भारत: आयकर टालने वालों का देश ?
सन्दर्भ
आयकर शब्द सुनते ही आपके मन में क्या आता है? यह सवाल लाज़िमी इसलिये है, क्योंकि जो आयकर देश के विकास के लिये अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है वह अधिकांशतः भारतीयों के लिये गौण महत्त्वों वाला है। 127 करोड़ भारतीयों में से आयकर देने वालों की संख्या मात्र 2.6 करोड़ है। आखिर क्या कारण है कि बड़ी संख्या में लोगों ने स्वयं को कर अदायगी के दायित्व से मुक्त रखा हुआ है? क्या भारत सच में कर चोरों का देश है या फिर हमारे कर प्रावधानों में कुछ विसंगतियाँ हैं? इस आलेख में हम इन सवालों के उत्तर ढूंढने का प्रयास करेंगे।
आँकड़ों का गणित
अधिकांशतः भारतीयों द्वारा कर चोरी का मुद्दा पहली बार वर्ष 2013-14 के बजट भाषण में तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने उठाया था, तब उन्होंने कहा था कि केवल 42 हज़ार 8 सौ भारतीयों ने यह स्वीकार किया था कि उनकी आय 1 करोड़ से अधिक है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा है कि केवल 24 लाख भारतीयों ने अपनी आय का 10 लाख रुपए से अधिक होना स्वीकार किया है। यदि इन आँकड़ों पर नज़र डालें तो यहीं प्रतीत होगा कि एक आम भारतीय ईमानदार नहीं है और कम आयकर देना और आयकर से खुद को बचाने को अपने व्यवसाय का एक अहम हिस्सा मानता है। हालाँकि, यह बात उतनी भी सत्य और सार्वभौमिक नहीं है जितनी कि प्रायः मान ली जाती है। हमारे आयकर प्रावधानों में कुछ विसंगतियाँ इस बात कि तरफ इशारा करती हैं कि आयकरदाताओं की कम संख्या का एक मुख्य कारण वे स्वयं हैं।
भारत के आयकर संबंधित प्रावधान की विसंगतियाँ
भारत में प्रति व्यक्ति सकल घरेलु उत्पाद लगभग 1 लाख रुपया है, यानी औसतन एक भारतीय एक साल में 1 लाख कमाता है। हालाँकि, भारत में आय असमानता बहुत अधिक है और इस बात को ध्यान में रखते हुए हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बहुतायत संख्या में लोग 1 लाख से कम कमाते हैं। जहाँ अधिकांश लोगों की आय 1 लाख से कम है, वहीं आयकर केवल उन्हीं को देना है जिनकी आय 2.5 लाख से अधिक है। इस तरह से जनसंख्या के एक बड़े हिस्से की आय, आयकर सीमा से कम है जो कि आयकरदाताओं की कम संख्या का मुख्य कारण है।
एनएसएसओ के एक आँकड़े के अनुसार, भारत में अधिकतम आय अर्जित करने वाले शीर्ष 20 प्रतिशत लोगों की औसत आय 95,000 रुपए है, इसका अर्थ यह हुआ कि ज़्यादा कमाने वाले भारतीय भी आयकर देने के दायित्व से नियमतः मुक्त हैं। अतः यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि भारत में आयकरदाताओं की कम संख्या, कर चोरी की प्रवृत्ति के कारण नहीं बल्कि आयकर प्रावधानों में खामियों और भारत में व्याप्त आय असामनता का प्रतिफल है।
क्या हो आगे का रास्ता ?
जब हम भारत में कर सीमा से संबंधित कमियों को आयकरदाताओं की कम संख्या की वजह मान रहे हैं तो इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि आयकर सीमा को कम करके 1 लाख रुपए कर दिया जाए, क्योंकि इससे होगा यह कि बड़ी संख्या में लोग आयकरदाता तो बन जाएंगे लेकिन 1 लाख की आय वाले व्यक्ति के आयकर से सरकार का ख़जाना नहीं भरने वाला है। विदित हो कि कृषि द्वारा अर्जित आय को आयकर से मुक्त रखा गया है जिससे बड़ी आबादी स्वत: ही कर दायरे से दूर है, साथ ही कृषिगत भूमि की बिक्री से प्राप्त लाभ को भी कर व्यवस्था से अलग रखा गया है। अतः सरकार को इस बिंदु पर सुधार करने की ज़रूरत है।
गौरतलब है कि करों के सीमित आधार की एक महत्त्वपूर्ण वजह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में दी जाने वाली विभिन्न रियायतें है। अतः सरकार को विभिन्न रियायतों में कमी लानी होगी। हालाँकि, रियायतें निवेश आकर्षित करने के क्रम में दी जाती हैं, लेकिन यह तो सुनिश्चित करना ही होगा कि रियायतें इतनी अधिक भी न हों कि आयकर का आधार ही कमज़ोर हो जाए।
निष्कर्ष
आर्थिक विकास की ज़रूरतों के मद्देनजर देश में आयकरदाताओं की संख्या और देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में आयकर राजस्व के योगदान को बढ़ाया जाना ज़रूरी है। हाल ही में प्रकाशित विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन रिपोर्टों में यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि भारत की जीडीपी में जहाँ आयकर का योगदान महज़ 0.54 फीसदी है, वहीं यह चीन में 9.7 फीसदी, अमेरिका में 11 फीसदी और ब्राज़ील में 13 फीसदी है। वस्तुत: देश की आबादी के महज़ तीन फीसदी लोग ही आयकर भरते हैं। परिणामस्वरूप आयकर देने वाले लोगों की दृष्टि से विकासशील देशों में भारत बहुत पीछे है। भारत में आय असामनता भी आयकर के आधार को कमज़ोर बनाने काम कर रही है। यदि लोग अपने व्यवसाय में काफी हद तक नकदी का प्रयोग कर रहे हैं तो यह स्वाभाविक है कि वे इससे संबंधित आँकड़ा पेश करने से परहेज़ करते हैं। विमुद्रीकरण के बाद जहाँ एक ओर कर संग्रह में उल्लेखनीय वृद्धि की सम्भावना है, वहीं सरकार को ‘आय असमानता में कमी’ और ‘कर सुधारों’ जैसे दीर्घकालिक उपायों पर भी विचार करना चाहिये।