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भारतीय इतिहास

दिल्ली सल्तनत- I (1200-1400) (गुलाम वंश)

  • 13 Jun 2023
  • 22 min read

प्रिलिम्स के लिये:

इल्तुतमिश, कुतुबुद्दीन ऐबक, रजिया सुल्तान, बलबन

मेन्स के लिये:

दिल्ली सल्तनत का प्रशासनिक तंत्र, दिल्ली सल्तनत में बड़प्पन का महत्त्व 

कुतुबुद्दीन ऐबक (1150-1210) ने प्रथम मुस्लिम राजवंश की स्थापना कैसे की?

  • कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली सल्तनत का स्थापक और गुलाम वंश का पहला सुल्तान था। यह गोरी साम्राज्य का सुल्तान मुहम्मद गोरी का एक गुलाम था। वर्ष 1206 में मुहम्मद गोरी ने कुतुबुद्दीन ऐबक को  अपना उत्तराधिकारी बनाया। उसने तराइन के युद्ध (1192 ई.) के बाद भारत में तुर्की सल्तनत के विस्तार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
  • मुइज़्ज़ुद्दीन का एक और गुलाम, यलदुज़ (Yalduz), गजनी (गजनी) में सफल हुआ। गजनी के शासक के रूप में यलदूज ने दिल्ली पर भी शासन करने का दावा किया।
  • हालाँकि यह लाहौर से शासन करने वाले ऐबक द्वारा स्वीकार नहीं किया गया था लेकिन इसी समय से सल्तनत ने गजनी से अपने संबंध तोड़ लिये थे।
  • गुलाम वंश की स्थापना का श्रेय कुतुबुद्दीन ऐबक को जाता है। 
  • गुलाम वंश, जिसे मामलुक वंश (Mamluk Dynasty) के नाम से भी जाना जाता है, भारत में दिल्ली सल्तनत पर शासन करने वाला पहला मुस्लिम राजवंश था।
  • कुतुबुद्दीन ऐबक को लाख बक्श (Lakh Baksh) के नाम से भी जाना जाता है।

इल्तुतमिश (1210-36) ने अपने क्षेत्र का विस्तार कैसे किया?

  • वर्ष 1210 ई. में चौगान (पोलो) खेलते समय घोड़े से गिरकर घायल होने के कारण ऐबक की मृत्यु हो गई।
  • उसका उत्तराधिकारी इल्तुतमिश था जो ऐबक का दामाद था।
  • इल्तुतमिश को उत्तर भारत में तुर्की विजय का वास्तविक समेकक माना जाना चाहिये।
    • अपने राज्याभिषेक के समय अली मर्दन खान ने स्वयं को बंगाल और बिहार का राजा घोषित कर दिया था।
  • सबसे पहले दिल्ली के पास इल्तुतमिश के कुछ साथी अधिकारी भी उसके अधिकार को स्वीकार करने के लिये अनिच्छुक थे। राजपूतों को अपनी स्वतंत्रता का दावा करने का अवसर मिला। कालिंजर, ग्वालियर और पूर्वी राजस्थान के क्षेत्र, जिसमें अजमेर एवं बयाना शामिल थे, ने सफलतापूर्वक स्वयं को तुर्की के प्रभुत्व से मुक्त कर लिया।
  • लगभग इसी समय इल्तुतमिश ने ग्वालियर, बयाना, अजमेर और नागौर को पुनः प्राप्त करने के लिये कदम उठाए। 
  • अपने शासनकाल के प्रारंभिक वर्षों के दौरान इल्तुतमिश का ध्यान उत्तर पश्चिम पर केंद्रित था। ख्वारिज्म शाह द्वारा गजनी की विजय के साथ उनकी स्थिति के लिये एक नया खतरा पैदा हो गया।
    • ख्वारिज्मी साम्राज्य इस समय मध्य एशिया में सबसे शक्तिशाली राज्य था और इसकी पूर्वी सीमा अब सिंधु तक फैली हुई थी। इस खतरे को टालने के लिये इल्तुतमिश ने लाहौर की ओर कूच किया तथा उस पर अधिकार कर लिया।
  • ऐबक के साथी गुलाम कुबाचा (Qubacha) ने खुद को मुल्तान का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया था और लाहौर तथा पंजाब के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा कर लिया था।
  • इल्तुतमिश ने कुबाचा को मुल्तान और उच (Uchch) से भी बाहर कर दिया। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत की सीमाएँ एक बार फिर सिंधु तक पहुँच गईं। पश्चिम में सुरक्षित इल्तुतमिश अपना ध्यान कहीं और लगाने में सक्षम था।  उसने अपने पड़ोसियों, पूर्वी बंगाल के सेना शासकों और उड़ीसा तथा कामरूप (असम) के हिंदू शासकों के क्षेत्रों पर छापे मारे।
  • बंगाल और बिहार में इवाज नाम के एक व्यक्ति, जिसने सुल्तान गयासुद्दीन की उपाधि धारण की थी, स्वतंत्रता ग्रहण की। 1226-27 में लखनौती के निकट इल्तुतमिश के पुत्र के साथ युद्ध में इवाज पराजित हुआ और मारा गया। बंगाल और बिहार एक बार फिर दिल्ली के प्रभुत्व में आ गए।
  • उसने रणथंभौर और जालोर के विरुद्ध अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिये अभियान चलाया।
  • उसने मेवाड़ की राजधानी नागदा (उदयपुर से लगभग 22 किमी.) पर भी हमला किया, लेकिन गुजरात की सेनाओं के आगमन पर उसे पीछे हटना पड़ा। प्रतिशोध के रूप में इल्तुतमिश ने गुजरात के चालुक्यों के खिलाफ एक अभियान चलाया, लेकिन इसे नुकसान के साथ खदेड़ दिया गया।

रजिया सुल्तान (1236-39) इल्तुतमिश की उत्तराधिकारी कैसे बनी?

  • इल्तुतमिश ने अपनी पुत्री रजिया को गद्दी पर बैठाने का निश्चय किया। 
  • अपने दावे को मुखर करने के लिये रजिया को अपने भाइयों के साथ-साथ शक्तिशाली तुर्की अमीरों के खिलाफ भी संघर्ष करना पड़ा और वह केवल तीन वर्ष तक ही शासन कर सकी।
  • इसने राजशाही और तुर्की प्रमुखों के बीच सत्ता के लिये संघर्ष की शुरुआत को चिह्नित किया, जिसे कभी-कभी 'चालीस' या चहलगानी कहा जाता था।
    • फोर्टी/चहलगानी की कोर 40 तुर्क गुलाम अमीरों की एक परिषद थी, जो सुल्तान की इच्छा के अनुसार दिल्ली सल्तनत का प्रशासन करती थी।
  • इल्तुतमिश का वज़ीर निज़ाम-उल-मुल्क जुनैदी, जिसने उसके सिंहासन पर बैठने का विरोध किया था और उसके खिलाफ रईसों के विद्रोह का समर्थन किया था, हार गया और भागने के लिये मजबूर हो गया।
  • रज़िया ने राजपूतों को नियंत्रित करने के लिये रणथंभौर के खिलाफ एक अभियान भेजा और अपने राज्य में कानून एवं व्यवस्था को सफलतापूर्वक स्थापित किया।
  • एबिसिनियन रईस, याकूत खान को शाही अस्तबल का अधीक्षक नियुक्त किया गया था और वह रजिया सुल्तान का पक्षधर था।
    • तुर्की रईसों ने उन पर स्त्री-विनम्रता का उल्लंघन करने का आरोप लगाया और याकूत खान के साथ बहुत दोस्ताना व्यवहार किया।
  • लाहौर और सरहिंद में विद्रोह भड़क उठे। रजिया ने व्यक्तिगत रूप से लाहौर के खिलाफ एक अभियान का नेतृत्व किया एवं शासक को प्रस्तुत होने के लिये मजबूर किया।
  • सरहिंद के रास्ते में एक आंतरिक विद्रोह छिड़ गया जिसमें याकूत खान मारा गया और रजिया को तबरहिन्दा में कैद कर लिया गया।
  • हालाँकि रजिया ने अपने कैदी, मलिक अल्तुनिया पर जीत हासिल की और उससे शादी करने के बाद दिल्ली पर नए सिरे से प्रयास किया। रजिया ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी लेकिन जब वह जीत के करीब थी तभी डाकुओं द्वारा एक जंगल में उसे हरा दिया गया और मार डाला गया।

मंगोलों का उदय:

  • मंगोल साम्राज्य ने वर्ष 1221 से 1327 तक भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण करने के कई प्रयास किये।
  • मंगोलों का उदय मंगोल नेता चंगेज खान के आगमन के साथ शुरू हुआ, जो खुद को 'ईश्वर का अभिशाप' कहने में गर्व महसूस करता था।
  • मंगोलों ने 1218 में ख्वारिज्मी साम्राज्य पर हमला किया।
    • मंगोल आक्रमण का दिल्ली सल्तनत पर गंभीर प्रभाव पड़ा।
  • इल्तुतमिश, जो दिल्ली पर शासन कर रहा था, ने मंगोलों को शांत कराने करने की कोशिश की।
  • इसके परिणामस्वरूप मंगोलों के हमलों की एक शृंखला हुई और सिंधु नदी भारत की पश्चिमी सीमा नहीं रही।
  • अंततः इल्तुतमिश लाहौर और मुल्तान दोनों को जीतने में सक्षम था, इस प्रकार मंगोलों के खिलाफ रक्षा की काफी मज़बूत रेखा बन गया। 
  • वर्ष 1227 में चंगेज़ खान की मृत्यु के बाद शक्तिशाली मंगोल साम्राज्य उसके पुत्रों में विभाजित हो गया।

बलबन सत्ता में कैसे आया (1246-87)? 

  • पृष्ठभूमि: 
    • राजशाही और तुर्की प्रमुखों के बीच संघर्ष प्रमुख मुद्दों में से एक था जो उलूग खान तक जारी रहा जिसे इतिहास में बलबन की उपाधि से जाना गया।
    • समय के साथ उसने राज्य पर नियंत्रण कर लिया और वर्ष 1265 में वह सत्तारूढ़ होने में सफल रहा।
    • इससे पहले बलबन ने इल्तुतमिश के छोटे बेटे नसीरुद्दीन महमूद के यहाँ नायब या डिप्टी का पद संभाला था जिसे बलबन को वर्ष 1246 में सिंहासन प्राप्त करने में सहायता की थी।
    • बलबन ने नसीरुद्दीन महमूद की पुत्री से शादी करके युवा सुल्तान के लिये अपनी स्थिति को और सुदृढ़ कर लिया।
    • बलबन के बढ़ते अधिकार ने अनेक तुर्की प्रमुखों को अलग-थलग कर दिया जिन्होंने नसीरुद्दीन महमूद के युवा और अनुभवहीन होने के कारण सत्ता के मामलों में अपनी पूर्व शक्तियों एवं प्रभावों को बनाए रखने की आशा की थी।
    • अतः उन्होंने वर्ष 1253 में एक षड्यंत्र रचा और बलबन को उसके पद से बेदखल कर दिया।
    • बलबन का स्थान इमादुद्दीन रेहान ने लिया जो एक भारतीय मुसलमान था।
  • एक अलग समूह का गठन:
    • बलबन अलग हटने को तैयार हो गया लेकिन सावधानी से उसने अपना समूह बनाना जारी रखा। बलबन ने मंगोलों के साथ भी संपर्क स्थापित किये थे जिन्होंने पंजाब के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था।
    • सुल्तान महमूद ने बलबन के समूह की शक्ति के सामने झुककर रेहान को बर्खास्त कर दिया। कुछ समय पश्चात् रेहान पराजित हुआ और मारा गया।
    • बलबन ने अपने कई अन्य प्रतिद्वंद्वियों को निष्पक्ष या बेईमानी से छुटकारा दिलाया।
    • वर्ष 1265 में सुल्तान महमूद की मृत्यु हो गई।
  • मज़बूत केंद्रीकृत सेना: 
    • आंतरिक गड़बड़ी से निपटने तथा मंगोलों को खदेड़ने के लिये बलबन ने एक मज़बूत केंद्रीकृत सेना का गठन किया जिन्होंने पंजाब में घुसपैठ की और दिल्ली सल्तनत के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न कर दिया था।
    • दीवान-ए-अर्ज:
      • उसने सैन्य विभाग (दीवान-ए-अर्ज) को पुनर्गठित किया और उन सैनिकों को पेंशन दी जो अब सेवा के लायक नहीं थे।
    • बलबन ने मेवातियों, राजपूत ज़मींदारों, गंगा-जमुना दोआब और अवध के डकैतों से निपटने के लिये 'लौह और रक्त' की नीति अपनाई।
    • दोआब और कटिहार (आधुनिक रोहेलखंड) में बलबन ने जंगलों को काटने, विद्रोही ग्रामीणों को समाप्त करने तथा पुरुषों, महिलाओं एवं बच्चों को गुलाम बनाने का आदेश दिया।
    • बलबन ने इन कठोर तरीकों से स्थिति को नियंत्रित किया। अपनी सत्ता की ताकत द्वारा लोगों को प्रभावित करने तथा उन्हें डराने के लिये बलबन ने एक शानदार दरबार बनाए रखा।
  • बलबन की मृत्यु: 
    • वर्ष 1286 में बलबन की मृत्यु हो गई।
    • निसंदेह वह दिल्ली सल्तनत विशेष रूप से सरकार और संस्थानों के मुख्य वास्तुकारों में से एक था।
    • राजशाही की सत्ता का दावा करते हुए बलबन ने दिल्ली सल्तनत को मज़बूत किया।
    • मंगोलों के घुसपैठ के विरुद्ध वह उत्तरी भारत की पूरी तरह से रक्षा नहीं कर सका।

गुलाम वंश की वास्तुकला के कुछ उदाहरण:

  • गुलाम वंश के शासकों द्वारा निर्मित महत्त्वपूर्ण इमारतें:
    • कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद: 
      • यह भारत की सबसे शुरुआती मस्जिदों में से एक है तथा कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा वर्ष 1192 और 1198 के बीच बनवाई गई थी।
      • कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का अर्थ है 'इस्लाम की ताकत'।
      • यह कुतुब मीनार के उत्तर-पूर्व में बनी हुई है।   
    • कुतुब मीनार:  
      • लाल और बफ बलुआ पत्थर से बनी कुतुब मीनार भारत में सबसे ऊँची मीनार है।
      • कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1199 ईस्वी में पहली मंजिल तक मीनार की नींव रखी।
      • बाद में उसके उत्तराधिकारी और दामाद शम्सुद्दीन इल्तुतमिश (1211-36 ईस्वी) द्वारा इसमें तीन और मंजिलें जोड़ी गई।
      • मीनार के विभिन्न स्थानों पर अरबी और नागरी अक्षरों में कई शिलालेखों से कुतुब के इतिहास का पता चलता है।
      • प्रांगण में लौह स्तंभ पर चौथी शताब्दी ईस्वी की ब्राह्मी लिपि में संस्कृत में एक शिलालेख है, जिसके अनुसार चंद्र नामक एक शक्तिशाली राजा की स्मृति में विष्णुपद के नाम से जानी जाने वाली पहाड़ी पर स्तंभ को विष्णुध्वज (भगवान विष्णु के मानक) के रूप में स्थापित किया गया था। 
    • अढ़ाई दिन का झोपड़ा:
      • अढ़ाई दिन का झोपड़ा जिसे "ढाई दिन की मस्जिद" के रूप में भी जाना जाता है भारत के अजमेर, राजस्थान में स्थित एक ऐतिहासिक मस्जिद है।
      • इस मस्जिद का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1199 ईस्वी में करवाया था।
    • नासिरूद्दीन मोहम्मद (सुल्तान घारी) का मकबरा:
      • सुल्तान गढ़ी का मकबरा कुतुब मीनार से लगभग 6 किलोमीटर पश्चिम में स्थित है।
      • इसे वर्ष 1231 में इल्तुतमिश ने अपने सबसे बड़े पुत्र और नासिरूद्दीन महमूद के अवशेषों पर बनवाया था।
    • शम्स-उद-दीन इल्तुतमिश का मकबरा:
      • शमशुद्दीन इल्तुतमिश का मकबरा कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के उत्तर-पश्चिम में स्थित है।
      • इस मकबरे का निर्माण इल्तुतमिश ने स्वयं 1235 ईस्वी में करवाया था।
    • बलबन का मकबरा:
      • गयासुद्दीन बलबन का मकबरा महरौली, नई दिल्ली, भारत में स्थित है, जिसे 1287 ईस्वी में बनाया गया था।

दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था: 

  • प्रशासनिक व्यवस्था के प्रमुख को सुल्तान कहा जाता था।
  • पूरे क्षेत्र का नियंत्रण उसके हाथ में था, सिंहासन पर बैठने के बाद पूर्ण शक्ति उसके हाथों में होती थी।
  • उसे सेना का सर्वोच्च सेनापति कहा जाता था।
  • सुल्तान कई प्रकार से प्रशासनिक व्यवस्था का प्रमुख होता था।
  • राजधानी शहर और उसके आस-पास के क्षेत्र अक्सर ऐसे क्षेत्र होते थे जिन पर केंद्रीय प्रशासन का प्रत्यक्ष नियंत्रण होता था।
  • क्योंकि ये क्षेत्र सम्राट, रईसों, दरबार, शाही वास्तुकला, व्यापार और शहरीकरण के लिये अधिक महत्त्वपूर्ण थे, इसी कारण प्रशासनिक व्यवस्था भी विस्तृत और स्पष्ट थी।
  • ऐतिहासिक राजनीति के कारण केंद्रीय रूप से प्रशासित नियंत्रण और विनियमन तंत्र विकसित करना आवश्यक था।
  • शासक वर्गों और कारीगरों, व्यापारियों, सैनिकों आदि जैसे अन्य समूहों की "शोषणकारी" प्रकृति के कारण इस राजनीतिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिये संसाधनों का प्रबंधन अक्सर साम्राज्य के अन्य क्षेत्रों से करना पड़ता था।

दिल्ली सल्तनत में कुलीनता का महत्त्व:

  • कुतुबुद्दीन बिना किसी संघर्ष के सिंहासन पर आसीन हुआ क्योंकि मुइज़ी रईसों ने उसे अपने शासक के रूप में स्वीकार कर लिया और उनके प्रति अपनी वफादारी प्रदर्शित की।
  • दिल्ली की गद्दी पर इल्तुतमिश का राज्यारोहण भारत में तुर्की अभिजात वर्ग के विकास में एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ।
  • यह सशस्त्र शक्ति के माध्यम से रईसों द्वारा अपने नेताओं का चयन करने की शक्ति को दर्शाता है।
  • दिल्ली में कुलीन वर्गों ने शासक के चयन में प्रमुखता हासिल की और दिल्ली तुर्की शासन की राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया।
  • भारत में एक संप्रभु तुर्की राज्य की स्थापना का श्रेय इल्तुतमिश को दिया जाता है, उसके समय में कुलीन वर्ग में कुशल प्रशासक हुआ करते थे।
  • इल्तुतमिश की मृत्यु (1235) के बाद बलबन (1269) के राज्यारोहण तक चिहलगानी दासों (40 कुलीनों का समूह जिसमें बलबन भी था) ने उत्तराधिकार संबंधी मामलों का निराकरण किया।
  • बलबन ने तुर्की कुलीनों के प्रभुत्त्व को समाप्त कर ताज के वर्चस्व को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया।
  • बलबन के राज्याभिषेक के बाद यह स्पष्ट हो गया कि वंशानुगत सिद्धांत अब प्रासंगिक नहीं था।
  • जलालुद्दीन खिलजी (1290) के सिंहासन पर बैठने के बाद यह स्थापित हो गया कि वंशानुक्रम हमेशा संप्रभुता और राजत्व का आधार नहीं था। सिंहासन के उत्तराधिकार में योग्यता और बल भी महत्त्वपूर्ण कारक थे।    

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019) 

  1. दिल्ली सल्तनत के राजस्व प्रशासन में राजस्व वसूली के प्रभारी को 'आमिल' कहा जाता था।
  2. दिल्ली के सुल्तानों की इक्ता प्रणाली एक प्राचीन देशी संस्था थी।
  3. 'मीर बख्शी' का पद दिल्ली के खिलजी सुल्तानों के शासनकाल में अस्तित्व में आया।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 1 और 2
(c) केवल 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (a)  

व्याख्या:  

  • दिल्ली सल्तनत में किसानों से सीधे लगान वसूलने और ज़मीन की पैमाइश का काम आमिलों का था। अतः कथन 1 सही है।
  • इक्ता प्रणाली पश्चिम एशिया में विकसित हुई, विशेष रूप से फारस में बायिड राजवंश के तहत, जिसने इस प्रणाली को औपचारिक रूप प्रदान किया तथा इस राजवंश ने 10वीं और 11वीं शताब्दी के दौरान शासन किया। भारत में इस प्रणाली को संस्थागत दर्जा इल्तुतमिश (मामलुक राजवंश) द्वारा प्रदान किया गया था। इक्ता प्रणाली के तहत साम्राज्य की भूमि को इक्ता नामक भूमि के विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित किया गया था, जिन्हें 'इक्तादार' के रूप में पहचाने जाने वाले अधिकारियों को सौंपा गया था, अतः कथन 2 सही नहीं है।
  • गियास उद-दीन बलबन (1266 -1287) ने 'दीवान-ए-अर्ज' नामक एक सैन्य विभाग की स्थापना की थी, जिसके तहत शाही सेना के संगठन और रखरखाव के लिये 'अरीज-ए-मामुलक' उत्तरदायी होता था। अलाउद्दीन खलजी ने घोड़ों की गुणवत्ता में सुधार के साथ-साथ दीवान-ए-अर्ज विभाग की दक्षता में वृद्धि करने के लिये नकली नंबरिंग को खत्म करने हेतु 'दाग' प्रणाली (यानी घोड़ों की ब्रांडिंग) की शुरुआत की। मीर बक्षी मुगल भारत के दौरान सैन्य विभाग का प्रमुख था। अतः कथन 3 सही नहीं है। 

अतः विकल्प (a) सही उत्तर है।

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