।
निहितार्थ और चुनौतियाँ:
- यह मामला गर्भावस्था के अंतिम चरण में भी महिलाओं के प्रजनन अधिकारों और गर्भपात से जुड़े नैतिक विचारों के विषय में मौलिक प्रश्न उठाता है।
- कानूनी विशेषज्ञों और अधिवक्ताओं के इस बात पर मतभेद हैं कि क्या गर्भावस्था को समाप्त करने के पूर्ण अधिकार का प्रावधान होना चाहिये, विशेषकर जब कोई असामान्यताएँ न हों।
- यह जटिल कानूनी और नैतिक दुविधा भारत में प्रजनन अधिकारों पर अग्रिम चर्चा तथा स्पष्टता की आवश्यकता पर प्रकाश डालती है।
- यह मामला भारत में महिलाओं के समक्ष कानूनी गर्भपात सेवाओं तक पहुँचने में आने वाली चुनौतियों पर भी प्रकाश डालता है।
भारत में गर्भपात से संबंधित कानूनी प्रावधान:
- 1960 के दशक तक भारत में गर्भपात अवैध था। विनियमों की आवश्यकता की जाँच करने के लिये वर्ष 1960 के दशक के मध्य में शांतिलाल शाह समिति का गठन किया गया था। परिणामस्वरूप, वर्ष 1971 का मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) अधिनियम पारित किया गया, जिससे सुरक्षित गर्भपात को वैध बनाया गया और महिलाओं के स्वास्थ्य की रक्षा की गई।
- वर्ष 1971 का MTP अधिनियम, लाइसेंस प्राप्त चिकित्सा पेशेवरों को कानून के तहत प्रदान की गई विशिष्ट पूर्व निर्धारित स्थितियों में गर्भपात करने की अनुमति देता है।
- MTP अधिनियम में वर्ष 2021 में संशोधन किया गया था ताकि कुछ श्रेणियों की महिलाओं, जैसे कि बलात्कार पीड़िताओं, नाबालिगों, मानसिक रूप से बीमार महिलाओं आदि को गर्भधारण के 24 सप्ताह तक गर्भपात कराने की अनुमति दी जा सके, इसे पूर्व की तुलना में 20 सप्ताह से अधिक बढ़ाया गया था।
- यह राज्य-स्तरीय मेडिकल बोर्ड का गठन करता है जो यह तय करता कि भ्रूण में पर्याप्त असामान्यताओं के मामलों में 24 सप्ताह के बाद गर्भावस्था को समाप्त किया जा सकता है या नहीं।
- MTP अधिनियम सुरक्षित गर्भपात सेवाओं तक पहुँचने में महिलाओं की गोपनीयता, निजता और गरिमा की सुरक्षा भी प्रदान करता है।
- गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान तकनीक (PCPNDT) अधिनियम, 1994, यह लिंग-चयनात्मक गर्भपात पर रोक लगाता है तथा भ्रूण में आनुवंशिक या गुणसूत्र असामान्यताओं का पता लगाने हेतु प्रसवपूर्व निदान तकनीकों के उपयोग को नियंत्रित करता है।
- भारत का संविधान अनुच्छेद 21 के तहत सभी नागरिकों को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। इस अधिकार की व्याख्या भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा महिलाओं के लिये प्रजनन विकल्प एवं स्वायत्तता के अधिकार को शामिल करने हेतु की गई है।
निष्कर्ष:
- यह मामला सभी हितधारकों को शामिल करते हुए महिलाओं के प्रजनन अधिकारों और अजन्मे बच्चों की सुरक्षा के बीच संवेदनशील संतुलन की आवश्यकता को रेखांकित करता है। यह महिलाओं की गरिमा और स्वायत्तता का सम्मान करते हुए इन जटिल नैतिक चुनौतियों का समाधान करने हेतु खुले संवाद तथा कानूनी ढाँचे को बनाए रखने के निरंतर महत्त्व पर ज़ोर देता है।
जैव विविधता और पर्यावरण
ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम
प्रिलिम्स के लिये:ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम, LiFE अभियान, कार्बन क्रेडिट, क्योटो प्रोटोकॉल, सॉवरेन ग्रीन बॉण्ड, ग्रीन एनर्जी कॉरिडोर मेन्स के लिये:ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम के तहत कवर की गई गतिविधियाँ, ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम से संबंधित चिंताएँ |
स्रोत: द हिंदू-बिज़नेस लाइन
चर्चा में क्यों?
सरकार ने हाल ही में एक नवीन और स्वैच्छिक ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम का शुभारंभ किया जो व्यक्तियों और संस्थाओं को उनके सकारात्मक पर्यावरणीय योगदान के लिये पुरस्कृत तथा प्रोत्साहित करने हेतु डिज़ाइन किया गया है।
- इसके प्रतिभागी पर्यावरणीय धारणीयता को बढ़ावा देने वाली विभिन्न गतिविधियों के लिये ग्रीन क्रेडिट अर्जित कर सकते हैं।
ग्रीन क्रेडिट:
- परिचय:
- ग्रीन क्रेडिट, पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव डालने वाली गतिविधियों में संलग्न व्यक्तियों और संस्थाओं को प्रदान की जाने वाली प्रोत्साहन की एक इकाई को संदर्भित करता है।
- यह पर्यावरण संरक्षण और सतत् प्रथाओं में योगदान देने के लिये विभिन्न हितधारकों को प्रोत्साहित करने हेतु सरकार द्वारा शुरू किया गया एक स्वैच्छिक कार्यक्रम है।
- यह कार्यक्रम व्यापक 'LiFE' अभियान (पर्यावरण के लिये जीवनशैली) का हिस्सा है और यह स्वैच्छिक पर्यावरण-अनुकूल कार्यों को प्रोत्साहित एवं पुरस्कृत करता है।
- ग्रीन क्रेडिट, पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव डालने वाली गतिविधियों में संलग्न व्यक्तियों और संस्थाओं को प्रदान की जाने वाली प्रोत्साहन की एक इकाई को संदर्भित करता है।
- शामिल गतिविधियाँ:
- ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम में पर्यावरणीय धारणीयता को बढ़ाने के उद्देश्य से आठ प्रमुख प्रकार की गतिविधियाँ शामिल हैं:
- वृक्षारोपण: हरित आवरण में वृद्धि करने और वनोन्मूलन की समस्या का निपटान करने के लिये पेड़ लगाना।
- जल प्रबंधन: जल संसाधनों के कुशलतापूर्वक प्रबंधन और संरक्षण के लिये रणनीतियों को लागू करना।
- सतत् कृषि: पर्यावरण-अनुकूल और धारणीय कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना।
- अपशिष्ट प्रबंधन: पर्यावरण प्रदूषण को कम करने के लिये प्रभावी अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली लागू करना।
- वायु प्रदूषण में कमी लाना: इस पहल का उद्देश्य वायु प्रदूषण को कम करना तथा वायु गुणवत्ता में सुधार करना है।
- मैंग्रोव संरक्षण और पुनर्स्थापना: पारिस्थितिक संतुलन के लिये मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा और पुनर्स्थापना।
- ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम में पर्यावरणीय धारणीयता को बढ़ाने के उद्देश्य से आठ प्रमुख प्रकार की गतिविधियाँ शामिल हैं:
- ग्रीन क्रेडिट अर्निंग और गणना:
- ग्रीन क्रेडिट अर्जित करने के लिये प्रतिभागियों को एक समर्पित वेबसाइट के माध्यम से अपनी पर्यावरणीय गतिविधियों को पंजीकृत करना होगा। इसके बाद ये गतिविधियाँ एक नामित एजेंसी द्वारा सत्यापन के अधीन होंगी।
- एजेंसी की रिपोर्ट के आधार पर प्रशासक आवेदक को ग्रीन क्रेडिट का प्रमाण पत्र प्रदान करेगा।
- ग्रीन क्रेडिट की गणना वांछित पर्यावरणीय परिणामों को प्राप्त करने के लिये संसाधनों की आवश्यकता, पैमाने, दायरे, आकार और अन्य प्रासंगिक मापदंडों जैसे कारकों द्वारा निर्धारित की जाती है।
- ग्रीन क्रेडिट अर्जित करने के लिये प्रतिभागियों को एक समर्पित वेबसाइट के माध्यम से अपनी पर्यावरणीय गतिविधियों को पंजीकृत करना होगा। इसके बाद ये गतिविधियाँ एक नामित एजेंसी द्वारा सत्यापन के अधीन होंगी।
- ग्रीन क्रेडिट रजिस्ट्री और ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म:
- इस कार्यक्रम का एक महत्त्वपूर्ण घटक ग्रीन क्रेडिट रजिस्ट्री की स्थापना है, जो अर्जित क्रेडिट को ट्रैक और प्रबंधित करने में सहायता करेगा।
- इसके अतिरिक्त प्रशासक घरेलू बाज़ार में ग्रीन क्रेडिट्स के व्यापार को सुनिश्चित करने के लिये एक ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म का निर्माण करेगा और उसे बनाए रखेगा।
- कार्बन क्रेडिट से स्वतंत्रता:
- यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना, 2023 के तहत प्रदान किये गए कार्बन क्रेडिट से स्वतंत्र रूप से संचालित तथा वर्ष 2001 के ऊर्जा संरक्षण अधिनियम द्वारा शासित होता है।
- ग्रीन क्रेडिट उत्पन्न करने वाली पर्यावरणीय गतिविधि से जलवायु संबंधी लाभ हो सकते हैं, जैसे- कार्बन उत्सर्जन को कम करना या हटाना, जिससे संभावित रूप से ग्रीन क्रेडिट के अलावा कार्बन क्रेडिट का अधिग्रहण हो सकता है।
नोट: कार्बन क्रेडिट विनिमय की एक इकाई है जिसका उपयोग ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की भरपाई के लिये किया जा सकता है। एक कार्बन क्रेडिट वायुमंडल से निकाले गए एक मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड या समकक्ष ग्रीनहाउस गैसों के बराबर है।
- कार्बन क्रेडिट की अवधारणा क्योटो प्रोटोकॉल से उत्पन्न हुई।
ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम के संबंध में चिंताएँ:
- सत्यापन और वैधता की जटिलता: पर्यावरण-अनुकूल कार्यों को सत्यापित और मान्य करने की प्रक्रिया जटिल हो सकती है तथा इन प्रक्रियाओं में अधिक समय भी लग सकता है।
- प्रतिभागियों और नियामक निकायों दोनों पर प्रशासनिक दबाव जैसी चिंताएँ बनी हुई हैं।
- ग्रीनवॉशिंग का जोखिम: एक जोखिम यह है कि कुछ प्रतिभागी ग्रीनवॉशिंग में संलग्न हो सकते हैं, जहाँ वे पर्यावरण संरक्षण में वास्तविक योगदान दिये बिना ग्रीन क्रेडिट अर्जित करने के लिये पर्यावरण-अनुकूल गतिविधियों का झूठा दावा करते हैं।
- कार्बन क्रेडिट के साथ संगतता: इस कार्यक्रम का उद्देश्य कार्बन क्रेडिट से स्वतंत्र होना है, जो दो प्रकार के पर्यावरणीय क्रेडिट के बीच संभावित ओवरलैप और मूल्यांकन की जटिलता के बारे में चिंता पैदा करता है।
- क्षेत्रीय अंतर के लिये लेखांकन: कार्यक्रम को पर्यावरणीय प्रभाव के चलते क्षेत्रीय विविधताओं को ध्यान में रखने में कठिनाई हो सकती है, जिससे विविध भौगोलिक क्षेत्रों के लिये समान क्रेडिट मूल्य स्थापित करना चुनौतीपूर्ण हो जाएगा।
हरित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिये अन्य सरकारी पहल:
निष्कर्ष:
- ग्रीन क्रेडिट तंत्र को आगे बढ़ाने के लिये एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो दीर्घकालिक स्थिरता और सार्वजनिक जागरूकता को बढ़ावा देते हुए मानकीकरण, पारदर्शिता, क्षेत्रीय अनुकूलन तथा नियामक निरीक्षण पर ध्यान केंद्रित करता हो। ऐसा करने से कार्यक्रम SDG 12 (ज़िम्मेदार उपभोग और उत्पादन), SDG 13 (जलवायु कार्रवाई) तथा SDG 15 (भूमि पर जीवन) सहित संयुक्त राष्ट्र सतत् विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में योगदान दे सकता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. कार्बन क्रेडिट की अवधारणा निम्नलिखित में से किससे उत्पन्न हुई है? (2009) (a) पृथ्वी शिखर सम्मेलन, रियो डी जनेरियो उत्तर: (b) प्रश्न. "कार्बन क्रेडिट" के संबंध में निम्नलिखित कथनों में से कौन सा सही नहीं है? (2011) (a) क्योटो प्रोटोकॉल के साथ कार्बन क्रेडिट सिस्टम की पुष्टि की गई थी। उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न. क्या कार्बन क्रेडिट के मूल्य में भारी गिरावट के बावजूद UNFCCC के तहत स्थापित कार्बन क्रेडिट और स्वच्छ विकास तंत्र की खोज को बनाए रखा जाना चाहिये? आर्थिक विकास के लिये भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं के संबंध में चर्चा कीजिये। (2014) प्रश्न. ग्लोबल वार्मिंग पर चर्चा कीजिये और वैश्विक जलवायु पर इसके प्रभावों का उल्लेख कीजिये। क्योटो प्रोटोकॉल, 1997 के आलोक में ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनने वाली ग्रीनहाउस गैसों के स्तर को कम करने के लिये नियंत्रण उपायों की व्याख्या कीजिये। (2022) |
भारतीय समाज
भारत में समलैंगिक विवाह
प्रिलिम्स के लिये:समलैंगिक विवाह, धारा 377, भारतीय दंड संहिता (IPC), समलैंगिकता, LGBTQ समुदाय, सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, संविधान पीठ मेन्स के लिये:समलैंगिक विवाह को वैध बनाने की याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का सामाजिक ताने-बाने और भारतीय समाज की प्रगति पर प्रभाव |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिक विवाह को वैध बनाने की याचिकाओं को खारिज़ करते हुए अपना लंबे समय से प्रतीक्षित निर्णय सुनाया है और इस मुद्दे की पूरी तरह से जाँच करने के लिये विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के प्रावधानों पर गहनता से विचार किया है, जिनका समलैंगिकता के साथ अभिसरण एवं अंतर्संबंध है।
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी:
- संवैधानिक वैधता के विरुद्ध:
- भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में भारत के सर्वोच्च न्यायालय की पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने समलैंगिक विवाह को संवैधानिक वैधता की अनुमति देने के खिलाफ 3:2 से मतदान किया।
- संसद का डोमेन:
- CJI ने अपनी राय में निष्कर्ष दिया कि न्यायालय SMA 1954 के दायरे में समलैंगिक सदस्यों को शामिल करने के लिये विशेष विवाह अधिनियम (SMA) 1954 को न तो अमान्य कर सकता है और न ही इसमें प्रावधान जोड़े जा सकते हैं। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि इस पर कानून बनाना संसद और राज्य विधानमंडल का दायित्व है।
- अन्य टिप्पणियाँ:
- हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि वैवाहिक संबंध स्थायी नहीं है।
- SC का मानना है कि समलैंगिक व्यक्तियों को "संघ" में प्रवेश करने का समान अधिकार और स्वतंत्रता है।
- पीठ के सभी पाँच न्यायाधीश इस बात पर भी सहमत थे कि संविधान के तहत विवाह करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है।
CJI और न्यायमूर्ति कौल (अल्पसंख्यक राय): समलैंगिक जोड़ों के लिये सिविल यूनियन के विस्तार का समर्थन किया:
- 'सिविल यूनियन' उस कानूनी स्थिति को संदर्भित करता है जो समलैंगिक जोड़ों को विशिष्ट अधिकार और ज़िम्मेदारियाँ प्रदान करती है, ये सामान्यतः विवाहित जोड़ों को प्रदान की जाती हैं। हालाँकि एक नागरिक संघ एक विवाह जैसा प्रतीत होता है, लेकिन पर्सनल लॉ में इसे विवाह के समान मान्यता प्राप्त नहीं है।
भारत में समलैंगिक विवाह की वैधता:
- विवाह करने के अधिकार को भारतीय संविधान के तहत मौलिक या संवैधानिक अधिकार के रूप में स्पष्ट रूप से मान्यता नहीं दी गई है, बल्कि यह एक वैधानिक अधिकार है।
- हालाँकि विवाह को विभिन्न वैधानिक अधिनियमों के माध्यम से विनियमित किया जाता है, लेकिन मौलिक अधिकार के रूप में इसकी मान्यता केवल भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है। कानून की ऐसी घोषणा संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत पूरे भारत में सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी है।
- समलैंगिक विवाह पर सर्वोच्च न्यायलय के पूर्व विचार:
- मौलिक अधिकार के रूप में विवाह (शफीन जहां बनाम अशोकन के.एम. और अन्य 2018):
- मानव अधिकार की सार्वभौम घोषणा के अनुच्छेद 16 और पुट्टास्वामी मामले की चर्चा करते हुए सर्वोच्च न्यायलय ने कहा कि अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 का अभिन्न अंग है।
- अनुच्छेद 16(2) के अनुसार, धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इसमें से किसी भी आधार पर विभेद नहीं किया जाएगा।
- विवाह का अधिकार उस स्वतंत्रता में अंतर्निहित है जिसमे प्रत्येक व्यक्ति की खुशी के लिये केंद्रीय मामलों पर निर्णय लेने की क्षमता के रूप में संविधान एक मौलिक अधिकार के रूप में गारंटी देता है। आस्था और विश्वास संबंधी मामले, जिसमें यह भी शामिल है कि किसी पर विश्वास करना चाहिये अथवा नहीं, संवैधानिक स्वतंत्रता के अधिकार क्षेत्र में हैं।
- मानव अधिकार की सार्वभौम घोषणा के अनुच्छेद 16 और पुट्टास्वामी मामले की चर्चा करते हुए सर्वोच्च न्यायलय ने कहा कि अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 का अभिन्न अंग है।
- LGBTQ समुदाय सभी संवैधानिक अधिकारों का हकदार है (नवतेज़ सिंह जौहर और अन्य बनाम भारत संघ 2018):
- सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि LGBTQ समुदाय के सदस्य, "अन्य सभी नागरिकों की तरह, संविधान द्वारा संरक्षित स्वतंत्रता के साथ संवैधानिक अधिकारों की पूरी शृंखला के हकदार भी हैं" और समान नागरिकता तथा "कानून के समान संरक्षण" के भी हकदार हैं।
- मौलिक अधिकार के रूप में विवाह (शफीन जहां बनाम अशोकन के.एम. और अन्य 2018):
विशेष विवाह अधिनियम (SMA) 1954:
- परिचय:
- भारत में विवाह संबंधित व्यक्तिगत कानून हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लीकेशन अधिनियम, 1937 या विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत पंजीकृत किये जा सकते हैं।
- यह सुनिश्चित करना न्यायपालिका का कर्त्तव्य है कि पति और पत्नी दोनों के अधिकारों की रक्षा की जाए।
- विशेष विवाह अधिनियम, 1954 में भारत के लोगों और विदेशों में रहने वाले सभी भारतीय नागरिकों के लिये नागरिक विवाह का प्रावधान है, चाहे दोनों में से कोई भी पक्ष किसी भी धर्म या आस्था का हो।
- जब कोई व्यक्ति इस कानून के तहत विवाह संपन्न करता है, तो विवाह व्यक्तिगत कानूनों द्वारा नहीं बल्कि विशेष विवाह अधिनियम द्वारा शासित होता है।
- विशेषताएँ:
- यह दो अलग-अलग धार्मिक पृष्ठभूमि के व्यक्तियों को विवाह के बंधन में एक साथ आने की अनुमति देता है।
- यह विवाह के अनुष्ठापन और पंजीकरण दोनों के लिये प्रक्रिया निर्धारित करता है, जहाँ पति या पत्नी या दोनों हिंदू, बौद्ध, जैन या सिख नहीं हैं।
- एक धर्मनिरपेक्ष अधिनियम होने के नाते यह व्यक्तियों को विवाह की पारंपरिक आवश्यकताओं से मुक्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
समलैंगिक विवाह के पक्ष में तर्क:
- कानून के तहत समान अधिकार और सुरक्षा: सभी व्यक्तियों को उनके यौन रुझान की परवाह किये बिना विवाह करने और परिवार बनाने का अधिकार है।
- समान-लिंग वाले जोड़ों को विपरीत-लिंग वाले जोड़ों के समान कानूनी अधिकार और सुरक्षा मिलनी चाहिये।
- समलैंगिक विवाह को मान्यता न मिलना भेदभाव के समान है जो LBTQIA+ जोड़ों की गरिमा पर गहरा आघात है।
- परिवारों और समुदायों को मज़बूत बनाना: विवाह, जोड़ों एवं उनके परिवारों को सामाजिक तथा आर्थिक लाभ प्रदान करता है जिससे समान-लिंग वाले लोगों को भी लाभ होगा।
- मौलिक अधिकार के रूप में सहवास: भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने स्वीकार किया कि सहवास एक मौलिक अधिकार है और ऐसे रिश्तों के सामाजिक प्रभाव को कानूनी रूप से पहचानना सरकार का दायित्व है।
- जैविक लिंग ‘पूर्ण’ अवधारणा नहीं है: भारत के सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि जैविक लिंग पूर्ण अवधारणा नहीं है और यह किसी के जननांगों से भी अधिक जटिल है। इसमें पुरुष या महिला की कोई पूर्ण अवधारणा नहीं है।
- वैश्विक स्वीकृति: विश्व भर के कई देशों में समलैंगिक विवाह वैधानिक है और लोकतांत्रिक समाज में व्यक्तियों को इस अधिकार से वंचित करना वैश्विक सिद्धांतों के विरुद्ध है।
- 32 देशों में समलैंगिक विवाह वैध है।
समलैंगिक विवाह के विपक्ष में तर्क:
- धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताएँ: कई धार्मिक और सांस्कृतिक समूहों का मानना है कि विवाह केवल एक पुरुष और एक महिला के बीच ही होना चाहिये।
- उनका तर्क है कि विवाह की पारंपरिक परिभाषा को बदलना उनकी मान्यताओं और मूल्यों के मूलभूत सिद्धांतों के विरुद्ध होगा।
- प्रजनन: कुछ लोगों का तर्क है कि विवाह का प्राथमिक उद्देश्य प्रजनन है और समान-लिंग वाले जोड़े जैविक रूप से जनन नहीं कर सकते।
- इसलिये उनका मानना है कि समलैंगिक विवाह की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये क्योंकि यह संसार के प्राकृतिक व्यवस्था के विरुद्ध है।
- कानूनी मुद्दे: ऐसी चिंताएँ हैं कि समलैंगिक विवाह की अनुमति देने से वैधानिक समस्याएँ उत्पन्न होंगी, जैसे- विरासत, कर और संपत्ति के अधिकार के मुद्दे।
- कुछ लोगों का तर्क है कि समलैंगिक विवाह को समायोजित करने के लिये सभी कानूनों और विनियमों को बदलना बहुत कठिन होगा।
- बच्चों को गोद लेने से संबंधित मुद्दे: जब असामान्य जोड़े बच्चों को गोद लेते हैं, तो इससे सामाजिक कलंक, भेदभाव और बच्चे के भावनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक कल्याण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, विशेषकर भारतीय समाज में जहाँ LGBTQIA+ समुदाय की स्वीकृति सार्वभौमिक नहीं है।
आगे की राह
- जागरूकता बढ़ाना: जागरूकता अभियानों का उद्देश्य किसी भी प्रकार के यौन रुझानों की समानता और स्वीकृति को बढ़ावा देना तथा LGBTQIA+ समुदाय के बारे में आमजन की राय में विविधता लाना है।
- कानूनी सुधार: समलैंगिक जोड़ों को कानूनी रूप से विवाह करने और विपरीत-लिंग वाले जोड़ों के समान अधिकार तथा लाभ प्रदान करने की अनुमति देने के लिये विशेष विवाह अधिनियम, 1954 में संशोधन करना।
- साथ ही समलैंगिकों को समान अधिकार प्रदान करने वाला एक समान समझौता अनुबंध प्रस्तुत किया जा सकता है।
- संवाद और जुड़ाव: धार्मिक नेताओं और समुदायों के बीच संवाद स्थापित करने से समलैंगिक संबंधों के प्रति पारंपरिक मान्यताओं एवं आधुनिक दृष्टिकोण के बीच के अंतर को कम करने में मदद मिल सकती है।
- कानूनी चुनौतियाँ: भारतीय LGBTQIA+ समुदाय समलैंगिक विवाह को प्रतिबंधित करने वाले मौजूदा कानूनों की संवैधानिकता को न्यायालय में चुनौती दे सकता है। इस प्रकार कानूनी चुनौतियाँ एक मिसाल बन सकती हैं जो आने वाले समय में समलैंगिक विवाह को वैध बनाने का मार्ग प्रशस्त करेंगी।
- सहयोग: समलैंगिक विवाह को वैध बनाने के लिये LGBTQIA+ समुदाय, सरकार, नागरिक समाज और धार्मिक नेताओं सहित सभी हितधारकों द्वारा सामूहिक रूप से ठोस प्रयास किये जाने आवश्यकता है।
- एकजुट होकर हम एक अधिक समावेशी समाज का निर्माण कर सकते हैं जहाँ हर किसी को अपनी पसंद के अनुसार प्रेम करने और शादी करने का अधिकार हो।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारतीय संविधान का कौन-सा अनुच्छेद अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने के अधिकार की रक्षा करता है? (2019) (a) अनुच्छेद 19 उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. निजता के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय के नवीनतम निर्णय के आलोक में मौलिक अधिकारों के दायरे की जाँच कीजिये। (2017) |