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डेली न्यूज़

  • 05 Sep, 2024
  • 63 min read
इन्फोग्राफिक्स

भारत का उच्चतम न्यायालय

Supreme-Court-of-India

और पढ़ें: भारत का उच्चतम न्यायालय


प्रारंभिक परीक्षा

23वें विधि आयोग का गठन

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

हाल ही में विधि एवं न्याय मंत्रालय ने 1 सितंबर, 2024 से 31 अगस्त, 2027 तक तीन वर्ष की अवधि के लिये 23वें विधि आयोग का गठन किया है।

23वें विधि आयोग के विषय में मुख्य विवरण क्या हैं?

  • अधिदेश: वर्ष 2020 में गठित 22वें विधि आयोग के संदर्भ की शर्तों केअनुसार, नवगठित पैनल को राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के आलोक में वर्तमान कानूनों का आकलन करने का कार्य सौंपा गया है।
  • संदर्भ की शर्तें:
    • राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के संबंध में मौजूदा कानूनों की जाँच करना तथा निदेशक सिद्धांतों और संवैधानिक प्रस्तावना के उद्देश्यों के अनुरूप सुधार का सुझाव देना।
    • खाद्य सुरक्षा और बेरोज़गारी पर वैश्वीकरण के प्रभाव की जाँच करना। 
    •  हाशिये पर पड़े लोगों के हितों की सुरक्षा के लिये उपायों की सिफारिश करना।
    • न्यायिक प्रशासन की समीक्षा करना तथा उसे और अधिक उत्तरदायी व कुशल बनाने के लिये उसमें सुधार करना।
      • इसका उद्देश्य विलंब को कम करना, उच्च न्यायालय के नियमों को सरल बनाना और केस प्रवाह प्रबंधन ढाँचा स्थापित करना।

विधि आयोग क्या है?

  • परिचय: यह विधि और न्याय मंत्रालय, भारत सरकार की अधिसूचना के माध्यम से कानूनी सुधारों के लिये कानून के क्षेत्र में अनुसंधान करने के लिये गठित एक गैर-सांविधिक निकाय है।
    • विधि आयोग एक निश्चित कार्यकाल के लिये स्थापित किया जाता है और विधि एवं न्याय मंत्रालय के लिये एक सलाहकार निकाय के रूप में कार्य करता है।
  • विधि आयोग का इतिहास: प्रथम विधि आयोग की स्थापना चार्टर अधिनियम, 1833 के तहत वर्ष 1834 में लॉर्ड मैकाले की अध्यक्षता में की गई थी।
    • इसने भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता के संहिताकरण की सिफारिश की।
    • इसके बाद क्रमशः 1853, 1861 एवं 1879 में दूसरे, तीसरे तथा चौथे विधि आयोग का गठन किया गया।
    • भारतीय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908, भारतीय संविदा अधिनियम, 1872, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 और संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 पहले चार विधि आयोगों द्वारा निर्मित किये गये थे।
  • स्वतंत्रता के बाद विधि आयोग का गठन: भारत सरकार ने वर्ष 1955 में स्वतंत्र भारत के पहले विधि आयोग की स्थापना की, जिसके अध्यक्ष भारत के तत्कालीन महान्यायवादी श्री एम. सी. सीतलवाड़ थे।
    • तब से अब तक 23 विधि आयोग गठित किये जा चुके हैं, जिनमें से प्रत्येक का कार्यकाल तीन वर्ष का है।
  • विधि आयोग के कार्य:
    • अप्रचलित कानूनों की समीक्षा/निरसन: अप्रचलित और अप्रासंगिक कानूनों की पहचान करना तथा उन्हें निरस्त करने की सिफारिश करना।
    • कानून और गरीबी: गरीबों को प्रभावित करने वाले कानूनों की जाँच करना और सामाजिक-आर्थिक कानून का पश्च-लेखा-परीक्षण (post-audit) करना।
    • नए कानूनों का प्रस्ताव: निदेशक सिद्धांतों को लागू करना और प्रस्तावना के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये नए कानूनों का प्रस्ताव करना।
    • न्यायिक प्रशासन: सरकार द्वारा संदर्भित कानून और न्यायिक प्रशासन के मुद्दों पर समीक्षा करना तथा सिफारिशें करना।
  • महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट: भारतीय विधि आयोग ने अब तक विभिन्न मुद्दों पर 289 रिपोर्ट प्रस्तुत की हैं, जिनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट इस प्रकार हैं:
    • रिपोर्ट संख्या 283 (सितंबर, 2023): यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम, 2012 के तहत सहमति की आयु।
    • रिपोर्ट संख्या 271 (जुलाई 2017): मानव DNA प्रोफाइलिंग।
    • रिपोर्ट संख्या 273 (अक्तूबर 2017): यातना के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन का कार्यान्वयन।
    • रिपोर्ट संख्या 274 (अप्रैल 2018): न्यायालय की अवमानना ​​अधिनियम, 1971 की समीक्षा


शासन व्यवस्था

12 नए औद्योगिक स्मार्ट शहरों को मंज़ूरी

प्रिलिम्स के लिये:

औद्योगिक स्मार्ट शहर, स्मार्ट सिटी मिशन, केंद्र प्रायोजित योजना, सतत् विकास, विशेष प्रयोजन वाहन (SPV), सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP), कायाकल्प और शहरी परिवर्तन के लिये अटल मिशन (AMRUT), प्रधानमंत्री आवास योजना-शहरी (PMAY-U)

मेन्स के लिये:

औद्योगिक स्मार्ट शहरों के विकास से जुड़ी चुनौतियाँ और आगे की राह

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रधानमंत्री के नेतृत्व में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारा विकास कार्यक्रम के अंतर्गत 10 राज्यों में 6 प्रमुख औद्योगिक गलियारों में 12 औद्योगिक स्मार्ट शहरों की स्थापना को मंज़ूरी दी।

  • औद्योगिक परियोजनाओं के लिये चुने गए शहर उत्तराखंड, पंजाब, महाराष्ट्र, केरल, उत्तर प्रदेश, बिहार, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और राजस्थान में हैं।

औद्योगिक स्मार्ट सिटी क्या है?

  • परिचय:
    • औद्योगिक स्मार्ट सिटी एक शहरी क्षेत्र है, जो औद्योगिक परिचालन की दक्षता बढ़ाने और सतत विकास को बढ़ावा देने के लिये उन्नत प्रौद्योगिकियों तथा डेटा विश्लेषण को एकीकृत करता है।
    • इन स्मार्ट औद्योगिक शहरों का उद्देश्य विदेशी निवेश आकर्षित करना, घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देना और रोज़गार को बढ़ावा देना है।
  • उद्देश्य:
    • भारत में नए औद्योगिक शहरों के विकास का उद्देश्य निवेशकों को आवंटन हेतु तैयार भूमि उपलब्ध कराकर वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में देश की स्थिति को सुदृढ़ करना है।
    • इसका उद्देश्य 'प्लग-एंड-प्ले' और 'वॉक-टू-वर्क' जैसी उन्नत शहरी अवधारणाओं को एकीकृत करना है।
      • प्लग-एंड-प्ले औद्योगिक पार्क उपयोग के लिये तैयार बुनियादी ढाँचा प्रदान करते हैं, जिससे व्यवसायों को तुरंत परिचालन शुरू करने में सहायता मिलती है
      • "वॉक-टू-वर्क" एक शहरी नियोजन रणनीति है, जो लोगों को अपने कार्यस्थलों के पास रहने के लिये प्रोत्साहित करती है, कार के उपयोग को कम कर, पैदल चलने को बढ़ावा देती है।
  • विकास का रोडमैप:
    • इन शहरों का विकास राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारा विकास कार्यक्रम (National Industrial Corridor Development Programme- NICDP) के तहत किया जाएगा।
      • NICDP का लक्ष्य उन्नत औद्योगिक शहरों का विकास करना है, जो विश्व के शीर्ष विनिर्माण और निवेश स्थलों के साथ प्रतिस्पर्द्धा कर सकें।
      • इसे बड़े प्रमुख उद्योगों तथा सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (Micro, Small, and Medium Enterprises- MSME) दोनों से निवेश की सुविधा प्रदान करके, एक जीवंत औद्योगिक पारिस्थितिकी तंत्र को बढ़ावा देने के लिये अभिकल्पित किया गया है।
      • यह कार्यक्रम राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारा विकास एवं कार्यान्वयन ट्रस्ट (National Industrial Corridor Development and Implementation Trust- NICDIT) और राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारा विकास निगम लिमिटेड (National Industrial Corridor Development Corporation Limited- NICDC) द्वारा कार्यान्वित किया जाता है।
    • ये औद्योगिक ग्रंथियाँ (nodes) आवासीय और वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों को एकीकृत करेंगे तथा आत्मनिर्भर शहरी वातावरण के रूप में कार्य करेंगे।
    • सरकार इन परियोजनाओं के विपणन के लिये इन्वेस्ट इंडिया (भारत की राष्ट्रीय निवेश संवर्धन एवं सुविधा एजेंसी) के साथ साझेदारी करने की योजना बना रही है।
      • पार्कों के क्रियान्वयन के लिये एक विशेष प्रयोजन वाहन (Special Purpose Vehicle- SPV) भी स्थापित किया जाएगा, जिसकी पूर्णता अवधि 3 वर्ष होगी, जो राज्य के सहयोग पर निर्भर करेगा।

स्वीकृत औद्योगिक स्मार्ट शहरों की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

  • राष्ट्रीय आर्थिक लक्ष्यों और PM गति-शक्ति राष्ट्रीय मास्टर प्लान के अनुरूप:
    • इन स्मार्ट शहरों का विकास सरकार के वर्ष 2030 तक 2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के निर्यात लक्ष्य के अनुरूप है
    • परियोजनाओं को प्रधानमंत्री के गतिशक्ति राष्ट्रीय मास्टर प्लान के अनुरूप बनाया जाएगा, जिसमें लोगों, वस्तुओं और सेवाओं की निर्बाध आवागमन को सक्षम करने के लिये मल्टी-मॉडल कनेक्टिविटी बुनियादी ढाँचे को शामिल किया जाएगा।
      • यह बुनियादी ढाँचा देश भर में रसद दक्षता (logistics efficiency) में सुधार और आपूर्ति शृंखला को सुव्यवस्थित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
    • ये शहर स्वर्णिम चतुर्भुज के साथ-साथ ‘औद्योगिक शहरों के समूह’ का हिस्सा होंगे, जिससे कनेक्टिविटी और औद्योगिक विकास में वृद्धि होगी।
  • महत्त्व:
    • ये परियोजनाएँ सिंगापुर और स्विट्ज़रलैंड जैसे देशों से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (Foreign Direct Investment- FDI) आकर्षित करने के लिये तैयार की गई हैं।
    • इन शहरों में लगभग 10 लाख प्रत्यक्ष रोज़गार और 30 लाख तक अप्रत्यक्ष रोज़गार सृजित होने की उम्मीद है तथा इनमें 1.5 लाख करोड़ रुपए की निवेश क्षमता है।
    • NICDP के तहत विकसित शहर पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने के लिये ICT-सक्षम उपयोगिताओं और हरित प्रौद्योगिकियों को एकीकृत करके स्थिरता को बढ़ावा देंगे, साथ ही घरेलू तथा अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों को आकर्षित करने हेतु आवंटन के लिये तैयार भूमि पार्सल प्रदान करेंगे, जिसका उद्देश्य वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में भारत की भूमिका को सुदृढ़ करना है।

औद्योगिक स्मार्ट शहरों के विकास से जुड़ी चुनौतियाँ क्या हैं?

  • तकनीकी एकीकरण और अवसंरचना: IoT उपकरणों, हाई-स्पीड इंटरनेट और डेटा केंद्रों का समर्थन करने के लिये पुराने शहरी औद्योगिक अवसंरचना को उन्नत करने हेतु महत्त्वपूर्ण निवेश की आवश्यकता होती है और विशेष रूप से पुराने शहरों में यह तार्किक चुनौतियाँ भी उत्पन्न करता है।
  • डेटा गोपनीयता और सुरक्षा: स्मार्ट उपकरणों से एकत्रित विशाल डेटा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये मज़बूत सुरक्षा प्रोटोकॉल और निरंतर निगरानी की आवश्यकता होती है।
  • वित्तपोषण और निवेश: सार्वजनिक या निजी स्रोतों से पर्याप्त वित्तीय निवेश प्राप्त करना चुनौतीपूर्ण है, जिसके लिये हितधारकों को दीर्घकालिक लाभ और निवेश पर प्रतिफल (Return on Investment- ROI) के बारे में आश्वस्त करना आवश्यक है।
  • सार्वजनिक स्वीकृति और जागरूकता: प्रभावी संचार तथा शिक्षा के माध्यम से गोपनीयता, स्वचालन के कारण नौकरी की हानि एवं जीवनशैली में बदलाव के बारे में नागरिकों की चिंताओं को संबोधित करना औद्योगिक स्मार्ट सिटी परियोजनाओं की सफलता के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • शासन और नीतिगत मुद्दे: नगरपालिका के कानूनों, नियमों और नीतियों में परिवर्तन करने में समय लगता है और ये राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दे हैं, जिससे स्मार्ट सिटी कार्यक्रमों को लागू करना अधिक कठिन हो जाता है।

आगे की राह

  • नियामक सुधार: प्रशासनिक प्रक्रियाओं को सरल और डिजिटल बनाना, सरकारी स्तरों पर विनियमनों में सामंजस्य स्थापित करना तथा कार्यकुशलता में सुधार, व्यावसायिक बोझ को कम करने एवं निवेशकों का विश्वास बनाने के लिये निर्णय लेने में पारदर्शिता बढ़ाना।
  • कुशल भूमि अधिग्रहण: अधिग्रहण को सुव्यवस्थित करने के लिये भूमि बैंक बनाने, विवादों को कम करने के लिये उचित मुआवजा सुनिश्चित करने और प्रक्रिया में तेज़ी लाने हेतु भूमि पूलिंग जैसे नवीन तरीकों का उपयोग करने की आवश्यकता है।
  • सतत् विकास: इन प्रयासों को समर्थन देने के लिये गहन पर्यावरणीय आकलन करना, टिकाऊ व्यावसायिक क्रियाओं को बढ़ावा देना और आवश्यक बुनियादी ढाँचे में निवेश करना जरूरी है।
  • कौशल विकास और कार्यबल प्रशिक्षण: औद्योगिक पार्कों में कौशल की कमी को दूर करने के लिये व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करना, अनुरूप प्रशिक्षण कार्यक्रमों हेतु उद्योगों के साथ सहयोग करना तथा कर्मचारियों के विकास में निवेश करने के लिये व्यवसायों को प्रोत्साहित करने हेतु प्रोत्साहन प्रदान करना महत्त्वपूर्ण है।
  • सार्वजनिक-निजी भागीदारी: औद्योगिक स्मार्ट शहरों के विकास के लाभों को अधिकतम करने के लिये, सार्वजनिक-निजी भागीदारी को बढ़ावा देना आवश्यक है, जो जोखिम और लाभ को समान रूप से साझा करना तथा शासन में पारदर्शिता तथा जवाबदेही सुनिश्चित करना।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: औद्योगिक स्मार्ट शहर क्या हैं? भारत के शहरी विकास में उनकी प्रासंगिकता की जाँच कीजिये और उनके सामने आने वाली चुनौतियों को सूचीबद्ध कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

मेन्स:

प्रश्न. भारत में नगरीय जीवन की गुणता की संक्षिप्त पृष्ठभूमि के साथ, ‘स्मार्ट नगर कार्यक्रम’ के उद्देश्य और रणनीति बताइये। (2016)


आपदा प्रबंधन

आपदा प्रबंधन (संशोधन) विधेयक 2024

प्रिलिम्स के लिये:

आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, राष्ट्रीय संकट प्रबंधन समिति, राष्ट्रीय आपदा मोचन कोष, हीटवेव, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग

मेन्स के लिये:

आपदा प्रबंधन (संशोधन) विधेयक, 2024, आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 से संबंधित चुनौतियाँ

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में केंद्र सरकार ने मौजूदा आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 में संशोधन करने के लिये लोकसभा में आपदा प्रबंधन (संशोधन) विधेयक, 2024 पेश किया।

  • हालाँकि प्रस्तावित संशोधनों से आपदा प्रबंधन कार्यों के बढ़ते केंद्रीकरण और प्रभावी आपदा प्रतिक्रिया के निहितार्थों के विषय में आलोचना की गई है।

आपदा प्रबंधन (संशोधन) विधेयक, 2024 के प्रमुख प्रावधान क्या हैं?

  • आपदा प्रबंधन योजनाओं की तैयारी: वर्ष 2005 के अधिनियम के तहत राष्ट्रीय कार्यकारी समिति (NEC) व राज्य कार्यकारी समितियाँ (SEC) आपदा प्रबंधन योजनाओं की तैयारी में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) और राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों (SDMA) की सहायता के लिये ज़िम्मेदार थीं।
    • विधेयक में प्रस्ताव किया गया है कि NEC व SEC को दरकिनार करते हुए NDMA और SDMA अपनी स्वयं की राष्ट्रीय तथा राज्य आपदा प्रबंधन योजनाएँ बनाएँ।
    • NDMA की ज़िम्मेदारियों का विस्तार करके इसमें आपदा जोखिमों का आवधिक आकलन भी शामिल किया जाएगा।
  • राष्ट्रीय और राज्य आपदा डेटाबेस: विधेयक राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर एक व्यापक आपदा डेटाबेस के निर्माण का आदेश देता है।
    • यह डेटाबेस आपदा आकलन, निधि आवंटन, व्यय, आपदा पूर्व तैयारी और जोखिम रजिस्टर जैसे पहलुओं को शामिल करेगा।
  • NDMA में नियुक्तियाँ: वर्तमान में केंद्र सरकार NDMA में अधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्ति करती है।
    • विधेयक NDMA को अपनी नियुक्तीकरण आवश्यकताओं को स्वयं निर्धारित करने तथा केंद्र सरकार की मंजूरी से विशेषज्ञों की नियुक्ति करने की अनुमति देता है।
  • शहरी आपदा प्रबंधन प्राधिकरण: विधेयक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और केंद्रशासित प्रदेश चंडीगढ़ को छोड़कर राज्य की राजधानियों तथा बड़े शहरों के लिये शहरी आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (UDMA) का प्रस्ताव करता है।
    • इन प्राधिकरणों का नेतृत्व नगर निगम आयुक्तों व ज़िला कलेक्टरों द्वारा किया जाएगा, जो शहरी आपदा प्रबंधन योजना और कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित करेंगे।
  • राज्य आपदा मोचन बल: वर्ष 2005 का अधिनियम विशेष आपदा प्रतिक्रिया के लिये राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (NDRF) का प्रावधान करता है।
    • विधेयक राज्य सरकारों को स्थानीय प्रतिक्रिया क्षमताओं को बढ़ाने के लिये परिभाषित कार्यों और सेवा शर्तों के साथ राज्य आपदा मोचन बल (SDRF) बनाने का अधिकार देता है।
  • मौजूदा समितियों को वैधानिक दर्जा: विधेयक राष्ट्रीय संकट प्रबंधन समिति (NCMC) और उच्च स्तरीय समिति ((HLC) को वैधानिक दर्जा प्रदान करता है, जो क्रमशः प्रमुख आपदाओं व वित्तीय सहायता को संभालेंगे।
    • NCMC का नेतृत्व कैबिनेट सचिव करेंगे तथा HLC का नेतृत्व आपदा प्रबंधन की देखरेख करने वाले मंत्री करेंगे।
  • दंड और निर्देश: प्रस्तावित विधेयक का उद्देश्य एक नई धारा 60A जोड़ना है, जो केंद्र और राज्य सरकारों को किसी भी व्यक्ति को आपदा के प्रभावों को कम करने के लिये कोई कार्रवाई करने या न करने का आदेश देने तथा उस पर 10,000 रुपये तक का जुर्माना लगाने की शक्ति प्रदान करेगा।

आपदा प्रबंधन (संशोधन) विधेयक, 2024 के संदर्भ में चिंताएँ क्या हैं?

  • शक्ति का केंद्रीकरण: विधेयक पूर्ववर्ती व केंद्रीकृत आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 को और अधिक केंद्रीकृत करता है, विभिन्न स्तरों पर अधिक प्राधिकरण एवं समितियाँ बनाता है, जिससे कार्रवाई की शृंखला जटिल हो सकती है तथा अधिनियम के उद्देश्य के विपरीत आपदा से निपटने में विलंब हो सकता है।
    • विधेयक विशिष्ट दिशा-निर्देशों को हटाकर राष्ट्रीय आपदा मोचन कोष (NDRF) को कमज़ोर करता है, जिससे आपदा प्रतिक्रिया में केंद्रीकरण को लेकर चिंताएँ बढ़ सकती हैं।
      • केंद्रीकरण के कारण पहले भी विलंब हुआ है, जैसा कि तमिलनाडु और कर्नाटक को धन के देरी से हुए वितरण के मामले में देखा जा सकता है।
  • अपर्याप्त स्थानीय संसाधन: यह विधेयक UDMA की स्थापना और प्रबंधन के लिये स्थानीय स्तर पर संसाधनों एवं वित्त पोषण की संभावित कमी की आपूर्ति नहीं करता है।
    • यह अंतर आपदा प्रबंधन में इन नई संस्थाओं की प्रभावशीलता को कमज़ोर कर सकता है।
  • आपदा राहत को कानूनी अधिकार के रूप में सुनिश्चित करना: विधेयक राहत प्रदान करने के लिये राज्य के नैतिक दायित्व के बावजूद आपदा राहत को न्यायोचित (यदि उनका उल्लंघन किया जाता है तो न्यायालय में लागू किया जा सकता है) अधिकार बनाने की आवश्यकता को पूरा नहीं करता है । 
    • समान आपदाओं के लिये राज्यों के बीच तथा राज्यों के भीतर भी राहत उपायों में काफी भिन्नता होती है।
  • जलवायु परिवर्तन को एकीकृत करना: विधेयक में आपदा जोखिम प्रबंधन में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को पूरी तरह से एकीकृत करने के प्रावधानों का अभाव है। सेंदाई फ्रेमवर्क और पेरिस  समझौता- 2015 जैसे अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के बावजूद विधेयक जलवायु-प्रेरित जोखिमों को हल करने में विफल हो सकता है।
  • एकीकरण के मुद्दे: राष्ट्रीय कार्यकारी समिति और राज्य कार्यकारी समितियों से NDMA तथा SDMA को जिम्मेदारियों का अंतरण, विशेष रूप से मौजूदा अवसंरचना के साथ नई भूमिकाओं को संरेखित करने में एकीकरण के मुद्दों का सामना कर सकता है। 
    • प्रस्तावित विधेयक में सरकारी एजेंसियों, गैर-सरकारी संगठनों (NGO), निजी क्षेत्रों और आम जनता सहित विभिन्न हितधारकों के बीच प्रभावी सहयोग के लिये कोई स्पष्ट तंत्र नहीं है।
    • हाल की आपदाएँ जटिल और उभरते जोखिमों से निपटने के लिये बेहतर प्रशासन एवं समन्वय की आवश्यकता को उजागर करती हैं।
  •  'आपदा' की सीमित परिभाषा: भारत में हीटवेव की बढ़ती आवृत्ति और प्रभाव के बावजूद सरकार वर्तमान में हीटवेव को आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत अधिसूचित आपदा के रूप में वर्गीकृत करती है।
    • अधिनियम में ‘आपदा’ की परिभाषा सीमित और स्थिर बनी हुई है, जो हीटवेव जैसी जलवायु-प्रेरित आपदाओं का पर्याप्त रूप से प्रबंधन करने में विफल रही है, जो क्षेत्रीय परिवर्तनशीलता तथा क्रमिकता प्रदर्शित करती है।
  • संघीय गतिशीलता पर प्रभाव: यह विधेयक निर्णय लेने और वित्तीय प्रबंधन को केंद्रीकृत करके केंद्र एवं राज्य सरकारों के बीच तनाव को बढ़ा सकता है। 
    • राज्य निधियों और निर्णय लेने के लिये केंद्र सरकार पर अत्यधिक निर्भर हो सकते हैं, जिससे आपदा प्रबंधन और प्रतिक्रिया में उनकी स्वायत्तता सीमित हो सकती है।

आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की कमियाँ क्या हैं?

  • संस्थागत कमियाँ: NDMA के उपाध्यक्ष का पद लगभग एक दशक से रिक्त है। इस अनुपस्थिति ने NDMA को आवश्यक नेतृत्व और राजनीतिक प्रभाव से वंचित कर दिया है।
    • NDMA के पास स्वतंत्र प्रशासनिक और वित्तीय शक्तियों का अभाव है, जिसके कारण सभी निर्णय गृह मंत्रालय के माध्यम से लिये जाने चाहिये, जिससे अक्षमता तथा देरी होती है।
  • नौकरशाही की अक्षमताएँ: अधिनियम अत्यधिक नौकरशाही से ग्रस्त है, शीर्ष-से-नीचे का दृष्टिकोण अपनाया जाता है, जहाँ निर्णय लेने का काम केंद्रीकृत होता है और स्थानीय अधिकारियों को दरकिनार कर दिया जाता है।
    • इससे आपदाओं के दौरान देरी से प्रतिक्रियाएँ होती हैं, जैसा कि वर्ष 2018 में केरल बाढ़ और वर्ष 2013 में केदारनाथ बाढ़ जैसी घटनाओं में देखा गया।
  • अस्पष्टता: अधिनियम में "आपदा" और "विपत्ति" जैसे प्रमुख शब्दों की अस्पष्ट परिभाषाएँ हैं। उदाहरण के लिये, इसने शुरू में आपदाओं को प्राकृतिक या मानव निर्मित कारणों से होने वाली किसी भी "आपदा, दुर्घटना, विपत्ति या गंभीर घटना" के रूप में परिभाषित किया, लेकिन इसने आपदाओं के प्रकारों के बीच स्पष्ट रूप से अंतर नहीं किया या उनके क्षेत्र को निर्दिष्ट नहीं किया, जिससे भ्रम की स्थिति पैदा हुई।
  • वित्तपोषण: आवंटित धन अक्सर बड़े पैमाने पर आपदाओं के दौरान ज़रूरतों को पूरा करने के लिये अपर्याप्त होता है, जिससे प्रतिक्रिया और पुनर्प्राप्ति में देरी होती है।

आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005

  • वर्ष 2004 में आई विनाशकारी सुनामी के बाद आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 लागू किया गया था। इस तरह के कानून का विचार वर्ष 1998 में ओडिशा में आए सुपर साइक्लोन के बाद से ही चल रहा था।
  • इस अधिनियम के तहत राष्ट्रीय स्तर पर NDMA, राज्य स्तर पर SDMA, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (NDRF) और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (NIDM) (आपदा से संबंधित अनुसंधान, प्रशिक्षण, जागरूकता एवं क्षमता निर्माण के लिये एक संस्थान) का निर्माण किया गया।
  • इस अधिनियम के बाद 2009 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन नीति और वर्ष 2016 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना बनाई गई।
    • इस संस्थागत ढाँचे ने भारत को प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में मदद की है। पिछले कुछ वर्षों में इसने हजारों व्यक्तियों की जान बचाई है और राहत, बचाव एवं पुनर्वास सेवाएँ प्रदान की हैं।
  • जलवायु परिवर्तन से और भी बदतर प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती घटनाओं ने NDMA जैसी एजेंसियों को पहले से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया है, जिसके लिये अधिक ज़िम्मेदारियाँ एवं संसाधन आवंटित करने की आवश्यकता है।

आगे की राह 

  • विकास योजनाओं में आपदा जोखिम न्यूनीकरण को एकीकृत करना: सुनिश्चित करें कि राष्ट्रीय और राज्य विकास नीतियों में आपदा जोखिम न्यूनीकरण को शामिल किया जाए, विशेष रूप से बुनियादी ढाँचे, शहरी नियोजन एवं कृषि में।
  • पूर्व चेतावनी प्रणालियों को प्रभावी करना: आपदा प्रबंधन नीति में पूर्व चेतावनी प्रणालियों के उन्नयन को शामिल करके उनके अभिकल्पना(design) को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
    • भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO), भारतीय मौसम विभाग और राष्ट्रीय सुदूर संवेदन एजेंसी (National Remote Sensing Agency- NRSA) की उन्नत प्रौद्योगिकी का लाभ उठाकर सटीकता बढ़ाई जा सकती है और इन प्रणालियों को सामुदायिक स्तर पर अधिक सुलभ बनाया जा सकता है, जिससे समय पर और प्रभावी आपदा प्रतिक्रिया सुनिश्चित हो सकेगी।
  • त्वरित प्रतिक्रिया तंत्र विकसित करना: एक राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया ढाँचा स्थापित करना, जो स्पष्ट कमान संरचना और संसाधन आवंटन के साथ आपात स्थितियों के दौरान त्वरित और समन्वित कार्रवाई सुनिश्चित करता है।
    • जापान जैसे देशों की तरह 72 घंटे की महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रिया योजना को लागू करना, ताकि समय पर बचाव कार्य और कुशल समन्वय सुनिश्चित हो सके।
  • NDMA के अधिकार को बढ़ाना: रिक्त पदों को भरकर और एजेंसी को आवश्यक शक्तियाँ प्रदान करके NDMA के अधिकार को बढ़ाना।
    • इससे केंद्रीय और राज्य एजेंसियों के बीच बेहतर समन्वय सुनिश्चित होगा, जिससे आपदा प्रबंधन ढाँचा अधिक समेकित और प्रभावी हो सकेगा।
  • आपदा प्रबंधन का विकेंद्रीकरण: जवाबदेही और प्रभावशीलता को बढ़ाना महत्वपूर्ण है। राज्य तथा स्थानीय अधिकारियों को अधिक स्वायत्तता एवं संसाधनों के साथ सशक्त बनाने से त्वरित व  अधिक संदर्भ-विशिष्ट प्रतिक्रियाएँ सुनिश्चित हो सकती हैं।
  • `आपदा प्रबंधन में अनुसंधान एवं विकास हेतु समर्थन: आपदा जोखिम प्रबंधन में अनुसंधान के लिये संसाधन आवंटित करना, जिसमें कृत्रिम बुद्धिमत्ता, रिमोट सेंसिंग और बिग डेटा एनालिटिक्स जैसी नवीन प्रौद्योगिकियों पर ध्यान केंद्रित करना शामिल है।
  • मनोवैज्ञानिक पुनर्वास: आपदाओं में अपने प्रियजनों और संपत्ति को खोने वाले व्यक्तियों के मानसिक स्वास्थ्य को सहायता प्रदान करने के लिये मनोवैज्ञानिक पुनर्वास कार्यक्रमों को आपदा प्रबंधन नीतियों में एकीकृत करने की आवश्यकता है।
  • गतिशील नीति अनुकूलन: उभरते जोखिमों, तकनीकी प्रगति और पिछली आपदाओं से सीखे गए सबक के आधार पर आपदा प्रबंधन नीतियों को नियमित रूप से अद्यतन कीजिये।
    • प्रतिक्रियात्मक रणनीतियों से सक्रिय रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करना, आपदा तैयारी, शमन और लचीलापन निर्माण पर ज़ोर देना।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. आपदा प्रबंधन (संशोधन) विधेयक, 2024 के प्रमुख प्रावधानों पर चर्चा कीजिये और भारत में आपदा प्रबंधन प्रक्रियाओं पर उनके संभावित प्रभाव का विश्लेषण कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

मेन्स

प्रश्न. आपदा प्रबंधन में पूर्ववर्ती प्रतिक्रियात्मक उपागम से हटते हुए भारत सरकार द्वारा आरंभ किये गए अभिनूतन उपायों की विवेचना कीजिये। (2020)

प्रश्न. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एन.डी.एम.ए.) के सुझावों के संदर्भ में, उत्तराखंड के अनेकों स्थानों पर हाल ही में बादल फटने की घटनाओं के संघात को कम करने के लिये अपनाए जाने वाले उपायों पर चर्चा कीजिये। (2016)


भारतीय अर्थव्यवस्था

भारत में घरेलू बचत का विकास

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय रिज़र्व बैंक, सकल घरेलू उत्पाद, मौद्रिक नीति, सार्वजनिक भविष्य निधि, घरेलू बचत, सुकन्या समृद्धि खाता योजना 

मेन्स के लिये:

भारत में घरेलू बचत, भारत का आर्थिक विकास, बैंकिंग क्षेत्र

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय उद्योग परिसंघ (Confederation of Indian Industry - CII) के वित्तपोषण 3.0 शिखर सम्मेलन में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के डिप्टी गवर्नर ने इस बात पर प्रकाश डाला कि भारतीय परिवार महामारी के बाद वित्तीय बचत का पुनर्निर्माण कर रहे हैं, जिसका अर्थव्यवस्था और वित्तीय प्रणाली पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा।

नोट: CII एक गैर-सरकारी, गैर-लाभकारी, उद्योगों को नेतृत्व प्रदान करने वाला और उद्योग-प्रबंधित संस्था है जो भारत के विकास, उद्योग, सरकार एवं नागरिक समाज के बीच साझेदारी के लिये अनुकूल वातावरण बनाने का कार्य  करता है।

घरेलू बचत की वर्तमान प्रवृत्ति क्या है?

  • घरेलू बचत की वसूली: महामारी युग की बचत समाप्त होने और बचत के बजाय आवास जैसी भौतिक परिसंपत्तियों की ओर रुख होने के कारण परिवारों की निवल वित्तीय बचत वर्ष 2020-21 के स्तर से लगभग आधी हो गई।
    • कोविड महामारी के दौरान आय में गिरावट के बाद अब परिवारों ने बढ़ती आय के कारण अपनी वित्तीय बचत को बहाल करना शुरू कर दिया है। 
    • वित्तीय परिसंपत्तियाँ सकल घरेलू उत्पाद (GDP) (2011-17) के 10.6% से बढ़कर 11.5% (महामारी वर्ष को छोड़कर 2017-23) हो गई हैं।
    • महामारी के बाद के वर्षों में भौतिक बचत GDP के 12% से अधिक हो गई है और इसमें वृद्धि जारी रह सकती है। हालाँकि यह अभी भी वर्ष 2010-11 में दर्ज GDP के 16% से कम है।
  • भविष्य की संभावनाएँ: जैसे-जैसे परिवारों की आय में वृद्धि जारी रहेगी, उम्मीद है कि वित्तीय परिसंपत्तियाँ 2000 के दशक के आरंभिक स्तर पर पुनः स्थापित हो जाएँगी, जो संभवतः सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 15% तक पहुँच जाएँगी।
  • अर्थव्यवस्था पर घरेलू बचत का प्रभाव:
    • ब्याज दरें: घरेलू बचत व्यवहार में परिवर्तन ब्याज दरों सहित मौद्रिक नीति को प्रभावित कर सकते हैं। कम वित्तीय बचत, बचत को प्रोत्साहित करने हेतु उच्च ब्याज दरों की मांग को बढ़ावा दे सकती है और इसके विपरीत स्थिति भी हो सकती है।
    • बढ़ी हुई उधार क्षमता: जैसे-जैसे परिवार वित्तीय रूप से समृद्ध होते जाते हैं, वे अर्थव्यवस्था में प्राथमिक शुद्ध ऋणदाता बनने की संभावना रखते हैं, जो अन्य क्षेत्रों के लिये महत्त्वपूर्ण वित्तपोषण प्रदान करते हैं, विशेषकर जब कॉर्पोरेट उधार की ज़रूरतें बढ़ती हैं।
    • कॉर्पोरेट क्षेत्र उधार: कॉर्पोरेट क्षेत्र ने शुद्ध उधारी में कमी की है। हालांकि पूंजीगत व्यय (कैपेक्स) में प्रत्याशित वृद्धि से उधार की ज़रूरतें बढ़ सकती हैं।
      • कॉर्पोरेट उधार में अनुमानित वृद्धि के साथ परिवारों से वित्तपोषण अंतर को भरने की उम्मीद है, जिससे आर्थिक विकास और निवेश को समर्थन मिलेगा।
    • आर्थिक स्थिरता: उच्च भौतिक बचत निवेश पोर्टफोलियो में विविधता लाकर और संभावित रूप से दीर्घकालिक धन में वृद्धि करके आर्थिक स्थिरता में योगदान देती है, हालांकि यह तरलता को भी सीमित कर सकती है।
    • बाहरी वित्तपोषण के लिए निहितार्थ: जैसे-जैसे घरेलू बचत बढ़ती है, बाहरी वित्तपोषण की आवश्यकता कम हो सकती है, हालांकि बाहरी ऋण स्थिरता प्राथमिकता बनी रहेगी।
      • विदेशी संसाधनों को अवशोषित करने की अर्थव्यवस्था की क्षमता विकसित होने पर बाहरी वित्तपोषण संरचना में परिवर्तन हो सकते हैं।
      • सार्वजनिक क्षेत्र की शुद्ध बचत में कमी आई है, लेकिन यह शुद्ध उधारकर्ता बना हुआ है, जो निरंतर राजकोषीय नीति समर्थन की आवश्यकता को दर्शाता है।

घरेलू बचत क्या है?

  • परिचय: भारत में घरेलू (HH) बचत, शुद्ध वित्तीय बचत (NFS) और भौतिक बचत, दो भागों में विभाजित है। 
    • सकल वित्तीय बचत (GFS) से वित्तीय देनदारियों (जिसे वार्षिक उधार के रूप में जाना जाता है) को घटाने के बाद HH NFS की गणना की जाती है। 
      • GFS में सात प्रमुख क्षेत्र शामिल हैं: मुद्राएँ; जमा (बैंक और गैर-बैंक); बीमा; भविष्य निधि एवं पेंशन निधि (P&PF), जिसमें सार्वजनिक भविष्य निधि (PPF) शामिल है; शेयर व डिबेंचर (S&D); सरकार पर दावे (छोटी बचत); तथा अन्य।
    • HH भौतिक बचत में मुख्य रूप से आवासीय अचल संपत्ति (लगभग दो-तिहाई हिस्सा) और मशीनरी एवं उपकरण (HH क्षेत्र के भीतर उत्पादकों के स्वामित्व में) शामिल हैं।
  • घरेलू बचत और GDP अनुपात: यह सकल घरेलू उत्पाद अनुपात में शुद्ध वित्तीय बचत, सकल घरेलू उत्पाद अनुपात में भौतिक बचत तथा सोना तथा आभूषण का योग है। 
  • घरेलू बचत की प्रवृत्ति : स्टॉक और डिबेंचर जैसी जोखिमपूर्ण वित्तीय परिसंपत्तियों में निवेश करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।
    •  बचत का बढ़ता अनुपात वित्तीय साधनों के बजाय भौतिक परिसंपत्तियों (अचल संपत्ति) में आवंटित किया जा रहा है।
  • महामारी और घरेलू बचत पर प्रभाव: कोविड-19 महामारी के दौरान, सीमित खर्च के अवसरों के कारण परिवारों ने अधिक बचत की। इसके परिणामस्वरूप उच्च वित्तीय बचत दर (2020-21 में 23.3 लाख करोड़ रुपए) हुई।
    • हालाँकि जैसे-जैसे प्रतिबंध हटाए गए, खर्च बढ़ता गया, जिससे बचत कम होती गई। महामारी के बाद कई परिवारों ने अपनी बचत को वित्तीय परिसंपत्तियों से हटाकर रियल एस्टेट और सोने जैसी भौतिक परिसंपत्तियों में स्थानांतरित कर दिया है। इस बदलाव ने शुद्ध वित्तीय बचत को कम कर दिया है।
    • परिवारों की शुद्ध वित्तीय बचत वर्ष 2022-23 में घटकर 14.2 लाख करोड़ रुपए रह गई, जो वर्ष 2021-22 में 17.1 लाख करोड़ रुपए थी। यह वर्ष 2020-21 के 23.3 लाख करोड़ रुपए से काफी कम है।
    • रियल एस्टेट और सोने में बचत बढ़ी है, भौतिक संपत्ति बचत वर्ष 2022-23 में 34.8 लाख करोड़ रुपए और सोने की बचत 63,397 करोड़ रुपए तक पहुँच गई है।
    • कई परिवार घर खरीदने के लिये अपनी वित्तीय क्षमता से अधिक धन खर्च कर देते हैं, जिसके कारण अक्सर उन्हें उच्च समान मासिक किस्त (EMI) का भुगतान करना पड़ता है तथा तरलता कम हो जाती है।
    • स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा पर बढ़ते खर्च ने घरेलू बचत को और भी कम कर दिया है।
    • युवा पीढ़ी बचत की तुलना में जीवनशैली और अनुभवों को प्राथमिकता देती है, आसान ऑनलाइन शॉपिंग और उधार विकल्पों से प्रोत्साहित होकर घरेलू बचत में और गिरावट आई है तथा घरेलू ऋण में वृद्धि हुई है।
  • घरेलू ऋण: इसे परिवारों (परिवारों की सेवा करने वाली गैर-लाभकारी संस्थाओं सहित) की सभी देनदारियों के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिनके लिये परिवारों को भविष्य में एक निश्चित तिथि पर ऋणदाताओं को ब्याज या मूलधन का भुगतान करना होता है।

घरेलू बचत से जुड़ी प्रमुख पहल

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भारत में घरेलू बचत में बदलती प्रवृत्ति और भारतीय अर्थव्यवस्था के लिये उसके निहितार्थों पर चर्चा कीजिये।

और पढ़ें: बढ़ते कर्ज़ से घरेलू बचत पर संकट

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स

प्रश्न. एन.एस.एस.ओ. के 70वें चक्र द्वारा संचालित ‘‘कृषक-कुटुम्बों की स्थिति आकलन सर्वेक्षण’’ के अनुसार निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2018) 

  1. राजस्थान में ग्रामीण कुटुम्बाें में कृषि कुटुम्बों का प्रतिशत सर्वाधिक है।
  2. देश के कुल कृषि कुटुम्बों में 60% से कुछ अधिक ओ.बी.सी. के हैं।
  3. केरल में 60% से कुछ अधिक कृषि कुटुम्बों ने यह सूचना दी कि उन्होंने अधिकतम आय गै़र कृषि स्रोतों से प्राप्त की है।

 उपर्युक्त कथनाें में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 2 औ 3   
(b) केवल 2
(c) केवल 1 और 3   
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: c


भारतीय अर्थव्यवस्था

केंद्रीय व्यवसाय संघों द्वारा श्रम कल्याण की माँग

प्रिलिम्स के लिये:

केंद्रीय व्यवसाय संघ (CTU), भारतीय श्रम सम्मेलन, श्रम संहिताएँ, राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (NMP), निजीकरण, विनिवेश, रैप्टाकोस मामला- 1991, निश्चित अवधि का रोज़गार, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, गिग वर्कर

मेन्स के लिये:

श्रम सुधार और श्रम कल्याण से संबधित मुद्दे

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्र सरकार ने केंद्रीय व्यवसाय संघ (CTU) के साथ एक गोलमेज़ बैठक आयोजित की तथा चार श्रम संहिताओं के कार्यान्वयन पर आगे की चर्चा करने पर सहमति व्यक्त की।

केंद्रीय व्यवसाय संघों (CTUs) की मुख्य मांगें क्या हैं?

  • भारतीय श्रम सम्मेलन (ILC) की पुन:स्थापना: CTU ने भारतीय श्रम सम्मेलन (ILC) की तत्काल बैठक बुलाने की मांग की है, जो एक त्रिपक्षीय निकाय है जिसकी वर्ष 2015 से कोई बैठक नहीं हुई है।
    • उनका तर्क है कि श्रम कानूनों में महत्त्वपूर्ण बदलाव, जिसमें 29 केंद्रीय कानूनों का संहिताकरण और चार श्रम संहिताओं का पारित होना शामिल है, ILC के साथ उचित परामर्श के बिना हुआ।
  • चार श्रम संहिताओं की समीक्षा और संशोधन: CTU का तर्क है कि नई श्रम संहिताएँ बड़े निगमों का पक्ष लेकर श्रमिकों के अधिकारों को कमज़ोर करती हैं। जैसे नई संहिताएँ कंपनियों के लिये (विशेष रूप से 300 से कम कर्मचारियों वाली कंपनियों के लिये) सरकार की अनुमति के बिना श्रमिकों को काम पर रखना और बर्खास्त करना आसान बनाती हैं।
    • उन्होंने नौकरी की सुरक्षा, सामूहिक सौदाकारी, काम के घंटे, सामाजिक सुरक्षा प्रावधानों और अनुपालन आवश्यकताओं के बारे में अपनी चिंताओं को दूर करने के लिये इन संहिताओं पर आगे की चर्चा की मांग की है
  • सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निजीकरण और विनिवेश पर रोक: उन्होंने राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (NMP) का विरोध किया है, जिसे राष्ट्रीय परिसंपत्तियों को निजी निगमों को अंतरित करने के कदम के रूप में देखा जाता है।
  • उचित न्यूनतम मजदूरी का कार्यान्वयन: CTU द्वारा 15वीं ILC (वर्ष 1957) की संस्तुति तथा राप्टाकोस मामले, 1991 में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के आधार पर न्यूनतम वेतन कम से कम 26,000 रुपए प्रति माह निर्धारित करने की मांग की गई है। 
    • वे मुद्रास्फीति के अनुरूप प्रत्येक पाँच वर्ष में नियमित वेतन संशोधन की मांग करते हैं।
  • रोज़गार सृजन और नौकरी की सुरक्षा: बढ़ती बेरोज़गारी को नियंत्रित करने के लिये CTU निश्चित अवधि की रोज़गार नीतियों को वापस लेने की मांग करते हैं, जो विशेष रूप से प्रवासी श्रमिकों में नौकरी की असुरक्षा उत्पन्न करती हैं। 
  • पूर्ववर्ती पेंशन योजना (OPS) की पुनर्स्थापना: CTU गैर-अंशदायी पूर्ववर्ती पेंशन योजना की पुनर्स्थापना की मांग करते हैं, जिसके बारे में उनका मानना ​​है कि यह सेवानिवृत्त श्रमिकों को बेहतर सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।
    • वे कर्मचारी पेंशन योजना (EPS) वर्ष 1995 के अंतर्गत आने वाले लोगों के लिये न्यूनतम पेंशन 9,000 रुपए प्रति माह और किसी भी योजना के अंतर्गत न आने वाले लोगों के लिये न्यूनतम पेंशन 6,000 रुपए प्रति माह की मांग करते हैं।

भारत में व्यवसाय संघ के पंजीकरण हेतु प्रावधान

  • पंजीकरण प्रावधान: एक पंजीकृत व्यवसाय संघ में संबंधित प्रतिष्ठान या उद्योग में कम-से-कम 10% या 100 कर्मचारी (जो भी कम हो) होने चाहिये तथा न्यूनतम 7 सदस्य होने चाहिये।   
  • ट्रेड यूनियन बनाने से छूट: परिचालन दक्षता बनाए रखने के लिये कुछ संगठनों को ट्रेड यूनियनों में शामिल होने से छूट दी गई है।
    • कुछ संगठन जो ट्रेड यूनियन/व्यवसाय संघ नहीं बना सकते हैं वे हैं:
      • सशस्त्र बल: भारतीय सशस्त्र बलों (सेना, नौसेना और वायु सेना) के कर्मचारी ट्रेड यूनियन बनाने के पात्र नहीं हैं।
        • यह सशस्त्र बल अधिनियम, 1950 द्वारा शासित है, जो सशस्त्र बलों के भीतर ट्रेड यूनियनों के गठन को प्रतिबंधित करता है।
      • पुलिस और कानून प्रवर्तन एजेंसियाँ: पुलिस बल (अधिकारों पर प्रतिबंध) अधिनियम, 1966 इंस्पेक्टर के पद से नीचे के अराजपत्रित पुलिस कर्मचारियों को किसी भी प्रकार का संघ या समूह बनाने से रोकता है।

भारतीय श्रम सम्मेलन (ILC) क्या है?

  • ILC श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय में शीर्ष स्तरीय त्रिपक्षीय परामर्शदात्री समिति है, जिसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
    • केंद्रीय व्यवसाय संघ संगठन: श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करते हैं। 
    • नियोक्ताओं के केंद्रीय संगठन: नियोक्ताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। 
    • सरकारी प्रतिनिधि: श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय, राज्य सरकारें, केंद्रशासित प्रदेश और संबंधित केंद्रीय मंत्रालय/विभाग शामिल हैं।
  • यह देश के श्रमिक वर्ग से संबंधित मुद्दों पर सरकार को सलाह देता है। 
  • भारतीय श्रम सम्मेलन (जिसे तब त्रिपक्षीय राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन कहा जाता था) की पहली बैठक वर्ष 1942 में हुई थी।

चार श्रम संहिताएँ क्या हैं?

  • चार श्रम संहिताएँ: सरकार ने 29 श्रम कानूनों को मिलाकर उन्हें 4 श्रम संहिताओं में संहिताबद्ध किया है:
    • वेतन संहिता, 2019: इसने प्रत्येक श्रमिक के लिये "जीविका के अधिकार" को सुनिश्चित करने हेतु सभी कर्मचारियों के लिये न्यूनतम वेतन और समय पर भुगतान के प्रावधानों को सार्वभौमिक बना दिया।
      • इसमें यह अनिवार्य किया गया है कि मासिक वेतन पाने वाले कर्मचारियों को अगले महीने की 7 तारीख तक, साप्ताहिक वेतन पाने वाले कर्मचारियों को सप्ताह के अंत तक तथा दैनिक मज़दूरी पाने वालों को उसी दिन भुगतान किया जाए।
    • औद्योगिक संबंध संहिता, 2020: यह श्रमिकों के ट्रेड यूनियन बनाने के अधिकारों की रक्षा करने, नियोक्ताओं और श्रमिकों के बीच टकराव को कम करने और औद्योगिक विवादों के निपटारे के लिये नियम प्रदान करने हेतु एक ढाँचा प्रदान करता है।
      • संहिता का उद्देश्य औद्योगिक विवादों को प्रभावी ढंग से हल करके औद्योगिक शांति और सद्भाव प्राप्त करना है।
    • सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020: इसमें जीवन एवं दिव्यांगता बीमा, स्वास्थ्य एवं मातृत्व लाभ तथा भविष्य निधि जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के अंतर्गत स्व-नियोजित, गृह-आधारित, मज़दूरी, प्रवासी, असंगठित क्षेत्र और गिग श्रमिक शामिल हैं।
    • व्यवसायगत सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य स्थितियाँ संहिता, 2020: यह उद्योग, विनिर्माण, कारखाने आदि जैसे विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत श्रमिकों के स्वास्थ्य, सुरक्षा और कल्याण पर ज़ोर देता है।
      • यह संहिता निम्नलिखित क्षेत्रों में लागू है:
        • 20 या अधिक श्रमिकों वाले कारखाने जहाँ विनिर्माण प्रक्रिया विद्युत की सहायता से होती है।
        • 40 या अधिक श्रमिकों वाले कारखाने जहाँ विनिर्माण प्रक्रिया विद्युत की सहायता के बिना होती है।

CTUs की मांगों को पूरा करने के लिए क्या कदम उठाने की आवश्यकता है?

  • समावेशी परामर्श और संवाद: सरकार को चार श्रम संहिता कार्यान्वयनों के संबंध में सरकार, नियोक्ताओं और श्रमिक संघों के बीच त्रिपक्षीय संवाद बनाए रखते हुए वर्तमान और भविष्य के श्रम सुधारों पर चर्चा करने हेतु  ILC का समय निर्धारित और संचालन करना चाहिये।
  • रोज़गार और सामाजिक सुरक्षा: रोज़गार की असुरक्षा में योगदान देने वाली निश्चित अवधि की रोज़गार नीतियों पर पुनर्विचार करें और रोज़गार की स्थिरता पर अग्निपथ योजना के प्रभाव का आकलन करें। 
  • प्रवासी श्रमिकों के लिये राष्ट्रीय नीति: यूनियनों की मांग है कि अंतरराज्यीय प्रवासी कामगार अधिनियम, 1979 के सुदृढ़ीकरण और प्रभावी कार्यान्वयन के साथ-साथ प्रवासी श्रमिकों के लिये एक व्यापक राष्ट्रीय नीति तैयार करने पर विचार किया जाना चाहिये। 
  • ILO अभिसमय का अनुसमर्थन: यूनियन घर-आधारित श्रमिकों पर ILO अभिसमय C177 के अनुसमर्थन की मांग करती हैं ताकि उचित वेतन, सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य कवरेज के उनके अधिकार सुनिश्चित हो सकें।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: चार श्रम संहिताओं और उनकी विशेषताओं पर चर्चा कीजिये। श्रम सुधारों के संबंध में श्रमिक ट्रेड यूनियनों की विभिन्न चिंताएँ क्या हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न  

प्रिलिम्स

प्रश्न: निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:(2017)

  1. कारखाना अधिनियम, 1881 को औद्योगिक मज़दूरों की मज़दूरी तय करने और मज़दूरों को ट्रेड यूनियन बनाने की अनुमति देने के उद्देश्य से पारित किया गया था।
  2.  एन.एम. लोखंडे ब्रिटिश भारत में श्रमिक आंदोलन के आयोजन में अग्रणी थे।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (b)


प्रश्न .वर्ष 1929 के व्यापार विवाद अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान किये गए थे(2017)

(a) उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी।
(b) औद्योगिक विवादों को कम करने के लिये प्रबंधन को मनमानी शक्तियाँ।
(c) व्यापार विवाद की स्थिति में ब्रिटिश न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप।
(d) न्यायाधिकरणों की एक प्रणाली और हड़तालों पर प्रतिबंध

उत्तर: (d)


प्रश्न: प्राचीन भारत के गिल्ड (श्रेणी) के संदर्भ में, जिन्होंने देश की अर्थव्यवस्था में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही है/हैं? (2012)

  1. प्रत्येक गिल्ड राज्य के केंद्रीय प्राधिकरण के साथ पंजीकृत था और राजा उन पर मुख्य प्रशासनिक अधिकारी था।
  2. मज़दूरी, कार्य के नियम, मानक और कीमतें गिल्ड द्वारा तय की जाती थीं।
  3. गिल्ड के पास अपने सदस्यों पर न्यायिक शक्तियाँ थीं।

निम्नलिखित कूट का उपयोग करके सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (c)


मेन्स

प्रश्न.1920 के दशक से राष्ट्रीय आंदोलन ने विभिन्न वैचारिक धाराएँ प्राप्त कीं और इस प्रकार अपने सामाजिक आधार का विस्तार किया। चर्चा कीजिये। (2020)

प्रश्न.अंग्रेजों द्वारा भारत से अन्य उपनिवेशों में गिरमिटिया मज़दूरों को क्यों ले जाया गया? क्या वे वहाँ अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने में सक्षम रहे हैं? (2018)

प्रश्न.पिछले चार दशकों में भारत के भीतर और बाहर श्रम प्रवास की प्रवृत्तियों में आए बदलावों पर चर्चा कीजिये। (2015)


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