उत्तराधिकार कर
प्रिलिम्स के लिये:आर्थिक और सामाजिक विकास, सतत् विकास, गरीबी, समावेशन, जनसांख्यिकी, सामाजिक क्षेत्र की पहल, आदि। मेन्स के लिये:भारतीय अर्थव्यवस्था और नियोजन, संसाधन जुटाने, वृद्धि, विकास तथा रोज़गार से संबंधित मुद्दे। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के विपक्षी दल के एक प्रमुख राजनीतिक नेता ने उत्तराधिकार कर पर प्रस्तावित कानून में रुचि व्यक्त की है।
- भारत में आय असमानता को दूर करने के लिये धन के पुनर्वितरण के लिये उत्तराधिकार कर को एक उपकरण के रूप में उपयोग करने के बारे में बहुत चर्चा हुई है।
उत्तराधिकार कर क्या है?
- परिचय:
- उत्तराधिकार कर एक ऐसा कर है जो किसी मृत व्यक्ति से संपत्ति या परिसंपत्ति विरासत में प्राप्त करने के लिये चुकाया जाता है।
- यह लाभार्थी द्वारा प्राप्त विरासत के मूल्य पर लगाया जाता है, और इसका भुगतान लाभार्थी द्वारा किया जाता है।
- देश के आधार पर, यह 55% तक हो सकता है।
- कोई व्यक्ति वसीयत के तहत या मृतक के व्यक्तिगत कानून के तहत उत्तराधिकार प्राप्त कर सकता है।
- भारत में उत्तराधिकार पर कर लगाने की अवधारणा अब मौजूद नहीं है।
- उत्तराधिकार कर की गणना:
- पहला कदम संपत्ति का कुल मूल्य निर्धारित करना है।
- इसमें मृतक के स्वामित्व वाली सभी संपत्तियों के मूल्य का आकलन करना शामिल है, जिसमें किसी भी बकाया ऋण या देनदारियों पर भी विचार करते हुए, रियल एस्टेट, निवेश, बैंक खाते, वाहन और व्यक्तिगत सामान शामिल होते हैं।
- उत्तराधिकार कर लागू होगा या नहीं यह कई कारकों पर निर्भर करता है, जिसमें संपत्ति का कुल मूल्य और क्षेत्राधिकार कानून भी शामिल हैं।
- कुछ स्थानों पर, कुछ लाभार्थियों, जैसे पति/पत्नी या बच्चों को उत्तराधिकार कर का भुगतान करने से छूट मिल सकती है या कम दर प्राप्त हो सकती है।
- पहला कदम संपत्ति का कुल मूल्य निर्धारित करना है।
- इसे समाप्त करने का कारण:
- प्रक्रियात्मक उत्पीड़न: संपत्ति पर दो अलग-अलग करों यानी संपत्ति कर (मृत्यु से पहले) और एस्टेट ड्यूटी (मृत्यु के बाद), के अस्तित्व से करदाताओं को अनुचित रूप से परेशान किया जा रहा था ।
- अपूर्ण उद्देश्य: धन के असमान वितरण में कोई कमी नहीं आई, जबकि कर से राज्यों को उनकी विकास योजनाओं के वित्तपोषण में भी महत्त्वपूर्ण सहायता नहीं मिली।
- आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं: जबकि वर्ष 1985 में एस्टेट ड्यूटी से उपज केवल 20 करोड़ रुपए थी, जबकि इसके प्रशासन और संग्रह की लागत अपेक्षाकृत अधिक थी।
- कर चोरी: कराधान की उच्च दरों के परिणामस्वरूप अक्सर पूंजी और निवेश अनुकूल कर दरों वाले टैक्स हेवेन या कर क्षेत्राधिकार की ओर पलायन कर जाते हैं।
दुनिया भर में उत्तराधिकार कर के उदाहरण:
- अधिकांश यूरोपीय, अमेरिकी और यहाँ तक कि अफ्रीकी देश उत्तराधिकार कर लगाते हैं।
- यूरोप में उत्तराधिकार में मिली संपत्तियों पर कर लगाने वाले शीर्ष देश फ्राँस (60%), जर्मनी (50%), यूनाइटेड किंगडम (40%), स्पेन (33%) और हंगरी (18%) हैं।
- उच्च उत्तराधिकार करों वाले अन्य देश जापान (55%), दक्षिण कोरिया (50%), इक्वाडोर (37%), चिली (25%), दक्षिण अफ्रीका (25%) और ताइवान (20%) हैं।
भारत में उत्तराधिकार कर लागू करने की मांग को कौन-से कारक प्रभावित करते हैं?
- भारत में धन और आय असमानता में वृद्धि:
- विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के अनुसार, भारत विश्व स्तर पर सबसे असमान देशों में से एक है, शीर्ष 10% और शीर्ष 1% देशों के पास क्रमशः 57% तथा 22% राष्ट्रीय आय है।
- इसके अतिरिक्त निचले 50% राष्ट्रों की हिस्सेदारी घटकर मात्र 13% रह गई है।
- भारत अत्यधिक संपत्ति असमानता प्रदर्शित करता है, जिसमें शीर्ष 10% जनसंख्या के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 77% हिस्सा है।
- भारत में 1% धनी व्यक्तियों के पास देश की 53% संपत्ति है, जबकि जनसंख्या के अधिकांश गरीब तबके के पास केवल 4.1% संपत्ति है।
- विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के अनुसार, भारत विश्व स्तर पर सबसे असमान देशों में से एक है, शीर्ष 10% और शीर्ष 1% देशों के पास क्रमशः 57% तथा 22% राष्ट्रीय आय है।
- गरीबों पर कर चुकाने का दवाब:
- देश में कुल वस्तु एवं सेवा कर (GST) का लगभग 64% नीचे की 50% जनसंख्या द्वारा प्राप्त हुआ, जबकि 10% शीर्ष द्वारा केवल 4% प्राप्त हुआ।
- समावेशी विकास का अभाव:
- आर्थिक लाभ का विषम वितरण: आर्थिक विकास से कुछ क्षेत्रों या आय समूहों को असमान रूप से लाभ हो सकता है, जिससे धन का असमान वितरण हो सकता है।
- सामाजिक सुरक्षा जाल की कमी: अपर्याप्त सामाजिक सुरक्षा जाल होने तथा कल्याण कार्यक्रम का कमज़ोर जनसंख्या को पर्याप्त समर्थन न दिये जाने के कारण जनसंख्या में धन का अंतर बढ़ सकता है।
- नीति आयोग के राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक (MPI) के अनुसार, वर्ष 2019-21 में बहुआयामी गरीबी में रहने वाली भारत की जनसंख्या 14.96% थी।
- भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में 19.28% बहुआयामी गरीबी दर्ज़ की गई।
- शहरी क्षेत्रों में गरीबी दर 5.27% थी।
- भारत में गिनी संपत्ति गुणांक वर्ष 2017 में बढ़कर 85.4% हो गया है जो वर्ष 2013 में 81.3% था (100% अधिकतम असमानता का प्रतिनिधित्व करता है)। भारत में विकास समावेशी नहीं रहा है।
- सामाजिक क्षेत्र के संस्थानों के लिये वृतिक: उत्तराधिकार कर से प्राप्त होने वाला वृतिक (Endowments) और धनराशि भारतीय अस्पतालों, विश्वविद्यालयों एवं अन्य संस्थानों के लिये आवश्यक है। उदाहरण के लिये, संपदा से धन प्राप्त करने वाले हार्वर्ड विश्वविद्यालय को उत्तराधिकार कर से छूट प्राप्त है।
- अधिक प्रत्यक्ष करों की और आवश्यकता: हाल के वर्षों में सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ा है। इसलिये FRBM अधिनियम के अनुसार, राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने के लिये उत्तराधिकार कर जैसे प्रत्यक्ष करों के अतिरिक्त स्रोतों की खोज की जानी चाहिये।
- अंतर्राष्ट्रीय प्रथाएँ: इंग्लैंड, फ्राँस, जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित देश तथा भारत के दक्षिण पूर्व एशियाई समकक्ष जैसे फिलीपींस, ताइवान और थाईलैंड उत्तराधिकार कर वसूल रहे हैं।
विश्व बैंक अध्ययन 2000 द्वारा (1970-1990 के दौरान भारत की निर्धनता में कमी):
- जब शुरुआती वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर मात्र 3.5% से बढ़ी, तो भारत की निर्धनता में निरंतर कमी हुई।
- अध्ययन में पाया गया कि औसत उपभोग में वृद्धि गरीबी में कुल कमी का आश्चर्यजनक रूप से 87% है, जबकि पुनर्वितरण इस गिरावट का केवल 13% है।
भारत में उत्तराधिकार कर के कार्यान्वयन में लाभ और चुनौतियाँ क्या हैं?
लाभ:
- धन का अधिक कुशलता से वितरण: भारत में अमीर और सबसे अमीर परिवारों को बड़ी मात्रा में धन विरासत में मिला।
- यह न केवल आर्थिक दृष्टिकोण से असंगत है, बल्कि सामाजिक गतिशीलता को भी प्रतिबंधित करता है।
- इस प्रकार, उत्तराधिकार करों का उचित कार्यान्वयन इस समस्या को काफी हद तक दूर कर सकता है।
- समतावादी आदर्शों पर आधारित: भारत के संविधान में समानता के अधिकार के सिद्धांत में निहित समानता सुनिश्चित करने के लिये प्रारंभिक वृतिक का पुनर्वितरण उस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
- प्रगतिशील प्रकृति: उत्तराधिकार कर (Inheritance tax) एक प्रगतिशील कर है क्योंकि यह केवल धनी व्यक्तियों पर अधिक कर का भार डालता है।
- उत्तराधिकार कर के रूप में एकत्रित इस अतिरिक्त कर राजस्व से शासन को देश के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों पर मूल आयकर दायित्व को कम करने की स्वतंत्रता मिलेगी।
- इससे अधिक उद्यम उपक्रम प्रारंभ करने में आने वाली बड़ी बाधाओं से निपटने में सहायता मिल सकती है।
चुनौतियाँ:
- कर संरचना की जटिलता: भारत में पूर्व से ही केंद्र और राज्य स्तरों पर विभिन्न करों के साथ एक जटिल कर प्रणाली मौज़ूद है।
- उत्तराधिकार कर जैसे अतिरिक्त कर को लागू करने से यह जटिलता और बढ़ जाएगी, जिससे अनुपालन एवं प्रवर्तन चुनौतीपूर्ण हो जाएगा।
- उत्तराधिकार कर को लागू और प्रशासित करने के लिये एक दृढ़ प्रशासनिक बुनियादी ढाँचे की आवश्यकता है।
- धनी परिवारों का प्रतिरोध: भारत में धनी परिवार उत्तराधिकार कर लगाने का विरोध कर सकते हैं, क्योंकि इससे उनके उत्तराधिकारियों को दी जाने वाली संपत्ति की मात्रा कम हो जाएगी।
- यह प्रतिरोध राजनीतिक और सामाजिक रूप से प्रकट हो सकता है, जिससे शासन के लिये भारत में इस प्रकार के कर को लागू करना तथा जारी रखना कठिन हो जाएगा।
- उत्तराधिकार कर का परिवारिक स्वामित्व वाले व्यवसायों पर प्रभाव पड़ सकता है, विशेषतः उन क्षेत्रों में जहाँ उत्तराधिकार महत्त्वपूर्ण है।
- व्यापक डेटा का अभाव: एक प्रभावी उत्तराधिकार कर को लागू करने के लिये व्यक्तियों की संपत्ति एवं परिसंपत्तियों से संबंधित सटीक डेटा की आवश्यकता है।
- भारत में उत्तराधिकार और धन वितरण पर व्यापक डेटा एकत्र करने में चुनौतियाँ हो सकती हैं, विशेषतः ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ अनौपचारिक अर्थव्यवस्थाएँ प्रचलित हैं।
- परिहार एवं अपवंचन: अत्यधिक धनी व्यक्ति अपने जीवनकाल के दौरान ट्रस्ट, विदेशी खाते एवं संपत्ति उपहार में देने जैसे विभिन्न माध्यमों से उत्तरधिकार कर से बचने या अपवंचन का प्रयास कर सकते हैं।
- कृषि भूमि पर प्रभाव: भारत में कृषि योग्य भूमि महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक एवं आर्थिक मूल्य रखती है और इसे उत्तराधिकार के रूप में देना पीढ़ियों से चला आ रहा है।
- कृषि भूमि पर उत्तराधिकार कर लगाने से कृषि समुदायों के विरोध का सामना करना पड़ सकता है और भूमि जोत के विखंडन के विषय में चिंताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
भारत में अन्य कौन-से कर हैं?
- मृत्यु कर: 1953 में भारत की संसद ने संपदा शुल्क 'मृत्यु कर' अधिनियम पारित किया था, जिसे बाद में 1985 में समाप्त कर दिया गया था।
- अधिनियम के अनुसार, यह कर कृषि भूमि सहित चल और अचल संपत्ति के मूल मूल्य पर लगाया गया था, वह संपत्ति जो इस के स्वामी की मृत्यु के उपरांत किसी व्यक्ति को उत्तराधिकार में दी गई थी।
- यह अधिनियम केवल तभी लागू होता था जब संपत्ति के मालिक की मृत्यु वयस्क अवस्था में हो जाती थी (अर्थात 18 वर्ष की आयु पूरी कर ली हो)।
- इसके अतिरिक्त, संपत्ति शुल्क केवल उत्तराधिकार में प्राप्त उन संपत्तियों पर लागू होता था, जिनका मूल्य अधिनियम द्वारा निर्धारित बहिष्करण सीमा से अधिक था, तथा कर की दर की गणना संपत्ति के स्वामी की मृत्यु के समय के बाज़ार मूल्य के अनुसार की जाती थी।
- इसमें भारत और विदेश में मृतक के स्वामित्व वाली चल व अचल संपत्तियाँ सम्मिलित थीं, जो उत्तराधिकारी को प्रदान दी जाती थीं- यदि संपत्ति के स्वामी की मृत्यु भारत में निवास करते समय हुई थी।
- उपहार कर (Gift Tax):
- उपहार कर अधिनियम 1958 में संसद द्वारा पारित किया गया था। इसने उस वित्तीय वर्ष में एक व्यक्ति द्वारा दूसरे को दिये गए किसी भी 'उपहार' पर शुल्क लगाया।
- इस पर 30% की दर से शुल्क लगाया गया था।
- उपहार को 01 अप्रैल, 1957 के बाद धन के संदर्भ में इसके मूल्य पर विचार किये बिना, एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को स्वेच्छा से हस्तांतरित किसी भी मौजूदा चल या अचल संपत्ति के रूप में परिभाषित किया गया था।
- उद्देश्य यह था कि जब एक उच्च आयकर दाता ने निम्न आयकर के दायरे में आने वाले दानकर्त्ता को संपत्ति हस्तांतरित की तो सरकार ने कम हुए कर राजस्व में से कुछ की वसूली करना चाहा।
- संपत्ति शुल्क लागू करते समय आने वाली समान बाधाओं के कारण, इस कर को 1998 में समाप्त कर दिया गया था।
- इसे 2004 में आयकर अधिनियम में परिवर्धन के भाग के रूप में वित्त अधिनियम में पुनः प्रस्तुत किया गया था।
- 50,000 रुपए से अधिक का कोई भी नकद उपहार और 50,000 रुपए से अधिक मूल्य का कोई भी उपहार (यानी अचल संपत्ति) कर योग्य है।
- अपवादों में शादियों के दौरान प्राप्त दान, विरासत और उपहार राशि शामिल हैं।
- संपत्ति कर (Wealth Tax):
- इसे 1957 में किसी व्यक्ति की निवल संपत्ति पर शुल्क लगाने के लिये पेश किया गया था।
- उस वित्तीय वर्ष में एक नागरिक द्वारा अर्जित 30 लाख रुपए से अधिक की कमाई पर 1% शुल्क लगाया गया था।
- यह कर भारतीय नागरिकों की सभी संपत्तियों और केवल प्रवासी भारतीयों (Non-Residential Indians (NRI) की भारतीय संपत्तियों पर लगाया गया था।
- इस शासन के दायरे में आने वाली संपत्ति में सोना, चाँदी और प्लैटिनम के गहने, निज़ी विमान, जहाज़ व कार जैसे परिवहन वाहन, किसी के आवासीय घर के अतिरिक्त संपत्ति तथा 50,000 रुपए से ऊपर की कोई भी नकदी शामिल थी।
- कानून के तहत छूट में किराये की संपत्ति, व्यावसायिक संपत्ति, निर्धारित सीमा से कम छोटी संपत्ति और योजनाओं में निवेश शामिल हैं।
- कार्यान्वयन में भारी लागत के कारण 2015 में इस कर को भी समाप्त कर दिया गया था।
आगे की राह
- उच्च सीमा निर्धारित करना: यदि सरकार उत्तराधिकार कर लागू करने का उद्देश्य रखती है, तो उसे इसे एक उच्च सीमा के साथ लागू करना चाहिये, ताकि केवल अत्यधिक-अमीर लोगों पर ही कर लगाया जा सके।
- दान हेतु छूट का प्रावधान: अत्यधिक अमीरों द्वारा अस्पतालों और विश्वविद्यालयों को दी जाने वाली बंदोबस्ती को उत्तराधिकार कर गणना से छूट दी जानी चाहिये।
- सरकार की कर प्रशासनिक क्षमता में सुधार: कर एजेंसियों को उत्तराधिकार कर के प्रशासन और निगरानी अनुपालन की लागत को कम करने के लिये उन्नत प्रौद्योगिकियों का लाभ उठाना चाहिये।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: उत्तराधिकार कर (Inheritance tax) क्या है और इसे भारत में क्यों समाप्त कर दिया गया? भारत में आर्थिक असमानता को कम करने पर इसकी वांछनीयता और प्रभाव पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न 'आधार क्षरण और लाभ स्थानांतरण' शब्द को कभी-कभी समाचारों में किसके संदर्भ में देखा जाता है? (2016) (a) बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा संसाधन संपन्न लेकिन पिछड़े क्षेत्रों में खनन संचालन उत्तर (B) प्रश्न. वर्ष-प्रतिवर्ष निरंतर घाटे का बजट रहा है। घाटे को कम करने के लिये सरकार द्वारा निम्नलिखित में से कौन-सी कार्यवाई/कार्यवाईयांँ की जा सकती है/हैं? (2015)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 3 उत्तर: (a) मेन्स:प्रश्न. उन अप्रत्यक्ष करों को गिनाइये जो भारत में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) में सम्मिलित किये गए हैं। भारत में जुलाई 2017 से क्रियान्वित जीएसटी के राजस्व निहितार्थों पर भी टिप्पणी कीजिये। ( 2019) |
पुनर्योजी नीली अर्थव्यवस्था
प्रिलिम्स के लिये:अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ, पुनर्योजी नीली अर्थव्यवस्था, नीली अर्थव्यवस्था, चक्रीय अर्थव्यवस्था, ब्लू कार्बन महान नीली दीवार पहल, मैरीटाइम इंडिया विज़न 2030 मेन्स के लिये:नीली अर्थव्यवस्था का महत्त्व, पुनर्योजी नीली अर्थव्यवस्था से संबंधित चुनौतियाँ, नीली अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिये सरकार द्वारा उठाए गए कदम। |
स्रोत: आई.यू.सी.एन.
चर्चा में क्यों?
अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (International Union for Conservation of Nature - IUCN) ने पुनर्योजी नीली अर्थव्यवस्था (Regenerative Blue Economy- RBE) के लिये रोडमैप की रूपरेखा बताते हुए एक रिपोर्ट जारी की है।
- यह दृष्टिकोण केवल स्थिरता से आगे जाता है, जिसका लक्ष्य हमारे महासागरों को सक्रिय रूप से बहाल करना और पुनर्जीवित करना है।
रिपोर्ट की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
- पदानुक्रम का प्रस्ताव: रिपोर्ट नीली अर्थव्यवस्था की अवधारणा के भीतर विभिन्न व्याख्याओं और स्थिरता के स्तरों को वर्गीकृत करने के लिये एक पदानुक्रमित संरचना का प्रस्ताव करती है, वे हैं:
- सागरीय/भूरी (Brown) अर्थव्यवस्था: इसका तात्पर्य समुद्र से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित सभी आर्थिक गतिविधियों से है।
- पारंपरिक "समुद्री अर्थव्यवस्था" या "समुद्री क्षेत्रों" का पर्याय।
- इसमें जहाज़रानी (शिपिंग), बंदरगाह, मत्स्य पालन, अपतटीय तेल/गैस आदि जैसे क्षेत्र शामिल हैं।
- आर्थिक योगदान पर केंद्रित व्यवसाय-सामान्य दृष्टिकोण का पालन करता है।
- सतत नीली अर्थव्यवस्था: इसमें पर्यावरणीय स्थिरता और पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण के सिद्धांतों को शामिल करता है। इसका दायरा केवल आर्थिक गतिविधियों से आगे बढ़ाकर इसमें शामिल किया गया है:
- समुद्री/तटीय पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण और बहाली।
- कार्बन पृथक्करण जैसी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं का मूल्यांकन।
- इसमें प्रमुख समुद्री उद्योग शामिल हैं, लेकिन स्थिरता योग्यता के साथ।
- महासागरों, समुद्रों और समुद्री संसाधनों के संरक्षण एवं सतत उपयोग के बारे में संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals), विशेष रूप से महासागरों पर SDG 14 के साथ संरेखित।
- पुनर्योजी नीली अर्थव्यवस्था: RBE का लक्ष्य समुद्री स्वास्थ्य को बनाए रखने से कहीं अधिक है। इसका मुख्य उद्देश्य समुद्री पारिस्थितिक तंत्र को सक्रिय रूप से व्यवस्थित करना और पुनर्जीवित करना है।
- यह एक आर्थिक मॉडल है जो महासागर एवं समुद्र तटीय पारिस्थितिकी प्रणालियों के कठोर एवं प्रभावी पुनर्जनन तथा सुरक्षा को सतत, न्यून या शून्य कार्बन आर्थिक गतिविधियों को वर्तमान तथा निकट भविष्य में लोगों एवं पृथ्वी को और अधिक समृद्ध करने का प्रयास करता है।
- सागरीय/भूरी (Brown) अर्थव्यवस्था: इसका तात्पर्य समुद्र से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित सभी आर्थिक गतिविधियों से है।
- R.B.E के संस्थापक सिद्धांत:
- सुरक्षा एवं नवीनीकरण: समुद्री एवं तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों, संसाधनों तथा प्राकृतिक पूंजी को पुनर्जीवित एवं संरक्षित करना। जलवायु परिवर्तन और जैवविविधता हानि का सामना करना।
- समावेशी आर्थिक प्रणाली: आर्थिक प्रणाली के अंतर्गत समावेश, निष्पक्षता और एकजुटता सुनिश्चित करना। स्थायी वित्तपोषण द्वारा, कल्याण, लचीलेपन और जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता की गारंटी देना।
- समावेशी और सहभागी शासन: पारदर्शिता के साथ एक समावेशी और सहभागी शासन प्रणाली स्थापित करना। जलवायु एवं जैवविविधता पर अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में लचीले कानूनी और नियामक तंत्र को लागू करना।
- न्यून या शून्य कार्बन गतिविधियाँ: न्यून या शून्य कार्बन गतिविधियों को प्राथमिकता दें जो समुद्री एवं तटीय पारिस्थितिक तंत्र के पुनर्जनन पर सकारात्मक प्रभाव डालती हैं तथा स्थानीय आबादी के हितों की वृद्धि करती हैं।
- द्वीपीय राज्यों में प्राथमिकता कार्यान्वयन: विशिष्ट आवश्यकताओं वाले द्वीपीय राज्यों में RBE को प्राथमिकता के रूप में लागू करना। तटीय आबादी, विशेषतः उस स्थान के मूल निवासियों की आवश्कताओं पर विचार करना तथा कार्यान्वयन प्रक्रिया में उनकी परंपराओं की पहचान करना।
- स्थायित्व का स्पेक्ट्रम:
- IUCN नीली अर्थव्यवस्था अवधारणा के अंतर्गत विभिन्न स्थिरता स्तरों को स्वीकार करता है।
- RBE सबसे व्यापक और पुनर्स्थापनात्मक रणनीति है; यह "हमेशा की तरह व्यवसाय" और "सतत उपयोग" से परे जाकर सक्रिय रूप से समुद्र के स्वास्थ्य को बहाल करता है।
- नीली अर्थव्यवस्था का सिद्धांत:
- रिपोर्ट में विभिन्न संगठनों (विश्व वन्यजीव कोष, संयुक्त राष्ट्र ग्लोबल कॉम्पैक्ट, आदि) द्वारा प्रस्तावित सिद्धांतों के विभिन्न दिशानिर्देशों का विवरण है।
- सामान्य विषय: पारिस्थितिकी तंत्र स्वास्थ्य, स्थिरता, समावेशिता, सुशासन।
- नीली अर्थव्यवस्था और प्रकृति-आधारित समाधान:
- रिपोर्ट कार्बन पृथक्करण जैसी तटीय/समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के महत्त्व पर बल देती है।
- ब्लू कार्बन को उभरते बाज़ार अवसर और टिकाऊ अर्थव्यवस्थाओं के घटक के रूप में रेखांकित किया गया है।
- नीली अर्थव्यवस्था जलवायु परिवर्तन/जैवविविधता के लिये प्रकृति-आधारित समाधानों के व्यापक प्रयास के साथ संरेखित है।
- प्रमुख क्षेत्र और विचार:
- मछली पकड़ने और जलीय कृषि के टिकाऊ तरीकों को अपनाना चाहिये, अत्यधिक मछली पकड़ने एवं निवास स्थान के विनाश से बचना चाहिये।
- छोटे पैमाने पर मत्स्य पालन, शेलफिश/शैवाल जैसी पर्यावरण-अनुकूल जलीय कृषि को प्राथमिकता देनी चाहिये।
- समुद्री परिवहन के लिये निम्न/शून्य-कार्बन ईंधन और प्रौद्योगिकियों में परिवर्तन करने की आवश्यकता है।
- यह रिपोर्ट नीली अर्थव्यवस्था सिद्धांतों को चक्रिय अर्थव्यवस्था, बायोइकोनॉमी और सोशल एंड सॉलिडैरिटी इकोनॉमी (SSE) के साथ संयोजित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देती है।
- जैव अर्थव्यवस्था, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और उद्योग के लिये एक मॉडल है जो वस्तुओं, सेवाओं व ऊर्जा का उत्पादन करने के लिये जैविक संसाधनों का उपयोग करता है। यह एक टिकाऊ एवं चक्रिय मॉडल है जो सभी आर्थिक क्षेत्रों में जैविक संसाधनों, प्रक्रियाओं और विधियों का उपयोग करता है।
- मछली पकड़ने और जलीय कृषि के टिकाऊ तरीकों को अपनाना चाहिये, अत्यधिक मछली पकड़ने एवं निवास स्थान के विनाश से बचना चाहिये।
- SSE, उन आर्थिक गतिविधियों और संबंधों को संदर्भित करता है जो लाभ से अधिक सामाजिक एवं पर्यावरणीय उद्देश्यों को प्राथमिकता देते हैं।
ब्लू कार्बन क्या है?
- परिभाषा: ब्लू कार्बन का तात्पर्य तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र द्वारा संग्रहीत कार्बन से है।
- महत्त्व: मैंग्रोव, ज्वारीय दलदल और समुद्री घास के मैदान जैसे तटीय पारिस्थितिकी तंत्र महत्त्वपूर्ण कार्बन सिंक हैं, जो स्थलीय वनों की तुलना में प्रति इकाई क्षेत्र में अधिक कार्बन संग्रहीत करते हैं।
- वे जलवायु परिवर्तन को कम करने और पेरिस समझौते के तहत देशों के उत्सर्जन कटौती लक्ष्यों में योगदान करते हैं।
- IUCN की भागीदारी: IUCN ब्लू नेचुरल कैपिटल फाइनेंसिंग फैसिलिटी (BNCFF) और ब्लू कार्बन एक्सेलेरेटर फंड (BCAF) के माध्यम से ‘ब्लू कार्बन’ पहल में संलग्न है।
- ये पहल स्पष्ट पारिस्थितिकी तंत्र सेवा लाभों के साथ मज़बूत निवेश-आधारित परियोजनाओं के विकास का समर्थन करती हैं, जिससे निजी क्षेत्र के वित्तपोषण का मार्ग प्रशस्त होता है।
- उदाहरण: इंडोनेशिया में व्यापक झींगा पालन और मैंग्रोव संरक्षण का अध्ययन मामला ‘ब्लू कार्बन’ पहल के माध्यम से उत्पन्न संभावित राजस्व को दर्शाता है।
पुनर्योजी नीली अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने वाली पहल क्या हैं?
- वैश्विक पहल:
- IUCN नेचर 2030: यह सतत् विकास के लिये संयुक्त राष्ट्र 2030 एजेंडा और वर्ष 2020 के बाद के वैश्विक जैवविविधता ढाँचे के अनुरूप संरक्षण प्रयासों के लिये एक व्यापक योजना है।
- ग्रेट ब्लू वॉल पहल: अफ्रीकी नेतृत्व वाली इस पहल का उद्देश्य देशों को निम्नलिखित लक्ष्यों तक पहुँचने में सहायता करना है:
- वर्ष 2030 तक महासागर के 30% हिस्से की रक्षा करना; वर्ष 2030 तक मैंग्रोव, कोरल, समुद्री घास जैसे महत्त्वपूर्ण नीले पारिस्थितिक तंत्र से शुद्ध लाभ प्राप्त करना; पुनर्योजी नीली अर्थव्यवस्था विकसित करना और फंडिंग, प्रशिक्षण व तकनीकी सहायता के माध्यम से स्थानीय समुदायों का समर्थन करके लाखों रोज़गार उत्पन्न करना।
- स्वच्छ समुद्र अभियान: संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के नेतृत्व में संचालित यह अभियान सरकारों और व्यवसायों को एकल-उपयोग वाले प्लास्टिक के प्रयोग को कम करने के लिये प्रोत्साहित करके समुद्र में प्लास्टिक प्रदूषण से निपटता है।
- मोरोनी घोषणा और केप टाउन घोषणापत्र: अफ्रीकी देशों की ये हालिया घोषणाएँ महाद्वीप के विकास के लिये RBE के महत्त्व पर प्रकाश डालती हैं और अंतर्राष्ट्रीय समर्थन का आह्वान करती हैं।
- भारत:
- मैरीटाइम इंडिया विज़न 2030
- डीप ओशन मिशन
- प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना
- एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन (ICZM)
- नीली अर्थव्यवस्था 2.0
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. पुनर्योजी नीली अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों और समुद्री संरक्षण में इसकी भूमिका पर चर्चा कीजिये। RBE और पारंपरिक ब्लू इकोनॉमी मॉडल में अंतर बताइए। इसके सामाजिक-आर्थिक लाभों का आकलन कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. ब्लू कार्बन क्या है? (2021) (a) महासागरों और तटीय पारिस्थितिकी प्रणालियों द्वारा प्रगृहीत कार्बन उत्तर:(a) प्रश्न. ‘संक्रामक (इन्वेसिव) जीव-जाति (स्पीशीज़) विशेषज्ञ समूह’ (जो वैश्विक संक्रामक जीव-जाति डेटाबेस विकसित करता है) निम्नलिखित में से किस एक संगठन से संबंधित है? (2023) (a) अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (इंटरनैशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर) उत्तर: (a) मेन्स:प्रश्न. “नीली क्रांति” को परिभाषित करते हुए, भारत में मत्स्यपालन की समस्याओं और रणनीतियों को समझाइये। (2018) |
कॅरियर एविएशन का महत्त्व
प्रिलिम्स के लिये:INS विक्रांत, INS विक्रमादित्य, हिंद महासागर क्षेत्र, भारत-पाक युद्ध 1971, रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयाँ, सृजन पोर्टल, परियोजना 75I, रक्षा खरीद नीति मेन्स के लिये:INS विक्रांत की मुख्य विशेषताएँ, भारत की समुद्री सुरक्षा में विमान वाहक का महत्त्व |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारतीय नौसेना के दो विमान वाहक, INS विक्रमादित्य और INS विक्रांत ने "ट्विन कॅरियर ऑपरेशन" में भाग लिया, जिसमें दोनों वाहकों से MiG-29 K लड़ाकू जेट के एक साथ टेक-ऑफ करने तथा उसके बाद उनकी क्रॉस-डेक लैंडिंग शामिल थी, यह क्षमता केवल कुछ चुनिंदा राष्ट्रों के पास ही मौज़ूद है।
भारतीय विमान वाहक की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
- भारत के पास दो परिचालन विमानवाहक पोत हैं, जिनमें से प्रत्येक के पास अपना एक समृद्ध इतिहास और अद्वितीय क्षमताएँ रही हैं।
- मूल:
- INS विक्रांत पहला घरेलू स्तर पर निर्मित विमानवाहक पोत है, जिसमें 76% स्वदेशी सामग्री है। इसका निर्माण कोचीन शिपयार्ड लिमिटेड में किया गया था, यह भारत की बढ़ती जहाज़ निर्माण क्षमता का प्रतीक है।
- दूसरी ओर, INS विक्रमादित्य एक संशोधित कीव श्रेणी का विमानवाहक है, जो मूल रूप से सोवियत संघ की नौसेना के लिये तैयार किया गया था। पूरी मरम्मत और आधुनिकीकृत करने के बाद, इसे वर्ष 2013 में भारतीय नौसेना में शामिल किया गया।
- आकार और चाल:
- INS विक्रांत का वज़न करीब 43,000 टन और लंबाई 262 मीटर है। इसका डिज़ाइन 28 नॉट की शीर्ष गति के साथ गतिशीलता को प्राथमिकता देता है।
- वहीं, INS विक्रमादित्य वज़न में थोड़ा बड़ा करीब 44,500 टन का और इसकी लंबाई 284 मीटर है। यह 30 समुद्री मील की शीर्ष तक की गति तक पहुँच सकता है।
- मारक क्षमता और लचीलापन:
- दोनों के पास विमान का एक समान शस्त्रागार है, जिसमें हवाई रक्षा एवं ज़मीनी हमले के लिये MiG-29K लड़ाकू विमान, हवाई प्रारंभिक चेतावनी के लिये कामोव-31 हेलीकॉप्टर, बहु-भूमिका संचालन के लिये MH-60R हेलीकॉप्टर और उपयोगिता कार्यों हेतु स्वदेशी रूप से निर्मित उन्नत हल्के हेलीकॉप्टर (ALH) शामिल हैं।
- आधुनिकता और नवीनता:
- INS विक्रांत में डिज़ाइन, सेंसर और इलेक्ट्रॉनिक्स में नवीनतम प्रगति शामिल है। यह एक नई युद्ध प्रबंधन प्रणाली का दावा करता है, जो संभावित रूप से बेहतर स्थितिजन्य जागरूकता और परिचालन दक्षता प्रदान करती है।
- INS विक्रांत STOBAR (शॉर्ट टेक-ऑफ बट अरेस्टेड रिकवरी) पद्धति का उपयोग करके प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सटीक संचालन सुनिश्चित करता है।
- जबकि आधुनिकीकरण करने के बाद, INS विक्रमादित्य अभी भी पुरानी तकनीक का उपयोग करता है।
- भारत की भविष्य की योजनाएँ:
- भारत अपनी नौसैनिक उपस्थिति को मज़बूत करने के लिये तीन के बजाय चार विमान वाहक युद्ध समूह (CBGs) रखने की योजना बना रहा है।
- भारतीय नौसेना की 15-वर्षीय योजना में चार बेड़े (fleet) वाहक और दो हल्के बेड़े वाहक शामिल हैं।
- नया स्वदेशी विमान वाहक पोत INS विशाल, जिसे स्वदेशी विमान वाहक 3 (IAC-3) के रूप में भी जाना जाता है, INS विक्रांत की भाँति कोचीन शिपयार्ड में निर्मित किया जाएगा।
विमान वाहक बनाम पनडुब्बियों के लिये बहस:
- तकनीकी विकास के कारण नौसेनाओं के बीच इस बात पर बहस छिड़ गई है कि पनडुब्बियों या विमान वाहक पर ध्यान केंद्रित किया जाए अथवा नहीं।
- जहाज़-रोधी मिसाइलों, हाइपरसोनिक मिसाइलों और नवीन विमान-रोधी प्रणालियों जैसे तकनीकी विकास ने विमान वाहक की भेद्यता के विषय में चिंताएँ बढ़ा दी हैं।
- विमान वाहकों की आर्थिक लागत अत्यधिक है, जिससे कई देशों की पनडुब्बियों एवं विमान वाहकों, दोनों को संचालित करने की क्षमता सीमित हो जाती है।
- विमान वाहक पोतों की तुलना में पनडुब्बियों को उनके गोपनीय रहने की क्षमता एवं अपेक्षाकृत कम लागत के कारण एक बेहतर विकल्प के रूप में देखा जाता है।
विमान वाहकों के स्वदेशीकरण से जुड़ी चुनौतियाँ क्या हैं?
- तकनीकी जटिलताएँ:
- एक विमानवाहक पोत के निर्माण में प्रणोदन प्रणाली से लेकर युद्ध प्रबंधन और विमानन सुविधाओं तक कई उन्नत प्रौद्योगिकियों को एकीकृत करना शामिल है।
- भारत ने प्रारंभ में एक कैटापल्ट लॉन्च सिस्टम (CATOBAR) तैयार करने की योजना बनाई थी, परंतु बाद में तकनीकी सीमाओं के कारण अरेस्टेड रिकवरी (STOBAR) के साथ स्की-जंप लॉन्च तकनीक का प्रयोग किया गया। STOBAR एक सिद्ध प्रणाली है, जो भारी तथा अधिक उन्नत विमानों की परिचालन क्षमताओं को सीमित करती है।
- एक विमानवाहक पोत के निर्माण में प्रणोदन प्रणाली से लेकर युद्ध प्रबंधन और विमानन सुविधाओं तक कई उन्नत प्रौद्योगिकियों को एकीकृत करना शामिल है।
- समय लेने वाली प्रक्रिया और उच्च लागत:
- एक विमानवाहक पोत जैसे जटिल युद्धपोत का डिज़ाइन तैयार करना, आवश्यक सामग्री खरीदना और उसका निर्माण करना एक समय लेने वाली प्रक्रिया है। निर्माण प्रक्रिया में देरी से समग्र लागत और रणनीतिक योजना पर प्रभाव पड़ सकता है।
- INS विक्रांत का डिज़ाइन तैयार करना 1999 में प्रारंभ हुआ, परंतु इस विमान वाहक को दो दशकों से अधिक की देरी के बाद वर्ष 2023 तक प्रारंभ नहीं किया गया।
- इस विस्तारित समय-सीमा के कारण, कुछ एसी तकनीकी प्रगति हो जाएगी, जिससे इस विमान वाहक के कुछ पहलू इसके पूर्ण होने से पहले ही अप्रचलित हो जाएँगे।
- विमानवाहक पोत का निर्माण एक महँगा उपक्रम है, जिसके लिये सामग्री, श्रम और विशेष प्रौद्योगिकियों में महत्त्वपूर्ण निवेश की आवश्यकता होती है।
- कुशल श्रमशक्ति एवं औद्योगिक आधार:
- एक विमानवाहक पोत के निर्माण के लिये विभिन्न विषयों में विशेषज्ञता वाले कुशल श्रमिकों के एक बड़े समूह की आवश्यकता होती है।
- भारत को INS विक्रांत के निर्माण के कुछ पहलुओं के लिये विदेशी विशेषज्ञता और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर निर्भर होना पड़ा, जो इसके घरेलू जहाज़ निर्माण उद्योग को तथा अधिक विकसित करने की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।
- एक विमानवाहक पोत के निर्माण के लिये विभिन्न विषयों में विशेषज्ञता वाले कुशल श्रमिकों के एक बड़े समूह की आवश्यकता होती है।
- विदेशी सामग्री पर निर्भरता:
- स्वदेशी डिज़ाइन के साथ भी, कुछ महत्त्वपूर्ण सामग्रियों और घटकों को अभी भी आयात करने की आवश्यकता हो सकती है, जिससे विदेशी आपूर्तिकर्त्ताओं पर निर्भरता होगी।
- यद्यपि INS विक्रांत में स्वदेशी सामग्री का प्रतिशत उच्च है, परंतु उच्च-तन्यता वाले स्टील तथा विशेष इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे कुछ प्रमुख तत्त्व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आयतित हो सकते हैं।
- यह आयात निर्भरता भू-राजनीतिक तनाव के समय में कमज़ोरियाँ उत्पन्न कर सकती है।
- स्वदेशी डिज़ाइन के साथ भी, कुछ महत्त्वपूर्ण सामग्रियों और घटकों को अभी भी आयात करने की आवश्यकता हो सकती है, जिससे विदेशी आपूर्तिकर्त्ताओं पर निर्भरता होगी।
आधुनिक रणनीतिक शर्तों में भारत के लिये वाहक विमानन का क्या महत्त्व है?
- भूमि और वायु संचालन में सहायता:
- भारत की भूमि सीमाओं पर चल रहे विवादों के संदर्भ में सीमा संघर्षों की संभावना बनी हुई है, इस बात पर ज़ोर देते हुए कि भविष्य के संघर्षों में मज़बूत विमान वाहक रणनीतिक लाभ प्रदान करेंगे।
- बांग्लादेश की आज़ादी के लिये 1971 के अभियानों के दौरान, INS विक्रांत युद्धपोत ने पूर्वी पाकिस्तान के आंतरिक क्षेत्रों में हमला करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे भूमि युद्धों का समर्थन करने में इसके रणनीतिक महत्त्व को उजागर किया गया।
- भारत की भूमि सीमाओं पर चल रहे विवादों के संदर्भ में सीमा संघर्षों की संभावना बनी हुई है, इस बात पर ज़ोर देते हुए कि भविष्य के संघर्षों में मज़बूत विमान वाहक रणनीतिक लाभ प्रदान करेंगे।
- संचार की समुद्री लाइनों की सुरक्षा बनाए रखना:
- सैन्य संघर्ष के दौरान, एक विमान वाहक प्राथमिक नौसैनिक संपत्ति के रूप में कार्य करता है जो भारत में सामरिक सामग्री को ले जाने के लिये महत्त्वपूर्ण व्यापारिक नौवहन मार्गों की व्यापक रूप से रक्षा करने में सक्षम है।
- पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह में चीन की रणनीतिक उपस्थिति के कारण होर्मुज़ जलडमरूमध्य के माध्यम से ऊर्जा आयात की सुभेद्यता के बारे में चिंता जताई गई है, जो संचार की समुद्री सीमा की सुरक्षा में वाहकों के महत्त्व को रेखांकित करता है।
- सैन्य संघर्ष के दौरान, एक विमान वाहक प्राथमिक नौसैनिक संपत्ति के रूप में कार्य करता है जो भारत में सामरिक सामग्री को ले जाने के लिये महत्त्वपूर्ण व्यापारिक नौवहन मार्गों की व्यापक रूप से रक्षा करने में सक्षम है।
- हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) में उपस्थिति सुनिश्चित करना:
- भारत के सुरक्षा हित हिंद महासागर और उसके आसपास के तटीय क्षेत्र से जटिल रूप से जुड़े हुए हैं, जहाँ चीनी रणनीतिक संपत्तियों की उपस्थिति भारत के प्रभाव के लिये चुनौतियाँ पेश करती हैं।
- एक विमानवाहक पोत भारत को इन जलक्षेत्रों में अपना प्रभाव जमाने और अतिरिक्त-क्षेत्रीय शक्तियों से होने वाले संभावित खतरों को नियंत्रित करने में सक्षम बनाता है, जिससे IOR में उसके हितों की रक्षा होती है।
- भारत के सुरक्षा हित हिंद महासागर और उसके आसपास के तटीय क्षेत्र से जटिल रूप से जुड़े हुए हैं, जहाँ चीनी रणनीतिक संपत्तियों की उपस्थिति भारत के प्रभाव के लिये चुनौतियाँ पेश करती हैं।
- महत्त्वपूर्ण विदेशी हितों का संरक्षणः
- वाहक विमानन भारत को विदेशों में अपने रणनीतिक हितों की रक्षा करने की क्षमता प्रदान करता है, विशेष रूप से राजनीतिक, सामाजिक-आर्थिक और जातीय अस्थिरताओं का सामना कर रहे एफ्रो-एशियाई राष्ट्रों में।
- इन क्षेत्रों में भारत की आर्थिक और रणनीतिक हिस्सेदारी बढ़ रही है, जिससे उभरते खतरों का प्रभावी ढंग से जवाब देने तथा विदेशों में अपने नागरिकों एवं संपत्तियों की रक्षा करने की क्षमता की आवश्यकता होती है।
- वाहक विमानन भारत को विदेशों में अपने रणनीतिक हितों की रक्षा करने की क्षमता प्रदान करता है, विशेष रूप से राजनीतिक, सामाजिक-आर्थिक और जातीय अस्थिरताओं का सामना कर रहे एफ्रो-एशियाई राष्ट्रों में।
- द्वीप क्षेत्रों को सुरक्षित करनाः
- अंडमान और निकोबार द्वीप समूह जैसे भारत के दूरदराज़ के द्वीप क्षेत्रों की रक्षा के लिये एकीकृत नौसैनिक विमानन आवश्यक है, जो अपने भौगोलिक प्रसार एवं सीमित बुनियादी ढाँचे के कारण असुरक्षित हैं।
- एक विमान वाहक की उपस्थिति इन रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए संभावित विदेशी सैन्य कब्ज़े या दावों के खिलाफ निवारक के रूप में कार्य करती है।
- अंडमान और निकोबार द्वीप समूह जैसे भारत के दूरदराज़ के द्वीप क्षेत्रों की रक्षा के लिये एकीकृत नौसैनिक विमानन आवश्यक है, जो अपने भौगोलिक प्रसार एवं सीमित बुनियादी ढाँचे के कारण असुरक्षित हैं।
- अन्य गैर-सैन्य मिशन:
- अपनी सैन्य भूमिका से परे, एक विमानवाहक पोत क्षेत्रीय समुद्रों या तटीय क्षेत्रों में प्राकृतिक आपदाओं का जवाब देने के लिये भारत की परिचालन क्षमताओं का महत्त्वपूर्ण रूप से विस्तार करता है।
- एक तैरते शहर के समान अपनी क्षमता के साथ, एक वाहक आवश्यक सेवाएँ और रसद सहायता प्रदान कर सकता है, मौज़ूदा सीलिफ्ट प्लेटफॉर्मों को पूरक कर सकता है तथा भारत की आपदा प्रतिक्रिया क्षमताओं को बढ़ा सकता है।
- मॉड्यूलर अवधारणाओं को शामिल करने के प्रयास गैर-सैन्य मिशनों के लिये वाहक की बहुमुखी प्रतिभा को और बढ़ाते हैं, जिससे विशिष्ट मानवीय मिशनों के लिये विशेष संसाधनों की तेज़ी से तैनाती संभव हो पाती है।
भारत के रक्षा बुनियादी ढाँचे के विस्तार की दिशा में संबंधित पहल क्या हैं?
निष्कर्ष:
स्वदेशी उत्पादन पर भारत का ध्यान और अतिरिक्त वाहकों के लिये महत्त्वाकांक्षी योजनाएँ भविष्य के लिये उपयुक्त एवं शक्तिशाली नौसेना के निर्माण के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करती हैं। जबकि विमान वाहक और पनडुब्बियों के बीच बहस जारी है, भारत के ट्विन कॅरियर ऑपरेशन एक व्यापक समुद्री रक्षा रणनीति के लिये दोनों का लाभ उठाने के अपने रणनीतिक इरादे को प्रदर्शित करते हैं।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारतीय विमानवाहक पोत की प्रमुख विशेषताओं के बारे में चर्चा कीजिये। साथ ही, आधुनिक सामरिक दृष्टि से भारत के लिये वाहक विमानन के महत्त्व का उल्लेख कीजिये? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न.1 'INS अस्त्रधारिणी का ' जिसका हाल ही में समाचारों में उल्लेख हुआ था,कौन-सा सर्वोत्तम वर्णन है ? (2016) (a) उभयचर युद्धपोत उत्तर: (c) प्रश्न.2 हिंद महासागर नौसैनिक परिसंवाद (सिंपोज़ियम) (IONS) के संबंध में निम्नलिखित पर विचार कीजिये: (2017)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) |
स्ट्रीट वेंडर्स के समक्ष चुनौतियाँ
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में स्ट्रीट वेंडर (जीविका संरक्षण और पथ विक्रय विनयमन) एक्ट, 2014 ने अपनी दसवीं वर्षगाँठ मनाई, जो भारत में स्ट्रीट वेंडर (पथ विक्रेता) आंदोलनों द्वारा चार दशकों के कानूनी विकास एवं वकालत की परिणति को दर्शाता है।
स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट और इससे जुड़े पहलू क्या हैं?
- स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट:
- कार्यक्षेत्र और उद्देश्य: यह एक्ट भारतीय शहरों में स्ट्रीट वेंडर्स की सुरक्षा और विनियमन के लिये तैयार किया गया था, जिसमें निर्दिष्ट विक्रय क्षेत्र (Vending Zones) स्थापित करने में स्थानीय अधिकारियों को शामिल किया गया था।
- वेंडर्स शहरी जीवन के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, वे खाद्य वितरण और सांस्कृतिक पहचान में योगदान करते हैं तथा इस कानून का उद्देश्य उनकी आजीविका को सुरक्षित करना एवं उनकी गतिविधियों को औपचारिक शहरी नियोजन में एकीकृत करना है।
- शासन संबंधी संरचना: यह एक्ट नगर विक्रय समितियों (Town Vending Committees - TVC) की स्थापना करता है, जिसमें स्ट्रीट वेंडर्स प्रतिनिधि शामिल होते हैं, इस समूह में कुल
- 33% महिला वेंडर्स होती हैं।
- ये समितियाँ निर्दिष्ट क्षेत्रों में वेंडर्स को शामिल करने और शिकायत निवारण समिति (सिविल न्यायधीश या न्यायिक मजिस्ट्रेट की अध्यक्षता में) जैसे तंत्रों के माध्यम से शिकायतों को सुनने के लिये ज़िम्मेदार हैं।
- अन्य प्रावधान:
- यह एक्ट विभिन्न स्तरों पर वेंडर्स और सरकार की भूमिकाओं तथा ज़िम्मेदारियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है।
- प्रावधान के अनुसार, राज्यों/ULB को हर पाँच वर्ष में कम-से-कम एक बार SV की पहचान करने के लिये सर्वेक्षण करने की आवश्यकता होती है।
- कार्यक्षेत्र और उद्देश्य: यह एक्ट भारतीय शहरों में स्ट्रीट वेंडर्स की सुरक्षा और विनियमन के लिये तैयार किया गया था, जिसमें निर्दिष्ट विक्रय क्षेत्र (Vending Zones) स्थापित करने में स्थानीय अधिकारियों को शामिल किया गया था।
- कार्यान्वयन चुनौतियाँ:
- प्रशासनिक चुनौतियाँ:
- एक्ट में उल्लिखित सुरक्षा के बावजूद, स्ट्रीट वेंडर्स को अक्सर उत्पीड़न और बेदखली का सामना करना पड़ता है।
- यह आंशिक रूप से एक अवैध गतिविधि के रूप में वेंडिंग के लगातार नौकरशाही विचारों के कारण है।
- इसके अतिरिक्त, TVC अक्सर वेंडर्स का प्रतिनिधित्व करने के बजाय शहर के अधिकारियों के नियंत्रण में रहते हैं, महिलाओं का प्रतिनिधित्व अक्सर केवल प्रतीकात्मक होता है।
- शासन एकीकरण के मुद्दे:
- यह एक्ट 74वें संवैधानिक संशोधन द्वारा स्थापित व्यापक शहरी शासन ढाँचे के साथ एकीकृत होने के लिये संघर्ष करता है।
- शहरी स्थानीय निकायों (ULB) के पास अक्सर एक्ट को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिये शक्ति और संसाधनों का आभाव होता है, खासकर स्मार्ट सिटीज़ मिशन जैसी व्यापक नीतियों के संदर्भ में, जो समावेशी शहरी नियोजन पर बुनियादी ढाँचे को प्राथमिकता देते हैं।
- सामाजिक धारणा संबंधी समस्याएँ:
- 'विश्व स्तरीय शहर' का दृष्टिकोण अक्सर स्ट्रीट वेंडर्स को बाहर कर देता है, जिसके तहत शहरी अर्थव्यवस्था में इनकों योगदानकर्त्ता के बजाय उपद्रव करने वाले के रूप में देखा जाता है।
- सामाजिक कलंक से शहरी नियोजन और नीतियाँ प्रभावित होने के साथ ऐसी नीतियाँ बनती हैं जिससे स्ट्रीट वेंडर्स हाशिये पर चले जाते हैं।
- प्रशासनिक चुनौतियाँ:
- कानून को मज़बूत करने के उपाय:
- सहायक कार्यान्वयन की आवश्यकता:
- हालाँकि यह एक्ट प्रगतिशील है, और इसका प्रभावी कार्यान्वयन महत्त्वपूर्ण है तथा इसके लिये आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय जैसे उच्च सरकारी स्तरों से प्रारंभिक शीर्ष मार्गदर्शन की आवश्यकता हो सकती है।
- समय के साथ, देशभर में वेंडर्स के विविध स्थानीय संदर्भों के लिये रणनीतियों को तैयार करने हेतु अधिक विकेंद्रीकृत शासन की ओर परिवर्तन आवश्यक है।
- शहरी योजनाओं के साथ एकीकरण:
- योजनाओं में स्ट्रीट वेंडर्स को बेहतर ढंग से शामिल करने के लिये नीतियों और शहरी नियोजन दिशानिर्देशों को संशोधित किया जाना चाहिये।
- इसमें शहरी नियोजन में वेंडर्स को शामिल करने के लिये ULB की क्षमताओं को बढ़ाना और TVC स्तर पर नौकरशाही नियंत्रण से अधिक समावेशी, विचार-विमर्श प्रक्रियाओं की ओर बढ़ना शामिल है।
- नई चुनौतियों का समाधान:
- जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, ई-कॉमर्स से बढ़ती प्रतिस्पर्धा और वेंडरों में वृद्धि जैसी उभरती चुनौतियों के आलोक में अधिनियम की आवश्यकताओं का रचनात्मक रूप से उपयोग किया जाना चाहिये।
- इसमें इन बदलती वास्तविकताओं के लिये नवाचार और अनुकूलन करने के लिये राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (NULM) जैसे राष्ट्रीय मिशनों के घटकों का लाभ उठाना शामिल है।
- सहायक कार्यान्वयन की आवश्यकता:
भारत में स्ट्रीट वेंडर नीति का विकास:
- वर्ष 1995 में भारत ने स्ट्रीट वेंडर्स की बेलाजियो अंतर्राष्ट्रीय घोषणा पर हस्ताक्षर किये।
- वर्ष 2001 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्ट्रीट वेंडर नीति का मसौदा तैयार करने की घोषणा की।
- वर्ष 2009 में नीति को संशोधित किया गया और इसके साथ एक मॉडल कानून भी लाया गया जिसे राज्य सरकार द्वारा अपनाया जा सकता था।
- वर्ष 2012 में केंद्र सरकार ने स्ट्रीट वेंडर (आजीविका का संरक्षण और स्ट्रीट वेंडर का विनियमन) विधेयक को मंज़ूरी दी।
- वर्ष 2014 में संसद ने स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट पारित किया
भारत में स्ट्रीट वेंडर्स के सामने क्या चुनौतियाँ हैं?
- कानूनी उलझन और उत्पीड़न:
- अनिश्चित कानूनी स्थितिः स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट होने के बावजूद भी प्रवर्तन असमान बना हुआ है। कई वेंडर्स बिना लाइसेंस के काम करते हैं, जिससे उन्हें अधिकारियों और स्थानीय मध्यस्थों द्वारा बेदखली एवं उत्पीड़न का खतरा होता है।
- रिश्वत और जबरन वसूली: यू.एन.-हैबिटेट की रिपोर्ट इस मुद्दे को उजागर करती हैं कि वेंडर्स को पुलिस और स्थानीय अधिकारियों को रिश्वत देने के लिये मजबूर किया जाता है।
- अनिश्चित आजीविका और बुनियादी ढाँचे का संकट:
- प्रतिस्पर्द्धा और आय में उतार-चढ़ावः कुछ क्षेत्रों में संतृप्ति और स्थापित व्यवसायों से प्रतिस्पर्धा अप्रत्याशित आय एवं आर्थिक असुरक्षा का कारण बनती है।
- अवास्तविक लाइसेंस सीमा: मुंबई जैसे अधिकांश शहरों में लाइसेंस सीमा तार्किक नही है, जहाँ पर अनुमानित 2.5 लाख वेंडर्स हैं जबकि लाइसेंस की सीमा को लगभग 15,000 तक सीमित रखा गया है।
- बुनियादी सुविधाओं का अभाव: स्वच्छ पानी, स्वच्छता सुविधाओं और अपशिष्ट निपटान तक सीमित पहुँच, वेंडर्स तथा ग्राहकों दोनों के लिये स्वास्थ्य संबंधी खतरे उत्पन्न करती है।
- विस्थापन का खतराः शहरी विकास परियोजनाएँ और सड़क चौड़ीकरण की पहल अक्सर वेंडर्स को विस्थापित करती हैं, जिससे आजीविका में व्यवधान उत्पन्न होता है।
- व्यावसायिक खतरे: स्ट्रीट वेंडर्स ऐसे वातावरण में काम करते हैं जो अक्सर उनके स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होते हैं।
- औपचारिक प्रणाली को नेविगेट करना:
- जटिल लाइसेंसिंग प्रक्रिया: स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट की जटिल लाइसेंसिंग प्रक्रिया कठिन और औपचारिक हो सकती है, जो वेंडर्स को हतोत्साहित करती है।
- ऋण तक सीमित पहुँच: अनौपचारिक आय, वेंडर्स के व्यवसाय उन्नयन एवं विस्तार के लिये ऋण प्राप्त करना कठिन बना देती है।
- हालाँकि, PM स्वनिधि योजना का लक्ष्य व्यापक स्तर पर लक्षित आबादी को लाभ पहुँचाना था, परंतु इससे लक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हो पाए।
- जागरूकता की कमी,दस्तावेज़ीकरण और नौकरशाही बाधाएँ जैसे मुद्दे कई वेंडर्स को योजना का लाभ प्राप्त करने से वंचित कर देते हैं।
- लैंगिक भेदभाव: महिला वेंडर्स को अक्सर लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जो उनके व्यावसायिक अवसरों और आय को प्रभावित करता है।
- उनके प्रति हिंसा एवं उत्पीड़न की संभावना भी अधिक होती हैं, जिससे उन्हें व्यापार करने में बाधा उत्पन्न होती है।
- कोविड-19 का प्रभाव: कोविड महामारी के कारण स्ट्रीट वेंडर्स को गंभीर आर्थिक कठिनाई का सामना करना पड़ा।
- लॉकडाउन और सामाजिक दूरी के मानदंडों के कारण, कई लोगों ने अपनी आय का एकमात्र स्रोत खो दिया तथा वे निर्धनता की स्थिति में पहुँच गए।
स्ट्रीट वेंडर्स की समस्या से निपटने के लिये क्या कदम आवश्यक हैं?
- विश्व बैंक और यू.एन.-हैबिटेट स्ट्रीट वेंडर्स को एक समस्या के रूप में देखने के स्थान पर उन्हें शहरी अर्थव्यवस्था के एक महत्त्वपूर्ण भाग के रूप में स्वीकार करते हैं।
- औपचारिकीकरण और विनियमन: स्ट्रीट वेंडर अधिनियम, औपचारिकीकरण की दिशा में एक सकारात्मक कदम है। हनोई (वियतनाम) और अहमदाबाद (भारत) जैसे शहरों ने वेंडर्स पंजीकरण प्रणाली स्थापित की है, जो पहचान पत्र तथा स्वच्छता एवं सुरक्षा पर प्रशिक्षण प्रदान करते हैं।
- निर्दिष्ट क्षेत्र: रियो डी जनेरियो (ब्राज़ील) और किगाली (रवांडा) जैसे शहरों ने व्यवस्था सुनिश्चित करने और पैदल चलने वालों के प्रवाह में सुधार लाने के लिये निर्दिष्ट स्ट्रीट वेंडर्स ज़ोन स्थापित किये हैं।
- वेंडर्स तथा निवासी संघों के परामर्श से उपयुक्त क्षेत्रों की पहचान करके इसे भारत में लागू किया जा सकता है।
- बुनियादी ढाँचा और सहायता: स्वच्छ जल, स्वच्छता सुविधाएँ तथा अपशिष्ट निपटान तक पहुँच प्रदान करना महत्त्वपूर्ण है। लीमा (पेरू) जैसे शहर अपशिष्ट प्रबंधन पर प्रशिक्षण और उपकरण उन्नयन के लिये सूक्ष्म ऋण प्रदान करते हैं।
- भारतीय शहर गैर सरकारी संगठनों और स्वयं सहायता समूहों के साथ सहयोग करके इन मॉडलों का प्रयोग कर सकते हैं।
- वेंडर्स संघ: कुमासी (घाना) जैसे संघों के माध्यम से वेंडर्स को सशक्त बनाने से अधिकारियों के साथ बातचीत की सुविधा मिलती है और सामूहिक सौदेबाज़ी को बढ़ावा मिलता है।
- भारत वेंडर्स संघों को प्रोत्साहित कर उन्हें नीतिगत चर्चाओं में एकीकृत कर सकता है।
- सहयोगात्मक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना: प्रभावी स्ट्रीट वेंडर प्रबंधन के लिये बहु-हितधारक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है:
- स्थानीय प्राधिकारी: शहरों को अनुकूल वातावरण बनाने में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिये। इसमें वेंडर्स परमिट जारी करना, निर्दिष्ट क्षेत्र स्थापित करना और बुनियादी ढाँचा संबंधी सहायता प्रदान करना सम्मिलित है।
- स्ट्रीट वेंडर्स: वेंडर्स को नियमों का पालन करना होगा, स्वच्छता मानकों को बनाए रखना होगा और निर्दिष्ट शुल्क का भुगतान करना होगा। उन्हें वेंडर्स संघों में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिये तथा अधिकारियों के साथ रचनात्मक बातचीत में संलग्न होना चाहिये ।
- निवासी संघ: भीड़भाड़ और अपशिष्ट प्रबंधन के विषय में निवासियों की चिंताओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। वेंडर्स संघों के साथ खुला संचार और समाधानों का सह-निर्माण इस अंतर को मिटा सकता है।
स्ट्रीट वेंडर्स के लिये अंतर्राष्ट्रीय प्रयास और भारतीय पहल:
वर्ग |
विवरण |
वैश्विक पहल |
ILO अनुशंसा 204 (श्रमिकों का आर्थिक समावेशन), संयुक्त राष्ट्र SDGs 8 (सभी के लिये सभ्य कार्य) ग्लोबल एडवोकेसी के लिये स्ट्रीट वेंडर्स पहल (SVIGA) अनौपचारिक रोज़गार में महिलाएँ: वैश्वीकरण और संगठित करना (WIEGO) |
भारतीय योजनाएँ |
PM स्वनिधि, स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट 2014, राज्य-विशिष्ट योजनाएंँ |
निष्कर्ष:
- भारत का भविष्य जनसंख्या घनत्व और माल की विविधता जैसे पहलुओं को ध्यान में रखते हुए, प्रत्येक शहर की अनूठी विशेषताओं के अनुसार नीतियाँ बनाने में निहित है। कौशल विकास एवं माइक्रोफाइनेंस कार्यक्रमों के माध्यम से वेंडर्स की आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. स्ट्रीट वेंडर्स (आजीविका का संरक्षण और स्ट्रीट वेंडिंग का विनियमन) एक्ट, 2014 के कार्यान्वयन के बाद भारत में स्ट्रीट वेंडर्स के सामने आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। इन चुनौतियों के समाधान में एक्ट की प्रभावशीलता का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये और शहरी क्षेत्रों में स्ट्रीट वेंडर्स की स्थिति में सुधार हेतु उपाय सुझाइए। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न. भारतीय अर्थव्यवस्था में वैश्वीकरण के परिणाम स्वरूप औपचारिक क्षेत्र में रोज़गार कैसे कम हुए? क्या बढ़ती हुई अनौपचारिकता देश के विकास के लिये हानिकारक है? (2016) |
अंतरसरकारी वार्ता समिति का चौथा सत्र
प्रिलिम्स के लिये:अंतरसरकारी वार्ता समिति (INC-4), संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एजेंसी, प्लास्टिक, कार्बन उत्सर्जन, आर्थिक सहयोग और विकास संगठन, विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व मेन्स के लिये:अंतरसरकारी वार्ता समिति, एकल-उपयोग प्लास्टिक और संबंधित चिंताएँ, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, संरक्षण। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एजेंसी (UNEA) की अंतरसरकारी वार्ता समिति (INC-4) का चौथा सत्र कनाडा के ओटावा में आयोजित किया गया, जिसमें 170 से अधिक सदस्य देशों की भागीदारी हुई।
- यह सत्र UNEA के तहत 2024 के अंत तक प्लास्टिक प्रदूषण पर कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि करने के लिये चल रही वार्ता का हिस्सा है।
- वैश्विक प्लास्टिक संधि के लिये INC-4 किसी समझौते पर पहुँचने में विफल रहा। वार्ताकारों का लक्ष्य 2024 के अंत तक INC-5 में आम सहमति तक पहुँचना है, जो नवंबर 2024 में दक्षिण कोरिया में होने वाली है।
अंतरसरकारी वार्ता समिति (INC):
- INC प्लास्टिक प्रदूषण पर एक अंतरराष्ट्रीय कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौता विकसित करने के लिये मार्च 2022 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा स्थापित एक समिति है।
- INC का अधिदेश एक ऐसा उपकरण विकसित करना है जो समुद्री पर्यावरण सहित प्लास्टिक के संपूर्ण जीवन चक्र को संबोधित करता है और इसमें स्वैच्छिक और बाध्यकारी दोनों दृष्टिकोण शामिल हो सकते हैं।
- INC-1 की शुरुआत नवंबर 2022 में पुंटा डेल एस्टे, उरुग्वे में हुई। INC-2, मई-जून 2023 में पेरिस, फ्राँस में हुआ। INC-3 दिसंबर, 2023 में नैरोबी में संयोजित की गई।
वैश्विक प्लास्टिक संधि की आवश्यकता क्यों है?
- प्लास्टिक उत्पादन का तीव्र विस्तार:
- 1950 के दशक के बाद से, विश्व में प्लास्टिक का उत्पादन काफी बढ़ गया है। यह वर्ष 1950 में केवल 2 मिलियन टन से बढ़कर वर्ष 2019 में 450 मिलियन टन से अधिक हो गया।
- यदि अनियंत्रित छोड़ दिया गया, तो उत्पादन वर्ष 2050 तक दोगुना और वर्ष 2060 तक तीन गुना हो जाएगा।
- 1950 के दशक के बाद से, विश्व में प्लास्टिक का उत्पादन काफी बढ़ गया है। यह वर्ष 1950 में केवल 2 मिलियन टन से बढ़कर वर्ष 2019 में 450 मिलियन टन से अधिक हो गया।
- प्लास्टिक अपशिष्ट और भार:
- हालाँकि प्लास्टिक एक सस्ती और बहुपयोगी सामग्री है, जिसके कई प्रकार के अनुप्रयोग हैं, लेकिन इसके व्यापक उपयोग ने पर्यावरणीय संकट उत्पन्न कर दिया है।
- वर्ष 2023 में द लैंसेट द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, प्लास्टिक को विघटित होने में 20 से 500 साल तक का समय लगता है, और अब तक 10% से भी कम का पुनर्चक्रण किया गया है जिससे शेष लगभग 6 बिलियन टन के कारण वर्तमान में पृथ्वी के प्रदूषण स्तर में वृद्धि हुई है।
- विश्व में सालाना लगभग 400 मिलियन टन प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पन्न होता है, वर्ष 2024 और 2050 के मध्य यह आँकड़ा 62% तक बढ़ने की उम्मीद है।
- इस प्लास्टिक अपशिष्ट का अधिकांश भाग पर्यावरण में, विशेषकर नदियों और महासागरों में बह जाता है, जहाँ यह छोटे कणों (माइक्रोप्लास्टिक या नैनोप्लास्टिक) में विघटित हो जाता है।
- इनमें 16,000 से अधिक रसायन होते हैं जो पारिस्थितिक तंत्र और मनुष्यों सहित जीवित जीवों को हानि पहुँचा सकते हैं, ये रसायन शरीर के हार्मोन सिस्टम खराब करने, कैंसर, मधुमेह, प्रजनन संबंधी विकार आदि का कारण बनने के लिये प्रभावी होते हैं।
- हालाँकि प्लास्टिक एक सस्ती और बहुपयोगी सामग्री है, जिसके कई प्रकार के अनुप्रयोग हैं, लेकिन इसके व्यापक उपयोग ने पर्यावरणीय संकट उत्पन्न कर दिया है।
- जलवायु परिवर्तन:
- प्लास्टिक उत्पादन और निपटान भी जलवायु परिवर्तन में योगदान दे रहे हैं। ऑर्गनाइज़ेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में प्लास्टिक ने 1.8 बिलियन टन GHG उत्सर्जन (वैश्विक उत्सर्जन का 3.4%) किया।
- इनमें से लगभग 90% उत्सर्जन प्लास्टिक उत्पादन से आता है, जो कच्चे माल के रूप में जीवाश्म ईंधन का उपयोग करता है। यदि ऐसा ही जारी रहता है, तो वर्ष 2050 तक उत्सर्जन 20% तक बढ़ सकता है।
- प्लास्टिक उत्पादन और निपटान भी जलवायु परिवर्तन में योगदान दे रहे हैं। ऑर्गनाइज़ेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में प्लास्टिक ने 1.8 बिलियन टन GHG उत्सर्जन (वैश्विक उत्सर्जन का 3.4%) किया।
वैश्विक प्लास्टिक संधि में क्या शामिल हो सकता है?
- वैश्विक उद्देश्य: संधि का उद्देश्य प्लास्टिक के कारण होने वाले समुद्री और अन्य प्रकार के पर्यावरण प्रदूषण को संबोधित करना है।
- यह प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने और पारिस्थितिकी तंत्र पर इसके प्रभाव का आकलन करने के लिये वैश्विक उद्देश्यों को स्थापित करने पर केंद्रित है।
- अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिये दिशानिर्देश: संधि यह रेखांकित करती है कि कैसे धनी राष्ट्र अपने प्लास्टिक कटौती लक्ष्यों को प्राप्त करने में आर्थिक रूप से कमज़ोर राष्ट्रों का समर्थन कर सकते हैं।
- निषेध और लक्ष्यः इसमें उपभोक्ता वस्तुओं में पुनर्चक्रण और पुनर्नवीनीकरण सामग्री के लिये कानूनी रूप से बाध्यकारी लक्ष्यों के साथ-साथ विशिष्ट प्लास्टिक, उत्पादों एवं रासायनिक योजकों पर प्रतिबंध शामिल हो सकते हैं।
- रासायनिक परीक्षण अधिदेश: संधि के तहत सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण सुनिश्चित करने के लिये प्लास्टिक में मौज़ूद कुछ रसायनों के परीक्षण की आवश्यकता हो सकती है।
- सुभेद्द श्रमिकों के लिये विचार: आजीविका के लिये प्लास्टिक उद्योग पर निर्भर विकासशील देशों में अपशिष्ट एकत्रित करने वालों और श्रमिकों के लिये उचित उपाय शामिल किये जा सकते हैं।
- प्रगति का आकलन: संधि में प्लास्टिक प्रदूषण कटौती उपायों को लागू करने में सदस्य राज्यों की प्रगति का आकलन करने के प्रावधान शामिल होंगे।
- नियमित मूल्यांकन से जवाबदेही सुनिश्चित होगी और प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के वैश्विक प्रयासों में निरंतर सुधार होगा।
संधि को आगे बढ़ाने में क्या चुनौतियाँ हैं?
- तेल और गैस दिग्गज़ों से प्रतिरोधः
- कुछ प्रमुख तेल एवं गैस उत्पादक राष्ट्र, जीवाश्म ईंधन और रासायनिक उद्योग समूहों के साथ संधि के उद्देश्य को पूरी तरह से प्लास्टिक कचरे तथा पुनर्चक्रण पर सीमित करने का लक्ष्य रखते हैं।
- ध्रुवीकरण वार्ताएँः
- नवंबर 2022 में उरुग्वे में उद्घाटन वार्ता के बाद से, सऊदी अरब, रूस और ईरान जैसे तेल उत्पादक देशों ने उत्पादक चर्चाओं में बाधा डालने के लिये प्रक्रियात्मक विवादों जैसे विभिन्न विलंब रणनीति का सहारा लेते हुए प्लास्टिक उत्पादन सीमा का कड़ा विरोध किया है।
- संधि के लिये निर्णय लेने की प्रक्रिया विवादास्पद बनी हुई है, राष्ट्रों अभी भी इस बात पर सहमत नहीं हैं कि सर्वसम्मति या बहुमत मतदान से इसे अपनाने का निर्धारण किया जाना चाहिये अथवा नहीं।
- उच्च-महत्त्वाकांक्षा गठबंधन बनाम अमेरिकी रुखः
- "प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने के लिये उच्च महत्त्वाकांक्षा गठबंधन (HAC)", जिसमें अफ्रीकी राष्ट्रों और अधिकांश यूरोपीय संघ सहित लगभग 65 राष्ट्र शामिल हैं, 2040 तक प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने तथा समस्याग्रस्त एकल-उपयोग प्लास्टिक एवं हानिकारक रासायनिक योजकों को समाप्त करने जैसे महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों की वकालत करता है।
- यद्यपि अमेरिका 2040 तक प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने की इच्छा व्यक्त कर रहा है, लेकिन इसका दृष्टिकोण बाध्यकारी प्रतिबद्धताओं के बजाय स्वैच्छिक उपायों को बढ़ावा देने के दृष्टिकोण से अलग है।
- "प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने के लिये उच्च महत्त्वाकांक्षा गठबंधन (HAC)", जिसमें अफ्रीकी राष्ट्रों और अधिकांश यूरोपीय संघ सहित लगभग 65 राष्ट्र शामिल हैं, 2040 तक प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने तथा समस्याग्रस्त एकल-उपयोग प्लास्टिक एवं हानिकारक रासायनिक योजकों को समाप्त करने जैसे महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों की वकालत करता है।
- औद्योगिक हितों का प्रभावः
- जीवाश्म ईंधन और रासायनिक संगठन सक्रिय रूप से संधि की प्रभावशीलता को कम करने के लिये काम कर रहे हैं, जैसा कि पैरवीकारों की रिकॉर्ड संख्या से पता चलता है।
- ये उद्योग, जो जीवाश्म ईंधन से प्राप्त प्लास्टिक से अत्यधिक लाभ अर्जित करते हैं, उत्पादन में कटौती का विरोध करते हैं और प्लास्टिक उत्पादन की मूलभूत समस्या को स्वीकार करने के बजाय यह झूठा दावा करते हैं कि प्लास्टिक संकट पूरी तरह से अपशिष्ट प्रबंधन का मुद्दा है।
- जीवाश्म ईंधन और रासायनिक संगठन सक्रिय रूप से संधि की प्रभावशीलता को कम करने के लिये काम कर रहे हैं, जैसा कि पैरवीकारों की रिकॉर्ड संख्या से पता चलता है।
INC-4 पर भारत का दृष्टिकोण क्या है?
- प्रस्तावना और उद्देश्य:
- भारत ने " सतत् विकास के लिये राज्यों के संप्रभु अधिकारों" की पुनः पुष्टि के लिये प्रस्तावना की वकालत की।
- प्रस्तावित उद्देश्य " सतत् विकास सुनिश्चित करते हुए समुद्री वातावरण सहित प्लास्टिक प्रदूषण से मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण की रक्षा करना" है।
- भारत ने समानता, सतत् विकास और सामान्य लेकिन विभेदित ज़िम्मेदारियों जैसे सिद्धांतों को शामिल करने पर ज़ोर दिया।
- हालाँकि, सूची में मौलिक मानवाधिकार सिद्धांत शामिल नहीं हैं, जैसे स्वस्थ पर्यावरण का अधिकार और सूचना तक पहुँचने का अधिकार।
- भारत ने " सतत् विकास के लिये राज्यों के संप्रभु अधिकारों" की पुनः पुष्टि के लिये प्रस्तावना की वकालत की।
- प्लास्टिक उत्पादन पर प्रतिबंध:
- भारत प्राथमिक प्लास्टिक पॉलिमर या वर्जिन प्लास्टिक पर किसी भी सीमा का विरोध करता है, यह तर्क देते हुए कि उत्पादन में कटौती UNEA संकल्प 5/14 के दायरे से अधिक है।
- भारत इस बात पर प्रकाश डालता है कि प्लास्टिक निर्माण में उपयोग किये जाने वाले कुछ रसायन पहले से ही विभिन्न सम्मेलनों के तहत निषेध या विनियमन के अधीन हैं।
- भारत प्राथमिक प्लास्टिक पॉलिमर या वर्जिन प्लास्टिक पर किसी भी सीमा का विरोध करता है, यह तर्क देते हुए कि उत्पादन में कटौती UNEA संकल्प 5/14 के दायरे से अधिक है।
- रसायन और पॉलिमर संबंधी व्यापार
- भारत रसायनों के संबंध में निर्णय लेने के लिये वैज्ञानिक साक्ष्य द्वारा सूचित पारदर्शी और समावेशी प्रक्रिया की वकालत करता है।
- मध्यधारा उपाय:
- उत्पाद की आयु बढ़ाने के लिये बेहतर डिज़ाइन का समर्थन करते हुए टिकाऊ और कुशल प्लास्टिक उपयोग की भूमिका पर ज़ोर दिया गया है।
- अंतर्राष्ट्रीय आपूर्ति शृंखलाओं के अतिरिक्त, विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (EPR) जैसे निम्नधारा उपायों के लिये राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित दृष्टिकोण की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है।
- उत्सर्जन और विमोचन:
- भारत विनिर्माण या पुनर्चक्रण के समय उत्सर्जन और अपशिष्टों के अतिरिक्त, पर्यावरण में प्लास्टिक कचरे के रिसाव को समाप्त करने को प्राथमिकता देने की आवश्यकता पर ज़ोर देता है।
- अपशिष्ट प्रबंधन को प्राथमिकता देना:
- विनिर्माण और पुनर्चक्रण चरणों के समय हुए उत्सर्जन के अतिरिक्त, हस्तक्षेप के प्राथमिक क्षेत्र के रूप में प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन को प्राथमिकता देने का समर्थन।
- भारत, व्यापार एवं वित्तपोषण जैसे उलझे हुये मुद्दों के विषय में चिंता व्यक्त करता है, साथ ही प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के साथ-साथ व्यापक वित्तीय और तकनीकी सहायता पर ज़ोर देता है।
प्लास्टिक से संबंधित पहल कौन-सी हैं?
- वैश्विक:
- UNEP प्लास्टिक पहल:
- इसका उद्देश्य प्लास्टिक के प्रवाह को कम करके और एक चक्रीय अर्थव्यवस्था में परिवर्तन को बढ़ावा देकर वैश्विक प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करना है।
- यह प्लास्टिक के नवाचार, कटौती और पुन: उपयोग पर केंद्रित है। इसके लक्ष्यों में इस समस्या के आकार को कम करना, प्लास्टिक पुनर्चक्रण के लिये डिज़ाइन करना, पुनर्चक्रण को व्यवहार में लाना तथा प्लास्टिक कचरे का प्रबंधन करना शामिल है।
- वर्ष 2027 तक, इस पहल का लक्ष्य 45 देशों में प्लास्टिक नीतियों में सुधार करना, 500 निजी क्षेत्र के कर्मियों को पुनर्चक्रण समाधानों में सम्मिलित करना तथा इस परिवर्तन का सहयोग करने के लिये 50 वित्तीय संस्थानों को सम्मिलित करना है।
- वैश्विक पर्यटन प्लास्टिक पहल:
- इसका उद्देश्य प्लास्टिक प्रदूषण से बचने के लिये पर्यटन हितधारकों को एकजुट करना है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और संयुक्त राष्ट्र विश्व पर्यटन संगठन (UNWTO) के नेतृत्व में यह पहल प्लास्टिक कचरे को कम करने और उनके संचालन में प्लास्टिक के उपयोग में सुधार करने में संगठनों का समर्थन करती है।
- यह वर्ष 2025 तक इस पहल को निजी क्षेत्र, पर्यटन स्थलों तथा संगठनों में लागू करने के लिये प्रतिबद्ध है।
- सर्कुलर प्लास्टिक इकोनॉमी:
- 2015 में, EU ने एक सर्कुलर इकोनॉमी एक्शन प्लान बनाया, जिसमें बाद में एक सर्कुलर इकोनॉमी में प्लास्टिक प्रबंधन के लिये यूरोपीय रणनीति शामिल थी।
- यह पहल प्लास्टिक उत्पादों के पुन: उपयोग की अधिक उपयोगी विधि बनाकर तथा एकल-प्रयोग प्लास्टिक से हटकर प्लास्टिक कचरे की मात्रा को सीमित करने में सहायता करता है।
- 2015 में, EU ने एक सर्कुलर इकोनॉमी एक्शन प्लान बनाया, जिसमें बाद में एक सर्कुलर इकोनॉमी में प्लास्टिक प्रबंधन के लिये यूरोपीय रणनीति शामिल थी।
- प्लास्टिक पर प्रतिबंध:
- कई देशों ने प्लास्टिक उत्पादों पर प्रतिबंध लागू कर दिया है।
- वर्ष 2002 में बांग्लादेश पतली प्लास्टिक थैलियों पर प्रतिबंध लगाने वाला पहला देश था।
- चीन ने वर्ष 2020 में चरणबद्ध कार्यान्वयन के साथ प्लास्टिक बैग पर प्रतिबंध लागू किया।
- अमेरिका में 12 राज्यों ने एकल-उपयोग प्लास्टिक बैग पर प्रतिबंध लगा दिया है।
- यूरोपीय संघ ने जुलाई 2021 में एकल-उपयोग प्लास्टिक पर निर्देश लागू किया, जो कुछ एकल-उपयोग प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाता है जिसके लिये कई विकल्प उपलब्ध हैं, जिनमें प्लेट, कटलरी, स्ट्रॉ, बैलून स्टिक, कॉटन बड्स, विस्तारित पॉलीस्टाइन कंटेनर और ऑक्सो-डिग्रेडेबल प्लास्टिक उत्पाद शामिल हैं।
- कई देशों ने प्लास्टिक उत्पादों पर प्रतिबंध लागू कर दिया है।
- UNEP प्लास्टिक पहल:
- भारत:
- प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन (संशोधन) नियम, 2024
- प्लास्टिक निर्माण और उपयोग (संशोधन) नियम (2003)
- UNDP भारत का प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन कार्यक्रम (2018-2024)
- प्राकृत पहल
- केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) द्वारा EPR पोर्टल
- भारत प्लास्टिक समझौता
- प्रोजेक्ट रीप्लान
- स्वच्छ भारत मिशन
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने में UNEP प्लास्टिक इनिशिएटिव और सर्कुलर प्लास्टिक इकोनॉमी जैसी मौजूदा वैश्विक पहलों की प्रभावशीलता का आकलन कीजिये, उनकी मज़बूती तथा सीमाओं पर प्रकाश डालिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्सप्रश्न. पर्यावरण में मुक्त हो जाने वाली सूक्ष्म कणिकाओं (माइक्रोबीड्स) के विषय में अत्यधिक चिंता क्यों है? (2019) (a) ये समुद्री पारितंत्रों के लिये हानिकारक मानी जाती हैं। उत्तर: (a) प्रश्न. भारत में निम्नलिखित में से किसमें एक महत्त्वपूर्ण विशेषता के रूप में 'विस्तारित उत्पादक दायित्त्व' आरंभ किया गया था? (2019) (a) जैव चिकित्सा अपशिष्ट (प्रबंधन और हस्तन) नियम, 1998 उत्तर: (c) मेन्स:प्रश्न: निरंतर उत्पन्न किये जा रहे फेंके गए ठोस कचरे की विशाल मात्राओं का निस्तारण करने में क्या-क्या बाधाएँ हैं? हम अपने रहने योग्य परिवेश में जमा होते जा रहे ज़हरीले अपशिष्टों को सुरक्षित रूप से किस प्रकार हटा सकते हैं? (2018) |