इंदौर शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 11 नवंबर से शुरू   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


भारतीय राजनीति

राज्यपाल और राज्य विधानमंडल

  • 14 Nov 2022
  • 15 min read

यह एडिटोरियल 11/11/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Should Chief Ministers have a say in the appointment of Governors?” लेख पर आधारित है। इसमें भारत में राज्यपाल के पद से संबंधित मुद्दों के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

राज्यपाल के पद का हमारी राजनीतिक व्यवस्था में अत्यधिक महत्त्व है। राज्यपाल केंद्र और राज्यों के बीच एक सेतु का कार्य करता है। इसे सहकारी शासन के प्रमुख अंगों में से एक माना जाता है जिस पर हमारा लोकतंत्र गर्व करता है।

  • लेकिन लंबे समय से विभिन्न राज्यों में राज्यपाल के कार्यालय की भूमिका, शक्तियों और विवेकाधिकार पर राजनीतिक, संवैधानिक और विधिक क्षेत्र में गर्मागर्म बहसें होती रही हैं।
  • हाल के समय में राज्यपाल-राज्य संघर्ष में एक वृद्धि नज़र आई है। नौकरशाहों की नियुक्ति को लेकर दिल्ली सरकार और दिल्ली के उपराज्यपाल (लेफ्टिनेंट गवर्नर) के बीच शक्ति संघर्ष तथा तमिलनाडु सरकार और तमिलनाडु के राज्यपाल के बीच राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (NEET) छूट विधेयक पर गतिरोध इसके कुछ उदाहरण हैं।
  • सहकारी संघवाद (cooperative federalism) की ओर आगे बढ़ने के लिये अलग-अलग दृष्टिकोण से अलग-अलग पहलुओं पर विचार करते हुए इस विषय पर सूक्ष्मता से विचार करने की ज़रूरत है।

राज्यपाल का पद

  • स्वतंत्रता से पहले:
    • वर्ष 1858 से ‘गवर्नर’ का पद अत्यंत महत्त्वपूर्ण होने लगा था जब भारत ब्रिटिश क्राउन द्वारा शासित किया जाने लगा। प्रांतीय गवर्नर क्राउन के एजेंट होते थे जो गवर्नर-जनरल की देखरेख में कार्य करते थे।
    • भारत सरकार अधिनियम, 1935 के बाद गवर्नर को अब प्रांत के विधायिका के मंत्रियों की सलाह के अनुसार कार्य करना था, लेकिन फिर भी विशेष उत्तरदायित्व और विवेकाधीन शक्ति उसी में निहित रही।
  • स्वतंत्रता के बाद:
    • संविधान सभा में राज्यपाल के पद पर व्यापक रूप से बहस चली थी, जिसने ब्रिटिश काल में उसकी भूमिका को रूपांतरित करते हुए इस पद को बनाए रखने का निर्णय लिया।
    • वर्तमान में भारत द्वारा अपनाई गई संसदीय एवं कैबिनेट शासन प्रणाली के तहत राज्यपाल को राज्य के संवैधानिक प्रमुख की तरह देखा गया है।

राज्यपाल से संबंधित संवैधानिक प्रावधान

  • अनुच्छेद 153 में कहा गया है कि प्रत्येक राज्य के लिये एक राज्यपाल होगा। किसी व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों के राज्यपाल के रूप में भी नियुक्त किया जा सकता है।
    • राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति द्वारा अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त किया जाएगा और वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करेगा (अनुच्छेद 155 और 156)।
  • अनुच्छेद 161 के अनुसार राज्यपाल के पास क्षमादान की और कुछ मामलों में दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति है।
    • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्पष्ट किया गया है कि किसी बंदी को क्षमा करने की राज्यपाल की संप्रभु शक्ति वास्तव में राज्य सरकार के साथ सर्वसम्मति से प्रयोग की जाती है, न कि राज्यपाल द्वारा स्वायत्त रूप से।
      • सरकार की सलाह राज्य प्रमुख (राज्यपाल) पर बंधनकारी है।
  • अनुच्छेद 163 में कहा गया है कि कुछ शर्तों के अधीन राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिये एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा।
    • राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों में शामिल हैं:
      • मुख्यमंत्री की नियुक्ति, जब राज्य विधान सभा में किसी भी दल के पास स्पष्ट बहुमत न हो
      • अविश्वास प्रस्ताव के समय
      • राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता के मामले में (अनुच्छेद 356)
  • अनुच्छेद 200 राज्यपाल को विधानसभा द्वारा पारित किसी विधेयक की अनुमति देने, अनुमति रोकने अथवा उसे राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित रखने की शक्ति सौंपता है।
  • अनुच्छेद 361 में कहा गया है कि किसी राज्य का राज्यपाल अपने पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्यों के पालन के लिये या उन शक्तियों का प्रयोग और कर्तव्यों का पालन करते हुए अपने द्वारा किये गए या किये जाने के लिये तात्पर्यित किसी कार्य के लिये किसी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं होगा।

भारत में राज्यपाल के पद से संबंधित प्रमुख मुद्दे

  • संबद्धता आधारित नियुक्ति: बहुत से मामलों में सत्ताधारी दल से जुड़े राजनेताओं और पूर्व नौकरशाहों को राज्यपालों के रूप में नियुक्त किया गया है।
    • इससे इस पद की निष्पक्षता और गैर-पक्षपात के बारे में सवाल उठते रहे हैं। इसके साथ ही, राज्यपाल की नियुक्ति से पहले मुख्यमंत्री से परामर्श करने की परंपरा की भी प्रायः अनदेखी होती रही है।
  • केंद्र के प्रतिनिधि से लेकर केंद्र के एजेंट तक: वर्तमान दौर में आलोचक राज्यपालों को ‘केंद्र के एजेंट’ के रूप में संदर्भित करते हैं।
    • वर्ष 2001 में राष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग ( National Commission to Review the Working of the Constitution) ने यह माना कि राज्यपाल अपनी नियुक्ति के लिये और पद पर बने रहने के लिये केंद्र पर निर्भर है। इस परिदृश्य में यह आशंका बनी रहती है कि वह केंद्रीय मंत्रिपरिषद द्वारा दिये गए निर्देशों का पालन करेगा।
      • यह बात संवैधानिक रूप से निर्दिष्ट एक निरपेक्ष या तटस्थ पद के विरुद्ध है और इसके परिणामस्वरूप पक्षपात एवं पूर्वाग्रह की स्थिति बनती है।
  • विवेकाधीन शक्तियों का दुरुपयोग: कई दृष्टांतों में राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का दुरुपयोग किया गया है।
    • उदाहरण के लिये, आलोचकों द्वारा आरोप लगाया गया है कि किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन के लिये राज्यपाल की अनुशंसा सदैव ‘वस्तुस्थिति’ ('objective material) पर आधारित नहीं होती है, बल्कि राजनीतिक सनक या कल्पना पर आधारित होती है।
  • राज्यपालों को हटाना: राज्यपालों को हटाने के किसी कोई लिखित प्रावधान या प्रक्रिया के अभाव में कई बार राज्यपालों को मनमाने ढंग से हटाने के उदाहरण सामने आए हैं।
  • संवैधानिक एवं सांविधिक भूमिका के बीच स्पष्ट अंतर का अभाव: मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करने के संवैधानिक अधिदेश को चांसलर के रूप में कार्य करने के सांविधिक प्राधिकार से स्पष्ट रूप से अलग नहीं किया गया है, जिसके परिणामस्वरूप राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच संघर्षों की स्थिति बनती रही है।
    • उदाहरण के लिये, अभी हाल ही में केरल के राज्यपाल द्वारा सरकार के नामांकन को दरकिनार कर एक विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति की गई।
  • संवैधानिक खामियाँ: संविधान में मुख्यमंत्री की नियुक्ति करने या विधानसभा भंग करने के मामले में राज्यपाल की शक्तियों के प्रयोग के संबंध में कोई दिशानिर्देश नहीं है।
    • इसके अलावा, इस बात की भी कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है कि राज्यपाल किसी विधेयक पर सहमति को कितने समय तक रोक सकता है।
    • नतीजतन, राज्यपाल और संबंधित राज्य सरकारों के बीच संघर्ष उत्पन्न होने की संभावना बनी रहती है।

विभिन्न आयोगों द्वारा प्रस्तावित सुधार

  • पुंछी आयोग: राष्ट्रपति के लिये निर्धारित महाभियोग प्रक्रिया को राज्यपालों पर भी महाभियोग चलाने के लिये अनुरूप बनाया जा सकता है।
    • राज्यपाल द्वारा विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में और अन्य वैधानिक पदों पर कार्य करने की परंपरा को समाप्त कर दिया जाना चाहिये क्योंकि यह उसके पद के लिये विवादों और सार्वजनिक आलोचना के द्वार खोलता है।
  • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग: अंतर-राज्य परिषद (Inter-State Council) को दिशानिर्देश तैयार करना चाहिये कि राज्यपालों को विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग किस प्रकार करना है।
  • राजमन्नार समिति: राजमन्नार समिति ने इस बात पर बल दिया कि राज्य के राज्यपाल को स्वयं को केंद्र के एजेंट के रूप में नहीं देखना चाहिये, बल्कि राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन करना चाहिये।
  • सरकारिया आयोग: अपनी रिपोर्ट में सरकारिया आयोग ने अनुशंसा की कि अनुच्छेद 356 का उपयोग केवल अत्यंत दुर्लभ मामलों में ही किया जाना चाहिये जब किसी राज्य के भीतर संवैधानिक तंत्र के विघटन को रोकना असंभव हो।
  • वेंकटचलैया आयोग: इसने राज्यपालों के लिये सामान्य रूप से पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने की अनुमति देने की सिफ़ारिश की।
    • केंद्र सरकार को उसका कार्यकाल समाप्त होने से पूर्व उसे हटाने के संबंध में मुख्यमंत्री से परामर्श करना चाहिये।

आगे की राह

  • नियुक्ति प्रक्रिया पर पुनर्विचार: राज्यपाल की नियुक्ति के लिये एक समिति का गठन करना उपयुक्त होगा जिसमें प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री शामिल हों।
  • तटस्थ संवैधानिक रुख: राज्यपाल को एक स्वतंत्र, गैर-पक्षपाती व्यक्ति होना चाहिये। वह राज्य के हितों को ध्यान में रखे और यह सुनिश्चित करे कि राज्य एवं केंद्र के बीच की कड़ी सुचारू रूप से बनी रहे।
  • आचार संहिता तैयार करना: एक ‘आचार संहिता’ (Code of Conduct) तैयार करने की आवश्यकता है जो राज्यपाल के विवेक एवं संवैधानिक अधिदेश को निर्देशित करने के लिये कुछ ‘मानदंडों एवं सिद्धांतों’ को परिभाषित करे।
    • राज्यपाल का ‘विवेक’ (Discretion) एक ऐसा विकल्प होना चाहिये जो तर्क द्वारा निर्धारित हो, सद्भाव से संचालित हो और सतर्कता से संयमित हो।

अभ्यास प्रश्न: क्या आप इस बात से सहमत हैं कि राज्यपाल का संवैधानिक पद ‘केंद्र के एजेंट’ होने के रूप में अधिक झुक गया है? राज्यपाल और राज्य विधायिका के बीच संघर्ष एवं संघर्षण के प्रमुख बिंदुओं की चर्चा भी करें।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रारंभिक परीक्षा:

Q. किसी राज्य के राज्यपाल को निम्नलिखित में से कौन सी विवेकाधीन शक्तियाँ दी जाती हैं? (वर्ष 2014)

  1. राष्ट्रपति शासन लगाने के लिये भारत के राष्ट्रपति को एक रिपोर्ट भेजना
  2. मंत्रियों की नियुक्ति
  3. राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कुछ विधेयकों को भारत के राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना
  4. राज्य सरकार के कामकाज के संचालन के लिये नियम बनाना

 नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

 (A) केवल 1 और 2
 (B) केवल 1 और 3
 (C) केवल 2, 3 और 4
 (D) 1, 2, 3 और 4

 उत्तर: (B)


मुख्य परीक्षा

Q. क्या सुप्रीम कोर्ट का फैसला (जुलाई 2018) उपराज्यपाल और दिल्ली की चुनी हुई सरकार के बीच राजनीतिक खींचतान को सुलझा सकता है? विश्लेषण कीजिये  (वर्ष 2018)

Q. राज्यपाल द्वारा विधायी शक्तियों के प्रयोग के लिये आवश्यक शर्तों की चर्चा करें। राज्यपाल द्वारा अध्यादेशों को विधायिका के समक्ष रखे बिना पुन: प्रख्यापित करने की वैधता पर चर्चा करें।  (वर्ष 2022)

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2