सामाजिक न्याय
उम्मीद का इंद्रधनुष: LGBTQIA+
यह एडिटोरियल 26/08/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Rainbow of hope: On Tamil Nadu’s glossary of terms to address LGBTQIA+ community” लेख पर आधारित है। इसमें LGBTQIA+ समुदाय को चिह्नित किये जाने की आवश्यकता और प्रयासों के संबंध में चर्चा की गई है ताकि वे गरिमापूर्ण जीवन जी सकें।
संदर्भ
हाल के वर्ष में भारत सहित कई देशों में ‘थर्ड सेक्स’ और समलैंगिकों को बराबर के नागरिक के रूप में वैधानिक मान्यता प्रदान की गई है। दुनिया भर में चले विभिन्न आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों के बाद उन्हें यह मान्यता प्राप्त हुई है।
- भारतीय संविधान की प्रस्तावनामें देश के नागरिकों को निष्पक्ष रूप से ‘‘हम भारत के लोग’’ के रूप में चिह्नित किया गया है और उनके लिए सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय की सुनिश्चितता घोषित की गई है।
- सितंबर 2018 में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 की समीक्षा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने वयस्क सहमति से संपन्न समलैंगिक विवाह को अपराधमुक्त करने का निर्णय दिया। संवैधानिक अधिकारों की विस्तृत व्याख्या और LGBTQIA+ समुदाय को सशक्त करने के संदर्भ में यह निर्णय एक मील का पत्थर है।
- हालाँकि भले ही यह एक बड़ी उपलब्धि रही, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत में LGBTQIA+ लोग पूर्णतः स्वतंत्र हो गए हैं या अन्य नागरिकों की तरह समान व्यवहार का उपभोग कर रहे हैं। स्पष्ट है कि भारत में और दुनिया भर में अभी भी उनके अधिकारों और गरिमापूर्ण जीवन के संबंध में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
LGBTQIA+ का क्या अर्थ है?
- हालाँकि कोई भी एक शब्द विश्व में लिंग और यौन पहचान के स्पेक्ट्रम को पूरी तरह से अभिव्यक्त नहीं कर सकता, लेकिन उनकी पहचान के लिए LGBTQIA+ सामान्य रूप से प्रचलित पद है। LGBTQIA+ मूलतः इन समूहों को व्यक्त करता है जहाँ + के साथ अन्य संभावनाओं के लिए अवसर बनाए रखा गया है:
भारत में LGBTQIA+ की मान्यता का इतिहास
- प्राचीन भारत में प्रेम और तटस्थता के सभी रूपों की स्वीकृति थी और इनका उत्सव मनाया जाता था।
- इसका दृश्य उदाहरण मध्य प्रदेश का प्रसिद्ध खजुराहो मंदिर है जो समलैंगिकों के बीच यौन प्रवाहिता (Sexual fluidity) के अस्तित्व को प्रदर्शित करता है।
- वर्ष 1861 में अंग्रेज़ों ने ‘प्राकृतिक व्यवस्था के विरुद्ध’ यौन गतिविधियों (सभी समलैंगिक गतिविधियों सहित) को भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत अपराध घोषित कर दिया।
- वर्ष 1977 में शकुंतला देवी ने भारत में समलैंगिकता का पहला अध्ययन ‘The World of Homosexuals’ शीर्षक से प्रकाशित कराया।
- इसमें ‘‘केवल सहिष्णुता एवं सहानुभूति के बजाय पूर्ण और समग्र स्वीकृति’’ का आह्वान किया गया था।
- वर्ष 1994 में उन्हें कानूनी रूप से तीसरे लिंग या ‘थर्ड सेक्स’ के रूप में मतदान का अधिकार प्रदान किया गया।
- वर्ष 2014 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को लिंग की तीसरी श्रेणी के रूप में देखा जाना चाहिए।
- वर्ष 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने देश के LGBTQ समुदाय को सुरक्षित रूप से अपनी यौन उन्मुखता (sexual orientation) अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता प्रदान की।
- किसी व्यक्ति की यौन उन्मुखता को निजता के अधिकार (Right to Privacy) के तहत संरक्षण प्रदान किया गया है।
- 6 सितंबर 2018 को सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 377 के उस भाग को निरस्त कर जो सहमतिपूर्ण समलैंगिक गतिविधियों को अपराध घोषित करता था।
- वर्ष 2019 में संसद ने ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम पारित किया जिसका उद्देश्य ट्रांसजेंडर व्यक्ति के अधिकारों, उनके कल्याण और अन्य संबंधित मामलों को संरक्षण प्रदान करना है।
LGBTQIA+ समुदाय के अधिकारों की पुष्टि में योगदान करने वाले विभिन्न मामले
- नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (वर्ष 2018): सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत विधि के समक्ष समता की गारंटी नागरिकों के सभी वर्गों पर लागू होता है।
- इसने LGBTQ समुदाय की ‘समावेशिता’ को पुनर्स्थापित किया और समलैंगिकता को अपराधमुक्त घोषित किया।
- शफीन जहाँ बनाम अशोकन के.एम. और अन्य (वर्ष 2018): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि साथी या पार्टनर का चयन करना व्यक्ति का मौलिक अधिकार है और यह साथी किसी भी लिंग का हो सकता है।
- राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (वर्ष 2014): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘‘ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को तीसरे लिंग के रूप में चिह्नित करना एक सामाजिक या चिकित्सकीय विषय नहीं है, बल्कि यह मानवाधिकार से संबंधित मुद्दा है।’’
भारत में LGBTQIA+ समुदाय के लोगों को किन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है?
- हाशियाकरण (Marginalisation): LGBTQIA+ व्यक्तियों को नस्लवाद, लैंगिक भेदभाव, निर्धनता के साथ ही होमोफोबिया या ट्रांसफोबिया जैसे हाशियाकरण या उपेक्षा के विभिन्न रूपों का सामना करना पड़ता है जो उनके मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
- ये उपेक्षाएँ LGBTQIA+ समुदाय के लोगों को प्रायः चिकित्सा देखभाल, न्याय एवं कानूनी सेवाओं और शिक्षा जैसी बुनियादी सेवाओं तक पहुँच से वंचित करती हैं।
- पारिवारिक प्रतिक्रियाओं का LGBT बच्चों पर प्रभाव: अस्वीकृति और गंभीर नकारात्मक प्रतिक्रियाओं के कारण LGBTQIA+ आइडेंटिटी से संबद्ध किशोर और युवा अपने माता-पिता और परिवार को अपनी भावनाओं से अवगत कराने से संकोच रखते हैं।
- शिक्षा, करियर और शादी के नियमों और शर्तों को निर्धारित करने वाले सामाजिक और सांस्कृतिक मानदंडों के एक कठोर समुच्चय (जो शिक्षा, करियर और विवाह संबंधित नियमों एवं शर्तों को तय करते हैं) से बंधे समाज में परिवार के समर्थन की कमी LGBTQIA+ लोगों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा आघात साबित हो सकती है।
- अनसुनी ग्रामीण आवाज़ें: शहरी LGBTQIA+ लोगों की आवाज़ें तो कई ऑनलाइन और वास्तविक दुनिया के मंचों के माध्यम से तो सुन ली जाती हैं, लेकिन संसर्ग (exposure), सहजता और इंटरनेट कनेक्टिविटी की कमी के कारण ग्रामीण क्षेत्रों के LGBTQIA+ लोगों को अपनी भावनाओं को दबाने के लिए विवश होना पड़ता है, क्योंकि विवाह से इनकार करने पर वे और अधिक शारीरिक उत्पीड़न के शिकार होते हैं।
- बेघर होना: अधिकांश बेघर LGBTQIA+ युवा वे होते हैं जिन्हें समलैंगिक होने के कारण उनके घरों से निकाल दिया जाता है या वे एक अपमानजनक परिदृश्य से बचने के लिए घर से भाग गए।
- इस प्रकार जीवन के आरंभिक विकास वर्षों के दौरान वे शिक्षा और सामाजिक समर्थन से चूक जाते हैं।
- किसी आर्थिक सहायता के अभाव में वे प्रायः नशीली दवाओं के उपयोग और जोखिमपूर्ण यौन व्यवहार में संलग्न हो जाते हैं।
- शब्दावली की समस्याएँ: LGBTQIA+ लोगों को नकारात्मक रूढ़िवादी धारणा के साथ लेबल किया जाता है और उनका मजाक उड़ाया जाता है। इस प्रकार, उन्हें चिह्नित किये जाने के उनके लक्ष्य से वंचित कर दिया जाता है और उन्हें सामाजिक रूप से बहिष्कृत महसूस कराया जाता है।
- सामाजिक स्तर पर मान्यता नहीं: स्कूल यूनिफॉर्म, ड्रेस कोड एवं वेश-भूषा, यात्रा के लिए पहुँच बिंदु (टिकट बुकिंग फॉर्म, सुरक्षा जाँच और शौचालय सहित) आदि प्रायः लैंगिक प्रावधान रखते हैं।
- LGBTQIA+ व्यक्तियों को सार्वजनिक परिवहन के दौरान सार्वजनिक रूप से अपनी लिंग पहचान पर बातचीत करने के लिए विवश किया जाता है।
- रोज़गार अवसरों की कमी: स्कूल रिकॉर्ड सहित अन्य सटीक लिंग पहचान दस्तावेज प्राप्त करने में व्याप्त कठिनाइयाँ उनकी रोज़गार संभावनाओं पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं।
- भेदभावपूर्ण पात्रता शर्तें कुछ नौकरियों पर लैंगिक प्रतिबंध आरोपित करती हैं, जो ट्रांसजेंडर और लैंगिक रूप से नॉन-बाइनरी व्यक्तियों को नौकरी पाने के अवसर से प्रभावी रूप से बहिर्वेशित कर देती हैं।
आगे की राह
- LGBTQIA+ समुदाय के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना: चूँकि टीवी और फिल्में उस ग्रामीण आबादी के लिए भी सुलभ हैं जहाँ अभी सोशल मीडिया की पहुँच नहीं है, वे ऐसे कार्यक्रमों और कहानियों के माध्यम से पारिवारिक भूमिकाओं और दृष्टिकोणों को पुनर्परिभाषित करने में योगदान कर सकते हैं जो उन्हें शिक्षित और प्रबुद्ध करे; इसके साथ ही वे LGBTQIA+ समुदायों के अनुभवों को प्रामाणिक और विविध तरीकों से प्रसारित करने में भूमिका निभा सकते हैं।
- बधाई दो, शुभ मंगल ज़्यादा सावधान, अलीगढ़ जैसी फिल्में LGBTQIA+ समुदाय के प्रति समाज के नकारात्मक रवैये में बदलाव लाने में एक बड़ी भूमिका निभा सकती हैं।
- विशेष व्यवहार से समान व्यवहार की ओर आगे बढ़ना: LGBTQIA+ लोग ‘एलियन’ नहीं हैं, वे बीमार नहीं हैं और उनकी यौन उन्मुखता जन्मजात होती है। समलैंगिक होना एक सामान्य परिघटना है न कि कोई बीमारी।
- इसलिए वे समान व्यवहार के पात्र हैं, विशेष व्यवहार के नहीं और एक बार जब वे भारतीय समाज में बराबरी के स्तर पर शामिल कर लिए जाएँगे तो वे सामूहिक विकास में पूरी तरह से मिश्रित भी हो जाएँगे।
- लिंग तटस्थता: बिना किसी भेदभाव के सभी लिंगों को समान मानने की आवश्यकता है।
- इसका समग्र रूप से अभिप्राय है कि नीतियों, भाषा, संबद्ध सामाजिक व्यवहार को व्यक्ति के लिंग अनुरूप विशिष्ट भूमिकाओं से बचना चाहिए।
- बेहतर पालन-पोषण: अपने बच्चों की पहचान को स्वीकार करना किसी भी माता-पिता का मौलिक उत्तरदायित्व है।
- बच्चे को उसकी पहचान के साथ स्वीकार किया जाना एक ऐसे समाज का निर्माण करेगा जो विविधता को महत्व देता हो और प्रत्येक व्यक्ति की विशिष्टता या अद्वितीयतता को स्वीकार करता हो।
- LGBTQIA + युवाओं को जागरूक और सशक्त बनाना: इसके लिए एक खुले और सुलभ मंच की आवश्यकता है ताकि वे अपनी भावनाओं को साझा करने में सहज हो और महसूस कर सकें कि उनकी पहचान को चिह्नित किया जा रहा है।
- ‘Gaysi’ और ‘Gaylaxy’ जैसे मंचों ने LGBT लोगों के लिए संवाद करने, साझा करने और सहयोग करने के लिए एक जगह के निर्माण में में मदद की है।
- ‘प्राइड मंथ’ और ‘प्राइड परेड’ पहल भी इस दिशा में आशाजनक कदम हैं।
अभ्यास प्रश्न: भारत में LGBTQIA+ समुदाय की स्थिति की चर्चा उन मामलों के आलोक में करें जिनसे उन्हें अपने अधिकारों की पुष्टि कराने में मदद मिली।