भारतीय राजव्यवस्था
मुस्लिम पर्सनल लॉ केस
- 01 Sep 2022
- 8 min read
प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC), राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW), राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग मेन्स के लिये:भारत में पर्सनल लॉ और संबंधित मुद्दे, महिलाओं से संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा अनुमत बहु विवाह और निकाह हलाला की प्रथा की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं को सर्वोच्च न्यायालय में सूचीबद्ध किया गया है।
- पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (National Human Rights Commission-NHRC), राष्ट्रीय महिला आयोग (National Commission of Women-NCW) और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को नोटिस जारी की है।
याचिकाकर्त्ताओं के तर्क:
- याचिकाकर्त्ताओं ने बहुविवाह और निकाह-हलाला पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हुए कहा है कि यह मुस्लिम महिलाओं को असुरक्षित और कमज़ोर बनाता है एवं उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
- उन्होंने मांग की कि मुसलिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम की धारा 2 को असंवैधानिक घोषित किया जाए और संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 15 (धर्म के आधार पर भेदभाव का प्रतिषेध) और 21 (जीवन का अधिकार) के उल्लंघनकर्त्ता के रूप में घोषित किया जाए जो बहुविवाह और निकाह-हलाला की प्रथा को मान्यता प्रदान करता है।
- संविधान व्यक्तिगत कानूनों के मामले में हस्तक्षेप नहीं करता है, इसलिये सर्वोच्च न्यायालय इन प्रथाओं की संवैधानिक वैधता के मुद्दे की जाँच नहीं कर सकता है।
- याचिकाकर्त्ताओं का तर्क है कि यहाँ तक कि शीर्ष न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने भी अन्य अवसरों पर पर्सनल लॉ द्वारा स्वीकृत प्रथाओं के मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया है, याचिकाकर्त्ताओं द्वारा तीन तालक चुनौती मामले को सर्वोच्च न्यायालय पहले ही खारिज़ कर चुका है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ:
- शरिया या मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार, पुरुषों को बहुविवाह करने की अनुमति दी गई है, जिसका अर्थ है वे एक ही समय में एक से अधिक पत्नियों के साथ रह सकते हैं, विवाह की अधिकतम संख्या 4 निर्धारित की गई है।
- 'निकाह हलाला' एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक मुस्लिम महिला को अपने तलाकशुदा पति से दोबारा शादी करने से पूर्व दूसरे व्यक्ति से शादी करनी होती है और फिर उससे तलाक लेना पड़ता है।
भारत में मुस्लिम कानून:
- मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम (Shariat Application Act) वर्ष 1937 में भारतीय मुसलमानों के लिये इस्लामी कानून सहिंता तैयार करने के उद्देश्य से पारित किया गया था।
- ब्रिटिश जो उस समय भारत पर शासन कर रहे थे, यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे थे कि भारतीयों पर उनके अपने सांस्कृतिक मानदंडों के अनुसार शासन किया जाए।
- जब हिंदुओं और मुसलमानों के लिये बनाए गए कानूनों के बीच अंतर करने की बात आई, तो उन्होंने यह बयान दिया कि हिंदुओं के मामले में "उपयोग का स्पष्ट प्रमाण कानून की लिखित सहिंता से अधिक होगा"। दूसरी ओर मुसलमानों के लिये कुरान में लिखित सहिंता सबसे महत्त्वपूर्ण होगी।
- वर्ष 1937 के बाद से शरीयत अनुप्रयोग अधिनियम मुस्लिम सामाजिक जीवन के पहलुओं, जैसे शादी, तलाक, विरासत और पारिवारिक संबंधों को अनिवार्य करता है। अधिनियम के अनुसार, व्यक्तिगत विवाद के मामलों में राज्य हस्तक्षेप नहीं करेगा।
अन्य धर्मों के पर्सनल लॉ:
- हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 जो हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों के बीच संपत्ति विरासत के दिशा-निर्देश देता है।
- पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 पारसियों द्वारा उनकी धार्मिक परंपराओं के अनुसार पालन किये जाने वाले नियमों को निर्धारित करता है।
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 ने हिंदुओं के बीच विवाह से संबंधित कानूनों को संहिताबद्ध किया था।
भारत में शरीयत अनुप्रयोग अधिनियम अपरिवर्तनीय:
- शरीयत अधिनियम की प्रयोज्यता वर्षों से विवादास्पद रही है। ऐसे उदाहरण पहले भी देखे गए हैं जब व्यापक मौलिक अधिकारों के भाग के रूप में महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण का मुद्दा धार्मिक अधिकारों के साथ विवाद में आ गया।
- इनमें सबसे चर्चित शाह बानो मामला है।
- वर्ष 1985 में 62 वर्षीय शाह बानो ने अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता की मांग करते हुए मुकदमा दायर किया।
- सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में उसके गुजारा भत्ता के अधिकार को बरकरार रखा लेकिन इस फैसले का इस्लामिक समुदाय ने कड़ा विरोध किया था, जो इसे कुरान में लिखित नियमों के खिलाफ मानते थे। इस मामले ने इस बात को लेकर विवाद पैदा कर दिया कि न्यायालय किस हद तक व्यक्तिगत/धार्मिक कानूनों में हस्तक्षेप कर सकते है।
- भारत में शरीयत अनुप्रयोग अधिनियम पर्सनल लाॅ संबंधों में इस्लामी कानूनों के अनुप्रयोग की रक्षा करता है, लेकिन यह अधिनियम कानूनों को परिभाषित नहीं करता है।
- पर्सनल लॉ संविधान के अनुच्छेद 13 के तहत 'कानून' की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आता है। पर्सनल लॉ की वैधता को संविधान में निहित मौलिक अधिकारों के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है।
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्षो के प्रश्न:प्रश्न. भारत के संविधान का कौन-सा अनुच्छेद अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी करने के अधिकार की रक्षा करता है? (2019) (a) अनुच्छेद 19 उत्तर: (b) व्याख्या:
अतः विकल्प (b) सही उत्तर है। प्रश्न. रीति रिवाज और परंपराओं द्वारा तर्क को दबाने से प्रगतिविरोध उत्पन्न हुआ है । क्या आप इससे सहमत हैं? (मेन्स-2020) |