नोएडा शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 9 दिसंबर से शुरू:   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


भारतीय राजनीति

संविधान के अभिन्न अंग के रूप में समाजवादी एवं पंथनिरपेक्षता

  • 23 Oct 2024
  • 19 min read

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, मूल ढाँचा, 42वाँ संशोधन 1976, प्रस्तावना, संविधान सभा, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संसाधनों का समान वितरण, मिश्रित अर्थव्यवस्था, नियोजित अर्थव्यवस्था, उदारीकरण, अनुच्छेद 25 और 26, अनुच्छेद 25-28, जीवन का अधिकार, मूल अधिकार, राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व (DPSP), अनुच्छेद 31C  

मेन्स के लिये:

संसाधनों का न्यायसंगत वितरण, भारतीय संविधान में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों का महत्त्व, समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों से संबंधित न्यायिक व्याख्या।

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" शब्दों को प्रस्तावना से हटाने की याचिका को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि यह संविधान के मूल ढाँचे के अभिन्न अंग हैं।

  • सर्वोच्च न्यायालय ने 42वें संशोधन, 1976 को बनाए रखा, जिसके तहत समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों को शामिल किया गया था और कहा गया था कि ये शब्द भारतीय संदर्भ में विशिष्ट महत्त्व रखते हैं, जो इनकी पश्चिमी व्याख्याओं से अलग है।

समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों को हटाने के लिये क्या तर्क प्रस्तुत किये गए?

  • संविधान सभा द्वारा अस्वीकृति: 15 नवंबर 1948 को प्रोफेसर केटी शाह ने प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों को शामिल करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन संविधान सभा ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।
    • संविधान के अनुच्छेद 18 में "पंथनिरपेक्ष" शब्द को शामिल करने के प्रयासों को भी संविधान सभा ने इसी तरह अस्वीकार कर दिया था।
  • प्रस्तावना में संशोधन की तिथि: एक याचिकाकर्त्ता ने दावा किया कि 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों को शामिल करना असंवैधानिक था, क्योंकि इसे अपनाने की निश्चित तिथि 26 नवंबर, 1949 थी और संशोधन पूर्वव्यापी प्रभाव से 1976 से लागू किये गए थे।
    • हालाँकि न्यायालय ने संविधान को एक जीवंत दस्तावेज माना जो सामाजिक आवश्यकताओं के साथ विकसित होता है तथा कहा कि इसमें समाजवादी एवं पंथनिरपेक्षता का समावेश इस विकास को दर्शाता है।
  • लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में वर्ष 1989 का संशोधन: याचिकाकर्त्ताओं ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), 1951 में वर्ष 1989 के संशोधन को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि राजनीतिक दलों को पंजीकरण के लिये समाजवादी एवं पंथनिरपेक्षता के प्रति निष्ठा की शपथ लेने की आवश्यकता अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है।

पंथनिरपेक्षता की पश्चिमी अवधारणा भारतीय अवधारणा से किस प्रकार भिन्न है? 

पहलू

पंथनिरपेक्षता की पश्चिमी अवधारणा

पंथनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा

परिभाषा

मुख्य रूप से इसका तात्पर्य धर्म के मामलों से राज्य का पूर्ण अलगाव है। 

राज्य और धर्म के बीच पूरी तरह से अलगाव नहीं होता है। सभी धर्मों के लिये समान सम्मान और धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने में राज्य की सकारात्मक भूमिका पर बल दिया जाता है। उदाहरण के लिये, मंदिर में प्रवेश को रोकना और तीन तलाक को अपराध बनाना

धर्म की भूमिका

धर्म को प्रायः निजी मामला माना जाता है और राज्य इससे तटस्थ रहता है।

राज्य विभिन्न धर्मों को मान्यता देने तथा उन्हें महत्त्व देने के साथ उनके सह-अस्तित्व को बढ़ावा देता है।

सरकार का दायित्व

सरकार पर किसी भी धर्म को समर्थन करने का कोई दायित्व नहीं है।

सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करे तथा समाज में उनका उचित सम्मान सुनिश्चित करे।

व्यक्तिवाद बनाम सामूहिकता 

राज्य के हस्तक्षेप के बिना धर्म का स्वतंत्र रूप से पालन करने के व्यक्तिगत अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करना।

धार्मिक समुदायों के सामूहिक अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करना तथा यह सुनिश्चित करना कि उनकी सांस्कृतिक और धार्मिक प्रथाओं की सुरक्षा की जाए।

सांस्कृतिक संदर्भ

अक्सर धार्मिक संघर्ष के इतिहास वाले समाजों में विकसित है जिसमें तटस्थता पर बल दिया जाता है।

यह विभिन्न धर्मों के बीच सह-अस्तित्व के लंबे इतिहास वाले बहुलवादी समाज में विकसित है।

शिक्षण संस्थान

सरकारी स्कूल आमतौर पर पंथनिरपेक्ष होते हैं तथा उनमें धार्मिक शिक्षा पर प्रतिबंध होता है।

स्कूलों में धार्मिक शिक्षा को शामिल किया जा सकता है, जिससे समुदाय की सांस्कृतिक विविधता प्रतिबिंबित होती है।

समाजवाद की पश्चिमी अवधारणा भारतीय अवधारणा से किस प्रकार भिन्न है?

पहलू

समाजवाद की पश्चिमी अवधारणा

समाजवाद की भारतीय अवधारणा

सकेंद्रण

आर्थिक समानता प्राप्त करने के क्रम में उत्पादन के साधनों पर सामूहिक या सरकारी स्वामित्व पर बल देना।

संसाधनों के न्यायसंगत वितरण के माध्यम से लोकतांत्रिक समाजवाद पर बल देना तथा सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों के साथ मिश्रित अर्थव्यवस्था को महत्त्व देना।

आर्थिक संरचना

इसमें एक अनिवार्य नियोजन मॉडल शामिल है, जहाँ राज्य प्रमुख उद्योगों को नियंत्रित करता है, विशेष रूप से मार्क्सवादी या लेनिनवादी संदर्भों में।

इसमें एक सांकेतिक नियोजन मॉडल शामिल है, जहाँ राज्य सहयोग की भूमिका निभाता है और निजी क्षेत्र भी लक्ष्यों को प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

वर्ग संघर्ष

सामाजिक परिवर्तन और क्रांति के लिये प्रेरक के रूप में वर्गों (सर्वहारा बनाम पूंजीपति) के बीच संघर्ष देखा जाता है। पूंजीवादी और समाजवादी एक दूसरे को अपना दुश्मन मानते हैं।

वर्ग संघर्ष की वकालत किये बिना सामाजिक न्याय के साथ हाशिये पर स्थित समुदायों के उत्थान पर बल दिया जाता है।

राज्य की भूमिका

राज्य अक्सर आर्थिक नियोजन और संसाधन आवंटन में प्रमुख भूमिका निभाता है, विशेष रूप से समाजवाद के अधिक कट्टरपंथी रूपों में।

राज्य नियामक भूमिका में होता है और वह कल्याणकारी योजनाओं को क्रियान्वित करने के साथ निजी उद्यमों एवं उदारीकरण को प्रोत्साहित करता है।

सांस्कृतिक संदर्भ

पश्चिम के औद्योगिक पूंजीवाद और शहरीकरण की प्रतिक्रिया में विकसित और अक्सर मार्क्सवादी सिद्धांत पर आधारित।

उपनिवेशवाद, स्वतंत्रता, तथा गहरी सामाजिक असमानताओं एवं विविध सांस्कृतिक पहचानों को संबोधित करने की आवश्यकता के संदर्भ से विकसित।

वैश्वीकरण और व्यापार

इसमें वैश्वीकरण की आलोचना की जाने के साथ इसे पूंजीवादी शोषण का एक रूप माना जा सकता है।

इसमें वैश्वीकरण का सामान्यतः समर्थन करते हुए, भारत के लिये सामाजिक कल्याण सुनिश्चित करने के साथ वैश्विक बाज़ारों से जुड़ने की आवश्यकता को मान्यता दी गई है।

Directive_Principles_of_State_Policy

पंथनिरपेक्षता को आकार देने में भारतीय न्यायपालिका की क्या भूमिका है?

  • सरदार ताहिरुद्दीन सैयदना साहब मामला, 1962: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 (धर्म की स्वतंत्रता) से भारतीय लोकतंत्र की पंथनिरपेक्ष प्रकृति पर प्रकाश पड़ता है।
  • केशवानंद भारती मामला, 1973: सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि पंथनिरपेक्षता संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा है।
    • मूल ढाँचा सिद्धांत के अनुसार भारतीय संविधान के कुछ मुख्य तत्त्वों को बदला या हटाया नहीं जा सकता है।
  • एसआर बोम्मई मामला, 1994: इसमें न्यायालय ने कहा कि पंथनिरपेक्षता का अर्थ सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार से है और कहा कि 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया पंथनिरपेक्ष शब्द अनुच्छेद 25-28 के तहत संरक्षित मूल अधिकारों के अनुरूप है।
  • इस्माइल फारुकी मामला, 1994: इसमें न्यायालय ने माना कि किसी धार्मिक समुदाय से संबंधित किसी भी संपत्ति को राज्य द्वारा (यदि आवश्यक समझा जाए) उचित मुआवजा देने के बाद अधिग्रहित किया जा सकता है। 
  • अरुणा रॉय मामला, 2002: इसमें भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि पंथनिरपेक्षता का सार, राज्य द्वारा धार्मिक मतभेदों के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव न करना है।
    • न्यायालय ने धार्मिक निर्देश और धार्मिक शिक्षा या धर्म के अध्ययन के बीच अंतर किया और कहा कि धार्मिक शिक्षा अनुमेय है और वास्तव में वांछनीय भी है, जबकि धार्मिक निर्देश पर प्रतिबंध है।
  • अभिराम सिंह मामला, 2017: इसमें न्यायालय ने माना कि पंथनिरपेक्षता के लिये राज्य को धर्म से अलग रहने की आवश्यकता नहीं है; बल्कि इसे सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करना आवश्यक है।
    • इसमें यह स्वीकार किया गया कि धर्म और जाति समाज का अभिन्न अंग हैं तथा इन्हें राजनीति से पूरी तरह से अलग नहीं किया जा सकता है।
    • कोई राजनीतिक उम्मीदवार या उसका एजेंट चुनाव के दौरान धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर प्रचार नहीं कर सकता है क्योंकि इसे भ्रष्ट आचरण माना जाता है (RPA की धारा 123 (3)।

समाजवाद को आकार देने में भारतीय न्यायपालिका की क्या भूमिका है?

  • केशवानंद भारती मामला, 1973: सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि समाजवाद संविधान के मूल ढाँचे का पहलू है, जिसे सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देने में इसकी भूमिका में देखा जा सकता है।
  • कर्नाटक राज्य बनाम श्री रंगनाथ रेड्डी मामला, 1977: इसमें न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि समाजवाद के तहत लोक कल्याण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये तथा तर्क दिया कि राष्ट्रीयकरण या अधिग्रहण का लक्ष्य लोक कल्याण और न्यायसंगत धन वितरण होना चाहिये।
  • मेनका गांधी मामला, 1978: इसमें इस बात पर बल दिया गया कि जीवन के अधिकार में सम्मान के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है, जो सभी नागरिकों के लिये जीवन की उचित गुणवत्ता सुनिश्चित करने के समाजवादी सिद्धांत हेतु आवश्यक है।
  • मिनर्वा मिल्स मामला, 1980: सर्वोच्च न्यायालय ने मूल अधिकारों एवं राज्य की नीति के निदेशक तत्त्वों (DPSP) के बीच सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता पर बल दिया, जिसमें कहा गया कि समाजवादी सिद्धांतों के अनुरूप सामाजिक एवं आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने के क्रम में DPSP को राज्य की नीतियों का मार्गदर्शक होना चाहिये।
  • संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाम भारत कोकिंग कोल लिमिटेड मामला, 1982: इसमें कोयला उद्योग को पुनर्गठित करने के साथ लोक कल्याण के लिये महत्त्वपूर्ण संसाधनों की सुरक्षा के क्रम में राष्ट्रीयकरण को एक आवश्यक कदम बताया गया। 
    • इसमें कहा गया कि अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होने पर अनुच्छेद 31C के तहत विधिक संरक्षण प्राप्त होगा।
    • अनुच्छेद 31C के तहत उन विधियों को विधिक संरक्षण मिलता है जिनसे यह सुनिश्चित होता है कि "समुदाय के भौतिक संसाधन" लोक कल्याण को ध्यान में रखते हुए वितरित किये जाएँ ( अनुच्छेद 39 (b) और धन एवं उत्पादन के साधन "जनसामान्य की हानि" पर "केंद्रित" न हों (अनुच्छेद 39 (c)

निष्कर्ष

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा "समाजवाद" और "पंथनिरपेक्ष" को संविधान के मूल ढाँचे का अभिन्न अंग मानना ​​भारतीय संदर्भ में इन अवधारणाओं की व्याख्या करने में न्यायपालिका की भूमिका को दर्शाता है। पश्चिमी व्याख्याओं से इसकी भिन्नता भारत के अद्वितीय सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य पर प्रकाश डालती है जिसमें समावेशिता, सामाजिक न्याय और समान संसाधन वितरण को केंद्र में रखा जाता है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारतीय संविधान में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्द समय के साथ किस प्रकार विकसित हुए हैं और ये पश्चिमी व्याख्याओं से किस प्रकार भिन्न हैं? 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स:

प्रश्न: 26 जनवरी, 1950 को भारत की वास्तविक संवैधानिक स्थिति क्या थी? (2021)

(a) लोकतंत्रात्मक गणराज्य
(b) संपूर्ण प्रभुत्त्व-संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य
(c) संपूर्ण प्रभुत्त्व-संपन्न पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य
(d) संपूर्ण प्रभुत्त्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य

उत्तर: (B)


प्रश्न: भारत के संविधान की उद्देशिका: (2020)

(a) संविधान का भाग है किंतु कोई विधिक प्रभाव नहीं रखती
(b) संविधान का भाग नहीं है और कोई विधिक प्रभाव भी नहीं रखती
(c) संविधान का भाग है और वैसा ही विधिक प्रभाव रखती है जैसा की उसका कोई अन्य भाग 
(d) संविधान का भाग है किंतु उसके अन्य भागों से स्वतंत्र होकर उसका कोई विधिक प्रभाव नहीं है

उत्तर: (d)


प्रश्न: निम्नलिखित में से कौन 1948 में स्थापित “हिंद मज़दूर सभा” के संस्थापक थे? (2018)

(a) बी. कृष्णा पिल्लई, ई. एम. एस. नंबूदिरिपाद और के. सी. जॉर्ज
(b) जयप्रकाश नारायण, दीन दयाल उपाध्याय और एम. एन. रॉय
(c) सी. पी. रामास्वामी अय्यर, के. कामराज और वीरेशलिंगम पंतुलु
(d) अशोक मेहता, टी. एस. रामानुजम और जी. जी. मेहता

उत्तर: (d)


प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2010)

  1. 1936 में हस्ताक्षरित “बॉम्बे घोषणापत्र” में समाजवादी आदर्शों के प्रचार का खुलकर विरोध किया गया था।
  2. इसे पूरे भारत के व्यापारिक समुदाय के एक बड़े वर्ग का समर्थन प्राप्त हुआ।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों 
(d) न तो 1 न ही 2

उत्तर: (a)


मेन्स:

प्रश्न: 'उद्देशिका (प्रस्तावना)' में शब्द 'गणराज्य' के साथ जुड़े प्रत्येक विशेषण पर चर्चा कीजिये। क्या वर्तमान परिस्थितियों में वे प्रतिरक्षणीय है? (2016)

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2
× Snow