डेली न्यूज़ (15 May, 2024)



संयुक्त राष्ट्र: SDG को बचाने हेतु अत्यधिक वित्त की आवश्यकता

प्रिलिम्स के लिये:

संयुक्त राष्ट्र, सतत्  विकास लक्ष्य, अल्प विकसित देश, OECD, जलवायु वित्त

मेन्स के लिये:

SDG प्राप्त करने में भारत की प्रगति, SDG वित्तपोषण को बढ़ावा देने के उपाय।

स्रोत: डाउन टू अर्थ 

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र (UN) द्वारा जारी एक नई रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि वर्ष 2015 में सभी संयुक्त राष्ट्र सदस्यों द्वारा सहमत 17 सतत् विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goals- SDG) को वर्ष 2030 तक प्राप्त करना है, तो इसके लिये अधिक निवेश की आवश्यकता है।

  • यह स्थिति उभरते देशों के गंभीर ऋण भार और अत्यधिक उधार लेने की लागत का परिणाम है, जो उन्हें कई संकटों पर प्रतिक्रिया करने से रोकती है जिनका वे वर्तमान में सामना कर रहे हैं।

सतत् विकास रिपोर्ट 2024 के लिये संयुक्त राष्ट्र वित्तपोषण की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

  • मुख्य मुद्दे: 
    • बुनियादी सेवाओं का अभाव: बढ़ते भू-राजनीतिक तनाव, जलवायु आपदाएँ और वैश्विक जीवन-यापन संकट ने विश्वस्तर पर असंख्य लोगों को प्रभावित किया है, जिसने स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा एवं अन्य विकास लक्ष्यों पर प्रगति में अवरोध उत्पन्न किया है।
    • ऋण सेवाओं में वृद्धि: अल्प विकसित देशों (Least developed countries- LDC) में ऋण सेवाएँ वित्त वर्ष 2022 में 26 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर वर्ष 2023 और 2025 के बीच प्रतिवर्ष 40 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक हो जाएँगी।
      • अल्प विकसित देशों में आधे से अधिक ऋण वृद्धि का कारण मौजूदा जलवायु संकट के कारण घटित प्रबल और बार-बार होने वाली आपदाओं को माना जा सकता है।
    • ब्याज भुगतान का अधिक भार: सबसे गरीब देश अब अपने राजस्व का 12% ब्याज भुगतान पर खर्च करते हैं, जो एक दशक पहले की तुलना में 4 गुना अधिक है।
      • वैश्विक आबादी का लगभग 40% उन देशों में निवास करता है जहाँ सरकारें शिक्षा या स्वास्थ्य की तुलना में ब्याज भुगतान पर अधिक खर्च करती हैं।
    • अल्प विकास वित्तपोषण: अल्प विकसित देशों में विकास वित्तपोषण की गति धीमी हो रही है।
      • कई कारणों से जैसे कर चोरी और परिहार, कम घरेलू राजस्व वृद्धि, निगम कर की गिरती दर वैश्वीकरण एवं कर प्रतिस्पर्धा आदि के कारण जो वर्ष 2000 में 28.2% थी तथा 2023 में 21.1% हो गईI  
      • साथ ही OECD देशों द्वारा आधिकारिक विकास सहायता (Official Development Assistance- ODA) तथा जलवायु वित्त प्रतिबद्धताएँ भी पूर्ण नहीं हो रही हैं।
      • सतत् विकास रिपोर्ट हेतु वित्तपोषण के अनुसार: क्रॉसरोड्स रिपोर्ट, 2024 में विकास के लिये वित्तपोषण, विकास वित्तपोषण अंतर को कम करने हेतु लगभग 4.2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश की आवश्यकता है।
        • कोविड-19 महामारी शुरू होने से पूर्व यह संख्या 2.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर थी।
  • सुझाव:
    • अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली, जिसकी स्थापना वर्ष 1944 के ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में की गई थी, जो अब उद्देश्य हेतु उपयुक्त नहीं है।
      • "वित्तपोषण में अत्यधिक वृद्धि" और "अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय वास्तुकला में सुधार" वर्ष 2030 तक SDG लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता कर सकता है।
      • एक नई सुसंगत प्रणाली स्थापित की जानी चाहिये जो संकटों से निपटने के लिये बेहतर ढंग से सुसज्जित हो।
    • SDG को प्राप्त करने के लिये वैश्विक सहयोग, लक्षित वित्तपोषण और महत्त्वपूर्ण रूप से राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है।

SDG प्राप्त करने में भारत की प्रगति क्या है?

  • प्रगतिः संयुक्त राष्ट्र SDG सूचकांक और डैशबोर्ड रिपोर्ट, 2023 में सतत् या धारणीय विकास लक्ष्यों (SDG ) की दिशा में प्रगति के मामले में भारत 166 देशों (2022 में 121वें से) में 112वें स्थान पर है।
  • प्रमुख लक्ष्यों में प्रगति: 
    • लक्ष्य 1-शून्य निर्धनता: भारत ने सफलतापूर्वक लाखों लोगों को निर्धनता से बाहर निकाला है, गरीबी दर को 1993 में 45% से घटाकर 2011में लगभग 21% कर दिया है। (लक्ष्य 1: शून्य निर्धनता)
      • नवीनतम वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (Multidimensional Poverty Index- MPI) 2023 के अनुसार, भारत में 2005 से 2021 के बीच केवल 15 वर्षों की अवधि के भीतर लगभग 415 मिलियन लोग निर्धनता से बाहर निकल गए।
    • लक्ष्य 2- शून्य भुखमरी: भारत में अल्पपोषण की व्यापकता 2004-2006 में 18.2% से घटकर 2016-2018 में 14.5% हो गई है।
      • हालाँकि, भारत में अभी भी विश्व भर में सभी कुपोषित व्यक्तियों का एक चौथाई हिस्सा निवास करता है, जिससे यह वैश्विक स्तर पर भूख से निपटने के लिये एक प्रमुख केंद्र बन गया है।
    • लक्ष्य 3- अच्छा स्वास्थ्य और खुशहाली: UN MMEIG 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने मातृ एवं बाल स्वास्थ्य में पर्याप्त सुधार किया है। देश का मातृ मृत्यु अनुपात वर्ष 2000 में 384 से घटकर वर्ष 2020 में 103 रह गया।
      • पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर भी वर्ष 1990 में प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 89 से घटकर वर्ष 2019 में 34 हो गई है।
    • लक्ष्य-4 गुणवत्तापूर्ण शिक्षा: शिक्षा मंत्रालय के अनुसार, ग्रामीण साक्षरता दर 67.77% है, जबकि शहरी यह 84.11% है।
      • ASER 2023 डेटा से पता चलता है कि सर्वेक्षण किये गए ग्रामीण ज़िलों में 85% से अधिक युवा (14-18 वर्ष की आयु) वर्तमान में किसी न किसी प्रकार के शैक्षणिक संस्थान में नामांकित हैं।
    • लक्ष्य 5- लैंगिक समानता: PLFS-5 के अनुसार, भारत में श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी वर्ष 2017-18 में 23.3% से बढ़कर वर्ष 2022-2023 में 37.0% हो गई।

SDG वित्तपोषण को बढ़ावा देने के लिये कौन-से उपाय किये जा सकते हैं? 

  • समर्पित निवेश कोष: विशिष्ट SDG में प्रत्यक्ष योगदान देने वाली परियोजनाओं और पहलों के वित्तपोषण के लिये समर्पित विशेष निवेश कोष की स्थापना करना।
    • इन निधियों को सार्वजनिक-निजी भागीदारी के रूप में संरचित किया जा सकता है, जो सरकारों, संस्थागत निवेशकों और निजी निवेशकों (private investors) से निवेश आकर्षित करते हैं। 
  • नीति और संस्थागत सुधार: यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि राष्ट्रीय नीतियाँ और नियम SDG के कार्यान्वयन हेतु अनुकूल हों।
    • प्रगतिशील कराधान, कर चोरी को कम करने और अवैध वित्तीय प्रवाह से निपटने जैसे उपायों के माध्यम से घरेलू संसाधन संग्रहण को बढ़ाने से SDG कार्यान्वयन के लिये धन की उपलब्धता बढ़ सकती है।
  • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: SDG वित्तपोषण में संसाधन जुटाने, सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करने और सामान्य चुनौतियों का समाधान करने के लिये सरकारों, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, नागरिक समाज तथा निजी क्षेत्र के बीच अंतर्राष्ट्रीय सहयोग तथा समन्वय आवश्यक है।
    • SDG निवेश के लिये संसाधनों को मुक्त करने के लिये विकासशील देशों को ऋण राहत प्रदान करना।
    • विकसित देशों को कम आय वाले देशों में SDG कार्यान्वयन का समर्थन करने के लिये अपनी आधिकारिक विकास सहायता (Official Development Assistance - ODA) प्रतिबद्धताओं को पूरा करना चाहिये।
    • टैक्स हेवेन की समस्याओं का समाधान करने के लिये वैश्विक कर सुधार लाना और यह सुनिश्चित करना कि बहुराष्ट्रीय निगम अपने करों के उचित हिस्से का भुगतान किया गया हो।
  • प्रौद्योगिकी एवं नवप्रवर्तन: डेटा एनालिटिक्स और पूर्वानुमानित मॉडलिंग तकनीकों का उपयोग बड़े डेटासेट का विश्लेषण करने तथा SDG से संबंधित रुझानों, पैटर्न एवं निवेश के अवसरों की पहचान करने के लिये किया जा सकता है।
    • इन उपकरणों के माध्यम से वित्तीय संस्थान, निवेशक और नीति निर्माता सूचित निर्णय ले सकते हैं, संसाधन आवंटन को अनुकूलित कर सकते हैं तथा SDG वित्तपोषण पहल के प्रभाव को अधिकतम कर सकते हैं।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) को प्राप्त करने की दिशा में भारत की प्रगति पर चर्चा कीजिये और इसके मार्ग में बाधा बनने वाली प्रमुख चुनौतियों का विश्लेषण कीजिये। भारत 2030 तक SDG को पूरा करने के अपने प्रयासों को और कैसे तेज़ कर सकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2016)

  1. धारणीय विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals) पहली बार 1972 में एक वैश्विक विचार मंडल (थिंक टैंक) ने, जिसे 'क्लब ऑफ रोम' कहा जाता था, द्वारा प्रस्तावित किया गया था।
  2. धारणीय विकास लक्ष्य वर्ष 2030 तक प्राप्त किये जाने हैं।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: B


प्रश्न. धारणीय विकास, भावी पीढ़ियों के अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के सामर्थ्य से समझौता किये बगैर, वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करता है। इस परिप्रेक्ष्य में धारणीय विकास का सिद्धांत निम्नलिखित में से किस एक सिद्धांत के साथ स्वाभाविक रूप से जुड़ा हुआ है ? (2010)

(a) सामाजिक न्याय एवं सशक्तीकरण
(b) समावेशी विकास
(c) वैश्वीकरण
(d) धारण क्षमता

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न. वहनीय (अफोर्डेबल), विश्वसनीय, धारणीय तथा आधुनिक ऊर्जा तक पहुँच संधारणीय विकास लक्ष्यों (SDG) को प्राप्त करने के लिये अनिवार्य है। भारत में इस संबंध में हुई प्रगति पर टिप्पणी कीजिये। (2018)

प्रश्न. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 धारणीय विकास लक्ष्य-4 (2030) के साथ अनुरूपता में है। उसका ध्येय भारत में शिक्षा प्रणाली की पुनः संरचना एवं पुनः स्थापना करना है। इस कथन का समालोचनात्मक निरीक्षण कीजिये। (2020)


भारत में भ्रामक विज्ञापनों का विनियमन

प्रिलिम्स के लिये:

भारत का सर्वोच्च न्यायालय, केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019, भारतीय विज्ञापन मानक परिषद

मेन्स के लिये:

उपभोक्ता अधिकार और अनुचित व्यापार प्रथाओं की रोकथाम, भ्रामक विज्ञापनों और समर्थनों की रोकथाम, विज्ञापन नियम एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

उपभोक्ताओं को भ्रामक विज्ञापनों से बचाने के लिये भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विज्ञापनदाताओं को मीडिया में उत्पादों का प्रचार करने से पहले स्व-घोषणा प्रस्तुत करने के निर्देश जारी किये हैं।

  • आगे के घटनाक्रम में केंद्र सरकार ने आयुष मंत्रालय के पत्र को वापस ले लिया है, जिसमें औषधि और प्रसाधन सामग्री नियम, 1945 के नियम 170 को तत्काल प्रभाव से "लोपित" किया गया था।

नोट:

सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख निर्देश क्या हैं?

  • स्व-घोषणा प्रस्तुत करना:
    • मीडिया में उत्पादों का प्रचार करने से पूर्व विज्ञापनदाताओं को स्व-घोषणाएँ प्रस्तुत करनी होंगी।
    • उपभोक्ताओं को गुमराह करने से रोकने के लिये विज्ञापनदाता अब यह घोषित करने के लिये बाध्य हैं कि उनके विज्ञापन उनके उत्पादों के बारे में भ्रामक या गलत जानकारी नहीं देते हैं।
  • विज्ञापनदाताओं के लिये ऑनलाइन पोर्टल:
    • TV विज्ञापन चलाने के इच्छुक विज्ञापनदाताओं को 'ब्रॉडकास्ट सेवा' पोर्टल पर घोषणाएँ अपलोड करनी होंगी, जो सूचना और प्रसारण मंत्रालय से प्रसारण-संबंधी गतिविधियों के लिये अनुमति, पंजीकरण एवं लाइसेंस का अनुरोध करने के लिये हितधारकों के लिये वन-स्टॉप सुविधा के रूप में कार्य करता है।
      • प्रिंट विज्ञापनदाताओं के लिये एक समान पोर्टल स्थापित किया जाएगा।
  • समर्थनकर्त्ताओं की ज़िम्मेदारी:
    • सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर, मशहूर हस्तियों और उत्पादों का समर्थन करने वाली सार्वजनिक हस्तियों को ज़िम्मेदारी से काम करना चाहिये
      • भ्रामक विज्ञापन से बचने के लिये विज्ञापनदाताओं को उन उत्पादों के बारे में पर्याप्त जानकारी होनी चाहिये, जिनका वे प्रचार करते हैं।
  • उपभोक्ता संरक्षण सुनिश्चित करना:
    • उपभोक्ताओं के लिये भ्रामक विज्ञापनों की रिपोर्ट करने के लिये एक पारदर्शी प्रक्रिया स्थापित करना और सुनिश्चित करना कि उन्हें शिकायत की स्थिति एवं परिणामों पर अपडेट प्राप्त हो।

भ्रामक विज्ञापनों के हाल ही में कौन-से मामले सामने आए हैं?

भ्रामक विज्ञापन नैतिक सिद्धांतों का उल्लंघन कैसे करते हैं? 

  • सत्यता का उल्लंघन: ईमानदारी और सच्चाई आवश्यक नैतिक सिद्धांत हैं, जिन्हें विज्ञापन सहित सभी व्यावसायिक प्रथाओं का मार्गदर्शन करना चाहिये।
    • ये विज्ञापन उपभोक्ताओं की धारणाओं में हेरफेर करते हैं और व्यावसायिक लाभ के लिये उनकी कमज़ोरियों का लाभ उठाते हैं; वे व्यक्तियों को गलत आधार पर खरीदारी संबंधी निर्णय लेने के लिये प्रेरित करते हैं।
  • निष्पक्षता और न्याय: भ्रामक विज्ञापन एक असमान क्षेत्र बनाते हैं, जिससे उन कंपनियों को अनुचित लाभ मिलता है जो नैतिक विज्ञापन को प्राथमिकता देने वाली कंपनियों की तुलना में भ्रामक गतिविधियों में संलग्न होती हैं।
    • यह बाज़ार में निष्पक्षता और न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन करता है, क्योंकि यह ईमानदार प्रतिस्पर्धियों को हानि पहुँचाता है तथा उपभोक्ता के विश्वास को कमज़ोर करता है।
    • उदाहरण: कंपनियाँ टिकाऊ उत्पादों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिये झूठे पर्यावरणीय दावे (ग्रीनवॉशिंग) कर रही हैं, जबकि उनके प्रतिस्पर्द्धी अपने उत्पादक के पर्यावरणीय प्रभाव का खुलासा करते हैं।
  • उपभोक्ता हानि: भ्रामक विज्ञापनों से उन उपभोक्ताओं को वित्तीय हानि हो सकती है जो झूठे दावों के आधार पर उत्पाद या सेवाएँ खरीदते हैं, जिसके परिणामस्वरूप असंतोष उत्पन्न होता है।
    • यदि विज्ञापित उत्पाद अथवा सेवाएँ संभावित रूप से हानिकारक या अप्रभावी हैं तो यह उपभोक्ताओं के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचा सकता है।
  • विश्वास में कमी: भ्रामक विज्ञापनों के बार-बार संपर्क में आने से उत्पादों, बॉण्डों और विज्ञापनों में विश्वास कम हो जाता है, जिससे व्यापार के साथ-साथ समाज में अखंडता का नैतिक सिद्धांत भी कमज़ोर हो जाता है।
    • जब उपभोक्ता ठगा हुआ महसूस करते हैं, तो उनका बाज़ार की अखंडता पर से विश्वास उठ जाता है, क्योंकि कथनी और करनी में अंतर स्पष्ट होने लगता है।

भारत में भ्रामक विज्ञापन कैसे नियंत्रित होते हैं?

  • भ्रामक विज्ञापन की परिभाषा:
    • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 2 (28) के तहत एक भ्रामक विज्ञापन को ऐसे किसी भी विज्ञापन के रूप में परिभाषित किया गया है, जो:
      • किसी उत्पाद या सेवा का गलत विवरण प्रदान करता है;
      • उपभोक्ताओं को गुमराह करने वाली झूठी गारंटी प्रदान करता है;
      • व्यक्त प्रतिनिधित्व के माध्यम से एक अनुचित व्यापार अभ्यास;
      • जानबूझकर उत्पाद के बारे में आवश्यक जानकारी प्रदान करता है।
  • केन्द्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण:
    • केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (CCPA), उपभोक्ता मामले विभाग के अंतर्गत कार्य करता है।
    • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 10 के तहत स्थापित, यह उपभोक्ता अधिकारों के उल्लंघन और अनुचित व्यापार प्रथाओं से संबंधित मामलों को विनियमित करता है।
    • यह अधिनियम CCPA को झूठे या भ्रामक विज्ञापनों को रोकने और उपभोक्ता अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का अधिकार देता है।
    • दिशा-निर्देशों का प्रवर्तन:
      • CCPA 'भ्रामक विज्ञापनों की रोकथाम और भ्रामक विज्ञापनों के लिये समर्थन हेतु दिशा-निर्देश, 2022' लागू करता है, जो उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 द्वारा प्रदत्त शक्तियों के अनुसार जारी किये गए थे।
      • दिशा-निर्देश का उद्देश्य:
        • दिशानिर्देश यह सुनिश्चित करने का प्रयास करते हैं कि उपभोक्ताओं को अप्रमाणित दावों, अतिरंजित वादों, गलत सूचना और झूठे दावों से मूर्ख नहीं बनाया जा रहा है।
        • ऐसे विज्ञापन उपभोक्ताओं के विभिन्न अधिकारों जैसे सूचना का अधिकार, चुनने का अधिकार तथा संभावित असुरक्षित उत्पादों एवं सेवाओं के विरुद्ध सुरक्षा के अधिकार का उल्लंघन करते हैं।
      • दिशा-निर्देश के प्रावधान:
        • दिशानिर्देश "चारा विज्ञापन", "सरोगेट विज्ञापन" तथा "निःशुल्क दावा विज्ञापन" को परिभाषित करते हैं।
        • वे विज्ञापनों में बच्चों को अतिरंजित या अप्रमाणित दावों से बचाने के लिये प्रावधान भी रखते हैं।
          • बच्चों को लक्षित करने वाले विज्ञापनों में उन उत्पादों के लिये खेल, संगीत या सिनेमा से जुड़ी हस्तियों को शामिल करने पर प्रतिबंध है, जिनके लिये स्वास्थ्य चेतावनी की आवश्यकता होती है अथवा जिन्हें बच्चों द्वारा नहीं खरीदा जा सकता है।
        • विज्ञापनों में अस्वीकरणों में महत्त्वपूर्ण जानकारी नहीं छिपाई जानी चाहिये या भ्रामक दावों को सही करने का प्रयास नहीं किया जाना चाहिये।
        • दिशानिर्देश विज्ञापनों में अधिक पारदर्शिता एवं स्पष्टता लाने के लिये निर्माताओं, सेवा प्रदाताओं, विज्ञापनदाताओं के साथ ही विज्ञापन एजेंसियों के कर्त्तव्यों को भी रेखांकित करते हैं।
          • इसका उद्देश्य उपभोक्ताओं को तथ्यों के आधार पर सूचित निर्णय लेने में सहायता प्रदान करना है।
      • उल्लंघन होने पर ज़ुर्माना:
        • CCPA भ्रामक विज्ञापनों के लिये विनिर्माताओं, विज्ञापनदाताओं तथा समर्थनकर्त्ताओं पर 10 लाख रुपए तक का ज़ुर्माना लगा सकता है।
          • इसके बाद उल्लंघन करने पर ज़ुर्माना 50 लाख रुपए तक का हो सकता है।
        • प्राधिकरण किसी भ्रामक विज्ञापन के समर्थनकर्त्ता को 1 वर्ष तक के लिये कोई भी समर्थन करने से प्रतिबंधित कर सकता है और साथ ही बाद के उल्लंघनों के लिये निषेध को 3 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
  • भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI):
    • भ्रामक विज्ञापन खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 की धारा-53 के अंतर्गत आता है, जो इसे दंडनीय प्रकृति का बनाता है। FSSAI विज्ञापनों को सच्चा, स्पष्ट और वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित होना अनिवार्य करता है।
    • FSSAI खाद्य सुरक्षा और मानक (विज्ञापन एवं दावे) विनियम, 2018 का उपयोग करता है जो विशेष रूप से भोजन (संबंधित उत्पादों) से संबंधित है, जबकि CCPA के नियम वस्तुओं, उत्पादों एवं सेवाओं को कवर करते हैं।
  • विज्ञापन को नियंत्रित करने वाले विधान:
    • भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (ASCI):
      • यह भारत में विज्ञापन नैतिकता लागू करने के लिये एक स्व-विनियमित तंत्र के रूप में स्थापित एक गैर-वैधानिक न्यायाधिकरण है।
      • यह अपनी विज्ञापन संहिता के आधार पर विज्ञापनों का मूल्यांकन करता है, जिसे ASCI कोड भी कहा जाता है, जो भारत में देखे जाने वाले विज्ञापनों पर लागू होता है, भले ही वे भारत से बाहर के हों और भारतीय उपभोक्ताओं के लिये निर्देशित हों।
    • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986:
      • उपभोक्ताओं को वस्तुओं और सेवाओं की गुणवत्ता, मात्रा एवं कीमत के बारे में सूचित होने का अधिकार देता है।
        • धारा 2(R) अनुचित व्यापार प्रथाओं की परिभाषा के तहत झूठे विज्ञापनों को शामिल करती है।
      • भ्रामक विज्ञापनों के विरुद्ध निवारण प्रदान करता है।
    • केबल टेलीविज़न नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम, 1995 और केबल टेलीविज़न संशोधन अधिनियम 2006:
      • उन विज्ञापनों के प्रसारण पर रोक लगाता है जो निर्धारित विज्ञापन कोड के अनुरूप नहीं हैं।
      • यह सुनिश्चित करता है कि विज्ञापन नैतिकता, शालीनता या धार्मिक संवेदनशीलता को ठेस न पहुँचाएँ।
    • तंबाकू विज्ञापन पर प्रतिबंध:
      • यह सभी प्रकार के मीडिया विज्ञापनों के लिये तंबाकू उत्पादों के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष विज्ञापन पर प्रतिबंध लगाता है।
      • सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पाद अधिनियम, 2003 के तहत लागू।
    • औषधि और चमत्कारिक उपचार (आक्षेपणीय विज्ञापन) अधिनियम, 1954 तथा औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940:
      • यह दवा विज्ञापनों को नियंत्रित करता है। दवाओं के विज्ञापन के लिये परीक्षण रिपोर्ट के उपयोग पर प्रतिबंध लगाता है।
        • उल्लंघन करने पर दिये जाने वाले दंड में ज़ुर्माना और कारावास शामिल हैं।
    • प्रसवपूर्व निदान तकनीक का विनियमन:
    • भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत विज्ञापनों की आपराधिकता:
      • भारतीय दंड संहिता (IPC) अश्लील, मानहानिकारक या भड़काऊ विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाती है।
      • हिंसा, आतंकवाद या अपराध भड़काने से संबंधित अपराध IPC प्रावधानों के तहत अवैध और दंडनीय हैं।

उपभोक्ता संरक्षण के लिये प्रमुख पहलें:

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भारत में विज्ञापन प्रथाओं को नियंत्रित करने वाले विधायी ढाँचे का वर्णन कीजिये। विज्ञापन में नैतिक मानकों को बनाए रखने में ये कानून और संस्थान कैसे योगदान देते हैं?

और पढ़ें: भ्रामक विज्ञापन पर पतंजलि मामला

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न: भारत में कानून के प्रावधानों के तहत 'उपभोक्ताओं' के अधिकारों/विशेषाधिकारों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2012)

  1. उपभोक्ताओं को खाद्य परीक्षण के लिये नमूने लेने का अधिकार है।
  2. जब कोई उपभोक्ता किसी उपभोक्ता फोरम में शिकायत दर्ज़ कराता है तो उसे कोई शुल्क नहीं देना होता है।
  3. उपभोक्ता की मृत्यु के मामले में उसका कानूनी उत्तराधिकारी उसकी ओर से उपभोक्ता फोरम में शिकायत दर्ज़ करा सकता है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: c


मेन्स:

प्रश्न. 'सामाजिक संजाल स्थल' (Social Networking Sites) क्या होती हैं और इन स्थलों से क्या सुरक्षा उलझनें प्रस्तुत होती हैं? (2013)


राजनीति का अपराधीकरण

प्रिलिम्स के लिये:

राजनीति का अपराधीकरण, आंतरिक लोकतांत्रिक संरचनाएँ, भ्रष्टाचार, जन अधिनियम 1951, राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC), विधि आयोग

मेन्स के लिये:

राजनीति का अपराधीकरण, इसके कारण और इसमें शामिल प्रमुख मुद्दे।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

विभिन्न सांसदों, विधायकों और सरकारी कर्मचारियों पर महिलाओं के कथित यौन उत्पीड़न के हालिया मामले, राजनीति के अपराधीकरण के एक चिंताजनक पहलू तथा नैतिक ज़िम्मेदारी, पेशेवर नैतिकता को बनाए रखने में विफलता आदि जैसे नैतिक मुद्दों पर प्रकाश डालते हैं।

राजनीति के अपराधीकरण का क्या अर्थ है?

  • परिचय:
    • राजनीति का अपराधीकरण तब होता है जब आपराधिक आरोपों या पृष्ठभूमि वाले लोग राजनेता बन जाते हैं और विभिन्न महत्त्वपूर्ण पदों एवं दायित्वों के लिये चुने जाते हैं।
    • यह लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों, जैसे चुनावों में निष्पक्षता, जवाबदेही और कानून का पालन, को प्रभावित कर सकता है।
    • यह बढ़ता खतरा हमारे समाज के लिये एक बड़ी समस्या बन गया है, जो लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों, जैसे चुनावों में निष्पक्षता, कानून का पालन और जवाबदेह होने को प्रभावित कर रहा है।
  • आँकड़े:
    • एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के आँकड़ों के मुताबिक, भारत में संसद के लिये चुने जाने वाले आपराधिक आरोपों वाले उम्मीदवारों की संख्या वर्ष 2004 से बढ़ रही है।
    • वर्ष 2009 की लोकसभा में 30% सांसदों पर आपराधिक मामले लंबित थे, जो वर्ष 2014 की लोकसभा में बढ़कर 34% हो गए।
    • वर्ष 2019 लोकसभा में, 543 लोकसभा सदस्यों में से 233 (43%) को आपराधिक आरोपों का सामना करना पड़ा।
      • वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में 112 सांसदों (21%) को उनके विरुद्ध गंभीर आपराधिक मामलों का सामना करना पड़ा, जिनमें बलात्कार, हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध अपराध शामिल थे।

राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण के क्या कारण हैं?

  • राजनेताओं और अपराधियों के मध्य संबंध:
    • भारत में कई राजनेताओं ने आपराधिक आधारों के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित किये हैं, जो अक्सर चुनाव जीतने के लिये अपने धन और बाहुबल का उपयोग करते हैं।
  • कमज़ोर कानून प्रवर्तन और न्यायिक प्रणाली:
    • भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में अक्सर धीमी, अकुशल और भ्रष्ट प्रक्रियाओं की विशेषता होती है, जिससे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले राजनेताओं पर प्रभावी ढंग से मुकदमा चलाना तथा उन्हें दोषी ठहराना कठिन हो जाता है।
  • आंतरिक दलीय लोकतंत्र का अभाव:
    • भारत में कई राजनीतिक दलों में कमज़ोर आंतरिक लोकतांत्रिक संरचनाएँ हैं, जिससे पार्टी नेताओं को उनकी ईमानदारी के आधार पर नहीं, बल्कि चुनाव जीतने की उनकी क्षमता के आधार पर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को चुनने की अनुमति देती है।
    • आंतरिक दलीय लोकतंत्र का यह अभाव नागरिकों की अपने प्रतिनिधियों को जवाबदेह ठहराने की क्षमता को कमज़ोर करता है।
  • मतदाता उदासीनता और राजनीतिक जागरूकता का अभाव:
    • कुछ मतदाता, विशेष रूप से ग्रामीण और निर्धन क्षेत्रों में, सुशासन एवं कानून के शासन के दीर्घकालिक विचारों पर आपराधिक समर्थित उम्मीदवारों द्वारा प्रदान किये गए तात्कालिक लाभों को प्राथमिकता दे सकते हैं।

राजनीति के अपराधीकरण से जुड़े नैतिक मुद्दे क्या हैं?

  • गैर-पक्षपात तथा जवाबदेही का अभाव:
    • राजनीतिक वर्ग में कदाचार को संबोधित करने में विफलता, जवाबदेही तथा नैतिक मानकों की कमी को रेखांकित करती है।
    • गंभीर आपराधिक आरोपों का सामना करने वाले सांसदों के उदाहरणों में महिलाओं से संबंधित गंभीर अपराधों के आरोपी व्यक्तियों का बचाव करने का एक समान पैटर्न सामने आता है, जो पार्टी लाइनों से परे नैतिक मानदंडों से अलगाव का संकेत देता है।
    • यह अलगाव प्राय: अत्यधिक पक्षपात तथा नैतिक आचरण पर सत्ता को प्राथमिकता देने से उत्पन्न होता है।
  • सार्वजनिक आक्रोश के माध्यम से लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व का अभाव:
    • सार्वजनिक आक्रोश प्राय: राजनीतिक दलों में कार्रवाई के लिये उत्प्रेरक के रूप में कार्य करता है, जैसा कि प्रज्जवल रेवन्ना के मामले में देखा गया है।
      • हालाँकि, घोटालों पर राजनीतिक प्रतिक्रियाओं की प्रतिक्रियाशील प्रकृति लोकतांत्रिक प्रणालियों में उत्तरदायित्व के एक व्यापक मुद्दे पर प्रकाश डालती है।
    • कदाचार के ज्ञान के बावज़ूद, पार्टियाँ प्राय: तब तक निष्क्रिय रहती हैं, जब तक कि उन्हें जनता के आक्रोश को संबोधित करने के लिये मजबूर नहीं किया जाता है, जनता के दबाव से परे जवाबदेही के अधिक मज़बूत तंत्र की आवश्यकता पर बल दिया जाता है।
  • दण्ड से मुक्ति और व्यक्तिगत उत्तरदायित्व की संस्कृति:
    • दण्ड से मुक्ति की संस्कृति राजनीतिक क्षेत्र में प्रसारित होती है, जहाँ मानदंडों और नियमों को असंगत रूप से लागू किया जाता है, जिससे व्यक्तिगत रूप से महिलाओं पर उत्तरदायित्व का बोझ डाला जाता है।
    • प्रणालीगत विफलताओं के बावज़ूद, रेवन्ना की शिकायतकर्त्ता अथवा उन्नाव बलात्कार पीड़िता जैसी साहसी महिलाओं ने अपराधियों को दोषी ठहराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
    • हालाँकि, न्याय प्राप्त करने की उच्च व्यक्तिगत लागत दण्ड से मुक्ति को संबोधित करने और राजनीतिक क्षेत्र में वास्तविक उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने के लिये प्रणालीगत सुधारों की आवश्यकता पर प्रकाश डालती है।
  • महिला सशक्तीकरण एक भ्रम के रूप में:
    • महिला सशक्तीकरण पर व्यापक एजेंडे के बावज़ूद, सम्मान, समानता और सुरक्षा जैसे महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर ठोस प्रगति नहीं हुई है।
      • जबकि महिलाओं को मतदाता एवं कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों के रूप में संगठित किया जाता है, उनकी सामूहिक चिंताएँ प्राय: राजनीतिक एजेंडे की परिधि पर रहती हैं।
    • किये गए वादों और कार्रवाई के बीच का अंतर राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के मुद्दों पर सार्थक प्रगति की संभावना को कमज़ोर करता है।
  • प्रतिनिधित्व बनाम सशक्तीकरण:
    • महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण के लिये केवल न्यायसंगत प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है। सच्चे सशक्तीकरण के लिये नैतिक मानकों को स्थापित करने और लागू करने की क्षमता की आवश्यकता होती है।
  • गैर-पक्षपात से तात्पर्य किसी विशेष राजनीतिक दल या विचारधारा से संबद्ध न होने अथवा उसके प्रति पक्षपाती न होने की स्थिति से है। यह राजनीतिक मामलों में तटस्थ एवं निष्पक्ष रहने तथा एक पार्टी या दूसरी पार्टी का पक्ष न लेने का विचार है।

राजनीति के अपराधीकरण के नैतिक प्रभाव क्या हैं?

  • सामाजिक दृष्टिकोण:
    • नैतिक ताने-बाने का क्षरण: जब आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग सत्ता पर काबिज़ होते हैं, तो इससे यह संदेश प्रसारित होता है कि कानून तोड़ना स्वीकार्य है, जिससे संभावित रूप से सामाजिक नैतिकता और कानून के प्रति सम्मान कम होता है।
    • नागरिक सहभागिता में कमी: लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास कम होने की प्रबल संभावना है। यदि नागरिकों को लगता है कि व्यवस्था भ्रष्ट और अनुत्तरदायी है, तो उनके वोट देने अथवा नागरिक जीवन में भाग लेने की संभावना कम होगी।
    • असमानता एवं बहिष्करण: अपराधीकरण हाशिये पर रहने वाले समुदायों को असंगत रूप से प्रभावित कर सकता है, उनके प्रतिनिधित्व को सीमित कर सकता है, साथ ही उनके लिये प्रासंगिक मुद्दों पर प्रगति में बाधा उत्पन्न कर सकता है।
    • अल्पकालिक लाभ पर ध्यान देंना: आपराधिक पृष्ठभूमि वाले राजनेता दीर्घकालिक सामाजिक विकास पर व्यक्तिगत लाभ या त्वरित सुधार को प्राथमिकता दे सकते हैं।
  • लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य:
    • लोकतांत्रिक सिद्धांतों का कमज़ोर होना: लोकतंत्र का एक मुख्य सिद्धांत ऐसे प्रतिनिधियों का चुनाव करना है जो विधि के शासन को बनाए रख सकें। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले राजनेताओं में सत्यनिष्ठा तथा ईमानदारी जैसे आवश्यक नैतिक गुणों का अभाव होता है, जिसके कारण पक्षपात होने के साथ अनुचित विधि-निर्माण हो सकता है।
    • स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव: अपराधीकरण से धन शोधन, बाहुबल एवं धमकी जैसे कृत्यों के माध्यम से चुनावी प्रक्रियाओं को विकृत किया जा सकता है, जिससे ईमानदार उम्मीदवारों के लिये समान एवं उचित अवसरों में बाधा आ सकती है।
    • जवाबदेहिता और पारदर्शिता: जब आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोग पद पर आसीन होते हैं, तो यह अपने कार्यों के लिये जवाबदेह नहीं रहते हैं, जिससे शासन की पारदर्शिता में कमी आती है।
    • भारत में विकास से संबंधित चुनौतियाँ: अपराधीकरण से संसाधनों को व्यक्तिगत लाभ में लगाकर या निहित स्वार्थों को महत्त्व देने से भारत के विकास में बाधा आ सकती है।

आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों की अयोग्यता के विधायी पहलू:

  • परिचय: 
    • इस संबंध में भारतीय संविधान यह निर्दिष्ट नहीं करता है कि संसद, विधानसभा या किसी अन्य विधानमंडल के लिये चुनाव लड़ने से किसी व्यक्ति को किन आधारों पर अयोग्य ठहराया जा सकता है?
    • जनप्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951 में विधायिका का चुनाव लड़ने के लिये किसी व्यक्ति को अयोग्य घोषित करने के मानदंड का उल्लेख है।
      • अधिनियम की धारा 8 कुछ अपराधों के लिये दोषी ठहराए जाने पर चुनाव लड़ने हेतु अयोग्यता प्रदान करती है, जिसके अनुसार दो वर्ष से अधिक सज़ायाफ्ता (जिनकी न्यायालय द्वारा सज़ा तय कर दी गई है) व्यक्ति कारावास की अवधि समाप्त होने के बाद छह वर्ष तक चुनाव में खड़ा नहीं हो सकता है।
      • हालाँकि कानून उन व्यक्तियों को चुनाव लड़ने से नहीं रोकता है जिनके खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं, इसलिये आपराधिक मामलों वाले उम्मीदवारों की अयोग्यता इन मामलों में उनकी सज़ा पर निर्भर करती है।
  • राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ पहल/सिफारिशें: 
    • वर्ष 1983 में राजनीति के अपराधीकरण पर वोहरा समिति का गठन राजनीतिक-आपराधिक गठजोड़ की सीमा की पहचान करने और राजनीति के अपराधीकरण से प्रभावी ढंग से निपटने के तरीकों की सिफारिश करने के उद्देश्य से किया गया था।
    • विधि आयोग द्वारा प्रस्तुत 244वीं रिपोर्ट (2014) में विधायिका में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के लिये गंभीर परिणाम उत्पन्न करने वाले आपराधिक राजनेताओं की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की आवश्यकता पर विचार किया गया है।
      • विधि आयोग ने उन लोगों की अयोग्यता की सिफारिश की जिनके खिलाफ पाँच वर्ष या उससे अधिक की सज़ा के साथ दंडनीय अपराध के लिये नामांकन की जाँच की तारीख से कम-से-कम एक वर्ष पहले आरोप तय किये गए हैं।
    • वर्ष 2017 में केंद्र सरकार ने सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामलों के मुकदमे को तेज़ी से ट्रैक करने हेतु एक वर्ष के लिये 12 विशेष न्यायालय स्थापित करने की योजना शुरू की।
  • राजनीति के अपराधीकरण के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय:
    • एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स बनाम भारत संघ, (2002):
      • वर्ष 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक उम्मीदवार को शैक्षिक योग्यता के साथ उसे अपने आपराधिक और वित्तीय रिकॉर्ड की घोषणा भी करनी होगी।
    • PUCL बनाम भारत संघ (2004):
      • सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि चुनावी उम्मीदवारों के लिये अपने आपराधिक रिकॉर्ड को प्रदर्शित करने की आवश्यकता को समाप्त करने वाला कानून असंवैधानिक है। न्यायालय ने कहा कि निष्पक्ष चुनाव के लिये मतदाताओं को उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि के बारे में जानने का अधिकार है।
    • रमेश दलाल बनाम भारत संघ (2005):
      • वर्ष 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि दोषी ठहराए जाने पर मौजूदा सांसद या विधायक को चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा और न्यायालय द्वारा दो वर्ष या उससे अधिक के लिये कारावास की सज़ा सुनाई जाएगी।
    • लिली थॉमस बनाम भारत संघ (2013):
      • सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की है कि संसद या राज्य विधानसभा का कोई भी सदस्य जो किसी अपराध के लिये दोषी ठहराया जाता है और दो साल या उससे अधिक की जेल की सज़ा भुगतता है, उसे पद धारण करने से अयोग्य घोषित किया जाएगा।
    • मनोज नरूला बनाम भारत संघ (2014):
      • दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि एक व्यक्ति को केवल इसलिये चुनाव लड़ने से अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि उस पर आपराधिक आरोप लगाया गया है।
      • हालाँकि न्यायालय ने यह भी कहा कि राजनीतिक दलों को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को मैदान में नहीं उतारना चाहिये।
    • पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन बनाम भारत संघ (2019):
      • सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीतिक दलों को अपने उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड को अपनी वेबसाइट, सोशल मीडिया हैंडल और समाचार पत्रों पर प्रकाशित करने का आदेश दिया है।
      • न्यायालय ने भारत निर्वाचन आयोग (ECI) को यह सुनिश्चित करने के लिये एक ढाँचा तैयार करने का भी निर्देश दिया ताकि उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड की जानकारी प्रभावी ढंग से प्रसारित की जा सके।

आगे की राह

  • जवाबदेही के लिये संस्थागत तंत्र को सुदृढ़ बनाना:
    • राजनीतिक भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग की प्रभावी ढंग से जाँच करने तथा मुकदमा चलाने के लिये भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसियों एवं न्यायपालिका को सशक्त बनाना।
    • पार्टी की मज़बूत आंतरिक अनुशासनात्मक प्रक्रियाएँ स्थापित करना जो पारदर्शी और निष्पक्ष हों।
    • ECI, NRHC और राष्ट्रीय महिला आयोग (National Commission for Women) जैसे निरीक्षण निकायों की स्वतंत्रता एवं प्रभावशीलता सुनिश्चित करना।
  • नैतिक आचरण की संस्कृति को बढ़ावा देना:
    • निर्वाचित प्रतिनिधियों और राजनीतिक दल के पदाधिकारियों के लिये एक व्यापक आचार संहिता विकसित करना।
    • राजनीतिक वर्ग के सभी सदस्यों के लिये नैतिक प्रशिक्षण और संवेदीकरण कार्यक्रम अनिवार्य करना।
    • नैतिक मानदंडों के उल्लंघन के लिये अयोग्यता सहित कठोर दंड लगाना।
  • नागरिकों और नागरिक समाज को सशक्त बनाना:
    • मतदाताओं के बीच राजनीतिक जागरूकता और आलोचनात्मक सोच बढ़ाने के लिये नागरिक शिक्षा में सुधार करना।
    • ज़मीनी स्तर के आंदोलनों और वकालत अभियानों सहित राजनीतिक प्रक्रिया में अधिक से अधिक नागरिक भागीदारी को प्रोत्साहित करना।
    • राजनीतिक कदाचार के मुद्दों की जाँच करने और उन्हें उजागर करने में स्वतंत्र मीडिया, निगरानी संगठनों एवं कार्यकर्त्ताओं की भूमिका का समर्थन करना

निष्कर्ष:

भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में जवाबदेही और नैतिक मानकों को बहाल करना एक जटिल एवं दीर्घकालिक प्रयास होगा। हालाँकि, एक बहुआयामी दृष्टिकोण जो संस्थागत, सांस्कृतिक और सामाजिक आयामों का समाधान करता है, अपराधीकरण एवं पक्षपातपूर्ण संरक्षण से संबंधित प्रवृत्तियों का मुकाबला करने में सहायता कर सकता है जिसने लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अखंडता को कमज़ोर किया है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न: उदाहरणों की सहायता से राजनीति के अपराधीकरण पर चर्चा कीजिये। साथ ही, इससे जुड़े प्रमुख नैतिक मुद्दों का भी उल्लेख कीजिये।

प्रश्न: राजनीति के अपराधीकरण से जुड़े नैतिक मुद्दों की गणना कीजिये। साथ ही, इसके नैतिक निहितार्थ भी सुझाइए?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये- (2021)

  1. भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है जो प्रत्याशियों को किसी एक लोकसभा चुनाव में तीन निर्वाचन-क्षेत्रों से लड़ने से रोकता है।
  2.  1991 में लोकसभा चुनाव में श्री देवी लाल ने तीन लोकसभा निर्वाचन-क्षेत्रों से चुनाव लड़ा था।
  3. वर्तमान नियमों के अनुसार, यदि कोई प्रत्याशी किसी एक लोकसभा चुनाव में कई निवार्चन-क्षेत्रों से चुनाव लड़ता है, तो उसकी पार्टी को उन निर्वाचन-क्षेत्रों के उप-चुनावों का खर्च उठाना चाहिये, जिन्हें उसने खाली किया है बशर्ते वह सभी निर्वाचन-क्षेत्रों से विजयी हुआ हो।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1      
(b)  केवल 2
(c) 1 और 3      
(d) 2 और 3

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न. लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के अंतर्गत संसद अथवा राज्य विधायिका के सदस्यों के चुनाव से उभरे विवादों के निर्णय की प्रक्रिया का विवेचन कीजिये। किन आधारों पर किसी निर्वाचित घोषित प्रत्याशी के निर्वाचन को शून्य घोषित किया जा सकता है? इस निर्णय के विरुद्ध पीड़ित पक्ष को कौन-सा उपचार उपलब्ध है? वाद विधियों का संदर्भ दीजिये। (2022)

प्रश्न.2 अक्सर कहा जाता है कि 'राजनीति' और 'नैतिकता' एक साथ नहीं चलते हैं। इस संबंध में आपकी क्या राय है? दृष्टांतों के साथ अपने उत्तर की पुष्टि कीजिये। (2013)


भारत के खिलौना उद्योग का भविष्य

प्रिलिम्स के लिये:

भारत का खिलौना उद्योग, वैश्विक व्यापार अनुसंधान पहल रिपोर्ट, अंतर्राष्ट्रीय मानक संगठन (ISO), भारतीय मानक ब्यूरो (BIS)

मेन्स के लिये:

भारत के खिलौना उद्योग के लिये रणनीति

स्रोत: ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव     

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव' रिपोर्ट में भारत के खिलौना उद्योग को विकसित करने और निर्यात बढ़ाने के लिये एक व्यापक रणनीति का प्रस्ताव दिया गया है।

  • इसका उद्देश्य गुणवत्ता में सुधार, नवाचार को बढ़ावा देने के साथ-साथ बाज़ार पहुँच का विस्तार करने पर केंद्रित रणनीतिक हस्तक्षेपों को लागू करके भारत को खिलौना निर्माण और निर्यात के लिये एक वैश्विक केंद्र के रूप में स्थापित करना है।

भारत के खिलौना उद्योग की स्थिति और क्षमता:

  • स्थिति:
    • ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव रिपोर्ट के अनुसार, भारत वैश्विक खिलौना व्यापार में सीमांत स्थिति रखता है, निर्यात में केवल 0.3% हिस्सेदारी और आयात में 0.1% हिस्सेदारी है।
    • वैश्विक खिलौना निर्यात में भारत केवल 0.3% की हिस्सेदारी के साथ 27वें स्थान पर है और खिलौना आयात में 61वें स्थान पर है, जिसका कुल आयात 60 मिलियन अमेरिकी डॉलर है।
  • भारत अन्य श्रेणियों की तुलना में इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों की एक बड़ी मात्रा का निर्यात करता है, साथ ही प्लास्टिक गुड़िया, धातु और अन्य गैर-इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों के निर्यात के माध्यम से खिलौना व्यापार में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है, जो इसकी विविध विनिर्माण क्षमताओं को उजागर करता है। 
  • संभावना:
    • भारतीय खिलौना उद्योग वैश्विक स्तर पर सबसे तेज़ी से बढ़ने वाले उद्योगों में से एक है, जिसके वर्ष 2028 तक 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचने का अनुमान है, जो 2022-28 के बीच 12% की CAGR से बढ़ रहा है।
    • मध्य पूर्व और अफ्रीकी देशों में उच्च मूल्य के निर्यात में वृद्धि के साथ, भारतीय खिलौना उद्योग अपनी वैश्विक उपस्थिति का विस्तार कर रहा है।

वैश्विक खिलौना उद्योग:

  • ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव रिपोर्ट के अनुसार 2022 में, वैश्विक खिलौना बाज़ार में लगभग 60.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर का आयात किया गया, जिसमें चीन 48.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर के निर्यात के साथ सबसे आगे रहा, जो वैश्विक निर्यात का 80% प्रतिनिधित्व करता है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका खिलौनों के सबसे बड़े आयातक के रूप में अग्रणी है, जबकि अन्य प्रमुख आयातकों में यूरोपीय संघ, जापान, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, मैक्सिको और दक्षिण कोरिया शामिल हैं जो एक विविध बाज़ार का प्रतीक हैं।

भारत के खिलौना उद्योग के सामने क्या चुनौतियाँ हैं?

  • प्रौद्योगिकी की कमी: यह कमी भारतीय खिलौना उद्योग में बाधा उत्पन्न करती है, जिससे अधिकांश घरेलू निर्माता पुरानी तकनीक और मशीनरी का उपयोग करते हैं, जिससे खिलौनों की गुणवत्ता एवं डिज़ाइन प्रभावित होते हैं।
  • उच्च GST दरें: मैकेनिकल खिलौनों पर 12% GST लगता है जबकि इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों पर कर 18% है। मात्र एक बल्ब या ध्वनि तंत्र जोड़ने से खिलौने का वर्गीकरण परिवर्तित हो जाता है।
  • बुनियादी ढाँचे की कमी: भारत में खिलौना उद्योग को निम्न बुनियादी ढाँचे, एंड-टू-एंड विनिर्माण सुविधाओं की कमी, अपर्याप्त परीक्षण प्रयोगशालाओं, खिलौना पार्कों की कमी, क्लस्टर और लॉजिस्टिक्स समर्थन के कारण चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
  • असंगठित और खंडित: भारतीय खिलौना उद्योग वर्तमान में भी खंडित है, 90% बाज़ार असंगठित है और अधिकतम लाभ प्राप्त करना बहुत मुश्किल हो जाता है।
  • अन्य चुनौतियाँ: लागत-प्रभावशीलता, उत्पाद विविधता, गुणवत्ता मानक और व्यापार समझौते जैसे कारक वैश्विक खिलौना व्यापार परिदृश्य को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • उपभोक्ता प्राथमिकताओं में बदलाव, तकनीकी प्रगति और नियामक परिवर्तन भी बाज़ार की गतिशीलता को प्रभावित करते हैं।

स्थानीय खिलौना उद्योग को बढ़ावा देने के लिये भारत सरकार के उपाय:

  • आयात शुल्क में वृद्धि: भारत ने खिलौनों पर आयात शुल्क में उल्लेखनीय वृद्धि की, जुलाई 2021 में मूल सीमा शुल्क को 20% से बढ़ाकर 70% कर दिया। 
    • इससे आयातित खिलौने बहुत महँगे हो गए, जिससे स्थानीय रूप से उत्पादित खिलौनों को प्रतिस्पर्धात्मक लाभ मिला।
  • गुणवत्ता नियंत्रण आदेश (QCO): जनवरी 2021 से QCO ने भारत में बेचे जाने वाले सभी खिलौनों को विशिष्ट भारतीय सुरक्षा मानकों को पूरा करने के लिये बाध्य किया है, इन मानकों में में तेज़ किनारों, छोटे भागों के खतरों, ज्वलनशीलता और हानिकारक रासायनिक प्रवासन जैसे पहलुओं को शामिल किया गया है। 
    • खिलौनों पर BIS प्रमाणीकरण चिह्न भी होना चाहिये और इन्हें NABL- मान्यता प्राप्त प्रयोगशालाओं में यादृच्छिक जाँच एवं परीक्षण से भी गुज़रना होगा।
    • QCO द्वारा चीन से होने वाले निम्न गुणवत्ता वाले खिलौने के आयात को तो रोका गया, लेकिन इससे भारतीय खिलौनों के निर्यात को बढ़ावा नहीं मिला।
  • खिलौनों के लिये राष्ट्रीय कार्य योजना: भारत सरकार की एक पहल, इसमें 15 मंत्रालयों के बीच सहयोग शामिल है और इसमें खिलौना उत्पादन क्लस्टर बनाना, विनिर्माण एवं निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिये योजनाएँ शुरू करना, अनुसंधान व विकास को बढ़ावा देना, गुणवत्ता मानकों को सुनिश्चित करना, खिलौनों को शिक्षा के साथ एकीकृत करना तथा खिलौना मेलों और प्रदर्शनियों का आयोजन करना जैसे उपाय शामिल हैं।

नोट:

  • खिलौने की गुणवत्ता मानकों को पूरा करने से निर्धारित होती है, जो स्वैच्छिक या अनिवार्य हो सकती है।
  • भारत में गुणवत्ता नियंत्रण आदेश, 2020 एक अनिवार्य तकनीकी विनियमन है।
  • अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (ISO) द्वारा मानक निर्धारित किये जाते हैं, जबकि भारत में भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standards- BIS) खिलौनों के लिये विशिष्ट मानक निर्धारित करता है, जिसमें यांत्रिक सुरक्षा तथा ज्वलनशीलता जैसे पहलुओं को शामिल किया जाता है।

आगे की राह:

  • सरकारी पहल: MSME मंत्रालय द्वारा शुरू की गई पारंपरिक उद्योगों के उन्‍नयन एवं पुनर्निर्माण के लिये कोष की योजना (SFURTI) जैसी योजनाओं के माध्यम से खिलौना उद्योग का समर्थन करने के साथ-साथ निर्यात को बढ़ावा देना चाहिये, जिससे वैश्विक खिलौना बाज़ार में भारत की उपस्थिति को बढ़ावा मिल सके।
  • वैश्विक खिलौना ब्रांडों को भारत में विनिर्माण हेतु प्रोत्साहित करना: अंतर्राष्ट्रीय खिलौना निर्माताओं को (जो वर्तमान में चीन में कार्यरत हैं) जैसे हैस्ब्रो, मैटल, लेगो, स्पिन मास्टर और MGA एंटरटेनमेंट को भारत में उत्पादन केंद्र स्थापित करने हेतु आमंत्रित किया जाना चाहिये।
    • प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और कौशल विकास के लिये अंतर्राष्ट्रीय भागीदारों के साथ सहयोग से वैश्विक खिलौना व्यापार में भारत की प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ावा मिल सकता है।
  • चीन से प्रेरित होना: भारतीय खिलौना उद्योग का अनुमानित मूल्य 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर है, जबकि चीन में यह 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर है।
    • शुरुआत में निम्न-मानक और असुरक्षित खिलौनों की आपूर्ति करने के बावज़ूद संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान आदि जैसे देशों के प्रमुख बाज़ारों के लिये प्रमुख निर्यातक बनने की चीन की सफलता का भारत को अध्ययन करना चाहिये।
  • उत्पादन हेतु इनपुट को स्थानीय स्तर पर प्रदान करना: आत्मनिर्भरता बढ़ाने तथा लागत कम करने के लिये मोती, नकली पत्थर, प्लास्टिक, इलेक्ट्रिक मोटर और रिमोट कंट्रोल डिवाइस जैसी आवश्यक खिलौना बनाने वाली सामग्रियों के स्थानीय विनिर्माण को बढ़ावा देना चाहिये जिससे आयात पर निर्भरता में भी कमी आएगी।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भारतीय खिलौना उद्योग के सामने आने वाली चुनौतियों पर चर्चा करें और उनसे निपटने के लिये संभावित रणनीतियों का मूल्यांकन करें। घरेलू खिलौना क्षेत्र की वृद्धि और प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ावा देने के लिये भारत सरकार एवं उद्योग हितधारक कैसे सहयोग कर सकते हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न. विनिर्माण क्षेत्र के विकास को बढ़ावा देने के लिये भारत सरकार की हाल की नीतिगत पहल क्या है/हैं? (2012)

  1. राष्ट्रीय निवेश और विनिर्माण क्षेत्र की स्थापना
  2.  'सिंगल विंडो क्लीयरेंस' का लाभ प्रदान करना
  3.  प्रौद्योगिकी अधिग्रहण और विकास कोष की स्थापना

नीचे दिये गये कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न. 'भारत में बनाइये' कार्यक्रम की सफलता, 'कौशल भारत' कार्यक्रम और आमूल श्रम सुधारों की सफलता पर निर्भर करती है।" तर्कसम्मत दलीलों के साथ चर्चा कीजिये। (2015)