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एडिटोरियल


जैव विविधता और पर्यावरण

पश्चिमी घाट: महत्त्व और संरक्षण

  • 05 Jan 2022
  • 13 min read

यह एडिटोरियल 03/01/2022 को ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित “Why There Should Be No Delay In Protecting The Western Ghats” लेख पर आधारित है। इसमें पश्चिमी घाट के समक्ष मौजूद खतरों और इसे पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र (ESA) घोषित किये जाने के निहितार्थों के संबंध में चर्चा की गई है।

संदर्भ

विभिन्न अध्ययनों और IPCC रिपोर्टों के आधार पर जलवायु संकट और चरम मौसमी घटनाओं (जैसे बादल फटना और फ्लैश फ्लड) के बीच की कड़ी को अब अच्छी तरह से समझा जा सकता है।

अंधाधुंध निर्माण और भूमि उपयोग ने इन सभी प्रभावों को और अधिक बढ़ा दिया है; विशेष रूप से पश्चिमी घाट जैसे पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में ये प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हैं। 

किंतु विज्ञानसम्मत साक्ष्यों के बावजूद पश्चिमी घाट क्षेत्र, विशेष रूप से इस क्षेत्र में भूमि उपयोग के बाबत केंद्र सरकार और राज्य सरकारें उपेक्षापूर्ण ही बनी रही हैं। 

पश्चिमी घाट

  • परिचय: पश्चिमी घाट पहाड़ों की एक शृंखला से मिलकर बना है जो भारत के पश्चिमी तट (Western Coast) के समानांतर विस्तृत है और केरल, महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात, तमिलनाडु एवं कर्नाटक राज्यों से होकर गुज़रता है।  
  • महत्त्व:
    • पश्चिमी घाट भारतीय मानसून के मौसम के पैटर्न को प्रभावित करते हैं जो इस क्षेत्र की गर्म उष्णकटिबंधीय जलवायु से संबंधित हैं।  
    • वे दक्षिण-पश्चिम से आने वाली वर्षा-युक्त मानसूनी हवाओं के लिये एक बाधा के रूप में कार्य करते हैं।  
    • पश्चिमी घाट उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनों के साथ-साथ विश्व स्तर पर संकटग्रस्त 325 प्रजातियों का निवास स्थान भी हैं।  
  • पश्चिमी घाट पर मंडराते खतरे:
    • विकास-संबंधी दबाव: कृषि विस्तार और पशुधन चराई के साथ-साथ शहरीकरण इस क्षेत्र के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न कर रहा है। 
      • पश्चिमी घाट क्षेत्र में लगभग 50 मिलियन लोग वास करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप ऐसे विकास-संबंधी दबाव का निर्माण होता है जो परिमाण में विश्व भर के कई संरक्षित क्षेत्रों की तुलना में कहीं अधिक है।  
    • जैव विविधता संबंधी समस्याएँ: वन क्षति, पर्यावास विखंडन, आक्रामक पादप प्रजातियों द्वारा पर्यावास क्षरण, अतिक्रमण और भूदृश्य रूपांतरण भी पश्चिमी घाट को प्रभावित कर रहे हैं।     
      • पश्चिमी घाट में विकास के दबाव के कारण होने वाले विखंडन से संरक्षित क्षेत्रों के बाहर वन्यजीव गलियारों और उपयुक्त पर्यावासों की उपलब्धता कम हो रही है।  
    • जलवायु परिवर्तन: बीते कुछ वर्षों में जलवायु संकट की गति तेज़ हुई है: 
      • पिछले चार वर्षों (2018-21) में बाढ़ ने केरल के पश्चिमी घाट क्षेत्रों को तीन बार तबाह किया है जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए और आधारभूत संरचना एवं आजीविका को भारी आघात लगा।  
      • वर्ष 2021 में भूस्खलन और फ्लैश फ्लड ने कोंकण के घाट क्षेत्रों में तबाही मचाई। 
      • अरब सागर के गर्म होने के साथ चक्रवातों की तीव्रता में भी वृद्धि हो रही है, जिससे पश्चिमी तट विशेष रूप से सुभेद्य होते जा रहे हैं।   
    • औद्योगीकरण संबंधी खतरे: पश्चिमी घाट के संबंध में एक सुविचारित ESA नीति के अभाव में इस क्षेत्र में अधिकाधिक प्रदूषणकारी उद्योगों, खदानों एवं खानों, सड़कों और टाउनशिप की योजना बनाई जा सकती है।    
      • इसका आशय है कि भविष्य में इस क्षेत्र के नाज़ुक भूदृश्य को और अधिक क्षति पहुँचेगी।
  • पश्चिमी घाट संबंधी समितियाँ:
    • गाडगिल समिति (2011): आधिकारिक तौर पर पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल (WGEEP) के रूप में ज्ञात गाडगिल समिति ने समस्त पश्चिमी घाट क्षेत्र को पारिस्थितिक संवेदनशील क्षेत्र (Ecological Sensitive Areas- ESA) घोषित करने की अनुशंसा की थी, जहाँ केवल कुछ चिह्नित क्षेत्रों में सीमित विकास की ही अनुमति हो।    
    • कस्तूरीरंगन समिति (2013): इसने गाडगिल रिपोर्ट द्वारा प्रस्तावित प्रणाली के विपरीत विकास और पर्यावरण संरक्षण को संतुलित रखने का प्रस्ताव किया।   
      • कस्तूरीरंगन समिति ने सिफारिश की कि पश्चिमी घाट के समस्त भाग के बजाय कुल क्षेत्रफल के केवल 37% को ESA के दायरे में लाया जाना चाहिये और ESA में खनन, उत्खनन, रेत खनन जैसी गतिविधियों पर पूर्ण प्रतिबंध हो।    
  • पश्चिमी घाट ESA घोषणा में प्रक्रियात्मक विलंब:
    • केंद्र ने वर्ष 2011 से ‘पश्चिमी घाट ESA अधिसूचना’ को लंबित बनाए रखा है। 
      • कस्तूरीरंगन समिति की सिफारिशों के बाद से चार मसौदा अधिसूचनाएँ जारी की गई हैं, लेकिन कोई परिणाम सामने नहीं आया।
    • अभी हाल में केंद्र सरकार ने पश्चिमी घाट ESA अधिसूचना 2018 के मसौदे को अधिसूचित किये जाने की समय-सीमा को 30 जून, 2022 तक के लिये बढ़ा दिया है।  
      • जबकि छह महीने का यह विस्तार असंगत नज़र आ सकता है, पश्चिमी घाट ESA नीति का कार्यान्वयन अब 10 वर्षों से अधिक समय से लंबित रहने की सीमा को पार कर गया है। 
    • यद्यपि केंद्र सरकार का इरादा पर्वत शृंखला क्षेत्र के लगभग 37% भाग में औद्योगिक और विकास-संबंधी गतिविधियों को प्रतिबंधित या नियंत्रित करना है, विभिन्न पश्चिमी घाट राज्य ऐसी कई बाधाओं का विरोध कर रहे हैं।

आगे की राह

  • निवारक दृष्टिकोण: सभी लोगों की आजीविका को प्रभावित करने और देश की अर्थव्यवस्था को क्षति पहुँचाने वाले जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए नाज़ुक व संवेदनशील पारिस्थितिक तंत्र का संरक्षण करना विवेकपूर्ण होगा।  
    • यह पुनर्स्थापन/पुनरुद्धार के लिये धन/संसाधनों के व्यय की तुलना में आपदाओं की संभावना वाली स्थिति पर खर्च के दृष्टिकोण से अधिक लागत-प्रभावी होगा।
    • इस प्रकार, कार्यान्वयन में और देरी से देश के सबसे बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन का क्षरण और प्रबल ही होगा।  
  • सभी हितधारकों को संलग्न करना: वैज्ञानिक अध्ययन पर आधारित एक उपयुक्त विश्लेषण के साथ संबंधित चिंताओं को संबोधित करते हुए विभिन्न हितधारकों के बीच आम सहमति का निर्माण करने की तत्काल आवश्यकता है।     
    • वन भूमि, उत्पादों और सेवाओं पर मंडराते खतरों और मांगों पर एक समग्र दृष्टिकोण अपनाते हुए इन्हें संबोधित करने के लिये रणनीति (संलग्न अधिकारियों के स्पष्ट घोषित उद्देश्यों के साथ) रणनीति तैयार की जानी चाहिये। 
  • स्थानीय लोगों की चिंताओं को संबोधित करना: तर्क दिया जाता है कि पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र में गतिविधयों को सीमित और नियंत्रित करने का विचार स्वाभाविक रूप से स्थानीय लोगों और उनकी विकासात्मक आकांक्षाओं के विरुद्ध है। 
    • किंतु, संभव है कि बहुत से स्थानीय लोग अवगत ही नहीं हों कि ESA में क्या प्रावधान किये गए हैं; क्या यह क्षेत्र में विकास को पटरी से उतार देगा और विकास के अन्य वैकल्पिक मॉडल कौन से हैं।
    • इस विषय पर विस्तृत सार्वजनिक परामर्श के माध्यम से चर्चा की जा सकती है ताकि यह भ्रम न बने कि नीति ‘टॉप-डाउन’ दृष्टिकोण की शिकार है।  
  • राज्य सरकारों की भूमिका: राज्यों को पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट करने के खतरों को चिह्नित करना चाहिये, विशेषकर जब भारत जलवायु संकट का खामियाज़ा भुगत रहा है। 
    • उन्हें यह समझना होगा कि जलवायु संकट एक वास्तविकता है और मूल्यवान पश्चिमी घाट के संरक्षण के लिये निर्णयकारी प्रक्रिया को टालते रहने के बजाय उन्हें अधिकाधिक निर्णायक जलवायु-सिद्धकारी कार्रवाइयों पर आगे बढ़ना चाहिये।  
  • स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाना: WGEEP ने इस बात पर बल दिया था कि वे ज़मीनी स्तर के लोग हैं जिनके पास ज्ञान है और जो पर्यावरण से जुड़े हैं और उनके पास ही इस क्षेत्र की सुरक्षा के लिये प्रेरणा मौजूद होनी चाहिये।   
    • आगे की राह वास्तविक लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण और ग्रामों एवं शहरों में स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाने में निहित है।  
    • पश्चिमी घाट क्षेत्र के लोगों ने पूर्व में कई प्रगतिशील पहलों (जैसे केरल में पीपल्स प्लानिंग कैम्पेन) को शुरू किया है। संसाधनों के क्षय और दोहन को रोकने के लिये इस तरह के आंदोलनों की भावना को पुनर्बहाल किया जाना चाहिये।

निष्कर्ष

  • पश्चिमी घाटों की रक्षा की आवश्यकता पर कोई दो मत नहीं हैं, लेकिन वनों की सुरक्षा और स्थानीय लोगों की आजीविका के अधिकार के बीच संतुलन बनाने की भी आवश्यकता है।
  • यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि पश्चिमी घाट या किसी भी प्राकृतिक संसाधन पर केवल हमारा हक नहीं है कि हम उसे नष्ट कर दें। इसे भावी पीढ़ी के लिये सुरक्षित रखना हम सभी का कर्तव्य है।

अभ्यास प्रश्न: ‘‘वनों की सुरक्षा और स्थानीय लोगों की आजीविका के अधिकार के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता है।’’ पश्चिमी घाट के समक्ष मौजूद खतरों के संदर्भ में इस कथन की पुष्टि कीजिये।

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