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लघु उद्योग, वृहद संभावनाएँ

यदि कहा जाए कि व्यक्ति और राष्ट्र की आत्मनिर्भरता का सही मायने में तर्कसंगत संबंध लघु उद्योगों से है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी! गौरतलब है कि अर्थव्यवस्था के चार पहिये होते हैं; कृषि, सेवा, उद्योग और व्यापार। इतिहास में जिक्र है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का पहिया सदियों से मजबूत था। हमारी रफ़्तार और संपन्नता पड़ोस के मुल्कों में चर्चा का विषय होती थी। किंतु वास्कोडिगामा के आगमन के बाद भारत के बुरे दिन शुरू हो गए। भारतीय अर्थव्यवस्था का कुछ पहिया भयंकर रूप से क्षतिग्रस्त हुआ; “ब्रिटिश और अन्य यूरोपीय देशों ने भारतीय वाणिज्य-व्यापार (लघु उद्योग) को खुद के स्वार्थ हेतु तहस-नहस कर दिया। यूरोप चमक गया और भारत औद्योगिक क्रांति का भुक्तभोगी बनकर रह गया।” भारतीय अर्थव्यवस्था में लड़खड़ाने की प्रवृत्ति ब्रिटिश आर्थिक नीतियों की देन है। यही कारण है कि आए दिन भारतीय नीति निर्माणकर्ता, नीति आयोग और अन्य थिंक टैंक लघु उद्योगों की तरफ उम्मीद-भरी निगाहों से देखते हैं- और औद्योगिक नीतियों में लघु उद्योगों के विकास हेतु प्रावधान करते हैं। क्योंकि उन्हें मालूम है कि इन्हें मजबूत किए बिना विकसित भारत की कल्पना को मूर्त करना बहुत कठिन है।

लघु उद्योगों को ‘एमएसएमई (Micro, Small and Medium Enterprises)-2006 अधिनियम’ के द्वारा विनियमित किया गया। दरअसल MSMEs अर्थव्यवस्था की वो चाभी है जिनसे विकास के दरवाजे सबके लिए खुलते हैं और ज़्यादा से ज़्यादा नागरिक आर्थिक गतिविधयों में शामिल होकर टिकाऊ और समावेशी विकास को बढ़ावा देते हैं। ‘सबका साथ-सबका विकास-सबका प्रयास’ को मूर्त रूप प्रदान करने में लघु उद्योग कारगर साबित होते हैं। “गरीबी और बेरोजगारी से जूझती अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन करने की जितनी क्षमता लघु उद्योगों में है- शायद ही किसी अन्य बड़े उद्योगों में हो!” MSMEs 11 करोड़ से अधिक भारतीयों को रोज़गार प्रदान करते हैं जो भारत में कुल रोज़गार का लगभग 23% है। रोजगार में कृषि क्षेत्र के बाद यह दूसरा सबसे अधिक योगदान है। भारतीय सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 29%, विनिर्माण उत्पादन में 45% और कुल निर्यात में लगभग 40% योगदान देने वाले MSMEs में संभावनाओं की अभी भी कोई कमी नहीं है। ‘नीति आयोग’ के मुताबिक आने वाले कुछ वर्षों में लगभग पाँच करोड़ नए लोगों को रोजगार देता हुआ दिखेगा MSMEs. लघु उद्योग के नाम में भले ही लघु (छोटा) शब्द है किंतु इनका प्रभाव विस्तृत, दूरगामी और सकारात्मक होता है।

“लघु उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। यह मेक इन इंडिया और मेड फॉर द वर्ल्ड पर आधारित है। स्वरोजगार और आत्मनिर्भरता इसका प्रमुख लक्षण है।” इसलिए उभरती हुई भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह संजीवनी की तरह कार्य करता है। भारत विकासशील अर्थव्यवस्था से आगे बढ़ गया है और विकसित अर्थव्यवस्था से पीछे है; इस स्थिति में यदि औद्योगिक विकास सतत हो तो सुपर-पावर बनने की उम्मीद को लगातार बल मिलता रहेगा। स्टार्टअप युग में यदि नई पीढ़ी को लघु उद्योगों से जोड़ा जाए तो भारत औद्योगिक क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित कर सकता है। क्योंकि ज्यादातर लघु उद्योग निर्यात केंद्रित होते हैं, और इनमें कम निवेश करने पर अधिक लाभ की गारंटी मिलती है! “अर्थव्यवस्था की जितनी भी समस्याएँ और चुनौतियाँ होती हैं सबका समाधान पक्ष लघु उद्योग ही होता है।” इसलिए तमाम अर्थशास्त्री, नीति-निर्धारणकर्ता एवं प्रशासक अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बातें चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न करें लेकिन जब रणनीतियों को अमलीजामा पहनाना होता है तब उम्मीद भरी निगाहों से लघु उद्योगों की तरफ ही देखते हैं। ‘संयुक्त राष्ट्र’ के अनुसार, विश्व के औपचारिक और अनौपचारिक सभी फर्मों में MSMEs की भागीदारी 90% से अधिक है तथा कुल रोज़गार में औसतन 70% एवं सकल घरेलू उत्पाद में 50% हिस्सेदारी है। अर्थात न केवल भारत बल्कि विश्व की कई देश की अर्थव्यवस्था लघु उद्योगों पर टिकी हुई है।

तमाम आँकड़ें बताते हैं कि लघु उद्योगों में समाज के सबसे पिछड़े तबके सबसे ज्यादा कार्यरत हैं। “महिलाएँ, आदिवासी, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के नागरिक बड़ी संख्या में लघु उद्योगों से जीविकोपार्जन कर रहे हैं।” दरअसल जब गरीब परिवार का एक भी सदस्य रोजगार से जुड़ता है तब घर की परिस्थिति बदल जाती है; बच्चे पढ़ने-लिखने के लिए विद्यालय जाने लगते हैं, थाली में पोषक आहार आने लगता है, शरीर पर अच्छे वस्त्र आ जाते हैं और परिवार में सुख-शांति का आगमन होता है। इसलिए लघु उद्योगों का संबंध केवल आर्थिक विकास से नहीं है बल्कि यह ‘सामाजिक विकास’ में भी सहायक है। हाशिए पर रह रहे नागरिकों को लघु उद्योग एक नई ज़िन्दगी देने का कार्य करता है। हाल के आँकड़े बताते हैं कि “भारत में MSMEs क्षेत्र के 66% उद्यम समाज के निचले वर्ग से जुड़े लोगों द्वारा संचालित किये जाते हैं। इनमें से 12.5% अनुसूचित जाति, 4.1% अनुसूचित जनजाति और 49.7% अन्य पिछड़े वर्ग से संबंधित हैं।” सभी श्रेणियों के MSMEs के कर्मचारियों में लगभग 80% पुरुष और 20% महिलाएँ हैं। भौगोलिक दृष्टि से देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में 14%, पश्चिम बंगाल में 14%, तमिलनाडु में 8%, महाराष्ट्र में 8%, कर्नाटक में 6%, बिहार में 5% और आंध्र प्रदेश में 5% MSMEs स्थित हैं। MSMEs की सघनता वाले इन सात राज्यों में लघु उद्योगों से खूब उम्मीदें हैं।

भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में लघु उद्योगों की कोई तुलना नहीं है। ‘राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी’ ने लघु और कुटीर उद्योगों की प्रासंगिकता को स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही व्यक्त कर दिया था। लघु उद्योगों की प्रासंगिकता आज भी बरकरार है। दरअसल लघु उद्योग रोज़गार, स्वरोज़गार और उद्यमिता के माध्यम से गरीबी, भुखमरी एवं आर्थिक असमानता को कम करता है। लोगों के ज्ञान और कौशल के विकास के माध्यम से उनके जीवन-स्तर को बेहतर बनाने में योगदान देता है। भारतीय समाज में यह क्षेत्र महिलाओं को स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से उद्यमिता के लिए प्रेरित करता है। आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर लोगों का सशक्तिकरण करता है। “MSMEs मुख्य रूप से श्रम आधारित उद्योग होने के कारण रोजगार रहित विकास की समस्या को कम करता है और समावेशी विकास को गति प्रदान करता है।” चूँकि लघु उद्योगों में स्थानीय वस्तुओं के उत्पादन एवं आपूर्ति का विशेष ध्यान रखा जाता है इसलिए आत्मनिर्भरता को बढ़ावा मिलता है। MSMEs बड़े उद्योगों की तुलना में पर्यावरण के अनुकूल वस्तुओं का उत्पादन करता है। जिससे ग्रीन इकोनमी को बल मिलता है। वैश्वीकरण, निजीकरण, उदारीकरण एवं सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के दौर में MSMEs स्थानीय उत्पादों, कला एवं संस्कृति, पर्यटन, योग, आयुर्वेद और हस्तशिल्प को बढ़ावा देता है। यानी लघु उद्योग कई दृष्टिकोण से समाज और अर्थव्यवस्था के हित में कार्य करता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ होने के बावजूद MSMEs के सामने कई चुनौतियाँ मौजूद हैं। उद्यम प्लेटफॉर्म पर पंजीकृत MSMEs इकाइयों की संख्या वास्तविकता से बहुत कम है, इन्हें वित्त/ऋण की सुविधा बहुत कम मिल पाती है। कई लघु और मध्यम इकाइयों को अपने स्वयं के संसाधनों पर निर्भर रहने के लिये विवश होना पड़ता है। विनिर्माण क्षेत्र के लगभग 86% MSMEs पंजीकृत नहीं हैं। “मात्र 1.1 करोड़ MSMEs वस्तु एवं सेवा कर (GST) के तहत पंजीकृत हैं।” हमारे यहाँ प्रत्येक साल IIT, IIM और अन्य बड़े संस्थानों से पढ़-लिखकर हजारों छात्र निकलते हैं इसके बावजूद भारतीय MSMEs में नवाचार और प्रौद्योगिकियों की कमी महसूस होती है। यदि भारत लघु उद्योगों से बड़ी उम्मीद रखता है तो इन तमाम चुनौतियों से जल्द निपटना होगा। लघु उद्योग विकास की एक नई गाथा लिख सकता है बशर्ते इन्हें इनके अनुकूल पूँजी, तकनीक और अन्य सहायता दी जाए!

सूती वस्त्र, इलेक्ट्रिकल और मशीनरी पार्ट्स, खाद्य उत्पाद, रासायनिक उत्पाद, रबर और प्लास्टिक उत्पाद, काष्ठ उत्पाद, कागज उत्पाद और मुद्रण, चमड़ा उत्पाद, पेय पदार्थ और तम्बाकू, धातु उत्पाद इत्यादि; ये लघु उद्योग के कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ बड़े स्तर पर भारत निर्माण का कार्य चल रहा है। यही कारण है कि भारत सरकार लघु उद्योगों के विकास के लिए प्रयासरत है और इनसे संबंधित अनेकों योजनाएँ अस्तित्व में हैं उदहारण के लिए- “MSMEs प्रदर्शन को बेहतर करने और इसकी गति में तेज़ी लाने की योजना (RAMP), सूक्ष्म एवं लघु उद्यम क्रेडिट गारंटी ट्रस्ट फंड (CGTMSE), ब्याज सब्सिडी पात्रता प्रमाणपत्र (ISEC), नवाचार ग्रामीण उद्योग और उद्यमिता के संवर्द्धन के लिये योजना (ASPIRE), प्रौद्योगिकी उन्नयन के लिये क्रेडिट लिंक्ड कैपिटल सब्सिडी (CLCSS), क्लस्टर विकास कार्यक्रम, सौर चरखा मिशन, डिजिटल MSMEs से संबंधित उद्यम सखी पोर्टल, मुद्रा, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टार्ट-अप इंडिया और स्किल इंडिया आदि।” भारत-सरकार के ये सब ऐसे प्रयास हैं जो MSMEs की समस्याओं और चुनौतियों को कम करते हैं। राज्य सरकारें भी अपने-अपने राज्यों में इस दिशा में प्रयत्नशील हैं।

अर्थशास्त्र के जानकारों का कहना है कि भारत की संपन्नता शहरों से नहीं बल्कि गाँवों से आँकी जानी चाहिए! यदि ग्रामीण केन्द्रित लघु उद्योगों को सही से बढ़ावा मिले तो गाँव और शहर की विकास की दूरी कम होगी और इससे विश्व की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था उत्तरोत्तर रफ़्तार पकड़ेगी। ग्रामीण भारतीय नागरिक कुटीर और लघु उद्योगों में बड़ी संख्या में कार्यरत हैं। यदि योजनाओं का सही लाभ और तकनीक-प्रौद्योगिकी-नवाचार उन तक पहुँचे तो ग्रामीण भारत अपने दम पर अर्थव्यवस्था के लिए अच्छे दिन ला सकते हैं। समय की माँग है कि लघु उद्योगों में ठीक-ठाक निवेश हो, कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराया जाए और लघु उद्यमियों को लगातार प्रोत्साहन मिले। लघु उद्योगों से तैयार उत्पादों को सही दाम मिले, इन्हें टैक्स में अन्य उद्योगों से ज्यादा छूट हो और विभिन्न प्रकार की ‘औद्योगिक प्रोत्साहन नीति’ बनाकर कायदे से उनका क्रियान्वयन हो तो ग्रामीण भारतीय नागरिक न तो शहर पलायन करेंगे और न ही अमीरी-गरीबी के बीच खाई पैदा होगी। तब भारत की संपन्नता को कहीं से भी आँकी जा सकेगी।

दरअसल “विकसित भारत का रास्ता दो तरफ से जाता है, एक गाँवों से होकर और दूसरा लघु उद्योगों से होकर! यदि आप गाँव से होकर जाते हैं तो लघु उद्योग रास्ते में मिलेंगे और वे साथ चल देंगे, किंतु यदि आप लघु उद्योग से होकर जाते हैं तो गाँव रास्ते में मिलेंगे और वे साथ चल देंगे। तात्पर्य यह है कि आधे से अधिक लघु उद्योगों का नाता ग्रामीण भारत से है।” जब लघु उद्योग मुस्कुराएगा तब गाँव अवश्य खिलखिलाएगा और गाँव की खिलखिलाहट भारत के लिए मील का पत्थर साबित होता है क्योंकि भारत गाँवों में निवास करता है। शायद इसलिए भी स्वतंत्रता के बाद लगातार गाँवों और लघु उद्योगों पर विशेष ध्यान दिया गया। विपन्नता भी यहीं है और संभावनाएँ भी यहीं हैं! भारत यहीं से अंग्रेजों द्वारा जानबूझकर की गई गलतियों को दशकों से सुधार रहा है और विकास पथ पर मजबूत छलांग लगाने के लिए तैयार है।

भारत इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति का भुक्तभोगी रहा है लेकिन “इंग्लैंड से आगे निकलने के लिए हमारा लघु उद्योग रफ़्तार में आ रहा है। इन्हें थोड़ा और संवारने की ज़रूरत है।” लघु उद्योगों में निवेश के फल मिलने शुरू हो गए हैं; फिर भी अभी बहुत कुछ होना बाक़ी है- अभी बहुत कुछ करना बाक़ी है क्योंकि इस क्षेत्र में संभावनाओं की कोई कमी नहीं है…

  राहुल कुमार  

राहुल कुमार, बिहार के खगड़िया जिले से हैं। इन्होंने भूगोल, हिंदी साहित्य और जनसंचार में एम.ए., हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा तथा बीएड किया है। इनकी दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ये IIMC से पत्रकारिता सीखने के बाद लगातार लेखन कार्य कर रहे हैं।


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