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भारतीय राजनीति

लोक अदालतें

  • 22 Oct 2022
  • 9 min read

प्रिलिम्स के लिये:

लोक अदालत, नालसा

मेन्स के लिये:

लोक अदालत एवं संबंधित क्षेत्राधिकार का महत्त्व।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में छत्तीसगढ़ सरकार ने राज्य में कैदियों के मुकदमों के त्वरित निपटारे के लिये जेलों में लोक अदालत शुरू की।

  • प्रत्येक शनिवार को ये अदालतें लगेंगी। साथ ही विचाराधीन कैदी या/और दोषसिद्ध व्यक्ति को दलील पेश करने या मामले को सुलझाने संबंधी उनके अधिकारों एवं विधिक विकल्पों को भी स्पष्ट किया जाएगा।

लोक अदालत:

  • परिचय:
    • 'लोक अदालत' शब्द का अर्थ 'पीपुल्स कोर्ट' है और यह गांधीवादी सिद्धांतों पर आधारित है।
    • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, यह प्राचीन भारत में प्रचलित न्यायनिर्णयन प्रणाली का एक पुराना रूप है और वर्तमान में भी इसकी वैधता बरकरार है।
    • यह वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) प्रणाली के घटकों में से एक है जो आम लोगों को अनौपचारिक, सस्ता और शीघ्र न्याय प्रदान करता है।
    • इस संबंध में निर्णयों हेतु पहला लोक अदालत शिविर वर्ष 1982 में गुजरात में एक स्वैच्छिक और सुलह एजेंसी के रूप में बिना किसी वैधानिक समर्थन के आयोजित किया गया था।
    • समय के साथ इसकी बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए इसे कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत वैधानिक दर्जा दिया गया था। यह अधिनियम लोक अदालतों के संगठन और कामकाज से संबंधित प्रावधान करता है।
  • संगठन:
    • राज्य/ज़िला कानूनी सेवा प्राधिकरण या सर्वोच्च न्यायालय/उच्च न्यायालय/तालुका कानूनी सेवा समिति अंतराल के साथ विभिन्न स्थानों पर तथा क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने व ऐसे क्षेत्रों के लिये लोक अदालतों का आयोजन कर सकती है जिन्हें वह उचित समझे।
    • किसी क्षेत्र के लिये आयोजित प्रत्येक लोक अदालत में उतनी संख्या में सेवारत या सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी और क्षेत्र के अन्य व्यक्ति शामिल होंगे, जैसा कि आयोजन करने वाली एजेंसी द्वारा निर्दिष्ट किया जाएगा
      • सामान्यत: लोक अदालत में अध्यक्ष के रूप में एक न्यायिक अधिकारी, एक वकील (अधिवक्ता) और एक सामाजिक कार्यकर्त्ता सदस्य के रूप में शामिल होते हैं।
    • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (National Legal Services Authority- NALSA) अन्य कानूनी सेवा संस्थानों के साथ लोक अदालतों का आयोजन करता है।
      • NALSA का गठन कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत 9 नवंबर, 1995 को किया गया था जो समाज के कमज़ोर वर्गों को मुफ्त और सक्षम कानूनी सेवाएंँ प्रदान करने हेतु राष्ट्रव्यापी एकसमान नेटवर्क स्थापित करने के लिये लागू हुआ था।
    • सार्वजनिक उपयोगिता सेवाओं से संबंधित मामलों से निपटने के लिये स्थायी लोक अदालतों की स्थापना हेतु वर्ष 2002 में कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 में संशोधन किया गया था।
  • क्षेत्राधिकार:
    • लोक अदालत के पास विवाद के समाधान के लिये पक्षों के बीच समझौता या समझौता कराने का अधिकार क्षेत्र होगा:
      • किसी भी न्यायालय के समक्ष लंबित कोई मामला, या
      • कोई भी मामला जो किसी न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आता है और उसे न्यायालय के समक्ष नहीं लाया जाता है।
    • अदालत के समक्ष लंबित किसी भी मामले को निपटान के लिये लोक अदालत में भेजा जा सकता है यदि:
      • दोनों पक्ष लोक अदालत में विवाद को निपटाने के लिये सहमत हों या कोई एक पक्ष मामले को लोक अदालत में संदर्भित करने के लिये आवेदन करता है या अदालत संतुष्ट है कि मामला लोक अदालत द्वारा हल किया जा सकता है।
      • पूर्व-मुकदमेबाज़ी के मामले में विवाद के किसी भी एक पक्ष से आवेदन प्राप्त होने पर मामले को लोक अदालत में भेजा जा सकता है।
    • वैवाहिक/पारिवारिक विवाद, आपराधिक (शमनीय अपराध) मामले, भूमि अधिग्रहण के मामले, श्रम विवाद, कामगारों के मुआवज़े के मामले, बैंक वसूली से संबंधित मामले आदि लोक अदालतों में उठाए जाते हैं।
    • हालाँकि लोक अदालत के पास किसी ऐसे मामले के संबंध में कोई अधिकार क्षेत्र नहीं होगा जो किसी भी कानून के तहत कंपाउंडेबल अपराध से संबंधित नहीं है। दूसरे शब्दों में जो अपराध किसी भी कानून के तहत गैर-कंपाउंडेबल हैं, वे लोक अदालत के दायरे से बाहर के हैं।
  • शक्तियाँ:
    • लोक अदालत के पास वही शक्तियाँ होंगी जो सिविल प्रक्रिया संहिता (1908) के तहत एक सिविल कोर्ट में निहित होती हैं।
    • इसके अलावा एक लोक अदालत के पास अपने सामने आने वाले किसी भी विवाद के निर्धारण के लिये अपनी प्रक्रिया निर्दिष्ट करने की अपेक्षित शक्तियाँ होंगी।
    • लोक अदालत के समक्ष सभी कार्यवाही भारतीय दंड संहिता (1860) के तहत न्यायिक कार्यवाही मानी जाएगी और प्रत्येक लोक अदालत को दंड प्रक्रिया संहिता (1973) के उद्देश्य के लिये एक दीवानी न्यायालय माना जाएगा।
    • लोक अदालत का फैसला किसी दीवानी अदालत की डिक्री या किसी अन्य अदालत का आदेश माना जाएगा।
    • लोक अदालत द्वारा दिया गया प्रत्येक निर्णय विवाद के सभी पक्षों के लिये अंतिम और बाध्यकारी होगा। लोक अदालत के फैसले के खिलाफ किसी भी अदालत में कोई अपील नहीं होगी।
  • महत्त्व:
    • इसके तहत कोई न्यायालय शुल्क नहीं है और यदि न्यायालय शुल्क का भुगतान पहले ही कर दिया गया है तो लोक अदालत में विवाद का निपटारा होने पर राशि वापस कर दी जाएगी।
    • विवाद निपटन हेतु प्रक्रियात्मक लचीलापन के साथ त्वरित सुनवाई होती है। लोक अदालत द्वारा दावे का मूल्यांकन करते समय प्रक्रियात्मक कानूनों को अत्यधिक सख्ती से लागू नहीं किया जाता है।
    • विवाद के पक्षकार सीधे अपने वकील के माध्यम से न्यायाधीश के साथ बातचीत कर सकते हैं जो कानून की नियमित अदालतों में संभव नहीं है।
    • लोक अदालत द्वारा दिया जाने वाला निर्णय सभी पक्षों के लिये बाध्यकारी होता है और इसे सिविल कोर्ट की डिक्री का दर्जा प्राप्त होता है तथा यह गैर-अपील योग्य होता है, जिससे अंततः विवादों के निपटारे में देरी नहीं होती है।

निष्कर्ष:

इसके अतिरिक्त, स्थायी लोक अदालतों को मज़बूत करने और उन्हें उन लोगों जो अदालतों का उपयोग नहीं कर सकते हैं या नहीं करना चाहते, के लिये मुकदमेबाज़ी का पूरक रूप बनाने के लिये मौजूदा कानूनों को अधिक सशक्त बनाने और उनके रचनात्मक उपयोग की आवश्यकता है ।

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