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भारतीय विरासत और संस्कृति

तमिलनाडु में ओधुवर

  • 19 Oct 2023
  • 9 min read

प्रिलिम्स के लिये:

ओधुवर, शैव, पथिगम, तिरुमुरई, थेवरम, अव्वैयार, भक्ति परंपरा

मेन्स के लिये:

ओधुवरों को मान्यता दिये जाने से सदियों पुरानी परंपरा को वैधता और समुदाय को लाभ

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही में तमिलनाडु सरकार ने 15 ओधुवरों (जिसमें पाँच महिलाएँ शामिल हैं) की नियुक्ति के आदेश दिये हैं, इन्हें विशेष रूप से चेन्नई के शैव मंदिरों में भजन और स्तुति गाकर देवी-देवताओं की पूजा-वंदना करने के लिये नियुक्त किया गया है।

तमिलनाडु में ओधुवर:

  • परिचय:
    • ओधुवर तमिलनाडु के हिंदू मंदिरों में भजन गायन करते हैं लेकिन वे पुजारी नहीं होते हैं। उनका मुख्य कार्य शैव मंदिरों में भगवान शिव की स्तुति करना है, ये गीत-भजन थिरुमुराई भजन संग्रह से लिये जाते हैं। वे भक्ति भजन गाते हैं, उन्हें पवित्र गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति नहीं होती है।
  • ओधुवर परंपरा की शुरुआत:
    • प्राचीन काल से ही ओधुवरों की परंपरा रही है, भक्ति आंदोलन की शुरुआत के साथ ही इनकी मान्यता का पता चलता है। तमिलनाडु में 6ठी और 9वीं शताब्दी के बीच ओधुवर परंपरा अच्छी तरह विकसित हुई।
    • इस अवधि के दौरान अलवार और नयनार के नाम से प्रचलित अनेकों संत-कवियों ने क्रमशः भगवान विष्णु एवं भगवान शिव की स्तुति में भजनों के रूप में भक्ति काव्य की रचना की। ओधुवर इस समृद्ध संगीत व भक्ति विरासत के संरक्षक के रूप में उभरे

अलवार और नयनार: तमिल भक्ति परंपरा के संत:

  • अलवार:
    • भगवान विष्णु की भक्ति: अलवार बारह वैष्णव (भगवान विष्णु के भक्त) संत-कवियों का एक समूह था। उनकी रचनाएँ मुख्य रूप से भगवान विष्णु के प्रति उनकी गहरी श्रद्धा-भक्ति पर केंद्रित थीं और इन रचनाओं में मोक्ष प्राप्त करने हेतु ईश्वर के प्रति समर्पण (प्रपत्ति) की अवधारणा पर बल दिया गया था।
    • काव्य रचनाएँ: अलवार के भक्ति भजन और कविताएँ प्रमुख वैष्णव ग्रंथ, नालयिर दिव्य प्रबंधम में संकलित हैं। तमिल भाषा में रचित इन रचनाओं में भगवान विष्णु के दिव्य गुणों एवं रूपों का वर्णन है।
  • नयनार:
    • भगवान शिव की भक्ति: नयनार 63 शैव (भगवान शिव के भक्त) संत-कवियों का एक समूह था। ये भगवान शिव के प्रति पूर्णतः समर्पित थे और उनकी स्तुति में भजन व काव्य की रचना करते थे, ये रचनाएँ भक्ति मार्ग तथा परमात्मा के प्रति प्रेम पर केंद्रित थीं।
    • काव्य रचनाएँ: नयनारों के भजन और काव्य रचनाएँ शैव धर्मग्रंथों के संग्रह थिरुमुराई में संकलित की गईं। तमिल भाषा में लिखित इन रचनाओं में भगवान शिव की विभिन्न रूपों तथा दिव्य गुणों का वर्णन है।

वर्तमान संदर्भ में ओधुवरों की प्रासंगिकता:

  • धार्मिक महत्त्व: तमिलनाडु के मंदिरों के दैनिक और महोत्सव अनुष्ठानों में ओधुवरों का काफी महत्त्व है। थेवरम और थिरुवसागम दो प्राचीन तमिल ग्रंथ हैं, यह भगवान शिव के भजन तथा स्तुतियों का संकलन है, इन गीतों के गायन का कार्य प्राचीन काल से ओधुवर ही करते आए हैं।
  • सामुदायिक जुड़ाव: अधिकाशतः ओधुवर बहिष्कृत समुदायों से संबंधित होते हैं और मंदिरों में किसी भी कार्य के लिये उनकी भूमिका का निर्धारण किया जाना उनके लिये आर्थिक अवसर है। इसके अतिरिक्त उनका प्रदर्शन स्थानीय समुदाय को एकजुट करने के साथ ही एकता व अपनेपन की भावना को बढ़ावा देता है।
  • तमिल भाषा का संरक्षण: तमिल भाषा के संरक्षण में ओधुवरों का योगदान अहम है। अपने गीति-पाठों के माध्यम से वे आने वाली पीढ़ियों के लिये प्राचीन तमिल ग्रंथों की समझ व पठन-पाठन को सरल बनाते हैं
  • भक्ति-भावना को प्रोत्साहन: ओधुवर मंदिरों के भीतर भक्तिमय वातावरण का निर्माण करने में मदद करते हैं। उनकी भावपूर्ण प्रस्तुति उपासकों में धर्मपरायणता और आध्यात्मिकता की भावना पैदा करती है।

तमिलनाडु में ओधुवरों से संबंधित मुद्दे व चिंताएँ:

  • आर्थिक सुभेद्यता:
    • कई ओधुवरों को अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिये संघर्ष करना पड़ता है, क्योंकि उनकी आय का एक बड़ा हिस्सा मंदिर के दान और चढ़ावे पर निर्भर करता है। यह आर्थिक असुरक्षा ओधुवरों की परंपरा के पतन का कारण भी बन सकती है।
  • मान्यीकरण का अभाव:
    • मंदिर के अनुष्ठानों और तमिल संस्कृति के संरक्षण में ओधुवरों के योगदान पर अक्सर ध्यान नहीं दिया जाता है। उन्हें सीमित मान्यता दिया जाना उन्हें हतोत्साहित कर सकता है।
  • रुचि में कमी:
    • आर्थिक अस्थिरता के कारण इस बात की काफी संभावना है कि युवा पीढ़ी के बीच ओधुवर परंपरा को बनाए रखने के प्रति दिलचस्पी में काफी कमी आ सकती है। यह इस परंपरा की निरंतरता के लिये चिंता का विषय है
  • प्रौद्योगिकी और आधुनिकीकरण:
    • रिकार्डेड संगीतों के प्रचलन और आधुनिकीकरण की शुरुआत के साथ लोगों द्वारा धार्मिक एवं भक्ति संबंधी सामग्री के उपयोग के तरीके में बदलाव आ गया है। डिजिटल मीडिया और समकालीन संगीत रूपों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करना ओधुवरों के लिये चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
  • संस्थागत समर्थन का अभाव:
    • संगीत नाटक अकादमी आदि जैसे मान्यता प्राप्त सरकारी संस्थान ओधुवरों की चिंताओं के प्रति उदासीन रहे हैं, जबकि इन संस्थानों के सहयोग से ओधुवर समुदायों की पीड़ाओं को काफी कम किया जा सकता है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारत की संस्कृति एवं परंपरा के संदर्भ में 'कलारीपयट्टू' क्या है? (2014)

(a) यह शैवमत का एक प्राचीन भक्ति पंथ है जो अभी भी दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में प्रचलित है।
(b) यह काँसे और पीतल के काम की एक प्राचीन शैली है जो अभी भी कोरोमंडल क्षेत्र के दक्षिणी हिस्से में पाई जाती है।
(c) यह नृत्य-नाटिका का एक प्राचीन रूप है और मालाबार के उत्तरी हिस्से में जीवंत परंपरा है।
(d) यह एक प्राचीन मार्शल कला है और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में जीवंत परंपरा है।

उत्तर: D


प्रश्न. मध्यकालीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2016)

  1. तमिल क्षेत्र के सिद्ध (सित्तर) एकेश्वरवादी थे तथा मूर्तिपूजा की निंदा करते थे।
  2. कन्नड़ क्षेत्र के लिंगायतों पुनर्जन्म के सिद्धांत पर प्रश्नचिह्न लगाते थे और जाति अधिक्रम को अस्वीकार करते थे।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: C


मेन्स:

प्रश्न. भक्ति साहित्य की प्रकृति का मूल्यांकन करते हुए भारतीय संस्कृति में इसके योगदान का निर्धारण कीजिये। (2021)

प्रश्न. श्री चैतन्य महाप्रभु के आगमन से भक्ति आंदोलन को एक असाधारण नई दिशा मिली थी। चर्चा कीजिये। (2018)

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