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वन संरक्षण

  • 31 Jul 2023
  • 19 min read

यह एडिटोरियल 28/07/2023 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘‘Many of the Above’’ लेख पर आधारित है। इसमें वन संरक्षण (संशोधन) विधेयक से जुड़े मुद्दों के बारे में चर्चा की गई है।

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, राष्ट्रीय वन नीति (1988), जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (2008), जैव विविधता- कन्वेंशन (1992), जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (1992), पेरिस समझौता (2015), नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण

मेन्स के लिये:

वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन के निहितार्थ।

  • लोकसभा द्वारा वन संरक्षण (संशोधन) विधेयक (Forest Conservation (Amendment) Bill) पारित किया गया है। यह विधेयक भारतीय वन अधिनियम, 1927 (Indian Forest Act, 1927) या किसी अन्य कानून के तहत संरक्षित क्षेत्रों के दायरे को वन के रूप में घोषित या अधिसूचित भूमि तक सीमित करते हुए कठोर प्रावधान लागू करता है। वनों की पिछली, अधिक उदार परिभाषा से यह विचलन विशाल वन भू-भाग को खतरे में डाल सकता है और अवर्गीकृत वनों को इसके दायरे से बाहर कर सकता है जो भारत के कुल वन आवरण का लगभग 15% हैं। हालाँकि सरकार ने आश्वासन दिया है कि वह वन अधिकार अधिनियम का उल्लंघन नहीं करेगी, लेकिन इस संदर्भ में वन-आश्रित समुदायों के अधिकारों को लेकर चिंताएँ उत्पन्न हुई हैं।

प्रस्तावित संशोधन से संबद्ध समस्याएँ:

  • वन की परिभाषा को सीमित करना:
    • संशोधन में वन की परिभाषा को 25 अक्टूबर, 1980 के बाद से सरकारी रिकॉर्ड में ‘वन’ (forest) के रूप में दर्ज क्षेत्रों तक सीमित करने का प्रस्ताव है। यह संशोधन वन माने जाने वाले क्षेत्र के दायरे को पुनः परिभाषित करने का प्रयास करता है, जहाँ निर्दिष्ट तिथि के बाद इस रूप में दर्ज नहीं किये गए क्षेत्रों को अपवर्जित कर देता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 1996 के निर्णय को अमान्य करना:
    • इस संशोधन का टीएन गोदावर्मन बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 1996 के ऐतिहासिक निर्णय को अमान्य करने या इसका उल्लंघन करने के रूप में असर पड़ेगा, जहाँ सरकारी रिकॉर्ड की सीमा से परे सभी प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्रों को शामिल करने के लिये ‘वन’ के अर्थ का विस्तार किया गया था।
  • विशाल वन क्षेत्रों के लिये कानूनी सुरक्षा की हानि:
    • इस संशोधन के परिणामस्वरूप हज़ारों वर्ग किलोमीटर वन, जो भारत के कुल वन क्षेत्र का लगभग 27.62% है, अपनी कानूनी सुरक्षा खो देंगे।
    • ये क्षेत्र अभिलेखित वन क्षेत्रों (Recorded Forest Areas) की सीमाओं के बाहर स्थित हैं।

भारत में वन हानि की वर्तमान स्थिति:

  • वन हानि की सीमा:
    • सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में वर्ष 2001 और 2018 के बीच 31,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक वन क्षेत्र की भारी हानि हुई है।
    • खनन, बाँध, सड़क और शहरीकरण जैसी विभिन्न विकासात्मक गतिविधियों ने इस व्यापक वन क्षरण में योगदान किया है।
  • भारत की वैश्विक रैंकिंग:
    • CSE की रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डालती है कि वन हानि के मामले में भारत विश्व के शीर्ष 10 देशों में शामिल है।
    • यह चिंताजनक रैंकिंग इस मुद्दे की गंभीरता और पारिस्थितिक स्थिरता एवं जैव विविधता पर इसके संभावित प्रभावों को उजागर करती है।
  • वन हानि की बढ़ती प्रवृत्तियाँ:
    • पिछले दो दशकों में वन हानि की स्थिति में चिंताजनक वृद्धि देखी गई है।
    • वनों की कटाई या निर्वनीकरण (deforestation) में यह वृद्धि पारिस्थितिक संतुलन, वन्यजीव पर्यावास और जलवायु परिवर्तन शमन प्रयासों के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न करती है।

प्रस्तावित संशोधन के प्रभाव:

  • संरक्षित क्षेत्रों में कमी:
    • संशोधन के तहत वनों की कठोर परिभाषा से कई ऐसे क्षेत्रों का वनों के रूप में वर्गीकरण समाप्त हो सकता है जिन्हें पहले वन माना जाता था।
    • इसके परिणामस्वरूप संरक्षित क्षेत्रों (Protected Areas) की संख्या में कमी आ सकती है, जिससे वनों का विशाल क्षेत्र अतिक्रमण और विकास गतिविधियों के प्रति संवेदनशील हो जाएगा।
  • जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं की हानि:
    • कम कानूनी संरक्षण के साथ पर्यावास विनाश का उच्च जोखिम उत्पन्न होगा, जिससे जैव विविधता और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र द्वारा प्रदत्त सेवाओं (जैसे जल सुरक्षा, कार्बन पृथक्करण और जलवायु प्रत्यास्थता) की हानि होगी।
  • पर्यावरणीय क्षरण:
    • कमज़ोर वन संरक्षण उपाय प्राकृतिक संसाधनों के असंवहनीय दोहन (जैसे लॉगिंग, खनन और अन्य गतिविधियाँ) के द्वार खोल सकते हैं, जिससे पर्यावरणीय क्षरण और पारिस्थितिकी तंत्र की अपरिवर्तनीय क्षति की स्थिति बन सकती है।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रभाव:
    • वन कार्बन पृथक्करण (carbon sequestration) के माध्यम से जलवायु परिवर्तन के शमन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
      • वन संरक्षण में कमी के परिणामस्वरूप निर्वनीकरण बढ़ सकता है और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की वृद्धि हो सकती है, जिससे जलवायु परिवर्तन से मुकाबले के भारत के प्रयास प्रभावित होंगे।
    • पारिस्थितिकी संपर्क की हानि:
      • वनों को परिभाषित करने के कठोर मानदंड पारिस्थितिक संपर्क (ecological connectivity) और वन्यजीव गलियारों (wildlife corridors) को बाधित कर सकते हैं, प्रजातियों की आवाजाही में अवरोध उत्पन्न कर सकते हैं तथा पर्यावासों को और अधिक खंडित कर सकते हैं।
    • संरक्षण प्रयासों में निहित चुनौतियाँ:
      • पर्यावरणविदों और संरक्षणवादियों को पारिस्थितिकी तंत्र एवं वन्य जीवों की सुरक्षा में चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि संशोधन की सीमाएँ भेद्य या संवेदनशील क्षेत्रों के संरक्षण के उनके प्रयासों में बाधक बन सकती हैं।
    • इकोटूरिज़्म से संबद्ध चुनौतियाँ:
      • अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (ATREE) के एक अध्ययन से पता चला है कि संरक्षित क्षेत्रों में इकोटूरिज़्म गतिविधियों से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ सकता है, स्थानीय समुदायों के साथ संघर्ष की स्थिति बन सकती है, पारंपरिक आजीविका की हानि हो सकती है, सांस्कृतिक क्षरण की स्थिति बन सकती है और वन्यजीवों की दर्शनीयता में कमी आ सकती है।
      • ये चुनौतियाँ इकोटूरिज़्म अभ्यासों में उचित विनियमन एवं निरीक्षण की आवश्यकता को रेखांकित करती हैं।

वन-निवासी समुदायों पर प्रभाव:

  • अधिकारों का उल्लंघन:
  • सामाजिक अशांति और संघर्ष:
    • उनके अधिकारों से वंचना या उल्लंघन से इन समुदायों के भीतर सामाजिक अशांति और संघर्ष उत्पन्न हो सकता है, क्योंकि वे अपनी भूमि, आजीविका और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करने के लिये प्रयासरत होंगे।
  • वन अधिकारों की अपर्याप्त मान्यता:
    • जनजातीय कार्य मंत्रालय (MoTA) की एक रिपोर्ट बताती है कि वन अधिकार अधिनियम के तहत वन-निवासी समुदायों द्वारा दायर दावों के एक छोटे प्रतिशत को ही स्वीकृत किया गया।
    • इससे वन संसाधनों पर अपने अधिकारों का प्रयोग करने की उनकी क्षमता में बाधा आती है और उनके लिये असुरक्षा एवं भेद्यता की स्थिति बनती है।
  • निष्कासन और उत्पीड़न:
    • वन अधिकारों से वंचना या उल्लंघन के कारण वन-निवासी समुदायों के विरुद्ध निष्कासन/बेदखली, विस्थापन, उत्पीड़न और हिंसा के मामले सामने आए हैं।
    • यह पहले से ही कमज़ोर आबादी को हाशिये पर धकेल देता है और उनकी पारंपरिक जीवन शैली को बाधित करता है।

भारत की पारिस्थितिकी सुरक्षा और प्रतिबद्धताओं के लिये संकट:

  • वन संरक्षण अधिनियम की प्रस्तावना के साथ विरोधाभास:
    • वन संरक्षण अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन वनों और उससे जुड़े मामलों के संरक्षण के इसके घोषित उद्देश्य के विरुद्ध हैं।
    • संरक्षण को बढ़ावा देने के बजाय, इन संशोधनों से वन पारिस्थितिकी तंत्र का क्षरण हो सकता है।
  • राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं का उल्लंघन:
    • ये संशोधन भारत के पर्यावरण और जैव विविधता की रक्षा करने के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के विपरीत हैं।
      • राष्ट्रीय वन नीति (1988), राष्ट्रीय जैव विविधता कार्ययोजना (2008), जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (2008), जैव विविधता अभिसमय (1992), जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (1992) और पेरिस समझौता ( 2015) जैसी प्रतिबद्धताएँ प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण तथा सतत प्रबंधन को प्राथमिकता देती हैं।
  • पारिस्थितिकी सुरक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा पर प्रभाव:
    • प्रस्तावित संशोधन भारत की प्राकृतिक पूंजी को नष्ट करके उसकी पारिस्थितिकी सुरक्षा के लिये जोखिम उत्पन्न कर सकते हैं।
    • इससे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति प्रत्यास्थता (resilience) कम हो सकती है और सामाजिक सद्भाव खतरे में पड़ सकता है।
    • पारिस्थितिक संरक्षण की उपेक्षा से राष्ट्रीय सुरक्षा के विभिन्न पहलुओं पर व्यापक प्रभाव पड़ सकता है।
  • जैव विविधता के लिये खतरा:
    • भारत को वैश्विक स्तर पर 17 विशाल विविधता वाले देशों (megadiverse countries) में से एक माना जाता है, जो विश्व की लगभग 8% जैव विविधता रखता है।
      • देश की समृद्ध जैव विविधता इसकी पारिस्थितिकी प्रत्यास्थता में योगदान देती है और यह एक मूल्यवान वैश्विक विरासत है।
    • जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिये अंतर-सरकारी विज्ञान-नीति मंच (Intergovernmental Science-Policy Platform on Biodiversity and Ecosystem Services- IPBES) की रिपोर्ट उजागर करती है कि भारत जैव विविधता संकट का सामना कर रहा है, जहाँ इसकी लगभग 25% प्रजातियाँ पर्यावास की हानि, अत्यधिक दोहन, प्रदूषण, आक्रामक प्रजातियों, जलवायु परिवर्तन और मानव-वन्यजीव संघर्ष जैसे विभिन्न घटकों के कारण विलुप्त होने के खतरे का सामना कर रही हैं।

प्रस्तावित संशोधन के लिये आगे की राह:

  • संरक्षण और सतत प्रबंधन:
  • वैज्ञानिक दृष्टिकोण:
    • रिमोट सेंसिंग, भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS), उपग्रह इमेजरी, ड्रोन और नागरिक विज्ञान (citizen science) जैसे आधुनिक साधनों का उपयोग कर पर्यावरण मूल्यांकन एवं निगरानी के लिये वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमता को बढ़ाना, सूचना-संपन्न निर्णयन तथा संरक्षण प्रयासों में सहायता कर सकता है।
  • सामाजिक सहभागिता:
    • वन और वन्यजीव प्रबंधन के लिये सहभागितापूर्ण और समुदाय-आधारित दृष्टिकोण को बढ़ावा देना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
    • निर्णयन, योजना निर्माण और लाभ-साझाकरण में स्थानीय समुदायों को शामिल करने से उनके अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित होगी और उनमें संरक्षण के प्रति स्वामित्व एवं उत्तरदायित्व की भावना का प्रसार होगा।
  • एकीकृत दृष्टिकोण:
    • संरक्षण और विकास के लिये एकीकृत एवं लैंडस्केप-लेवल दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है।
    • विभिन्न भूमि उपयोगों के बीच पारिस्थितिकी संपर्क और सुसंगतता सुनिश्चित करते हुए महत्त्वपूर्ण वन्यजीव पर्यावासों, गलियारों और बफ़र ज़ोन की पहचान करना एवं उन्हें प्राथमिकता देना पारिस्थितिकी संरक्षण के साथ विकासात्मक आवश्यकताओं को संतुलित कर सकता है।

अभ्यास प्रश्न: वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 में प्रस्तावित संशोधनों के संभावित प्रभावों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न 

प्रश्न 1. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:

  1. भारतीय वन अधिनियम, 1927 में हाल में हुए संशोधन के अनुसार, वन निवासियों को वन क्षेत्रों में उगने वाले बाँस को काटने का अधिकार है।
  2. अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के अनुसार, बाँस एक गौण वनोपज है।
  3. अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006, वन निवासियों को गौण वनोपज के स्वामित्त्व की अनुमति देता है।

उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (b)

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