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भारतीय इतिहास

भक्ति और सूफी आंदोलन

  • 16 Sep 2024
  • 28 min read

प्रिलिम्स के लिये:

भक्ति आंदोलन, सूफी आंदोलन, आलवार और नयनार, संस्कृत, लिंगायतवाद, चोल वंश, रामानुज, संत कबीर दास, गुरु नानक, सूफीवाद,  सूफी संप्रदाय 

मेन्स के लिये:

भारतीय विरासत और संस्कृति, इतिहास, सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आंदोलन, भारतीय उपमहाद्वीप में सूफीवाद, भारत में भक्ति आंदोलन

भारत में भक्ति और सूफी आंदोलन धार्मिक सुधार आंदोलनों के रूप में उभरे, जिन्होंने भक्ति, व्यक्तिगत अनुभव और सामाजिक समानता को महत्त्व दिया। दोनों आंदोलनों ने भारतीय समाज, संस्कृति और धार्मिक विचारों को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया, समावेशिता को बढ़ावा दिया तथा स्थापित रूढ़िवादिता को चुनौती दी।

भक्ति आंदोलन क्या है?

  • भक्ति आंदोलन का उद्देश्य भक्ति के माध्यम से धार्मिक सुधार लाना था। 
    • भक्ति का तात्पर्य मोक्ष प्राप्ति के लिये व्यक्तिगत रूप से कल्पित ईश्वर के प्रति भक्तिपूर्ण समर्पण से है।
    • इसकी शुरुआत 8 वीं शताब्दी में दक्षिण भारत (केरल और तमिलनाडु) में हुई तथा धीरे-धीरे यह उत्तर व पूर्वी भारत में फैल गया।
    • इसकी शुरुआत 8वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में हुई और धीरे-धीरे यह उत्तर एवं पूर्वी भारत में फैल गया।
    • यह आंदोलन 15 वीं से 17 वीं शताब्दी के दौरान चरम पर था, जिसमें भक्ति रचनाओं के गायन और कीर्तन पर महत्त्व दिया गया।
  • भक्ति आंदोलन के उदय के कारक: भक्ति ने जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता जैसी बुराइयों को चुनौती दी तथा सभी के लिये समावेशिता को बढ़ावा दिया।
    • तुर्कों की विजय से पहले, उत्तरी भारत पर राजपूत-ब्राह्मण गठबंधन का शासन था। तुर्की विजय ने मंदिर संपदा और राज्य संरक्षण को समाप्त करके ब्राह्मणवादी शक्ति को क्षीण कर दिया।
      • ब्राह्मण प्रभाव में कमी ने नाथपंथी और भक्ति आंदोलन जैसे गैर-अनुवर्ती आंदोलनों के लिये मार्ग प्रशस्त किया। 
    • भक्ति संतों ने सामंती उत्पीड़न के प्रति आम लोगों की पीड़ाओं को व्यक्त किया, हाँलाकि उन्होंने सामंतवाद को सीधे चुनौती नहीं दी। 
      • उनकी शिक्षाओं ने धार्मिक समानता को महत्त्व देते हुए पारंपरिक ब्राह्मण पदानुक्रम से असंतुष्ट निम्न जाति समूहों और कारीगरों को आकर्षित किया। 
  • भक्ति आंदोलन परंपराओं का विकास: भक्ति परंपराएँ समावेशी थीं, जिनमें महिलाओं और निम्न जातियों के लोगों को शामिल किया गया था।
    • भक्ति परंपरा की दो मुख्य धाराएँ विकसित हुईं, सगुण भक्ति (शिव और विष्णु जैसे गुणों वाले देवताओं की पूजा) और निर्गुण भक्ति (निराकार ईश्वर की पूजा)।
    • तमिलनाडु में  आलवार और नयनार प्रमुख भक्ति संत के रूप में उभरे।
      • आलवार: विष्णु के भक्त, जिनमें प्रसिद्ध महिला संत अंडाल भी शामिल हैं। उनके भजनों को "नालयरा दिव्यप्रबंधम" में संकलित किया गया।
      • नयनार: शिव के भक्त, जिनमें प्रसिद्ध महिला संत करैकल अम्मैयार भी शामिल हैं। उनके भजनों को "तेवरम" जैसी रचनाओं में संकलित किया गया।
      • आलवार और नयनार संतों ने उपदेश देने एवं भक्ति गीतों की रचना के लिये संस्कृत के स्थान पर तमिल भाषा का प्रयोग किया तथा ऐसे तीर्थस्थान निर्मित किये जो बाद में प्रमुख मंदिर बन गए।
  • कर्नाटक में भक्ति आंदोलन: बसवन्ना जिन्हें बसव (Basava) के नाम से भी जाना जाता है, के नेतृत्व में, दक्षिण भारत में एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक और सामाजिक सुधार हुआ। 
    • लिंगायत धर्म एक शैव परंपरा है जिसकी स्थापना 12 वीं शताब्दी में कर्नाटक में एक सामाजिक सुधार आंदोलन के रूप में बसवन्ना ने की थी। इसका उद्देश्य जाति व्यवस्था, ब्राह्मणवादी प्रभुत्व और हिंदू धर्म के रीति-रिवाज़ों को चुनौती देना था, जिसमें समानता और इष्टलिंग के रूप में शिव की भक्ति को महत्त्व गया था। 
      • कन्नड़ में भक्ति काव्य का एक अनूठा रूप, वचन साहित्य, इस आंदोलन की आवाज़ के रूप में उभरा, जिसकी रचना बसवन्ना, अल्लामा प्रभु और अक्का महादेवी जैसे संतों ने की थी। 
    • कर्नाटक के वीरशैव संप्रदाय के विपरीत, जो वैदिक परंपराओं और जाति भेद को मानता है, लिंगायत धर्म सामाजिक समानता को बढ़ावा देता है तथा ब्राह्मणवादी धारणाओं को अस्वीकार करता है। 
  • समाज और संस्कृति पर प्रभाव: भक्ति परंपराओं को चोल शासकों (9वीं से 13वीं शताब्दी) का समर्थन प्राप्त हुआ जिन्होंने मंदिरों का निर्माण किया और तमिल शैव भजनों के गायन को संस्थागत रूप दिया।
    • इन शासकों ने मंदिरों को भूमि अनुदान भी दिया और भक्ति परंपराओं को ब्राह्मणवादी प्रथाओं के साथ एकीकृत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • भक्ति और दक्षिण भारतीय आचार्य: 
    • रामानुज (11वीं शताब्दी): रामानुज भक्ति आंदोलन का दार्शनिक रूप से समर्थन करने वाले दक्षिण भारतीय विद्वानों में प्रथम थे। उन्होंने पारंपरिक ब्राह्मणवाद को लोकप्रिय भक्ति के साथ संतुलित किया जो शूद्रों और बहिष्कृत समुदाय सहित सभी के लिये सुलभ है;
      • उन्होंने उपासना की एक पद्धति के रूप में भक्ति का समर्थन किया, लेकिन वेदों तक निम्न जातियों की पहुँच का समर्थन नहीं किया।
      • वे वेदांत के विशिष्टाद्वैत उप-संप्रदाय के प्रमुख प्रस्तावक के रूप में प्रसिद्ध हैं।
    • निम्बार्क: निम्बार्क रामानुज के समकालीन ,एक तेलुगु ब्राह्मण थे। उन्होंने कृष्ण और राधा की भक्ति को महत्त्व दिया।
    • माधव (13वीं शताब्दी): उन्होंने शूद्रों द्वारा वैदिक अध्ययन पर रूढ़िवादी ब्राह्मणवादी प्रतिबंध का विरोध नहीं किया तथा उनका मानना ​​था कि भक्ति शूद्रों को पूजा का एक वैकल्पिक मार्ग प्रदान करती है। 
      • उनकी दार्शनिक प्रणाली भागवत पुराण पर आधारित थी और ऐसा माना जाता है कि उन्होंने उत्तर भारत का भ्रमण किया था।
    • अंतिम दो प्रमुख वैष्णव आचार्य रामानंद (14वीं शताब्दी के अंत और 15वीं शताब्दी के प्रारंभ में) और वल्लभ (15वीं शताब्दी के अंत और 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में) ने भक्ति पर बल दिया।
  • उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन: 13वीं से 15वीं शताब्दी तक उत्तर और पूर्वी भारत में सामाजिक-धार्मिक आंदोलन का विस्तार हुआ, जिनमें भक्ति एवं धार्मिक समानता पर महत्त्व दिया गया। 
    • तुकाराम (1598-1649) मध्य भारत के एक प्रमुख भक्ति संत थे जो कृष्ण की पूजा विठोबा के रूप में करते थे।
    • वल्लभाचार्य (1479-1531) ने मथुरा क्षेत्र में कृष्ण भक्ति को लोकप्रिय बनाया, जो कृष्ण भक्ति का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया।
      • उत्तर भारत में प्रमुख भक्ति संतों में सूरदास, मीराबाई और चैतन्य महाप्रभु शामिल हैं, जिन्होंने कृष्ण के प्रति व्यक्तिगत भक्ति को महत्त्व दिया।
    • कई विद्वानों का तर्क है कि संत कबीर दास, चैतन्य और उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन के अन्य संत दक्षिण भारतीय विद्वानों जैसे रामानंद एवं माधव से प्रभावित थे।
    • यद्यपि उत्तरी भक्ति आंदोलनों ने धार्मिक समानता का समर्थन किया, लेकिन उन्होंने आम तौर पर जाति व्यवस्था, ब्राह्मणवादी धर्मग्रंथों या विशेषाधिकारों को अस्वीकार नहीं किया।
    • उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन विविध थे, कबीर और गुरु नानक जैसे लोग एकेश्वरवाद का समर्थन करते थे, जबकि मीराबाई, सूरदास एवं तुलसीदास जैसे वैष्णव भक्त कवियों का दृष्टिकोण भिन्न था।

भक्ति आंदोलन का प्रभाव क्या है?

  • भक्ति संतों ने मोक्ष के मार्ग के रूप में सरल और नैतिक जीवन को प्रोत्साहित किया, अनैतिक सामाजिक मानदंडों को चुनौती देकर अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों को चुनौती दी और व्यक्तियों को न्यायपूर्ण जीवन जीने के लिये प्रोत्साहित किया। 
    • इस आंदोलन ने पूर्व स्थापित धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं पर सवाल उठाकर आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा दिया। 
  • भक्ति आंदोलन ने महिलाओं और निम्न जातियों के लिये मोक्ष को सुलभ बनाया, जातिगत बाधाओं को तोड़ कर अधिक समावेशी समाज का निर्माण किया।
  • भक्ति संतों ने स्थानीय भाषाओं में धार्मिक शिक्षाओं को लोकप्रिय बनाया, जिससे सामाजिक जागरूकता बढ़ी। इस आंदोलन ने भ्रूणहत्या, सती प्रथा, व्यभिचार और मादक द्रव्यों के सेवन जैसी सामाजिक बुराइयों का मुखर विरोध किया, जिससे इन प्रथाओं का धीरे-धीरे क्षरण हुआ।
    • कीर्तन जैसे संगीत और नृत्य रूप तथा सत्रिया जैसे भक्ति नृत्य रूप का विस्तार हुआ, जिससे भारत की सांस्कृतिक विरासत समृद्ध हुई। इस आंदोलन ने संगीत और कविता को धार्मिक पूजा में एकीकृत किया, जिससे भारतीय प्रदर्शन कलाओं में एक स्थायी विरासत बनी।
  • भक्ति और सूफी आदर्शों के सम्मिलन ने विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच सहिष्णुता, सौहार्द एवं शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का माहौल विकसित किया।

सूफी आंदोलन क्या है?

  • सूफी आंदोलन के बारे में: सूफीवाद या इस्लामी रहस्यवाद के उदय और प्रसार को संदर्भित करता है, जो व्यक्तिगत अनुभव तथा ईश्वर के साथ प्रत्यक्ष संवाद को महत्त्व देता है।
    • यह संस्थागत धर्म की औपचारिकता और कठोरता के प्रति प्रतिक्रिया के रूप में उभरा, जो आंतरिक आध्यात्मिक अनुभव एवं हृदय की शुद्धि पर केंद्रित था।
  • मुख्य प्रथाएँ और मान्यताएँ: सूफियों ने खुद को खानकाह (धर्मशालाओं) के इर्द-गिर्द केंद्रित समुदायों में संगठित किया, जिसका नेतृत्व एक गुरु (शेख या पीर) करता था। उन्होंने आध्यात्मिक वंश (सिलसिला) का गठन किया जो शिष्यों को पैगंबर मुहम्मद से जोड़ता था।
    • सूफी कब्रें या दरगाहें तीर्थयात्रा का स्थल (ज़ियारत) बन गईं, जहाँ लोग आध्यात्मिक उद्देश्य को पूर्ण करने के लिये यात्रा करते थे।
    • सूफी आध्यात्मिक अभ्यासों में संलग्न होते हैं, जिनमें आत्म-दण्ड, ज़िक्र (ईश्वर का स्मरण), समा (संगीतमय गायन) और फना-ओ-बका ( ईश्वर से मिलन के लिये स्वयं का विलय) शामिल हैं, ताकि परमानंद की रहस्यमय अवस्था को प्राप्त किया जा सके।
  • इस्लाम में सूफी आंदोलन का विकास: प्रारंभिक सूफीवाद कुरान की गूढ़ व्याख्याओं द्वारा चिह्नित था, जो पश्चाताप, संयम और ईश्वर में विश्वास जैसे गुणों पर केंद्रित था। प्रमुख प्रारंभिक केंद्रों में मक्का, मदीना, बसरा और कूफा शामिल थे।
  • भारत में सूफीवाद का विकास: 13वीं शताब्दी के प्रारंभ में दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ भारत में सूफीवाद का उदय हुआ तथा इस क्षेत्र में नए संप्रदाय और प्रथाओं का विकास हुआ।
    • अल-हुज़विरी भारत के सबसे पहले प्रमुख सूफी थे, जो लाहौर में बस गए थे और उन्होंने कश्फ-उल महजूब की रचना की थी।
    • 13वीं और 14वीं शताब्दी में सूफीवाद का विकास हुआ, जिसने सभी के लिये करुणा और प्रेम का संदेश फैलाया, जिसे सुलह-कुल के नाम से जाना जाता है।
  • भारत में सूफी संप्रदाय: 14 वीं शताब्दी तक, सूफी संप्रदायों ने मुल्तान से लेकर बंगाल तक पूरे भारत में अपनी मज़बूत उपस्थिति स्थापित कर ली थी। भारत में सूफी संप्रदायों को दो व्यापक प्रकारों में वर्गीकृत किया गया था; वे हैं बा-शरा (इस्लामी कानून (शरिया) का पालन करना) और बे-शरा (इस्लामी कानून का पालन न करना)। 12वीं शताब्दी तक, ये 12 सूफी संप्रदायों या सिलसिलों में संगठित हो गए थे।
  • प्रमुख सूफी संप्रदाय:
    • चिश्ती संप्रदाय: भारत में सबसे प्रभावशाली सूफी संप्रदाय। इसकी स्थापना मुहम्मद गौरी के शासनकाल के दौरान अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने की थी। अकबर ने इस संप्रदाय का अनुसरण किया और सलीम चिश्ती के प्रति समर्पित था।
      • प्रमुख संत: हमीदुद्दीन नागोरी, कुतुबुद्दीन भक्तियार काकी, बाबा फरीद और निज़ामुद्दीन औलिया।
    • सूफी संतों की मजारों पर जियारत (तीर्थयात्रा) और कव्वाली (रहस्यमय संगीत) चिश्ती भक्तिवाद के प्रमुख तत्त्व बन गए, जिससे धार्मिक बहुलवाद को बढ़ावा मिला।
    • चिश्ती संप्रदाय ने ईश्वर और व्यक्तियों के बीच प्रेम के बंधन, विभिन्न धर्मों के प्रति सहिष्णुता एवं सादगी पर ज़ोर दिया। चिश्ती शासक वर्ग के साथ संपर्क से बचते थे।
  • सुहरावर्दी संप्रदाय: मुल्तान में बहाउद्दीन ज़कारिया द्वारा शुरू किया गया। यह आदेश विलासिता में रहने और राज्य सहायता स्वीकार करने के लिये जाना जाता है। बहाउद्दीन ज़कारिया ने इल्तुतमिश के दरबार में सेवा की और उन्हें शेख-उल-इस्लाम बनाया गया।
    • चिश्तियों के विपरीत, सुहरावर्दी सरकार से उपहार और पद स्वीकार करते थे तथा धार्मिक ज्ञान को रहस्यवाद के साथ जोड़ने का समर्थन करते थे।
  • नक्शबंदी संप्रदाय: इसमें शरीयत की प्रधानता पर ज़ोर दिया गया और नवाचारों (बिद्दत) का विरोध किया एवं संगीत सभाओं (समा) व संतों की कब्रों की तीर्थयात्रा जैसी सूफी परंपराओं को अस्वीकार कर दिया।
    • प्रमुख हस्तियों में शेख अहमद सरहिंदी शामिल हैं, जिन्होंने वहदुत-उल-शुहुद (प्रकटवाद) के सिद्धांत को बढ़ावा दिया।
  • ऋषि संप्रदाय (कश्मीर): सूफीवाद के ऋषि संप्रदाय विकास 15वीं और 16वीं शताब्दी के दौरान कश्मीर में हुआ। इसकी स्थापना शेख नूरुद्दीन वली ने की थी, जिसने कश्मीर के ग्रामीण परिवेश में समृद्ध हो कर लोगों के धार्मिक जीवन को प्रभावित किया, लोकप्रिय शैव भक्ति परंपरा से प्रेरणा ली तथा क्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में निहित रहा।

सूफी आंदोलन का प्रभाव क्या है?

  • धार्मिक प्रभाव: व्यक्तिगत भक्ति, ईश्वर के प्रति प्रेम और समानता पर सूफियों के महत्त्व ने कई लोगों को आकर्षित किया, जिसके परिणामस्वरूप विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में धर्मांतरण को बढ़ावा मिला।
    • सूफी शिक्षाओं ने ईश्वर की एकता (तौहीद) और सभी मनुष्यों की समानता पर ज़ोर दिया, धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया और हिंदू धर्म एवं इस्लाम के बीच एक पुल का निर्माण किया। चिश्ती संप्रदाय ने, विशेष रूप से, सभी धर्मों के लोगों को स्वीकार किया तथा सह-अस्तित्व के माहौल को बढ़ावा दिया।
  • सामाजिक प्रभाव: सूफीवाद ने समाज के सभी वर्गों के अनुयायियों को आकर्षित किया, जिनमें निम्न जातियाँ, बहिष्कृत और वंचित समूह शामिल थे, जिन्हें सूफी संतों के समतावादी दृष्टिकोण में सांत्वना मिली। 
    • सार्वभौमिक भाईचारे के सिद्धांत और यह विचार कि ईश्वर की दृष्टि में सभी समान हैं, ने सूफी शिक्षाओं से प्रभावित क्षेत्रों में जातिगत पदानुक्रम क्षीण कर दिया।
    • सूफी खानकाह (मठ) और मदरसे (स्कूल) शिक्षा के केंद्र बन गए।
  • सांस्कृतिक प्रभाव: सूफीवाद ने भारतीय संगीत को गहराई से प्रभावित किया, विशेष रूप से कव्वाली के विकास के साथ, जो एक भक्ति संगीत रूप है जिसकी उत्पत्ति सूफी समा (संगीत सभाओं) से हुई थी। 
  • साहित्य: सूफी कवियों ने भारत की साहित्यिक परंपरा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, खासकर स्थानीय भाषाओं में। उन्होंने पंजाबी, हिंदवी (आधुनिक हिंदी और उर्दू की पूर्ववर्ती) तथा उर्दू जैसी भाषाओं में रहस्यवादी कविताएँ लिखीं। 
    • बुल्ले शाह, शाह हुसैन और सुल्तान बाहू जैसे सूफी कवि अपनी भक्ति कविताओं के लिये  उल्लेखनीय हैं, जो उपमहाद्वीप में आज भी प्रसिद्ध हैं।
  • राजनीतिक प्रभाव: सुलह-ए-कुल (सभी के साथ शांति) की सूफी अवधारणा ने मुगल सम्राट अकबर को प्रभावित किया, जिसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई। 
    • इस्लाम, हिंदू धर्म और अन्य धर्मों के तत्त्वों को मिलाकर एक समन्वित धर्म दीन-ए-इलाही बनाने के अकबर के प्रयास, सार्वभौमिक भाईचारे और सहिष्णुता पर सूफी ज़ोर से प्रभावित थे।
    • अकबर द्वारा इस्लाम, हिंदू धर्म और अन्य धर्मों के तत्त्वों को मिलाकर एक समन्वित धर्म 'दीन-ए-इलाही 'बनाने का प्रयास, सूफी धर्म के सार्वभौमिक भाईचारे एवं सहिष्णुता पर ज़ोर देने से प्रभावित था।
    • दिल्ली के सुल्तानों और मुगल सम्राटों सहित कई शासकों ने सूफी संतों एवं संप्रदायों को संरक्षण दिया, जिससे उनकी राजनीतिक सत्ता मज़बूत हुई तथा विविध धार्मिक समुदायों पर उनका नियंत्रण आसान हुआ।

भक्ति और सूफी के बीच अंतर

स्थिति

भक्ति आंदोलन

सूफी आंदोलन

धार्मिक प्रभाव

मुख्यतः हिंदुओं द्वारा अनुसरण किया जाता है

मुख्य रूप से मुसलमानों द्वारा अनुसरण किया जाता है

उत्पत्ति

8वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में उत्पन्न

इसकी उत्पत्ति 7वीं शताब्दी के अरब प्रायद्वीप (इस्लाम के प्रारंभिक दिनों) से मानी जाती है

धार्मिक आंदोलन

हिंदू धर्म में एक सामाजिक पुनरुत्थान और सुधार आंदोलन के रूप में माना जाता है

इस्लाम के भीतर एक धार्मिक आंदोलन, जिसे प्राय भूलवश एक अलग संप्रदाय के रूप में समझा जाता है

विस्तार

इसका विस्तार 15वीं शताब्दी से पूर्व, उत्तर भारत में हुआ 

कई महाद्वीपों और संस्कृतियों तक विस्तार हुआ

भक्ति और सूफी आंदोलनों में परस्पर संबंध कैसे हुआ?

  • समतावादी प्रथाओं में समानताएँ: दोनों आंदोलनों ने धार्मिक समानता को बढ़ावा दिया, जिसमें लंगर (मुफ्त रसोई) जैसी प्रथाएँ दोनों में समान रूप से मौजूद थीं। शुरुआत में सूफियों द्वारा प्रचलित लंगर को बाद में जाति पदानुक्रम को समाप्त करने के लिये गुरु नानक द्वारा अपनाया गया था।
    • भक्ति और सूफी आंदोलनों में रीति-रिवाज़ और प्रथाएँ एक जैसी थीं। उदाहरण के लिये, चैतन्य महाप्रभु का वैष्णव कीर्तन,सूफी समा (संगीत समारोह) से मिलता-जुलता था, जो कुछ हद तक परस्पर क्रिया का संकेत देता है।
  • सांस्कृतिक और रहस्यमय आदान-प्रदान: संगीत और कविता ने दोनों आंदोलनों में अपनी भक्ति को व्यक्त करने के माध्यम के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सूफी कव्वालियों और भक्ति गीतों में ईश्वरीय प्रेम, पीड़ा एवं लालसा के विषयों पर ध्यान केंद्रित किया गया।
    • सूफीवाद और भक्ति दोनों ने ईश्वर की ओर एक आंतरिक, व्यक्तिगत यात्रा पर ज़ोर दिया, जिसकी विशेषता प्रेम, भक्ति और भावनात्मक तीव्रता है। सूफीवाद का इश्क (ईश्वरीय प्रेम) भक्ति के विरह (ईश्वर के लिये तड़प) को दर्शाता है।

पारस्परिक प्रभाव:

  • भक्ति आंदोलन पर सूफीवाद का प्रभाव:  
    • गुरु नानक जैसे संतों का सूफियों के साथ परस्पर संपर्क था, विशेष रूप से रूढ़िवादी धार्मिक प्रथाओं को अस्वीकार करने के मामले में। 
    • पीर (आध्यात्मिक मार्गदर्शक) और ईश्वर के साथ रहस्यमय मिलन की सूफी अवधारणा, गुरु (शिक्षक) की भक्ति अवधारणा एवं भक्त के ईश्वर के साथ व्यक्तिगत संबंध के साथ प्रतिध्वनित होती है।
    • अमीर खुसरो समेत कई सूफी कवियों ने हिंदवी जैसी क्षेत्रीय भाषाओं में पद्य रचे, जो भक्ति संतों द्वारा अपने संदेश को फैलाने के लिये स्थानीय भाषाओं के उपयोग को दर्शाता है। इससे एक साझा साहित्यिक और संगीत संस्कृति को बढ़ावा मिला।
  • सूफीवाद पर भक्ति आंदोलन का प्रभाव: कश्मीर में शेख नूरुद्दीन वली द्वारा स्थापित ऋषि सूफी संप्रदाय, गैर-अनुवर्ती विचारों और भक्ति संत लाल देद की शिक्षाओं से गहराई से प्रभावित था।
    • ऋषियों ने कश्मीरी शैव धर्म के पहलुओं को अपनाया और स्थानीय भक्ति प्रथाओं को अपने सूफी दर्शन में शामिल किया।

निष्कर्ष

भक्ति और सूफी आंदोलनों ने धार्मिक रूढ़िवादिता को चुनौती दी, स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा दिया एवं जाति व वर्ग की सीमाओं के पार समावेशिता को बढ़ावा दिया। उनके संपर्कों ने सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया, विशेष रूप से संगीत एवं साहित्य में, जिसने धार्मिक सहिष्णुता व सार्वभौमिक भाईचारे के साझा लोकाचार में योगदान दिया। अंततः इन आंदोलनों ने भारत के धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य पर एक स्थायी प्रभाव छोड़ा, जिसने इसकी समन्वयकारी परंपराओं को आकार दिया।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न) मध्यकालीन भारत के धार्मिक इतिहास के संदर्भ में, सूफी संत किस तरह के आचरण का निर्वाह करते थे? (2012)

  1. ध्यान साधना एवं श्वास नियमन।
  2. एकांत में कठोर योगिक व्यायाम। 
  3. श्रोताओं में आध्यात्मिक हर्षोन्माद उत्पन्न करने के लिये पवित्र गीतों का गायन  

निम्नलिखित कूट के आधार पर सही उत्तर चुनिये: 

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न) भक्ति साहित्य की प्रकृति और भारतीय संस्कृति में इसके योगदान का मूल्यांकन कीजिये। (2021)

प्रश्न) सूफी और मध्यकालीन रहस्यवादी संत हिंदू/मुस्लिम समाजों के धार्मिक विचारों एवं प्रथाओं या बाहरी ढाँचे को किसी भी सराहनीय सीमा तक संशोधित करने में विफल रहे। टिप्पणी कीजिये। (2014)

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