नोएडा शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 9 दिसंबर से शुरू:   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


भारतीय राजनीति

राजनीति का अपराधीकरण: समस्या व समाधान

  • 11 Jul 2020
  • 19 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में राजनीति के अपराधीकरण व उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ 

राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण के संदर्भ में दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायलय ने फरवरी 2020 में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय देते हुए कहा था कि उम्मीदवारों के संपूर्ण आपराधिक इतिहास की जानकारी स्थानीय और राष्ट्रीय समाचार पत्र के साथ-साथ पार्टियों के सोशल मीडिया हैंडल में प्रकाशित होनी चाहिये। यदि कोई राजनैतिक दल इन दिशा-निर्देशों का अनुपालन करने में विफल रहता है, तो यह इस कृत्य को न्यायालय के आदेशों/निर्देशों की अवमानना ​​माना जाएगा।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णय के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। अक्तूबर, 2020 में बिहार विधान सभा चुनाव में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णय का व्यावहारिक क्रियान्वयन देखा जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह कदम राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों की बढ़ती संख्या पर नियंत्रण, चुनावी पारदर्शिता और जनता के प्रति राजनीतिक दलों के उत्तरदायित्वों को सुनिश्चित करने के लिये उठाया है।

राजनीति का अपराधीकरण और भारत

  • राजनीति के अपराधीकरण का अर्थ राजनीति में आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे लोगों और अपराधियों की बढ़ती भागीदारी से है। सामान्य अर्थों में यह शब्द आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का राजनेता और प्रतिनिधि के रूप में चुने जाने का घोतक है।
  • वर्ष 1993 में वोहरा समिति की रिपोर्ट और वर्ष 2002 में संविधान के कामकाज की समीक्षा करने के लिये राष्ट्रीय आयोग (NCRWC) की रिपोर्ट ने पुष्टि की है कि भारतीय राजनीति में गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों की संख्या बढ़ रही है।  
  • वर्तमान में ऐसी स्थिति बन गई है कि राजनीतिक दलों के मध्य इस बात की प्रतिस्पर्द्धा है कि किस दल में कितने उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, क्योंकि इससे उनके चुनाव जीतने की संभावना बढ़ जाती है। 
  • पिछले लोकसभा चुनावों के आँकड़ों पर गौर किया जाए तो स्थिति यह है कि आपराधिक प्रवृत्ति वाले संसद सदस्यों की संख्या में वृद्धि ही हुई है। वर्ष 2004 में संसद के 24 प्रतिशत सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित थे जो कि वर्ष 2009 में बढ़कर 30 प्रतिशत, वर्ष 2014 में 34 प्रतिशत और वर्ष 2019 में 43 प्रतिशत हो गए।       
    • नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफाॅर्म (ADR) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, जहाँ एक ओर वर्ष 2009 में गंभीर आपराधिक मामलों वाले संसद सदस्यों की संख्या 76 थी, वहीं 2019 में यह बढ़कर 159 हो गई। इस प्रकार 2009-19 के बीच गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले संसद सदस्यों की संख्या में कुल 109 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखने को मिली। 
    • गंभीर आपराधिक मामलों में बलात्कार, हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध अपराध आदि को शामिल किया जाता है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए आदेश के प्रमुख बिंदु

  • सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार, राजनीतिक दलों (केंद्र व राज्य स्तर पर) को अपने चयनित उम्मीदवारों पर चल रहे आपराधिक मामलों की विस्तृत जानकारी अपने वेबसाइट पर साझा करनी होगी। 
    • इसमें अपराध की प्रकृति, चार्टशीट, संबंधित न्यायालय का नाम और केस नंबर आदि जानकारियाँ शामिल हैं।  
    • आदेश के अनुसार, प्रत्याशी पर दर्ज मामलों की विस्तृत जानकारी को एक राष्ट्रीय और एक स्थानीय भाषा के अखबार में प्रकाशित करने के साथ दल के आधिकारिक सोशल मीडिया खातों जैसे-फेसबुक, ट्विटर आदि पर भी साझा करना होगा।
  • यह अनिवार्य रूप से उम्मीदवारों के चयन के 48 घंटे के भीतर या नामांकन दाखिल करने की पहली तारीख के दो सप्ताह से कम समय में (जो भी पहले हो) प्रकाशित किया जाना चाहिये।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीतिक दलों को आदेश दिया कि वे भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India) के सामने 72 घंटे के भीतर अदालती कार्रवाई की अनुपालन रिपोर्ट प्रस्तुत करें अन्यथा उन दलों पर न्यायालय की अवमानना से संबंधित कार्रवाई की जाएगी।
  • इसके साथ ही राजनीतिक दलों को संबंधित प्रत्याशी के चयन का कारण बताना होगा और यह भी बताना होगा कि संबंधित प्रत्याशी के स्थान पर बिना आपराधिक पृष्ठभूमि वाले किसी अन्य व्यक्ति का चयन क्यों नहीं किया जा सका। 
  • न्यायालय ने अपने आदेश में यह भी स्पष्ट किया है कि प्रत्याशी के रूप में चयन का कारण व्यक्ति की योग्यता, उपलब्धियों आदि के संदर्भ में होना चाहिये न कि उसकी चुनाव जीतने की क्षमता (Winnability) के संदर्भ में।

राजनीति के अपराधीकरण के कारण 

  • अपराधियों का पैसा और बाहुबल राजनीतिक दलों को वोट हासिल करने में मदद करता है। चूँकि भारत की चुनावी राजनीति अधिकांशतः जाति और धर्म जैसे कारकों पर निर्भर करती है, इसलिये उम्मीदवार आपराधिक आरोपों की स्थिति में भी चुनाव जीत जाते हैं।
  • चुनावी राजनीति कमोबेश राजनीतिक दलों को प्राप्त होने वाली फंडिंग पर निर्भर करती है और चूँकि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के पास अक्सर धन और संपदा काफी अधिक मात्रा में होता है, इसलिये वे दल के चुनावी अभियान में अधिक-से-अधिक पैसा खर्च करते हैं और उनके राजनीति में प्रवेश करने तथा जीतने की संभावना बढ़ जाती है।
  • भारत के राजनीतिक दलों में काफी हद तक अंतर-दलीय लोकतंत्र का अभाव देखा जाता है और उम्मीदवारी पर निर्णय मुख्यतः दल के शीर्ष नेतृत्व द्वारा ही लिया जाता है, जिसके कारण आपराधिक पृष्ठभूमि वाले राजनेता अक्सर दल के स्थानीय कार्यकर्ताओं और संगठन द्वारा जाँच से बच जाते हैं। 
  • भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में अंतर्निहित देरी ने राजनीति के अपराधीकरण को प्रोत्साहित किया है। अदालतों द्वारा आपराधिक मामले को निपटाने में औसतन 15 वर्ष लगते हैं। 
  • ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ (First Past The Post-FPTP) निर्वाचन प्रणाली में सभी उम्मीदवारों में से सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार विजयी होता है, चाहे विजयी उम्मीदवार को कितना भी (कम या अधिक) मत क्यों न प्राप्त हुआ हो। इस प्रकार की प्रणाली में अपराधियों के लिये अपने धन और बाहुबल का प्रयोग कर अधिक-से-अधिक मत हासिल करना काफी आसान होता है।
  • निर्वाचन आयोग की कार्यप्रणाली में मौजूद खामियाँ भी राजनीति के अपराधीकरण का प्रमुख कारण हैं। चुनाव आयोग ने नामांकन पत्र दाखिल करते समय उम्मीदवारों की संपत्ति का विवरण, अदालतों में लंबित मामलों, सज़ा आदि का खुलासा करने का प्रावधान किया है। किंतु ये कदम अपराध और राजनीति के मध्य साँठगाँठ को तोड़ने की दिशा में अब तक सफल नहीं हो पाए हैं।
  • भारत की राजनीति में अपराधीकरण को बढ़ावा देने में नागरिक समाज का भी बराबर का योगदान रहा है। अक्सर आम आदमी अपराधियों के धन और बाहुबल से प्रभावित होकर बिना जाँच किये ही उन्हें वोट दे देता है।
  • इसके अलावा भारतीय राजनीति में नैतिकता और मूल्यों के अभाव ने अपराधीकरण की समस्या को और गंभीर बना दिया है। अक्सर राजनीतिक दल अपने निहित स्वार्थों के लिये अपराधीकरण की जाँच करने से कतराती हैं।

राजनीति के अपराधीकरण का प्रभाव

  • देश की राजनीति और कानून निर्माण प्रक्रिया में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की उपस्थिति का लोकतंत्र की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
  • राजनीति के अपराधीकरण के कारण चुनावी प्रक्रिया में काले धन का प्रयोग काफी अधिक बढ़ जाता है।
  • राजनीति के अपराधीकरण का देश की न्यायिक प्रक्रिया पर भी प्रभाव देखने को मिलता है और अपराधियों के विरुद्ध जाँच प्रक्रिया धीमी हो जाती है।
  • राजनीति में प्रवेश करने वाले अपराधी सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं और नौकरशाही, कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका सहित अन्य संस्थानों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
  • राजनीति का अपराधीकरण समाज में हिंसा की संस्कृति को प्रोत्साहित करता है और भावी जनप्रतिनिधियों के लिये एक गलत उदाहरण प्रस्तुत करता है।

भारतीय चुनावी तंत्र में सुधार के पूर्व प्रयास

  • दिनेश गोस्वामी समिति (1990): समिति ने अपनी रिपोर्ट में चुनावी खर्च पर नियंत्रण, कंपनियों द्वारा दिये गए चंदे पर रोक, चुनावों में राज्य की भूमिका और इसके साथ ही चुनावों के अन्य पहलुओं जैसे- प्रचार का समय, आयु सीमा, चुनाव आयोग के अधिकार आदि के संबंध में निगरानी और प्रावधानों की सिफारिश की।
  • वोहरा समिति (1993): वोहरा समिति ने राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण और उनके राजनीतिक संरक्षण पर चिंता व्यक्त करते हुए इस समस्या के समाधान के लिये विभिन्न अपराध नियंत्रण संस्थाओं (सीबीआई, इनकम टैक्स, नारकोटिक्स आदि) की सहायता लेने की सलाह दी।
  • इन्द्रजीत गुप्ता समिति (1998): गुप्ता समिति ने अपनी रिपोर्ट में राजनीति में भ्रष्टाचार और अपराध को कम करने के लिये राज्य द्वारा चुनावी खर्च वहन किये जाने की सिफारिश की।
  • विधि आयोग रिपोर्ट (1999): वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने का समर्थन किया था।
  • एमएन वैंकट चलैया समिति (2000-02)- विधि आयोग, चुनाव आयोग, संविधान की समीक्षा के लिये राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट।
  • वांचू समिति (प्रत्यक्ष कर जाँच समिति)- वांचू समिति ने राजनीतिक चंदे के विनियमन के साथ राजनीतिक दलों की अन्य आर्थिक गतिविधियों पर अपनी रिपोर्ट जारी की।

चुनाव सुधार पर सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका 

  • अक्तूबर 1974 में सर्वोच्च न्यायालय ने कँवर लाल गुप्ता बनाम अमर नाथ चावला व अन्य मामले में प्रत्याशी के प्रचार पर होने वाले किसी भी प्रकार के खर्च (पार्टी प्रायोजक या किसी समर्थक द्वारा) को प्रत्याशी के लिये निर्धारित सीमा में जोड़ने का निर्देश दिया।
  • वर्ष 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफाॅर्म वाद में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि संसद, राज्य विधानसभाओं या नगर निगम के लिये चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक उम्मीदवार को अपनी आपराधिक, वित्तीय और शैक्षिक पृष्ठभूमि की घोषणा करनी होगी।
  • वर्ष 2005 में रमेश दलाल बनाम भारत सरकार वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक संसद सदस्य (सांसद) या राज्य विधानमंडल के सदस्य (विधायक) को दोषी ठहराए जाने पर चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराया जाएगा और उसे अदालत द्वारा 2 वर्ष से कम कारावास की सज़ा नहीं दी जाएगी।
  • वर्ष 2017 के एक महत्त्वपूर्ण फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रत्याशियों के लिये अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि से संबंधित जानकारी सार्वजानिक करने की अनिवार्यता को दोहराते हुए, राजनीतिज्ञों पर चल रहे आपराधिक मामलों की सुनवाई के लिये फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना करने का आदेश दिया।

क्या कहता है जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम?

  • जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 दोषी राजनेताओं को चुनाव लड़ने से रोकती है। लेकिन ऐसे नेता जिन पर केवल मुकदमा चल रहा है, वे चुनाव लड़ने के लिये स्वतंत्र हैं। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन पर लगा आरोप कितना गंभीर है।
  • इस अधिनियम की धारा 8(1) और 8(2) के अंतर्गत प्रावधान है कि यदि कोई विधायिका सदस्य (सांसद अथवा विधायक) हत्या, बलात्कार, अस्पृश्यता, विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम के उल्लंघन; धर्म, भाषा या क्षेत्र के आधार पर शत्रुता पैदा करना, भारतीय संविधान का अपमान करना, प्रतिबंधित वस्तुओं का आयात या निर्यात करना, आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होना जैसे अपराधों में लिप्त होता है, तो उसे इस धारा के अंतर्गत अयोग्य माना जाएगा एवं 6 वर्ष की अवधि के लिये अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।
  • वहीं, इस अधिनियम की धारा 8(3) में प्रावधान है कि उपर्युक्त अपराधों के अलावा किसी भी अन्य अपराध के लिये दोषी ठहराए जाने वाले किसी भी विधायिका सदस्य को यदि दो वर्ष से अधिक के कारावास की सज़ा सुनाई जाती है तो उसे दोषी ठहराए जाने की तिथि से आयोग्य माना जाएगा। ऐसे व्यक्ति को सज़ा पूरी किये जाने की तिथि से 6 वर्ष तक चुनाव लड़ने के लिये अयोग्य माना जाएगा।

चुनौतियाँ 

  • सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में राजनीति में शामिल आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों पर प्रत्यक्ष कार्रवाई के बजाय यह निर्णय राजनीतिक दलों और जनता के विवेक पर छोड़ दिया है। ऐसे में न्यायालय के आदेश से राजनीति में जल्दी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती।
  • सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में चुनाव आयोग को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों पर कार्रवाई के स्थान पर उनकी निगरानी करने और इस संबंध में नियमानुसार न्यायालय को सूचित करने के निर्देश दिये गए हैं। यह व्यवस्था राजनीतिक अपराधियों को लेकर पहले से ही लंबी न्यायिक प्रक्रिया पर समाधान प्रदान करने की बजाय उसे और अधिक जटिल बनाती है।
  • राजनैतिक पारदर्शिता के संदर्भ में न्यायालय का यह आदेश तभी प्रभावी हो सकता है जब राजनैतिक दल इस संदर्भ में नियमों का सही पालन करें और जनहित का ध्यान रखते हुए सही जानकारी दें। परंतु गलत/झूठे समाचारों (Fake News) के इस दौर में जनता तक सही जानकारी को पहुँचाना बहुत ही कठिन है, अतः न्यायालय के आदेश से राजनीति में बड़े सुधारों की उम्मीद नहीं की जा सकती।

निष्कर्ष

देश की राजनीति में अपराधियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए यह आवश्यक हो गया है कि संसद ऐसा कानून लाए ताकि अपराधी राजनीति से दूर रहें। जन प्रतिनिधि के रूप में चुने जाने वाले लोग अपराध की राजनीति से ऊपर हों। राष्ट्र को संसद द्वारा कानून बनाए जाने का इंतजार है। भारत की दूषित हो चुकी राजनीति को साफ करने के लिये बड़ा प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।

प्रश्न- राजनीति के अपराधीकरण से आप क्या समझते हैं? राजनीति के अपराधीकरण को दूर करने में सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय का मूल्यांकन कीजिये।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2
× Snow