भारतीय राजव्यवस्था
अर्ध न्यायिक निकाय
- 13 Aug 2024
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अर्ध न्यायिक निकाय क्या हैं?
- परिचय:
- अर्ध न्यायिक निकाय गैर-न्यायिक संस्थाएँ हैं जिनके पास कानून की व्याख्या करने का अधिकार है।
- वे संगठन हैं, जैसे कि मध्यस्थता पैनल या न्यायाधिकरण बोर्ड, जो सार्वजनिक प्रशासनिक एजेंसियाँ हो सकती हैं और जिन्हें न्यायालय या न्यायाधीश के समान शक्तियाँ तथा प्रक्रियाएँ प्रदान की गई हैं।
- विशेषताएँ:
- विवादों का समाधान:
- वे मामलों में मध्यस्थता कर सकते हैं और दंड निर्धारित कर सकते हैं।
- पक्षकार न्यायपालिका के पास जाने की परेशानी से गुज़रे बिना न्याय के लिये इन निकायों से संपर्क कर सकते हैं।
- सीमित निर्णय शक्तियाँ:
- उनका अधिकार आमतौर पर विशेषज्ञता के एक विशिष्ट क्षेत्र तक सीमित होता है, जैसे वित्तीय बाज़ार, रोज़गार कानून, सार्वजनिक मानक, आव्रजन या विनियमन उदाहरण के लिये, कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण कॉर्पोरेट कंपनियों के शासन और कामकाज से संबंधित मामलों का फैसला करता है।
- पूर्व निर्धारित नियम:
- अर्ध-न्यायिक निकायों के निर्णय और फैसले अक्सर पूर्व निर्धारित नियमों पर निर्भर होते हैं।
- उनके निर्णय मौजूदा कानून के निष्कर्षों पर आधारित होते हैं।
- दंड देने का अधिकार:
- उनके पास अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले मामलों में दंड देने का अधिकार है, जैसे भारत में उपभोक्ता न्यायालय उपभोक्ता विवादों से निपटता है और अवैध गतिविधियों में लिप्त कंपनी को दंडित करता है।
- न्यायिक समीक्षा:
- इन निकायों द्वारा जारी किये गए निर्णयों को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है तथा न्यायपालिका का निर्णय सर्वोच्च होता है।
- गैर-न्यायिक प्रमुख:
- न्यायपालिका के विपरीत, जिसका नेतृत्व न्यायाधीश करते हैं, इन निकायों का नेतृत्व वित्त, अर्थशास्त्र और कानून जैसे क्षेत्रों के विशेषज्ञ करते हैं।
- विवादों का समाधान:
- अधिकार:
- सुनवाई का संचालन: वे साक्ष्य एकत्र करने और गवाहों की गवाही सुनने के लिये सुनवाई का संचालन कर सकते हैं।
- तथ्यात्मक निर्धारण: अर्द्ध-न्यायिक प्राधिकारी सुनवाई में प्रस्तुत साक्ष्य के आधार पर प्रासंगिक तथ्यात्मक निर्धारण कर सकते हैं।
- कानून लागू करना: वे अपने द्वारा निर्धारित तथ्यों पर कानून लागू कर सकते हैं और संबंधित पक्षों के कानूनी अधिकारों, कर्त्तव्यों या विशेषाधिकारों के संबंध में निर्णय ले सकते हैं।
- आदेश या निर्णय जारी करना: वे ऐसे आदेश या निर्णय जारी कर सकते हैं जिनका कानूनी बल हो, जैसे किसी पक्ष को हर्ज़ाना देने या कुछ शर्तों का पालन करने के लिये बाध्य करना।
- निर्णयों को लागू करना: वे अपने निर्णयों को लागू करने के लिये कदम उठा सकते हैं, जैसे कि गैर-अनुपालन हेतु ज़ुर्माना या अन्य दंड लगाना।
- लाभ:
- लागत प्रभावी: पारंपरिक अदालतों की तुलना में न्यायाधिकरण अधिक लागत प्रभावी हैं, जो लोगों को न्याय पाने और अपनी शिकायतों को हल करने के लिये प्रोत्साहित करते हैं।
- परेशानी मुक्त: वे सुलभ हैं, तकनीकी जटिलताओं से मुक्त हैं और वे विशेषज्ञ पर्यवेक्षण के तहत अधिक तेज़ी से और कुशलतापूर्वक आगे बढ़ते हैं।
- न्यायिक कार्यभार में कमी: कई मामलों पर निर्णय लेने वाले न्यायाधिकरण न्यायपालिका के कार्यभार को कम करते हैं, उदाहरण के लिये राष्ट्रीय हरित अधिकरण पर्यावरण और प्रदूषण से संबंधित मामलों पर निर्णय देता है।
- शीघ्र न्याय: वे विशेषज्ञता, केंद्रित क्षेत्राधिकार और कम औपचारिकताओं के माध्यम से शीघ्र न्याय प्रदान करते हैं।
- भारत में महत्त्वपूर्ण अर्द्ध-न्यायिक निकायों की सूची:
- भारतीय निर्वाचन आयोग (ECI):
- अपने अर्द्ध-न्यायिक क्षेत्राधिकार के एक भाग के रूप में, भारतीय निर्वाचन आयोग मान्यता प्राप्त दलों के अलग-अलग समूहों के बीच विवादों का निपटारा करता है।
- इसमें ऐसे अभ्यर्थी को अयोग्य घोषित करने की शक्ति है जो विधि द्वारा निर्धारित समय और तरीके से अपने चुनाव व्यय का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने में विफल रहता है।
- आयकर अपीलीय अधिकरण (ITAT):
- यह आयकर प्राधिकारियों के आदेशों के विरुद्ध अपील दायर करने हेतु एक अर्द्ध-न्यायिक प्राधिकरण है।
- आयकर विभाग, आयकर आयुक्त (अपील) द्वारा पारित किसी भी आदेश के विरुद्ध आयकर अपीलीय अधिकरण के समक्ष अपील दायर कर सकता है।
- बौद्धिक संपदा अपील बोर्ड (IPAB):
- बौद्धिक संपदा अपील बोर्ड (Intellectual Property Appellate Board- IPAB) कॉपीराइट पंजीकरण, कॉपीराइट असाइनमेंट तथा जनता से छिपाए गए कार्यों हेतु लाइसेंस प्रदान करने से संबंधित विवादों पर निर्णय लेने के लिये ज़िम्मेदार है।
- यह कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अंतर्गत अपने समक्ष लाए गए अन्य विविध मामलों की भी सुनवाई करता है।
- दूरसंचार विवाद निपटान एवं अपीलीय न्यायाधिकरण (TDSAT):
- TDSAT, दूरसंचार क्षेत्र में लाइसेंसकर्त्ता, लाइसेंसधारी तथा उपभोक्ता समूह से संबंधित विवादों का निपटारा करता है।
- वर्ष 2004 में प्रसारण मामलों को शामिल करने के लिये TDSAT के अधिकार क्षेत्र का विस्तार किया गया।
- वित्त अधिनियम, 2017 के माध्यम से TDSAT के अधिकार क्षेत्र को एयरपोर्ट टैरिफ तथा साइबर मामलों तक बढ़ा दिया गया।
- राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (NHRC):
- NHRC के पास एक सिविल न्यायालय की शक्तियाँ हैं।
- यह मानवाधिकार उल्लंघन के मामले में किसी भी दस्तावेज़ की मांग कर सकता है तथा किसी भी व्यक्ति को सम्मन भेज सकता है।
- मानवाधिकार उल्लंघन के मामले में इसकी सिफारिशें दो प्रकार की हैं अर्थात् पीड़ित को राहत और दोषियों को सज़ा।
- केंद्रीय सूचना आयोग (CIC):
- CIC ,सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के अंतर्गत सार्वजनिक प्राधिकरणों द्वारा लिये गए निर्णयों के विरुद्ध शिकायतों और अपीलों की सुनवाई के लिये अंतिम अपीलीय प्राधिकारी के रूप में कार्य करता है।
- भारतीय निर्वाचन आयोग (ECI):
न्यायिक तथा अर्ध-न्यायिक निकायों के बीच अंतर:
आधार |
न्यायिक निकाय |
अर्ध-न्यायिक निकाय |
प्राधिकार |
यह एक न्यायालय है जिसके पास कानून की व्याख्या करने और उसे लागू करने, मामलों की सुनवाई करने तथा निर्णय देने एवं निर्णयों को लागू करने का अधिकार है। |
यह एक एजेंसी या न्यायाधिकरण है जो न्यायालय की तरह कार्य करता है, विवादों का निपटारा करने के साथ निर्णयों को लागू करता है। |
स्वतंत्रता |
यह सरकार की कार्यकारी एवं विधायी शाखाओं से स्वतंत्र है और साथ ही कानून का शासन को बनाए रखने के लिये भी ज़िम्मेदार है। |
यह पूर्ण न्यायालय नहीं है और साथ ही इसकी स्वतंत्रता भी कम है। सरकार की कार्यकारी एवं विधायी शाखाओं का इस पर अधिक नियंत्रण होता है। |
अधिकार क्षेत्र |
उनके पास सिविल तथा आपराधिक मामलों सहित विभिन्न प्रकार के मामलों की सुनवाई करने का अधिकार है। |
उनका अधिकार क्षेत्र सीमित है और वे केवल उन्हीं मामलों की सुनवाई कर सकते हैं जो उनकी विशेषज्ञता या विषय-वस्तु के विशिष्ट क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। |
निर्णय लेने का आधार |
उनके पास नई कानूनी मिसाल कायम करने की शक्ति है जिसका उपयोग भविष्य के मामलों में किया जा सकता है। |
उनके निर्णय विशिष्ट मामले पर विद्यमान कानूनों को लागू करने तक सीमित होते हैं। |
न्यायाधीश |
इसमें सरकार द्वारा नियुक्त न्यायाधीश या न्यायिक मजिस्ट्रेट शामिल होते हैं। |
इसमें सरकार द्वारा या किसी विशेष एजेंसी द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों एवं विशेषज्ञों का एक संयोजन शामिल हो सकता है। |
कठोरता |
ये प्रायः अधिक औपचारिक होते हैं और प्रक्रिया के कठोर नियमों का पालन करते हैं। |
हालाँकि ये न्यायिक निकाय की अपेक्षा कम औपचारिक होते हैं किंतु फिर भी ये निर्धारित प्रक्रियाओं और साक्ष्य के नियमों का पालन करते हैं। |
अर्द्ध-न्यायिक निकायों से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?
- सीमित जनशक्ति: प्रायः इन निकायों में कर्मचारियों की संख्या कम होती है और मामले अधिक होते हैं, जिससे शीघ्र न्याय प्रदान करना मुश्किल हो जाता है।
- अपील तंत्र: अधिकरणों के विनिश्चय और लिये गए निर्णयों को प्रायः न्यायालयों में चुनौती दी जाती है, जिससे अर्द्ध-न्यायिक निकाय का प्रयोजन कमज़ोर होता है।
- झूठे मामले: हालाँकि अधिकरणों की कम लागत लोगों को न्याय पाने के लिये प्रोत्साहित करती है किंतु इसके परिणामस्वरूप कई ऐसे दावे भी दायर होते हैं जो निराधार होते हैं।
- एकरूपता का अभाव: विभिन्न निकायों में मौजूद प्रक्रियाओं और मानक की असंगतता से एकरूपता का अंतराल बढ़ता है तथा अप्रत्याशितता उत्पन्न होती है।
आगे की राह
- कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि: मामलों के कुशलतापूर्वक निपटान के लिये इन निकायों में कर्मियों की अधिक निक्युक्ति करने की आवश्यकता है। इसमें न्यायाधीश, क्लर्क और सहायक कर्मचारी शामिल हैं।
- अपील हेतु स्पष्ट दिशा-निर्देश: तुच्छ चुनौतियों को कम करने के उद्देश्य से कब और किस प्रकार निर्णयों की अपील की जा सकती है, इसके संबंध में स्पष्ट दिशा-निर्देश तथा मानदंड स्थापित करने की आवश्यकता है।
- स्क्रीनिंग तंत्र: कार्यवाही को आगे बढ़ने से पहले आधारहीन दावों की पहचान करने और उन्हें प्रतिच्छादित (Filter) करने के लिये शुरुआत में ही स्क्रीनिंग (छानबीन करना अथवा छाँटना) प्रक्रियाएँ क्रियान्वित करने की आवश्यकता है। प्रणाली के दुरुपयोग की रोकथाम करने हेतु झूठे अथवा तुच्छ मामले दर्ज करने वालों के लिये दंड निर्धारित कर उनका क्रियान्वन किया जाना चाहिये।
- मानकीकृत प्रक्रियाएँ: निकायों में संगतता/सामंजस्य सुनिश्चित करने के लिये सभी अर्द्ध-न्यायिक निकायों में मानकीकृत प्रक्रियाएँ और दिशा-निर्देश तैयार कर उन्हें क्रियान्वित करने की आवश्यकता है।
- अंतर-निकाय समन्वय: सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करने और प्रक्रियाओं में सामंजस्य स्थापित करने के लिये विभिन्न अर्द्ध-न्यायिक निकायों में समन्वय तथा संचार को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
- केस प्रबंधन प्रणाली: मामलों को कुशलतापूर्वक ट्रैक करने और प्रशासनिक देरी को कम करने हेतु मामले के प्रबंधन के लिये उन्नत प्रणाली क्रियान्वित करने की आवश्यकता है।
- नियमित अंकेक्षण: निकोयों के निष्पादन का आकलन करने और संभावित सुधार की पहचान करने के लिये अर्द्ध-न्यायिक निकायों का नियमित अंकेक्षण तथा मूल्यांकन किया जाना चाहिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न: अर्द्ध-न्यायिक (न्यायिकवत्) निकाय से क्या तात्पर्य है? ठोस उदाहरणों की सहायता से स्पष्ट कीजिये। (2016) प्रश्न: भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एन.एच.आर.सी.) सर्वाधिक प्रभावी तभी हो सकता है, जब इसके कार्यों को सरकार की जवाबदेही को सुनिश्चित करने वाले अन्य यांत्रिकत्वों (मकैनिज़्म) का पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो। उपरोक्त टिप्पणी के प्रकाश में, मानव अधिकार मानकों की प्रोन्नति करने और उनकी रक्षा करने में, न्यायपालिका तथा अन्य संस्थानों के प्रभावी पूरक के तौर पर एन.एच.आर.सी. की भूमिका का आकलन कीजिये। (2014) प्रश्न: यद्यपि मानवाधिकार आयोगों ने भारत में मानव अधिकारों के संरक्षण में काफी हद तक योगदान दिया है, फिर भी वे ताकतवर और प्रभावशालियों के विरुद्ध अधिकार जताने में असफल रहे हैं। इनकी संरचनात्मक और व्यावहारिक सीमाओं का विश्लेषण करते हुए, सुधारात्मक उपायों के सुझाव दीजिये। (2021) प्रश्न: “केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण जिसकी स्थापना केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों द्वारा या उनके विरुद्ध शिकायतों एवं परिवादों के निवारण हेतु की गई थी, आजकल एक स्वतंत्र न्यायिक प्राधिकरण के रूप में अपनी शक्तियों का प्रयोग कर रहा है।” व्याख्या कीजिये (2019) प्रश्न: आप इस मत से कहाँ तक सहमत हैं कि अधिकरण सामान्य न्यायालयों की अधिकारिता को कम कर सकते हैं? उपर्युक्त को दृष्टिगत रखते हुए भारत में अधिकरणों की संवैधानिक वैधता तथा सक्षमता की विवेचना कीजिये। (2018) |