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डेली न्यूज़

  • 06 Nov, 2024
  • 71 min read
अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत-अल्जीरिया रक्षा सहयोग समझौता ज्ञापन

प्रिलिम्स के लिये:

गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM), अंतर्राष्ट्रीय संगठन और समझौते, द्विपक्षीय संबंध, आर्थिक सहयोग और व्यापार, अफ्रीका की भू-राजनीति

मेन्स के लिये:

भारत की विदेश नीति, वैश्वीकरण और व्यापार संबंध, आर्थिक विकास रणनीतियाँ, अफ्रीका में क्षेत्रीय सहयोग, राजनीतिक संबंध और कूटनीतिक जुड़ाव

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (CDS) ने अल्जीरिया का दौरा किया, जिसके परिणामस्वरूप भारत और अल्जीरिया के बीच रक्षा सहयोग पर एक महत्त्वपूर्ण समझौता ज्ञापन (MoU) संपन्न हुआ।

  • इस समझौते का उद्देश्य दोनों देशों के बीच सामरिक हितों और सैन्य संबंधों को मज़बूत करना है।

भारत-अल्जीरिया संबंधों में हाल ही में विकास क्या है?  

  • महत्त्वपूर्ण यात्रा: हाल की चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ की यात्रा 1 नवंबर को अल्जीरिया की क्रांति की 70 वीं वर्षगाँठ के अवसर पर हुई, जिसमें सैन्य परेड और समारोह आयोजित किये गए, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ द्वारा अल्जीरिया की ऐतिहासिक और राजनीतिक विरासत पर प्रकाश डाला गया।
  • सामरिक सहयोग: भारत द्वारा अल्जीरिया में अपनी रक्षा शाखा (Defence Wing) को पुनः स्थापित किया गया तथा अल्जीरिया को भारत में अपनी रक्षा शाखा स्थापित करने के लिये प्रोत्साहित किया।
    • "विश्व बंधु" या वैश्विक साझेदार के रूप में भारत की भूमिका पर ज़ोर देते हुए, CDS द्वारा रक्षा अनुभव और विशेषज्ञता साझा करने के लिये भारत की तत्परता पर प्रकाश डाला।
  • एकीकृत रक्षा वक्तव्य: एकीकृत रक्षा स्टाफ द्वारा समझौता ज्ञापन के आपसी समझ को मज़बूत करने तथा विभिन्न क्षेत्रों में दीर्घकालिक सहयोग की नींव रखने पर ज़ोर दिया गया।
    • चर्चा में 'मेक इन इंडिया' और 'मेक फॉर द वर्ल्ड' के तहत रक्षा विनिर्माण में भारत की प्रगति शामिल थी, जिससे अल्जीरिया को सहयोग के लिये संभावित अवसर मिले।
    • भारत ने अल्जीरिया में अपनी रक्षा शाखा को बहाल कर दिया है और भारत में अल्जीरिया की रक्षा शाखा के लिये समर्थन की पेशकश की है, CDS ने वैश्विक स्तर पर शांतिपूर्ण संघर्ष समाधान के लिये भारत की प्रतिबद्धता की पुष्टि की।

भारत-अल्जीरिया संबंध के महत्त्वपूर्ण क्षेत्र कौन-से हैं?

  • राजनयिक संबंधों: 
    • भारत और अल्जीरिया ने जुलाई, 1962 में राजनयिक संबंध स्थापित किये, इसी वर्ष अल्जीरिया को फ्राँसीसी औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी।
    • भारत ने अल्जीरिया के मुक्ति आंदोलन का भी समर्थन किया। दोनों देश स्वतंत्रता के बाद गुटनिरपेक्ष आंदोलन में शामिल हुए और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर एकजुटता बनाए रखी।
  • द्विपक्षीय व्यापार: 
    • भारत और अल्जीरिया के बीच द्विपक्षीय व्यापार वर्ष 2018 में 2.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर के उच्चतम स्तर पर पहुँच गया था, जो बाद में कोविड-19 और अल्जीरिया के आयात प्रतिबंधों के कारण वर्ष 2021 में घटकर 1.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर रह गया।
    • वर्ष 2022 में व्यापार में तेज़ी आएगी, जो 24% बढ़कर 2.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो जाएगा, वर्ष 2023-24 में भारत का निर्यात 848.16 मिलियन अमेरिकी डॉलर और आयात 885.54 मिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच जाएगा।
    • प्रमुख निर्यातों में चावल, फार्मास्यूटिकल्स और ग्रेनाइट शामिल हैं, जबकि आयात पेट्रोलियम तेल, LNG और कैल्शियम फॉस्फेट पर केंद्रित है।
  • द्विपक्षीय समझौते: 
    • भारत और अल्जीरिया ने सहयोग बढ़ाने हेतु कई समझौतों पर हस्ताक्षर किये हैं:
      • ऑल इंडिया रेडियो (AIR) और अल्जीरियाई राष्ट्रीय रेडियो के बीच वर्ष 2015 में एक समझौता ज्ञापन (MoU) पर हस्ताक्षर किये गए।
      • वर्ष 2018 में एक अंतरिक्ष सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किये गए, जिससे फसल पूर्वानुमान और आपदा प्रबंधन जैसे अनुप्रयोगों के लिये उपग्रह प्रौद्योगिकी के उपयोग की सुविधा प्राप्त होगी।
      • राजनयिक और आधिकारिक पासपोर्ट धारकों के लिये वीज़ा छूट समझौता अक्तूबर, 2021 में प्रभावी हुआ।
  • सांस्कृतिक जुड़ाव: 
    • 10 वाँ अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस (IDY) 21 जून, 2024 को अल्जीरिया के सुप्रसिद्ध जार्डिन डी'एस्साई डू हम्मा उद्यान (Jardin d’Essai du Hamma garden) में मनाया गया। इस कार्यक्रम में विभिन्न आयु और पृष्ठभूमि के 300 से अधिक लोगों ने भाग लिया।
  • अंतरिक्ष सहयोग: 
    • वर्ष 2018 में हस्ताक्षरित भारत-अल्जीरिया अंतरिक्ष सहयोग समझौता अंतरिक्ष विज्ञान, प्रौद्योगिकी और अनुप्रयोगों में संयुक्त प्रयासों को कवर करता है
    • अल्जीरिया की अंतरिक्ष एजेंसी ने इसरो के साथ फसल पूर्वानुमान और आपदा प्रबंधन जैसे उपग्रह अनुप्रयोगों पर चर्चा की तथा भारत ने वर्ष 2016 में चार अल्जीरियाई उपग्रहों को प्रक्षेपित किया।
    • वर्ष 2022 में एक संयुक्त समिति की बैठक में सहयोग को आगे बढ़ाया जाएगा, जिसमें अल्जीरिया ने उपग्रह क्षमता निर्माण के लिये समर्थन का अनुरोध किया है।
  • भारतीय समुदाय: 
    • वर्तमान में लगभग 3,800 भारतीय अल्जीरिया में रह रहे हैं तथा विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं। 
    • इनमें से कई लोग तकनीकी रूप से कुशल हैं और दूरदराज के क्षेत्रों में परियोजनाओं, जबकि अन्य लोग अर्द्ध -कुशल कार्यों जैसे राजमिस्त्री, बढ़ई, चित्रकार और वेल्डर में कार्यरत हैं। 
    • इस समुदाय में 13 ओवरसीज़ सिटिज़नशिप ऑफ इंडिया (OCI) कार्डधारक, 10 भारतीय मूल के व्यक्ति (PIO) और 15 भारतीय छात्र भी शामिल हैं।

अल्जीरियाई क्रांति 

  • अल्जीरियाई युद्ध, जिसे स्वतंत्रता संग्राम या अल्जीरियाई क्रांति के नाम से भी जाना जाता है, वर्ष 1954 से 1962 तक फ्राँस और अल्जीरियाई राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा (FLN) के मध्य हुआ था।
  • इस संघर्ष में गुरिल्ला युद्ध, माक्विस लड़ाई और व्यापक रूप से यातना का प्रयोग किया गया, जिसने एक महत्त्वपूर्ण वि-उपनिवेशीकरण संघर्ष का रूप ले लिया।
  • इससे अल्जीरिया के विभिन्न समुदायों के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया और महानगरीय फ्राँस में इसके दीर्घकालिक परिणाम हुए, जिसके परिणामस्वरूप अंततः अल्जीरिया को स्वतंत्रता प्राप्त हुई।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन 

  • शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ से अपनी स्वतंत्रता को बचाए रखने के लिये गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) की स्थापना की गई थी।
  • यह अवधारणा इंडोनेशिया में वर्ष 1955 के बांडुंग सम्मेलन के दौरान अस्तित्त्व हुई थी।
  • पहला गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन सितंबर, 1961 में बॅलग्रेड, यूगोस्लाविया में आयोजित किया गया था।
  • अप्रैल, 2018 तक, NAM के 120 सदस्य हैं: अफ्रीका से 53, एशिया से 39, लैटिन अमेरिका और कैरिबियन से 26, तथा यूरोप (बेलारूस और अज़रबैजान) से 2।
  • संस्थापक नेताओं में जोसिप ब्रोज़ टीटो, गमाल अब्देल नासिर, जवाहरलाल नेहरू, क्वामे नक्रूमा और सुकर्णो शामिल हैं।

अल्जीरिया भारत के लिये क्यों महत्त्वपूर्ण है?

  • सामरिक साझेदारी: माघरेब में अल्जीरिया की सामरिक स्थिति और गुटनिरपेक्ष आंदोलन में भारत के साथ इसका ऐतिहासिक संरेखण बहुआयामी साझेदारी के लिये एक ठोस आधार प्रदान करता है, जिससे दोनों राष्ट्र आपसी हित के अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर सहयोग कर सकते हैं।
  • ऊर्जा सुरक्षा: अल्जीरिया के पास विशाल हाइड्रोकार्बन भंडार होने के कारण, भारत अपने ऊर्जा स्रोतों में विविधता ला सकता है तथा एक क्षेत्र पर निर्भरता कम कर सकता है, जिससे उसकी ऊर्जा सुरक्षा बढ़ेगी साथ ही ऊर्जा आयात में स्थिरता देखने को मिलेगी।
  • आर्थिक सहयोग: अल्जीरिया में हाल ही में हुए आर्थिक सुधार, जिनमें प्रतिबंधात्मक निवेश नियमों को वापस लेना भी शामिल है, भारत के लिये व्यापार में शामिल होने, बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं में निवेश करने तथा क्षमता विकास को बढ़ावा देने के महत्त्वपूर्ण अवसर प्रस्तुत करते हैं, जिससे दोनों अर्थव्यवस्थाओं को लाभ होगा।
  • स्वास्थ्य सेवा सहयोग: भारत का उन्नत फार्मास्युटिकल उद्योग अल्जीरिया की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को समर्थन देने, चिकित्सा पर्यटन को बढ़ावा देने और टेलीमेडिसिन कार्यक्रमों को लागू करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, जो अल्जीरियाई स्वास्थ्य सेवा कार्यकर्त्ताओं की क्षमताओं को बढ़ाते हैं।
  • सुरक्षा सहयोग: क्षेत्रीय अस्थिरता और सुरक्षा खतरों को देखते हुए, भारत और अल्जीरिया संयुक्त आतंकवाद-रोधी पहल के माध्यम से अपने रक्षा संबंधों को मज़बूत कर सकते हैं, द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ा सकते हैं तथा क्षेत्रीय स्थिरता एवं सुरक्षा में योगदान दे सकते हैं।

भारत-अल्जीरिया संबंधों में प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं? 

  • राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक मुद्दे: अल्जीरिया की आंतरिक राजनीतिक अस्थिरता और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियाँ लगातार कूटनीतिक जुड़ाव तथा आपसी पहल में बाधा डाल सकती हैं।
  • सीमित क्षेत्रीय सहयोग: अरब मगरिब संघ की निष्क्रिय स्थिति क्षेत्रीय सहयोग के अवसरों को सीमित करती है, जिससे क्षेत्र में भारत की सहभागिता रणनीति प्रभावित होती है।
  • जानकारी का आभाव: एक दूसरे की संस्कृतियों और राजनीतिक संदर्भों के बारे में जागरूकता की कमी गहरे द्विपक्षीय संबंधों तथा सहकारी प्रयासों में बाधा उत्पन्न कर सकती है।

अरब मगरिब संघ (AMU)

  • स्थापना: संघ की स्थापना पाँच मगरिब राज्यों द्वारा हस्ताक्षरित एक संधि के बाद वर्ष 1989 में मराकेश में की गई।
  • सदस्य राज्य: अल्जीरिया, लीबिया, मॉरिटानिया, मोरक्को और ट्यूनीशिया।
  • लक्ष्य :
    • सदस्य राज्यों की स्वतंत्रता को मज़बूत करना।
    • सदस्य राज्यों की परिसंपत्तियों की सुरक्षा करना।
    • अन्य क्षेत्रीय संस्थाओं के साथ सहयोग करना।
    • अंतर्राष्ट्रीय संवाद में शामिल होना।
  • आर्थिक महत्त्व: इस क्षेत्र में तेल, गैस और फॉस्फेट के महत्त्वपूर्ण भंडार हैं, जो दक्षिणी यूरोप के लिये पारगमन केंद्र के रूप में कार्य करते हैं।

आगे की राह:

  • उच्च स्तरीय संपर्क में वृद्धि: राजनीतिक यात्राओं और आपसी संबंध बढ़ाने से अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर आपसी समझ और सहयोग मज़बूत हो सकता है।
  • आर्थिक विविधीकरण: गैर-हाइड्रोकार्बन क्षेत्रों में संयुक्त उद्यमों को बढ़ावा देने से अल्जीरिया की आर्थिक स्थिति में वृद्धि हो सकती है, साथ ही भारतीय व्यवसायों को नए अवसर भी मिल सकते हैं।
  • सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम: सांस्कृतिक समझ और ज्ञान साझाकरण को बढ़ावा देने के लिये कार्यक्रम शुरू करने से दोनों देशों के बीच के अंतर को कम किया जा सकता है, तथा सद्भावना एवं विश्वास को बढ़ावा मिल सकता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न 

प्रश्न: "विकसित क्षेत्रीय गतिशीलता के बीच अपनी रणनीतिक साझेदारी को मज़बूत करने में भारत और अल्जीरिया के बीच हाल ही में हुए रक्षा सहयोग समझौता ज्ञापन के निहितार्थों का परीक्षण कीजिये। "

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

प्रिलिम्स:

निम्नलिखित में से कौन-से देश विश्व में दो सबसे बड़े कोको उत्पादक के रूप में जाने जाते हैं? (2024)

(a) अल्जीरिया और मोरक्को
(b) बोत्सवाना और नामीबिया
(c) कोटे डी आइवर और घाना
(d) मेडागास्कर और मोज़ाम्बिक

उत्तर: (c)


सामाजिक न्याय

भारत के बच्चों में आहार विविधता का अभाव

प्रिलिम्स के लिये:

विश्व स्वास्थ्य संगठन, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5), एकीकृत बाल विकास सेवाएँ (ICDS), सार्वजनिक वितरण प्रणाली, शिशु और छोटे बच्चों को आहार देने की पद्धतियाँ (IYCF), UNICEF

मेन्स के लिये:

आहार विविधता प्राप्त करने से संबंधित चुनौतियाँ और सिफारिशें।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

एक हालिया अध्ययन के अनुसार, भारत में 6-23 माह की आयु के 77% बच्चे विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा अनुशंसित आहार विविधता मानकों को पूरा नहीं कर पाते हैं तथा देश के मध्य क्षेत्र में यह समस्या सबसे अधिक है।

न्यूनतम आहार विविधता (MDD)

  • यह 6-23 माह की आयु के बच्चों के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित अनुशंसित मानक को संदर्भित करता है।
  • इसमें सुझाव दिया गया है कि बच्चों को 24 घंटे के भीतर आठ निर्धारित खाद्य समूहों में से कम से कम पाँच खाद्य पदार्थों और पेय पदार्थों का सेवन करना चाहिये।
  • दूध, अनाज, फलियाँ, डेयरी उत्पाद, माँस, अंडे तथा फल और सब्जियाँ। 
  • यदि कोई बच्चा इनमें से पाँच खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं करता है तो उसके आहार को MDD के अनुसार अपर्याप्त माना जाता है। 
  • MDD शिशु और युवा बाल आहार (IYCF) प्रथाओं का हिस्सा है, जिसका मूल्यांकन WHO और UNICEF द्वारा विकसित संकेतकों द्वारा किया जाता है। MDD न्यूनतम स्वीकार्य आहार (MAD) संकेतक का भी एक घटक है।

अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष क्या हैं?

  • ऐतिहासिक तुलना: वर्ष 2019 और 2021 के बीच आयोजित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के आँकड़ों का उपयोग करते हुए शोधकर्त्ताओं द्वारा NFHS-3 (2005-06) में MDD की समग्र विफलता दर को 87.4% से कम अंकित किया गया। 
    • कुछ सुधारों के बावजूद 75% से अधिक बच्चों को अभी भी विविध प्रकार का आहार नहीं मिल पा रहा है, जिससे पर्याप्त पोषण सुनिश्चित करने में चुनौतियों पर प्रकाश पड़ता है।
  • राज्य स्तर पर भिन्नता: अध्ययन में पाया गया कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में आहार विविधता में 80% से अधिक अपर्याप्तता देखी गई, जिससे क्षेत्रीय स्तर की असमानताओं पर प्रकाश पड़ता है। 
    • इसके विपरीत सिक्किम और मेघालय में यह स्तर 50% से कम रहा, जो सफल स्थानीय पोषण रणनीतियों की देन है। यह अन्य क्षेत्रों के लिये आदर्श हो सकते हैं।
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन के आहार विविधता मानकों की स्थिति: इस अध्ययन के अनुसार, वैश्विक बाल मृत्यु के लगभग 35% और कुल रोग भार के 11% हेतु अपर्याप्त पोषण उत्तरदायी है। 
    • भारत में 3 में से 1 बच्चा कम वज़न और बौनेपन से ग्रसित है तथा 5 में से 1 बच्चा दुर्बलता का शिकार है।
  • खाद्य समूहों के अनुसार आहार संबंधी रुझान: कुछ आहार संबंधी रुझानों में उल्लेखनीय सुधार देखा गया है।
    • इन लाभों के बावजूद ब्रेस्ट मिल्क और डेयरी उपभोग में गिरावट आई है, ब्रेस्ट मिल्क का सेवन NFHS-3 के 87% से घटकर NFHS-5 में 85% रह गया है और डेयरी उपभोग 54% से घटकर 52% रह गया है।
  • कुपोषण और एनीमिया: इस अध्ययन में इस बात पर बल दिया गया है कि कुपोषण और एनीमिया अभी भी प्रमुख स्वास्थ्य मुद्दे हैं। इसमें पाया गया कि ग्रामीण क्षेत्रों के ऐसे बच्चों (जिनकी माताएँ अशिक्षित हैं या जिनकी माताओं की मीडिया और स्वास्थ्य सेवा (जैसे आँगनवाड़ी सेवाओं) तक सीमित पहुँच है) उनके आहार में विविधता की कमी होने की  संभावना अधिक है।

संबंधित अनुशंसाएँ:

  • इस अध्ययन में बाल पोषण में सुधार हेतु मज़बूत सरकारी पहल की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है जैसे कि एकीकृत बाल विकास सेवाएँ (ICDS) और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बढ़ावा देना। 
  • निष्कर्ष बताते हैं कि लक्षित हस्तक्षेप से आहार संबंधी कमियों की व्यापकता को और भी कम किया जा सकता है।

कुपोषण के प्रकार

  • वेस्टिंग: लंबाई के हिसाब से कम वज़न को वेस्टिंग कहते हैं। व्यक्ति को पर्याप्त भोजन न मिलने और/या उसे कोई संक्रामक बीमारी हो जाने से यह समस्या होती है।
  • स्टंटिंग: उम्र के हिसाब से कम लंबाई को स्टंटिंग कहते हैं। इसका कारण अक्सर अपर्याप्त कैलोरी सेवन होता है, जिसके कारण ऊँचाई के सापेक्ष वज़न कम होता है।
  • कम वज़न: उम्र के हिसाब से कम वज़न वाले बच्चों को कम वज़न वाले बच्चे कहा जाता है। कम वज़न वाला बच्चा बौना, कमज़ोर या दोनों हो सकता है।

भारत में आहार विविधता प्राप्त करने में प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

  • आर्थिक और क्षेत्रीय असमानताएँ: उच्च गरीबी दर और क्षेत्रीय असमानताएँ विविध खाद्य पदार्थों तक पहुँच को सीमित (विशेष रूप से मध्य और पश्चिमी राज्यों में) करती हैं।
  • सीमित पोषण शिक्षा: देखभाल करने वालों के बीच जागरूकता की कमी (विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में) से संतुलित आहार की समझ न होने के कारण कुपोषण को बढ़ावा मिलता है।
  • सार्वजनिक वितरण अंतराल: सार्वजनिक वितरण प्रणाली अक्सर मुख्य अनाजों पर केंद्रित रहती है, जिससे विविधता सीमित होने के साथ पोषक तत्त्वों से भरपूर खाद्य पदार्थ जैसे फलियाँ, फल और सब्जियाँ उपलब्ध नहीं हो पाती हैं।
  • स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं तक पहुँच और परामर्श की कमी: स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं और पोषण परामर्श तक पहुँच में कमी के कारण आवश्यक जानकारी का अभाव रहने से बच्चों के आहार विकल्पों पर प्रभाव पड़ता है।
  • सामाजिक और सांस्कृतिक कारक: कुछ समुदायों में आहार विकल्प सांस्कृतिक मानदंडों से प्रभावित होते हैं, जिससे बच्चे कुछ खाद्य समूहों से वंचित होने के कारण इनके आहार में विविधता सीमित हो जाती है।

आगे की राह

  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) को मज़बूत करना: विभिन्न खाद्य समूहों तक पहुँच में सुधार के लिये PDS में पोषक तत्त्वों से भरपूर खाद्य पदार्थ जैसे दालें, फलियाँ और फोर्टिफाइड अनाज को शामिल करना।
  • पोषण शिक्षा कार्यक्रमों का विस्तार: विविध आहार और भोजन योजना के महत्त्व पर, विशेष रूप से माताओं के लिये, समुदाय-आधारित पोषण शिक्षा पहल को लागू करना।
  • ICDS और आँगनवाड़ी सेवाओं को बढ़ाना: ICDS केंद्रों के माध्यम से बाल पोषण की निगरानी, ​​परामर्श प्रदान करने और संतुलित भोजन विकल्प प्रदान करने के प्रयासों को तेज़ करना।
  • प्रौद्योगिकी और सोशल मीडिया का लाभ उठाना: ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों को लक्षित करते हुए पोषण जागरूकता अभियानों के लिये डिजिटल प्लेटफार्मों का उपयोग करना, आसानी से सुलभ आहार विविधता प्रथाओं पर ध्यान केंद्रित करना।
  • स्थानीय और किफायती खाद्य विकल्पों को बढ़ावा देना: आहार विविधता को अधिक किफायती तथा टिकाऊ बनाने के लिये दालों, फलों एवं सब्जियों जैसे पोषक तत्त्वों से भरपूर खाद्य पदार्थों की स्थानीय खेती व खपत को प्रोत्साहित करना।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: बाल विकास में आहार विविधता के महत्त्व पर चर्चा कीजिये तथा भारत में पोषण संबंधी चुनौतियों से निपटने के लिये सरकारी उपायों का मूल्यांकन कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स:

प्रश्न: राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के संदर्भ में, प्रशिक्षित सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता 'आशा (ASHA)' के कार्य निम्नलिखित में से कौन-से हैं? (2012)

  1. स्त्रियों को प्रसव-पूर्व देखभाल जाँच के लिये स्वास्थ्य सुविधा केंद्र साथ ले जाना 
  2. गर्भावस्था के प्रारंभिक संसूचन के लिये गर्भावस्था परीक्षण किट प्रयोग करना 
  3. पोषण एवं प्रतिरक्षण के विषय में सूचना देना
  4. बच्चे का प्रसव कराना

नीचे दिये गए कूट का उपयोग करके सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1, 2 और 3 
(b) केवल 2 और 4
(c) केवल 1 और 3 
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (a)


मेन्स:

प्रश्न: भारत में निर्धनता और भूख के बीच संबंध में एक बढ़ता हुआ अंतर है। सरकार द्वारा सामाजिक व्यय को संकुचित किये जाना, निर्धनों को अपने खाद्य बजट को निचोड़ते हुए खाद्येतर अत्यावश्यक मदों पर अधिक व्यय करने के मजबूर कर रहा है। स्पष्ट कीजिये। (2019)


सामाजिक न्याय

भारत की कार्यस्थल संस्कृति

प्रिलिम्स के लिये:

ILO, समवर्ती सूची,  वेतन संहिता, 2019, औद्योगिक संबंध संहिता, 2020, सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020, व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य शर्तें संहिता, 2020

मेन्स के लिये:

भारत की कॉर्पोरेट संस्कृति: नियामक ढाँचा, सिफारिशें और चुनौतियाँ 

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

अन्ना सेबेस्टियन नामक चार्टर्ड अकाउंटेंट की दुखद मौत, जो कथित तौर पर कार्य से संबंधित तनाव (Work-Related Stress) के कारण हुई, भारत में विषाक्त कार्यस्थल संस्कृति को संबोधित करने की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है, तथा कर्मचारियों के निरंतर शोषण पर प्रकाश डालती है।

नोट:

  • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के हालिया अध्ययन के अनुसार, भारत विश्व में सर्वाधिक कार्य करने वाले देशों में से एक है, जहाँ श्रमिक औसतन प्रति सप्ताह 46.7 घंटे कार्य करते हैं। 
    • इसके अतिरिक्त, भारत का 51% कार्यबल प्रति सप्ताह 49 या उससे अधिक घंटे कार्य करता है, जिससे विश्व भर में विस्तारित कार्य घंटों के मामले में भारत दूसरे स्थान पर है।

भारत की कार्यस्थल संस्कृति से संबंधित प्रमुख मुद्दे क्या हैं?

  • विषाक्त कार्य वातावरण (Toxic Work Environment):
    • कई निगमों/कंपनियों में लंबे समय तक कार्य करना और तनाव सामान्य बात हो गई है, जो लाभ मार्जिन एवं लाभ-हानि पर निरंतर ध्यान केंद्रित करने से प्रेरित है।
    • लागत में कटौती करते हुए कर्मचारियों से अत्यधिक कार्य कराने की प्रथा अक्सर बर्नआउट का कारण बनती है, क्योंकि कंपनियाँ "संगठनात्मक तनाव (Organisational Stretch)" और "परिवर्तनशील वेतन (Variable Pay)" जैसे शब्दों का उपयोग करके शोषण को उचित ठहराती हैं।
  • कार्य संस्कृति संबंधी मुद्दों पर प्रतिक्रियाएँ: 
    • आचार संहिता और कार्य-जीवन संतुलन नीतियों जैसी कॉर्पोरेट पहलों में अक्सर संतुलन का अभाव होता है, जिससे कार्यस्थल पर विषाक्तता के मूल कारणों का प्रभावी ढंग से समाधान नहीं हो पाता।
  • अप्रभावी नेतृत्व और जवाबदेही का अभाव:
    • कार्यस्थल पर उत्पीड़न या अपमानजनक भाषा का सामना करने वाले कर्मचारियों के लिये विधिक सहायता का अभाव एक ऐसा वातावरण विकसित करता है, जहाँ ऐसे अनुचित व्यवहार बिना रोक-टोक जारी रह सकते हैं।
    • कई कंपनियों में निष्पादन मूल्यांकन प्रणालियों को पक्षपातपूर्ण माना जाता है, जिसके कारण कर्मचारियों में अनुचित व्यवहार की भावना उत्पन्न होती है, जिससे असंतोष और विषाक्त वातावरण बना रहता है।
  • सार्वजनिक क्षेत्र बनाम निजी क्षेत्र की गतिशीलता:
    • सार्वजनिक क्षेत्र के संगठन आमतौर पर अधिक मज़बूत नौकरी सुरक्षा और अधिक सहायक कार्य वातावरण प्रदान करते हैं, तथा इसमें संघ की भी मदद मिलती है जो कर्मचारियों की शिकायतों को दूर करने में मदद करती हैं।
      • यह अंतर एक स्वस्थ कार्य संस्कृति को बढ़ावा देने के लिये निजी क्षेत्र में बेहतर कार्यप्रणाली की आवश्यकता के बारे में प्रश्न उठाता है।
  • लंबे समय तक काम करने से जुड़ी मौतें: 
    • वर्ष 2016 में, विश्व स्वास्थ्य संगठन और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने अनुमान लगाया था कि लंबे समय तक कार्य करने के कारण स्ट्रोक और इस्केमिक हृदय रोग के कारण 745,000 मौतें हुईं, जो कि वर्ष 2000 से 29% की वृद्धि को दर्शाता है।
    • 60-79 वर्ष की आयु वाले वे श्रमिक जो 45 से 74 वर्ष की आयु के बीच निरंतर प्रति सप्ताह 55 घंटे से अधिक कार्य करते थे, उनकी मृत्यु दर अधिक थी।
  • GDP और कार्य घंटों के बीच संबंध:
    • ILO ने खुलासा किया है कि कम कार्य घंटे वाले देशों में अक्सर प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद अधिक होता है। नॉर्वे (33.7 घंटे) और नीदरलैंड (31.6 घंटे) जैसे देश कामगारों की भलाई को प्राथमिकता देते हुए कम कार्य सप्ताह अवधारणा को बनाए रखते हैं, जिससे कुल मिलाकर आर्थिक समृद्धि बढ़ती है। 
      • इसके विपरीत, भारत और भूटान जैसे देशों में कार्य घंटे अधिक हैं, लेकिन प्रति व्यक्ति आय कम है, जिससे पता चलता है कि आर्थिक सफलता के लिये अधिक कार्य घंटे आवश्यक नही हैं।

अन्य देशों में कार्यस्थल संस्कृति

  • संयुक्त राज्य अमेरिका:
    • लंबे समय तक कार्य करने की मांग वाली कार्य संस्कृति को बनाए रखते हुए लचीलेपन (दूरस्थ कार्य, लचीले घंटे आदि) को प्रोत्साहित करना।
    • बोनस और स्टॉक विकल्पों के साथ प्रदर्शन पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, लेकिन इससे प्रतिस्पर्द्धा और आय असमानता उत्पन्न होती है।
    • मज़बूत कानूनी संरक्षण, हालाँकि श्रम कानून विभिन्न राज्य में अलग-अलग हैं साथ ही कुछ क्षेत्रों में संघ कमज़ोर हैं।
  • यूरोप:
    • सख्त श्रम कानूनों (जैसे, फ्राँस में 35 घंटे का कार्य सप्ताह) के साथ कार्य-जीवन संतुलन पर ज़ोर दिया गया।
    • अधिक कर्मचारी सुरक्षा के साथ सम्मानजनक और सहयोगात्मक कॉर्पोरेट संस्कृति।
    • अधिक न्यायसंगत मुआवज़ा और लाभ; मजबूत श्रम सुरक्षा और मज़बूत संघ।

भारत में श्रमिकों के संबंध में नियामक ढाँचा क्या है?

  • संवैधानिक ढाँचा: संविधान के तहत, श्रम संबंधी विषय समवर्ती सूची में है तथा इसलिये, केंद्र और राज्य दोनों सरकारें केंद्र के लिये आरक्षित कुछ मामलों के अधीन कानून बनाने के लिये सक्षम हैं।
  • न्यायिक व्याख्या: रणधीर सिंह बनाम भारत संघ, 1982 के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “भले ही संविधान में 'समान कार्य के लिये समान वेतन' के सिद्धांत को परिभाषित नहीं किया गया है, यह एक लक्ष्य है जिसे अनुच्छेद 14, 16 और 39 (c) के माध्यम से प्राप्त किया जाना है।
    • अनुच्छेद 14: यह भारत के राज्यक्षेत्र में कानून के समक्ष समानता या कानूनों के समान संरक्षण का प्रावधान करता है।
    • अनुच्छेद 16: यह सार्वजनिक रोज़गार के मामलों में समान अवसर के अधिकार की बात करता है।
    • अनुच्छेद 39(c):  यह सुनिश्चित करता है कि धन और उत्पादन साधनों का सर्वसाधारण के लिये अहितकारी "संकेंद्रण" न हो।
  • विधायी ढाँचा: सरकार ने कार्य करने की स्थितियों में सुधार और श्रम कानूनों को सरल बनाने के लिये कई विधायी और प्रशासनिक पहल की हैं। हाल ही में 4 श्रम संहिताओं का समेकन किया गया है, जिसे अभी लागू किया जाना है।
  • श्रम संहिता:
  • कारखाना अधिनियम, 1948: 
    • कारखाना अधिनियम की धारा 54 के अनुसार, किसी भी दिन दैनिक कार्य घंटे नौ घंटे से अधिक नहीं हो सकते।
      • प्रत्येक कर्मचारी को कम-से-कम आधे घंटे का अंतराल अवकाश प्राप्त करने का अधिकार है तथा ऐसे अंतराल से पहले 5 घंटे से अधिक कार्य नहीं करना चाहिये।
    • अधिनियम की धारा 51 में कहा गया है कि किसी भी कर्मचारी से एक सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम नहीं कराया जा सकता।
  • न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948: 
    • प्रति सप्ताह आवश्यक 9 या 48 घंटों से अधिक किसी भी घंटे या घंटे के भाग के लिये, ओवरटाइम वेतन वास्तविक दर से दोगुना होना चाहिये।

भारत में कार्य संस्कृति से संबंधित कौन-से सुधार किये जा सकते हैं?

  • नियामक ढाँचा:
    • कार्यस्थल पर विषाक्त संस्कृति को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिये एक विनियामक ढाँचा आवश्यक है। इसमें कॉर्पोरेट बोर्ड को कार्यस्थल की स्थितियों और कर्मचारियों के कल्याण के लिये जवाबदेह बनाना शामिल हो सकता है।
    • कर्मचारियों के साथ व्यवहार और कार्यनिष्पादन मूल्यांकन के लिये स्पष्ट दिशा-निर्देश स्थापित करने से दुर्व्यवहारपूर्ण व्यवहारों को कम करने में मदद मिल सकती है।
  • निगमों में सांस्कृतिक बदलाव:
    • कंपनियों को सम्मान और निष्पक्षता की संस्कृति को सक्रिय रूप से बढ़ावा देना चाहिये, जहाँ श्रमिकों के योगदान को महत्त्व तथा उचित मुआवज़ा दिया जाए।
    • कार्य-जीवन संतुलन और ईमानदारी से कर्मचारी भागीदारी को बढ़ाने के उद्देश्य से की जाने वाली पहलों से एक स्वस्थ कार्य वातावरण को बढ़ावा दिया जा सकता है।
  • जागरूकता और समर्थन:
    • कार्यस्थल संस्कृति के मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाने और विचार-विमर्श करने से कर्मचारियों को अपनी चिंताओं को व्यक्त करने और अपने अधिकारों की मांग को सशक्त बनाया जा सकता है।
    • भारत में भी इसी प्रकार के अधिकार अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों से प्रेरित होकर प्राप्त किये जा सकते हैं, जो श्रमिकों को मानसिक तनाव के लिये अधिकारों की मांग करने का अवसर प्रदान करते हैं।
  • कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR):
    • निगमों को अपनी कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व रणनीतियों में कार्यस्थल संस्कृति में सुधार के प्रति प्रतिबद्धता को शामिल करना चाहिये, तथा यह सुनिश्चित करना चाहिये कि कर्मचारियों का कल्याण दीर्घकालिक सफलता का अभिन्न अंग है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न

प्रश्न: भारत में कार्यस्थल संस्कृति से जुड़े प्रमुख मुद्दों पर चर्चा कीजिये। कर्मचारी-नियोक्ता संबंधों को बेहतर बनाने के लिये कौन-से विनियामक सुधार आवश्यक हैं?


भारतीय अर्थव्यवस्था

ग्रामीण मजदूरी में जड़ता का विरोधाभास

प्रिलिम्स के लिये:

कृषि क्षेत्र, मुद्रास्फीति, क्रय शक्ति, श्रम ब्यूरो, बागवानी, पशुपालन, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, महिला श्रम बल भागीदारी दर (LFPR), GDP वृद्धिलघु उद्योग, कुटीर उद्योग, मनरेगा, डिस्पोज़ेबल आय, पोषण, PM-किसान, न्यूनतम मजदूरी, उच्च गुणवत्ता वाले बीज, खाद्य प्रसंस्करण।     

मेन्स के लिये:

ग्रामीण मजदूरी में जड़ता/स्थिरता के कारण और निहितार्थ। ग्रामीण मजदूरी में स्थिरता को दूर करने के उपाय।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों? 

भारतीय अर्थव्यवस्था और कृषि क्षेत्र में वर्ष 2019-20 से वर्ष 2023-24 तक क्रमशः 4.6% और 4.2% की औसत वार्षिक दर से वृद्धि हुई है, लेकिन इसके अनुरूप ग्रामीण मजदूरी में वृद्धि नहीं हुई है।

ग्रामीण मजदूरी की वर्तमान स्थिति क्या है?

  • नॉमिनल वेज: अप्रैल 2019 से अगस्त 2024 तक ग्रामीण मजदूरी 5.2% की औसत वार्षिक नॉमिनल दर (मुद्रास्फीति के समायोजन के बिना वास्तविक राशि) से बढ़ी है।
    • विशेष रूप से कृषि मजदूरी में (नॉमिनल वृद्धि 5.8% के रूप में थोड़ी अधिक थी) जो कृषि में मज़बूत मांग या श्रम गतिशीलता का संकेतक है।
  • वास्तविक मजदूरी: अप्रैल 2019 से अगस्त 2024 तक ग्रामीण श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी वृद्धि (मुद्रास्फीति के अनुरूप समायोजित मजदूरी) कुल मिलाकर -0.4% तक नकारात्मक थी जबकि कृषि मजदूरी में मामूली 0.2% की वृद्धि दर्ज की गई।
    • इससे पता चलता है कि यद्यपि मजदूरी में निरपेक्ष रूप से वृद्धि हुई है लेकिन मुद्रास्फीति इन लाभों से अधिक रहने से ग्रामीण श्रमिकों की वास्तविक क्रय शक्ति में कमी आई है।
  • वर्तमान राजकोषीय रुझान: वित्तीय वर्ष 2023-24 (अप्रैल-अगस्त) के पहले पाँच महीनों में कृषि मजदूरी की नॉमिनल और वास्तविक वृद्धि दर क्रमशः 5.7% और 0.7% थी।

नोट:

  • डेटा स्रोत: श्रम ब्यूरो द्वारा 25 कृषि और गैर-कृषि व्यवसायों के संदर्भ में दैनिक मजदूरी दर डेटा संकलित किया गया है।
  • कवरेज: यह डेटा 20 राज्यों के 600 गाँवों से एकत्र किया गया है।
  • शामिल किये गए व्यवसाय: बागवानी, पशुपालन, सिंचाई और पौध संरक्षण कार्यों सहित 25 विभिन्न व्यवसाय।
  • कार्यप्रणाली: मजदूरी को नॉमिनल (वर्तमान मूल्य) और वास्तविक रूप में (ग्रामीण भारत के लिये उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति हेतु समायोजित) मापा जाता है।

ग्रामीण मजदूरी में स्थिरता के क्या कारण हैं?

  • महिला LFPR का उच्च होना: महिलाओं की श्रम बल भागीदारी दर (LFPR) में वर्ष 2018-19 के 26.4% से वर्ष 2023-24 में 47.6% तक की पर्याप्त वृद्धि देखी गई है।
    • ग्रामीण क्षेत्रों में महिला श्रम शक्ति में वृद्धि का तात्पर्य है कि यह अधिक संख्या में समान या उससे भी कम मजदूरी दर पर कार्य करने को तैयार हैं, जिससे मजदूरी पर दबाव बढ़ रहा है।
  • कम कृषि उत्पादकता: कृषि (विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में) में आमतौर पर कम सीमांत उत्पादकता बनी हुई है। अतिरिक्त श्रम से उत्पादकता में आनुपातिक वृद्धि नहीं हो पाती है।
  • पूंजी-गहन प्रौद्योगिकी: विभिन्न उद्योगों में तकनीकी प्रगति से मैनुअल श्रम का विस्थापन हो रहा है, जिससे ग्रामीण क्षेत्र में गैर-कृषि नौकरियों की मांग कम हो रही है। उदाहरण के लिये, मैनुअल मजदूरों के बजाय थ्रेसिंग मशीनों और हार्वेस्टर का उपयोग।
    • इस बदलाव के परिणामस्वरूप पूंजीपतियों को अधिक लाभ होता है लेकिन वेतन वृद्धि और रोज़गार सृजन सीमित हो जाता है।
  • गैर-कृषि श्रम मांग में गिरावट: फास्ट मूविंग कंज़्यूमर गुड्स (FMCG) और घरेलू उपकरणों जैसे श्रम-प्रधान उद्योगों की बिक्री और लाभप्रदता धीमी होने से ग्रामीण मजदूरी में वृद्धि धीमी हो रही है।
    • विनिर्माण और सेवा जैसे क्षेत्रों (जिनकी आमतौर पर ग्रामीण श्रम को संलग्न करने में प्रमुख हिस्सेदारी है) का सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि के अनुपात में विस्तार नहीं हुआ है। 
  • गैर-कृषि क्षेत्र में सीमित अवसर: लघु उद्योग, कुटीर उद्योग और ग्रामीण उद्यम (जिनमें गैर-कृषि रोज़गार सृजित हो सकते हैं) अविकसित हैं या उनमें आवश्यक समर्थन और वित्तपोषण का अभाव है।
  • वेतन गारंटी कार्यक्रमों का अप्रभावी होना: भुगतान में देरी, बजट की कमी और मनरेगा के कार्यान्वयन में भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे ऐसे कार्यक्रमों की प्रभावशीलता को सीमित करते हैं।
  • मुद्रास्फीति: बढ़ती मुद्रास्फीति से वास्तविक मजदूरी में कमी आती है क्योंकि नॉमिनल मजदूरी स्थिर रहती है या धीमी गति से बढ़ती है। आवश्यक वस्तुओं, ईंधन और अन्य वस्तुओं की कीमतों में होने वाली वृद्धि मजदूरी में होने वाली वृद्धि से कहीं अधिक है।
  • जलवायु परिवर्तन: सूखा और बाढ़ जैसी बार-बार होने वाली जलवायु समस्याएँ कृषि आय को सीमित करती हैं, भूस्वामियों की उच्च मजदूरी देने की क्षमता को सीमित करती हैं जिससे ग्रामीण श्रम बाज़ार में मजदूरी में अस्थिरता पैदा होती है।

ग्रामीण मजदूरी की स्थिरता के क्या निहितार्थ हैं?

  • कमज़ोर घरेलू मांग: भारत की अधिकांश जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। इनकी सीमित व्यय क्षमता के कारण वस्तुओं की मांग कम होने से उनकी व्यवहार्यता प्रभावित होगी तथा आर्थिक विकास चक्र धीमा हो जाएगा।
  • वित्तीय भेद्यता और ऋण: उच्च मुद्रास्फीति और स्थिर मजदूरी से ग्रामीण परिवार ऋण जाल में फँस जाते हैं जिससे इनकी प्रयोज्य आय कम होने के साथ इनकी अनौपचारिक उधारदाताओं पर निर्भरता बढ़ जाती है।
  • अल्प-बेरोज़गारी: गैर-कृषि क्षेत्र में रोज़गार के अवसर कम होने और मजदूरी स्थिर होने से अनेक ग्रामीण श्रमिकों को कृषि में वापस आने के लिये बाध्य (भले ही यह लाभदायक न हो) होना पड़ रहा है
  • लैंगिक वेतन असमानता: ग्रामीण क्षेत्रों में वेतन की स्थिरता से पुरुषों और महिलाओं दोनों पर प्रभाव पड़ता है लेकिन समान कार्य के लिये महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम वेतन मिलता है, इसलिये स्थिर वेतन का प्रभाव ग्रामीण महिलाओं पर विशेष रूप से अधिक होता है।
  • पलायन की मज़बूरी: कम मजदूरी और सीमित नौकरी के अवसर से ग्रामीण श्रमिक बेहतर वेतन वाली नौकरियों की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने के लिये मजबूर होते हैं, जिससे शहरी क्षेत्रों में भीड़भाड़ बढ़ जाने से शहरी बुनियादी ढाँचे, आवास एवं सार्वजनिक सेवाओं पर दबाव पड़ता है।
  • सीमित मानव पूंजी: कम मजदूरी के कारण गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और पोषण तक पहुँच सीमित हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप ग्रामीण विकास पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है।

ग्रामीण क्षेत्र में मजदूरी की स्थिरता की समस्या के समाधान के उपाय? 

  • आय हस्तांतरण योजनाओं को मज़बूत करना: PM-किसान और मुफ्त अनाज वितरण जैसी योजनाओं में भुगतान का विस्तार और वृद्धि करने से निम्न आय वाले परिवारों पर वित्तीय दबाव कम हो सकता है।
  • आवधिक वेतन समायोजन लागू करना: मुद्रास्फीति के आधार पर ग्रामीण न्यूनतम मजदूरी को नियमित रूप से संशोधित करने से यह सुनिश्चित हो सकता है कि मजदूरी वृद्धि जीवन-यापन लागत के अनुरूप बनी रहे।
    • सर्वेक्षणों और मजदूरी दर अध्ययनों (जैसे कि श्रम ब्यूरो द्वारा किये गए) से प्राप्त आँकड़ों का उपयोग करने से नीति निर्माताओं को ग्रामीण क्षेत्र में मजदूरी संबंधी चुनौतियों का प्रभावी ढंग से समाधान करने हेतु सूचित निर्णय लेने में मदद मिल सकती है।
  • लैंगिक स्तर पर वेतन अंतराल का समाधान करना: महाराष्ट्र की लड़की बहिन योजना (2.5 लाख रुपए से कम आय वाले परिवारों के लिये 1,500 रुपए प्रतिमाह) जैसी योजना द्वारा महिलाओं और कम आय वाले परिवारों को लक्षित करने से वेतन स्थिरता प्रभावित होती है।
  • ग्रामीण गैर-कृषि रोज़गार: नीतियों को वस्त्र, खाद्य प्रसंस्करण और पर्यटन जैसे श्रम-गहन उद्योगों को प्रोत्साहित करना चाहिये, जबकि मनरेगा जैसे कार्यक्रम आर्थिक मंदी या मौसमी बेरोज़गारी के दौरान स्थिर रोज़गार प्रदान कर सकते हैं।
  • कृषि आधुनिकीकरण: प्रौद्योगिकी, सिंचाई और उच्च गुणवत्ता वाले बीजों तक बेहतर पहुँच के माध्यम से कृषि उत्पादकता में वृद्धि करके खेती में प्रति श्रमिक उत्पादन तथा आय में वृद्धि करके मज़दूरी में सुधार किया जा सकता है।

निष्कर्ष

मज़बूत आर्थिक और कृषि विकास के बावजूद ग्रामीण मज़दूरी में स्थिरता बनी हुई है, जिसका कारण बढ़ी हुई श्रम आपूर्ति, कम कृषि उत्पादकता तथा सीमित गैर-कृषि अवसर जैसे कारक हैं। इस समस्या से निपटने के लिये लक्षित आय योजनाओं, मज़दूरी समायोजन, कौशल विकास एवं कृषि आधुनिकीकरण के मिश्रण की आवश्यकता है, ताकि स्थायी मज़दूरी वृद्धि व ग्रामीण विकास को बढ़ावा दिया जा सके।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: स्थिर आर्थिक विकास के बावजूद भारत में ग्रामीण मज़दूरी में स्थिरता के पीछे के कारणों पर चर्चा कीजिये। इस मुद्दे को हल करने के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स 

प्रश्न: भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में मांग-प्रेरित मुद्रास्फीति या उसमें वृद्धि निम्नलिखित किन कारणों से होती है? (2021)

  1. विस्तारवादी नीतियां
  2. राजकोषीय प्रोत्साहन
  3. मुद्रास्फीति सूचकांक मज़दूरी (इन्फ्लेशन इंडेक्सिंग वेजेस)
  4. उच्च क्रय शक्ति
  5. बढ़ती ब्याज दर

नीचे दिये गए कूट का उपयोग करके सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1, 2 और 4 
(b) केवल 3, 4 और 5
(c) केवल 1, 2, 3 और 5 
(d) 1, 2, 3, 4 और 5

उत्तर: (a)


प्रश्न: किसी दिये गए वर्ष में भारत में कुछ राज्यों में आधिकारिक गरीबी रेखाएँ अन्य राज्यों की तुलना में उच्चतर हैं, क्योंकि-(2019)

(a) गरीबी की दर अलग-अलग राज्य दर राज्य में अलग-अलग होती है
(b) कीमत-स्तर अलग-अलग राज्य में अलग-अलग होता है
(c) सकल राज्य उत्पाद अलग-अलग राज्य में अलग-अलग होता है
(d) सार्वजनिक वितरण की गुणता अलग-अलग राज्य में अलग-अलग होती है

उत्तर: (b)


प्रश्न: निम्नलिखित में से कौन "महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम" से लाभ पाने के पात्र हैं? (2011)

(a) केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के परिवारों के वयस्क सदस्य।
(b) गरीबी रेखा से नीचे (BPL) के परिवारों के वयस्क सदस्य।
(c) सभी पिछड़े समुदायों के परिवारों के वयस्क सदस्य।
(d) किसी भी घर के वयस्क सदस्य।

उत्तर: (d)


मेन्स

प्रश्न: “भारत में निर्धनता न्यूनीकरण कार्यक्रम तब तक केवल दर्शनीय वस्तु बने रहेंगे जब तक कि उन्हें राजनैतिक इच्छाशक्ति का सहारा नहीं मिलता।” भारत में प्रमुख निर्धनता न्यूनीकरण कार्यक्रमों के निष्पादन के संदर्भ में चर्चा कीजिये। (2017)

प्रश्न: यद्यपि भारत में निर्धनता के अनेक प्राकलन किये गए हैं, तथापि सभी समय गुजरने के साथ निर्धनता स्तरों में कमी आने का संकेतें देते हैं? क्या आप सहमत हैं? शहरी और ग्रामीण निर्धनता संकेतकों का उल्लेख के साथ समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2015)


शासन व्यवस्था

सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना

प्रिलिम्स के लिये:

सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना, संसद सदस्य, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना, खेलो इंडिया, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, भारत का सर्वोच्च न्यायालय

मेन्स के लिये:

शक्तियों का पृथक्करण, MPLADS योजना का महत्त्व और संबंधित मुद्दे।

स्रोत: बिज़नेस स्टैण्डर्ड

चर्चा में क्यों? 

सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना (MPLADS) भारत में एक बहस का विषय है इसके समर्थक इसके स्थानीय सशक्तीकरण लाभों का हवाला देते रहे हैं जबकि इसके आलोचक संबंधित संवैधानिक सिद्धांतों के साथ परियोजना की जवाबदेही पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं। 

  • अधूरी परियोजनाओं की हालिया रिपोर्टों और अधिक धनराशि की मांग से MPLADS की निगरानी एवं जवाबदेहिता के संदर्भ में बहस को बढ़ावा मिला है।

MPLADS क्या है?

  • परिचय: MPLADS वर्ष 1993 में शुरू की गई एक केंद्रीय क्षेत्रक योजना है जो संसद सदस्यों (MP) को स्थानीय स्तर पर आवश्यक टिकाऊ सामुदायिक परिसंपत्तियों के निर्माण पर बल देते हुए अपने निर्वाचन क्षेत्रों में विकास कार्यों की सिफारिश करने में सक्षम बनाती है।
  • कार्यान्वयन: राज्य स्तरीय नोडल विभाग MPLADS की देखरेख करता है जबकि ज़िला प्राधिकरण संबंधित परियोजनाओं को मंजूरी देने के साथ धन आवंटित करते हैं और इनका कार्यान्वयन सुनिश्चित करते हैं।
  • निधि आवंटन: वर्ष 2011-12 से प्रत्येक सांसद को प्रति वर्ष 5 करोड़ रुपए आवंटित किये जाते हैं। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) द्वारा ज़िला प्राधिकरण को 2.5 करोड़ रुपए की दो किस्तों में निधि वितरित की जाती है।
  • निधि की प्रकृति: यह निधियाँ व्यपगत नहीं होती हैं और यदि किसी वर्ष में उनका उपयोग नहीं किया जाता है तो उन्हें आगे अंतरित किया जाता है। सांसदों को अपने कोष का न्यूनतम 15% और 7.5% क्रमशः अनुसूचित जातियों (SCs) और अनुसूचित जनजातियों (STs) के हित में परिसंपत्तियों के निर्माण में आवंटित करना चाहिये।
  • विशेष प्रावधान: सांसद राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने वाली परियोजनाओं के लिये अपने निर्वाचन क्षेत्र या राज्य से बाहर 25 लाख रुपए वार्षिक तक आवंटित कर सकते हैं। गंभीर प्राकृतिक आपदाओं के लिये सांसद भारत में कहीं भी परियोजनाओं के लिये 1 करोड़ रुपए तक आवंटित कर सकते हैं।
  • MPLADS के अंतर्गत पात्र परियोजनाएँ: MPLADS निधि को टिकाऊ परिसंपत्ति निर्माण के क्रम में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (MGNREGS) के साथ एकीकृत किया जा सकता है तथा खेल अवसंरचना विकास के लिये इसे खेलो इंडिया कार्यक्रम के साथ एकीकृत किया जा सकता है।
  • सामाजिक कल्याण में संलग्न पंजीकृत सोसाइटियों या ट्रस्टों के स्वामित्व वाली भूमि पर कम से कम तीन वर्षों तक बुनियादी ढाँचे के समर्थन की अनुमति है लेकिन उन सोसाइटियों के लिये यह निषिद्ध है जहाँ सांसद या उनके परिवार के सदस्य पदाधिकारी हैं।

MPLADS के पक्ष और विपक्ष में मुख्य तर्क क्या हैं?

  • आलोचनाएँ:
    • संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन: आलोचकों का तर्क है कि MPLADS से विधायकों को कार्यकारी शक्ति मिलने से शक्तियों के पृथक्करण का उल्लंघन होता है।
      • सांसद केवल परियोजनाओं की सिफारिश करने का दावा करते हैं लेकिन इसमें चिंता यह है कि ज़िला प्राधिकारी शायद ही कभी सांसदों की सिफारिशों की अवहेलना करते हैं, जिससे लोकतांत्रिक शासन में जवाबदेही और शक्तियों के पृथक्करण पर सवाल उठते हैं।
      • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) (2005) ने इस योजना को समाप्त करने की सिफारिश की थी, जिसमें विधायिका द्वारा कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप करने तथा स्थानीय सरकारों के अधिकारों का उल्लंघन करने की समस्या पर प्रकाश डाला गया था।
    • जवाबदेही का अभाव: इससे संबंधित चिंताओं में अपर्याप्त निगरानी और मूल्यांकन तंत्र शामिल हैं, जिसके कारण सार्वजनिक धन का दुरुपयोग होने की संभावना बनी रहती है।
      • इसमें आरोप लगाया जाता है कि सांसद इन निधियों का उपयोग अपने संबंधी ठेकेदारों या यहाँ तक ​​कि परिवार के सदस्यों को लाभ पहुँचाने के लिये करते हैं।
      • MPLADS योजना किसी भी वैधानिक कानून द्वारा शासित नहीं है, जिससे इससे संबंधित नियमों और विनियमों को लागू करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
    • राजनीतिक दुरुपयोग: रिपोर्टों से पता चलता है कि धन के उपयोग की जाँच अक्सर राजनीतिक रूप से प्रेरित (विशेष रूप से चुनाव के दौरान) होती है।
  • MPLADS में समस्याएँ: नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ने इस योजना के क्रियान्वयन में कई कमियाँ बताई हैं:
    • एमपीएलएडी के अंतर्गत निधियों का प्रायः पूरा उपयोग नहीं हो पाता है तथा इनकी उपयोग दर 49% से 90% तक होती है।
    • नई परिसंपत्तियों के निर्माण के लिये धन उपलब्ध कराने के स्थान पर धन का एक प्रमुख हिस्सा मौजूदा परिसंपत्तियों के सुधार के लिये उपयोग किया जाता है।
    • कार्य आदेश जारी करने में देरी और खराब रिकॉर्ड रखने से समस्या और जटिल हो जाती है, जिससे पारदर्शिता एवं जवाबदेही को लेकर चिंताओं में वृद्धि हुई है।
  • पक्ष में तर्क:
    • स्थानीय विकास पर ध्यान: इसके समर्थकों (मुख्य रूप से निर्वाचित प्रतिनिधियों) का मानना ​​है कि MPLADS स्थानीय विकास के लिये एक उपकरण के रूप में कार्य करती है, जिससे सांसदों को अपने समुदायों की आवश्यकताओं पर सीधे प्रतिक्रिया करने की शक्ति मिलती है।
      • परियोजना चयन में लचीलापन: निर्वाचित प्रतिनिधियों का तर्क है कि MPLADS से उन परियोजनाओं के तीव्र कार्यान्वयन को समर्थन मिलता है जो स्थानीय प्राथमिकताओं को प्रतिबिंबित करती हैं।
    • आवंटन में वृद्धि की मांग: कुछ सांसद MPLADS निधि में वृद्धि की वकालत कर रहे हैं, उनका तर्क है कि वर्तमान प्रति व्यक्ति आवंटन छोटी आबादी के लिये विधानसभा के सदस्यों को मिलने वाले आवंटन से कम है।
    • यह माना जा रहा है कि इस वृद्धि से बड़े सांसद निर्वाचन क्षेत्रों में अधिक समान विकास संभव हो सकेगा तथा विधायकों को उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप संसाधन उपलब्ध हो सकेंगे। 

MPLADS पर सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण:

  • वर्ष 2010 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस योजना को संवैधानिक माना तथा MPLADS को वैध ठहराया, साथ ही इस बात पर बल दिया कि सांसद केवल परियोजनाओं की सिफारिश करते हैं, जिन्हें ज़िला अधिकारियों द्वारा क्रियान्वित किया जाता है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस योजना ने स्थानीय समुदायों के लिये सकारात्मक योगदान दिया है तथा इसके तहत जल सुविधाएँ, शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढाँचे जैसे आवश्यक विकास कार्यों को वित्तपोषित किया गया है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि केंद्र सरकार विनियोग विधेयक (भारतीय संविधान के अनुच्छेद 282) के माध्यम से लोक कल्याणकारी योजनाओं के लिये धन आवंटित कर सकती है, जिससे MPLADS योजना राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धांतों (अनुच्छेद 38) के तहत सार्वजनिक उद्देश्य के हिस्से के रूप में वैध हो जाती है।

MPLADS की निगरानी कितनी प्रभावी है?

  • तृतीय-पक्ष मूल्यांकन: सरकार ने तृतीय-पक्ष निगरानी के माध्यम से MPLADS का मूल्यांकन करने पर बल दिया है। राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास परामर्श सेवा बैंक (NABCONS) और कृषि वित्त निगम (AFC) लिमिटेड जैसे संगठनों ने कुछ सकारात्मक परिणामों पर प्रकाश डाला है, जैसे कि अच्छी गुणवत्ता वाली संपत्ति निर्माण और विकेंद्रीकृत विकास।
    • हालांकि तीसरे पक्ष के मूल्यांकन में भी अनियमितताएँ सामने आई हैं जैसे अयोग्य कार्यों की मंजूरी, परिसंपत्तियों पर अतिक्रमण, कुछ परिसंपत्तियों का अस्तित्व न होना, परिसंपत्तियों के उपयोग में असंतुलन, वित्तीय मंजूरी और कार्यों के पूरा होने में देरी तथा अयोग्य ट्रस्टों/सोसायटियों को कार्य सौंपना।
  • MPLADS की निगरानी में प्रमुख समस्याएँ: तीसरे पक्ष द्वारा किये जाने वाले मूल्यांकन में अक्सर देरी होती है जिससे परियोजना के क्रियान्वयन के दौरान सुधारात्मक कार्रवाई में समस्या आती है।
    • अपर्याप्त जाँच और अनियमितताओं पर अनुवर्ती कार्रवाई के अभाव से धन के दुरुपयोग को बढ़ावा मिलता है।
    • अपारदर्शी प्रक्रियाओं, अपारदर्शी निधि उपयोग से डेटा तक सीमित सार्वजनिक पहुँच के साथ जाँच में बाधा आती है।
    • प्रत्येक सांसद के पास पिछले 10 वर्षों के दौरान निधि के उपयोग का सटीक विवरण है लेकिन यह जानकारी पोर्टल पर अद्यतन नहीं की गई है

क्या MPLADS में सुधार या समाप्ति की आवश्यकता है?

  • सुधार के पक्ष में तर्क:
    • MPLADS में सुधार के लिये इसे वैधानिक समर्थन देना और एक स्वतंत्र निगरानी निकाय की स्थापना करना शामिल हो सकता है। इससे बेहतर प्रशासन, जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित होगी तथा दुरुपयोग और अक्षमता से संबंधित चिंताओं का समाधान होगा।
      • ठेकेदारों के चयन के लिये खुली निविदा का उपयोग किया जा सकता है, जिसमें अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये CAG प्रतिनिधि मौजूद हों।
    • इसमें ऐसे सुधार हो सकते हैं जो MGNREGS और प्रधानमंत्री-जनजाति आदिवासी न्याय महा अभियान (PM-JANMAN) योजना जैसी राष्ट्रीय योजनाओं के साथ बेहतर एकीकरण को सक्षम बना सकें ताकि धन का प्रभावी उपयोग हो सके।
    • वर्तमान योजना से सांसदों को विभिन्न परियोजनाओं के लिये धन उपलब्ध होता है लेकिन इसके तहत सुधारों में स्थानीय विकास को बढ़ावा देने के क्रम में हाशिये पर पड़े समुदायों के लिये कल्याणकारी पहलों पर बल दिया जा सकता है।
  • उन्मूलन के पक्ष में तर्क:
    • MPLADS को समाप्त करने से धनराशि सीधे स्थानीय सरकारों (पंचायतों, नगर पालिकाओं) को दी जा सकेगी, जो समुदाय की विशिष्ट आवश्यकताओं को समझने और उनका समाधान करने की बेहतर स्थिति में होंगी।
    • कई लोगों का तर्क है कि मौजूदा सरकारी योजनाएँ पहले से ही स्थानीय विकास आवश्यकताओं को पूरा करती हैं, तथा MPLADS को समाप्त करने से संसाधनों का बेहतर उपयोग हो सकेगा साथ ही प्रयासों के दोहराव को रोका जा सकेगा।
    • कमज़ोर विनियमन के कारण धन का दुरुपयोग और असमान वितरण से भ्रष्टाचार तथा अकुशलता की संभावना बढ़ गई है।

निष्कर्ष

  • MPLADS के विकास उद्देश्यों को मज़बूत जवाबदेही तंत्र के साथ संतुलित करना इसके भविष्य को निर्धारित कर सकता है। इसमें पारदर्शिता बढ़ाने के लिये सुधार पर्याप्त होंगे या इसके उन्मूलन जैसे अधिक कठोर उपायों की आवश्यकता होगी, यह भारत के लोकतांत्रिक शासन में बहस का एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: MPLADS योजना से संबंधित मुद्दे क्या हैं? इससे शक्तियों के पृथक्करण को किस प्रकार चुनौती मिलती है? 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. संसद सदस्य स्थानीय क्षेत्र विकास योजना (MPLADS) के अंतर्गत निधियों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-से सही हैं? (2020)

  1. MPLADS निधियाँ टिकाऊ परिसंपतियों जैसे- स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की भौतिक आधारभूत संरचनाओं के निर्माण में ही प्रयुक्त हो सकती हैं। 
  2. प्रत्येक सांसद की निधि का एक निश्चित अंश अनुसूचित जाति/जनजाति जनसंख्या के लाभार्थ प्रयुक्त होना आवश्यक है। 
  3. MPLADS निधियाँ वार्षिक आधार पर स्वीकृत की जाती हैं और अप्रयुक्त निधि को अगले वर्ष के लिये अग्रेषित नहीं किया जा सकता। 
  4. कार्यान्वित हो रहे सभी कार्यों में से कम-से-कम 10% कार्यों का ज़िला प्राधिकारी द्वारा प्रतिवर्ष निरीक्षण करना अनिवार्य है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3 और 4
(c) केवल 1, 2 और 3
(d) केवल 1, 2 और 4

उत्तर: (d)


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