कृषि
कृषि स्थिरता में CSR का योगदान
प्रिलिम्स के लिये:कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR), लघु और सीमांत किसान, उर्वरक, सिंचाई प्रणाली, चक्रवात, पशुपालन, परिशुद्ध कृषि, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बायोगैस, आनुवंशिक रूप से संशोधित जीव (GMO), अनाज बैंक, जल संरक्षण, कंपनी अधिनियम, 2013, NGO, कंपनियाँ (CSR नीति) नियम, 2014, आपूर्ति शृंखला। मेन्स के लिये:कृषि के विकास में कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) की भूमिका। |
स्रोत: TH
चर्चा में क्यों?
बढ़ते योगदान के साथ इस बात पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है कि किस प्रकार कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (Corporate Social Responsibility- CSR) भारतीय कृषि को आर्थिक रूप से व्यवहार्य और पारिस्थितिक रूप से टिकाऊ बनाने में सहायता कर सकता है।
कृषि में CSR की आवश्यकता क्यों है?
- कृषि पर उच्च निर्भरता: भारत की लगभग 47% आबादी रोज़गार के लिये कृषि पर निर्भर है, जबकि वैश्विक औसत 25% है।
- लघु और सीमांत किसान: 70% से अधिक ग्रामीण परिवार अपनी जीविका के लिये मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर हैं। इनमें से 82% किसान लघु और सीमांत किसान हैं।
- वित्त तक खराब पहुँच: उच्च ब्याज दरें और औपचारिक ऋण स्रोतों की कमी के कारण किसान अक्सर आवश्यक उपकरण, बीज तथा उर्वरक खरीदनें में असमर्थ होते हैं, जिससे उनकी वृद्धि एवं उत्पादकता सीमित हो जाती है।
- बाज़ार संपर्कों का निर्माण: अपर्याप्त भंडारण सुविधाएँ, परिवहन और सिंचाई प्रणालियों जैसी खराब ग्रामीण अवसंरचना के कारण फसल-उपरांत नुकसान, अकुशल आपूर्ति शृंखलाएँ और बाज़ारों तक पहुँच में कमी आती है।
- पर्यावरणीय चुनौतियाँ: अप्रत्याशित मौसम पैटर्न के कारण फसलें बर्बाद होती हैं, पशुधन की हानि होती है तथा बाढ़, सूखा और चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है।
- मृदा क्षरण: अनुचित सिंचाई पद्धतियों और रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से मृदा क्षरण हुआ है, जिससे मृदा की उर्वरता कम हुई है, फसल की पैदावार कम हुई है और पर्यावरण को नुकसान पहुँचा है।
- जल की कमी: जल की कमी से फसल उत्पादन और पशुपालन दोनों को खतरा है, जिससे सिंचाई और जल प्रबंधन एक गंभीर मुद्दा बन गया है।
कृषि में CSR कैसे मदद कर सकता है?
- तकनीकी नवाचार: CSR पहल से उन्नत प्रौद्योगिकियों जैसे सेंसर, ड्रोन, ग्लोबल पोज़िशनिंग सिस्टम (GPS) और डेटा एनालिटिक्स को परिशुद्ध कृषि में एकीकृत करने में मदद मिल सकती है।
- इससे किसानों को अधिक कुशल और सतत् कृषि के लिये सिंचाई, उर्वरक, कीट नियंत्रण और फसल स्वास्थ्य को अनुकूलित करने में मदद मिलेगी।
- वित्तीय पहुँच: कंपनियाँ किफायती वित्तपोषण और ऋण तक पहुँच को सुगम बनाने के लिये कम ब्याज दर पर ऋण और सब्सिडी प्रदान करने हेतु वित्तीय संस्थानों के साथ सहयोग कर सकती हैं।
- नवीकरणीय ऊर्जा: CSR कृषि कार्यों में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और बायोगैस जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को प्रोत्साहित कर सकता है, जो पर्यावरण के अनुकूल तथा सतत् कृषि पद्धतियों में योगदान दे सकता है।
- जैव प्रौद्योगिकी और GMO: CSR प्रयास जैव प्रौद्योगिकी तथा आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों (Genetically Modified Organisms- GMO) के विकास को बढ़ावा दे सकते हैं, जिससे फसलें कीटों, बीमारियों एवं तनाव के प्रति अधिक प्रतिरोधी बन सकती हैं, पैदावार बढ़ा सकती हैं, कीटनाशकों के उपयोग को कम कर सकती हैं व खाद्य सुरक्षा में सुधार कर सकती हैं।
- किसानों को सशक्त बनाना: ज्ञान, कौशल निर्माण कार्यक्रमों और आधुनिक कृषि पद्धतियों के व्यावहारिक अनुभव तक पहुँच प्रदान करके, किसानों को उत्पादकता बढ़ाने तथा जोखिम कम करने के लिये बेहतर ढंग से सुसज्जित किया जा सकता है।
- बेहतर बाज़ार पहुँच: CSR किसानों को मूल्य शृंखलाओं में एकीकृत करके बाज़ार संपर्क बनाने में मदद कर सकता है, यह सुनिश्चित कर सकता है कि उन्हें अपने उत्पादों के लिये उचित मूल्य मिले, तथा उन्हें बड़े और अधिक आकर्षक बाज़ारों तक पहुँच बनाने में सक्षम बना सके।
नोट: "पर्यावरण और स्थिरता" कंपनियों के लिये दूसरी प्राथमिकता है, जबकि स्वास्थ्य सेवा, जल, सफाई और स्वच्छता सर्वोच्च प्राथमिकता है।
- CSR समर्थित पहलों के उदाहरणों में अनाज बैंक, किसान स्कूल, जल संरक्षण और ऊर्जा-कुशल सिंचाई शामिल हैं।
कृषि में CSR कार्यान्वयन से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?
- कोई स्पष्ट सीमांकन नहीं: कृषि से संबंधित CSR गतिविधियों को स्पष्ट रूप से सीमांकित एवं सुपरिभाषित नहीं किया गया है।
- कंपनी अधिनियम, 2013 की अनुसूची VII के तहत कृषि स्थिरता को लक्षित करने वाली गतिविधियाँ CSR के 29 विकास क्षेत्रों में से 11 के अंतर्गत आ सकती हैं। जैसे लैंगिक समानता, निर्धनता, प्रौद्योगिकी इनक्यूबेटर, पशु कल्याण आदि।
- अल्पकालिक फोकस: CSR कार्यक्रमों के तहत अक्सर अल्पकालिक लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है जबकि कृषि में लक्षित उद्देश्य प्राप्त करने के लिये दीर्घकालिक निवेश एवं निरंतर समर्थन की आवश्यकता होती है।
- सामाजिक प्रभाव का मापन: कृषि में CSR के सामाजिक प्रभाव को मापना अक्सर कठिन (विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में) होता है।
- CSR परियोजनाओं के कारण किसानों की आय, आजीविका या कल्याण में सुधार का मूल्यांकन व्यक्तिपरक एवं जटिल हो सकता है।
- व्यावसायिक लक्ष्यों के साथ समन्वित न होना: कई कंपनियों को कृषि में CSR को अपनी व्यावसायिक रणनीतियों के साथ इस तरह से एकीकृत करना मुश्किल लग सकता है जो पारस्परिक रूप से लाभकारी हो। उदाहरण के लिये, कॉस्मेटिक कंपनियों को खेती के तरीकों में निवेश करने के प्रति कम रूचि हो सकती है।
- कृषि के प्रति अज्ञानता: CSR वित्तपोषण में शिक्षा और स्वास्थ्य का प्रभुत्व होने से कृषि संबंधी पहलों पर सीमित ध्यान दिया जा रहा है।
- इसके अलावा CSR फंड की काफी मात्रा को पीएम केयर्स फंड जैसे अन्य उद्देश्यों के लिये इस्तेमाल किया जाता है, जिससे विशिष्ट क्षेत्रों में CSR व्यय में कमी आती है।
- असंतुलित दृष्टिकोण: CSR पहल के तहत अक्सर कृषि के अलग-अलग पहलुओं पर असंतुलित ध्यान दिया जाता है, जैसे प्रशिक्षण एवं प्रौद्योगिकी प्रदान करना लेकिन जलवायु परिवर्तन, बाजार पहुँच और वित्तपोषण जैसी व्यापक चुनौतियों को नज़रअंदाज़ करना।
- उपयुक्त NGOs का अभाव: निगमों को अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे NGOs खोजने में कठिनाई होती है जो उनके CSR उद्देश्यों के अनुरूप हों, जिसके परिणामस्वरूप परियोजना कार्यान्वयन के लिये सही साझेदारों की पहचान करने में चुनौतियाँ आती हैं।
- CSR खर्च में असमानता: CSR फंड का प्रमुख भाग (30% से अधिक) महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और तमिलनाडु जैसे औद्योगिक राज्यों में केंद्रित है। इससे कम विकसित क्षेत्रों के लिये कम धन उपलब्ध हो पाता है।
- अकुशल आबंटन: कई कंपनियाँ अपने CSR प्रयासों को उन क्षेत्रों पर केंद्रित करती हैं जहाँ उनका पहले से ही परिचालन है या उस क्षेत्र से संबंध है। इससे रणनीतिक रूप से सबसे अधिक ज़रूरत वाले क्षेत्रों में धन का उपयोग सीमित रह जाता है।
CSR क्या है?
- परिचय: CSR के तहत कंपनियाँ स्वेच्छा से सामाजिक, पर्यावरणीय और नैतिक चिंताओं को दूर करने के क्रम में पहल करती हैं।
- इसमें पर्यावरणीय स्थिरता, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा एवं स्वास्थ्य देखभाल आदि शामिल हैं।
- भारत का CSR अधिदेश: भारत वर्ष 2013 में कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 135 के अंतर्गत CSR को विधिक रूप से अनिवार्य बनाने वाला पहला देश बन गया।
- वर्ष 2014 से 2023 तक 1.84 लाख करोड़ रुपए का CSR फंड वितरित किया गया।
- विधायी ढाँचा: भारत में CSR की अवधारणा कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 135, कंपनी अधिनियम, 2013 की अनुसूची VII और कंपनी (CSR नीति) नियम, 2014 से संबंधित है।
- 1 अप्रैल 2014 से कुछ कंपनियों के लिये CSR एक अनिवार्य आवश्यकता है।
- CSR मानदंड: CSR प्रावधान उन कंपनियों पर लागू होते हैं जो विगत वित्तीय वर्ष में निम्नलिखित मानदंडों में से किसी एक को पूरा करती हैं: 5 अरब रुपए से अधिक की शुद्ध संपत्ति, 10 अरब रुपए से अधिक का कारोबार या 50 मिलियन रुपए से अधिक का शुद्ध लाभ।
- ऐसी कंपनियों को पिछले तीन वर्षों के अपने शुद्ध लाभ का न्यूनतम 2% CSR गतिविधियों पर खर्च करना होता है।
- तीन वर्ष से कम अवधि की परिचालन अवधि वाली नवगठित कंपनियों के संदर्भ में उपलब्ध वर्षों के औसत शुद्ध लाभ पर विचार किया जाता है।
- राष्ट्रीय CSR डेटा पोर्टल: यह कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय द्वारा CSR से संबंधित डेटा और सूचना प्रसारित करने की एक पहल है।
- CSR गतिविधियाँ: कंपनियाँ अपनी CSR नीतियों में निम्नलिखित गतिविधियों को शामिल कर सकती हैं, जैसा कि अनुसूची VII में निर्दिष्ट है।
आगे की राह
- स्पष्ट परिभाषा: कृषि CSR पहलों के लिये एक अलग क्षेत्र की स्थापना से संसाधनों को अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग करने में सहायता मिलेगी और यह सुनिश्चित होगा कि निधियां सीधे क्षेत्र के विकास में योगदान दे रही हैं।
- वित्तीय समावेशन: किसानों को किफायती वित्तीय सेवाओं तक पहुँच प्रदान करके, CSR उन्हें गुणवत्तापूर्ण इनपुट में निवेश करने, नई प्रौद्योगिकियों को अपनाने और पर्यावरणीय चुनौतियों के प्रति उनकी लचीलापन बढ़ाने के लिये सशक्त बना सकता है।
- आपूर्ति शृंखला स्थिरता: कृषि कई उद्योगों की आपूर्ति शृंखलाओं जैसे खाद्य, वस्त्र और फार्मास्यूटिकल्स का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। CSR के माध्यम से संधारणीय कृषि पद्धतियों में निवेश करके कंपनियाँ अपनी आपूर्ति शृंखलाओं की दीर्घकालिक स्थिरता सुनिश्चित करने में सहायता करती हैं।
- प्रतिस्पर्धात्मक लाभ: जल संरक्षण, परिशुद्ध कृषि और नवीकरणीय ऊर्जा उपयोग जैसी कृषि चुनौतियों का समाधान करके कंपनियाँ नई प्रौद्योगिकियों या सेवाओं का विकास कर सकती हैं जो उन्हें प्रतिस्पर्धियों से अलग बनाती हैं।
- व्यावसायिक लक्ष्यों के साथ संरेखण: कंपनियाँ CSR कार्यक्रमों को अपने मूल मूल्यों के साथ संरेखित कर सकती हैं, जैसे खाद्य कंपनियाँ संधारणीय कृषि का समर्थन करती हैं और प्रौद्योगिकी कंपनियाँ कृषि प्रौद्योगिकी में निवेश करती हैं, जिससे उनके व्यवसाय एवं क्षेत्र दोनों को लाभ होता है।
- समतामूलक विकास: कंपनियों को अपने CSR प्रयासों को कृषि संबंधी चुनौतियों वाले क्षेत्रों की ओर निर्देशित करना चाहिये, भले ही वे वहाँ परिचालन न करती हों, ताकि व्यापक और अधिक समतामूलक विकास को बढ़ावा दिया जा सके।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. कृषि स्थिरता को बढ़ावा देने में सीएसआर की भूमिका और इसके कार्यान्वयन में आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. पंजीकृत विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों द्वारा उन विदेशी निवेशकों को, जो स्वयं को सीधे पंजीकृत कराए बिना भारतीय स्टॉक बाज़ार का हिस्सा चाहते हैं, निम्नलिखित में से क्या जारी किया जाता है? (2019) (a) जमा प्रमाण-पत्र (b) वाणिज्यिक पत्र (c) वचन-पत्र (प्रॉमिसरी नोट) (d) सहभागिता पत्र (पार्टिसिपेटरी नोट) उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न: समावेशी विकास की रणनीति को ध्यान में रखते हुए, नए कंपनी बिल 2013 ने 'सामूहिक सामाजिक उत्तरदायित्व' को अप्रत्यक्ष रूप से अनिवार्य कर्त्तव्य बना दिया है। इसके गंभीरता से पालन कराने में अपेक्षित चुनौतियों की विवेचना कीजिये। इस बिल की अन्य व्यवस्थाओं और उनकी उलझनों की भी चर्चा कीजिये। (2013) |
भारतीय राजनीति
राज्य वित्त आयोग
प्रिलिम्स के लिये:राज्य वित्त आयोग, संवैधानिक निकाय, अनुच्छेद 243-I, 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 1992, पंचायती राज संस्थान (PRIs), शहरी स्थानीय निकाय (ULBs), 15वाँ वित्त आयोग (2021-26), वित्त आयोग, नगर पार्षद, अनुच्छेद 280, भारत की संचित निधि, राज्य की संचित निधि, 16वाँ वित्त आयोग। मेन्स के लिये:वित्तीय विकेंद्रीकरण में राज्य वित्त आयोगों की भूमिका। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
पंचायती राज मंत्रालय के अनुसार, अरुणाचल प्रदेश को छोड़कर सभी राज्यों ने राज्य वित्त आयोग (SFC) का गठन किया है।
- 15 वें वित्त आयोग ने अपनी रिपोर्ट में राज्य वित्त आयोगों के गठन में हो रही देरी पर चिंता व्यक्त की।
राज्य वित्त आयोगों (SFCs) के बारे में मुख्य बिंदु क्या हैं?
- परिचय: राज्य वित्त आयोग भारतीय संविधान के अनुच्छेद 243-I के तहत राज्यों द्वारा स्थापित संवैधानिक निकाय हैं।
- अनुच्छेद 243-I के अनुसार, राज्यपाल को 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के अधिनियमित होने के एक वर्ष के अंदर तथा उसके बाद प्रत्येक पाँच वर्ष में राज्य वित्त आयोग का गठन करना आवश्यक होगा।
- अधिदेश: इनकी प्राथमिक भूमिका राज्य सरकार और स्थानीय निकायों यानी पंचायती राज संस्थाओं (PRIs) तथा शहरी स्थानीय निकायों (ULBs) के बीच वित्तीय संसाधनों के वितरण की सिफारिश करना है।
- अनुपालन संबंधी मुद्दे: 15वें वित्त आयोग (2021-26) ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि केवल नौ राज्यों ने अपने छठे SFC को गठित किया है जबकि सभी राज्यों द्वारा इसका वर्ष 2019-20 तक गठन करना था।
- कई राज्य अभी भी दूसरे या तीसरे SFC तक सीमित हैं, जिससे समय पर इनके नवीनीकरण और अद्यतनीकरण की कमी प्रदर्शित होती है।
- राज्य वित्त आयोग पर 15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट: 15वें वित्त आयोग ने राज्यों को राज्य वित्त आयोगों का गठन करने, उनकी सिफारिशों को लागू करने और विधानमंडल को एक कार्य रिपोर्ट प्रस्तुत करने की सिफारिश की।
- इसने उन राज्यों की अनुदान सहायता रोकने का सुझाव दिया जो इन आवश्यकताओं का अनुपालन नहीं करते हैं।
- पंचायती राज मंत्रालय की भूमिका: इसका कार्य वर्ष 2024-25 और 2025-26 हेतु अनुदान जारी करने से पहले राज्य वित्त आयोगों के संदर्भ में राज्यों की संवैधानिक प्रावधानों के अनुपालन की स्थिति को प्रमाणित करना है।
राज्य वित्त आयोगों (SFCs) का गठन क्यों महत्त्वपूर्ण है?
- संवैधानिक आवश्यकता: अनुच्छेद 243(I) के तहत प्रत्येक पाँच वर्ष में राज्य वित्त आयोगों का नियमित और समय पर गठन करना एक संवैधानिक अधिदेश है, जिसका उद्देश्य स्थानीय निकायों की वित्तीय स्थिरता एवं स्वायत्तता सुनिश्चित करना है।
- राजकोषीय हस्तांतरण: स्थानीय निकायों के बीच धन के उचित आवंटन से स्थानीय निकायों की वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित होती है।
- इससे केंद्रीय वित्त आयोग द्वारा राज्यों और स्थानीय निकायों को केंद्रीय निधियों के आवंटन में सहायता मिलती है।
- जवाबदेहिता में वृद्धि: वित्तीय आवश्यकताओं का मूल्यांकन करके, संसाधनों के इष्टतम उपयोग का सुझाव देकर तथा राजकोषीय उपायों की सिफारिश करके, राज्य वित्त आयोग स्थानीय निकायों की सेवा वितरण में सुधार करने के साथ इन्हें नागरिकों की आवश्यकताओं के प्रति अधिक उत्तरदायी बनने हेतु प्रेरित कर सकते हैं।
- SFC से प्रदर्शन-आधारित मूल्यांकन के लिये तंत्र मिलता है जिससे पुरस्कार और दंड की प्रणाली विकसित होने के साथ स्थानीय स्तर पर बेहतर शासन प्रथाओं को बढ़ावा मिल सकता है।
- स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा करना: स्थानीय शासन निकाय स्वच्छता, स्वास्थ्य, शिक्षा एवं बुनियादी ढाँचे जैसी सेवाएँ प्रदान करके दैनिक जीवन को प्रभावित करते हैं।
- SFC की सिफारिशों द्वारा समर्थित उचित वित्तपोषण और वित्तीय स्वायत्तता, सेवा की गुणवत्ता में सुधार हेतु महत्त्वपूर्ण हैं।
- कार्यात्मक एवं वित्तीय अंतराल को कम करना: स्थानीय निकायों को अक्सर वित्तीय संसाधनों की कमी के कारण स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा करने में समस्याएँ आती हैं।
- राज्य वित्त आयोग उत्तरदायित्वों के आधार पर वित्तीय हस्तांतरण की सिफारिश करके इस समस्या का समाधान करने के साथ यह सुनिश्चित करते हैं कि स्थानीय सरकारों के पास अपने दायित्वों को पूरा करने के लिये पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हों।
- राज्य वित्त निगम प्रभावी सिफारिशों द्वारा राजकोषीय हस्तांतरण को सुव्यवस्थित करने, वित्तपोषण की पूर्वानुमेयता में सुधार करने तथा वित्तीय अस्थिरता को कम करने में भूमिका निभा सकते हैं।
- राजनीतिक और प्रशासनिक विकेंद्रीकरण: राज्य वित्त आयोग की भूमिका वित्तीय अनुशंसाओं से कहीं अधिक विस्तारित है। यह नगरपालिका पार्षदों और पंचायत प्रधानों जैसे स्थानीय निर्वाचित प्रतिनिधियों को सशक्त बनाने का कार्य करता है।
वित्त आयोग
- संवैधानिक आधार: यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 280 के तहत स्थापित एक संवैधानिक निकाय है।
- इसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रत्येक पाँच वर्ष में या राष्ट्रपति द्वारा आवश्यक समझे जाने पर पहले भी की जाती है।
- संरचना: आयोग में एक अध्यक्ष और राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त चार अन्य सदस्य होते हैं।
- अध्यक्ष ऐसा व्यक्ति होना चाहिये जिसे सार्वजनिक मामलों का अनुभव हो।
- कार्य और कर्तव्य: वित्त आयोग का प्राथमिक कार्य विभिन्न वित्तीय मामलों पर राष्ट्रपति को सिफारिशें करना है।
- कर वितरण: यह करों की शुद्ध आय के संघ और राज्यों के बीच वितरण की सिफारिश करता है इसमें कर आय से राज्यों के बीच शेयरों का आवंटन शामिल है।
- सहायता अनुदान: यह विधेयक भारत की संचित निधि से राज्यों को सहायता अनुदान देने के सिद्धांतों का सुझाव देता है।
- इसमें भारत की संचित निधि से राज्यों को सहायता अनुदान को नियंत्रित करने वाले सिद्धांतों की स्थापना करना शामिल है।
- राज्य निधि में वृद्धि: यह विधेयक राज्य के वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर पंचायतों और नगर पालिकाओं के संसाधनों के पूरक के लिये राज्य की समेकित निधि में वृद्धि के उपायों की सिफारिश करता है।
- अतिरिक्त मामले: वित्त आयोग सुदृढ़ सार्वजनिक वित्त के हित में राष्ट्रपति द्वारा उसे सौंपे गए किसी अन्य मामले पर भी विचार कर सकता है।
- स्थानीय शासन के लिये महत्त्व: वित्त आयोग न केवल संघ और राज्यों के बीच वित्तीय संबंधों को निर्धारित करता है, बल्कि स्थानीय निकायों की राजकोषीय क्षमताओं को मज़बूत करने के तरीकों की भी सिफारिश करता है।
- इससे यह सुनिश्चित होता है कि स्थानीय सरकारों के पास आवश्यक सेवाएं प्रदान करने के लिये पर्याप्त धनराशि हो, जिससे विकेंद्रीकृत शासन और जन-केंद्रित नीतियों में योगदान मिले।
- 16 वां वित्त आयोग: 16वें वित्त आयोग का गठन दिसंबर 2023 में किया गया, जिसके अध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया होंगे।
- इसमें 1 अप्रैल, 2026 से प्रारंभ होकर 5 वर्ष की पुरस्कार अवधि शामिल है।
राज्य वित्त आयोगों (SFC) की समस्याएँ क्या हैं?
- राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव: 73वें और 74वें संविधान संशोधनों के अनुसार, स्थानीय निकायों को पूर्ण रूप से शक्ति और संसाधन हस्तांतरित करने के प्रति राज्य सरकारों में व्यापक प्रतिरोध है।
- संसाधनों की कमी: SFC को अक्सर डेटा एकत्र करते समय शुरुआत से ही काम करना पड़ता है, क्योंकि आसानी से उपलब्ध तथा व्यवस्थित जानकारी की कमी होती है, जिससे उनकी प्रभावशीलता और भी अधिक बाधित होती है।
- विशेषज्ञता में कमी: कई राज्य वित्त आयोगों का नेतृत्व नौकरशाहों या राजनेताओं द्वारा किया जाता है, तथा इनमें डोमेन विशेषज्ञों और सार्वजनिक वित्त पेशेवरों का अभाव होता है।
- योग्य टेक्नोक्रेटों की अनुपस्थिति SFC की सिफारिशों की विश्वसनीयता और गुणवत्ता को कम करती है, जिससे उनका प्रभाव कमज़ोर हो जाता है।
- अपारदर्शिता: राज्य अक्सर SFC की सिफारिशों के बाद विधायिका में कार्रवाई रिपोर्ट (Action Taken Reports- ATR) पेश करने में विफल रहते हैं, जिससे पारदर्शिता और जवाबदेही कम हो जाती है।
- राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों की अनदेखी: राज्य सरकारों द्वारा राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों का अनुपालन न करने की एक प्रवृत्ति रही है, जो स्थानीय शासन के लिये राजकोषीय नीतियों को आकार देने में राज्य वित्त आयोग की भूमिका को कमज़ोर करती है।
- जन प्रतिरोध: विशेषज्ञों का कहना है कि शहरी स्थानीय निकायों को उपेक्षा का सामना करना पड़ता है, उनमें राजनीतिक जागरूकता कम है और जनता की भागीदारी भी सीमित है, जिससे राजकोषीय विकेंद्रीकरण की स्थिति और खराब हो जाती है।
आगे की राह
- संवैधानिक समय-सीमा का अनुपालन: संविधान के अनुसार राज्यों को हर पाँच वर्ष में SFC का गठन करना चाहिये। समय-सीमा का पालन न करने वालों को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिये, अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये नियमित निगरानी की जानी चाहिये।
- राजनीतिक प्रतिरोध को कम करना: राज्य सरकारों को स्थानीय सरकारों के लिये वित्तीय स्वायत्तता के लाभों के बारे में पता होना चाहिये, जिससे बेहतर सेवाएँ, नागरिक संतुष्टि तथा जवाबदेह शासन प्राप्त होगा।
- सार्वजनिक वित्त विशेषज्ञ: राज्यों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि आयोगों का नेतृत्व अर्थशास्त्रियों, वित्त विशेषज्ञों और प्रासंगिक पेशेवरों द्वारा किया जाए, न कि केवल नौकरशाहों तथा राजनेताओं द्वारा, ताकि उनकी कार्यकुशलता बढ़ाई जा सके।
- स्थानीय डेटा प्रणालियों को सुदृढ़ बनाना: स्थानीय निकायों को सटीक वित्तीय रिपोर्टिंग के लिये आधुनिक डेटा प्रणालियों को अपनाना चाहिये, जिससे राज्य वित्त आयोगों को सूचित सिफारिशें करने में सहायता मिलेगी।
- कार्रवाई रिपोर्ट (ATR): राज्यों को विधानमंडल में कार्रवाई रिपोर्ट (ATR) प्रस्तुत करनी चाहिये, जिसमें बेहतर पारदर्शिता और जवाबदेही के लिये SFC की सिफारिशों को लागू करने के लिये समयसीमा तथा उपायों की रूपरेखा हो।
- स्वतंत्र निकायों को वित्तीय हस्तांतरण की प्रभावशीलता और SFC सिफारिशों के कार्यान्वयन का मूल्यांकन करने का कार्य सौंपा जा सकता है।
- प्रोत्साहन ढाँचा: मंत्रालय को SFC अनुपालन में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले राज्यों के लिये पुरस्कार प्रणाली बनानी चाहिये तथा अन्य राज्यों को स्थानीय शासन में सुधार करने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिये।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत में स्थानीय शासन को मज़बूत करने में राज्य वित्त आयोगों (SFC) की भूमिका पर चर्चा कीजिये |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न: निम्नलिखित पर विचार कीजिये: (2023)
2.वन और पारिस्थितिकी 3.शासन सुधार 4.स्थिर सरकार 5.कर और राजकोषीय प्रयास समस्तर कर-अवक्रमण के लिये पंद्रहवें वित्त आयोग ने उपर्युक्त में से कितने को जनसंख्या क्षेत्रफल और आय के अंतर के अलावा निकष के रूप में प्रयुक्त किया? (a)केवल दो (b)केवल तीन (c)केवल चार (d)सभी पाँच उत्तर: (b) प्रश्न: संविधान (तिहत्तरवां संशोधन) अधिनियम, 1992, जिसका उद्देश्य देश में पंचायती राज संस्थाओं को बढ़ावा देना है, निम्नलिखित में से क्या प्रावधान करता है? (2011)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग करके सही उत्तर चुनिये: (a)केवल 1 (b)केवल 1 और 2 (c)केवल 2 और 3 (d)1, 2 और 3 उत्तर: (c) मेन्सप्रश्न: भारत के 14वें वित्त आयोग की संतुस्तियों ने राज्यों को अपनी राजकोषीय स्थिति में सुधारने में कैसे सक्षम किया है? (2021) प्रश्न: आपके विचार में सहयोग, स्पर्द्धा एवं संघर्ष ने किस प्रकार से भारत में महासंघ को किस सीमा तक आकार दिया है ? अपने उत्तर को प्रमाणित करने के लिये कुछ हालिया उदाहरण उद्धत कीजिये। (2020) |
भारतीय विरासत और संस्कृति
गुरु नानक देव जी का प्रकाश पर्व
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रपति, प्रकाश पर्व, गुरु नानक देव, सिख धर्म, लोदी प्रशासन, निर्गुण शाखा, कबीर दास, सिख गुरु अर्जुन, गुरु अंगद, भक्ति आंदोलन, करतारपुर कॉरिडोर, स्वर्ण मंदिर। मेन्स के लिये:गुरु नानक की शिक्षाएँ और आज के विश्व में उनकी प्रासंगिकता। |
स्रोत: पी.आई.बी
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के राष्ट्रपति ने गुरु नानक देव जी के प्रकाश पर्व की पूर्व संध्या पर नागरिकों को बधाई दी तथा उनसे उनकी शिक्षाओं को अपनाने तथा समाज में एकता और समानता को बढ़ावा देने का आग्रह किया।
- प्रकाश पर्व सिख धर्म के संस्थापक और समाज सुधारक गुरु नानक देव जी की जयंती पर मनाया जाता है।
- इसे प्रकाश पर्व के रूप में इसलिये मनाया जाता है क्योंकि उन्होंने लोगों को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने का प्रयास किया था।
गुरु नानक देव के विषय में मुख्य तथ्य क्या हैं?
- जन्म और प्रारंभिक जीवन: गुरु नानक (1469-1539) का जन्म वर्ष 1469 में पाकिस्तान में लाहौर के पास तलवंडी गाँव में हुआ था।
- वह 10 सिख गुरुओं में से प्रथम थे।
- उन्होंने लोदी प्रशासन में सुल्तानपुर में क्लर्क के रूप में कार्य किया।
- आध्यात्मिक रहस्योद्घाटन: लगभग 30 वर्ष की आयु में, गुरु नानक को एक गहन आध्यात्मिक अनुभव हुआ और काली बेन नदी के पास उनका ईश्वर से सीधा साक्षात्कार हुआ, जिसके कारण उन्होंने घोषणा की कि "न तो कोई हिंदू है और न ही कोई मुसलमान।"
- दार्शनिक प्रेरणा: वे भक्ति आंदोलन की निर्गुण शाखा के समर्थक थे और कबीर दास से प्रभावित थे। उन्होंने "नाम जपना" जैसे आध्यात्मिक अभ्यासों पर ज़ोर दिया, यानी ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करने के लिये ईश्वर के नाम का दोहराव।
- शिक्षाएँ और यात्राएँ: उन्होंने अपने मुस्लिम साथी मरदाना के साथ अपना संदेश फैलाते हुए पूरे भारत और मध्य पूर्व में व्यापक रूप से यात्रा की।
- उनके द्वारा रचित भजनों को पाँचवें सिख गुरु अर्जुन देव ने वर्ष 1604 में आदि ग्रंथ में शामिल किया था।
- समुदाय और विरासत: वह करतारपुर में बस गए और पहला सिख समुदाय स्थापित किया जहाँ शिष्य एक साथ रहते थे तथा पूजा करते थे।
- उन्होंने समुदाय का नेतृत्व करने के लिये गुरु अंगद (भाई लहना) को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
भक्ति आंदोलन
- भक्ति आंदोलन ने मोक्ष प्राप्ति के लिये व्यक्तिगत रूप से कल्पित सर्वोच्च ईश्वर के प्रति भक्तिपूर्ण समर्पण का समर्थन किया।
- भक्ति की अवधारणा: श्वेताश्वतर उपनिषद में भक्ति का अर्थ केवल किसी भी प्रयास में भागीदारी, समर्पण और प्रेम है।
- भगवद गीता ईश्वर में अटूट विश्वास रखने के महत्त्व पर बल देती है।
- उत्पत्ति: भक्ति आंदोलन दक्षिण भारत में 7 वीं से 8 वीं शताब्दी के दौरान नयनारों (शिव के भक्त) और अलवारों (विष्णु के भक्त) द्वारा शुरू हुआ।
- यह आंदोलन दक्षिण भारत से उत्तर भारत तक फैल गया, जिसमें संतों द्वारा अपनी शिक्षाओं के संप्रेषण के लिये स्थानीय भाषाओं के प्रयोग से सहायता मिली।
- सामाजिक और धार्मिक सुधार: भक्ति संतों ने जाति, वर्ग या धर्म की परवाह किये बिना सभी मनुष्यों की समानता का उपदेश दिया।
- प्रमुख भक्ति संत: भक्ति आंदोलन से जुड़े संतों में रामदास, मीराबाई, तुलसीदास, नामदेव, तुकाराम, रामानुज, कबीर, नानक और अन्य शामिल हैं।
- कबीर और गुरु नानक ने हिंदू तथा इस्लामी दोनों परंपराओं से प्रेरणा लेकर हिंदुओं व मुसलमानों के बीच की खाई को पाटने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
गुरु नानक की शिक्षाएँ क्या हैं?
- एक ओंकार (एकेश्वरवाद): गुरु नानक ने इस बात पर बल दिया कि ईश्वर एक हैं जो सर्वव्यापी हैं और सभी मनुष्य उसी एक ईश्वर की संतान हैं।
- नाम जप (ईश्वर का नाम जपना): उन्होंने अंधकार को दूर करने, शांति और खुशी लाने तथा दया एवं प्रेम के मूल्यों को विकसित करने के लिए ईश्वर के नाम के स्मरण और जप करने को महत्त्व दिया।
- ईमानदारी से कार्य करना: गुरु नानक ने ईमानदारी से कार्य करने के साथ उचित साधनों के माध्यम से कमाई करने के महत्त्व पर बल दिया। उन्होंने ईमानदारी से किये गए कार्य को संतुष्टि की भावना और आत्मविश्वास का पूरक बताया।
- वंड छको (वितरण और सेवा): उन्होंने सामाजिक समानता और करुणा को बढ़ावा देने के क्रम में अपनी आय के एक भाग को ज़रूरतमंदों के बीच बाँटने की प्रथा को महत्त्व दिया।
- अन्य धर्मों के प्रति दृष्टिकोण: गुरु नानक सभी धर्मों का सम्मान करते थे और मानते थे कि सभी मनुष्य समान हैं तथा वे धार्मिक मतभेदों के आधार पर निर्णय को अस्वीकार करते थे।
- वेद, कुरान और बाइबल जैसे ग्रंथों की गहरी समझ के साथ उन्होंने प्रत्येक धर्म के प्रति समान सम्मान को महत्त्व दिया।
- मूर्ति पूजा: नानक ने मूर्ति पूजा को अस्वीकार किया। उनका मानना था कि भगवान को मूर्तियों में नहीं पाया जा सकता है। उन्होंने सिखाया कि भगवान अनंत हैं तथा वह मानवीय शब्दों, प्रतीकों या रूपों से परे हैं और उन्हें मानव निर्मित मूर्तियों द्वारा परिभाषित नहीं किया जा सकता है।
- गुरु नानक, भक्ति आंदोलन की निर्गुण ('निराकार ईश्वर') शाखा के मुख्य प्रस्तावक थे।
- मोक्ष: गुरु नानक का मानना था कि अच्छे कर्म आत्मा को शाश्वत आत्मा में विलीन होने में मदद करते हैं जबकि बुरे कर्म इसमें बाधा डालते हैं।
- ईश्वर के नाम का ध्यान मोक्ष (जिसका अर्थ है पुनर्जन्म से मुक्ति और ईश्वर के साथ मिलन) की कुंजी है।
- भाईचारा और समानता: गुरु नानक ने जाति, धर्म या वर्ग के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव का विरोध किया।
- वह सभी लोगों के बीच अंतर्निहित समानता में विश्वास करते थे और उपदेश देते थे कि सभी को समान प्रेम और सम्मान मिलना चाहिये।
- भौतिकवाद से अलगाव: उन्होंने भौतिक संपत्ति के प्रति आसक्ति के खिलाफ वकालत की तथा एक न्यायपूर्ण एवं आदर्श समाज के निर्माण के क्रम में आध्यात्मिक विकास के साथ ईश्वर के प्रति समर्पण को प्रोत्साहन दिया।
- महिलाओं के प्रति सम्मान: गुरु नानक ने महिलाओं की समानता और सम्मान को बल देने के साथ उनकी गरिमा एवं उनके साथ समान व्यवहार का समर्थन किया।
गुरु नानक देव जी के अनमोल वचन
- यदि आप अपना मन शांत रख सकें तो आप दुनिया जीत लेंगे।
- केवल वही बोलें जिससे आपको सम्मान मिले।
- अपनी आय के दसवें हिस्से को दान करना चाहिये तथा अपने समय के दसवें हिस्से को ईश्वर की भक्ति में लगाना चाहिये।
- हमेशा दूसरों की मदद करने के लिए तैयार रहें क्योंकि जब आप किसी की मदद करते हैं तो भगवान आपकी मदद करते हैं।
- केवल वही व्यक्ति ईश्वर पर विश्वास कर सकता है जिसे स्वयं पर विश्वास है।
सिख गुरु और उनके प्रमुख योगदान |
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गुरु |
अवधि |
प्रमुख योगदान |
गुरु नानक देव |
1469-1539 |
सिख धर्म के संस्थापक; गुरु का लंगर शुरू किया (सामुदायिक रसोई); बाबर के समकालीन; 550 वीं जयंती करतारपुर गलियारे के साथ मनाई गई। |
गुरु अंगद |
1504-1552 |
गुरु-मुखी लिपि का आविष्कार; गुरु का लंगर (सामुदायिक रसोई) की प्रथा को लोकप्रिय बनाया। |
गुरु अमर दास |
1479-1574 |
आनंद कारज विवाह की शुरुआत की, सती प्रथा और पर्दा प्रथा को समाप्त किया, अकबर के समकालीन थे। |
गुरु राम दास |
1534-1581 |
वर्ष 1577 में अमृतसर की स्थापना की; स्वर्ण मंदिर का निर्माण शुरू किया। |
गुरु अर्जुन देव |
1563-1606 |
वर्ष 1604 में आदि ग्रंथ की रचना की; स्वर्ण मंदिर का निर्माण पूरा किया गया; जहाँगीर द्वारा इसका निर्माण कराया गया। |
गुरु हरगोबिंद |
1594-1644 |
सिखों को एक सैन्य समुदाय में परिवर्तित किया; अकाल तख्त (सिख धर्म की धार्मिक सत्ता का मुख्य केंद्र) की स्थापना की; जहाँगीर और शाहजहाँ के विरुद्ध संघर्ष किया। |
गुरु हर राय |
1630-1661 |
औरंगजेब के साथ शांति को बढ़ावा दिया; धर्मप्रचार के कार्यों पर ध्यान केंद्रित किया। |
गुरु हरकिशन |
1656-1664 |
सबसे युवा गुरु; इस्लाम विरोधी ईशनिंदा के संबंध में औरंगजेब द्वारा इन्हें अपने समक्ष उपस्थित होने का आदेश दिया गया। |
गुरु तेग बहादुर |
1621-1675 |
आनंदपुर साहिब की स्थापना की । |
गुरु गोबिंद सिंह |
1666-1708 |
वर्ष 1699 में खालसा पंथ की स्थापना की; इन्होंने एक नया संस्कार "पाहुल" (Pahul) शुरू किया, ये मानव रूप में अंतिम सिख गुरु थे और इन्होंने ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ को सिखों के गुरु के रूप में नामित किया । |
निष्कर्ष:
एकता, समानता और भक्ति पर केंद्रित गुरु नानक की शिक्षाओं ने सिख धर्म एवं भक्ति आंदोलन को गहराई से प्रभावित दिया। एकेश्वरवाद, सभी धर्मों के प्रति सम्मान एवं सामाजिक सुधारों से संबंधित उनके दृष्टिकोण से लाखो लोग प्रेरित हुए हैं। शांति, प्रेम एवं सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने पर केंद्रित गुरु नानक की शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: गुरु नानक की प्रमुख शिक्षाओं को बताते हुए समकालीन समाज में उनकी प्रासंगिकता पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)प्रिलिम्सप्रश्न. निम्नलिखित भक्ति संतों पर विचार कीजिये: (2013)
इनमें से कौन उस समय उपदेश देता था/देते थे जब लोदी वंश का पतन हुआ तथा बाबर सत्तारुढ़ हुआ? (a) केवल 1 और 3 (b) केवल 2 (c) केवल 2 और 3 (d) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) मेन्सप्रश्न: भक्ति साहित्य की प्रकृति एवं भारतीय संस्कृति में इसके योगदान का मूल्यांकन कीजिये। (2021) |
भारतीय इतिहास
बाल दिवस और पंडित जवाहरलाल नेहरू
प्रिलिम्स के लिये:साइमन कमीशन, गुटनिरपेक्ष आंदोलन, उद्देश्य प्रस्ताव, जनजातीय पंचशील, हिंदू कोड बिल, बांडुंग (1955), चीन-भारतीय संघर्ष मेन्स के लिये:बाल दिवस का इतिहास और महत्त्व, भारत के स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र भारत में पंडित नेहरू का योगदान |
स्रोत: IE
चर्चा में क्यों?
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की जयंती (14 नवंबर 1889) के उपलक्ष्य में प्रतिवर्ष 14 नवंबर को बाल दिवस मनाया जाता है।
- नेहरू (जिन्हें प्यार से चाचा नेहरू कहा जाता है) को बच्चों के साथ उनके मज़बूत संबंध तथा उनके कल्याण में महत्त्वपूर्ण योगदान हेतु जाना जाता है।
बाल दिवस का इतिहास और महत्त्व क्या है?
- बाल अधिकार एवं विकास: यह दिवस बच्चों के अधिकारों और कल्याण के विषय में जागरूकता बढ़ाने के लिये मनाया जाता है, जिसमें उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण तथा समग्र विकास पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
- विश्व बाल दिवस का पूर्व पालन: विश्व बाल दिवस पहली बार वर्ष 1954 में सार्वभौमिक बाल दिवस के रूप में स्थापित किया गया था और बच्चों के कल्याण में सुधार के लिये पूरे विश्व में बच्चों के बीच अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता तथा जागरूकता को बढ़ावा देने के लिये प्रत्येक वर्ष 20 नवंबर को मनाया जाता है।
- 20 नवंबर का दिन संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 1959 में बाल अधिकारों की घोषणा और वर्ष 1989 में बाल अधिकारों पर कन्वेंशन को अपनाने के लिये उल्लेखनीय है।
- वर्ष 1964 में जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद भारत सरकार ने नेहरू की विरासत और बच्चों के मुद्दों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का सम्मान करने के लिये 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में समर्पित करने का निर्णय लिया।
- बाल दिवस का महत्त्व:
- बाल दिवस बच्चों के अधिकारों के महत्त्व को रेखांकित करता है, जिसमें शिक्षा, शोषण से सुरक्षा और स्वास्थ्य देखभाल शामिल है, साथ ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तथा समग्र विकास के लिये शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009, समेकित बाल विकास सेवाएँ (ICDS) जैसे कार्यक्रमों पर ज़ोर दिया जाता है।
- बाल कल्याण पर भारत की नीतियाँ, बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UNCRC) जैसे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के अनुरूप हैं।
पंडित जवाहर लाल नेहरू का क्या योगदान है?
- स्वतंत्रता-पूर्व (1889-1947):
- नेहरू ने वर्ष 1912 में राजनीति में प्रवेश किया, बांकीपुर कॉन्ग्रेस के 27 वें अधिवेशन में एक प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया तथा वर्ष 1919 में होम रूल लीग के सचिव बने।
- उन्होंने वर्ष 1920 में प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश में पहला किसान मार्च आयोजित किया तथा वर्ष 1920-22 के असहयोग आंदोलन के दौरान दो बार जेल गए।
- वर्ष 1923 में वे अखिल भारतीय कॉन्ग्रेस कमेटी (AICC) के महासचिव बने।
- वर्ष 1926 में मद्रास अधिवेशन में नेहरू ने कॉन्ग्रेस को स्वतंत्रता के लिये प्रतिबद्ध किया। वर्ष 1928 में लखनऊ में साइमन कमीशन के खिलाफ जुलूस का नेतृत्व करते समय उन पर लाठीचार्ज किया गया।
- वर्ष 1928 में नेहरू ने नेहरू रिपोर्ट (मोतीलाल नेहरू द्वारा तैयार) का मसौदा तैयार करने और उस पर हस्ताक्षर करने में प्रमुख भूमिका निभाई। यह रिपोर्ट भारत में संवैधानिक सुधारों का एक प्रस्ताव थी।
- नेहरू ने वर्ष 1928 में इंडिपेंडेंस फॉर इंडिया लीग की भी स्थापना की, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वतंत्रता का समर्थन करना था।
- वर्ष 1929 में लाहौर अधिवेशन में नेहरू अध्यक्ष चुने गए और इसमें कॉन्ग्रेस ने आधिकारिक तौर पर पूर्ण स्वतंत्रता को अपना लक्ष्य माना (जिसे पूर्ण स्वराज प्रस्ताव के रूप में जाना जाता है)।
- 7 अगस्त 1942 को नेहरू ने बम्बई में अखिल भारतीय कॉन्ग्रेस कमेटी (AICC) के अधिवेशन में भारत छोड़ो प्रस्ताव प्रस्तुत किया।
- प्रधानमंत्री के रूप में जवाहरलाल नेहरू की उपलब्धियाँ:
- आधुनिक भारत का दृष्टिकोण: भारत के प्रथम प्रधानमंत्री (1947-1964) के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान नेहरू ने एक आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना की, धर्मनिरपेक्षता और वैज्ञानिक उन्नति को बढ़ावा दिया तथा औद्योगीकरण की नींव रखी।
- सामाजिक सुधार: हिंदू कोड बिल का मूल उद्देश्य धार्मिक कानूनों को धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता से स्थानांतरित करना था। इसके तहत बहुविवाह को गैर-कानूनी घोषित करने, महिलाओं को संपत्ति और तलाक के अधिकार देने, उत्तराधिकार कानूनों में संशोधन करने के साथ अंतरजातीय विवाह संबंधी प्रावधान किये गए।
- जनजातीय पंचशील: जवाहरलाल नेहरू के जनजातीय पंचशील में आत्म-विकास, जनजातीय अधिकारों के प्रति सम्मान, न्यूनतम बाहरी दबाव, प्रशासन में स्थानीय भागीदारी और वित्तीय मापदंडों की तुलना में मानव-केंद्रित परिणामों पर बल दिया।
- आर्थिक विकास और संस्थान: नेहरू ने IIT, भारतीय प्रबंधन संस्थान, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) जैसे प्रमुख संस्थानों की स्थापना की।
- ये संस्थान भारत की आर्थिक संवृद्धि के लिये आवश्यक होने के साथ आत्मनिर्भरता के क्रम में औद्योगीकरण पर केंद्रित हैं।
- उन्होंने राजा राम मोहन राय जैसे समाज सुधारकों की विरासत को आगे बढ़ाते हुए धार्मिक रूढ़िवाद और अंधविश्वास से लड़ने के क्रम में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समर्थन किया।
- लोकतंत्र का संस्थागतकरण: नेहरू के 'उद्देश्य प्रस्ताव' से संविधान सभा को संविधान का मसौदा तैयार करने, प्रस्तावना को आकार देने और भारत के संविधान के दर्शन को आकार देने में मार्गदर्शन मिला।
- गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति:
- गुटनिरपेक्ष आंदोलन: नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति का उद्देश्य शीत युद्ध के दौरान भारत को तटस्थ रखना था। गुटनिरपेक्ष आंदोलन में उनकी प्रमुख भूमिका थी। उन्होंने बांडुंग (1955) और बेलग्रेड (1961) सम्मेलनों के माध्यम से वैश्विक शांति को बढ़ावा देने को महत्त्व दिया।
- पंचशील सिद्धांत: इसे शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पाँच सिद्धांतों के रूप में भी जाना जाता है, ये सिद्धांतों का एक समूह है जिसे 1950 के दशक में भारत और चीन द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किया गया था। इसमें शामिल हैं:
- सभी देशों द्वारा अन्य देशों के क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना।
- दूसरे देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
- दूसरे देश पर आक्रमण न करना।
- परस्पर सहयोग व लाभ को बढ़ावा देना।
- शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति का पालन करना।
- नेहरूवादी नीति की आलोचनाएँ:
- कश्मीर विवाद: वर्ष 1947 के विभाजन के बाद नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र से सहायता मांगी, लेकिन वे पाकिस्तान के साथ युद्ध समाप्त करने में असमर्थ रहे। उनकी विदेश नीति कश्मीर मुद्दे पर केंद्रित थी।
- गोवा मुक्ति: वर्ष 1961 में गोवा को पुर्तगाली शासन से मुक्त कराने के लिये नेहरू की सैन्य कार्रवाई को अंतर्राष्ट्रीय आलोचना का सामना करना पड़ा, लेकिन इसे एक उचित उपनिवेश-विरोधी कदम के रूप में देखा गया।
- भारत-चीन युद्ध(1962): वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध से पहले भारतीय सेनाओं का आधुनिकीकरण या उन्नयन करने में नेहरू की विफलता ने उन्नत रक्षा उपायों की आवश्यकता को उजागर किया, जिससे भारत की सैन्य तैयारियों और रणनीतिक दृष्टिकोण का पुनर्मूल्यांकन करने पर मज़बूर होना पड़ा।
- परंपरा:
- नेहरू की धर्मनिरपेक्षता ने मानवतावादी मूल्यों और राष्ट्रीय विकास को बढ़ावा दिया। भारतीय परंपरा में निहित उनके विचारों ने धार्मिक समानता, मानवतावाद एवं सार्वभौमिक नैतिकता पर ज़ोर दिया।
- नेहरू का मानना था कि सरकार को धार्मिक विविधता को बनाए रखना चाहिये, तथा धर्म को राजनीति से अलग करने के विचार से सहमत होना चाहिये।
- नेहरू के धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी दृष्टिकोण ने भारत की स्वतंत्रता के बाद की दिशा को आकार दिया और कश्मीर मुद्दे तथा भारत-चीन युद्ध जैसी चुनौतियों के बावजूद एक आधुनिक राष्ट्र की आधारशिला रखी।
- नेहरू ने भारत के विविध समुदायों को एकीकृत किया तथा आधुनिक शासन व्यवस्था के साथ पारंपरिक विविधता को संतुलित करने वाली नीतियों को बढ़ावा दिया।
निष्कर्ष
बाल दिवस,बच्चों के कल्याण एवं शिक्षा के प्रति भारत की प्रतिबद्धता की याद दिलाता है। यह बच्चों की सुरक्षा, अधिकारों और विकास के लिये व्यापक नीतियों की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न प्रश्न: जवाहरलाल नेहरू के विचार और पहल किस प्रकार एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में राष्ट्र की प्रगति को आकार दे रहे हैं? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न: 26 जनवरी, 1950 को भारत की वास्तविक सांविधानिक स्थिति क्या थी? (2021) (a) लोकतंत्रात्मक गणराज्य (b) संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य (c) संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य (d) संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य उत्तर:(b) प्रश्न. भारत के संविधान की उद्देशिका- (2020) (a) संविधान का भाग है किंतु कोई विधिक प्रभाव नहीं रखती (b) संविधान का भाग नहीं है और कोई विधिक प्रभाव भी नहीं रखती (c) संविधान का भाग है और वैसा ही विधिक प्रभाव रखती है जैसा कि उसका कोई अन्य भाग (d) संविधान का भाग है किंतु उसके अन्य भागों से स्वतंत्र होकर उसका कोई विधिक प्रभाव नहीं है। उत्तर: (d) प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन 1948 में स्थापित ‘‘हिन्द मज़दूर सभा’’ के संस्थापक थे? (2018) (a) बी. कृष्ण पिल्लई, ई.एम.एस. नम्बूदिरिपाद और के.सी. जॉर्ज (b) जयप्रकाश नारायण, दीन दयाल उपाध्याय और एम.एन. रॉय (c) सी.पी. रामास्वामी अबयर, के. कामराज और वीरेशलिंगम पंतुलु (d) अशोक मेहता, टी.एस. रामानुज और जी.जी. मेहता उत्तर: (d) प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2010)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 (b) केवल 2 (c) 1 और 2 दोनों (d) न तो 1 न ही 2 उत्तर: (a) मेन्स:प्रश्न. 'उद्देशिका (प्रस्तावना)' में शब्द 'गणराज्य' के साथ जुड़े प्रत्येक विशेषण पर चर्चा कीजिये। क्या वर्तमान परिस्थितियों में वे प्रतिरक्षणीय है? (2016) |