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भारतीय राजव्यवस्था

वैधानिक, विनियामक और विभिन्न अर्ध-न्यायिक निकाय

  • 07 Nov 2024
  • 32 min read

संवैधानिक एवं वैधानिक निकाय क्या हैं?

  • संवैधानिक निकाय:
  • वैधानिक निकाय: 
    • भारत में वैधानिक निकाय गैर-संवैधानिक निकाय हैं, क्योंकि उनका संविधान में उल्लेख नहीं है। 
    • स्थापना: 
      • इन निकायों की स्थापना संसद के अधिनियम या राज्य विधानमंडलों के अधिनियम के माध्यम से की जाती है, जिससे उन्हें शासन में महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ प्राप्त होती हैं।
      • उन्हें 'वैधानिक' के रूप में जाना जाता है क्योंकि वे विधायिका द्वारा पारित विधि (कानूनों) से अपनी शक्तियाँ प्राप्त करते हैं।
    • उद्देश्य: 
      • इन्हें विशिष्ट उद्देश्यों को पूरा करने, विशेष मुद्दों को संबोधित करने और विभिन्न क्षेत्रों को विनियमित करने के लिये बनाया गया है।
    • शक्तियाँ
      • वे राज्य या देश की ओर से कुछ कानून लागू करने, पारित करने और निर्णय लेने के लिये अधिकृत हैं।

नोट: एक ही निकाय के पास वैधानिक, नियामक और अर्ध-न्यायिक कार्य हो सकते हैं।

भारत में प्रमुख वैधानिक निकाय क्या हैं और उनके कार्य क्या हैं?

  • भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI):
    • भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की स्थापना 1 अप्रैल, 1935 को भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 के प्रावधानों के अनुसार की गई थी। इसे मूल रूप से वर्ष 1935 में एक निजी इकाई के रूप में स्थापित किया गया था, लेकिन देश की स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1949 में इसका राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और अब यह पूरी तरह से भारत सरकार के स्वामित्व में है।
    • मुख्य कार्य:
      • मौद्रिक प्राधिकरण: यह मूल्य स्थिरता और आर्थिक विकास सुनिश्चित करने के लिये  मौद्रिक नीति को लागू करता है तथा उसकी निगरानी करता है। लचीले मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण ढाँचे को मौद्रिक नीति समिति (MPC) द्वारा लिये गए निर्णयों के साथ RBI अधिनियम 1934 में वर्ष 2016 के संशोधन के माध्यम से पेश किया गया था।
      • वित्तीय प्रणाली का विनियामक और पर्यवेक्षक: RBI बैंकिंग परिचालन, लाइसेंस जारी करने, तरलता को विनियमित करने और जमाकर्त्ताओं के हितों की रक्षा करते हुए वित्तीय प्रणाली में जनता का विश्वास सुनिश्चित करने के लिये मानदंड निर्धारित करता है।
      • विदेशी मुद्रा प्रबंधक: यह भारत के विदेशी मुद्रा भंडार का प्रबंधन करता है, बाह्य व्यापार को सुगम बनाता है और रुपए के मूल्य को बनाए रखता है।
      • मुद्रा जारीकर्त्ता: सार्वजनिक उपयोग के लिये इसकी गुणवत्ता और पर्याप्तता सुनिश्चित करते हुए मुद्रा जारी करता है तथा उसका प्रबंधन करता है।
      • विकासात्मक भूमिका: ग्रामीण वित्त को बढ़ावा देने और लघु उद्योगों के लिये  प्राथमिकता वाले क्षेत्र को ऋण देने जैसे राष्ट्रीय उद्देश्यों का समर्थन करता है।
      • अन्य कार्य: सरकार और अन्य बैंकों के लिये बैंकर के रूप में कार्य करता है, सरकारी निधियों, प्रेषणों तथा सार्वजनिक ऋण का प्रबंधन करता है। यह बैंकों के लिये अंतिम ऋणदाता के रूप में भी कार्य करता है।
  • भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI): 
    • SEBI भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड अधिनियम, 1992 के प्रावधानों के अनुसार 12 अप्रैल, 1992 को स्थापित एक वैधानिक निकाय है।
    • शक्तियाँ और कार्य:
      • SEBI एक अर्द्ध-विधायी और अर्द्ध-न्यायिक निकाय है जो नियमों का मसौदा तैयार कर सकता है, जाँच कर सकता है, निर्णय पारित कर सकता है तथा ज़ुर्माना लगा सकता है।
      • यह पूंजी जुटाने के लिये बाज़ार उपलब्ध कराकर जारीकर्त्ताओं की सेवा करता है, निवेशकों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है और मध्यस्थों के लिये प्रतिस्पर्धी बाज़ार की सुविधा प्रदान करता है।
      • SEBI उद्यम पूंजी कोष तथा म्यूचुअल फंड की देखरेख करता है और प्रतिभूति बाज़ारों से संबंधित धोखाधड़ी एवं अनुचित व्यापार प्रथाओं को प्रतिबंधित करने के लिये भी कार्य करता है।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC):
    • NHRC की स्थापना मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम (Protection of Human Rights Act- PHRA), 1993 के प्रावधानों के तहत 12 अक्तूबर, 1993 को की गई थी   तथा वर्ष 2006 और 2019 में इसमें संशोधन किया गया था। 
    • यह भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत या अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध तथा भारत में न्यायालयों द्वारा लागू कानून के तहत व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता, समानता एवं गरिमा से संबंधित अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।  
    • भूमिका और कार्य:
      • यह न्यायिक कार्यवाही के लिये सिविल न्यायालय के रूप में कार्य करता है तथा मामला घटित होने के एक वर्ष के भीतर मानवाधिकार उल्लंघन की जाँच कर सकता है।
      • मानवाधिकार उल्लंघनों की जाँच के लिये केंद्र अथवा राज्य सरकार के अधिकारियों या जाँच एजेंसियों की सेवाओं का प्रयोग करने का अधिकार है।
  • राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW):
    • राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम, 1990 के तहत NCW को जनवरी 1992 में एक वैधानिक निकाय के रूप में स्थापित किया गया था।
    • यह महिलाओं को प्रभावित करने वाले सभी नीतिगत मामलों पर सरकार को सलाह देता है और भारत में महिलाओं के अधिकारों का प्रतिनिधित्व करता है। 
    • NCW दहेज, नौकरियों में लैंगिक समानता और महिलाओं के शोषण जैसे मुद्दों को संबोधित करता है। यह महिलाओं के खिलाफ हिंसा, भेदभाव और अधिकारों के उल्लंघन की शिकायतों की भी जाँच करता है ।
  • राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT):
  • केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC):
    • CVC भारत में शीर्षस्‍थ सतर्कता संस्‍थान है। यह किसी भी कार्यकारी प्राधिकरण से स्वतंत्र रूप से कार्य करती है।
    • CVC को सरकार द्वारा फरवरी 1964 में के. संथानम की सिफारिशों पर की गई थी और इसे CVC अधिनियम, 2003 द्वारा वैधानिक दर्जा दिया गया था ।
    • यह केंद्रीय सरकार के अंतर्गत सभी सतर्कता गतिविधियों की निगरानी करता है, साथ ही केंद्रीय सरकारी संगठनों में विभिन्‍न प्राधिकारियों को उनके सतर्कता कार्यों की योजना बनाने, निष्‍पादन करने, समीक्षा करने एवं सुधार करने के संबंध में सलाह देता है।
  • सशस्त्र बल अधिकरण (AFT)
    • सशस्त्र बल अधिकरण भारत का एक सैन्य अधिकरण है जिसकी स्थापना 8 अगस्त 2009 को हुई थी और यह सशस्त्र बल अधिकरण अधिनियम, 2007 के तहत स्थापित एक वैधानिक निकाय है।
    • इसके द्वारा सेना अधिनियम, 1950, नौसेना अधिनियम, 1957 तथा वायु सेना अधिनियम 1950 के अधीन व्यक्तियों के संबंध में आयोग, नियुक्तियों, नामांकन तथा कार्यकाल की शर्तों के संबंध में विवादों एवं शिकायतों पर AFT द्वारा निर्णय अथवा परीक्षण की शक्ति प्रदान की जाती है। 
  • भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (CCI):
    • CCI एक वैधानिक निकाय है जो प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम, 2002 को लागू करने के लिये ज़िम्मेदार है और इसका गठन मार्च 2009 में किया गया था।
    • यह अधिनियम प्रतिस्पर्द्धा-विरोधी समझौतों, उद्यमों द्वारा प्रभुत्वशाली स्थिति के दुरुपयोग पर रोक लगाता है तथा संयोजनों को नियंत्रित करता है, जिससे भारत में प्रतिस्पर्द्धा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
  • केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (CBFC):
    • CBFC सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत संचालित एक वैधानिक निकाय है, जिसे सिनेमैटोग्राफ अधिनियम, 1952 के अनुसार फिल्मों के सार्वजनिक प्रदर्शन को विनियमित करने का कार्य सौंपा गया है।
    • वे फिल्मों को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किये जाने से पहले प्रमाणन देते हैं, ताकि कानूनी आवश्यकताओं और मानकों का अनुपालन सुनिश्चित हो सके।

भारत में विनियामक निकाय क्या हैं?

भारत में प्रमुख विनियामक निकाय क्या हैं और उनके कार्य क्या हैं?

  • राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (NABARD)
  • भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI)
    • FSSAI भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत खाद्य संरक्षा एवं मानक अधिनियम, 2006 के तहत स्थापित एक स्वायत्त वैधानिक और विनियामक निकाय है।
    • कार्य:
      • खाद्य संरक्षा मानकों एवं दिशा-निर्देशों को निर्धारित करने के लिये नियमों का निर्धारण।
      • FSSAI खाद्य व्यवसायों के लिये लाइसेंस और प्रमाणन प्रदान करना।
      • खाद्य व्यवसायों में कार्यरत प्रयोगशालाओं हेतु प्रक्रिया एवं दिशा-निर्देश निर्धारित करना।
      • नीति निर्माण में सरकार को सलाह देना।
      • खाद्य उत्पादों में संदूषकों के बारे में डेटा एकत्र करना, उभरते जोखिमों की पहचान करना और त्वरित चेतावनी प्रणाली  शुरु करना।
      • खाद्य सुरक्षा के संबंध में एक राष्ट्रव्यापी सूचना नेटवर्क तैयार करना।
      • खाद्य संरक्षा एवं खाद्य मानकों के संबंध में सामान्य जागरूकता को बढ़ाना।
  • भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (TRAI)
    • भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (Telecom Regulatory Authority of India- TRAI) की स्थापना 20 फरवरी, 1997 को भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण अधिनियम, 1997 द्वारा की गई थी।
    • ट्राई के कार्य:
      • दूरसंचार सेवाओं को विनियमित करना, जिसमें दूरसंचार सेवाओं के लिये टैरिफ का निर्धारण/संशोधन शामिल है, जो पहले केंद्र सरकार में निहित थे।
      • सेवा की गुणवत्ता और टैरिफ में पारदर्शिता सुनिश्चित करना।
      • नीतिगत मामलों और लाइसेंसिंग मुद्दों पर सरकार को सलाह देना।
  • राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (NPPA)
    • NPPA का गठन वर्ष 1997 में रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के फार्मास्यूटिकल्स विभाग (DoP) के एक संबद्ध कार्यालय के रूप में किया गया था।
    • कार्य:
      • राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (NPPA) 1995/2013 के औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश (DPCO) को अपनी शक्तियों के अनुसार लागू करना।
      • औषधि मूल्य निर्धारण और फॉर्मूलेशन से संबंधित अध्ययनों का संचालन तथा प्रायोजन करना।
      • औषधि उपलब्धता की निगरानी करना, कमी की पहचान करना और आवश्यकतानुसार सुधारात्मक उपाय करना।
      • उत्पादन, निर्यात, आयात, व्यक्तिगत कंपनी के बाज़ार हिस्सेदारी और थोक औषधि एवं फॉर्मूलेशन निर्माताओं की लाभप्रदता पर डेटा एकत्र करना तथा बनाए रखना।
      • प्राधिकरण के निर्णयों से उत्पन्न होने वाले सभी कानूनी मामलों को संभालना।
      • औषधि नीति में संशोधन पर केंद्र सरकार को सलाह देना और सहायता करना तथा औषधि मूल्य निर्धारण से संबंधित संसदीय मामलों का समर्थन करना।

विनियामक निकायों से संबंधित मुद्दे और उपाय क्या हैं?

  • विनियामक निकायों से संबंधित मुद्दे:
    • लोकलुभावन दबाव: राजनीतिक लोकलुभावनवाद अक्सर आर्थिक एजेंडों को कमज़ोर करता है, जिसके कारण सत्तारूढ़ दलों द्वारा विनियामक कार्यों में हस्तक्षेप होता है, जिसका उदाहरण भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) में सरकारी हस्तक्षेप है।
    • अपर्याप्त समीक्षा तंत्र: संसदीय समितियों द्वारा मुख्य रूप से संचालित विनियामक निकायों के लिये मूल्यांकन प्रक्रियाएँ पर्याप्त रूप से मज़बूत नहीं हैं, जिससे जवाबदेही और निगरानी की कमी होती है।
    • संरचनात्मक कमज़ोरी: कई विनियामक प्राधिकरणों को सूचित निर्णय लेने के लिये तकनीकी विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है, हालाँकि विशेषज्ञ पदों पर महत्त्वपूर्ण रिक्तियाँ बनी हुई हैं। उदाहरण के लिये, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) में लगभग 20% पद रिक्त हैं, जैसा कि इसकी नवीनतम वार्षिक रिपोर्ट में बताया गया है।
    • ओवरलैपिंग अधिकार क्षेत्र: कई विनियामक निकायों के अस्तित्व के कारण ओवरलैपिंग शक्तियाँ होती हैं, जिससे भ्रम और अक्षमता उत्पन्न होती है। उदाहरण के लिये:
  • विनियामक निकायों में सुधार हेतु सुझाए गए उपाय:
    • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) ने विनियामक निकायों के कामकाज को बेहतर बनाने के लिये कई सुधारों की सिफारिश की है:
    • द्वितीय ARC की 12वीं रिपोर्ट:
      • मौजूदा कानूनों और विनियमों की व्यापक समीक्षा करना, अनावश्यक कानूनों को समाप्त करना और अनुपालन को अधिक सुगम बनाने के लिये पुरानी प्रक्रियाओं को अपडेट करना।
      • उच्च प्रवर्तन मानकों को बनाए रखने के लिये समय-समय पर स्वतंत्र मूल्यांकन द्वारा पूरक विनियामक एजेंसियों की मज़बूत आंतरिक पर्यवेक्षण स्थापित करना।
      • कराधान और सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में स्व-विनियमन को बढ़ावा देना और प्रवर्तन बोझ को कम करने के लिये स्वैच्छिक अनुपालन को प्रोत्साहित करना।
      • पारदर्शी और नागरिक-अनुकूल बनाने के लिये विनियामक प्रक्रियाओं को सरल बनाना, विवेक को कम करने और पारदर्शिता बढ़ाने के लिये प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना जिससे भ्रष्टाचार कम हो।
    • द्वितीय ARC की 13वीं रिपोर्ट:
      • प्रत्येक मंत्रालय या विभाग को एक 'प्रबंधन वक्तव्य' विकसित करना चाहिये जो प्रत्येक विनियामक के उद्देश्यों और भूमिकाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त करता हो।
      • विनियामक प्राधिकरणों की नियुक्ति, कार्यकाल और निष्कासन की शर्तों में अधिक स्थिरता स्थापित करना ताकि उनकी स्वतंत्रता एवं स्थिरता सुनिश्चित हो सके।
      • जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ाने के लिये विभागीय रूप से संबंधित स्थायी समितियों के माध्यम से विनियामक निकायों की संसदीय निगरानी को मज़बूत करना।
      • प्रवर्तन बोझ को वितरित करने और अनुपालन को सत्यापित करने के लिये नागरिक समूहों एवं पेशेवर संगठनों को विनियामक गतिविधियों में शामिल करना।

अर्ध-न्यायिक निकाय क्या हैं?

  • परिचय:
    • अर्ध-न्यायिक निकाय गैर-न्यायिक संस्थाएँ हैं जिनके पास कानून की व्याख्या करने का अधिकार है जैसे कि मध्यस्थता पैनल या न्यायाधिकरण बोर्ड जिन्हें न्यायालय या न्यायाधीश के समान शक्तियाँ और प्रक्रियाएँ दी गई हैं।
    • उदाहरण के लिये, भारतीय निर्वाचन आयोग एक अर्ध-न्यायिक निकाय है, लेकिन इसका मूल कार्य न्यायालय जैसा नहीं है।
  • विशेषताएँ:
    • विवाद समाधान: अर्ध-न्यायिक निकायों के पास मामलों में मध्यस्थता करने और दंड लगाने का अधिकार होता है। पक्षकार इन निकायों से न्याय की मांग कर सकते हैं, जिससे वे औपचारिक न्यायिक प्रणाली की जटिलताओं से बच सकते हैं।
    • सीमित न्यायिक शक्तियाँ: उनका अधिकार क्षेत्र सामान्यतः वित्तीय बाज़ारों, रोज़गार कानूनों, सार्वजनिक मानकों या विनियामक मामलों जैसे विशेषज्ञता के विशिष्ट क्षेत्रों तक ही सीमित होता है।
    • पूर्व निर्धारित नियम: अर्ध-न्यायिक निकायों के निर्णय और पुरस्कार अक्सर स्थापित नियमों द्वारा निर्देशित होते हैं तथा मौजूदा कानूनी ढाँचों पर आधारित होते हैं। 
    • दंड देने वाला प्राधिकारी: इन निकायों के पास अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर उल्लंघन के लिये दंड की शक्ति होती है।
      • भारत में उपभोक्ता न्यायालय उपभोक्ता विवादों का निपटारा करते हैं तथा अवैध कार्यों में लिप्त कंपनियों को दंडित करते हैं।
    • न्यायिक समीक्षा: अर्ध-न्यायिक निकायों के निर्णयों के विरुद्ध न्यायालय में अपील की जा सकती है, जिसमें न्यायपालिका का निर्णय सर्वोपरि होता है।
    • विशेषज्ञ नेतृत्व: न्यायपालिका के विपरीत, जिसकी अध्यक्षता न्यायाधीश करते हैं, अर्ध-न्यायिक निकायों का नेतृत्व सामान्यतः वित्त, अर्थशास्त्र और विधि जैसे प्रासंगिक क्षेत्रों के विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है।
  • शक्तियाँ:
    • सुनवाई आयोजित करना: वे साक्ष्य एकत्र करने और गवाहों की गवाही सुनने के लिये सुनवाई कर सकते हैं।
    • तथ्यात्मक निर्धारण: अर्ध-न्यायिक अधिकारी सुनवाई में प्रस्तुत साक्ष्य के आधार पर प्रासंगिक तथ्यात्मक निर्धारण कर सकते हैं।
    • विधि लागू करना: वे अपने द्वारा निर्धारित तथ्यों पर विधि लागू कर सकते हैं और शामिल पक्षों के विधिक अधिकारों, कर्त्तव्यों या विशेषाधिकारों के विषय में निर्णय ले सकते हैं।
    • आदेश या निर्णय जारी करना: वे ऐसे आदेश या निर्णय जारी कर सकते हैं जिनमें विधिक बल हो, जैसे किसी पक्ष को हर्जाना देने या कुछ शर्तों का पालन करने की आवश्यकता हो।
    • निर्णयों को लागू करना: वे अपने निर्णयों को लागू करने के लिये  कदम उठा सकते हैं, जैसे कि गैर-अनुपालन के लिये जुर्माना या अन्य दंड लगाना।

भारत में प्रमुख अर्ध-न्यायिक निकाय कौन से हैं?

  • आयकर अपीलीय अधिकरण
    • यह आयकर अधिकारियों के आदेशों के विरुद्ध अपील दायर करने के लिये एक अर्ध-न्यायिक अधिकरण है।
    • आयकर विभाग आयकर आयुक्त (अपील) द्वारा पारित किसी भी आदेश के विरुद्ध ITAT के समक्ष अपील भी दायर कर सकता है।
  • दूरसंचार विवाद निपटान एवं अपीलीय अधिकरण (TDSAT)
    • TDSAT दूरसंचार क्षेत्र में लाइसेंसप्रदाता, लाइसेंसधारियों और उपभोक्ता समूहों से जुड़े विवादों का निपटारा करने के लिये ज़िम्मेदार है।
    • वर्ष 2004 में, TDSAT के अधिकारिता का विस्तार करके प्रसारण संबंधी मुद्दों को भी इसमें शामिल कर दिया गया। इसके अलावा, वित्त अधिनियम 2017 के माध्यम से, इसका दायरा आगे बढ़ाकर साइबर अपीलीय अधिकरण एवं हवाई अड्डा आर्थिक विनियामक प्राधिकरण अपीलीय अधिकरण के अधीन आने वाले मामलों को भी इसमें शामिल कर दिया गया।
  • केंद्रीय सूचना आयोग (CIC):
    • CIC सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के तहत सार्वजनिक अधिकरणों द्वारा लिये गए निर्णयों के खिलाफ शिकायतों और अपीलों की सुनवाई के लिये अंतिम अपीलीय अधिकरण के रूप में कार्य करता है।
  • लोक अदालत
  • वित्त आयोग
  • राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग
  • राष्ट्रीय हरित अधिकरण
  • रेल दावा अधिकरण

न्यायिक और अर्ध-न्यायिक निकायों के बीच मुख्य अंतर क्या हैं?

आधार

न्यायिक निकाय

अर्ध-न्यायिक निकाय

अधिकार

यह एक न्यायालय है जिसके पास विधि की व्याख्या करने और उसे लागू करने, मामलों की सुनवाई करने तथा निर्णय देने व निर्णयों को लागू करने का अधिकार है।

यह एक एजेंसी या न्यायाधिकरण है जो विवादों का निर्णय करने और निर्णयों को लागू करने के लिये न्यायालय की तरह कार्य करता है।

स्वतंत्रता 

यह सरकार की कार्यकारी और विधायी शाखाओं से स्वतंत्र है तथा विधि के शासन को बनाए रखने के लिये ज़िम्मेदार है।

यह पूर्ण न्यायालय नहीं है और इसकी स्वतंत्रता कम है। सरकार की कार्यकारी और विधायी शाखाओं का इस पर अधिक नियंत्रण होता है।   

क्षेत्राधिकार

उनके पास सिविल और आपराधिक मामलों सहित कई तरह के मामलों की सुनवाई करने का अधिकार है।

उनका अधिकार क्षेत्र सीमित है और वे केवल उन्हीं मामलों की सुनवाई कर सकते हैं जो उनकी विशेषज्ञता या विषय-वस्तु के विशिष्ट क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं।

निर्णय लेने का आधार

उनके पास नए कानूनी उदाहरण स्थापित करने की शक्ति है जिसका उपयोग भविष्य के मामलों में किया जा सकता है।

उनके निर्णय विशिष्ट मामले पर विद्यमान कानूनों को लागू करने तक सीमित होते हैं।  

न्यायाधीश

इसमें सरकार द्वारा नियुक्त न्यायाधीश या न्यायिक मजिस्ट्रेट शामिल होते हैं।

इसमें सरकार या किसी विशेष एजेंसी/अभिकरण द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों और विशेषज्ञों का संयोजन हो सकता है।

कठोरता

वे सामान्यतः अधिक औपचारिक होते हैं और प्रक्रिया के सख्त नियमों का पालन करते हैं।

यह तुलनात्मक रूप से कम औपचारिक है, लेकिन फिर भी वे साक्ष्य के निर्धारित प्रक्रियाओं और नियमों का पालन करते हैं।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

मेन्स:

प्रश्न. अर्ध-न्यायिक (न्यायिकवत्) निकाय से क्या तात्पर्य है? ठोस उदाहरणों की सहायता से स्पष्ट कीजिये। (2016)

प्रश्न. भारत में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एन.एच.आर.सी.) सर्वाधिक प्रभावी तभी हो सकता है, जब इसके कार्यों को सरकार की जवाबदेही को सुनिश्चित करने वाले अन्य यांत्रिकत्वों (मकैनिज़्म) का पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो। उपरोक्त टिप्पणी के प्रकाश में, मानव अधिकार मानकों की प्रोन्नति करने और उनकी रक्षा करने में, न्यायपालिका और अन्य संस्थाओं के प्रभावी पूरक के तौर पर, एन.एच.आर.सी. की भूमिका का आकलन कीजिये। (2014)

प्रश्न: "केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण जिसकी स्थापना केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों द्वारा या उनके विरुद्ध शिकायतों एवं परिवादों के निवारण हेतु की गई थी, आजकल एक स्वतंत्र न्यायिक प्राधिकरण के रूप में अपनी शक्तियों का प्रयोग कर रहा है।" व्याख्या कीजिये। (2019)

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