उच्च न्यायालयों में न्यायिक नियुक्ति
प्रिलिम्स के लिये:राज्यसभा, कार्यपालिका, न्यायपालिका, अनुच्छेद 217, अनुच्छेद 224A, तदर्थ न्यायाधीश, कॉलेजियम सिस्टम मेन्स के लिये:उच्च न्यायालयों में न्यायिक नियुक्ति से संबंधित विभिन्न संवैधानिक प्रावधान |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री ने राज्यसभा को विभिन्न उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में जानकारी दी।
- मंत्री ने कहा कि उच्च न्यायपालिका में रिक्त पदों को भरना कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच एक सतत्, एकीकृत और सहयोगात्मक प्रक्रिया है।
- इसके लिये राज्य के साथ-साथ केंद्रीय स्तर पर संवैधानिक अधिकारियों से परामर्श और अनुमोदन की आवश्यकता होती है।
प्रमुख बिंदु
HC के न्यायाधीशों की नियुक्ति:
- संविधान का अनुच्छेद 217: यह कहता है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI), राज्य के राज्यपाल के परामर्श से की जाएगी।
- मुख्य न्यायाधीश के अलावा किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श किया जाता है।
- परामर्श प्रक्रिया: उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सिफारिश एक कॉलेजियम द्वारा की जाती है जिसमें CJI और दो वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।
- यह प्रस्ताव दो वरिष्ठतम सहयोगियों के परामर्श से संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा किया जाता है।
- सिफारिश मुख्यमंत्री को भेजी जाती है, जो केंद्रीय कानून मंत्री को प्रस्ताव राज्यपाल को भेजने की सलाह देता है।
- उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति इस नीति के आधार पर की जाती है कि राज्य का मुख्य न्यायाधीश संबंधित राज्य से बाहर का होगा।
- तदर्थ न्यायाधीश: संविधान के अनुच्छेद 224A के अंतर्गत सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है।
- किसी राज्य के उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से किसी व्यक्ति, जो उस उच्च न्यायालय या किसी अन्य उच्च न्यायालय में न्यायाधीश का पद धारण कर चुका है, से उस राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने का अनुरोध कर सकेगा।
- हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों (Pendency of Cases) से निपटने के लिये सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति पर ज़ोर दिया है।
- अदालत ने तदर्थ न्यायाधीश (Ad-hoc Judge) की नियुक्ति और कार्यपद्धति हेतु मौखिक दिशा-निर्देश दिये हैं।
- यह न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली है जो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों (न कि संसद के अधिनियम या संविधान के प्रावधान द्वारा) के माध्यम से विकसित हुई है।
- विकास:
- इसने प्रथम न्यायाधीश मामले (First Judges Case) में वर्ष 1981 के अंतर्गत फैसला सुनाया कि न्यायिक नियुक्तियों और तबादलों पर भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की सिफारिश की "प्राथमिकता" को "ठोस कारण होने पर अस्वीकार किया जा सकता है।
- तत्कालीन सरकार ने अगले 12 वर्षों के लिये न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका पर कार्यपालिका को प्राथमिकता दी।
- सर्वोच्च न्यायालय ने द्वितीय न्यायाधीश मामले (Second Judges Case) में वर्ष 1993 में कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत, यह मानते हुए की कि परामर्श से तात्पर्य सहमति है।
- इसमें कहा गया है कि यह CJI की व्यक्तिगत राय नहीं थी, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय में दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से गठित एक संस्थागत राय थी।
- इसने प्रथम न्यायाधीश मामले (First Judges Case) में वर्ष 1981 के अंतर्गत फैसला सुनाया कि न्यायिक नियुक्तियों और तबादलों पर भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की सिफारिश की "प्राथमिकता" को "ठोस कारण होने पर अस्वीकार किया जा सकता है।
- तीसरे न्यायाधीश मामले (Third Judges Case) में वर्ष 1998 के अनुसार राष्ट्रपति को दिया गया परामर्श बहुसंख्यक न्यायाधीशों का परामर्श माना जाएगा, इस परामर्श में मुख्य न्यायाधीश के साथ सर्वोच्च न्यायालय के 4 वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श शामिल होंगे।
शामिल मुद्दे:
- बोझिल प्रक्रिया: उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में अत्यधिक देरी होती है और उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की घटती संख्या न्याय वितरण तंत्र को प्रभावित कर सकती है।
- पारदर्शिता का अभाव: औपचारिक मानदंडों की अनुपस्थिति के कई चिंताजनक निहितार्थ हैं।
- वर्तमान में यह जांँचने हेतु कोई संरचित प्रक्रिया नहीं है कि कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित किसी न्यायाधीश के हितों का कोई टकराव है या नहीं।
- अनुचित प्रतिनिधित्व: कॉलेजियम प्रणाली संरचनात्मक रूप से समाज के विशेष वर्गों का पक्ष लेती है तथा आबादी के उन समूहों से काफी दूर है जिनके न्याय हेतु वह प्रतिनिधित्व करना चाहती है।
- उच्च न्यायालयों में रिक्तियांँ: 25 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की कुल स्वीकृत संख्या 1,098 है, लेकिन कार्यरत न्यायाधीशों की कुल संख्या केवल 645 है तथा 453 न्यायाधीशों की कमी है।
- लंबित मामलों की उच्च संख्या: विभिन्न स्तरों पर भारत के कई न्यायालयों में लंबित मामलों की कुल संख्या लगभग 3.7 करोड़ है, इस प्रकार एक बेहतर न्यायिक प्रणाली की मांग बढ़ रही है।
सुधार के प्रयास:
- 99वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2014 के माध्यम से कॉलेजियम को वर्ष 2014 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) द्वारा प्रतिस्थापित करने का प्रयास किया गया था।
- NJAC ने उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति को और अधिक पारदर्शी बनाने का प्रस्ताव रखा।
- आयोग द्वारा उन सदस्यों का चयन किया जाएगा जो न्यायपालिका, विधायिका और नागरिक समाज से संबंधित होंगे।
- सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने वर्ष 2015 में NJAC को असंवैधानिक घोषित करते हुए कहा कि यह भारत के संविधान के मूल ढाँचे (आधारभूत संरचना) का उल्लंघन करता है जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिये खतरा है।
आगे की राह:
- यह एक स्थायी स्वतंत्र निकाय के बारे में सोचने का समय है जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिये पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ प्रक्रिया को संस्थागत बनाने हेतु न्यायिक प्रधानता की गारंटी देता है लेकिन न्यायिक अनन्यता की नहीं।
- इसे स्वतंत्रता सुनिश्चित करनी चाहिये, विविधता को प्रतिबिंबित करना चाहिये, पेशेवर क्षमता और अखंडता का प्रदर्शन करना चाहिये।
- एक निश्चित संख्या में रिक्तियों के लिये आवश्यक न्यायाधीशों की संख्या का चयन करने के बजाय कॉलेजियम द्वारा राष्ट्रपति को वरीयता और अन्य वैध मानदंडों के क्रम में नियुक्त करने के लिये संभावित नामों का एक पैनल प्रदान करना चाहिये।