भारत का मृदा अपरदन संकट
प्रिलिम्स के लिये: मृदा अपरदन, संशोधित सार्वभौमिक मृदा हानि समीकरण के कारक, ब्रह्मपुत्र घाटी, मृदा अपरदन में योगदान करने वाले कारक। मेन्स के लिये: भारत में मृदा स्वास्थ्य से संबंधित चुनौतियाँ, कृषि से संबंधित मुद्दे। |
चर्चा में क्यों?
एक हालिया अध्ययन ने पूरे भारत में मृदा अपरदन की चिंताजनक स्थिति पर प्रकाश डाला है, जिससे कृषि उत्पादकता और पर्यावरणीय स्थिरता के लिये महत्त्वपूर्ण चुनौतियों एवं निहितार्थों का खुलासा हुआ है।
शोधकर्त्ताओं ने अखिल भारतीय मृदा अपरदन के आकलन के लिये संशोधित सार्वभौमिक मृदा हानि समीकरण (RUSLE) का उपयोग किया। समीकरण अनुमानित फसल हानि, वर्षा, मृदा के कटाव और भूमि प्रबंधन प्रथाओं जैसे कारकों पर विचार करता है।
अध्ययन की मुख्य बातें क्या हैं?
- भारत की 30% भूमि "सामान्य" मृदा अपरदन का सामना कर रही है, जबकि 3% भूमि को "विनाशकारी" ऊपरीमृदा के नुकसान का सामना करना पड़ रहा है।
- असम में ब्रह्मपुत्र घाटी को मृदा अपरदन के लिये देश के सबसे बड़े हॉटस्पॉट के रूप में पहचाना जाता है।
- ओडिशा मानवजनित हस्तक्षेपों के कारण "विनाशकारी" अपरदन के लिये एक और हॉटस्पॉट के रूप में उजागर हुआ है।
- विनाशकारी अपरदन को प्रतिवर्ष प्रति हेक्टेयर 100 टन से अधिक मृदा के नष्ट होने के रूप में परिभाषित किया जाता है।
भारत में मृदा अपरदन की स्थिति क्या है?
- परिचय: मृदा अपरदन उस प्रक्रिया को संदर्भित करता है जिसके द्वारा मृदा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित या विस्थापित किया जाता है।
- यह जलवायु, स्थलाकृति, वनस्पति आवरण और मानवीय गतिविधियों जैसे कारकों के आधार पर अलग-अलग दरों पर हो सकता है।
- मृदा अपरदन में योगदान देने वाले कारक:
- प्राकृतिक कारण:
- वायु: तेज़ वायु ढीली मृदा के कणों को उठा सकती है और विशेषकर विरल वनस्पति वाले शुष्क क्षेत्रों में उन्हें दूर ले जा सकती है।
- जल: भारी वर्षा या तेज़ी से बहता जल मृदा के कणों को अलग कर सकता है और विशेष रूप से ढलान वाली भूमि पर या जहाँ वनस्पति आवरण कम होता है, उनका परिवहन कर सकता है।
- हिमनद और बर्फ: हिमनदों की गति भारी मात्रा में मृदा को बहा कर ले जा सकती है, जबकि ठंड और जल के पिघलने के चक्र के कारण मृदा के कण टूट सकते हैं तथा अपरदन के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकते हैं।
- प्राकृतिक कारण:
- मानव-प्रेरित कारक:
- वनों की कटाई: वनों की कटाई करने से पेड़ और अन्य वनस्पतियाँ नष्ट हो जाती हैं जो मृदा को अपनी जड़ों से पकड़कर रखते हैं।
- इससे मृदा वायु और वर्षा की पूरी ताकत के संपर्क में आ जाती है, जिससे इसके अपरदन का खतरा बढ़ जाता है।
- खराब कृषि पद्धतियाँ: अत्यधिक जुताई जैसी पारंपरिक खेती की पद्धतियाँ मृदा की संरचना को नष्ट कर सकती हैं और इसे अपरदन के प्रति संवेदनशील बना सकती हैं।
- परती अवधि के दौरान खेतों को खाली छोड़ना या अपर्याप्त फसल चक्र का उपयोग करने जैसी प्रथाएँ भी इस समस्या में योगदान करती हैं।
- अत्यधिक चराई: जब पशुधन किसी क्षेत्र को बहुत अधिक मात्रा में चरते हैं, तो वे वनस्पति आवरण को नुकसान पहुँचा सकते हैं, जिससे मृदा अनावृत हो जाती है और अपरदन के प्रति संवेदनशील हो जाती है।
- निर्माण गतिविधियाँ: निर्माण परियोजनाओं के दौरान भूमि की सफाई और खुदाई से मिट्टी खराब होती है तथा इसके मृदा के कटाव का खतरा बढ़ जाता है, खासकर अगर उचित सावधानी न बरती जाए।
- वनों की कटाई: वनों की कटाई करने से पेड़ और अन्य वनस्पतियाँ नष्ट हो जाती हैं जो मृदा को अपनी जड़ों से पकड़कर रखते हैं।
- भारत में निम्नीकृत मिट्टी: राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण एवं भूमि उपयोग योजना ब्यूरो के अनुसार, भारत में लगभग 30% मिट्टी निम्नीकृत है।
- इसमें से लगभग 29% समुद्र में नष्ट हो जाती है, 61% एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित हो जाती है और 10% जलाशयों में जमा हो जाती है।
भारत में मृदा स्वास्थ्य से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?
- कम जैविक कार्बन सामग्री: भारतीय मृदा में आमतौर पर जैविक कार्बन की मात्रा बहुत कम होती है, जो उर्वरता और जल संग्रहण (Water Retention) के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- भारत में मृदा जैविक कार्बन (Soil organic carbon) तत्व पिछले 70 वर्षों में 1 प्रतिशत से घटकर 0.3 प्रतिशत रह गया है।
- पोषक तत्त्वों की कमी: भारतीय मृदा का एक बड़ा हिस्सा नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम जैसे प्रमुख पोषक तत्त्वों की कमी से प्रभावित है।
- रासायनिक उर्वरकों पर अत्यधिक निर्भरता इस समस्या को बढ़ाती है।
- जल प्रबंधन मुद्दे: जल की कमी और अनुचित सिंचाई पद्धतियाँ दोनों ही मृदा के स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाती हैं। अपर्याप्त जल से लवणीकरण हो सकता है, जबकि अधिक सिंचाई से जलभराव हो सकता है, जिससे मृदा की उर्वरता और संरचना दोनों पर प्रभाव पड़ता है।
- भारत में सिंचाई का लगभग 70% जल किसानों के खराब जल प्रबंधन के कारण बर्बाद हो जाता है।
- सामाजिक आर्थिक कारक: जनसंख्या दबाव और आर्थिक बाधाओं के कारण भूमि विखंडन से किसानों के लिये मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार करने वाली टिकाऊ प्रथाओं को अपनाना कठिन हो सकता है।
- भारत में प्रति किसान औसत जोत का आकार 1-1.21 हेक्टेयर है।
मृदा संरक्षण से संबंधित सरकार की पहल क्या हैं?
- राष्ट्रीय सतत् कृषि मिशन (NMSA) के तहत मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन:
- मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना:
- परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY): जैविक खेती को बढ़ावा देकर, PKVY का लक्ष्य रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों पर निर्भरता को कम करना है, जिससे मृदा के पोषक तत्त्वों एवं जैविक पदार्थों की प्राकृतिक पुनःपूर्ति हो सके और मृदा का स्वास्थ्य बेहतर हो सके।
- नीम कोटेड यूरिया: नीम कोटेड यूरिया का स्राव धीमा हो जाता है, जिससे पौधों में नाइट्रोजन लंबे समय तक उपलब्ध रहती है और बर्बादी कम होती है।
- इससे उर्वरक की आवश्यकता कम होती है और लंबे समय तक मृदा का स्वास्थ्य बेहतर रहता है।
- पोषक तत्त्व आधारित सब्सिडी (NBS) योजना: यह योजना यूरिया से नाइट्रोजन के अलावा पौधों के लिये आवश्यक पोषक तत्त्वों (फॉस्फोरस और पोटेशियम) को खरीदने के लिये सब्सिडी देने पर केंद्रित है।
- यह संतुलित उर्वरक उपयोग को प्रोत्साहित करता है, नाइट्रोजन पर अत्यधिक निर्भरता को कम करता है, जो समय के साथ मृदा के स्वास्थ्य को हानि पहुँचा सकता है।
मृदा अपरदन को रोकने एवं मृदा स्वास्थ्य में सुधार हेतु क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं?
- बायोचार एवं जैव उर्वरक: बायोचार अनुप्रयोग को जैव उर्वरकों के साथ जोड़ना एक सशक्त रणनीति हो सकती है।
- बायोचार में पोषक तत्त्व एवं जल होता है, जबकि जैव उर्वरक पोषक तत्त्वों की उपलब्धता तथा मृदा के स्वास्थ्य में सुधार कर सकते हैं। इससे किसानों की रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम हो सकती है और साथ ही मृदा की उर्वरता में वृद्धि हो सकती है।
- बायोचार एक कोयला जैसा पदार्थ होता है जो फसल के अवशेष, खाद अथवा खरपतवार जैसे कार्बनिक पदार्थों के पायरोलिसिस (ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में गर्म करना) द्वारा उत्पादित होता है।
- जैव उर्वरक जीवित सूक्ष्मजीव हैं जो मृदा की उर्वरता एवं पौधों की वृद्धि में सुधार कर सकते हैं।
- बायोचार में पोषक तत्त्व एवं जल होता है, जबकि जैव उर्वरक पोषक तत्त्वों की उपलब्धता तथा मृदा के स्वास्थ्य में सुधार कर सकते हैं। इससे किसानों की रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम हो सकती है और साथ ही मृदा की उर्वरता में वृद्धि हो सकती है।
- परिशुद्ध कृषि हेतु ड्रोन तकनीक: नमो ड्रोन दीदी योजना को मृदा संरक्षण से जोड़ा जा सकता है।
- मल्टीस्पेक्ट्रल सेंसर से लैस ड्रोन बड़े क्षेत्रों में पोषक तत्त्वों के स्तर, कार्बनिक पदार्थ की मात्रा के साथ नमी के स्तर जैसे मृदा के स्वास्थ्य मापदंडों को निर्धारित कर सकते हैं
- इस डेटा का उपयोग उर्वरक के सटीक अनुप्रयोग तथा संशोधन, अपशिष्ट को कम करने एवं प्रभावशीलता को अधिकतम करने के लिये किया जा सकता है।
- ड्रोन का उपयोग लक्षित बुवाई तथा खरपतवार नियंत्रण के लिये भी किया जाता है, जिससे मृदा में मौजूद प्रदूषकों को न्यूनतम किया जा सकता है।
- पुनर्योजी कृषि प्रथाएँ: बिना जुताई वाली कृषि को एकीकृत करने तथा खाद का उपयोग करने से विभिन्न क्षेत्रों में कृषि के लिये एक अनुकूलित दृष्टिकोण निर्मित किया जा सकता है।
- इसके अतिरिक्त, बहु-प्रजाति कवर क्रॉपिंग जैसी नवीन कवर क्रॉपिंग तकनीकों की खोज से खरपतवार को समाप्त करने एवं बेहतर मृदा संरचना जैसे अतिरिक्त लाभ प्राप्त हो सकते हैं।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:
प्रश्न. मृदा अपरदन की चुनौतियों से निपटने में वर्तमान सरकारी नीतियों एवं पहलों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन कीजिये, और साथ ही स्थायी मृदा प्रबंधन के लिये नवीन रणनीतियों को प्रस्तुत कीजिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (A) केवल 1 और 2 उत्तर: (B) मेन्स:प्रश्न. एकीकृत कृषि प्रणाली (IFS) कृषि उत्पादन को बनाए रखने में कहाँ तक सहायक है? (2019) |