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डेली न्यूज़

  • 11 Dec, 2024
  • 56 min read
भूगोल

UNCCD का ड्रॉट एटलस

प्रिलिम्स के लिये:

UNCCD COP16, मरुस्थलीकरण से निपटने हेतु संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UNCCD), शीतकालीन मानसून। 

मेन्स के लिये:

मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण का मुद्दा और इस मुद्दे से निपटने के लिये कदम।

स्रोत: डाउन टू अर्थ 

चर्चा में क्यों?

रियाद में आयोजित UNCCD COP16 में मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCCD) और यूरोपीय आयोग के संयुक्त अनुसंधान केंद्र ने वर्ल्ड ड्रॉट एटलस जारी किया, जो सूखे के जोखिम तथा समाधान पर एक व्यापक वैश्विक प्रकाशन है।

मरुस्थलीकरण से निपटने हेतु संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UNCCD) क्या है?

  • इसे वर्ष 1994 में स्थापित किया गया था, जो पर्यावरण और विकास को स्थायी भूमि प्रबंधन से जोड़ने वाला एकमात्र कानूनी रूप से बाध्यकारी अंतर्राष्ट्रीय समझौता है।
  • यह शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और शुष्क उप-आर्द्र क्षेत्रों पर केंद्रित है, जिन्हें शुष्क भूमि के रूप में जाना जाता है, जिनमें कुछ सबसे कमज़ोर पारिस्थितिकी तंत्र और समुदाय शामिल हैं।
  • सम्मेलन के 197 सदस्य देश शुष्क भूमि में जीवन की स्थिति सुधारने, भूमि और मृदा की उत्पादकता बहाल करने तथा सूखे के प्रभावों को कम करने के लिये मिलकर काम करते हैं।
  • UNCCD भूमि, जलवायु और जैव विविधता के परस्पर जुड़े मुद्दों के समाधान के लिये अन्य दो रियो कन्वेंशनों के साथ सहयोग करता है:

UNCCD के ड्रॉट एटलस के प्रमुख निष्कर्ष क्या हैं?

  • सूखे के जोखिम की प्रणालीगत प्रकृति: सूखा एक प्रणालीगत जोखिम है जो वैश्विक स्तर पर कई क्षेत्रों को प्रभावित करता है। यह अनुमान है कि यदि वर्तमान रुझान जारी रहे तो वर्ष 2050 तक विश्व की 75% आबादी (लगभग 4 में से 3 लोग) सूखे की स्थिति से प्रभावित होंगे।
    • वर्ष 2022 और 2023 में 1.84 बिलियन लोग (विश्व स्तर पर लगभग 4 में से 1) सूखे से प्रभावित हुए, जिनमें से लगभग 85% निम्न और मध्यम आय वाले देशों के थे।
  • आर्थिक परिणाम: सूखे से कृषि, ऊर्जा उत्पादन और व्यापार पर गंभीर असर पड़ सकता है। UNCCD का दावा है कि सूखे के कारण होने वाले नुकसान की आर्थिक लागत 2.4 गुना कम आंकी गई है, जो प्रति वर्ष 307 बिलियन अमेरिकी डॉलर है।
  • भारत में सूखे की संवेदनशीलता: भारत अपनी विविध जलवायु परिस्थितियों और कृषि के लिये मानसून की वर्षा पर निर्भरता के कारण  सूखे के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील है।
    • एटलस इस बात पर जोर देता है कि भारत की लगभग 60% कृषि भूमि वर्षा पर निर्भर है, जिससे वर्षा के पैटर्न में उतार-चढ़ाव के प्रति यह अतिसंवेदनशील है।
    • दक्षिण भारत में वर्ष 2016 का सूखा ग्रीष्म और शीत मानसून दोनों के दौरान असाधारण रूप से कम वर्षा के कारण था।
    • तेज़ी से बढ़ते शहरीकरण के कारण चेन्नई जैसे शहरों में जल प्रबंधन में गड़बड़ी हो गई है, जिसके कारण पर्याप्त वर्षा के बावजूद गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है। 
      • UNCCD की रिपोर्ट में सूखे और संसाधनों के ह्रास के लिये मानवीय गतिविधियों और कभी-कभी वर्षा की कमी को ज़िम्मेदार ठहराया गया है।

सूखा क्या है?

  • परिचय:
    • सूखा जल की उपलब्धता में उल्लेखनीय कमी की अवधि है, जिससे जल की आपूर्ति, गुणवत्ता और मांग में असंतुलन उत्पन्न होता है। यह अवधि संक्षिप्त या वर्षों तक चल सकती है, जिससे पौधों की वृद्धि प्रभावित होती है और भूजल स्तर कम हो जाता है। 
      • वे कम वर्षा जैसे जलवायु कारकों के साथ-साथ जल निकासी, उपयोग और भूमि प्रबंधन जैसी मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न होते हैं।
    • मौसम के पैटर्न के कारण सूखा स्वाभाविक रूप से हो सकता है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण इसकी आवृत्ति और गंभीरता बढ़ रही है।
  • भारत में सूखे की स्थिति:
    • भारतीय सूखा एटलस (1901-2020) के अनुसार, भारत का लगभग दो-तिहाई हिस्सा सूखे की चपेट में है। 1.4 बिलियन लोगों वाले कृषि-आधारित राष्ट्र में सूखे से कृषि उत्पादकता पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।
      • वर्ष 1901 से 2020 के बीच भारत के लगभग 56% क्षेत्र में मध्यम से लेकर असाधारण सूखे की स्थिति रही, जिससे 300 मिलियन लोग और 150 मिलियन मवेशी प्रभावित हुए।
      • इसके अतिरिक्त फसल क्षति (1901 और 2020 के बीच) से लगभग 8.7 बिलियन अमरीकी डॉलर का अनुमानित आर्थिक नुकसान हुआ, जिससे कृषि GDP में 3.1% की कमी आई।
  • सूखे से निपटने के लिये उठाए गए कदम:
    • एकीकृत सूखा प्रबंधन कार्यक्रम वैश्विक जल साझेदारी (Global Water Partnership- GWP) और विश्व जल संगठन के बीच एक संयुक्त पहल है।
      • यह कार्यक्रम नीतिगत, तकनीकी और प्रबंधन मार्गदर्शन प्रदान करके तथा वैज्ञानिक ज्ञान एवं सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करके सूखा प्रबंधन के कार्यान्वयन में सरकारों व हितधारकों की सहायता करता है।
    • UNCCD की सूखा पहल सूखा की तैयारी प्रणालियों की स्थापना पर जोर देती है।
    • प्रतिवर्ष 17 जून को विश्व मरुस्थलीकरण एवं सूखा रोकथाम दिवस (World Day to Combat Desertification and Drought- WDCDD) के रूप में मनाया जाता है।
  • UNCCD की सूखा सहनशीलता, अनुकूलन और प्रबंधन नीति (DRAMP) रूपरेखा, सूखा जोखिमों को समझने, आँकड़े एकत्र करने, समान समाधान तैयार करने हेतु सतत् विज्ञान-नीति सहयोग  का समर्थन करती है, ताकि अर्थव्यवस्थाओं, समाजों तथा पारिस्थितिकी प्रणालियों के लिये लचीलापन सुनिश्चित किया जा सके।

वर्ल्ड डेजर्ट एटलस की प्रमुख सिफारिशें क्या हैं? 

  • शासन:
    • देशों को सूखे की घटनाओं के विरुद्ध तैयारी और लचीलेपन को बढ़ाने के लिये व्यापक राष्ट्रीय सूखा योजनाएँ विकसित तथा क्रियान्वित करनी चाहिये।
    • सीमाओं के पार सूखे के जोखिम को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिये ज्ञान, संसाधनों और सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करने हेतु अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को मज़बूत करना आवश्यक है।
    • छोटे किसानों के लिये सूक्ष्म बीमा जैसे वित्तीय तंत्र विकसित करने से सूखे से प्रभावित कमज़ोर आबादी को सुरक्षा कवच प्रदान किया जा सकता है।
  • भूमि उपयोग प्रबंधन:
    • सतत् कृषि पद्धतियाँ, जैसे कि वनरोपण, मृदा संरक्षण, फसल विविधीकरण और कृषि वानिकी के माध्यम से भूमि पुनरुद्धार, सूखे के विरुद्ध लचीलापन बनाने के लिये आवश्यक हैं।
    • ये उपाय अपवाह को कम करते हैं और तूफानी जल प्रतिधारण को बढ़ाते हैं, मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार करते हैं, पशुओं के लिये छाया प्रदान करते हैं और वाष्पोत्सर्जन को कम करते हैं, जिससे वनस्पतियों की सूखे के प्रति लचीलापन मज़बूत होता है।
  • जल आपूर्ति एवं उपयोग का प्रबंधन:
    • बुनियादी ढाँचे में निवेश: जल आपूर्ति और प्रबंधन हेतु बुनियादी ढाँचे में निवेश बढ़ाना, जैसे अपशिष्ट जल का पुनः उपयोग तथा भूजल पुनर्भरण प्रणाली, सूखे के दौरान जल सुरक्षा बढ़ाने के लिये आवश्यक है।

Drought_Management

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: चर्चा कीजिये कि सामाजिक-आर्थिक कारक भारत में सूखा सहनशीलता को किस प्रकार प्रभावित करते हैं तथा भविष्य में सूखे के विरुद्ध तैयारी में सुधार के लिये कार्यान्वयन योग्य रणनीति सुझाइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

मेन्स:

प्रश्न: सूखे को उसके स्थानिक विस्तार, कालिक अवधि, मंथर प्रारंभ और कमज़ोर वर्गों पर स्थायी प्रभावों की दृष्टि से आपदा के रूप में मान्यता दी गई है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एन.डी.एम.ए.) के सितंबर 2010 मार्गदर्शी सिद्धातों पर ध्यान केंद्रित करते हुए भारत में एल नीनो और ला नीना के सम्भावित दुष्प्रभावों से निपटने के लिये तैयारी की कार्यविधियों पर चर्चा कीजिये। (2014)


जैव विविधता और पर्यावरण

हिमालयी हिमनद झीलों का तीव्र विस्तार

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT), ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF), हिंदू कुश हिमालय, सिंथेटिक-एपर्चर रडार इमेजरी

मेन्स के लिये:

राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT), ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF), राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA), EWS, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (NDRF), ITBP  

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) ने एक समाचार रिपोर्ट का स्वत: संज्ञान लेते हुए हाल ही में केंद्र सरकार को हिमालयी हिमनद झीलों में होने वाली तीव्र वृद्धि (जिनमें बढ़ते तापमान के कारण पिछले 13 वर्षों में लगभग 10.81% तक की वृद्धि हुई है) के संबंध में नोटिस जारी किया है।

हिमनद झीलें क्या हैं? 

  • परिचय: हिमनद झील, हिमनद से निर्मित होती हैं। यह आमतौर पर हिमनद के आधार पर बनती हैं लेकिन यह हिमनद के ऊपर, अंदर या नीचे भी विकसित हो सकती हैं।
  • निर्माण: हिमनद झीलें तब बनती हैं जब ग्लेशियर द्वारा भूमि का कटाव होता है, जिससे गड्ढे बनते हैं और यह ग्लेशियर के पिघले जल से भर जाते हैं।
    • बर्फ या हिमोढ़ से बने प्राकृतिक बाँध से भी हिमनद झीलों का निर्माण हो सकता है लेकिन ये बाँध अस्थिर होने के साथ इनके फटने की संभावना से बाढ़ आ सकती है।
  • हिमनद झील का विस्तार: NGT ने इस रिपोर्ट के इस निष्कर्ष पर प्रकाश डाला है कि भारत में हिमनद झीलों के सतही क्षेत्र में वर्ष 2011 से 2024 तक 33.7% की वृद्धि हुई है, जिसमें 67 झीलों की पहचान GLOF (ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड) के संदर्भ में उच्च जोखिम के रूप में की गई है।
  • इससे लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश जैसे क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे और मानव जीवन के लिये बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया है।
  • ग्लेशियल झील विस्तार के कारण:
    • ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय में तापमान में वृद्धि हुई है, जिससे ग्लेशियर पिघलने की गति तीव्र हो रही है।
    • पीछे हटते ग्लेशियर झीलों में जल पहुँचाते हैं और नई भूमि सतह को उजागर करते हैं, जिससे नई हिमनद झीलों के निर्माण में सहायता मिलती है।
    • पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से जल-एकत्रित करने वाले गड्ढे निर्मित होते हैं, तथा हिमनद झीलें विस्तृत होती हैं, क्योंकि इससे प्राकृतिक जल निकासी अवरोध समाप्त हो जाता है।

GLOF क्या है?

  • ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF ) तब होती है जब हिमनद झील का बाँध टूट जाता है, जिससे बड़ी मात्रा में जल निकलता है, जो प्राय: ग्लेशियर के तीव्रता से पिघलने या भारी वर्षा के कारण  होता है।
  • ये बाढ़ें ग्लेशियर के आयतन में परिवर्तन, झील के जल स्तर में उतार-चढ़ाव और भूकंप के कारण उत्पन्न हो सकती हैं।
  • भारत में जीएलओएफ के मामले
    • जून 2013 में उत्तराखंड में सामान्य से अधिक वर्षा हुई थी, जिसके कारण चोराबाड़ी ग्लेशियर पिघल गया था और मंदाकिनी नदी में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हुई थी।
    • अगस्त 2014 में लद्दाख के ग्या गाँव में एक हिमनद झील के फटने से बाढ़ आई थी।
    • अक्तूबर 2023 में, राज्य के उत्तर-पश्चिम में 17,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित दक्षिण ल्होनक झील, एक हिमनद झील, लगातार वर्षा के परिणामस्वरूप टूट गई।

हिमालय में हिमनदी झीलों के तीव्रता से विस्तार की चिंताएँ क्या हैं?

  • निचले क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों पर प्रभाव: निचले क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों को विस्थापन, जान-माल की हानि और संपत्ति की क्षति का सामना करना पड़ता है, तथा बाढ़ के कारण कृषि भी गंभीर रूप से प्रभावित होती है।
  • कई उच्च जोखिम वाली झीलों में निगरानी और पूर्व चेतावनी प्रणालियों का अभाव है, जिसके कारण समुदाय तैयार नहीं हो पाते। 
    • NGT ने लद्दाख, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में 67 झीलों के लिये इस मुद्दे को प्रदर्शित किया, तथा आपदा तैयारी कानूनों के कमज़ोर प्रवर्तन को इंगित किया।
  • फीडबैक लूप: वैश्विक तापमान में वृद्धि से हिमनदों का तीव्रता से निवर्तन हो रहा है जिससे हिमनदीय झीलों का विस्तार हो रहा है और जोखिम बढ़ रहा है। 
    •  IPCC की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट में हिमालय के हिमनदों के निवर्तन की तीव्र दर पर प्रकाश डाला गया है, जिससे जलवायु जनित खतरे और भी गंभीर हो रहे हैं।
  • बुनियादी ढाँचे की सुभेद्यता: सड़कें, पुल और जलविद्युत संयंत्र जैसे महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे GLOF-जनित बाढ़ के प्रति सुभेद्य हैं, जिससे गंभीर क्षति, आर्थिक नुकसान और विकास में देरी होती है।
  • पारिस्थितिकी तंत्र और जैवविविधता में व्यवधान: हिमनदीय झीलों से जनित बाढ़ से तलछट तथा जल प्रवाह में परिवर्तन होता है, जिससे जलीय जैवविविधता प्रभावित होती है और आवासों में व्यवधान उत्पन्न होता है, जैसा कि 2023 में सिक्किम में जनित बाढ़ में देखा गया था, जिससे नदी के अनुप्रवाह क्षेत्र का  पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हुआ था।
  • अन्य आपदाओं की उत्पत्ति: हिम गलन और जल के बढ़ते दबाव के कारण ढालों में होने वाली अस्थिरता से भूस्खलन हो सकता है। GLOF और भूस्खलन के अतिरिक्त, हिमनदीय झीलों के तेज़ी से विस्तार से भी निम्नवत घटनाएँ हो सकती हैं:
    • मलवा प्रवाह: हिमनदों के निरंतर निवर्तन से अससंजक पदार्थों का उद्भासन होता है, जिनका भीषण वर्षा अथवा भूकंपी सक्रियता के दौरान संचलन हो सकता है जिससे मलवा प्रवाह की उत्पत्ति हो सकती है जो लोगों के लिये खतरा उत्पन्न करता है।
    • क्षरण: हिमनद झीलों में जल स्तर बढ़ने से तट का क्षरण बढ़ सकता है, जिससे आवास नष्ट हो सकता है और कृष्य भूमि का नुकसान हो सकता है।
  • जलवायु परिवर्तन प्रभाव: हिमनद झीलों का विस्तार प्रत्यक्ष रूप से जलवायु परिवर्तन से जुड़ा हुआ है, विशेष रूप से तापमान वृद्धि के कारण, जिससे हिमनदों का गलन तीव्र हो रहा है। 
    • हिमालय के ग्लेशियर, जो यांग्त्ज़ी और गंगा जैसी नदियों के लिये महत्वपूर्ण हैं, एक अरब से अधिक लोगों को पोषण प्रदान करते हैं, तथा जल संसाधनों और पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण पर्यावरणीय परिवर्तनों को उजागर करते हैं।
    • यांग्त्ज़ी और गंगा जैसी नदियों के लिये महत्त्वपूर्ण हिमालय के हिमनद, एक अरब से अधिक लोगों को सहायता प्रदान करते हैं, जो दर्शाता है कि पर्यावरणीय परिवर्तनों से जल संसाधन और पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित होते हैं।

हिमनदीय झीलों के विस्तार को रोकने हेतु कौन-सी जोखिम न्यूनीकरण कार्यनीति अपनाई जा सकती है?

  • उन्नत निगरानी प्रणाली: हिमनदीय झीलों के लिये व्यापक निगरानी प्रणाली स्थापित करना महत्त्वपूर्ण है। इसमें झील के आयतन और सतह क्षेत्र में होने वाले परिवर्तनों को ट्रैक करने के लिये उपग्रह अनुवीक्षण और थल आधारित आकलन शामिल है, जिससे उभरते खतरों के लिये समय पर अनुक्रिया करना संभव हो सकेगा।
    • मानसून के महीनों के दौरान नई झीलों के निर्माण सहित जल निकायों में होने वाले परिवर्तनों का स्वचालित रूप से पता लगाने के लिये सिंथेटिक-एपर्चर रडार इमेजरी (रडार का एक रूप जिसका उपयोग दो-आयामी चित्र बनाने हेतु किया जाता है) के उपयोग को बढ़ावा देना।
  • प्रारंभिक चेतावनी तंत्र: GLOF के लिये प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली विकसित करने से आपदा जोखिम में उल्लेखनीय कमी आ सकती है। इन प्रणालियों को संभावित विस्फोट घटनाओं का पूर्वानुमान लगाने और स्थानीय समुदायों को प्रभावी ढंग से जोखिमों के बारे में बताने के लिये मौसम संबंधी डेटा को हाइड्रोलॉजिकल मॉडल के साथ एकीकृत करना चाहिये।
  • सीमापार जल प्रबंधन: चूंकि कई हिमालयी नदियाँ राष्ट्रीय सीमाओं को पार करती हैं, इसलिये हिमनद परिवर्तनों से प्रभावित जल संसाधनों के प्रभावी प्रबंधन के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग आवश्यक है। 
    • सहयोगात्मक ढाँचे पड़ोसी देशों के बीच डेटा, सर्वोत्तम प्रथाओं और संसाधनों को साझा करने में मदद कर सकते हैं।
  • वित्तपोषण और संसाधन जुटाना: वित्तपोषण के लिये अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ मिलकर काम करने से बुनियादी ढाँचे के विकास को समर्थन मिल सकता है, जिसका उद्देश्य हिमनद झील के विस्तार से जुड़े आपदा जोखिमों को कम करना है। 
  • स्थानीय जनशक्ति को प्रशिक्षण: राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (NDRF) जैसे विशेष बलों को शामिल करने के अलावा NDMA प्रशिक्षित स्थानीय जनशक्ति की आवश्यकता पर बल देता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न

प्रश्न: हिमालय की ग्लेशियल झीलों के तेज़ी से विस्तार के कारण भारत में प्राकृतिक आपदा जोखिम पर पड़ने वाले प्रभावों पर चर्चा कीजिये। पर्यावरणीय नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करते हुए इन जोखिमों को कम करने के लिये क्या उपाय किये जाने चाहिये?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

प्रिलिम्स

प्रश्न: जब आप हिमालय की यात्रा करेंगे, तो आप निम्नलिखित को देखेंगे: (2012)

  1. गहरे खड्डे
  2. U धुमाव वाले नदी-मार्ग
  3. समानांतर पर्वत श्रेणियाँ
  4. भूस्खलन के लिये उत्तरदायी तीव्र ढाल प्रवणता

उपर्युक्त में से कौन-से हिमालय के तरुण वलित पर्वत (नवीन मोड़दार पर्वत) के साक्ष्य कहे जा सकते हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 1, 2 और 4
(c) केवल 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (d)


मेन्स

प्रश्न: बाँधों की विफलता हमेशा प्रलयकारी होती है, विशेष रूप से नीचे की ओर, जिसके परिणामस्वरूप जीवन और संपत्ति का भारी नुकसान होता है। बाँधों की विफलता के विभिन्न कारणों का विश्लेषण कीजिये। बड़े बाँधों की विफलताओं के दो उदाहरण दीजिये। (2023)

प्रश्न: पश्चिमी घाट की तुलना में हिमालय में भूस्खलन की घटनाओं के प्रायः होते रहने के कारण बताइये। (2013)


सामाजिक न्याय

असमानता और धर्मार्थ संगठनों की भूमिका

प्रिलिम्स के लिये:

केयर इकोनॉमी, LPG सुधार, विदेशी अभिदाय (विनियमन) अधिनियम, प्रधानमंत्री आवास योजना, आयुष्मान भारत, प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT), सतत् विकास लक्ष्य 10

मेन्स के लिये:

भारत में आर्थिक असमानता, असमानता के निवारण में परोपकार की भूमिका, धन पुनर्वितरण में सरकार की भूमिका

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों? 

वॉरेन बफेट (वर्तमान में सबसे बड़ा निवेशक) ने 52 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक दान दिया है और उनका विश्वास है कि धन का उपयोग असमानता को बढ़ावा देने हेतु नहीं बल्कि अवसरों के समकरण हेतु किया जाना चाहिये।

  • उनका यह दर्शन भाग्य समतावाद से मेल खाता है और असमानता को दूर करने में धर्मार्थ संगठनों की भूमिका को चर्चा का विषय बनाता है।

नोट: एक धर्मार्थ संगठन एक ऐसा संगठन होता है जिसका प्राथमिक उद्देश्य परोपकार और सामाजिक कल्याण (जैसे लोक हित या लोक कल्याण के लिये शैक्षिक, धार्मिक या अन्य गतिविधियाँ) हैं।

बफेट का दर्शन भाग्य समतावाद से किस प्रकार मेल खाता है?

  • भाग्य समतावाद: वॉरेन बफेट का दर्शन भाग्य समतावाद से मेल खाता है, जिसके अनुसार  अनपेक्षित परिस्थितियों जैसे- जन्मस्थान या सामाजिक-आर्थिक स्थिति से उत्पन्न असमानताएँ अन्यायपूर्ण हैं और उन्हें कम किया जाना चाहिये। 
  • बफेट अपनी सफलता का श्रेय व्यक्तिगत प्रयास और संरचनात्मक लाभ, जैसे कि समृद्ध अमेरिकी अर्थव्यवस्था में श्वेत पुरुष के रूप में जन्म लेना, को देते हैं और उनका विश्वास ​​है कि उन्हें ये अवसर "उचित समय पर उचित स्थान" पर होने से प्राप्त हुए।
  • शोधकर्त्ता इस मत का समर्थन करते हुए स्पष्ट करते हैं कि जन्मस्थान और राष्ट्रीय आर्थिक स्थितियों से व्यक्ति की धन अर्जन क्षमता महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित होती है। 
  • नैतिक उत्तरदायित्व के रूप में परोपकार: परोपकार से, भाग्य समतावाद के व्यावहारिक अनुप्रयोग के रूप में, अवसरों को समान बनाने के हेतु संसाधनों का पुनर्वितरण होता है। 
    • पीढ़ियों के बीच धन के संचय होने से असमानता बनी रहती है और मेरिटोक्रेसी की उपेक्षा होती हैवंचितों के लिये अवसर सर्जित करने के लिये अधिशेष धन का उपयोग करने से सामाजिक परिस्थितियों में निष्पक्षता सुनिश्चित होती है।

किन कारकों के कारण असमानता बढ़ती है?

  • आर्थिक कारक:
    • नवउदारवादी नीतियाँ: 1980 के दशक से विनियमन, निजीकरण और राज्य के हस्तक्षेप में कमी के कारण धन का एक निश्चित अभिजात वर्ग के पास संकेद्रण हुआ, जिससे बहुसंख्यक लोगों का वेतन स्थिर बना रहा। 
      • हालाँकि भारत में, एल.पी.जी. (उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण) सुधारों से विकास को बढ़ावा मिला है लेकिन इसके साथ ही धन का संकेद्रण और वेतन में स्थिरता भी आई है। 
        • 'विश्व असमानता रिपोर्ट 2022' भारत की अत्यधिक असमानता को दर्शाती है, जिसमें शीर्ष 10% और 1% के पास राष्ट्रीय आय का 57% और 22% हिस्सा है, जबकि निम्नतम 50% वर्ग का हिस्सा मात्र 13% है।
      • विश्व स्तर पर 71% जनसंख्या ऐसे देशों में रहती है जहाँ असमानता बढ़ती जा रही है।
    • एकाधिकार: कुछ निगमों के प्रभुत्व से प्रतिस्पर्द्धा कम हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप कुछ को अधिक लाभ मिलता है तथा अन्य के लिये अवसर सीमित हो जाते हैं। 
      • अमेज़न, माइक्रोसॉफ्ट और गूगल जैसी कंपनियों ने लगभग एकाधिकारवादी शक्ति के माध्यम से महत्त्वपूर्ण संपत्ति अर्जित की है, जो प्राय: निष्पक्ष प्रतिस्पर्द्धा को कमज़ोर करती है।
    • वित्तीयकरण: वित्तीय बाज़ारों में वृद्धि से निवेशकों और शेयरधारकों को लाभ होता है, जबकि वेतनभोगियों को दरकिनार कर दिया जाता है।
      • वर्ष 2008 के वित्तीय संकट के बाद से अरबपतियों की संख्या लगभग दोगुनी हो गयी है।
      • सबसे अमीर लोगों की बढ़ती आय असमानता को बढ़ाती है। वर्ष 2018 में 26 सबसे अमीर लोगों के पास सबसे गरीब 3.8 बिलियन (वैश्विक आबादी का आधा हिस्सा) के बराबर संपत्ति थी।
  • तकनीकी कारक: तकनीकी प्रगति से उच्च कुशल श्रमिकों को लाभ होता है तथा कम कुशल श्रमिकों को विस्थापित होना पड़ता है। प्रौद्योगिकी और इंटरनेट तक सीमित पहुँच हाशिए पर पड़े समुदायों के लिये अवसरों को सीमित करती है।
  • सामाजिक कारक: महिलाओं को वेतन में अंतर, सीमित नेतृत्व की भूमिका और अवैतनिक देखभाल कार्य के भारी बोझ का सामना करना पड़ता है। 
    • अल्पसंख्यक समूहों को रोज़गार में नस्लीय और जातीय भेदभाव का सामना करना पड़ता है। 
    • भारत में जाति, धर्म और वर्ग पदानुक्रम हाशिए पर पड़े समूहों के लिये ऊपर की ओर बढ़ने में बाधा डालते हैं। दिव्यांग व्यक्तियों को भेदभाव, सीमित नौकरी के अवसरों और उच्च स्वास्थ्य देखभाल लागतों का सामना करना पड़ता है।
  • स्वास्थ्य असमानताएँ: सीमित स्वास्थ्य देखभाल पहुँच, दीर्घकालिक बीमारी और कुपोषण उत्पादकता और विकास में बाधा डालते हैं, तथा निम्न आय एवं हाशिए पर पड़े समुदायों में गरीबी को कायम रखते हैं।
  • शासन: कराधान, कल्याण और बाज़ार विनियमन पर नीतिगत विकल्प धन वितरण को आकार देते हैं। भ्रष्टाचार संसाधनों को अन्यत्र ले जाता है, जिससे असमानता बढ़ती है, जबकि कमजोर श्रम अधिकार मज़दूरी में स्थिरता और खराब कार्य स्थितियों में योगदान करते हैं।
  • पर्यावरणीय कारक: जलवायु परिवर्तन और संसाधनों की कमी गरीब समुदायों को असमान रूप से नुकसान पहुँचाती है, जबकि पर्यावरणीय अन्याय हाशिए पर पड़े समूहों को प्रदूषण तथा खराब स्वास्थ्य परिणामों के प्रति संवेदनशील बना देता है।

असमानता को दूर करने में धर्मार्थ संगठन की क्या भूमिका है?

  • तत्काल राहत प्रदान करना: धर्मार्थ संगठन गरीबी और असमानता से प्रभावित लोगों को भोजन, आश्रय, स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा जैसी आवश्यक सेवाएँ प्रदान करते हैं, अल्पकालिक राहत प्रदान करते हैं और जहाँ सरकारी कार्यक्रम या बाज़ार अपर्याप्त हैं, वहाँ अंतर को कम करने में मदद करते हैं और हाशिए पर पड़े समुदायों को सहायता प्रदान करते हैं।
  • सामाजिक जागरूकता और समर्थन: धर्मार्थ संगठन सामाजिक अन्याय के बारे में जागरूकता बढ़ाकर, जनता को सूचित करने तथा सुधारों को प्रोत्साहित करने में मदद करके नीतिगत परिवर्तनों का समर्थन करते हैं। 
  • उदाहरण के लिये वे लैंगिक समानता, श्रमिकों के अधिकार या स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच हेतु अभियान चला सकते हैं तथा जनमत और नीति को प्रभावित कर सकते हैं।
  • धन पुनर्वितरण: धर्मार्थ संगठन गरीबी उन्मूलन, शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल जैसे असमानता को दूर करने वाले कार्यक्रमों को वित्तपोषित करके धन के पुनर्वितरण में मदद करते हैं।
  • उदाहरणतः के लिये बिल और मेलिंडा गेट्स ने असमानता को कम करने हेतु वैश्विक स्वास्थ्य और शिक्षा पहलों के लिये अरबों डॉलर का दान दिया है।
  • दीर्घकालिक विकास का समर्थन: कुछ धर्मार्थ संगठन दीर्घकालिक समाधानों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जैसे सतत् कृषि, सूक्ष्म ऋण और स्थानीय उद्यमिता, महिलाओं तथा समुदायों को सशक्त बनाना। 
    • टाटा ट्रस्ट्स की लखपति किसान पहल आदिवासी किसानों को स्थायी आजीविका बनाने के लिये उन्नत कृषि पद्धतियों से सशक्त बनाती है।

भारत में धर्मार्थ संगठनों को नियंत्रित करने वाले कानून

  • आयकर अधिनियम, 1961: इसके तहत धर्मार्थ दान के लिये कर छूट प्रदान करने के साथ "धर्मार्थ उद्देश्यों" को परिभाषित किया गया है।
  • भारतीय संविधान (अनुच्छेद 19(1)(c)): इसके तहत नागरिकों को सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक या राजनीतिक संगठन या समूह बनाने की स्वतंत्रता दी गई है। 
  • भारतीय ट्रस्ट अधिनियम, 1882: इसके तहत निजी धर्मार्थ ट्रस्टों को नियंत्रित किया जाता है।
  • सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860: इसके तहत धर्मार्थ सोसायटियों को विनियमित किया जाता है।
  • कंपनी अधिनियम, 1956 (धारा 25): इसमें गैर-लाभकारी कंपनियों को धर्मार्थ संस्था के रूप में कार्य करने की अनुमति दी गई है।
  • विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 2010: इसके तहत धर्मार्थ संगठन विदेशी धन प्राप्त कर सकते हैं लेकिन उन्हें विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 2010 (FCRA) के तहत पंजीकृत होना आवश्यक है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि दान का उपयोग वैध एवं गैर-राजनीतिक उद्देश्यों के लिये किया जाए।

असमानता को दूर करने में धर्मार्थ संगठन की क्या सीमाएँ हैं?

  • अस्थायी समाधान: धर्मार्थ संगठन तात्कालिक चुनौतियों को तो कम करते हैं लेकिन ये विनियमन एवं एकाधिकार प्रथाओं जैसे धन असमानता के मूल कारणों का समाधान नहीं कर पाते हैं। 
    • धनी लोगों द्वारा धन का संचय प्राय: प्रणालीगत नीतियों का परिणाम होता है। दान से स्थिर वेतन एवं निम्न कार्य स्थितियों जैसे मुद्दों को चुनौती नहीं मिलती है।
  • व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भरता: धर्मार्थ संगठन धनी लोगों की स्वैच्छिकता पर निर्भर होते हैं, जिससे व्यापक असमानता को दूर करने में यह असंगत एवं अपर्याप्त हो जाता है।
  • यथास्थिति बनी रहना: धर्मार्थ संगठन से असमानता के मूल कारणों का समाधान हुए बिना धनी लोगों को सामाजिक वैधता प्रदान करके यथास्थिति बनी रह सकती है। इससे संरचनात्मक सुधारों के लिये दबाव में कमी आने के साथ धनी लोगों के हितों को महत्त्व मिल सकता है जिससे मौजूदा शक्ति गतिशीलता बनी रहने से आवश्यक प्रणालीगत परिवर्तनों में देरी हो सकती है।
  • जवाबदेहिता का अभाव: धर्मार्थ संगठनों को उनके कार्यक्रमों की प्रभावशीलता या असमानता को कम करने में उनकी पहल के दीर्घकालिक प्रभाव हेतु जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है।
  • धर्मार्थ दान का दुरुपयोग: कुछ व्यक्ति और संगठन करों से बचने के लिये ट्रस्टों को दिये गए दान का उपयोग करते हैं। 
    • धर्मार्थ ट्रस्टों को बड़ी मात्रा में दान देकर, ऐसे लोग इच्छित धर्मार्थ उद्देश्यों के लिये धनराशि का प्रभावी ढंग से उपयोग किये बिना भी कर कटौती का दावा कर सकते हैं।

आगे की राह

  • राज्य-प्रेरित पुनर्वितरण: यह स्वीकार करते हुए कि धर्मार्थ संगठन प्रणालीगत परिवर्तन का स्थान नहीं ले सकते हैं, राज्य-प्रेरित पुनर्वितरण का समर्थन करना चाहिये। 
    • असमानता को कम करने के लिये कल्याणकारी कार्यक्रमों, सामाजिक सुरक्षा संजाल एवं सतत् विकास पर ध्यान केंद्रित करने वाले राज्य के नेतृत्व वाले प्रयासों (जो सतत्  विकास लक्ष्य संख्या 10 (असमानताओं को कम करना) के अनुरूप हो) को महत्त्व देना चाहिये। एक कल्याणकारी राज्य के रूप में भारत को इन पहलों का नेतृत्व करना चाहिये।
  • आर्थिक नीतियों में सुधार: धन के पुनर्वितरण एवं सार्वजनिक वस्तुओं के वित्तपोषण हेतु प्रगतिशील कराधान प्रणाली लागू करनी चाहिये। एकाधिकार को रोकने तथा निष्पक्ष बाज़ार प्रतिस्पर्द्धा सुनिश्चित करने के लिये संबंधित कानूनों को मज़बूत करना चाहिये।
    • धन असमानता के मूल कारणों (जैसे डीरेगुलेशन एवं नवउदारवादी आर्थिक नीतियों) पर ध्यान देना चाहिये।
  • समानता एवं अवसर: संसाधनों, प्रौद्योगिकी तथा बुनियादी सेवाओं तक समान पहुँच सुनिश्चित करने से इसमें मौजूद अंतराल को कम किया जा सकता है।
  • कॉर्पोरेट प्रथाओं पर पुनर्विचार करना: श्रमिकों के लिये उच्च वेतन, बेहतर कार्य स्थितियाँ तथा उचित लाभ-साझाकरण को लागू किया जाना चाहिये।
  • वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देना: अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सुधारों तथा गरीब देशों के लिये ऋण राहत के माध्यम से वैश्विक असमानता को दूर करने पर ध्यान देना चाहिये।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: असमानता को दूर करने में दान की सीमाओं पर चर्चा करते हुए बताइये कि क्या सरकारी नीतियों के माध्यम से धन पुनर्वितरण को धर्मार्थ दान पर प्राथमिकता दी जानी चाहिये।


भारतीय अर्थव्यवस्था

कृषि में संलग्न श्रमिकों में वृद्धि

प्रिलिम्स के लिये:

अनौपचारिक अर्थव्यवस्था, सेवा क्षेत्र, विनिर्माण क्षेत्र, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, डेटा विश्लेषण, सकल मूल्य वर्द्धन, उत्पादन लिंक्ड प्रोत्साहन 

मेन्स के लिये:

कृषि में संलग्न श्रमिकों में वृद्धि और इसके निहितार्थ, भारत में रोज़गार, भारत के श्रम बाज़ार से संबंधित संरचनात्मक मुद्दे

स्रोत: लाइवमिंट

चर्चा में क्यों? 

भारत में वर्ष 2017-18 से वर्ष 2023-24 के बीच कृषि श्रमिकों की संख्या में 68 मिलियन की उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है, जिससे इस क्षेत्र में संलग्न श्रमिकों में गिरावट की पिछली प्रवृत्ति से विपरीत प्रवृत्ति देखी गई है। 

  • इसमें महिलाओं की प्रमुख भागीदारी के साथ आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों की अधिक हिस्सेदारी है। इस बदलाव से संरचनात्मक श्रम बाज़ार संबंधी चुनौतियों पर प्रकाश पड़ता है। 

कृषि में संलग्न श्रमिकों की वृद्धि हेतु कौन से कारक उत्तरदायी हैं?

  • इकोनाॅमिक रिवर्सल: भारत में वर्ष 2004-05 से वर्ष 2017-18 के बीच कृषि क्षेत्र में लगभग 66 मिलियन कृषि श्रमिकों की कमी आने के बाद वर्ष 2017-18 से वर्ष 2023-24 के बीच 68 मिलियन कृषि श्रमिकों की उल्लेखनीय वृद्धि, पूर्व की प्रवृत्ति में व्यापक बदलाव का संकेतक है।
  • कोविड-19 महामारी का प्रभाव: लॉकडाउन के दौरान बहुत से श्रमिक (विशेषकर शहरी अनौपचारिक क्षेत्रों से संबंधित) अपने मूल निवास क्षेत्रों में लौट आए और कृषि कार्यों में संलग्न हुए। इसके साथ ही आर्थिक सुधारों के बावजूद कृषि में संलग्न श्रमिकों में वृद्धि की प्रवृत्ति बनी रही।
  • रोज़गार की गतिशीलता: गैर-कृषि रोज़गार से संबंधित पर्याप्त अवसरों की कमी के कारण कृषि एक विकल्प बना हुआ है।
    • कृषि में संलग्न श्रमिकों की वृद्धि में महिलाओं की प्रमुख भागीदारी (वर्ष 2017-18 से वर्ष 2023-24 के बीच इनकी संख्या बढ़कर 66.6 मिलियन तक हो गई) है। यह तथ्य कृषि क्षेत्र की लैंगिक गतिशीलता में प्रमुख बदलाव का संकेतक है।
  • प्रमुख राज्यों में आर्थिक स्थिति: कृषि रोज़गार में वृद्धि उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे आर्थिक रूप से कमज़ोर राज्यों में सर्वाधिक उल्लेखनीय है, जहाँ सीमित रोज़गार के अवसरों ने कृषि श्रम की उच्च मांग को बढ़ावा दिया है।

Agricultural_Employment

कृषि संबंधी रोज़गार में वृद्धि के संदर्भ में चिंताएँ क्या हैं?

  • आर्थिक परिवर्तन का उलटना: जैसे-जैसे अर्थव्यवस्थाओं में वृद्धि होती हैं, उच्च उत्पादकता और बेहतर मजदूरी के कारण कार्यबल आमतौर पर कृषि से विनिर्माण एवं सेवाओं की ओर स्थानांतरित हो जाता है।
  • भारत में इस प्रवृत्ति का उलट जाना आर्थिक गतिशीलता संबंधी समस्याओं को उजागर करता है, क्योंकि श्रमिक कृषि से अधिक उत्पादक क्षेत्रों में जाने में असमर्थ हैं। 
  • वर्ष 2023-24 में कृषि उत्पादकता अत्यधिक कम होगी, उत्पादन सेवाओं की तुलना में 4.3 गुना और विनिर्माण की तुलना में 3 गुना कम होगी।
  • इससे पता चलता है कि श्रमिक कम उत्पादकता, कम वेतन वाली नौकरियों में कार्यरत हैं, जिनमें उन्नति के अवसर सीमित हैं।
    • आर्थिक अक्षमता: सकल घरेलू उत्पाद (GDP) वृद्धि की अवधि के दौरान भी कृषि रोज़गार में वृद्धि, उच्च उत्पादकता वाले क्षेत्रों में अपर्याप्त रोज़गार सृजन को उजागर करती है।
      • विनिर्माण और सेवा क्षेत्र की अधिशेष श्रम को अवशोषित करने में असमर्थता भारत की आर्थिक नीतियों में संरचनात्मक कमियों को दर्शाती है।

Agriculture_productivity

  • कृषि में अल्परोज़गार: कृषि से संबंधित कई रोज़गार मौसमी और कम वेतन वाले होते हैं, जो प्रायः अल्परोज़गार को दर्शाती हैं, जहाँ लोग आवश्यकता के आधार पर कार्य करते हैं, अन्य क्षेत्रों की तुलना में कम वेतन प्राप्त करते हैं और साथ ही इनके कार्य करने के घंटों की संख्या भी कम होती हैं। 
  • यह निर्भरता ग्रामीण गरीबी और असमानता को बनाए रखती है। आवश्यकता से अधिक लोगों को रोज़गार दिये जाने से श्रम का अकुशल तरीके से उपयोग होता है, जिससे नवाचार एवं मशीनीकरण में बाधा उत्पन्न होती है।
  • अनौपचारिकता में वृद्धि: इस वृद्धि से श्रम बाज़ार में अनौपचारिकता में वृद्धि हो सकती है। अनौपचारिक श्रमिकों के पास कानूनी सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक सुरक्षा का अभाव है, जिससे वे आर्थिक हानि और खराब परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं।
  • लैंगिक असमानता तथा असमान मजदूरी: कृषि रोज़गार में वृद्धि से लैंगिक असमानताएँ और अधिक खराब हो गई हैं, अनौपचारिक, कम वेतन वाली नौकरियों में महिलाएँ पुरुषों की तुलना में कम वेतन प्राप्त कर रही हैं। 
  • इससे लैंगिक वेतन अंतराल में वृद्धि होती है, ग्रामीण आय स्थिरता कमज़ोर होती है, तथा शहरी नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी कम होती है।
  • इसके अतिरिक्त कृषि श्रमिकों की क्रय शक्ति कम हो गई है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में वेतन में मुद्रास्फीति के अनुरूप वृद्धि नहीं हुई है।

भारत में गैर-कृषि रोज़गार की कमी के लिये कौन से कारक जिम्मेदार हैं?

  • स्थिर विनिर्माण क्षेत्र:  विकसित अर्थव्यवस्थाओं ने पारंपरिक रूप से कृषि क्षेत्र से विनिर्माण और तत्त्पश्चात् सेवा क्षेत्र की ओर संक्रमण किया है। (उदाहरणार्थ चीन, कोरिया)।
  • हालाँकि, भारत ने सेवा क्षेत्र के विकास पर अत्यधिक निर्भरता के कारण अपना लक्ष्य बदल दिया, जिससे विनिर्माण उत्पादन और रोज़गार 20% पर स्थिर रहा, जिससे रोज़गार सृजन में बाधा उत्पन्न हुई।
  • यद्यपि उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) योजना का लक्ष्य पाँच वर्षों में 60 लाख रोज़गार का सर्जन करना है किंतु यह रोज़गार-केंद्रित न होकर उत्पादन-केंद्रित है।
  • सेवा क्षेत्र की वृद्धि के समक्ष चुनौतियाँ: भारत का सेवा क्षेत्र ध्रुवीकृत है, जिसमें कृत्रिम बुद्धिमत्ता और डेटा एनालिटिक्स जैसी उच्च तकनीक सेवाएँ उत्पादन आउटपुट विकास को बढ़ावा दे रही हैं जबकि सर्वाधिक रोज़गार सर्जन अल्प कुशल सेवाओं (ग्राहक सेवा भूमिकाएँ) से होता है।
  • कौशल का अभाव और शिक्षा की गुणवत्ता: भारत में प्रतिवर्ष 2.2 मिलियन विद्यार्थी विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (STEM) से स्नातक की शिक्षा पूरी करते हैं, फिर भी निम्न शैक्षिक गुणवत्ता के कारण उनमें से कई बेरोज़गार रह जाते हैं।
    • प्रतिवर्ष लगभग 8-10 मिलियन नए श्रमिक नौकरी बाज़ार में प्रवेश करते हैं, जिनकी आकांक्षाएँ उपलब्ध नौकरी के अवसरों से पूरी नहीं हो पाती हैं।
    • 28 वर्ष की औसत आयु के साथ भारत पर उच्च मूल्य वाली नौकरियाँ सृजित करने का दबाव बढ़ रहा है, ताकि उसका जनसांख्यिकीय लाभांश बोझ में न बदल जाए।
  • अनौपचारिक अर्थव्यवस्था: महामारी के बाद अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों की संख्या में वृद्धि आर्थिक संकट को दर्शाती है, जहाँ औपचारिक रोज़गार विकल्पों की अनुपस्थिति के कारण श्रमिकों ने संभवतः अनौपचारिक कार्यों की ओर रुख किया।

आगे की राह

  • गैर-कृषि रोज़गार: उच्च उत्पादकता वाली नौकरियाँ सृजित करने के लिये विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में निवेश बढ़ाना।
  • लिंग-विशिष्ट हस्तक्षेप: बेहतर वेतन नीतियों के माध्यम से कृषि में महिलाओं के लिये वेतन समानता सुनिश्चित करना। महिला-केंद्रित स्वयं सहायता समूहों और उद्यमिता के अवसरों को बढ़ावा देना।
    • वर्ष 2050 तक, बुज़ुर्गों की आबादी 34.7 करोड़ तक पहुँच जाएगी, जिन्हें महत्त्वपूर्ण देखभाल सेवाओं की आवश्यकता होगी। देखभाल अर्थव्यवस्था में निवेश करने से महिला श्रम भागीदारी को बढ़ावा मिल सकता है और GDP के 2% निवेश के साथ 11 मिलियन नौकरियाँ पैदा हो सकती हैं।
  • कृषि उत्पादकता में वृद्धि: उत्पादकता बढ़ाने के लिये मशीनीकरण और आधुनिक कृषि तकनीकों को बढ़ावा देना। बेहतर संसाधन प्रबंधन के लिये डिजिटल कृषि मिशन जैसी पहलों का विस्तार करना।
    • ग्रामीण युवाओं और महिलाओं को खाद्य प्रसंस्करण में शामिल करने से श्रमिकों को अधिक उत्पादक भूमिकाएं मिल सकती हैं। मेगा फूड पार्क जैसी पहल कृषि प्रसंस्करण नौकरियों के लिये रसद, ऋण और विपणन का समर्थन कर सकती है।
  • ग्रामीण बुनियादी ढाँचे को मज़बूत बनाना: औद्योगिक और सेवा क्षेत्र के विकास को समर्थन देने के लिये मज़बूत ग्रामीण बुनियादी ढाँचे का निर्माण करना। 
  • हरित नौकरियाँ: हरित प्रौद्योगिकियों को अपनाना तथा पर्यावरण, सामाजिक और शासन (Environmental, Social, and Governance- ESG) मानकों को अपनाना, हरित अर्थव्यवस्था में रोज़गार सृजन के नए अवसर प्रदान करता है।
  • सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा लागू करना: लक्षित सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के माध्यम से  ग्रामीण श्रमिकों के लिये सुरक्षा जाल उपलब्ध कराना।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: भारत के सामने कृषि से विनिर्माण और सेवाओं में कार्यबल के परिवर्तन में आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। इस परिवर्तन को तीव्र कैसे किया जा सकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स

प्रश्न. प्रधानमंत्री MUDRA योजना का लक्ष्य क्या है?  (2016) 

(a) लघु उद्यमियों को औपचारिक वित्तीय प्रणाली में लाना
(b) निर्धन कृषकों को विशेष फसलों की कृषि के लिये ऋण उपलब्ध कराना
(c) वृद्ध एवं निस्सहाय लोगों को पेंशन प्रदान करना
(d) कौशल विकास एवं रोज़गार सृजन में लगे स्वयंसेवी संगठनों का निधियन करना

उत्तर: (a) 


प्रश्न: प्रच्छन्न बेरोज़गारी का आमतौर पर अर्थ होता है-

(a) बड़ी संख्या में लोग बेरोज़गार रहते हैं
(b) वैकल्पिक रोज़गार उपलब्ध नहीं है
(c) श्रम की सीमांत उत्पादकता शून्य है
(d) श्रमिकों की उत्पादकता कम है

उत्तर:(c)


मेन्स:

प्रश्न: भारत में सबसे ज्यादा बेरोज़गारी प्रकृति में संरचनात्मक है। भारत में बेरोज़गारी की गणना के लिये अपनाई गई पद्धतियों का परीक्षण कीजिये और सुधार के सुझाव दीजिये। (2023)


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