शहरीकरण
प्रिलिम्स के लिये:एशियाई विकास बैंक, जनगणना 2011, आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय (MoHUA), 74वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992, स्मार्ट सिटी मिशन, AMRUT मिशन, स्वच्छ भारत मिशन- शहरी, प्रधानमंत्री आवास योजना- शहरी, आकांक्षी ज़िला कार्यक्रम, दीन दयाल अंत्योदय योजना- राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (DAY-NULM), वायु प्रदूषण मेन्स के लिये:शहरी शासन से संबंधित भारत की पहल, शहरीकरण से संबंधित चुनौतियाँ |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
भारत के शहरी क्षेत्रों को हाल ही में तेज़ी से हो रहे शहरीकरण के कारण जल के अभाव, तापन और आधारभूत अवसंरचना पर अत्यधिक बोझ जैसी गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
शहरीकरण क्या है?
- परिचय:
- शहरीकरण व्यक्तियों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों (देहात) से शहरी क्षेत्रों (कस्बों और शहरों) में प्रवास करने का प्रक्रम है। यह प्रवृत्ति सदियों से जारी है किंतु हाल के दशकों में इसमें तेज़ी आई है।
- संयुक्त राष्ट्र द्वारा शहरीकरण की पहचान चार जनसांख्यिकीय मेगा-प्रवृत्तियों में से एक के रूप में की जाती है जिसमें अन्य तीन प्रवृत्तियाँ जनसंख्या वृद्धि, काल प्रभावन (Ageing) और अंतर्राष्ट्रीय प्रवास हैं।
- प्रकार:
- नियोजित बसाव: भारत के शहरी परिदृश्य में नियोजित बस्तियाँ सरकारी अभिकरणों अथवा आवासन सोसायटियों द्वारा आधिकारिक रूप से अनुमोदित योजनाओं के अनुसार विकसित की जाती हैं।
- इन योजनाओं में भौतिक, सामाजिक और आर्थिक कारकों सहित विभिन्न कारकों पर विचार किया जाता है ताकि उनका व्यवस्थित विकास सुनिश्चित किया जा सके।
- इसका उद्देश्य पर्याप्त बुनियादी ढाँचे और सेवाओं के साथ व्यक्तियों के स्थायी तथा वास योग्य वातावरण विकसित करना है।
- अनियोजित बसाव: अनियोजित बस्तियाँ बिना किसी विधिक अनुमोदन के, सरकारी भूमि अथवा निजी संपत्ति पर अव्यवस्थित तरीके से विकसित होती हैं।
- इन क्षेत्रों में स्थायी, अर्द्ध-स्थायी और अस्थायी बस्तियाँ शामिल हैं, जो अमूमन शहर के नालों, रेलवे पटरियों, बाढ़ के प्रति सुभेद्य निम्न इलाकों अथवा शहरों के समीप स्थित कृषि भूमि तथा हरित पट्टी पर पाई जाती हैं।
- नियोजित बसाव: भारत के शहरी परिदृश्य में नियोजित बस्तियाँ सरकारी अभिकरणों अथवा आवासन सोसायटियों द्वारा आधिकारिक रूप से अनुमोदित योजनाओं के अनुसार विकसित की जाती हैं।
- शहरीकरण के रुझान:
- एशियाई विकास बैंक की वर्ष 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में शहरी क्षेत्रों की जनसंख्या वर्ष 1950 में 751 मिलियन (विश्व की कुल जनसंख्या का 30%) थी वर्ष 2018 में बढ़कर 4.2 बिलियन (विश्व की कुल जनसंख्या का 55%) हो गई।
- ये अनुमान दर्शाते हैं कि यह आँकड़ा वर्ष 2030 तक 5.2 बिलियन (विश्व की कुल जनसंख्या का 60%) और वर्ष 2050 तक 6.7 बिलियन (विश्व की कुल जनसंख्या का 68%) हो जाएगा।
- भारत की शहरी जनसंख्या में निरंतर वृद्धि हुई है। 2011 की जनगणना के अनुसार, वर्ष 2001 में शहरीकरण 27.7% था जो वर्ष 2011 में बढ़कर 31.1% हो गया, जिनकी संख्या कुल 377.1 मिलियन है और इसकी वार्षिक वृद्धि दर 2.76% है।
- शहरीकरण की यह प्रवृत्ति बड़े टियर 1 शहरों (1,00,000 और उससे अधिक जनसख्या) से हटकर मध्यम आकार के शहरों की ओर स्थानांतरित हो गई है, जिसका कारण रोज़गार, शिक्षा और सुरक्षा जैसे विभिन्न पुश तथा पुल फैक्टर हैं।
- आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय के अनुसार, शहरी क्षेत्रों में वास कर रहे व्यक्तियों की कुल संख्या के संदर्भ में, महाराष्ट्र में इसकी संख्या सर्वाधिक है जो कि 50.8 मिलियन व्यक्ति है। यह देश की कुल जनसंख्या का 13.5% है।
- उत्तर प्रदेश में यह संख्या लगभग 44.4 मिलियन है, जिसके बाद तमिलनाडु का स्थान है जहाँ यह संख्या 34.9 मिलियन है।
- एशियाई विकास बैंक की वर्ष 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में शहरी क्षेत्रों की जनसंख्या वर्ष 1950 में 751 मिलियन (विश्व की कुल जनसंख्या का 30%) थी वर्ष 2018 में बढ़कर 4.2 बिलियन (विश्व की कुल जनसंख्या का 55%) हो गई।
- शहरीकरण के कारण:
- व्यापार और उद्योग: व्यापार और उद्योग से श्रम आकर्षित होने एवं बुनियादी ढाँचे के विकास को प्रोत्साहन मिलने के साथ बाज़ारों तथा नवाचार केंद्रों के विस्तार के कारण शहरीकरण को बढ़ावा मिलता है।
- आर्थिक अवसर: ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरों में रोज़गार के अवसर अधिक होते हैं क्योंकि यहाँ व्यवसायों, कारखानों एवं अन्य संस्थानों की सघनता अधिक होती है।
- शिक्षा: ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरों में स्कूल और विश्वविद्यालय बेहतर होते हैं। इससे शिक्षा और नौकरी की संभावनाओं को बेहतर बनाने के लिये लोग आकर्षित होते हैं।
- बेहतर जीवनशैली: शहरों में अस्पताल एवं पुस्तकालय जैसी बेहतर सेवाओं के साथ ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक सामाजिक तथा सांस्कृतिक अवसर होने से जीवनशैली बेहतर होती है।
- प्रवासन: भारत के शहरीकरण में प्रवासन का प्रमुख योगदान रहा है जिसके कारण अनौपचारिक बस्तियों का विकास होता है। शहरी क्षेत्रों की औपचारिक बस्तियों में रहने की उच्च लागत के कारण प्रवासी अक्सर अनियोजित बस्तियों में बस जाते हैं।
- इसके परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में अनौपचारिक बस्तियाँ (जैसे कि झुग्गी-झोपड़ियाँ और अनधिकृत कॉलोनियाँ) विकसित होती हैं जिसके कारण स्वच्छ जल एवं स्वच्छता जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव होता है।
भारत में शहरी शासन से संबंधित ढाँचा:
- संस्थाएँ:
- आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय (MoHUA): यह राष्ट्रीय नीतियाँ तैयार करने के साथ शहरी विकास से संबंधित केंद्र सरकार की योजनाओं की देखरेख करता है।
- शहरी विकास से संबंधित राज्य के विभाग: ये केंद्र सरकार की नीतियों को लागू करने और राज्य-विशिष्ट शहरी विकास विनियमनों के विकास में भूमिका निभाते हैं।
- नगर निगम/नगरपालिकाएँ: ये अपने क्षेत्राधिकार में स्थानीय स्तर के योजना-निर्माण, नियंत्रण तथा सेवा वितरण के लिये ज़िम्मेदार हैं।
- शहरी विकास प्राधिकरण (UDAs): ये विशिष्ट शहरी क्षेत्रों या परियोजनाओं के विकास के लिये स्थापित विशेष एजेंसियाँ हैं।
- संवैधानिक और विधिक ढाँचा:
- भारतीय संविधान (अनुच्छेद 243Q, 243W): यह स्थानीय सरकारों (नगर निकायों) को उनके क्षेत्राधिकार में शहरी नियोजन और विकास के लिये सशक्त बनाता है।
- 74वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992: इसके माध्यम से शहरी स्थानीय निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया और संविधान में भाग IX-A को शामिल किया गया।
- 12वीं अनुसूची: इसमें नगरपालिकाओं की शक्तियों, अधिकारों एवं ज़िम्मेदारियों का उल्लेख है।
- प्रमुख सरकारी पहलें:
- शहरी विकास के संबंध में भारत की वैश्विक प्रतिबद्धताएँ:
- SDG लक्ष्य 11 के तहत सतत् विकास को प्राप्त करने के लिये अनुशंसित तरीकों में से एक के रूप में शहरी नियोजन को बढ़ावा देना है।
- यूएन-हैबिटेट के न्यू अर्बन एजेंडा को वर्ष 2016 में हैबिटेट III में अपनाया गया था।
- यह शहरी क्षेत्रों की योजना, निर्माण, विकास, प्रबंधन और सुधार के सिद्धांतों को सामने रखता है।
- यूएन-हैबिटेट (वर्ष 2020) द्वारा सुझाव दिया गया है कि किसी शहर की भौगोलिक स्थितियों से इसके सामाजिक-आर्थिक एवं पर्यावरणीय मूल्यों को महत्त्व मिल सकता है।
- UNFCCC लक्ष्य: भारत द्वारा नवंबर, 2021 में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (COP 26) के 26वें सत्र में वर्ष 2070 तक नेट ज़ीरो का लक्ष्य प्राप्त करने की घोषणा की।
- आपदा रोधी अवसंरचना गठबंधन (CDRI) और भारत सरकार के बीच मुख्यालय समझौते (HQA) को भारत द्वारा अनुमोदित किया गया है।
शहरीकरण से जुड़ी चुनौतियाँ क्या हैं?
- पर्यावरण संबंधी चुनौतियाँ:
- वायु प्रदूषण एवं पर्यावरण क्षरण: भारत के शहरी क्षेत्रों में वायु प्रदूषण का स्तर गंभीर हैं, जिसका मुख्य कारण वाहनों से निकलने वाला उत्सर्जन, औद्योगिक गतिविधियाँ एवं निर्माण परियोजनाएँ हैं।
- उदाहरण: विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट, 2023 के अनुसार, शीर्ष 10 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से 9 भारत में हैं।
- शहरी बाढ़ एवं जल निकासी अवसंरचना: अपर्याप्त वर्षा जल निकासी प्रणालियाँ एवं प्राकृतिक जल निकायों पर अतिक्रमण के कारण मानसून के दौरान शहरी क्षेत्रों में प्राय: बाढ़ आती है।
- भारत ने हाल के वर्षों में बाढ़ में हो रही पुनरावृत्ति का अनुभव किया है, विशेष रूप से हैदराबाद (वर्ष 2020 एवं वर्ष 2021), चेन्नई (नवंबर 2021), बंगलूरू तथा अहमदाबाद (वर्ष 2022), दिल्ली के कुछ हिस्सों (जुलाई 2023) तथा नागपुर (सितंबर 2023) में, जिससे कई निवासियों को अपना घर खाली करने के लिये मजबूर होना पड़ा।
- शहरी ताप द्वीप प्रभाव तथा हरित स्थानों की कमी: तीव्र शहरीकरण एवं हरित स्थानों की कमी के कारण नगरीय ऊष्मा द्वीप प्रभाव उत्पन्न हुआ है, जिससे तापमान एवं ऊर्जा की मांग में वृद्धि हुई है।
- उदाहरण: दिल्ली में हीटवेब ने मई 2024 में शहर की बिजली की मांग को 8,000 मेगावाट से अधिक की रिकॉर्ड ऊँचाई पर पहुँचा दिया है।
- जल की कमी एवं अपर्याप्त जल प्रबंधन: विभिन्न शहरों को तीव्रता से हो रहे शहरीकरण के साथ जनसंख्या वृद्धि और घटते भूजल स्तर के कारण गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ रहा है।
- उदाहरण: चेन्नई में वर्ष 2019 में गंभीर जल संकट था, जिसके कारण निवासियों को जल के टैंकरों एवं अलवणीकरण संयंत्रों पर निर्भर रहना पड़ा। इसके अतिरिक्त बंगलूरू में हाल ही में जल संकट इस मुद्दे की गहराई को उजागर करता है।
- वायु प्रदूषण एवं पर्यावरण क्षरण: भारत के शहरी क्षेत्रों में वायु प्रदूषण का स्तर गंभीर हैं, जिसका मुख्य कारण वाहनों से निकलने वाला उत्सर्जन, औद्योगिक गतिविधियाँ एवं निर्माण परियोजनाएँ हैं।
- अपर्याप्त आवास एवं अनौपचारिक बस्तियों का प्रसार: आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2012 से वर्ष 2027 के बीच भारत में शहरी आवास की कमी लगभग 18.78 मिलियन इकाई थी, जिसमें 65 मिलियन से अधिक लोग झुग्गी-झोपड़ियों या अनौपचारिक बस्तियों में रह रहे थे।
- इसके परिणामस्वरूप बुनियादी ढाँचे पर दबाव पड़ता है, गरीबी बढ़ती है, नियोजित विकास में बाधा उत्पन्न होती है, एवं साथ ही शहरी क्षेत्रों में समग्र रहने योग्य और सामाजिक सामंजस्यता भी कम होती है।
- यातायात संबंधी चुनौतियाँ: तीव्र शहरीकरण एवं निजी वाहनों में वृद्धि के कारण यातायात संबंधी चुनौतियाँ बढ़ गई है, यात्रा का समय बढ़ गया है और साथ ही उत्पादकता में भी बाधा उत्पन्न हुई है।
- उदाहरण: बंगलूरू में, यातायात की औसत गति लगभग 18 किमी/घंटा होने का अनुमान है, जिसके परिणामस्वरूप उत्पादकता में कमी तथा साथ ही ईंधन की बर्बादी के कारण महत्त्वपूर्ण आर्थिक हानि होती है।
- अपर्याप्त ठोस अपशिष्ट प्रबंधन: भारतीय शहर ठोस अपशिष्ट के प्रबंधन के लिये संघर्ष करते हैं, जिसके कारण कूड़े का ढेर लग जाता है और स्वास्थ्य संबंधी खतरे उत्पन्न होते हैं।
- उदाहरण: केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, भारतीय शहरों में प्रतिवर्ष लगभग 62 मिलियन टन नगरपालिका ठोस अपशिष्ट उत्पन्न होता है, जिसमें से केवल 20% का ही उचित तरीके से प्रसंस्करण/उपचार किया जाता है।
- साइबर सुरक्षा एवं लचीले डिजिटल बुनियादी ढाँचा: प्रमुख शहरी स्थानों में बढ़ते डिजिटलीकरण के साथ-साथ डिजिटल खतरे भी बढ़ रहे हैं और साथ ही लचीले डिजिटल बुनियादी ढाँचे का निर्माण एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है।
- वर्ष 2022 में एम्स दिल्ली पर रैनसमवेयर हमला शहरी डिजिटल प्रणालियों की भेद्यता को उजागर करता है।
शहरी चुनौतियों से निपटने के लिये क्या कदम उठाने की आवश्यकता है?
- पर्यावरण संबंधी पहल:
- स्पंज सिटी अवधारणा एवं पारगम्य शहरी परिदृश्य: "स्पंज सिटी" अवधारणा को क्रियान्वित करना, जिसमें शहरी परिदृश्य में पारगम्य फुटपाथ, हरित छत, वर्षा जल उद्यान तथा अन्य जल-अवशोषित सुविधाओं का एकीकरण शामिल है।
- वितरित अपशिष्ट से ऊर्जा तथा विकेंद्रीकृत अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियाँ: समुदाय आधारित अपशिष्ट प्रबंधन पहल को प्रोत्साहित करना तथा अपशिष्ट संग्रहण, छँटाई एवं प्रसंस्करण के लिये सार्वजनिक-निजी भागीदारी को बढ़ावा देना।
- स्मार्ट जल प्रबंधन एवं पुनर्चक्रण अवसंरचना: लीकेज का पता लगाने, जल वितरण को अनुकूलित करने एवं कुशल जल उपयोग को बढ़ावा देने के लिये स्मार्ट जल मीटरिंग के साथ निगरानी प्रणालियों की तैनाती करना।
- शहरी डिजिटल जुड़वाँ और पूर्वानुमान मॉडलिंग: शहरी क्षेत्रों के डिजिटल ट्विन्स विकसित करना, जो शहरों की आभासी प्रतिकृतियाँ हैं, ताकि विभिन्न परिदृश्यों, बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं और पर्यावरणीय प्रभावों का अनुकरण तथा विश्लेषण किया जा सके।
- डेटा-संचालित निर्णय-प्रक्रिया, नागरिक सहभागिता और सहभागितापूर्ण शहरी नियोजन प्रक्रियाओं को सक्षम करने के लिये शहरी शासन प्लेटफॉर्मों के साथ डिजिटल ट्विन्स को एकीकृत करना।
- स्मार्ट सिटी अवसंरचना: स्मार्ट सिटी प्रौद्योगिकियों का लोकतंत्रीकरण, जैसे कि बुद्धिमान यातायात प्रबंधन प्रणालियाँ, स्मार्ट ग्रिड और इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT)-सक्षम सार्वजनिक सेवाओं को सुरक्षित करना, ताकि कार्यकुशलता में सुधार हो, कार्बन उत्सर्जन में कमी आए तथा नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि हो।
- साइबर सुरक्षा और डिजिटल अवसंरचना लचीलापन: महत्त्वपूर्ण शहरी डिजिटल अवसंरचना को साइबर खतरों से बचाने के लिये उन्नत एन्क्रिप्शन, अभिगम नियंत्रण और वास्तविक समय खतरे की निगरानी सहित मज़बूत साइबर सुरक्षा उपायों में निवेश करना।
- अभिगम्यता एवं जागरूकता: विभिन्न पहलों के माध्यम से शहरीकरण को संबोधित करने के सरकारी प्रयासों को अक्सर पहुँच के मामले में महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसलिये सूचना का बेहतर प्रसार और सहभागी शासन समावेशिता का एक साधन हो सकता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत में शहरीकरण के कारण नियोजित और अनियोजित बस्तियों के बीच द्वैधता पैदा हो गई है, जिससे महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक तथा अवसंरचनात्मक चुनौतियाँ पैदा हो गई हैं। टिप्पणी कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजियेः (2020)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. कई वर्षों से उच्च तीव्रता की वर्षा के कारण शहरों में बाढ़ की बारंबारता बढ़ रही है। शहरी क्षेत्रों में बाढ़ के कारणों पर चर्चा करते हुए इस प्रकार की घटनाओं के दौरान जोखिम कम करने के लिये तैयारियों की क्रियाविधि पर प्रकाश डालिये। (2016) |
वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट 2024
प्रिलिम्स के लिये:वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट 2024, विश्व आर्थिक मंच, वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक, लैंगिक समानता, स्थानीय शासन मेन्स के लिये:वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट 2024, विभिन्न क्षेत्रों में लैंगिक असमानता के मुद्दे। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में विश्व आर्थिक मंच ने वर्ष 2024 के लिये अपनी वार्षिक वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट या ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट का 18वाँ संस्करण जारी किया, जिसमें दुनिया भर की 146 अर्थव्यवस्थाओं में लैंगिक समानता का व्यापक मानकीकरण किया गया है।
वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक क्या है?
- परिचय:
- यह उप-मैट्रिक्स के साथ चार प्रमुख आयामों में लैंगिक समानता की दिशा में प्रगति के आधार पर देशों को मानकीकृत करता है।
- आर्थिक भागीदारी और अवसर
- शिक्षा का अवसर।
- स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता।
- राजनीतिक सशक्तीकरण।
- चार उप-सूचकांकों में से प्रत्येक पर और साथ ही समग्र सूचकांक पर GGG सूचकांक 0 तथा 1 के बीच स्कोर प्रदान करता है, जहाँ 1 पूर्ण लैंगिक समानता दिखाता है एवं 0 पूर्ण असमानता की स्थिति को दर्शाता है।
- यह सबसे लंबे समय तक चलने वाला सूचकांक है, जो वर्ष 2006 में स्थापना के बाद से समय के साथ लैंगिक अंतरालों को समाप्त करने की दिशा में प्रगति को ट्रैक करता है।
- उद्देश्य:
- स्वास्थ्य, शिक्षा, अर्थव्यवस्था और राजनीति पर महिलाओं व पुरुषों के बीच सापेक्ष अंतराल पर प्रगति को ट्रैक करने के लिये दिशासूचक के रूप में कार्य करना।
- इस वार्षिक मानदंड के माध्यम से प्रत्येक देश के हितधारक प्रत्येक विशिष्ट आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक संदर्भ में प्रासंगिक प्राथमिकताएँ निर्धारित करने में सक्षम होते हैं।
रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष:
- समग्र निष्कर्ष:
- वर्ष 2024 में ग्लोबल जेंडर गैप स्कोर 68.5% है, इसमें पिछले वर्ष की तुलना में 0.1% का मामूली सुधार हुआ है।
- प्रगति की वर्तमान दर पर पूर्ण लैंगिक समानता हासिल करने में 134 वर्ष लगेंगे, जो यह दर्शाता है कि प्रगति की समग्र दर काफी धीमी है।
- राजनीतिक सशक्तीकरण (77.5%) तथा आर्थिक भागीदारी एवं अवसरों (39.5%) के मामले में लैंगिक अंतराल सबसे ज़्यादा बना हुआ है।
- शीर्ष रैंकिंग वाले देश:
- आइसलैंड (93.5%) लगातार 15वें वर्ष विश्व का सबसे अधिक लैंगिक समानता वाला देश बना हुआ है। इसके बाद शीर्ष 5 रैंकिंग में फिनलैंड, नॉर्वे, न्यूज़ीलैंड तथा स्वीडन का स्थान है।
- शीर्ष 10 देशों में से 7 देश यूरोप (आइसलैंड, फिनलैंड, नॉर्वे, स्वीडन, जर्मनी, आयरलैंड, स्पेन) से हैं।
- अन्य क्षेत्रों में पूर्वी एशिया और प्रशांत (न्यूज़ीलैंड चौथे स्थान पर), लैटिन अमेरिका तथा कैरिबियन (निकारागुआ छठे स्थान पर) एवं उप-सहारा अफ्रीका (नामीबिया 8वें स्थान पर) शामिल हैं।
- स्पेन और आयरलैंड ने वर्ष 2023 की तुलना में क्रमशः 8 तथा 2 रैंक की वृद्धि हासिल कर वर्ष 2024 में शीर्ष 10 में उल्लेखनीय प्रगति हासिल की है।
- क्षेत्रीय प्रदर्शन:
- लैंगिक अंतराल के मामले में यूरोप (75%) अच्छी स्थिति में है इसके बाद उत्तरी अमेरिका (74.8%) तथा लैटिन अमेरिका तथा कैरिबियन (74.2%) का स्थान है।
- मध्य पूर्व तथा उत्तरी अफ्रीका क्षेत्र, 61.7% के साथ लैंगिक अंतराल के मामले में अंतिम स्थान पर हैं।
- दक्षिणी एशियाई क्षेत्र 8 क्षेत्रों में से 7वें स्थान पर है, जहाँ लैंगिक समता स्कोर केवल 63.7% है।
- आर्थिक एवं रोज़गार अंतराल:
- लगभग सभी उद्योगों के साथ-साथ अर्थव्यवस्था में महिला कार्यबल का प्रतिनिधित्व पुरुषों से कम है, कुल मिलाकर यह 42% ही है तथा वरिष्ठ नेतृत्व की भूमिकाओं में यह केवल 31.7% है।
- "नेतृत्व पाइपलाइन" वैश्विक स्तर पर महिलाओं के लिये प्रवेश-स्तर से प्रबंधकीय स्तर तक 21.5% अंक की गिरावट दर्शाती है।
- आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण वर्ष 2023-24 में नेतृत्वकारी भूमिकाओं में महिलाओं की नियुक्ति में गिरावट आएगी।
- देखभाल करने का प्रभाव:
- हाल ही में देखभाल संबंधी ज़िम्मेदारियों में हुई वृद्धि के कारण कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी में सुधार हो रहा है, जिससे समतापूर्ण देखभाल प्रणालियों की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश पड़ता है।
- सवेतन अभिभावकीय अवकाश जैसी न्यायसंगत देखभाल नीतियाँ बढ़ रही हैं लेकिन कई देशों में अपर्याप्त हैं।
- प्रौद्योगिकी एवं कौशल अंतराल:
- STEM में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अभी भी कम है तथा कार्यबल में उनकी हिस्सेदारी 28.2% है, जबकि गैर-STEM भूमिकाओं में यह 47.3% है।
- AI, बिग डेटा एवं साइबर सुरक्षा जैसे कौशलों में लैंगिक अंतर मौजूद है, जो भविष्य में कार्य के लिये महत्त्वपूर्ण होगा।
जेंडर गैप रिपोर्ट 2024 में भारत का प्रदर्शन कैसा रहा है?
- भारत की रैंकिंग: भारत 146 देशों की वैश्विक रैंकिंग में दो स्थान नीचे आकर वर्ष 2023 में 127वें स्थान से वर्ष 2024 में 129वें स्थान पर पहुँच गया है।
- दक्षिण एशिया में भारत, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका एवं भूटान के बाद पाँचवें स्थान पर है। पाकिस्तान, इस क्षेत्र में सबसे अंतिम स्थान पर है।
- आर्थिक समानता: भारत, बांग्लादेश, सूडान, ईरान, पाकिस्तान एवं मोरक्को के समान सबसे कम आर्थिक समानता वाले देशों में से एक है, जहाँ अनुमानित अर्जित आय में लिंग समानता 30% से भी कम है।
- शैक्षणिक उपलब्धि: भारत ने माध्यमिक शिक्षा नामांकन में सबसे अच्छी लैंगिक समानता दिखाई।
- राजनीतिक सशक्तीकरण: पिछले 50 वर्षों में महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण में भारत विश्व स्तर पर 65वें स्थान पर तथा महिला अथवा पुरुष राष्ट्राध्यक्षों के साथ वर्षों की समानता में 10वें स्थान पर है।
- हालाँकि संघीय स्तर पर मंत्रिस्तरीय पदों पर (6.9%), तथा संसद में (17.2%) महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम बना हुआ है।
- लैंगिक अंतराल में कमी: भारत ने वर्ष 2024 तक देश में लैंगिक अंतराल को 64.1% कम कर दिया है। पूर्व में इसका स्थान 127वाँ था जो वर्तमान में गिरकर 129वाँ हो गया है जो कि मुख्य रूप से 'शिक्षण प्राप्ति' और 'राजनीतिक सशक्तीकरण' मापदंडों में हुई मामूली गिरावट के कारण हुआ, हालाँकि 'आर्थिक भागीदारी' तथा 'अवसर' के स्कोर में सुधार हुआ है।
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में लैंगिक अंतराल को कम करने हेतु भारत की पहलें
- बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
- महिला शक्ति केंद्र
- महिला पुलिस स्वयंसेवक
- राष्ट्रीय महिला कोष
- सुकन्या समृद्धि योजना
- कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय
- राजनीतिक आरक्षण: सरकार ने पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिये 33% सीटें आरक्षित की हैं।
- संविधान (106वाँ संशोधन) अधिनियम, 2023 लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधानसभा में महिलाओं के लिये एक तिहाई सीट आरक्षित करता है, यह लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिये आरक्षित सीटों पर भी लागू होगा।
- महिला उद्यमिता: महिला उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिये सरकार ने स्टैंड-अप इंडिया और महिला ई-हाट (महिला उद्यमियों/SHG/NGO को समर्थन देने हेतु ऑनलाइन मार्केटिंग प्लेटफॉर्म), उद्यमिता तथा कौशल विकास कार्यक्रम (ESSDP) जैसे कार्यक्रम शुरू किये हैं।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक, 2024 में भारत के प्रदर्शन का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। इसमें सुधार के प्रमुख क्षेत्रों पर चर्चा कीजिये तथा भारत में लैंगिक समता को त्वरित करने के उपायों का सुझाव दीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा विश्व के देशों के लिये 'सार्वभौमिक लैंगिक अंतराल सूचकांक' का श्रेणीकरण प्रदान करता है? (2017) (a) विश्व आर्थिक मंच उत्तर: (a) मेन्स:प्रश्न. विविधता, समता और समावेशिता सुनिश्चित करने के लिये उच्चतर न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की वांछनीयता पर चर्चा कीजिये। (2021) |
बायोफार्मास्युटिकल एलायंस
प्रिलिम्स के लिये:यूरोपीय संघ, बायोफार्मास्युटिकल एलायंस, नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी, वैक्सीन मैत्री, विश्व स्वास्थ्य संगठन, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव मेन्स के लिये:वैक्सीन कूटनीति, वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा, वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को मज़बूत करना। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में दक्षिण कोरिया, भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान तथा यूरोपीय संघ (EU) ने कोविड-19 महामारी के दौरान दवा आपूर्ति की कमी को दूर करने के साथ-साथ आपूर्ति शृंखला में वृद्धि के लिये बायोफार्मास्युटिकल एलायंस लॉन्च किया है।
- यह उद्घाटन बैठक बायो इंटरनेशनल कन्वेंशन 2024 के दौरान सैन डिएगो, कैलिफोर्निया में संपन्न हुई।
बायोफार्मास्युटिकल एलायंस क्या है?
- परिचय: बायोफार्मास्युटिकल एलायंस एक रणनीतिक साझेदारी गठबंधन है जिसका उद्देश्य दुनिया भर में बायोफार्मास्युटिकल उत्पादों की स्थिर एवं सुरक्षित आपूर्ति सुनिश्चित करना और साथ ही वैक्सीन कूटनीति में सहायता करना है।
- इसका उद्देश्य भाग लेने वाले देशों के बीच जैव नीतियों, विनियमों और अनुसंधान तथा विकास सहायता उपायों का समन्वयन करना है।
- यह पहल दक्षिण कोरिया तथा अमेरिका के बीच चर्चा से प्रारंभ हुई और साथ ही इसमें जापान, भारत एवं यूरोपीय संघ को भी शामिल किया गया। सहयोग के माध्यम से सदस्य देश एक ऐसी प्रणाली के निर्माण की आशा करते हैं जो भविष्य के वैश्विक स्वास्थ्य संकटों का सामना कर सके।
- आवश्यकता: कोविड-19 महामारी के दौरान दवा आपूर्ति में आई कमी को देखते हुए इस गठबंधन का गठन किया गया था। महामारी ने बायोफार्मास्युटिकल के लिये एक विश्वसनीय एवं स्थायी आपूर्ति शृंखला की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
- जैव नीतियों एवं विनियमों को संरेखित करके, गठबंधन जैव-फार्मास्युटिकल विकास के लिये एक समेकित दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है।
- संचालन तंत्र:
- क्रियान्वयन: सदस्य देश जैव नीतियों एवं अनुसंधान सहायता के समन्वय पर सहमति व्यक्त करते हुए क्रियान्वयन प्रारंभ करेंगे।
- आपूर्ति शृंखला मानचित्रण: कमज़ोरियों को पहचानने के साथ कम करने के लिये फार्मास्युटिकल आपूर्ति शृंखला का एक व्यापक मानचित्र विकसित करना।
- निरंतर सहयोग: गठबंधन के लक्ष्यों की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिये भागीदार देशों के बीच निरंतर सहयोग और संवाद स्थापित करना।
कोविड-19 महामारी के दौरान दवाओं की प्रमुख कमी
- कोविड-19 महामारी के कारण कई महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य सेवा क्षेत्रों में व्यापक कमी आई है। कोविड-19 टीकों की कमी ने दुनिया भर में टीकाकरण अभियान को प्रभावित किया है। टीकों की कमी ने महामारी के प्रति वैश्विक प्रतिक्रिया को शिथिल कर दिया।
- रेमडेसिविर जैसी आवश्यक औषधियों की कमी का सामना करना पड़ा, जिससे कोविड-19 के गंभीर मामलों का उपचार प्रभावित हुआ। इन कमियों के कारण संक्रमण के चरम अवधि के दौरान रोगियों के देखभाल के प्रबंधन में चुनौतियाँ उत्पन्न हुईं।
- कोविड-19 महामारी के दौरान, कई महत्त्वपूर्ण औषधियों जैसे- एमोक्सिसिलिन और पेनिसिलिन की कमी का सामना करना पड़ा जो प्रतिजैविक (Antibiotics) हैं तथा जीवाण्विक संक्रमण के उपचार के लिये आवश्यक हैं।
- कोविड-19 के मामलों में वृद्धि के कारण मेडिकल ऑक्सीजन की मांग में वृद्धि हुई। कई देशों को श्वसन संबंधी गंभीर स्थितियों के लिये आवश्यक मेडिकल ऑक्सीजन की बढ़ती आवश्यकता को पूरा करने के लिये संघर्ष करना पड़ा।
- विश्व को मास्क, दस्ताने और गाउन सहित व्यक्तिगत सुरक्षा उपस्कर (Personal Protective Equipment- PPE) की कमी का सामना करना पड़ा। PPE की कमी से फ्रंटलाइन हेल्थकेयर कर्मियों के लिये जोखिम उत्पन्न हुआ, जिससे उनकी स्वयं की सुरक्षा और साथ ही रोगियों की देखभाल करने की उनकी क्षमता प्रभावित हुई।
वैक्सीन की वैश्विक कूटनीति किस प्रकार औषधि आपूर्ति की कमी का समाधान कर सकती है?
- ऐतिहासिक और वर्तमान संदर्भ: ऐतिहासिक रूप से, पश्चिमी शक्तियों ने स्वास्थ्य सहायता पर अपना वर्चस्व स्थापित किया है, जिससे विश्व की स्वास्थ्य पहलें प्रभावित होती हैं।
- वर्तमान में, रूस, चीन और भारत की भूमिका सहायता प्राप्तकर्त्ताओं से प्रमुख वैक्सीन उत्पादक के रूप में परिवर्तित हुई है, जो विश्व की स्वास्थ्य गतिशीलता में हुए परिवर्तनों को दर्शाता है।
- वैश्विक वैक्सीन कूटनीति के रणनीतिक दृष्टिकोण:
- रूस का प्रौद्योगिकी हस्तांतरण: रूस की अनुसंधान और विकास (R&D) क्षमताएँ सुदृढ़ हैं, किंतु इसकी उत्पादन तथा वितरण क्षमता सीमित है। इसने एशिया, लैटिन अमेरिका और पूर्वी यूरोप के देशों को वैक्सीन उत्पादन आउटसोर्स करने के लिये प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण किया।
- प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण से न केवल इसकी बिक्री को बढ़ावा मिला अपितु विकासशील देशों में रूस की सॉफ्ट पावर की भी वृद्धि हुई।
- भारत द्वारा बड़े पैमाने पर उत्पादन: भारत की वैक्सीन कूटनीति की विशेषता यह रही है कि महामारी से पूर्व भी विश्व के लगभग 60% टीकों का उत्पादन भारत में ही किया जाता था और बड़ी मात्रा में औषधि निर्माण के कारण इसे "विश्व की फार्मेसी" के रूप में जाना जाता है।
- मज़बूत विनिर्माण आधार के साथ, भारत ने वैक्सीन मैत्री जैसी पहलों के माध्यम से निःशुल्क वैक्सीन प्रदान करने और इसकी वाणिज्यिक बिक्री दोनों पर ध्यान केंद्रित करते हुए, पश्चिमी देशों द्वारा आविष्कृत वैक्सीन के उत्पादन को तेज़ी से बढ़ाया।
- जनवरी और अप्रैल 2021 की अवधि में भारत ने 65 देशों को 46 मिलियन से अधिक डोज़ का निर्यात किया जिनमें से लगभग 80% का निःशुल्क वितरण करने के साथ पर विक्रय किया गया था।
- भारत ने भू-राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण देशों को निःशुल्क वैक्सीन प्रदान किये, जबकि विनिर्माण लागत को कवर करने के लिये धनी देशों को इसका विक्रय किया। इसने पड़ोसी देशों (नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी) और क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया जहाँ भारतीय प्रवासियों की बहुलता है।
- भारत वैक्सीन कूटनीति में अहम भूमिका निभाने के साथ इसकी आपूर्ति में असमानता की चिंताओं को दूर करने पर बल दे रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा विकसित देशों में टीकों की जमाखोरी के संदर्भ में आलोचना की गई है, जबकि कई देश वैक्सीन अंतराल को दूर करने के लिये भारत की ओर रुख कर रहे हैं।
- मज़बूत विनिर्माण आधार के साथ, भारत ने वैक्सीन मैत्री जैसी पहलों के माध्यम से निःशुल्क वैक्सीन प्रदान करने और इसकी वाणिज्यिक बिक्री दोनों पर ध्यान केंद्रित करते हुए, पश्चिमी देशों द्वारा आविष्कृत वैक्सीन के उत्पादन को तेज़ी से बढ़ाया।
- चीन का व्यापक निवेश: चीन ने वैक्सीन के विकास, उत्पादन एवं वितरण में बड़े पैमाने पर निवेश करने के साथ बेल्ट एंड रोड पहल के साथ जुड़ने हेतु अफ्रीकी तथा ASEAN देशों को प्राथमिकता दी है।
- पाकिस्तान, चीन की वैक्सीन सहायता का सबसे बड़ा लाभार्थी बन गया है।
- BRICS देशों के बीच समन्वय: वैक्सीन उद्योग में BRICS देश आपस में समन्वय कर रहे हैं। उदाहरण के लिये, रूस ने ब्राज़ील से बड़ा ऑर्डर मिलने पर इसके उत्पादन आउटसोर्स के लिये चीन तथा भारत की ओर रुख किया।
- चीन ने ब्राज़ील में वैक्सीन के क्लिनिकल परीक्षण किये तथा रूस ने कोविशील्ड उत्पादन हेतु ब्राज़ील और भारत को API की आपूर्ति की।
- रूस का प्रौद्योगिकी हस्तांतरण: रूस की अनुसंधान और विकास (R&D) क्षमताएँ सुदृढ़ हैं, किंतु इसकी उत्पादन तथा वितरण क्षमता सीमित है। इसने एशिया, लैटिन अमेरिका और पूर्वी यूरोप के देशों को वैक्सीन उत्पादन आउटसोर्स करने के लिये प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण किया।
- दवा आपूर्ति की कमी को पूरा करने के लिये वैक्सीन कूटनीति:
- वैक्सीन कूटनीति से देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा मिल सकता है। इससे आपूर्ति शृंखला में संभावित कमी का अनुमान लगाने और उसे दूर करने के क्रम में उत्पादन को सुव्यवस्थित करने हेतु कच्चे माल तथा संसाधनों को साझा किया जा सकता है।
- वैक्सीन कूटनीति से अन्य देशों को तकनीक या उत्पादन लाइसेंस प्रदान करने के क्रम में नए विनिर्माण केंद्रों के निर्माण को प्रोत्साहित करके वैक्सीन उत्पादन क्षमता का विस्तार किया जा सकता है।
- मौजूदा वैक्सीन उत्पादन केंद्रों में आवश्यक दवाओं के उत्पादन द्वारा आपूर्ति शृंखलाओं में विविधता को बढ़ावा मिलेगा।
- एकल-स्रोत आपूर्तिकर्त्ताओं पर निर्भरता कम होने से स्वास्थ्य संकट के दौरान आपूर्ति में व्यवधान संबंधित जोखिम कम किया जा सकता है।
बायो इंटरनेशनल कन्वेंशन, 2024
- हाल ही में सैन डिएगो,कैलिफोर्निया में बायो इंटरनेशनल कन्वेंशन, 2024 (जिसे BIO 2024 के नाम से भी जाना जाता है) का आयोजन हुआ।
- यह बायोटेक्नोलॉजी क्षेत्र का सबसे बड़ा आयोजन है, जिसमें उद्योग जगत से विश्व भर के 18,500 से ज़्यादा लोग शामिल हुए। इसमें सरकारी दवा कंपनियों, बायोटेक स्टार्टअप, शिक्षाविदों, गैर-लाभकारी संस्थाओं सहित शोधकर्त्ता, व्यावसायिक पेशेवर एवं निवेशक शामिल होते हैं।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. बायोफार्मास्युटिकल एलायंस दवा आपूर्ति की कमी को कम करने और भविष्य के स्वास्थ्य संकटों से निपटने में किस प्रकार योगदान दे सकता है? |
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पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी-संवेदनशील क्षेत्र
प्रिलिम्स के लिये:पश्चिमी घाट, पारिस्थितिकी रूप से संवेदनशील क्षेत्र (ESA), गाडगिल समिति, पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल (WGEEP), कस्तूरीरंगन समिति मेन्स के लिये: |
स्रोत:इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में कर्नाटक, महाराष्ट्र और गोवा (उन छह राज्यों में से तीन, जहाँ केंद्र सरकार ने पश्चिमी घाटों के संरक्षण हेतु पारिस्थितिकी-संवेदनशील क्षेत्रों (ESA) का प्रस्ताव दिया है) ने विकास परियोजनाओं को पूरा करने हेतु निर्धारित ESA क्षेत्रों को सीमित करने का अनुरोध किया है।
पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी-संवेदनशील क्षेत्र:
- परिचय:
- वर्ष 2013 में सरकार ने पश्चिमी घाट की जैवविविधता के संरक्षण हेतु सिफारिशें करने के लिये डॉ. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कार्यसमूह का गठन किया, जिससे इस क्षेत्र के धारणीय एवं समावेशी विकास को बढ़ावा मिल सके।
- इससे पहले माधव गाडगिल समिति (2011) ने भी पश्चिमी घाट के संरक्षण के लिये अपनी सिफारिशें दी थीं।
- इस समिति ने सिफारिश की थी कि केरल, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र, गुजरात तथा तमिलनाडु में पहचाने गए प्रमुख भौगोलिक क्षेत्रों को ESA घोषित किया जाए।
- इस समिति द्वारा पश्चिमी घाट के केवल 37% भाग (जो गाडगिल समिति की रिपोर्ट में सुझाए गए 64% से काफी कम है) को ही ESA के तहत लाने की सिफारिश की गई।
- वर्ष 2013 में सरकार ने पश्चिमी घाट की जैवविविधता के संरक्षण हेतु सिफारिशें करने के लिये डॉ. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कार्यसमूह का गठन किया, जिससे इस क्षेत्र के धारणीय एवं समावेशी विकास को बढ़ावा मिल सके।
- राज्यों की प्रतिक्रिया:
- इसमें शामिल सभी राज्यों द्वारा पश्चिमी घाटों की सुरक्षा की आवश्यकता को पहचाना गया लेकिन उन्होंने मसौदा अधिसूचना में उल्लिखित क्षेत्र की अनुमत गतिविधियों एवं सीमाओं के संबंध में अपनी चिंताएँ व्यक्त की।
- इन्होंने राज्य के विकास कार्यों को सुविधाजनक बनाने के क्रम में ESA को युक्तिसंगत बनाने का तर्क दिया।
- कर्नाटक ने कस्तूरीरंगन पैनल की रिपोर्ट का विरोध किया, जिसमें स्थानीय लोगों की आजीविका पर प्रतिकूल प्रभावों को माध्यम बनाते हुए 20,668 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को ESA के रूप में शामिल करने का प्रस्ताव किया गया था।
- गोवा ने ESA के रूप में प्रस्तावित 1,461 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में से 370 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को कम करने का अनुरोध किया।
नोट:
- ऐसे क्षेत्र जहाँ अनूठे जैविक संसाधन होते हैं और जिनके संरक्षण के लिये विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है, MoEF&CC द्वारा पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों (ESA) के रूप में अधिसूचित किये जाते हैं जिसका उद्देश्य पारिस्थितिकी महत्त्व वाले क्षेत्रों में जैवविविधता की रक्षा करना है।
- इसके अतिरिक्त, जैवविविधता के प्रबंधन और संरक्षण के लिये, MoEFCC संरक्षित क्षेत्रों के समीपवर्ती क्षेत्रों को पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र (Eco-Sensitive Zones- ESZ) भी नामित करता है।
- वर्ष 2002 से, ये क्षेत्र वन्यजीवों के लिये अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करने के लिये बफर की भूमिका निभाई है, जो अत्यधिक संरक्षित क्षेत्रों को कम सुरक्षा की आवश्यकता वाले क्षेत्रों में परिवर्तित करने के लिये "शॉक एब्ज़ॉर्बर" के रूप में कार्य करते हैं।
ESZ बनाम संरक्षित क्षेत्र |
||
विशेषता |
संरक्षित क्षेत्र |
पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र (ESZ) |
प्राथमिक उद्देश्य |
जैवविविधता और पारिस्थितिकी तंत्र का पूर्ण संरक्षण |
समीपवर्ती संरक्षित क्षेत्रों की सुरक्षा के लिये बफर ज़ोन के रूप में कार्य करता है |
अवस्थिति |
उच्च पारिस्थितिक मूल्य वाले निर्दिष्ट क्षेत्र |
संरक्षित क्षेत्रों (राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभयारण्य) के समीप अवस्थित |
सुरक्षा का स्तर |
उच्चतम स्तर की सुरक्षा |
संरक्षित क्षेत्र पर प्रभाव को कम करने के लिये विनियमित गतिविधियाँ |
विकासात्मक गतिविधियाँ |
अत्यधिक प्रतिबंधित (केवल अनुसंधान, सीमित मनोरंजन उद्देश्यों हेतु) |
विविध प्रकार- कुछ निषिद्ध, कुछ विनियमित, कुछ संवर्द्धित (सतत् प्रथाएँ) |
आजीविका |
स्थानीय समुदाय का आगमन अमूमन प्रतिबंधित |
परंपरागत प्रथाओं और सतत् आजीविका के लिये उपयुक्त |
आकार |
परिवर्तनशील, दायरे में विस्तार संभव |
प्रायः 10 किमी. के दायरे में सीमित, संरक्षित क्षेत्रों की तुलना में छोटे |
पश्चिमी घाट पर समितियों की सिफारिशें:
- पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल, 2011 (अध्यक्ष: माधव गाडगिल):
- पश्चिमी घाट के सभी क्षेत्रों को ESA घोषित किया जाए तथा श्रेणीबद्ध क्षेत्रों में सीमित विकास की अनुमति दी जाए।
- पश्चिमी घाटों को ESA 1, 2 तथा 3 में वर्गीकृत किया जाए, जिसमें ESA- 1 को उच्च प्राथमिकता दी जाए, जहाँ लगभग सभी विकासात्मक गतिविधियाँ प्रतिबंधित हों।
- शासन की प्रणाली को अधरोर्ध्व (Top-To-Bottom) दृष्टिकोण के बजाय ऊर्ध्वाधर (Bottom-To-Top) दृष्टिकोण (ग्राम सभाओं से) के रूप में निर्दिष्ट किया जाए।
- पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 3 के अंतर्गत शक्तियों के साथ, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अधीन एक सांविधिक प्राधिकरण के रूप में पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी प्राधिकरण (WGEA) का गठन किया जाए।
- रिपोर्ट की आलोचना इस आधार पर की गई यह यथार्थ से परे है और पर्यावरण के प्रति अधिक अनुकूल है।
- कस्तूरीरंगन समिति, 2013: इसमें गाडगिल रिपोर्ट के विपरीत विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाने का प्रयास किया गया:
- पश्चिमी घाट के कुल क्षेत्रफल के बजाय, कुल क्षेत्रफल का केवल 37% ESA के अंतर्गत लाया जाएगा।
- ESA में खनन, उत्खनन और रेत खनन पर पूर्ण प्रतिबंध।
- किसी भी ताप विद्युत परियोजना की अनुमति नहीं दी जाएगी और विस्तृत अध्ययन के बाद ही जल विद्युत परियोजनाओं की अनुमति दी जाएगी।
- लाल उद्योग यानी जो अत्यधिक प्रदूषण करते हैं, उन पर सख्ती से प्रतिबंध लगाया जाएगा।
- ESA के दायरे से बसे हुए क्षेत्रों और बागानों को बाहर रखा जाएगा, जिससे यह किसानों के पक्ष में होगा।
पारिस्थितिकी-संवेदनशील क्षेत्र घोषित करने की प्रमुख चिंताएँ क्या हैं?
- संरक्षण और विकास में संतुलन: ESA अक्सर आर्थिक विकास की संभावना वाले क्षेत्रों में स्थित होते हैं। इससे संरक्षण लक्ष्यों और विकास परियोजनाओं के बीच टकराव हो सकता है, जिससे स्थानीय समुदायों को आर्थिक अवसरों से वंचित होना पड़ सकता है।
- स्थानीय आजीविका पर प्रभाव: ESA में विनियमन वहाँ रहने वाले समुदायों की पारंपरिक प्रथाओं और आजीविका को प्रतिबंधित कर सकते हैं। इससे नाराज़गी पैदा हो सकती है तथा संरक्षण प्रयासों में सहयोग में बाधा आ सकती है।
- असंगत नीतियाँ एवं कार्यान्वयन: ESA की नीतियाँ और कार्यान्वयन अलग-अलग क्षेत्रों व राज्यों में अलग-अलग हो सकते हैं, जिससे प्रवर्तन में भ्रम तथा चुनौतियाँ पैदा हो सकती हैं। यह असंगतता उन गतिविधियों के लिये खामियाँ भी पैदा कर सकती है जो पर्यावरण को नुकसान पहुँचा सकती हैं।
- जागरूकता और भागीदारी का अभाव: कभी-कभी, स्थानीय समुदाय और हितधारक ESA के महत्त्व के बारे में पूरी तरह से अवगत नहीं हो सकते हैं या निर्णय लेने की प्रक्रिया में उचित रूप से शामिल नहीं हो सकते हैं। भागीदारी की यह कमी प्रतिरोध को जन्म दे सकती है और कार्यक्रम की प्रभावशीलता में बाधा डाल सकती है।
आगे की राह
- संतुलित दृष्टिकोण: संतुलित दृष्टिकोण के लिये प्रयास करें, जो सतत् विकास की अनुमति देते हुए पश्चिमी घाट की पारिस्थितिक अखंडता की रक्षा करता है। इसमें मुख्य क्षेत्रों में सख्त नियमों के साथ ESA में शामिल होना और विशिष्ट कम प्रभाव वाली विकास परियोजनाओं के लिये निर्दिष्ट क्षेत्र शामिल हो सकते हैं।
- वैज्ञानिक प्रभाव मूल्यांकन: ESA पदनाम के लिये आवश्यक न्यूनतम क्षेत्र निर्धारित करने हेतु संपूर्ण, स्वतंत्र वैज्ञानिक मूल्यांकन करना। यह साक्ष्य-आधारित निर्णय लेने को सुनिश्चित करता है और विकास पर अनावश्यक प्रतिबंधों को भी कम करता है।
- हितधारकों की वचनबद्धता: केंद्रीय सरकारी निकायों, राज्य सरकारों, स्थानीय समुदायों के साथ-साथ पर्यावरण समूहों के बीच खुले संचार एवं सहयोग को सुविधाजनक बनाना। इससे निर्णय लेने की प्रक्रिया अधिक समावेशी हो जाती है, जिसमें सभी हितधारकों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाता है।
- वैकल्पिक आजीविका विकल्प: ESA में रहने वाले उन लोगों के लिये वैकल्पिक आजीविका विकल्प विकसित करना जो कठोर नियमों से प्रभावित हो सकते हैं। इसमें इको-टूरिज़्म धारणीय कृषि पद्धतियों के साथ-साथ कौशल विकास कार्यक्रमों को बढ़ावा देना भी शामिल हो सकता है।
- पारदर्शी मॉनिटरिंग: ESA एवं विकास परियोजनाओं की प्रभावशीलता पर नज़र रखने के लिये स्पष्ट तथा पारदर्शी निगरानी तंत्र स्थापित करना। इससे अनपेक्षित परिणाम सामने आने पर सुधार की दिशा में आगे बढ़ा जा सकेगा और ज़िम्मेदारीपूर्ण विकास प्रथाओं को सुनिश्चित किया जा सकेगा।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत के पश्चिमी घाटों के सामने आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। इन चुनौतियों से निपटने हेतु एक संतुलित दृष्टिकोण क्या हो सकता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारत में संरक्षित क्षेत्रों की निम्नलिखित में से किस एक श्रेणी में स्थानीय लोगों को बायोमास एकत्र करने और उपयोग करने की अनुमति नहीं है? (2012) (a) बायोस्फीयर रिज़र्व उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. "विभिन्न प्रतियोगी क्षेत्रों और साझेदारों के मध्य नीतिगत विरोधाभासों के परिणामस्वरूप पर्यावरण के संरक्षण तथा उसके निम्नीकरण की रोकथाम अपर्याप्त रही है”। सुसंगत उदाहरणों सहित टिप्पणी कीजिये। (2018) |