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डेली न्यूज़

  • 07 May, 2024
  • 67 min read
कृषि

तंबाकू की कीमतों में वृद्धि

प्रिलिम्स के लिये:

तंबाकू, विश्व स्वास्थ्य संगठन, WHO MPOWER, भारतीय तंबाकू बोर्ड, फ्लू-क्यूर्ड वर्जीनिया (FCV), राष्ट्रीय तंबाकू नियंत्रण कार्यक्रम

मेन्स के लिये:

तंबाकू सेवन का प्रभाव एवं उपाय, भारत में तंबाकू का सेवन, सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप, विश्व में कैंसर का प्रभाव

स्रोत: बिज़नेस स्टैंडर्ड

चर्चा में क्यों?

ब्राज़ील, ज़िम्बाब्वे और इंडोनेशिया में सूखे तथा बेमौसम वर्षा के कारण फसल के उत्पादन में गिरावट दर्ज़ की गई, जिससे आंध्र प्रदेश में तंबाकू का उत्पादन करने वाले किसान लाभ की स्थिति में हैं।

  • आंध्र प्रदेश में नीलामी की कीमतें रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गई जिसमें और अधिक वृद्धि होने की संभावना है।

आंध्र प्रदेश में तंबाकू उत्पादक किसान किस प्रकार लाभप्रद स्थिति में है?

  • नीलामी की कीमतों में वृद्धि: तंबाकू की कीमतों में लगभग रिकॉर्ड स्तर की वृद्धि हुई, जो इसकी संभावित कीमतों में 30% की वृद्धि को दर्शाता है।
  • विश्व स्तर पर फसल उत्पादन का प्रभाव: व्यापार विश्लेषकों के अनुसार, ब्राज़ील और ज़िम्बाब्वे में फसल उत्पादन में कमी के फलस्वरूप इसके मूल्य में वृद्धि हुई।
    • एक अन्य तंबाकू उत्पादक देश इंडोनेशिया में भी सूखे की स्थिति के कारण फसल का उत्पादन प्रभावित हुआ।
    • चीन एक अन्य महत्त्वपूर्ण तंबाकू उत्पादक देश है जिसने वैश्विक स्तर पर उत्पादन में हुई कमी से अपने घरेलू सिगरेट उद्योग की रक्षा के लिये तंबाकू निर्यात पर सीमाएँ लगाईं, जिससे तंबाकू उत्पादक देशों में कीमतों में और वृद्धि हुई।
  • भारतीय उत्पादकों पर संभावित प्रभाव: तंबाकू निर्यातकों एवं भारतीय तंबाकू बोर्ड के अनुसार, तंबाकू की मांग और उत्पादन के बीच असमानता के कारण आगामी एक वर्ष तक इसकी कीमतों में बढ़ोतरी बनी रहेगी, जिससे भारतीय उत्पादकों को लाभ होने की संभावना है।

नोट:

  • भारतीय तंबाकू बोर्ड: इसका गठन तंबाकू बोर्ड अधिनियम, 1975 की धारा (4) के तहत 1 जनवरी 1976 को एक सांविधिक निकाय के रूप में किया गया था।
  • बोर्ड का नेतृत्व अध्यक्ष करता है और इसका मुख्यालय गुंटूर, आंध्र प्रदेश में स्थित है। यह तंबाकू उद्योग के विकास के लिये उत्तरदायी है।

भारत में तंबाकू उत्पादन के संबंध में प्रमुख तथ्य क्या हैं?

  • कृषि-जलवायु संबंधी तथ्यः
    • तंबाकू मूल रूप से उष्णकटिबंधीय फसल है किंतु यह उष्णकटिबंधीय, उपोष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण जलवायु में सफलतापूर्वक उगाया जाता है।
      • प्रायः इसके परिपक्व होने के लिये 80°F के औसत तापमान के साथ लगभग 100 से 120 दिनों की शीत-मुक्त जलवायु की आवश्यकता होती है और प्रतिमाह 88 से 125 मिमी. की वर्षा तंबाकू की फसल के लिये आदर्श होती है।
      • सापेक्षिक आर्द्रता सुबह में 70-80% से लेकर दोपहर में 50-60% तक हो सकती है।
    • तंबाकू के विभिन्न प्रकारों के इष्टतम विकास के लिये विशेष मृदा और जलवायु की आवश्यकता होती है।
      • FCV विभिन्न मृदाओं में उत्पन्न होता है, जिसमें रेतीली दोमट, लाल दोमट और काली मिट्टी सम्मिलित हैं।
  • आर्थिक महत्त्व :
    • विश्व स्तर पर तंबाकू आर्थिक रूप से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण फसलों में से एक है।
      • भारत में तंबाकू की खेती कुल कृषि योग्य क्षेत्र का लगभग 0.27% है, जिससे वार्षिक लगभग 750 मिलियन किलोग्राम तंबाकू पत्ती का उत्पादन होता है।
      • तंबाकू पर लगने वाला उत्पाद शुल्क, राजस्व में वार्षिक 14,000 करोड़ रुपए का योगदान देता है, जो देश के कुल कृषि-निर्यात का 4% है।
    • चीन, भारत और ब्राज़ील को विश्व भर में अग्रणी उत्पादकों में आँका गया
      • जैसे-जैसे मध्य और उच्च आय वाले देशों में नियम सख्त होते जा रहे हैं, तंबाकू कंपनियाँ, तंबाकू का उत्पादन बढ़ाने के लिये तेज़ी से अफ्रीकी देशों का रुख कर रही हैं।
    • भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा तंबाकू उत्पादक एवं दूसरा सबसे बड़ा तंबाकू उपभोक्ता है।
  • उत्पादन में विविधता:
    • भारत विभिन्न प्रकार की तंबाकू का उत्पादन करता है, जिनमें फ्लू-क्यूर्ड वर्जीनिया (FCV), बीड़ी, हुक्का, सिगार-रैपर, चेरूट, बर्ली, ओरिएंटल और अन्य शामिल हैं।
      • भारत के 15 राज्यों में विविध कृषि पारिस्थितिक परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार के तंबाकू की खेती की जाती है।
      • देश में तंबाकू के उत्पादन क्षेत्र एवं उत्पादन मात्रा दोनों में गुजरात, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक शीर्ष 3 स्थानों पर हैं।
  • रोज़गार एवं आजीविका:
    • तंबाकू की कृषि भारत में लगभग 36 मिलियन लोगों को आजीविका सुरक्षा प्रदान करती है, जिनमें किसान, कृषि श्रमिक एवं प्रसंस्करण, विनिर्माण तथा निर्यात क्षेत्र में कार्यरत श्रमिक शामिल हैं।
    • बीड़ी बनाने से लगभग 4.4 मिलियन लोगों को रोज़गार मिलता है, तथा 2.2 मिलियन आदिवासी लोग तेंदू पत्ता संग्रहण में लगे हुए हैं।
  • निर्यात बाज़ार एवं प्रतिस्पर्द्धा:
    • भारत ने वर्ष 2022-23 में 9,740 करोड़ रुपए की तंबाकू और तंबाकू निर्मित उत्पादों का निर्यात किया, जिसमें FCV और बर्ली जैसे सिगरेट-प्रकार के तंबाकू का बड़ा योगदान था।
      • भारतीय FCV तंबाकू के प्रमुख आयातकों में यूके, जर्मनी, बेल्जियम, दक्षिण कोरिया और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं।
    • ब्राज़ील, ज़िम्बाब्वे, तुर्की, चीन और इंडोनेशिया निर्यात बाज़ार में प्रमुख प्रतिस्पर्धी हैं।
    • विश्व के तंबाकू उत्पादन में 13% हिस्सेदारी के बावजूद, वैश्विक तंबाकू पत्ती निर्यात में भारत की हिस्सेदारी केवल 5% है।
      • भारत, उत्पादित तंबाकू का केवल 30% निर्यात करता है जबकि अन्य प्रमुख तंबाकू उत्पादक देश ब्राज़ील, अमेरिका और ज़िम्बाब्वे अपने उत्पादन का 60-90% निर्यात करते हैं।
  • भारतीय तंबाकू का प्रतिस्पर्धात्मक लाभ:
    • भारतीय तंबाकू में अन्य तंबाकू उत्पादक देशों की तुलना में भारी धातुओं, तंबाकू विशिष्ट नाइट्रोसामाइन (TSNA) एवं कीटनाशक अवशेषों का स्तर न्यूनतम होता है।
    • भारत की विविध कृषि-जलवायु परिस्थितियाँ विश्व स्तर पर विविध ग्राहकों की प्राथमिकताओं को पूर्ण करते हुए, विभिन्न प्रकार के तंबाकू उत्पादन की अनुमति देती हैं।
    • कम उत्पादन लागत और निर्यात कीमतों के मामले में भारत को प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त प्राप्त है, जिस कारण भारतीय तंबाकू को ‘किफायती' माना जाता है।

तंबाकू द्वारा स्वास्थ्य पर प्रभाव:

  • वैश्विक:
    • तंबाकू के कारण प्रत्येक वर्ष 80 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हो जाती है, जिसमें अनुमानित 13 लाख गैर-धूम्रपान करने वाले लोग भी शामिल हैं जो अन्य लोगों द्वारा किये जाने वाले धूम्रपान के संपर्क में आते हैं।
    • दुनिया के 1.3 अरब तंबाकू उपयोगकर्त्ताओं में से लगभग 80% निम्न और मध्यम आय वाले देशों में रहते हैं।
  • भारत:
    • भारत में वर्ष 2040 तक 2.1 मिलियन कैंसर के मामले सामने आने का अनुमान है, जिसमें मुख संबंधित कैंसर सबसे प्रचलित रूप है।
      • 80-90% व्यक्ति तंबाकू उपभोक्ता मुँह के कैंसर से पीड़ित हैं।
    • धूम्रपान करने के साथ-साथ धुआँँ रहित तंबाकू सेवन करने से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और सेवन करने वाले व्यक्ति की असामयिक मृत्यु हो जाती है।
      • धुआँँ रहित तंबाकू उत्पादों के उदाहरणों में गुटखा, खैनी और ज़र्दा शामिल हैं, जिनका उपयोग चबाने वाले तंबाकू के रूप में किया जाता है।
    • भारत में तंबाकू के उपयोग से होने वाली बीमारियों में स्ट्रोक (78%), तपेदिक (65.6%), इस्केमिक हृदय रोग (85.2%), मुँह का कैंसर (38%) और फेफड़ों का कैंसर (16%) शामिल हैं।
      • भारत में तंबाकू के कारण 13.5 लाख से अधिक मृत्यु होने का अनुमान है और यह अनुमान लगाया गया है कि यदि तंबाकू की खपत को नियंत्रित करने के लिये प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो वर्ष 2020 तक भारत में हर वर्ष होने वाली सभी मौतों में से 13% का कारण तंबाकू का सेवन होगाI
    • तंबाकू का सेवन कुछ क्षेत्रों, विशेष रूप से उत्तरी भारत की जीवनशैली का अभिन्न अंग बना हुआ।

तंबाकू से संबंधित नई पहलें क्या हैं?

  • वैश्विक:
    • तंबाकू महामारी से निपटने के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization- WHO) ने वर्ष 2003 में तंबाकू नियंत्रण पर WHO फ्रेमवर्क कन्वेंशन (Framework Convention on Tobacco Control) (WHO FCTC) को अपनाया।
      • वर्तमान में, 182 देश इस संधि के पक्षकार हैं, जिसमें भारत भी शामिल है।
    • WHO के MPOWER उपाय WHO FCTC के अनुरूप हैं तथा जीवन बचाने एवं स्वास्थ्य देखभाल व्यय को कम करने में सहायक हैं।
    • वैश्विक तंबाकू निगरानी प्रणाली (Global Tobacco Surveillance System- GTSS) का उद्देश्य देशों की तंबाकू नियंत्रण उपायों को लागू करने तथा WHO के FCTC एवं MPOWER तकनीकी उपायों की निगरानी करने की क्षमता को सुदृढ़ करना है।
      • इसमें चार सर्वेक्षणों के माध्यम से डेटा एकत्र करना शामिल है।
  • भारत:
    • राष्ट्रीय तंबाकू नियंत्रण कार्यक्रम (NTCP):
    • सिगरेट व अन्य तंबाकू उत्पाद (विज्ञापन का निषेध एवं व्यापार और वाणिज्य, उत्पादन, आपूर्ति तथा वितरण का विनियमन) अधिनियम, 2003:
      • कानून नाबालिगों को उनके द्वारा की जाने वाली तंबाकू उत्पादों की बिक्री को सीमित करता है, सार्वजनिक क्षेत्रों में धूम्रपान करने से रोकता है और उनके प्रचार, प्रायोजन एवं विज्ञापन पर प्रतिबंध लगाता है। यह शैक्षणिक संस्थानों के 100 गज के दायरे में उनकी बिक्री पर भी रोक लगाता है।
      • इसके अंतर्गत सभी तंबाकू उत्पादों के पैकों पर निर्दिष्ट स्वास्थ्य चेतावनियाँ भी आवश्यक हैं।
    • इलेक्ट्रॉनिक सिगरेट निषेध अध्यादेश, 2019 का प्रख्यापन

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भारत में तंबाकू उत्पादन के आर्थिक महत्त्व और लाखों लोगों की आजीविका में इसकी भूमिका पर चर्चा करें। यह स्वास्थ्य संबंधी प्रभावों के साथ कैसे संतुलन बनाता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2012)

  1. मृदा की प्रकृति और फसलों की गुणवत्ता के आधार पर भू-राजस्व का आकलन
  2. युद्ध में चलती फिरती तोपों का उपयोग
  3. तंबाकू और लाल मिर्च की खेती

उपर्युक्त में से कौन-सा/से अंग्रेज़ों की भारत को देन थी/थे?

(a) केवल 1
(b) 1 और 2
(c) 2 और 3
(d) कोई भी नहीं

उत्तर: (d)


प्रश्न.सूची-I को सूची-II से सुमेलित कीजिये और सूचियों के नीचे दिये गए कूट का उपयोग करके सही उत्तर चुनें:(2008)

 

सूची-I (बोर्ड)                                सूची-II (मुख्यालय) 

A.कॉफी बोर्ड                              1. बंगलूरू

B.रबर बोर्ड                                 2. गुंटूर

C.चाय बोर्ड                                 3. कोट्टायम 

D.तंबाकू बोर्ड                              4. कोलकाता 

कूट:

A B C D

(a) 2 4 3 1
(b) 1 3 4 2
(c) 2 3 4 1
(d) 1 4 3 2

उत्तर: (b)


भूगोल

रैट होल माइनिंग

प्रिलिम्स के लिये:

अनुच्छेद 371A, रैट-होल माइनिंग, कोयला, राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (NGT)

मेन्स के लिये:

अनुच्छेद 371A की सीमाएँ और चुनौतियाँ, सतत माइनिंग  प्रथाएँ, रैट-होल माइनिंग, पर्यावरण प्रदूषण और गिरावट, भारतीय हिमालयी क्षेत्र से संबंधित चुनौतियाँ।

स्रोत: डाउन टू अर्थ

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में नगालैंड के वोखा ज़िले में रैट-होल कोयला खदान में आग लगने से छह श्रमिकों की मौत से संबंधित मामले में जवाब देने के लिये अधिकारियों को राष्ट्रीय हरित अधिकरण (National Green Tribunal- NGT) द्वारा चार सप्ताह का समय दिया गया।

रैट-होल माइनिंग क्या है?

  • परिचय:
    • रैट-होल माइनिंग, जिसे उपयुक्त रूप से कृंतक जीवों के बिलों से मिलता-जुलता होने के कारण नामित किया गया है, भारत के कुछ हिस्सों, विशेष रूप से मेघालय में प्रचलित कोयला निकालने की एक अवैध और अत्यधिक खतरनाक वधि है
    • व्यापक मशीनीकृत आधारित खदानों के विपरीत, इस विधि में संकीर्ण, क्षैतिज सुरंगों की खुदाई शामिल है, जिनका आकार इतना होता है कि इनमें केवल एक व्यक्ति कार्य करने में सक्षम होता है
    • ये सुरंगें, जिन्हें अक्सर "रैट होल" कहा जाता है, भूमिगत रूप से दस मीटर तक चौड़ी हो सकती हैं।
    • उत्खननकर्त्ता खतरनाक तरीके से उतरने के लिये तात्कालिक मचानों, बाँस की सीढ़ियों या रस्सियों का उपयोग करते हैं और वे क्लॉस्ट्रोफोबिक, खराब हवादार वातावरण में काम करने के लिये अन्य आदिम उपकरणों के बीच फावड़े तथा गैंती का उपयोग करते हैं।
    • खदानों से निकाले गए कोयले को फिर इन संकीर्ण मार्गों से वापस लाया जाता है, जिससे पूरी प्रक्रिया अविश्वसनीय रूप से जोखिमपूर्ण और जटिल हो जाती है।
  • प्रकार:
    • साइड-कटिंग प्रक्रिया: संकीर्ण सुरंगों को साइड-कटिंग प्रक्रिया में पहाड़ी ढलानों में खोदा जाता है, जहाँ श्रमिक मेघालय की पहाड़ियों में आमतौर पर 2 मीटर से कम संकरी कोयले की सीम का पता लगाने के लिये प्रवेश करते हैं।
    • बॉक्स-कटिंग: बॉक्स-कटिंग का उपयोग करके कोयला निकालते समय, एक आयताकार प्रवेश द्वार बनाया जाता है तथा एक ऊर्ध्वाधर गड्ढा खोदा जाता है, और फिर रैटहोल के आकार की क्षैतिज सुरंगें तैयार की जाती हैं।
  • भौगोलिक विस्तार:
    • हालाँकि रैट-होल माइनिंग मुख्य रूप से मेघालय में प्रचलित है, लेकिन भारत के अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में भी रैट-होल माइनिंग की जाती है।
    • इसे कोयले की पतली परत वाले क्षेत्रों में किया जाता है, जो बड़े पैमाने पर माइनिंग  तकनीकों के लिये अनुपयुक्त है।
  • रैट होल माइनिंग के कारण:
    • गरीबी: आजीविका के सीमित विकल्पों के साथ स्थानीय जनजातीय जनसंख्या अक्सर जीवित रहने के साधन के रूप में रैट-होल माइनिंग का सहारा लेती है।
      • जोखिमों के बावजूद, निकाले गए कोयले को बेचने से प्राप्त होने वाली त्वरित नकदी उन लोगों के लिये एक आकर्षक विल्कप बन जाता है जो अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये संघर्ष कर रहे हैं।
    • भू-स्वामित्व:
      • संदिग्ध भूमि स्वामित्व द्वारा विनियमित खदानों की स्थापना करने में चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं, अवैध ऑपरेटरों के लिये कमियों का लाभ उठाने तथा अपनी गतिविधियों को जारी रखने के अवसर प्रदान करते हैं।
    • कोयले की मांग: कोयले की वैध और अवैध दोनों प्रकार की निरंतर मांग, रैट-होल माइनिंग की प्रक्रिया को बढ़ावा देती है।
      • अवैध रूप से निकाले गये कोयले का विक्रय करने हेतु बिचौलिये और अवैध व्यापारी एक बाज़ार का निर्माण करते हैं, यह चक्र निरंतर जारी रहता है जिससे खनिकों के लिये जोखिमपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
  • मुद्दे:
    • जीवन को जोखिम: संकरी सुरंगों के ढहने का खतरा रहता है, जिससे अक्सर खनिक भूमि के अंदर फँस जाते हैं।
      • खदानों में ऑक्सीजन कमी के कारण खनिकों का दम घुटता है और उचित सुरक्षा उपायों की कमी के कारण उनको अक्सर दुर्घटनाओं, चोटों तथा जीवन के लिये खतरा उत्पन्न करने वाली बीमारियों का जोखिम बना रहता 
    • पर्यावरणीय क्षति: पहुँच प्राप्त करने हेतु भूमि साफ करने के लिये वनों की कटाई, अकस्मात खुदाई से मृदा अपरदन और अनुचित अपशिष्ट निपटान के कारण जल प्रदूषण इस प्रक्रिया के कुछ स्थायी पर्यावरणीय परिणाम हैं।
      • रैट होल की खदानें अम्लीय अपवाह का भी कारण बनती हैं, जिसे एसिड माइन ड्रेनेज (AMD) के रूप में जाना जाता है, जिसके कारण जल की गुणवत्ता में गिरावट आती है एवं प्रभावित जल निकायों में जैवविविधता हानि होती है।

सिलक्यारा (उत्तराखंड) सुरंग का ढहना:

  • नवंबर 2023 में उत्तराखंड में सुरंग ढहने से 41 श्रमिक फँस गए थे। इस दुष्कर परिस्थिति में उनके सफल बचाव के लिये एक प्रतिबंधित तकनीक, रैट-होल माइनिंग का प्रयोग किया गया।
  • खनिकों ने सफलतापूर्वक एक संकीर्ण मार्ग तैयार किया, जिससे सभी 41 श्रमिकों को बचाया जा सका। यह घटना दुष्कर परिस्थितियों में त्वरित बचाव के लिये इस तकनीक की विशिष्ट क्षमता का एक उदाहरण है।
  • हालाँकि, यह तकनीक एक उच्च जोखिम वाली तकनीक है। परंतु इस घटना से सुरक्षित एवं विनियमित माइनिंग प्रक्रियाओं के महत्त्व पर प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये।

रैट-होल माइनिंग को विनियमित करने के उपाय क्या हैं?

  • नगालैंड में रैट-होल माइनिंग  का विनियमन:
    • नगालैंड में 492.68 मिलियन टन कोयला भंडार छोटे, अनियमित क्षेत्रों में बिखरा हुआ है, जिसके कारण बड़े स्तर पर माइनिंग संचालन की अव्यवहारिकता के कारण 2006 की नगालैंड कोयला माइनिंग नीति के तहत रैट होल माइनिंग की अनुमति दी गई है।
    • रैट-होल माइनिंग लाइसेंस, जिन्हें छोटे पॉकेट डिपॉज़िट लाइसेंस के रूप में जाना जाता है, विशेष रूप से व्यक्तिगत भूमि मालिकों को सीमित अवधि और विशिष्ट शर्तों के साथ प्रदान किये जाते हैं।
    • रैट-होल माइनिंग हेतु पर्यावरणीय अनुपालन सुनिश्चित करने हेतु वन एवं पर्यावरण जैसे विभागों से अनुमोदन की आवश्यकता होती है, फिर भी सरकारी अनुमति तथा योजनाओं के बावजूद अवैध माइनिंग संचालन होता रहता है।
  • अनुच्छेद 371A और नगालैंड में रैट-होल माइनिंग पर नियंत्रण:
    • अनुच्छेद 371A  नगालैंड में सरकारी विनियमन को जटिल बनाता है, जिससे छोटे स्तर पर माइनिंग की निगरानी बाधित होती है, विशेषतः व्यक्तिगत भूमि मालिकों द्वारा।
  • उपाय
    • आजीविका के विकल्प: स्थायी आय स्रोत प्रदान करना महत्त्वपूर्ण है। इसमें कौशल विकास कार्यक्रम, पर्यटन या हस्तशिल्प जैसे वैकल्पिक उद्योगों को बढ़ावा देना एवं सूक्ष्म-वित्तपोषण के अवसर उत्पन्न करना शामिल है।
      • वित्तीय सुरक्षा के लिये अन्य सुरक्षित एवं सुगम साधनों को प्रदान कर, समुदायों को रैट-होल माइनिंग न करने के लिये प्रोत्साहित किया जाए।
    • सतत माइनिंग प्रक्रियाएँ: पतली परतों से कोयला निकालने के लिये उपयुक्त वैकल्पिक, सुगम माइनिंग तकनीकों की खोज करना आवश्यक है।
      • बोर्ड और पिलर माइनिंग अथवा छोटे स्तर पर मशीनीकृत माइनिंग जैसी तकनीकों पर अनुसंधान एवं अनुप्रयोग से सुरक्षित तथा अधिक कुशल माइनिंग का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
    • सख्त प्रवर्तन: विधिक प्रवर्तन को सशक्त करना एवं अवैध माइनिंग में संलग्न व्यक्तियों पर कठोर कार्यवाही करना एक उचित उपाय के रूप में कार्य कर सकता है।
  • विधिक परिदृश्य:
    • अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ: रैट-होल माइनिंग का प्रत्यक्ष रूप से समाधान करने हेतु किसी विशिष्ट अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का अभाव है।
      • हालाँकि, अंतर्राष्ट्रीय नियमों में माइनिंग की सतत् विधियों को बढ़ावा देने के साथ-साथ श्रमिक सुरक्षा को प्राथमिकता प्रदान की जाती है जिससे संबद्ध सदस्य देश अप्रत्यक्ष रूप से उक्त प्रथाओं को अपनाने के लिये प्रभावित होते हैं।
    • भारतीय संदर्भ: इस प्रथा के जोखिमों को ध्यान में रखते हुए, राष्ट्रीय हरित अधिकरण (National Green Tribunal- NGT) ने वर्ष 2014 में भारत में रैट-होल माइनिंग पर प्रतिबंध लगाया।
    • संबंधित सरकारी पहल:
      • रैट-होल माइनिंग पर NGT का प्रतिबंध, हालाँकि पूर्ण रूप से प्रभावी नहीं है, यह इस प्रथा को समाप्त करने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
      • महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) जैसी वैकल्पिक आजीविका को बढ़ावा देने वाली योजनाओं का उद्देश्य रैट होल माइनिंग पर निर्भर लोगों को वैकल्पिक आय स्रोत प्रदान करना है।

निष्कर्ष:

  • संबद्ध विषय में एक बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। जैसा कि कई देशों द्वारा किया गया है, रैट-होल माइनिंग पर पूर्ण प्रतिबंध एक निश्चित समाधान प्रदान करता है।
  • हालाँकि, लघु पैमाने के माइनिंग पर आर्थिक रूप से निर्भर क्षेत्रों के लिये सुरक्षित माइनिंग विकल्पों को विकसित करने और लागू करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये।
  • यंत्रचालित, लघु पैमाने के माइनिंग उपकरणों के अनुसंधान और विकास में निवेश करना, एक सुरक्षित एवं अधिक कुशल समाधान प्रदान कर सकता है। इसके अतिरिक्त, भविष्य की संभावित त्रासदियों की रोकथाम के लिये सुदृढ़ सुरक्षा प्रशिक्षण कार्यक्रम और नियमों का सख्त कार्यान्वयन आवश्यक है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भारत में रैट-होल माइनिंग से संबंधित पर्यावरणीय और सुरक्षा संबंधी चिंताओं की विवेचना कीजिये। सतत् माइनिंग प्रथाओं को सुनिश्चित करते हुए इन मुद्दों के समाधान के उपायों का सुझाव दीजिये

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स:

प्रश्न. "प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभाव के बावजूद, कोयला माइनिंग विकास के लिये अभी भी अपरिहार्य है"। विवेचना कीजिये। (2017)


जैव विविधता और पर्यावरण

क्लाइमेट माइग्रेशन

प्रिलिम्स के लिये:

जलवायु परिवर्तन, जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC), राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC), जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय अनुकूलन कोष (NAFCC), जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य योजना (SAPCC)

मेन्स के लिये:

क्लाइमेट माइग्रेशन (जलवायु प्रवासन) का मुद्दा और संभावित उपाय

स्रोत: डाउन टू अर्थ 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में जलवायु प्रवासन (जलवायु परिवर्तनों के कारण प्रवास) की समस्या ने सभी का ध्यान आकर्षित किया है, परंतु फिर भी विश्व में गंभीर मौसम आपदाओं के कारण अपने स्थायी आवासों को छोड़ने के लिये बाध्य व्यक्तियों की सुरक्षा के लिये एक व्यापक कानूनी ढाँचे का अभाव है।

  • यह गंभीर अंतर बढ़ते विस्थापन के समय में एक सुभेद्य जनसांख्यिकी को पर्याप्त सुरक्षा उपायों के बिना छोड़ देता है।

जलवायु प्रवासी कौन हैं?

  • परिचय:
  • इंटरनेशनल ऑर्गनाइज़ेशन फॉर माइग्रेशन (IOM) के अनुसार, "जलवायु प्रवासन" का तात्पर्य किसी व्यक्ति या जनसमूह की गतिविधियों से है, जो मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन अथवा आकस्मिक या क्रमिक पर्यावरणीय परिवर्तनों के कारण अपने आवास की छोड़ने के लिये बाध्य होते हैं।
  • यह गतिविधि अस्थायी या स्थायी हो सकती है एवं किसी देश के भीतर या बाहर भी हो सकती है।
  • यह परिभाषा इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि जलवायु प्रवासी मुख्य रूप से ऐसे व्यक्ति हैं जिनके पास जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण अपना स्थाई आवास छोड़ने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है।
  • जलवायु प्रवासन के कारण:
  • आकस्मिक आपदाएँ एवं विस्थापन:
  • आंतरिक विस्थापन: मानवीय मामलों के समन्वय के लिये संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (OCHA) की रिपोर्ट इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि बाढ़, तूफान और भूकंप जैसी आकस्मिक आपदाएँ अक्सर उनके आंतरिक विस्थापन का कारण बनती हैं।
  • लोग अपने देशों में सुरक्षित स्थानों की ओर पलायन कर रहे हैं, परंतु बुनियादी ढाँचे एवं आजीविका के नष्ट हो जाने के कारण उनका स्थायी आवास क्षेत्रों में लौटना कठिन हो सकता है।
  • आपदाएँ और संवेदनशीलता: संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी (UNHCR), इस तथ्य पर दबाव डालती है कि आपदाएँ अक्सर सुभेद्य जनसांख्यिकी को प्रभावित करती हैं।
  • संसाधनों की कमी या उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में रहने वाली इस जनसांख्यिकी के विस्थापित होने एवं संघर्ष करने की संभावनाएँ अधिक हैं।
  • धीमी गति से प्रारंभ होने वाली आपदाएँ एवं प्रवासन:
    • पर्यावरणीय क्षरण एवं आजीविका: IOM की रिपोर्ट है कि सूखा, मरुस्थलीकरण तथा लवणीकरण जैसी धीमी गति से घटित होने वाली आपदाएँ भूमि और जल संसाधनों को विनष्ट कर सकती हैं।
  • इससे लोगों के लिये अपनी आजीविका चला पाना दुष्कर होता है तथा उन्हें आजीविका के बेहतर अवसरों की तलाश में प्रवासन करना पड़ता है।
  • समुद्र के स्तर में वृद्धि एवं तटीय समुदाय: जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC) की रिपोर्ट में समुद्र के बढ़ते स्तर से तटीय क्षेत्रों में निवास कर रहे समुदायों को संकट होने की चेतावनी दी गई है। इससे लोगों घर और खेत जलमग्न हो जाएंगे, जिससे स्थायी विस्थापन हो सकता है।
  • जलवायु प्रवासन की जटिलताएँ:
  • मिश्रित कारक: संयुक्त राष्ट्र का आर्थिक और सामाजिक मामलों का विभाग (UNDESA) स्वीकार करता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले प्रवासन के लिये कोई एक कारक उत्तरदायी नहीं है।
  • गरीबी, राजनीतिक अस्थिरता एवं सामाजिक सुरक्षा का अभाव, आपदाएँ आने पर नागरिकों को प्रवासन के लिये विवश करतीं हैं।
  • डेटा अंतराल और नीतिगत चुनौतियाँ: विश्व बैंक जलवायु प्रवासन का स्पष्ट डेटा निर्धारित करने में चुनौतियों पर प्रकाश डालता है।
  • इससे विस्थापित लोगों एवं सुभेद्य समुदायों को सुरक्षित करने के लिये प्रभावी नीतियाँ विकसित करना कठिन हो जाता है।

जलवायु शरणार्थियों के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय प्रयास:

  • वर्ष 1951: जिनेवा अभिसमय शरणार्थियों की कानूनी परिभाषा देता है। इसमें जलवायु आपदाओं को शरण लेने के आधार के रूप में सम्मिलित नहीं किया गया है
    • हालाँकि, वर्ष 2019 में शरणार्थियों के लिये संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त का कहना है कि जिनेवा अभिसमय को जलवायु परिवर्तन से प्रभावित व्यक्तियों पर लागू किया जा सकता है।
  • वर्ष 1985: संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम पहली बार सामान्यतः पर्यावरण शरणार्थियों को ऐसे लोगों के रूप में परिभाषित करता है जो "पर्यावरणीय व्यवधान" के कारण अस्थायी या स्थायी रूप से अपने पारंपरिक निवास स्थान को छोड़ने के लिये मजबूर होते हैं।
  • वर्ष 2011: नॉर्वे में जलवायु परिवर्तन और विस्थापन पर आयोजित हुए नानसेन सम्मेलन में 10 सिद्धांत तैयार किये गए हैं।
  • वर्ष 2013: यूरोपीय आयोग यूरोप में जलवायु-प्रेरित प्रवासन को कम महत्त्व देता है।
  • वर्ष 2015: पेरिस समझौते में जलवायु परिवर्तन से संबंधित विस्थापन को रोकने, कम करने और संबोधित करने के दृष्टिकोण की सिफारिश करने के लिये एक कार्यबल का आह्वान किया गया 
  • वर्ष 2018: हालाँकि, जलवायु से प्रभावित शरणार्थियों को संयुक्त राष्ट्र ग्लोबल कॉम्पैक्ट में शामिल किया गया है, किंतु इसके लिये किसी भी सरकार ने कोई ठोस प्रतिबद्धता नहीं बनाई है।
  • वर्ष 2022: प्रवास, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर कंपाला मंत्रिस्तरीय घोषणा से जलवायु परिवर्तन की घटनाओं से प्रभावित लोगों को हॉर्न और पूर्वी अफ्रीका क्षेत्रों में सीमाओं के पार सुरक्षित रूप से जाने की अनुमति मिलती है।
  • वर्ष 2023: प्रशांत-द्वीपीय देश जलवायु परिवर्तन के कारण लोगों की सीमा-पार आवाजाही को अनुमति देने के लिये एक रूपरेखा पर सहमत हैं।

जलवायु प्रवासियों के सामने क्या चुनौतियाँ हैं?

  • संकटपूर्ण आजीविका:
    • कौशल और संपत्ति का हानि: अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने चेतावनी दी है कि विस्थापन के कारण जलवायु प्रवासियों को अक्सर अपने कौशल और संपत्ति की हानि होती हैं।
      • इससे लोगों के लिये अपरिचित वातावरण में अपनी आजीविका और दूसरा रोज़गार प्राप्त करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
    • अनौपचारिक कार्य और शोषण: संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी (UNHCR) की रिपोर्ट बताती है कि जलवायु प्रवासी अक्सर कम वेतन और खराब कामकाज़ी परिस्थितियों वाले अनौपचारिक कार्य क्षेत्रों में चले जाते हैं।
      • अपनी अनिश्चित स्थिति के कारण वे शोषण के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकते हैं।
  • एकीकरण और सामाजिक चुनौतियाँ:
    • सेवाओं तक पहुँच का अभाव: विश्व बैंक ने इस बात पर प्रकाश डाला कि जलवायु प्रवासी अक्सर अपने नए स्थानों में स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और आवास जैसी आधारभूत सेवाओं तक पहुँचने के लिये संघर्ष करते हैं।
      • यह इनके सामाजिक बहिष्कार और हाशिये पर रखे जाने का कारण बन सकता है।
    • सांस्कृतिक और भाषाई बाधाएँ: IOM जलवायु प्रवासियों को नई संस्कृतियों और भाषाओं को अपनाने में आने वाली कठिनाइयों पर ज़ोर देता है।
      • यह नए समुदायों में एकीकृत होने की उनकी क्षमता में बाधा उत्पन्न कर सकता है।
  • कानूनी स्थिति और सुरक्षा:
    • सीमित कानूनी ढाँचा: संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय (OHCHR) की रिपोर्ट बताती है कि जलवायु प्रवासियों की सुरक्षा के लिये कोई स्पष्ट कानूनी ढाँचा नहीं है।
      • वे वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत शरणार्थी का दर्ज़ा पाने के लिये योग्य नहीं हैं।
    • राज्यविहीन होने का बढ़ता जोखिम: जर्नल ऑफ एनवायरनमेंटल लॉ का दावा है कि जलवायु परिवर्तन से प्रेरित विस्थापन राज्यविहीनता का कारण बन सकता है, विशेष रूप से उन लोगों के लिये जो देशीय सीमाओं को पार करते हैं।
      • वर्ष 2021 में विश्व बैंक ने अपनी ग्राउंड्सवेल रिपोर्ट में अनुमान लगाया कि वर्ष 2050 तक, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण विश्व भर में लगभग 216 मिलियन लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हो जाएंगे।
  • मनोवैज्ञानिक और स्वास्थ्य संबंधी प्रभाव:
    • अभिघात और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मुद्दे: WHO विस्थापन और क्षति के कारण जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप प्रवासियों द्वारा अनुभव किये जाने वाले मनोवैज्ञानिक व्यथा एवं अभिघात (Trauma) पर प्रकाश डालता है।
      • आमतौर पर मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक इनकी पहुँच सीमित होती है, जिससे उनके स्वास्थ्य का संघर्ष और भी बढ़ जाता है।
    • स्वास्थ्य जोखिमों के प्रति सुभेद्यता में वृद्धि: जलवायु परिवर्तन के कारण प्रवास करने वाले व्यक्तियों को नए स्थानों पर स्वास्थ्य जोखिमों, जैसे संक्रामक रोग अथवा खराब मौसम की घटनाओं का सामना करना पड़ सकता है। यह विशेष रूप से बच्चों और वृद्धजनों के लिये चिंताजनक है।

क्लाइमेट माइग्रेशन के मुद्दे के समाधान से संबंधित नीतियों की सीमाएँ क्या हैं?

  • प्रवासन के लिये वैश्विक समझौता: हालाँकि, यह समझौता मानव प्रवासन को जलवायु परिवर्तन के कारक के रूप में स्वीकार करता है किंतु इसमें जलवायु शरणार्थियों के संबंध में कोई उल्लेख नहीं किया गया है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे पर सर्वसम्मति स्थापित करने में होने वाली कठिनाई को दर्शाता हो।
  • क्षेत्रीय संधियाँ और घोषणाएँ: कंपाला घोषणा जैसे क्षेत्रीय समझौतों में सामान्यतः क्लाइमेट रेफ्यूज़ी की स्पष्ट मान्यता का अभाव होता है, जो अधिक व्यापक विधिक ढाँचे की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।
  • क्लाइमेट रेफ्यूज़ी की पहचान: जलवायु-प्रेरित विस्थापन की जटिल प्रकृति को देखते हुए, प्रमुख चुनौतियों में से एक जलवायु परिवर्तन से प्रभावित व्यक्तियों अथवा समुदायों को शरणार्थियों के रूप में पहचानना और वर्गीकृत करना शामिल है।
  • सामूहिक विस्थापन: जलवायु परिवर्तन मुख्य तौर पर समग्र समुदायों अथवा राष्ट्रों को प्रभावित करता है, जिसके लिये सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता होती है।

क्लाइमेट माइग्रेशन की समस्या के समाधान के लिये क्या कदम उठाए गए हैं?

  • बांग्लादेश जैसे देश अपने निवासियों को समुद्र के बढ़ते स्तर और तूफान से बचाने के लिये तटीय तटबंधों एवं बाढ़ प्रतिरोधी बुनियादी ढाँचे में निवेश कर रहे हैं।
  • फिजी जैसे द्वीप राष्ट्र समुद्र के बढ़ते स्तर के कारण, जीवन योग्य अनुकूल भूभाग को ऊँचा करने जैसे नवीन उपाय तलाश रहे हैं।
    • समुद्र के बढ़ते स्तर के कारण किरिबाती अपनी आबादी के नियोजित स्थानांतरण के विकल्प तलाश रहे हैं।
      • इसमें नई बस्तियों में भूमि अधिग्रहण, सांस्कृतिक संरक्षण और आजीविका के अवसरों पर सावधानीपूर्वक विचार करना शामिल है।
  • भारत और वियतनाम जैसे देशों में बाढ़, चक्रवात और अन्य खराब मौसम की घटनाओं से बचाव के लिये त्वरित चेतावनी प्रणालियाँ कार्यान्वित की गई हैं।
    • ये प्रणालियाँ समुदायों को संवेदनशील क्षेत्रों को खाली करने और हताहतों तथा विस्थापन को कम करने में सहायता प्रदान करती हैं।
  • प्रलंबित (लंबे समय तक जारी रहने वाला) विस्थापन पर कंपाला घोषणा अफ्रीकी देशों द्वारा संघर्ष की स्थिति, प्राकृतिक आपदाओं और जलवायु परिवर्तन से विस्थापित लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अपनाया गया एक क्षेत्रीय ढाँचा है।
  • यह क्लाइमेट माइग्रेशन के संबंध में क्षेत्रीय सहयोग के लिये एक मॉडल प्रदान करता है।
  • इथियोपिया जैसे देश किसानों को मौसम के बदलाव के अनुकूल ढलने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में सहायता करने के लिये सूखा प्रतिरोधी फसलों तथा सिंचाई प्रौद्योगिकियों में निवेश कर रहे हैं।
    • इससे भोजन की कमी के कारण होने वाले विस्थापन का जोखिम कम हो जाता है।
  • अनुकूलन उपायों के अन्य उदाहरण:
    • पेसिफिक आइलैंड क्लाइमेट मोबिलिटी फ्रेमवर्क: यह फ्रेमवर्क जलवायु परिवर्तन से प्रभावित लोगों के लिये प्रशांत द्वीप देशों के बीच विधिसम्मत आवगमन की सुविधा प्रदान करता है, जो क्षेत्रीय सहयोग और अनुकूलन के लिये एक मॉडल प्रदान करता है।
    • तुवालु-ऑस्ट्रेलिया संधि: यह संधि तुवालु और ऑस्ट्रेलिया के बीच की गई जिसका उद्देश्य जलवायु संबंधी खतरों का सामना करने वाले तुवालु के निवासियों को निवास प्रदान करना है जो क्लाइमेट माइग्रेशन चुनौतियों से निपटने के लिये द्विपक्षीय दृष्टिकोण को प्रदर्शित करता है।

भारत की जलवायु परिवर्तन शमन हेतु नई पहलें क्या हैं?

आगे की राह

  • जलवायु परिवर्तन से निपटना:
    • IPCC ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिये आक्रामक शमन रणनीतियों के महत्त्व पर ज़ोर देता है।
    • जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UN Framework Convention on Climate Change- UNFCCC) समुदायों को जलवायु प्रभावों के प्रति अधिक लचीला बनने और विस्थापन जोखिमों को कम करने में सहायता करने के लिये अनुकूलन रणनीतियों को बढ़ावा देता है।
  • आपदा की तैयारी और जोखिम न्यूनीकरण:
  • कानूनी ढाँचे और सुरक्षा तंत्र:
    • संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी (UN Refugee Agency- UNHCR) और IOM जलवायु प्रवासियों की सुरक्षा के लिये कानूनी ढाँचा विकसित करने का समर्थन करते हैं।
    • इसमें शरणार्थी शब्द की परिभाषा को और व्यापक बनाना या जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापित लोगों के लिये संरक्षण की एक नई श्रेणी बनाना शामिल हो सकता है।
  • नियोजित पुनर्वास और पुनर्स्थापन:
    • विश्व बैंक की ग्राउंड्सवेल रिपोर्ट द्वारा यह माना गया कि जलवायु परिवर्तन के कारण कुछ समुदाय स्थायी रूप से रहने योग्य नहीं रह जाएंगे।
      • इन चरम मामलों में नियोजित स्थानांतरण और पुनर्वास कार्यक्रम आवश्यक हो सकते हैं।
  • तत् विकास एवं जलवायु-स्मार्ट कृषि में निवेश:
    • संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक मामलों का विभाग (UN Department of Economic and Social Affairs- UNDESA) सतत् विकास और जलवायु-स्मार्ट कृषि में निवेश के महत्त्व पर ज़ोर देता है।
    • इससे लोगों के लिये जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन के अवसर उत्पन्न हो सकते हैं और प्रवासन की आवश्यकता में कमी आ सकती है।
  • श्रमिक प्रवासन योजनाएँ:
    • जलवायु-विस्थापित जनसंख्या के लिये अनुकूलन उपाय के रूप में देशों के मध्य श्रम प्रवास को प्रोत्साहित करने से आर्थिक रूप से कमज़ोर समुदायों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में सहायता मिल सकती है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भारत में जलवायु प्रवासन की चुनौतियों और नीतिगत प्रभावों पर चर्चा कीजिये। सरकार प्रवासन को प्रेरित करने वाली पर्यावरणीय चिंताओं को संबोधित करते हुए जलवायु प्रवासियों की सुरक्षा एवं कल्याण कैसे सुनिश्चित कर सकती है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स:

प्रश्न. बड़ी परियोजनाओं के नियोजन के समय मानव बस्तियों का पुनर्वास एक महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिक संघात है, जिस पर सदैव विवाद होता है। विकास की बड़ी परियोजनाओं के प्रस्ताव के समय इस संघात को कम करने के लिये सुझाए गए उपायों पर चर्चा कीजिये। (2021)


प्रश्न. बड़ी परियोजनाओं के नियोजन के समय मानव बस्तियों का पुनर्वास एक महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिक संघात है, जिस पर सदैव विवाद होता है। विकास की बड़ी परियोजनाओं के प्रस्ताव के समय इस संघात को कम करने के लिये सुझाए गए उपायों पर चर्चा कीजिये। (2016)


शासन व्यवस्था

सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय में वृद्धि

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (NHP), आयुष्मान भारत PMJAY, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग

मेन्स के लिये:

राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा (NHA) डेटा के निष्कर्ष, भारत में स्वास्थ्य निधि में हुई वृद्धि के प्रभावी उपयोग को सुनिश्चित करने से संबंधित चुनौतियाँ

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

हाल के राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा (NHA) के आँकड़ों के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के अनुपात के रूप में सरकारी स्वास्थ्य व्यय (GHE) में वर्ष 2014-15 से वर्ष 2021-22 की अवधि के दौरान 63% की उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा (NHA):

  • राष्ट्रीय स्वास्थ्य खाता (NHA) अनुमान राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली संसाधन केंद्र (NHSRC) द्वारा तैयार किया जाता है, जिसे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा वर्ष 2014 में नेशनल हेल्थ अकाउंट्स टेक्निकल सेक्रेटेरिएट (NHATS) का दर्जा दिया गया था।
  • NHA अनुमान विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा विकसित स्वास्थ्य लेखा प्रणाली, 2011 के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत मानक के आधार पर एक लेखांकन ढाँचे का उपयोग करके तैयार किया जाता है।
  • ये अनुमान न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तुलनीय हैं, बल्कि नीति निर्माताओं को देश के विभिन्न स्वास्थ्य वित्तपोषण संकेतकों में प्रगति की निगरानी करने में भी सक्षम बनाते हैं।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली संसाधन केंद्र

  • इसकी स्थापना वर्ष 2006-07 में भारत सरकार के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM) के तहत तकनीकी सहायता के लिये एक शीर्ष निकाय के रूप में की गई थी।
  • इसका अधिदेश राज्यों को तकनीकी सहायता जुटाने और प्रदान करने तथा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW) के लिये क्षमता निर्माण में नीति और रणनीति विकास में सहायता करना है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा (National Health Accounts- NHA) डेटा के निष्कर्ष क्या हैं?

  • स्वास्थ्य सेवा में बढ़ता सरकारी निवेश:
    • यह वर्ष 2014-15 और 2021-22 के बीच सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में सरकारी स्वास्थ्य व्यय (Government Health Expenditure- GHE) में उल्लेखनीय वृद्धि (1.13% से 1.84%) के रूप में परिलक्षित होता है।
      • स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति सरकारी व्यय भी इसी अवधि में लगभग तीन गुना हो गया है।
    • राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (National Health Policy- NHP) का लक्ष्य हर किसी को सस्ती, गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच प्रदान करना है। इसमें वर्ष 2025 तक सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय को सकल घरेलू उत्पाद का 2.5% तक बढ़ाने का प्रस्ताव है।
  • सरकार द्वारा वित्तपोषित बीमा योजनाओं पर ध्यान देना:
    • आयुष्मान भारत PMJAY जैसी सरकारी स्वास्थ्य बीमा योजनाओं में निवेश तेज़ी से बढ़ा है (वर्ष 2013-14 से 4.4 गुना वृद्धि)।
    • स्वास्थ्य पर सामाजिक सुरक्षा खर्च की हिस्सेदारी में भी वृद्धि हुई है, जो एक अधिक व्यापक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली की ओर परिवर्तन का प्रदर्शन करता है।
  • आउट-ऑफ-पॉकेट व्यय (OOPE) में कमी :
    • OOPE (स्वास्थ्य सेवा पर व्यक्तियों द्वारा सीधे खर्च किया गया धन) में उल्लेखनीय गिरावट देखी गई है, जो वर्ष 2014-15 से 2021-22 के बीच 62.6% से घटकर 39.4% हो गई है।
    • OOPE की कमी में योगदान देने वाले कारक:
      • आयुष्मान भारत PMJAY जैसी योजनाएँ लोगों को बिना किसी वित्तीय बोझ के गंभीर बीमारियों के इलाज तक पहुँच प्राप्त करने में मदद करती हैं।
      • सरकारी सुविधाओं का बढ़ता उपयोग, निशुल्क एम्बुलेंस सेवाएं तथा अन्य पहलें OOPE को कम करने में योगदान देती हैं।
      • आयुष्मान आरोग्य मंदिरों (AAM) पर निशुल्क दवाइयों और निदान की उपलब्धता स्वास्थ्य सेवा की लागत को और कम करती है।
  • आवश्यक दवाईयों के मूल्य विनियमन पर फोकस:
    • जन औषधि केंद्र किफायती जेनेरिक औषधियाँ और सर्जिकल आइटम उपलब्ध कराते हैं, जिससे वर्ष 2014 से अब तक नागरिकों को अनुमानित 28,000 करोड़ रुपए की बचत हुई है।
    • स्टेंट और कैंसर की दवाओं जैसी आवश्यक दवाओं के मूल्य को विनियमित करने से बचत में और अधिक वृद्धि हुई है (अनुमानित 27,000 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष)।
  • स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारकों को सशक्त बनाना:
    • सरकारी व्यय में वृद्धि न केवल स्वास्थ्य सेवाओं को लक्षित करती है, बल्कि इसमें जलापूर्ति और स्वच्छता (जल जीवन मिशन और स्वच्छ भारत मिशन के माध्यम से) में निवेश भी शामिल है।
  • स्वास्थ्य देखभाल अवसंरचना में निवेश:

नोट:

  • आउट-ऑफ-पॉकेट व्यय (OOPE) वह धनराशि है जिनका भुगतान स्वास्थ्य देखभाल प्राप्त करने के समय परिवारों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है।
  • इसमें किसी भी सार्वजनिक या निजी बीमा या सामाजिक सुरक्षा योजना के अंतर्गत आने वाले व्यक्ति शामिल नहीं हैं।

भारत में बढ़े हुए हेल्थकेयर फंड के प्रभावी उपयोग को सुनिश्चित करने से जुड़ी चुनौतियाँ क्या हैं?

  • बेहतर सुविधाओं तक पहुँच में असमानता:
    • लंबी यात्रा में लगने वाला समय और विशेषज्ञों तक सीमित पहुँच ग्रामीण जनसंख्या के लिये सामान्य समस्याएँ हैं, जिससे इनके निदान में विलंब हो सकता है तथा स्वास्थ्य परिणाम प्रभावित हो सकते हैं।
      • नीति आयोग की वर्ष 2021 की रिपोर्ट, शहरी क्षेत्रों (1:400) के पक्ष में डॉक्टर-रोगी अनुपात (1:1100) विषम वितरण के साथ महत्त्वपूर्ण अंतर को उजागर करती है।
      • राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफाइल 2022 से पता चलता है कि मधुमेह और हृदय रोग जैसी गैर-संचारी बीमारियों (NCD) में वृद्धि हुई है, जिनका इलाज अत्यधिक महँगा है।
  • निधियों का दुरुपयोग और अक्षमताएँ:
    • नौकरशाही की अक्षमताएँ, कुप्रबंधन और संभावित भ्रष्टाचार धन को उसके इच्छित लाभार्थियों तक पहुँचने से रोकने के मुख्य कारक हैं।
  • मानव संसाधन बाधाएँ:
    • डॉक्टरों, नर्सों और अन्य स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों की कमी अक्सर अधिक काम करने वाले कर्मचारियों, देखभाल की गुणवत्ता से समझौता करने तथा लंबे समय तक प्रतीक्षा करने का कारण बनती है।
      • भारत में डॉक्टर-नर्स अनुपात वर्तमान में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा अनुशंसित 4:1 की तुलना में 1:1 के है।
      • इसके अतिरिक्त, वर्तमान स्थिति में, सरकारी अस्पतालों में चिकित्सक-रोगी अनुपात 1 ~11000 है, जो कि WHO की अनुशंसा 1:1000 से काफी अधिक है।

आगे की राह

  • उच्च वेतन, बेहतर आवास सुविधाओं और कॅरियर में प्रगति के अवसर जैसे प्रोत्साहनों के माध्यम से चिकित्सकों को प्रशिक्षित करने वाले कार्यक्रमों के साथ किफायती अस्पतालों और क्लीनिकों का निर्माण करके ग्रामीण स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढाँचे में निवेश करना।
  • रोगी देखभाल के लिये धन का कुशल उपयोग सुनिश्चित करने एवं भ्रष्टाचार को रोकने के लिये प्रभावी निगरानी प्रणाली और सख्त नियमों की आवश्यकता है।
  • ऐसे अस्पतालों में जहाँ कर्मचारियों की संख्या कम है, सरकारी चिकित्सकों की संख्या बढ़ाने और रोगी-उन्मुख सुविधाओं में सुधार करने से रोगी की उचित देखभाल हो सकती है तथा उपचार के लिये प्रतीक्षा समय कम हो सकता है।
  • स्वस्थ जीवन शैली को प्रोत्साहन देने एवं रोग का शीघ्र पता लगाने वाले सार्वजनिक स्वास्थ्य अभियानों के माध्यम से निवारक स्वास्थ्य देखभाल में निवेश से भविष्य में स्वास्थ्य देखभाल लागत कम हो सकती है।
    • जनता को स्वस्थ खान-पान की आदतों के विषय में शिक्षित करने एवं नियमित जाँच को प्रोत्साहित करने पर खर्च बढ़ाने से, संभावित रूप से महँगे इलाज वाली पुरानी बीमारियों से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या में कमी आ सकती है।

स्वास्थ्य सेवा से संबंधित हालिया सरकारी पहल क्या हैं?

निष्कर्ष:

  • वर्तमान में भारत के स्वास्थ्य देखभाल व्यय में वृद्धि हो रही है, आयुष्मान भारत जैसे सरकारी कार्यक्रमों से नागरिकों का स्वास्थ्य व्यय कम हो रहा है। हालाँकि, ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य कर्मियों का अभाव एवं दुर्गमता जैसी चुनौतियाँ अभी भी व्याप्त हैं।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल तक समान पहुँच सुनिश्चित करना एवं स्वास्थ्य देखभाल पर ध्यान देना वास्तविकता में सुदृढ़ एवं समतापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के लिये महत्त्वपूर्ण है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न :

भारत में बढ़े हुए हेल्थकेयर फंड के प्रभावी उपयोग को सुनिश्चित करने से जुड़ी चुनौतियों पर चर्चा करें।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-से 'राष्ट्रीय पोषण मिशन' के उद्देश्य हैं? (2017)

  1. गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं में कुपोषण के बारे में ज़ागरूकता पैदा करना।
  2. छोटे बच्चों, किशोरियों और महिलाओं में एनीमिया के मामलों को कम करना।
  3. बाजरा, मोटे अनाज और बिना पॉलिश किये चावल की खपत को बढ़ावा देना।
  4. पोल्ट्री अंडे की खपत को बढ़ावा देना।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 1, 2 और 3
(c) केवल 1, 2 और 4
(d) केवल 3 और 4

उत्तर: (a)

व्याख्या:

  • राष्ट्रीय पोषण मिशन (पोषण अभियान) महिला और बाल विकास मंत्रालय, भारत सरकार का एक प्रमुख कार्यक्रम है, जो आंँगनवाड़ी सेवाओं, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना, स्वच्छ-भारत मिशन आदि जैसे विभिन्न कार्यक्रमों के साथ अभिसरण सुनिश्चित करता है।
  • राष्ट्रीय पोषण मिशन (NNM) का लक्ष्य 2017-18 से शुरू होकर अगले तीन वर्षों के दौरान 0-6 वर्ष के बच्चों, किशोरियों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं की पोषण स्थिति में समयबद्ध तरीके से सुधार करना है। अतः कथन 1 सही है।
  • NNM का लक्ष्य स्टंटिंग, अल्पपोषण, एनीमिया (छोटे बच्चों, महिलाओं और किशोर लड़कियों के बीच) को कम करना तथा बच्चों के जन्म के समय कम वज़न की समस्या को दूर करना है। अत: कथन 2 सही है।
  • NNM के तहत बाजरा, बिना पॉलिश किये चावल, मोटे अनाज और अंडों की खपत से संबंधित ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। अत: कथन 3 और 4 सही नहीं हैं।

मेन्स:

प्रश्न. “एक कल्याणकारी राज्य की नैतिक अनिवार्यता के अलावा, प्राथमिक स्वास्थ्य संरचना धारणीय विकास की एक आवश्यक पूर्व शर्त है।” विश्लेषण कीजिये। (2021)


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