भारतीय राजनीति
अनुच्छेद 31C के अस्तित्व पर प्रश्न
- 13 May 2024
- 15 min read
प्रिलिम्स के लिये:अनुच्छेद 31C, सर्वोच्च न्यायालय, केशवानंद भारती मामला (1973), मौलिक अधिकार मेन्स के लिये:अनुच्छेद 31C, अनुच्छेद 31 सेC संबद्ध कानूनी और संवैधानिक चुनौतियाँ। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय की 9 न्यायाधीशों की पीठ ने एक मामले की सुनवाई करते हुए अनुच्छेद 31C के अस्तित्व से संबंधित प्रश्न का निराकरण करने का फैसला किया है, ताकि यह तय किया जा सके कि सरकार निजी संपत्ति का अधिग्रहण और पुनर्वितरण कर सकती है या नहीं।
अनुच्छेद 31C क्या है?
- परिचय:
- अनुच्छेद 31C सामाजिक लक्ष्यों को सुनिश्चित करने के लिये बनाए गए कानूनों की रक्षा करता है:
- अनुच्छेद 39B के अनुसार, "समुदाय के भौतिक संसाधनों" को सभी के लाभ के लिये आवंटित किया जाता है।
- अनुच्छेद 39C के अनुसार, धन और उत्पादन के साधन "सामान्य हानि" के लिये "केंद्रित" नहीं हैं।
- अनुच्छेद 31C सामाजिक लक्ष्यों को सुनिश्चित करने के लिये बनाए गए कानूनों की रक्षा करता है:
- अनुच्छेद 31C का परिचय:
- सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के परिणामस्वरूप आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ (बैंक राष्ट्रीयकरण मामला, 1969), इसे 1971 में 25वें संवैधानिक संशोधन द्वारा भारतीय संविधान में जोड़ा गया था।
- इस मामले में बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण और हस्तांतरण) अधिनियम, 1969 को प्रदान किये गए मुआवज़े की समस्याओं के कारण इसे न्यायालय द्वारा गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था।
- सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के परिणामस्वरूप आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ (बैंक राष्ट्रीयकरण मामला, 1969), इसे 1971 में 25वें संवैधानिक संशोधन द्वारा भारतीय संविधान में जोड़ा गया था।
- अनुच्छेद 31C का उद्देश्य:
- अनुच्छेद 31C निदेशक तत्त्वों (अनुच्छेद 39B व 39C) को समता के अधिकार (अनुच्छेद 14) अथवा अनुच्छेद 19 के तहत अधिकारों (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्वक आंदोलन करने का अधिकार, आदि) द्वारा चुनौती दिये जाने पर सरंक्षण प्रदान करता है।
अनुच्छेद 31C से जुड़ी कानूनी और संवैधानिक चुनौतियाँ क्या हैं?
- केशवानंद भारती मामला (1973):
- सर्वोच्च न्यायालय ने "मूल ढाँचा सिद्धांत" की स्थापना करते हुए कहा है कि संविधान के कुछ मौलिक तत्त्व संसद द्वारा संविधान संशोधन के प्रति प्रतिरक्षित हैं।
- न्यायालय ने अनुच्छेद 31C के एक भाग को यह कहते हुए अमान्य कर दिया कि किसी विशिष्ट सरकारी नीति पर आधारित होने का दावा करने वाले कानूनों को उस नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने में विफल रहने के लिये न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
- इससे न्यायालय के लिये अनुच्छेद 39(B) व 39(C) को आगे बढ़ाने के लिये पारित कानून की समीक्षा करना और यह आकलन करना संभव हो गया कि क्या उनके लक्ष्य वास्तव में इन धाराओं में बताए गए मूल्यों के साथ संरेखित हैं।
- संविधान (42) संशोधन अधिनियम, (CAA) 1976 और मिनर्वा मिल्स केस (1980):
- CAA, 1976 ने संविधान के अनुच्छेद 36-51 में उल्लिखित राज्य नीति के सभी निर्देशक तत्त्वों को शामिल करने के लिये अनुच्छेद 31C के सुरक्षात्मक दायरे को बढ़ा दिया।
- CAA, 1976 के खंड (4) ने न्यायालयों को संविधान के किसी भी संशोधन पर प्रश्न करने की उनकी शक्ति से वंचित कर दिया।
- इसके अलावा, CAA, 1976 के खंड (5) ने संशोधन शक्ति पर सभी सीमाओं को हटाने का प्रयास किया।
- इसका उद्देश्य कुछ मौलिक अधिकारों के स्थान पर नीति-निदेशक सिद्धांतों के कार्यान्वयन को प्राथमिकता देना था, विशेष रूप से सामाजिक-आर्थिक सुधारों के लिये।
- मिनर्वा मिल्स केस (1980) के बाद के विधिक निर्णय में, सर्वोच्च न्यायालय ने 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के खंड 4 और 5 को रद्द कर दिया।
- इस न्यायिक घोषणा ने संविधान में बड़े पैमाने पर संशोधन करने के संसद के अधिकार की सीमाओं को रेखांकित किया।
- परिणामस्वरूप, मिनर्वा मिल्स मामले के उपरांत अनुच्छेद 31C की वैधता एवं प्रयोज्यता के संबंध में प्रश्न उठे।
- CAA, 1976 ने संविधान के अनुच्छेद 36-51 में उल्लिखित राज्य नीति के सभी निर्देशक तत्त्वों को शामिल करने के लिये अनुच्छेद 31C के सुरक्षात्मक दायरे को बढ़ा दिया।
अनुच्छेद 31C के संबंध में क्या तर्क हैं?
- स्वचालित पुनरुद्धार के विरुद्ध तर्क:
- मूल अनुच्छेद 31C को 42वें संशोधन में एक विस्तारित संस्करण द्वारा पूरी तरह से 'प्रतिस्थापित' कर दिया गया था। अतः जब मिनर्वा मिल्स मामले में यह नया संस्करण रद्द कर दिया गया, तो मूल संस्करण स्वचालित रूप से पुनर्जीवित नहीं हो सका।
- यह तर्क उस विधिक सिद्धांत पर आधारित है जो एक बार प्रतिस्थापित होने के उपरांत, मूल प्रावधान तब तक अस्तित्व में नहीं आता जब तक कि इसे स्पष्ट रूप से बहाल नहीं किया जाता।
- पुनरुद्धार के सिद्धांत के लिये तर्क:
- पुनरुद्धार के सिद्धांत के आधार पर मूल अनुच्छेद 31C को स्वचालित रूप से पुनर्जीवित किया जाना चाहिये।
- इस दृष्टिकोण को राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के निर्णय जैसे उदाहरणों से समर्थन मिलता है, जहाँ रद्द किये गए संशोधनों के कारण पिछले प्रावधानों को पुनर्जीवित किया गया था, जिसमें सुझाव दिया गया था कि यदि बाद के संशोधन अमान्य हो जाते हैं तो पूर्व-संशोधित अनुच्छेद 31 C को फिर से बहाल करना चाहिये।
मौलिक अधिकारों और DPSP के बीच संघर्ष:
- चंपकम दोराइराजन बनाम मद्रास राज्य, 1951:
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक सिद्धांतों के बीच किसी भी टकराव की स्थिति में मौलिक अधिकारों की स्थिति प्रबल होगी।
- इसने घोषणा की कि निदेशक सिद्धांतों को मौलिक अधिकारों के अनुरूप होना चाहिये और सहायक के रूप में चलना चाहिये।
- यह भी माना गया कि मौलिक अधिकारों को संसद द्वारा संवैधानिक संशोधन अधिनियम बनाकर संशोधित किया जा सकता है।
- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य, 1967:
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की कि निदेशक सिद्धांतों के कार्यान्वयन के लिये भी संसद द्वारा मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता है।
- यह 'शंकरी प्रसाद मामले' में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विपरीत था।
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, 1973:
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ मामले में दिया हुआ अपना निर्णय पलट दिया। इसने 24वें संशोधन अधिनियम की वैधता को बरकरार रखते हुए कहा कि संसद को किसी भी मौलिक अधिकार को सीमित करने या छीनने का अधिकार है।
- साथ ही, इसने संविधान की 'बुनियादी संरचना' (या 'बुनियादी विशेषताएँ') का एक नया सिद्धांत निर्धारित किया।
- सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद की घटक शक्ति, संविधान की 'बुनियादी संरचना' को परिवर्तित नहीं कर सकती है।
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ मामले में दिया हुआ अपना निर्णय पलट दिया। इसने 24वें संशोधन अधिनियम की वैधता को बरकरार रखते हुए कहा कि संसद को किसी भी मौलिक अधिकार को सीमित करने या छीनने का अधिकार है।
- मिनर्वा मिल्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 1980:
- इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि 'भारतीय संविधान मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक सिद्धांतों के बीच संतुलन की आधारशिला पर आधारित है।
- संसद नीति निदेशक सिद्धांतों को लागू करने के लिये मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है, जब तक कि संशोधन संविधान की मूल संरचना को हानि नहीं पहुँचाता है।
अनुच्छेद 31, 31A, 31B और 31C:
- परिचय:
- संविधान के भाग 3 में उल्लिखित 7 मौलिक अधिकारों में से संपत्ति का अधिकार एक था।
- हालाँकि, संविधान लागू होने के समय से ही संपति का मौलिक अधिकार सबसे अधिक विवादास्पद रहा।
- 44वें संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा मौलिक अधिकारों में से संपत्ति के अधिकार, भाग 3 में अनुच्छेद 19 (1) (च) को समाप्त कर दिया गया और इसके लिये संविधान के भाग XII में नए अनुच्छेद 300 A के रूप में प्रावधान किया गया।
- अनुच्छेद 31 ने कई संवैधानिक संशोधनों का नेतृत्व किया जैसे- 1, 4वें, 7वें, 25वें, 39वें, 40वें और 42वें संशोधन।
- प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 ने अनुच्छेद 31A और 31B को संविधान में सम्मिलित किया।
- 25वें संशोधन अधिनियम, 1971 द्वारा संविधान में अनुच्छेद 31C को शामिल किया गया था।
- अनुच्छेद 31A:
- यह कानूनों की पाँच श्रेणियों से व्यावृत्ति प्रदान करता है और इन्हें अनुच्छेद 14 तथा अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर चुनौती देकर अवैध नहीं ठहराया जा सकता है।
- यह राज्य द्वारा निजी संपत्ति के अधिग्रहण या मांग के मामले में मुआवज़े का गारंटीकृत अधिकार भी प्रदान करता है।
- इसमे समाविष्ट हैं:
- राज्य द्वारा संपदाओं का अधिग्रहण और संबंधित अधिकार।
- राज्य द्वारा संपत्ति के प्रबंधन का दायित्व संभालना।
- निगमों का विलय।
- निगमों के निदेशकों या शेयरधारकों के अधिकारों का पुनर्निर्धारण या समाप्ति।
- खनन पट्टे का पुनर्निर्धारण या उनकी समाप्ति।
- अनुच्छेद 31B:
- यह नौवीं अनुसूची में उल्लिखित अधिनियमों एवं नियमों को व्यावृत्ति प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 31B का दायरा अनुच्छेद 31A से अधिक व्यापक है। अनुच्छेद 31B नौवीं अनुसूची में सम्मिलित किसी भी विधि को सभी मौलिक अधिकारों से उन्मुक्ति प्रदान करता है फिर चाहे विधि अनुच्छेद 31A में उल्लिखित पाँच श्रेणियों में से किसी के अंतर्गत हो अथवा नहीं।
- हालाँकि आई. आर. कोएल्हो वनाम तमिलनाडु राज्य (2007) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा कि नौवीं अनुसूची में सम्मिलित विधियों को न्यायिक समीक्षा से उन्मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। न्यायालय ने कहा कि न्यायिक समीक्षा संविधान की मूल विशेषता है और किसी विधि को नौवीं अनुसूची के अंतर्गत रखकर इसकी यह विशेषता समाप्त नहीं की जा सकती।
- 24 अप्रैल, 1973 को सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार केशवानंद भारती वाद में अपने ऐतिहासिक निर्णय में संविधान के मौलिक ढाँचे के सिद्धांत को प्रतिपादित किया।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. अनुच्छेद 31C से जुड़ी कानूनी और संवैधानिक चुनौतियों के बारे में चर्चा कीजिये? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) प्रश्न. 26 जनवरी, 1950 को भारत की वास्तविक सांविधानिक स्थिति क्या थी? (2021) (a) लोकतंत्रात्मक गणराज्य उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. भारत में उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) |