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डेली न्यूज़

  • 19 Nov, 2024
  • 61 min read
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

प्रयोगशाला में उत्पादित मांस हेतु विनियामक ढाँचा

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI), पादप-आधारित प्रोटीन उत्पाद, संवर्द्धित प्रोटीन, ज़ूनोटिक रोग, बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू, कोविड-19, ग्रीनहाउस गैसें, पशु कोशिका, फलियाँ, पादप तेल, खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006, बायोरिएक्टर। 

मेन्स के लिये:

भारत में प्रयोगशाला में उत्पादित मांस का विनियमन। प्रयोगशाला में उत्पादित मांस संबंधी संभावनाएँ और चुनौतियाँ।

स्रोत: लाइवमिंट

चर्चा में क्यों?

भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI) प्रयोगशाला में उत्पादित मांस, डेयरी और अंडा उत्पादों के लिये एक नियामक ढाँचा तैयार करने की योजना बना रहा है। 

  • FSSAI द्वारा पादप-आधारित प्रोटीन उत्पादों को विनियमित किया जाता है लेकिन प्रयोगशाला में विकसित और किण्वन-व्युत्पन्न प्रोटीन के लिये कोई स्पष्ट विनियमन नहीं है।

प्रयोगशाला में विकसित मांस क्या है?

  • प्रयोगशाला में विकसित मांस का उत्पादन, पशुओं की हत्या से प्राप्त मांस के बजाय जीवित पशुओं की कोशिकाओं या निषेचित अंडों का उपयोग करके प्रयोगशालाओं में किया जाता है।
    • इसे संवर्द्धित मांस (Cultured meat or Cultivated meat) के नाम से भी जाना जाता है।
  • उत्पादन प्रक्रिया:
    • कोशिका निष्कर्षण: यह प्रक्रिया जीवित प्राणियों से कोशिकाओं को निकालने से शुरू होती है।
    • ग्रोन मीडियम: इसके बाद कोशिकाओं को अमीनो एसिड, फैटी एसिड, शर्करा, लवण, विटामिन और अन्य आवश्यक पोषक तत्त्वों वाले मिश्रण में रखा जाता है।
    • संवर्द्धन: ये कोशिकाएँ विकसित होकर अंततः मांसपेशी ऊतक में परिवर्तित हो जाती हैं जो पारंपरिक मांस जैसा दिखता है।
  • वर्तमान बाज़ार उपलब्धता: अमेरिका, यूरोपीय संघ, सिंगापुर और इज़रायल ने संवर्द्धित और किण्वन-व्युत्पन्न प्रोटीन के लिये विनियमन जारी किये हैं।
  • पर्यावरणीय प्रभाव: प्रयोगशाला में उत्पादित मांस को पारंपरिक मांस उत्पादन की तुलना में  अधिक पर्यावरण अनुकूल माना जाता है।
    • प्रारंभिक अध्ययनों से पता चलता है कि प्रयोगशाला में उत्पादित मांस के लिये 45% कम ऊर्जा की तथा 99% तक कम भूमि की आवश्यकता होने के साथ इससे गोमांस की तुलना में 96% तक कम ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन होता है।

वनस्पति आधारित मांस

  • परिचय: यह पौधों से निर्मित होने के साथ पारंपरिक मांस का विकल्प है। इसमें किसी भी पशु उत्पाद का उपयोग किये बिना वास्तविक पशु मांस (जैसे सॉसेज और चिकन) जैसा स्वाद एवं बनावट का निरूपण होता है।
  • सामग्री: वनस्पति आधारित मांस मुख्य रूप से सब्जियों, अनाज और फलियों से बनाया जाता है।  
    • इसके सामान्य अवयवों में प्रोटीन स्रोत जैसे टोफू, टेम्पेह, सोया और मटर के साथ ही वनस्पति तेल (जैसे, सूरजमुखी, कैनोला) एवं शाकाहारी बाइंडिंग एजेंट (जैसे, आटा, एक्वाफाबा, बीन्स) शामिल होते हैं।
  • प्रसंस्करण: वनस्पति-आधारित मांस निर्माता उत्पाद की बनावट और स्थिरता को बेहतर करने के लिये एक्सट्रूज़न और वेट टेक्सचराइज़ेशन जैसी उन्नत तकनीकों का उपयोग करते हैं।
    • ऊष्मा और यांत्रिक दबाव से पौधों के उत्पादों को मांस जैसा बनाने के साथ उनमें पशु मांस के समान रेशेदार या तंतुमय संरचना बन जाती है।

भारत में प्रयोगशाला में उत्पादित मांस को विनियमित करने की आवश्यकता क्यों है?

  • लोक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ: प्रयोगशाला में विकसित मांस को विनियमित करने से सुरक्षा और गुणवत्ता मानकों को सुनिश्चित करके बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू और कोविड-19 जैसे ज़ूनोटिक रोगों के जोखिम को कम करने में मदद मिल सकती है।
  • पारिस्थितिकीय स्थिरता: प्रयोगशाला में विकसित मांस एक धारणीय विकल्प है जिसमें कम भूमि, जल और ऊर्जा की आवश्यकता होने के साथ ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होता है। 
    • धारणीय उत्पादन सुनिश्चित करने एवं पर्यावरणीय लाभ को अधिकतम करने के लिये स्पष्ट विनियमन की आवश्यकता है।
  • बाज़ार विकास: भारत में 15 से अधिक कंपनियाँ संवर्द्धित मांस पर कार्य कर रही हैं तथा कई स्टार्ट-अप्स इन उत्पादों को लॉन्च करने एवं विनियामक अनुमोदन प्राप्त करने की तैयारी कर रही हैं।
    • उपभोक्ताओं का विश्वास बनाने और खाद्य सुरक्षा अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये प्रयोगशाला में विकसित मांस की गुणवत्ता, लेबलिंग एवं विपणन के संदर्भ में स्पष्ट मानकों की आवश्यकता है।
  • विकास की संभावना: विशेषज्ञों के अनुसार प्रयोगशाला में उत्पादित मांस द्वारा पारंपरिक पशु मांस उद्योग के बाज़ार में 10-15% की हिस्सेदारी हासिल की जा सकती है क्योंकि युवाओं के साथ पर्यावरण के प्रति अधिक जागरूक लोग इसमें अधिक रुचि दिखा सकती है।
  • नैतिक दृष्टिकोण: प्रयोगशाला में विकसित मांस (जिसे पशु हत्या के बिना पशु कोशिकाओं से तैयार किया जाता है), पारंपरिक मांस उत्पादन से संबंधित पशु क्रूरता संबंधी चिंताओं को हल करने में सहायक है।
  • वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता: चूँकि अमेरिका, यूरोपीय संघ, सिंगापुर और इज़रायल जैसे देशों में संवर्द्धित और किण्वन-व्युत्पन्न प्रोटीन के लिये पहले से ही नियामक ढाँचे मौजूद हैं, इसलिये स्पष्ट नियामक दृष्टिकोण के बिना भारत के इस उभरते उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने का खतरा है।

भारत का मांस बाज़ार

  • भारत में विश्व की सबसे बड़ी पशुधन आबादी है। 
    • भारत भैंस के मांस का सबसे बड़ा उत्पादक देश है, बकरी के मांस का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है और मुर्गी के मांस का उत्पादन करने में पाँचवें स्थान पर है। 
  • वर्ष 2022-23 में, भारत ने लगभग 2.1 मिलियन टन मवेशी, 13.6 मिलियन टन भैंस, 73.7 मिलियन टन भेड़, 9.3 मिलियन टन सूअर और 331.5 मिलियन पोल्ट्री मांस का उत्पादन किया।
  • वर्ष 2023-24 में भारत का पशु उत्पादों का निर्यात 4.5 बिलियन अमरीकी डॉलर का था, जिसमें 3.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर का भैंस का मांस, 184.58 मिलियन अमरीकी डॉलर का पोल्ट्री मांस और 77.68 मिलियन अमरीकी डॉलर का भेड़ या बकरी का मांस शामिल था।
  • भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR)-केंद्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान (CMFRI) ने प्रयोगशाला में विकसित मछली का मांस विकसित करने के लिये एक शोध परियोजना शुरू की है।

भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण

  • FSSAI खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 के तहत स्थापित एक स्वायत्त वैधानिक निकाय है।
  • वर्ष 2006 के अधिनियम में खाद्य पदार्थों से संबंधित विभिन्न कानून शामिल हैं, जैसे कि खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम, 1954, फल उत्पाद आदेश, 1955, मांस खाद्य उत्पाद आदेश, 1973 और विभिन्न मंत्रालयों और विभागों द्वारा प्रबंधित अन्य अधिनियम।
  • स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत कार्य करते हुए FSSAI भारत में खाद्य सुरक्षा तथा गुणवत्ता का विनियमन व पर्यवेक्षण करके सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा एवं प्रोत्साहन के लिये उत्तरदायी है।
  • FSSAI के अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी अधिकारी की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है। इसका अध्यक्ष भारत सरकार के सचिव के पद के सामान पर पर आसीन व्यक्ति होता है।

प्रयोगशाला में उत्पादित मांस को बढ़ावा देने में क्या चुनौतियाँ हैं?

  • नियामक अनिश्चितता: प्रयोगशाला में उत्पादित मांस के लिये स्पष्ट नियामक ढाँचे का अभाव अनिश्चितता पैदा करता है, निर्माताओं और निवेशकों को भ्रमित करता है तथा क्षेत्र के विकास में बाधा डालता है।
    • बड़े पैमाने पर उत्पादन बढ़ाना एक महत्त्वपूर्ण चुनौती बनी हुई है, क्योंकि कोई भी देश बड़े पैमाने पर उत्पादन बढ़ाने में सक्षम नहीं है।
  • आहार संबंधी प्राथमिकताएँ: भारत में भोजन की आदतें सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक कारकों से प्रभावित होती हैं, तथा कई लोग मांस एवं मांस जैसे उत्पादों से परहेज करते हैं। 
    • यद्यपि प्रयोगशाला में उत्पादित मांस का स्वाद और बनावट एक जैसी हो सकती है, लेकिन इसमें समतुल्य पोषण का अभाव होता है।
      • एक सर्वेक्षण से पता चला है कि 73% भारतीयों में प्रोटीन की कमी है, तथा 90% से अधिक लोग अपनी दैनिक प्रोटीन आवश्यकताओं से अनभिज्ञ हैं।
  • उपभोक्ता जागरूकता की कमी: प्रयोगशाला में उत्पादित मांस की अवधारणा भारत में अभी भी अपेक्षाकृत नई है। मांस खाने वाले लोग इसका उपयोग कर सकते हैं, लेकिन लंबे समय तक इसे जारी नहीं रख सकते।
  • पर्यावरणीय प्रभाव: प्रयोगशाला में उत्पादित मांस का उत्पादन अत्यधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है, तथा खुदरा मांस की तुलना में इसमें 4 से 25 गुना अधिक ऊर्जा का उपयोग होता है, जिससे इसके दीर्घकालिक पर्यावरणीय प्रभाव के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं, विशेष रूप से भारत जैसे संसाधन-सीमित देशों में।
  • पारंपरिक मांस उद्योग का प्रतिरोध: प्रयोगशाला में उत्पादित मांस को भारत के पारंपरिक मांस उद्योग का प्रतिरोध झेलना पड़ रहा है, जो इसे छोटे किसानों की आजीविका के लिये खतरा मानता है। 
    • इसके अतिरिक्त बाज़ार में इसकी स्वीकार्यता सीमित है, क्योंकि अधिकांश भारतीय उपभोक्ता इसके परिचित स्वाद, बनावट और किफायती मूल्य के कारण पारंपरिक मांस को पसंद करते हैं।

आगे की राह

  • स्पष्ट नियामक ढाँचा: FSSAI को प्रयोगशाला में उत्पादित मांस के लिये विनियमों के निर्माण को प्राथमिकता देनी चाहिये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रयोगशाला में उत्पादित मांस का उत्पादन राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मानकों और वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुरूप हो।
  • उपभोक्ता जागरूकता: प्रयोगशाला में उत्पादित मांस की सुरक्षा, पोषण मूल्य और पर्यावरणीय प्रभाव के बारे में जनता को शिक्षित करने से दृष्टिकोण बदलने तथा नई तकनीक में विश्वास पैदा करने में मदद मिल सकती है।
  • जैव प्रौद्योगिकी में अनुसंधान: जैव प्रौद्योगिकी में अनुसंधान एवं विकास में निवेश से लागत कम हो सकती है, पोषण में सुधार हो सकता है, तथा प्रयोगशाला में विकसित मांस को पारंपरिक मांस का एक दीर्घकालिक विकल्प बनाया जा सकता है।
  • पशुधन जनसंख्या का लाभ उठाना: भारत प्रयोगशाला में उत्पादित मांस को विकसित करने के लिये भैंस, बकरी और मुर्गी जैसे अपने विविध पशुधन का लाभ उठा सकता है, जिससे प्रतिस्पर्द्धात्मक बढ़त प्राप्त होगी और वैश्विक बाज़ार में एक प्रमुख अभिकर्त्ता के रूप में अपनी स्थिति बना सकेगा।
  • उत्पादन बढ़ाना: भारत को प्रयोगशाला में उत्पादित मांस उत्पादन बढ़ाने के लिये बायोरिएक्टर और सेल कल्चर सुविधाओं सहित बुनियादी ढाँचे को विकसित करने की आवश्यकता है।
    • वैश्विक जैव प्रौद्योगिकी कंपनियों के साथ सहयोग से तीव्र विस्तार के लिये आवश्यक तकनीकी विशेषज्ञता उपलब्ध हो सकती है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: प्रयोगशाला में उत्पादित मांस क्या है? भारत में प्रयोगशाला में उत्पादित मांस के लिये नियामक ढाँचे की आवश्यकता पर चर्चा कीजिये। 


शासन व्यवस्था

सिविल सेवकों के लिये आचरण नियमावली

प्रिलिम्स के लिये:

अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियमावली 1968, संवैधानिक मूल्य, अर्द्ध-न्यायिक शक्ति, अनुच्छेद 311, प्रत्यायोजित विधान। 

मेन्स के लिये:

लोकतंत्र में सिविल सेवाओं की भूमिका, सिविल सेवकों द्वारा सोशल मीडिया की सक्रियता के निहितार्थ।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में केरल में अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियमावली, 1968 (AIS नियमों) के उल्लंघन का हवाला देते हुए दो आईएएस अधिकारियों को निलंबित किया गया है। 

  • एक आईएएस अधिकारी ने अपने वरिष्ठ सहकर्मी के खिलाफ सोशल मीडिया पर अपमानजनक टिप्पणी की थी जबकि एक अन्य को कथित तौर पर धर्म आधारित व्हाट्सएप ग्रुप बनाने के लिये निलंबित किया गया।

अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियमावली, 1968 में क्या प्रावधान हैं?

  • परिचय: यह नियम आईएएस, आईपीएस और भारतीय वन सेवा अधिकारियों के आचरण में निष्पक्षता, सत्यनिष्ठा और संवैधानिक मूल्यों के पालन को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से नैतिक एवं पेशेवर मानकों के आधार हैं।
  • उल्लिखित मानक: उल्लिखित प्रमुख मानकों का सारांश इस प्रकार है।
    • नैतिक मानक: अधिकारियों को नैतिकता, सत्यनिष्ठा और ईमानदारी का पालन करना चाहिये। उनसे यह भी अपेक्षा की जाती है कि वे अपने कार्यों एवं निर्णयों में राजनीतिक रूप से तटस्थ, जवाबदेह एवं पारदर्शी बने रहें।
    • संवैधानिक मूल्यों की सर्वोच्चता: अधिकारियों को संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखना चाहिये, जिससे देश के विधिक ढाँचे के प्रति प्रतिबद्ध लोक सेवक के रूप में उनके कर्त्तव्य बने रहें।
    • लोक मीडिया में भागीदारी: अधिकारी वास्तविक पेशेवर क्षमता के संदर्भ में लोक मीडिया में भागीदारी कर सकते हैं। हालाँकि उन्हें सरकारी नीतियों की आलोचना करने के लिये ऐसे प्लेटफाॅर्मों का उपयोग करने से प्रतिबंधित किया गया है।
    • विधिक और मीडिया संबंधी दृष्टिकोण: अधिकारियों को सरकार की पूर्व स्वीकृति के बिना न्यायालय या मीडिया के माध्यम से आलोचना के अधीन आधिकारिक कार्यों का निवारण या बचाव करने की अनुमति नहीं है।
    • सामान्य आचरण: अधिकारियों को किसी भी ऐसे व्यवहार से बचना चाहिये जो उनकी सेवा के लिये "अनुचित" माना जाता हो। इससे सुनिश्चित होता है कि अधिकारी शिष्टाचार और व्यावसायिकता का उच्च मानक बनाए रखें।

AIS नियम, 1968 से संबंधित मुद्दे क्या हैं? 

  • स्पष्ट सोशल मीडिया दिशानिर्देशों का अभाव: मौजूदा नियम सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर अधिकारियों के संचार और आचरण को स्पष्ट रूप से संबोधित नहीं करते हैं।
    • डिजिटल जुड़ाव के बढ़ने से अस्पष्टता पैदा हो गई है, जिससे सीमाएँ निर्धारित करना और उचित व्यवहार लागू करना कठिन हो गया है।
  • अनुचित आचरण संबंधी खंड: "सेवा के सदस्य के लिये अनुचित आचरण" शब्द एक व्यापक, अपरिभाषित खण्ड है, जो असंगत प्रवर्तन की ओर ले जाता है तथा दुरुपयोग की संभावना उत्पन्न करता है। 
  • प्रवर्तन में शक्ति असंतुलन: इन नियमों का प्रवर्तन प्रायः वरिष्ठ अधिकारियों और सरकारी अधिकारियों के हाथों में होता है। जूनियर अधिकारी वरिष्ठों द्वारा नियमों के दुरुपयोग के प्रति संवेदनशील हो सकते हैं, जिसके लिये पक्षपात और मनमानी कार्यवाहियों के खिलाफ सुरक्षा की आवश्यकता होती है।

लोकतंत्र में सिविल सेवाओं की भूमिका क्या है?

  • नीति निर्माण: सिविल सेवक तकनीकी विशेषज्ञता और व्यावहारिक अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं जो सार्वजनिक नीति के निर्माण और निर्धारण में मदद करते हैं। 
  • नीतियों का क्रियान्वयन: सिविल सेवक विधायिका द्वारा पारित नीतियों के क्रियान्वयन के लिये ज़िम्मेदार होते हैं। इसमें कानूनों और नीतियों के व्यावहारिक अनुप्रयोग की देखरेख करना शामिल है।
  • प्रत्यायोजित विधान: सिविल सेवकों को प्रायः प्रत्यायोजित विधान के तहत विस्तृत नियम और विनियम बनाने का काम सौंपा जाता है। विधानमंडल रूपरेखा निर्धारित करता है, जबकि सिविल सेवक दैनिक सरकारी कार्यों के लिये आवश्यक विशिष्टताओं को परिभाषित करते हैं।
  • प्रशासनिक न्यायनिर्णयन: सिविल सेवकों के पास अर्द्ध-न्यायिक शक्तियाँ भी होती हैं और वे नागरिकों के अधिकारों और दायित्वों से संबंधित मामलों को सुलझाने के लिये ज़िम्मेदार होते हैं।
    • यह सार्वजनिक हित में, विशेष रूप से कमज़ोर समूहों या तकनीकी मुद्दों के लिये त्वरित, निष्पक्ष निर्णय सुनिश्चित करता है, तथा समय पर विवाद समाधान की सुविधा प्रदान करता है।
  • स्थिरता और निरंतरता: सिविल सेवक चुनाव-प्रेरित राजनीतिक परिवर्तनों के दौरान शासन में स्थिरता और निरंतरता बनाए रखते हैं, तथा नेतृत्व में बदलाव के बावजूद सुचारू नीति और प्रशासनिक प्रक्रिया सुनिश्चित करते हैं।
  • राष्ट्रीय आदर्शों के संरक्षक: सिविल सेवक राष्ट्र के आदर्शों, मूल्यों और विश्वासों के संरक्षक के रूप में कार्य करते हैं। वे राष्ट्र के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताने-बाने की सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

Foundational_Values_For_Civil_Service

अनुच्छेद 311

  • अनुच्छेद 311 (1) के अनुसार अखिल भारतीय सेवा या राज्य सरकार के किसी भी सरकारी कर्मचारी को अपने अधीनस्थ प्राधिकारी द्वारा बर्खास्त या हटाया नहीं जाएगा, जिसने उसे नियुक्त किया था।
  • अनुच्छेद 311 (2) के अनुसार, किसी भी सिविल सेवक को ऐसी जाँच के बाद ही पदच्युत किया जाएगा या पद से हटाया जाएगा अथवा रैंक में अवनत किया जाएगा जिसमें उसे अपने विरुद्ध आरोपों की सूचना दी गई है तथा उन आरोपों के संबंध में सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर प्रदान किया गया है।
  • जाँच की आवश्यकता के अपवाद (अनुच्छेद 311 (2)): निम्नलिखित परिस्थितियों में जाँच की आवश्यकता नहीं है:
    • आपराधिक दोषसिद्धि: हाँ एक व्यक्ति की उसके आचरण के आधार पर बर्खास्तगी या हटाना या रैंक में कमी की जाती है जिसके कारण उसे आपराधिक आरोप में दोषी ठहराया गया है (धारा 2(a))।
    • व्यावहारिक असंभवता: जहाँ किसी व्यक्ति को बर्खास्त करने या हटाने या उसके रैंक को कम करने के लिये अधिकृत प्राधिकारी संतुष्ट है कि किसी कारण से उस प्राधिकारी द्वारा लिखित रूप में दर्ज किया जाना है, ऐसी जाँच करना उचित रूप से व्यावहारिक नहीं है (धारा 2(b))।
    • राष्ट्रीय सुरक्षा: जहाँ राष्ट्रपति या राज्यपाल, जैसा भी मामला हो, संतुष्ट हो जाता है कि राज्य की सुरक्षा के हित में ऐसी जाँच करना उचित नहीं है (खण्ड 2(c))।

आगे की राह

  • सटीक सोशल मीडिया दिशा-निर्देश: नियमों में अधिकारियों द्वारा सोशल मीडिया के उपयोग की सीमाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिये ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि अधिकारी ज़िम्मेदार तरीके से सरकारी पहलों के बारे में सार्वजनिक संचार में शामिल हो सकें।
  • 'अनुपयुक्त आचरण' संबंधी धारा को स्पष्ट करना: अस्पष्ट शब्द "सेवा के सदस्य के लिये अनुपयुक्त" को अतीत में ऐसे उदाहरणों की सूची प्रदान करके स्पष्ट किया जा सकता है, जहाँ इस धारा के अंतर्गत कार्रवाई की गई थी।
  • जिम्मेदार गुमनामी: जनता की सेवा करते समय तटस्थ और निष्पक्ष बने रहने पर जोर दिया जा सकता है, विशेष रूप से सोशल मीडिया के युग में जहाँ विवेक से अधिक दृश्यता को प्राथमिकता दी जाती है।
  • सोशल मीडिया का विवेकपूर्ण उपयोग: अधिकारियों, विशेषकर युवा अधिकारियों को यह याद दिलाया जाना चाहिये कि यद्यपि सोशल मीडिया सरकारी पहलों को बढ़ावा देने का एक साधन है, लेकिन इसे सिविल सेवा की गरिमा और निष्पक्षता को बनाए रखना चाहिये।
    • उन्हें व्यक्तिगत राय या पक्षपातपूर्ण बयान देने से बचना चाहिये जिससे उनकी तटस्थता पर असर पड़ सकता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियम, 1968 यह कैसे सुनिश्चित करते हैं कि सिविल सेवक अपने व्यावसायिक आचरण में नैतिक मानकों को बनाए रखते हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

प्रश्न: "आर्थिक प्रदर्शन के लिये संस्थागत गुणवत्ता एक निर्णायक चालक है"। इस संदर्भ में लोकतंत्र को सुदृढ़ करने के लिये सिविल सेवा में सुधारों के सुझाव दीजिये। (2020)

प्रश्न: प्रारंभिक तौर पर भारत में लोक सेवाएँ तटस्थता और प्रभावशीलता के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये अभिकल्पित की गई थीं, जिनका वर्तमान संदर्भ में अभाव दिखाई देता है। क्या आप इस मत से सहमत हैं कि लोक सेवाओं में कड़े सुधारों की आवश्यकता है? टिप्पणी कीजिये। (2017)

प्रश्न: "पारंपरिक अधिकारीतंत्रीय संरचना और संस्कृति ने भारत में सामाजिक-आर्थिक विकास की प्रक्रिया में बाधा डाली है।" टिप्पणी कीजिये। (2016)


भारतीय अर्थव्यवस्था

कार्यबल के औपचारिकीकरण की दिशा में भारत का परिवर्तन

प्रिलिम्स के लिये:

औपचारिकता, कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, ई-श्रम पोर्टल, उद्यम पोर्टल, प्रधानमंत्री श्रम योगी मान-धन योजना, अनौपचारिक क्षेत्र, वस्तु और सेवा कर

मेन्स के लिये:

भारत में अर्थव्यवस्था का औपचारिकीकरण, भारत में सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ, सामाजिक सुरक्षा और आर्थिक स्थिरता

स्रोत: पी.आई.बी.

चर्चा में क्यों? 

भारत की अर्थव्यवस्था औपचारिकीकरण की ओर एक परिवर्तनकारी बदलाव से गुजर रही है, जिससे लाखों लोगों के लिये नौकरी संरचनाओं, रोज़गार सुरक्षा और सामाजिक लाभों को पुनर्परिभाषित किया जा रहा है, जिससे यह सुनिश्चित हो रहा है कि जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों के अंतर्गत आ सके, जिससे अधिक आर्थिक स्थिरता और अधिक सुरक्षित भविष्य प्राप्त हो सके।

कार्यबल का औपचारिकीकरण क्या है?

  • परिभाषा: कार्यबल का औपचारिकीकरण एक समतापूर्ण और लचीली भारतीय अर्थव्यवस्था के निर्माण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। 
    • यह न केवल बेहतर सामाजिक सुरक्षा और कार्य स्थितियों के माध्यम से श्रमिकों को सशक्त बनाता है, बल्कि उत्पादकता, कर अनुपालन तथा वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा जैसे आर्थिक बुनियादी तत्त्वों को भी मज़बूत करता है। 
    • औपचारिकीकरण तब होता है जब नौकरियाँ अनौपचारिक क्षेत्र (छोटे, अपंजीकृत व्यवसाय और दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी) से औपचारिक क्षेत्र (जहाँ कर्मचारियों के पास अनुबंध, नौकरी की सुरक्षा और लाभों तक पहुँच होती है) में चली जाती हैं।
  • विशेषताएँ: व्यवसाय स्पष्ट कानूनी ढाँचे के तहत संचालित होते हैं, तथा कानूनों और नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करते हैं।
    • कर राजस्व में वृद्धि, कर आधार का विस्तार और कर भार का न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित करना।
    • कर्मचारियों को सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और श्रम कानूनों के तहत लाभ मिलते हैं, जिनमें न्यूनतम मज़दूरी प्रवर्तन, सेवानिवृत्ति लाभ, पेंशन और बीमा शामिल हैं।
    • औपचारिक व्यवसायों को बैंकों और संस्थाओं से वित्तीय सेवाओं और ऋण तक आसान पहुँच प्राप्त होती है।
    • औपचारिकीकरण उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करता है, प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बढ़ाता है, और समग्र आर्थिक विकास को बढ़ावा देता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था हेतु कार्यबल औपचारिकीकरण का क्या महत्त्व है?

  • व्यापक अनौपचारिक रोज़गार: भारत का लगभग 85% कार्यबल अनौपचारिक क्षेत्र का हिस्सा है, जो औपचारिक श्रम कानूनों या सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों द्वारा संरक्षित नहीं है।
    • औपचारिकीकरण से सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और पेंशन तक बेहतर पहुँच सुनिश्चित होती है, जिससे आर्थिक झटकों के प्रति संवेदनशीलता कम होती है।
  • सटीक डेटा संग्रहण: औपचारिकीकरण से रोज़गार प्रवृत्तियों पर बेहतर डेटा संग्रहण संभव होता है, जो प्रभावी नीति-निर्माण और आर्थिक नियोजन में सहायक होता है।
  • कर राजस्व में वृद्धि: औपचारिक कार्यबल कर आधार में अधिक योगदान देता है, जिससे सरकार को सार्वजनिक सेवाओं और बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं को वित्तपोषित करने में मदद मिलती है।
  • काले धन में कमी: पारदर्शिता बढ़ेगी, धन शोधन और अवैध गतिविधियों को संचालित करना कठिन हो जाएगा।
  • डिजिटल समावेशन: औपचारिकीकरण डिजिटल उपकरणों और प्रौद्योगिकियों को अपनाने को प्रोत्साहित करता है, जिससे कार्यबल में दक्षता और पारदर्शिता में सुधार होता है।
  • निवेश का आकर्षण: एक औपचारिक कार्यबल व्यवसायों को बेहतर परिचालन वातावरण प्रदान करता है तथा घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों तरह के निवेश को प्रोत्साहित करता है।

EPFO क्या है और भारत के कार्यबल औपचारिकीकरण में इसकी भूमिका क्या है?

  • परिचय: EPFO विश्व के सबसे बड़े सामाजिक सुरक्षा संगठनों में से एक है, जो पूरे भारत में लाखों श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा लाभों की एक विस्तृत शृंखला प्रदान करता है। 
    • इसकी स्थापना कर्मचारी भविष्य निधि एवं विविध प्रावधान अधिनियम, 1952 के तहत की गई थी। 
    • EPFO 29.88 करोड़ से अधिक खातों का प्रबंधन करता है (EPFO की वार्षिक रिपोर्ट 2022-23), जो इसकी व्यापक पहुँच और इसके द्वारा संभाले जाने वाले वित्तीय लेनदेन की व्यापकता को रेखांकित करता है।
    • EPFO भारत सरकार के श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण के अधीन है।
  • EPFO के लाभ: सेवानिवृत्ति निधि, कर्मचारी डिपॉजिट-लिंक्ड बीमा (EDLI) योजना, 1976 के तहत बीमा, कर्मचारी पेंशन योजना (EPS), 1995 के माध्यम से मासिक पेंशन और आपात स्थिति, शिक्षा या घर खरीदने के लिये EPF (1952) के तहत आंशिक निकासी के माध्यम से दीर्घकालिक वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
    • कर्मचारी भविष्य निधि (EPF) योजना, 1952 आपात स्थिति, शिक्षा या घर खरीदने के लिये आंशिक निकासी की अनुमति देती है, जिससे यह एक बहुमुखी वित्तीय साधन बन जाता है।
  • औपचारिकता बढ़ाने में EPFO की भूमिका: 2017 से 2024 तक 6.91 करोड़ से अधिक सदस्य EPFO में शामिल हुए, वित्तीय वर्ष 2022-23 में रिकॉर्ड 1.38 करोड़ नए सदस्य पंजीकृत हुए। 
    • अकेले जुलाई 2024 में लगभग 20 लाख नए सदस्य जुड़े, जो मासिक पंजीकरण में लगातार वृद्धि का संकेत है। 
    • कई सदस्यों ने नौकरी बदलते समय अपनी धनराशि स्थानांतरित करने का विकल्प चुना, जिससे सामाजिक सुरक्षा लाभों तक उनकी निरंतर पहुँच सुनिश्चित हो सके।
    • नए EPFO ​​सदस्यों में से एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा युवा हैं, जिनमें से कई पहली बार नौकरी की तलाश कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त, अधिक महिला कर्मचारी EPFO ​​के साथ पंजीकरण कर रही हैं, जो अधिक समावेशी कार्यबल की ओर सकारात्मक रुझान को दर्शाता है।
    • EPFO पंजीकरण में वृद्धि भारत में औपचारिक नौकरियों की वृद्धि को दर्शाती है, जिसमें अधिक कर्मचारियों को नौकरी की सुरक्षा, सेवानिवृत्ति बचत और बीमा जैसे आवश्यक लाभों तक पहुँच प्राप्त हो रही है।

भारत में कार्यबल के औपचारिकीकरण में क्या चुनौतियाँ हैं?

  • औपचारिकता की लागत: कई MSME (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम) और छोटे व्यवसायों को कार्यबल औपचारिकता महँगी और बोझिल लगती है, क्योंकि भारत का  लगभग 80-90% कार्यबल अनौपचारिक रूप से काम करता है। छोटे व्यवसाय अनुपालन बोझ से बचने के लिये अनौपचारिकता को प्राथमिकता देते हैं।  
    • इस चुनौती पर नियंत्रण पाने के लिये अनुपालन को सरल बनाना और वित्तीय बाधाओं को कम करना महत्त्वपूर्ण होगा।
  • मौसमी कार्यबल: कृषि, निर्माण और कम वेतन वाली नौकरियों में प्रवासी और मौसमी श्रमिकों के पास प्रायः बार-बार स्थानांतरण के कारण औपचारिक अनुबंधों का अभाव होता है, दस्तावेज़ीकरण की कमी उनके औपचारिकीकरण में बाधा डालती है।
  • परिवर्तन का प्रतिरोध: अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिक लचीलेपन को प्राथमिकता देने तथा लाभों के बारे में जागरूकता की कमी के कारण औपचारिकता अपनाने के प्रति अनिच्छुक हैं।
  • डिजिटल डिवाइड:  आधार और यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (UPI) की प्रगति के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल उपकरणों तक सीमित पहुँच, औपचारिक रोज़गार में बाधक है।
    • कौशल अंतराल: अनौपचारिक श्रमिकों में प्रायः औपचारिक नौकरियों हेतु आवश्यक कौशल की कमी के साथ इन श्रमिकों के लिये पर्याप्त कौशल विकास कार्यक्रमों का भी अभाव रहता है।
  • लैंगिक असमानता: महिलाओं को औपचारिक रोज़गार में सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाओं, बाल देखभाल सेवाओं की कमी एवं कार्यस्थल पर लैंगिक पूर्वाग्रह जैसी विभिन्न बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

कार्यबल के औपचारिकीकरण से संबंधित भारत की पहल

आगे की राह

  • औपचारिकीकरण को प्रोत्साहित करना: व्यवसायों को औपचारिक क्षेत्र में संक्रमण के लिये प्रोत्साहन प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
  • वित्तीय समावेशन में सुधार: प्रधानमंत्री जन धन योजना (PMJDY) के माध्यम से बैंकिंग सेवाओं तक पहुँच का विस्तार करके एवं डिजिटल भुगतान प्रणालियों को बढ़ावा देने से अधिक व्यवसायों को औपचारिक अर्थव्यवस्था में एकीकृत करने में मदद मिलेगी।
  • शिक्षा और कौशल विकास: कौशल भारत मिशन के तहत गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण तक पहुँच में सुधार से श्रमिकों को औपचारिक रोज़गार हेतु आवश्यक कौशल से लैस किया जा सकेगा।
  • MSME को बढ़ावा देना: निधियों और बेहतर कार्यप्रणाली के माध्यम से MSME को मज़बूत करने के साथ उन्हें वैश्विक स्तर पर अधिक प्रतिस्पर्द्धी बनाने से न केवल औपचारिकीकरण को बढ़ावा मिलेगा बल्कि रोज़गार का सृजन होगा।
  • लक्षित योजनाएँ: जनजातीय श्रमिकों को औपचारिक बनाने संबंधी योजनाओं को लागू करना चाहिये। इसके साथ ही सुनिश्चित करना चाहिये कि जनजातीय श्रमिक प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना एवं प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के अंतर्गत शामिल किये जा सकें।

निष्कर्ष

औपचारिकीकरण से भारत के कार्यबल को कोविड-19 महामारी जैसे अनिश्चित समय में रोज़गार की सुरक्षा मिलती है। EPFO पंजीकरण में वृद्धि भारत की अधिक संगठित अर्थव्यवस्था की ओर प्रगति का संकेत है, जिससे लाखों लोगों के लिये सुरक्षित एवं उज्जवल भविष्य सुनिश्चित हो सकेगा।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारतीय अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने के महत्त्व पर चर्चा कीजिये। इस बदलाव से श्रमिकों एवं देश की आर्थिक स्थिरता को क्या लाभ होगा? 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

मेन्स:

प्रश्न. भारतीय अर्थव्यवस्था में वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप औपचारिक क्षेत्र में रोज़गार कैसे कम हुए? क्या बढ़ती हुई अनौपचारिकता देश के विकास के लिये हानिकारक है? (2016)


शासन व्यवस्था

भारत का सहकारिता आंदोलन

प्रिलिम्स के लिये:

NABARD, भारत सरकार अधिनियम 1919, बहु-राज्य सहकारी समिति, राज्य की नीति के निर्देशक तत्त्व, शहरी सहकारी बैंक

मेन्स के लिये:

समावेशी विकास के लिये सहकारी समितियाँ, सहकारी समितियों को मज़बूत करने हेतु सरकार के प्रयास, सहकारी आंदोलन का ऐतिहासिक विकास।

स्रोत: पी.आई.बी

चर्चा में क्यों?

भारत नवंबर 2024 में अंतर्राष्ट्रीय सहकारी गठबंधन (ICA) वैश्विक सम्मेलन की मेजबानी करने की तैयारी कर रहा है, जिसका आयोजन भारतीय किसान उर्वरक सहकारी (IFFCO) द्वारा 18 ICA सदस्य संगठनों के सहयोग से किया जाएगा। इस आयोजन का उद्देश्य सहकारी आंदोलन को बढ़ावा देना है, जिसमें 29 क्षेत्रों की 800,000 से अधिक समितियाँ शामिल हैं।

सहकारी समितियाँ क्या हैं?

  • परिचय: 
    • सहकारी समिति एक स्वैच्छिक सदस्य-स्वामित्व वाला संगठन है जिसे सामान्य आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये बनाया गया है। 
    • सहकारी समितियाँ स्व-सहायता, पारस्परिक सहायता एवं सामुदायिक कल्याण पर बल देती हैं।
  • सहकारी आंदोलन का ऐतिहासिक विकास:
    • स्वतंत्रता-पूर्व चरण: इस दौरान सहकारी सिद्धांत स्थानीय पहलों के माध्यम से अनौपचारिक रूप से अस्तित्व में थे जैसे कि चिट फंड, मद्रास में म्युचुअल-लोन एसोसिएशन और गाँव के तालाबों या जंगलों (जिसे देवराई या वनराई के रूप में जाना जाता है) जैसे संसाधनों का सामुदायिक प्रबंधन। हालाँकि इसके लिये औपचारिक कानून 20वीं शताब्दी की शुरुआत में बना।
      • मद्रास प्रेसीडेंसी में वित्तीय सहायता देने के लिये पारस्परिक ऋण संघों (जिन्हें 'निधि' के नाम से जाना जाता था) का गठन किया गया।
      • पंजाब में सभी सह-हिस्सेदारों के लाभ के लिये गाँव की भूमि की देखरेख के लिये वर्ष 1891 में एक सहकारी समिति बनाई गई थी।
      • वर्ष 1904 में सहकारी ऋण समिति अधिनियम द्वारा भारत में सहकारी समितियों को कानूनी मान्यता मिलने के साथ उनके गठन, सदस्यता, लाभ और विघटन संबंधी दिशा-निर्देश निर्धारित किये गए। हालाँकि इसके तहत गैर-ऋण एवं अन्य समितियों को शामिल नहीं किया गया।
      • भारत सरकार अधिनियम, 1919 द्वारा प्रांतों को सहकारी समितियों पर विधि बनाने का अधिकार दिया गया जिसके परिणामस्वरूप बॉम्बे सहकारी समिति अधिनियम, 1925 (जो पहला प्रांतीय सहकारी कानून था) पारित हुआ।
      • सहकारी समिति अधिनियम, 1912 के तहत विपणन, हथकरघा और कारीगर समितियों को भी शामिल किया गया। 
      • वर्ष 1914 में मैक्लेगन समिति ने केंद्र, प्रांत और ज़िला स्तर पर त्रिस्तरीय सहकारी बैंकिंग प्रणाली का प्रस्ताव रखा।
      • वर्ष 1942 में भारत ने बहु-राज्यीय सहकारी समितियों को विनियमित करने के लिये बहु-राज्य सहकारी समिति अधिनियम पारित किया तथा इसकी व्यावहारिकता के लिये केंद्र के रजिस्ट्रार की शक्तियाँ राज्य रजिस्ट्रार को सौंप दी गईं।
    • स्वतंत्रता के बाद का चरण: स्वतंत्रता के बाद भारत में आर्थिक शक्ति का विकेंद्रीकरण करने तथा सामाजिक न्याय पर ध्यान केंद्रित करते हुए आर्थिक विकास में लोक भागीदारी को बढ़ावा देने का लक्ष्य रखा गया। पहली पंचवर्षीय योजनाओं से शुरू होकर, ग्राम पंचायतों के साथ समन्वय तक, सहकारी समितियाँ पंचवर्षीय योजनाओं में प्रमुख बन गईं।
      • वर्ष 1963 में राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (NCDC) और वर्ष 1982 में स्थापित NABARD, ग्रामीण ऋण के साथ सहकारी विकास को समर्थन देने के क्रम में निर्णायक सिद्ध हुए।
      • वर्ष 1984 में भारत ने सहकारी विधियों को एकीकृत करने के क्रम में बहु-राज्य सहकारी संगठन अधिनियम पारित किया, जिसे विधिक सामंजस्य हेतु वर्ष 2002 की राष्ट्रीय सहकारी नीति द्वारा और अधिक समेकित किया गया।
        • बहु-राज्य सहकारी समितियाँ (संशोधन) अधिनियम 2023 का उद्देश्य बहु-राज्य सहकारी समितियों में पारदर्शिता और संरचनात्मक परिवर्तन को बढ़ावा देना है, जिससे सहकारी समितियों को अधिक स्वतंत्रता मिल सके।
      • 97वें संविधान संशोधन अधिनियम 2011 द्वारा सहकारी समितियाँ बनाने के अधिकार को मूल अधिकार (अनुच्छेद 19) के रूप में स्थापित किया गया।
        • सहकारी समितियों के संदर्भ में राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धांत (अनुच्छेद 43-B) में प्रावधान किया गया।
        • संविधान में एक नया भाग IX-B शामिल किया गया जिसका शीर्षक था "सहकारी समितियाँ" (अनुच्छेद 243-ZH से 243-ZT )।
        • बहु-राज्य सहकारी समितियों (MSCS) को नियंत्रित करने संबंधी विधि निर्माण हेतु संसद को अधिकार दिया गया तथा अन्य सहकारी समितियों के लिये राज्य विधानसभाओं को प्राधिकार सौंपे गए।
      • वर्ष 2021 में गठित सहकारिता मंत्रालय द्वारा आर्थिक प्रगति के प्रमुख चालक के रूप में सहकारी समितियों को समर्थन देने के क्रम में सरकार की प्रतिबद्धता को और मज़बूत किया।

भारत में सहकारी समितियों के प्रकार क्या हैं?

  • उपभोक्ता सहकारी समितियाँ: बिचौलियों को हटाकर उत्पादकों से सीधे स्रोत प्राप्त करके उचित मूल्य पर सामान उपलब्ध कराती हैं। उदाहरणार्थ, केंद्रीय भंडार
  • उत्पादक सहकारी समितियाँ: कच्चे माल और उपकरण सहित आवश्यक उत्पादन सामग्री की आपूर्ति करके छोटे उत्पादकों की सहायता करती हैं।
  • सहकारी विपणन समितियाँ: छोटे उत्पादकों को उनके उत्पाद सामूहिक रूप से बेचने में सहायता करना, उदाहरणार्थ, आनंद मिल्क यूनियन लिमिटेड (अमूल)
  • सहकारी ऋण समितियाँ: बचत और ऋण जैसी वित्तीय सेवाएँ प्रदान करती हैं, जैसे, शहरी सहकारी बैंक, ग्राम सेवा सहकारी समिति
  • सहकारी कृषि समितियाँ: छोटे किसानों को बड़े पैमाने पर कृषि का लाभ दिलाने में सहायता करना, जैसे लिफ्ट सिंचाई सहकारी समितियाँ, सहकारी समितियाँ और जल पंचायतें।
  • आवास सहकारी समिति: अपने सदस्यों के लिये भूमि अधिग्रहण और विकास करके लागत प्रभावी आवास विकल्प प्रदान करती है, उदाहरण के लिये कर्मचारी आवास समितियाँ और मेट्रोपोलिटन आवास सहकारी समिति।

भारत में सहकारिता के संबंध में कुछ हालिया विकास और प्रमुख पहल क्या हैं?

  • सहकारिता मंत्रालय की भूमिका:
    • प्रत्येक गाँव को सहकारी समितियों से जोड़ने के लिये सहकार से समृद्धि अभियान शुरू किया गया।
    • प्राथमिक कृषि ऋण समितियों (PACS) के लिये आदर्श उपनियम, ताकि प्रशासन में सुधार हो और समावेशिता बढ़े।
    • 63,000 PACS को आधुनिक बनाने और NABARD के साथ जोड़ने के लिये 2,516 करोड़ रुपए की परियोजना के माध्यम से PACS का कम्प्यूटरीकरण।
    • डेयरी, मत्स्य पालन और अनाज भंडारण जैसे विभिन्न कार्यों के लिये ग्रामीण क्षेत्रों में नए बहुउद्देशीय PACS की स्थापना।
  • सहकारिता को मज़बूत करने के लिये सरकार के प्रयास:
    • विकेंद्रीकृत अनाज भंडारण योजना: अपव्यय और परिवहन लागत को कम करने के लिये PACS स्तर पर गोदामों और कृषि-बुनियादी ढाँचे की स्थापना।
    • कृषक उत्पादक संगठनों (FPO) का गठन: बेहतर बाज़ार संपर्क के साथ किसानों को सशक्त बनाना।
    • PM भारतीय जन औषधि केंद्र: जन औषधि केंद्रों के माध्यम से सस्ती दवाएँ उपलब्ध कराने के लिये PACS का उपयोग किया जा रहा है।
    • PM-कुसुम अभिसरण: PACS सदस्यों को सिंचाई के लिये सौर पंप अपनाने में सक्षम बनाना, सतत् कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना।
  • ग्रामीण विकास और वित्तीय समावेशन पर प्रभाव:
    • वित्तीय समावेशन के लिये सहकारिताएँ: शहरी और ग्रामीण सहकारी बैंक जैसी सहकारी संस्थाएँ किफायती ऋण उपलब्ध कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, विशेष रूप से किसानों और छोटे उद्यमियों को, जो मुख्यधारा की बैंकिंग सेवाओं से वंचित हैं।
    • महिलाओं और हाशिये पर पड़े समुदायों का सशक्तिकरण: महिला सहकारी समितियाँ और ग्रामीण सहकारी समितियाँ आर्थिक अवसर पैदा करने और वंचित क्षेत्रों में जीवन स्तर में सुधार लाने पर ध्यान केंद्रित करती हैं।

भारत में सहकारिता के उदाहरण

  • HOPCOMS (बागवानी उत्पादकों की सहकारी विपणन और प्रसंस्करण सोसायटी): HOPCOMS, कृषि उत्पादों के प्रत्यक्ष विपणन के लिये वर्ष 1965 में स्थापित एक किसान सोसायटी है। इसका मुख्यालय बंगलूरू में है।
  • लिज्जत पापड़ (श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़): पापड़ उत्पादन के माध्यम से महिलाओं को सशक्त बनाने वाली एक प्रेरक महिला सहकारी संस्था
  • इंडियन कॉफी हाउस: यह भारत में एक रेस्तराँ शृंखला है जिसे कई श्रमिक सहकारी समितियों द्वारा चलाया जाता है। इस शृंखला की शुरुआत कॉफी सेस कमेटी द्वारा की गई थी, जिसका पहला आउटलेट - तब 'इंडिया कॉफी हाउस' नाम से - 1936 में चर्चगेट, बॉम्बे में खोला गया था। इसे इंडियन कॉफी बोर्ड द्वारा संचालित किया जाता था।

प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ

  • PACS ग्राम स्तरीय सहकारी ऋण समितियाँ हैं जो राज्य स्तर पर राज्य सहकारी बैंकों (SCB) की अध्यक्षता में त्रिस्तरीय सहकारी ऋण संरचना में अंतिम कड़ी के रूप में कार्य करती हैं।
  • पहला PACS 1904 में गठित किया गया था।
  • SCB से ऋण ज़िला केंद्रीय सहकारी बैंकों (DCCB) को हस्तांतरित किया जाता है, जो ज़िला स्तर पर काम करते हैं। DCCB PACS के साथ काम करते हैं, जो सीधे किसानों से निपटते हैं।
  • PACS किसानों को विभिन्न कृषि संबंधी गतिविधियों के लिये अल्पावधि एवं मध्यमावधि कृषि ऋण उपलब्ध कराती हैं।

सहकारी समितियों के समक्ष क्या चुनौतियाँ हैं?

  • शासन संबंधी चुनौतियाँ: सहकारी समितियाँ पारदर्शिता, जवाबदेही और लोकतांत्रिक निर्णय लेने की प्रक्रियाओं की कमी की चुनौतियों से जूझती हैं। 
  • वित्तीय संसाधनों तक सीमित पहुँच: कई सहकारी समितियों, विशेषकर हाशिये पर पड़े समुदायों की सेवा करने वाली समितियों को वित्तीय संसाधनों तक पहुँचने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। 
    • उनके पास प्रायः पारंपरिक वित्तीय संस्थाओं द्वारा अपेक्षित संपार्श्विक या औपचारिक दस्तावेज़ का अभाव होता है, जिससे ऋण प्राप्त करना कठिन हो जाता है।
  • सामाजिक-आर्थिक असमानताएँ और बहिष्कार: सहकारी समितियों को अक्सर समावेशिता की कमी, संरचनात्मक असमानताओं के अस्तित्व आदि से संबंधित मुद्दों का सामना करना पड़ता है।
  • अवसंरचना संबंधी बाधाएँ: अवसंरचना संबंधी बाधाएँ और कनेक्टिविटी की कमी उनकी दक्षता और प्रभावशीलता को प्रभावित करती है, जिससे पहुँच सीमित हो जाती है।
  • तकनीकी और प्रबंधकीय क्षमताओं का अभाव: प्रशिक्षण और कौशल विकास पहलों का अभाव एक और चुनौती है, जो मानव संसाधनों को पंगु बना देती है।
  • कम जागरूकता और भागीदारी: संभावित सदस्यों के बीच सहकारी मॉडल और इसके लाभों के बारे में जागरूकता की कमी उनकी भागीदारी को सीमित करती है।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप: सहकारी समितियों के कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप उनकी स्वायत्तता को कमज़ोर करता है और सदस्यों के हितों को प्रभावी ढंग से पूरा करने की उनकी क्षमता को प्रभावित करता है।

आगे की राह

  • बुनियादी ढाँचे का विकास: मूल्य शृंखलाओं को मज़बूत करने और सहकारी उत्पादों के लिये बाज़ार पहुँच बढ़ाने के लिये गोदामों, शीत भंडारण सुविधाओं और प्रसंस्करण इकाइयों जैसे बुनियादी ढाँचे के विकास में अधिक निवेश की आवश्यकता है।
  • नवप्रवर्तन केंद्र के रूप में सहकारिताएँ: सहकारिताओं की धारणा को मात्र पारंपरिक और ग्रामीण से हटाकर प्रयोग और नवप्रवर्तन के केंद्र के रूप में परिवर्तित करना।
  • सहकारी नेतृत्व वाली पर्यटन पहल: ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी संचालित पारिस्थितिकी पर्यटन और समुदाय आधारित पर्यटन पहलों का विकास करना, जिससे यात्रियों को स्थानीय संस्कृति, परंपराओं और आजीविका का अनुभव करने का अवसर मिल सके।
  • अन्य सहकारी समितियों के साथ सहयोग: वित्तीय सहकारी समितियाँ संसाधनों, विशेषज्ञता और सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करने के लिये क्रेडिट यूनियनों सहित अन्य सहकारी समितियों के साथ सहयोग कर सकती हैं। इससे कार्यकुशलता में सुधार और लागत कम करने में मदद मिल सकती है।
  • सेवाओं का विस्तार: वित्तीय सहकारी समितियाँ पारंपरिक बचत और ऋण से आगे बढ़कर निवेश उत्पादों, बीमा और वित्तीय शिक्षा को शामिल करने के लिये अपनी सेवाओं का विस्तार कर सकती हैं।

निष्कर्ष

भारत का सहकारिता आंदोलन देश की समावेशी विकास रणनीति का आधार है। वित्तीय समावेशन, सामाजिक-आर्थिक सशक्तीकरण और ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने के माध्यम से सहकारी समितियों ने असमानताओं को कम करने एवं स्थायी आजीविका को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 

दृष्टि मेन्स प्रश्न

प्रश्न: भारत के सहकारी आंदोलन के विकास एवं संबंधित चुनौतियों को बताते हुए समावेशी विकास में इसकी भूमिका का मूल्यांकन कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न: भारत में कृषि एवं संबद्ध गतिविधियों के लिये ऋण वितरण में निम्नलिखित में से किसकी हिस्सेदारी सबसे अधिक है? (2011) 

(a) वाणिज्यिक बैंक
(b) सहकारी बैंक 
(c) क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक 
(d) माइक्रोफाइनेंस संस्थाएँ

उत्तर: (a)


मेन्स:

प्रश्न: “भारतीय शासकीय तंत्र में गैर-राजकीय कर्त्ताओं की भूमिका सीमित ही रही है।” इस कथन का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2016)

प्रश्न: "गाँवों में सहकारी समिति को छोड़कर ऋण संगठन का कोई भी ढाँचा उपयुक्त नहीं होगा।" - अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण। भारत में कृषि वित्त की पृष्ठभूमि में इस कथन पर चर्चा कीजिये। कृषि वित्त प्रदान करने वाली वित्त संस्थाओं को किन बाधाओं और कसौटियों का सामना करना पड़ता है? ग्रामीण सेवार्थियों तक बेहतर पहुँच और सेवा के लिये प्रौद्योगिकी का किस प्रकार उपयोग किया जा सकता है?” (2014)


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