भारत में बलात्संग संबंधी मामलों में वृद्धि
प्रिलिम्स के लिये:भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 , वैवाहिक बलात्संग , लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) , ज़ीरो FIR , टू फिंगर टेस्ट , राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण , राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो मेन्स के लिये:बलात्संग संबंधी मामले, संबंधित चुनौतियाँ और आगे की राह, भारत में महिला सुरक्षा तथा विधिक सुधार, महिलाओं से संबंधित मुद्दे, सामाजिक मानदंडों का प्रभाव |
स्रोत: IE
चर्चा में क्यों?
भारत में बलात्संग संबंधी मामलों में वृद्धि ने यौन हिंसा के मामलों को संबोधित करने के लिये व्यापक विधिक सुधारों और सामाजिक व्यवहार में लिये मृत्युदंड सहित कठोर दंड के प्रावधान एवं महिलाओं के लिये सुरक्षित वातावरण हेतु तत्काल परिवर्तन की मांग को पुनः जागृत किया है।
- इन घटनाओं ने बलात्संग के कार्रवाई की मांग को बढ़ावा दिया है।
भारत में बलात्संग के संबंध में विधिक ढाँचा क्या है?
- बलात्संग क्या है: भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 के अनुसार, बलात्संग तब होता है जब कोई पुरुष किसी महिला की सहमति के बिना, उसकी इच्छा के विरुद्ध, दबाबपूर्वक, धोखे से या जब महिला की आयु 18 वर्ष से कम हो या सहमति देने में असमर्थ हो, उसके साथ यौन संबंध बनाता है।
- भारत में बलात्संग के प्रकार:
- गंभीर बलात्संग: पीड़ित पर अधिकारिता या विश्वास की स्थिति रखने वाले किसी व्यक्ति (जैसे- पुलिस अधिकारी, अस्पताल कर्मचारी या अभिभावक) द्वारा किया गया बलात्संग ।
- बलात्संग और हत्या: जब बलात्संग के कारण पीड़ित की मृत्यु हो जाती है या वह अचेत अवस्था में चली जाती है।
- सामूहिक बलात्संग: जब एक महिला के साथ कई व्यक्तियों द्वारा एक साथ बलात्संग किया जाता है।
- वैवाहिक बलात्संग: 'वैवाहिक बलात्संग ' का तात्पर्य पति और पत्नी के मध्य किसी भी पक्ष की सहमति के बिना जबरन यौन संबंध बनाने से है।
- भारत में बलात्संग से संबंधित विधियाँ:
- भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023: नव अधिनियमित BNS, 2023, जो औपनिवेशिक युग की भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860 को स्थनान्तरित करती है, यौन अपराधों के उपचार में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन प्रस्तुत करती है।
- BNS बलात्संग के गंभीर रूपों को परिभाषित करती है, जिसमें सामूहिक बलात्संग भी शामिल है। इसमें 18 वर्ष की आयु से कम उम्र की नाबालिगों के साथ सामूहिक बलात्संग के लिये कठोर दंड का प्रावधान है, जिसमें आजीवन कारावास या मृत्युदंड भी शामिल है।
- दंड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013: वर्ष 2012 में दिल्ली में हुए निर्भया बलात्संग मामले के कारण दंड विधि (संशोधन) अधिनियम 2013 के माध्यम से संशोधन किया गया, जिसके तहत बलात्संग के लिये न्यूनतम दंड सात वर्ष का कारावास से बढ़ाकर दस वर्ष कर दिया गया।
- जिन मामलों में पीड़ित की मृत्यु हो जाती है या वह अचेत अवस्था में चली जाती है, उनमें न्यूनतम दंड को बढ़ाकर बीस वर्ष का कारावास कर दिया गया।
- इसके अलावा, दंड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2018 के माध्यम से भी 12 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ बलात्संग के लिये मृत्युदंड सहित और भी कठोर दंडात्मक प्रावधान किये गए थे।
- लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) : यह विधि बच्चों को यौन हिंसा, उत्पीड़न और पोर्नोग्राफी से संरक्षित करती है।
- भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023: नव अधिनियमित BNS, 2023, जो औपनिवेशिक युग की भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860 को स्थनान्तरित करती है, यौन अपराधों के उपचार में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन प्रस्तुत करती है।
- भारत में बलात्संग पीड़ितों के अधिकार:
- ज़ीरो FIR का अधिकार: पीड़ित किसी भी पुलिस स्टेशन में ज़ीरो FIR दर्ज करा सकते हैं, चाहे उसका क्षेत्राधिकार कुछ भी हो। FIR को अन्वेषण हेतु उचित स्टेशन पर स्थानांतरित कर दिया जाएगा।
- निशुल्क चिकित्सा उपचार: दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 (जिसे अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 के रूप में प्रतिस्थापित किया गया है) की धारा 357 C के तहत, सभी अस्पतालों को बलात्संग पीड़ितों को निशुल्क चिकित्सा उपचार प्रदान करना होगा।
- टू फिंगर टेस्ट की समाप्ति: किसी भी डॉक्टर को चिकित्सा परीक्षण करते समय टू फिंगर टेस्ट करने का अधिकार नहीं होगा, जिसे पीड़ित की गरिमा का उल्लंघन माना जाता है।
- उत्पीड़न-मुक्त समयबद्ध जाँच: बयान महिला पुलिस अधिकारी या किसी अन्य अधिकारी द्वारा पीड़ित के लिये सुविधाजनक समय और स्थान पर दर्ज किया जाएगा।
- बयान पीड़ित के माता-पिता या अभिभावक की मौजूदगी में दर्ज किया जाएगा। अगर पीड़ित गूंगा या मानसिक रूप से विकलांग है, तो संकेत को समझने के लिये एक विश्लेषक की मौजूदगी आवश्यक होगी।
- मुआवज़े का अधिकार: CrPC की धारा 357A राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा निर्धारित मुआवज़ा योजना के अंतर्गत पीड़ितों के लिये मुआवज़े का प्रावधान करती है।
- मुकदमें की कार्रवाई के दौरान गरिमा और संरक्षण: मुकदमें कैमरे के समक्ष चलाए जाने चाहिये, जिसमें पीड़ित के यौन इतिहास के बारे में कोई अनुचित प्रश्न नहीं पूछे जाने चाहिये और यदि संभव हो तो महिला न्यायाधीश द्वारा मुकदमा चलाया जाना चाहिये।
भारत में बलात्संग के मामलों में वृद्धि क्यों हो रही है?
- बलात्संग का सामान्यीकरण: यह एक समाजशास्त्रीय वातावरण को संदर्भित करता है जहाँ यौन हिंसा को सामान्य माना जाता है और उसे माफ कर दिया जाता है, जिसके कारण बलात्संग के मामलों में वृद्धि होती है। यह कई तरह के व्यवहार एवं दृष्टिकोण पर आधारित है।
- बलात्संग के संबंध में अनुचित दृष्टिकोण: यौन हिंसा के बारे में अनुचित टिप्पणियों से ऐसे अपराधों की गंभीरता को कमतर आँका जाता है।
- लिंगभेदी व्यवहार: ऐसे कार्य और दृष्टिकोण जो महिलाओं को अपमानित करते हैं, अक्सर नकारात्मक रूढ़िवादिता को बनाए रखते हैं।
- पीड़ित को दोषी ठहराना: अपराधियों पर ध्यान देने के बजाय, पीड़ित को ही हिंसा के लिये ज़िम्मेदार ठहराने से इसकी जटिलता बढ़ती है।
- सांस्कृतिक दृष्टिकोण में पीड़ितों को उनके पहनावे के लिये दोषी ठहराया जाता है, भारत में सर्वेक्षण किये गए 68% न्यायाधीशों ने यही दृष्टिकोण अपनाया है। यह नकारात्मक दृष्टिकोण पीड़ितों को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति को मज़बूत करता है।
- पीड़ितों को अक्सर शर्मिंदा किया जाता है तथा उन पर आरोप लगाया जाता है, जिससे उनका मानसिक आघात और बढ़ जाता है एवं वे अपराध की रिपोर्ट करने से हतोत्साहित हो जाते हैं। रिपोर्ट न करने की यह कमी बलात्संग की घटनाओं में वृद्धि में योगदान देती है।
- यह प्रवृत्ति न केवल उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कम करती है बल्कि उनके अवसरों और सामाजिक प्रतिष्ठा को भी सीमित करती है।
- शराब की लत: शराब का सेवन बलात्संग की बढ़ती दरों में एक महत्त्वपूर्ण कारक है। यह निर्णय लेने की क्षमता को कम करता है और अधिक आक्रामक तथा हिंसक व्यवहार को जन्म दे सकता है।
- मीडिया में महिला विरोधी चित्रण: भारत में फिल्में और शो अक्सर महिलाओं को वस्तु के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह चित्रण नकारात्मक रूढ़िवादिता तथा व्यवहार को मज़बूत करता है जो बलात्संग प्रवृत्ति में योगदान देता है।
- लिंग अनुपात असंतुलन: जनसंख्या में महिलाओं की तुलना में पुरुषों की अधिक संख्या बलात्संग की दर में वृद्धि से संबंधित है।
- वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश का लिंग अनुपात प्रति 1,000 पुरुषों पर 940 महिलाएँ था। यह लैंगिक असंतुलन ऐसा जनसांख्यिकीय वातावरण बनाता है जहाँ यौन हिंसा की घटनाएँ अधिक होती हैं।
- अपर्याप्त महिला पुलिस प्रतिनिधित्व: वर्ष 2022 में भारत के पुलिस बल में 11.75% महिला अधिकारी थीं। इस कम प्रतिशत का तात्पर्य है कि यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं को अपने मामलों की रिपोर्ट महिला अधिकारियों को करने में संघर्ष करना पड़ सकता है, जिन्हें अक्सर ऐसे संवेदनशील मुद्दों को संभालने के लिये प्राथमिकता दी जाती है।
- घरेलू दुर्व्यवहार की स्वीकार्यता: घरेलू हिंसा का यह सामान्यीकरण यौन हिंसा के प्रति व्यापक सहिष्णुता तक विस्तारित होने के साथ नकारात्मक व्यवहार पैटर्न को मज़बूत करता है और पीड़ितों द्वारा सहायता मांगने या पर्याप्त समर्थन प्राप्त करने की संभावना को कम करता है।
- अनैतिक व्यवहार के लिये पीड़ितों को दोषी ठहराना: "अनैतिक" माने जाने वाले व्यवहार (जैसे- शराब पीना या देर रात तक बाहर घूमना) में लिप्त महिलाओं को उनके साथ होने वाले हमलों के लिये अनुचित रूप से दोषी ठहराया जाता है, जो व्यापक सामाजिक मुद्दों को दर्शाता है।
- यह दोष उस प्रवृत्ति को बनाए रखता है जो महिलाओं को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करने में विफल रहती है, जिससे बलात्संग संबंधी अपराधों में वृद्धि होती है।
- कुछ व्यक्तियों का मानना है कि महिलाएँ अपने व्यवहार में बदलाव लाकर यौन उत्पीड़न और हिंसा से बच सकती हैं।
- मौन बने रहने की सलाह: पीड़ितों को अक्सर सामाजिक निर्णय और व्यक्तिगत शर्मिंदगी के डर से अपने साथ हुए उत्पीड़न की रिपोर्ट न करने की सलाह दी जाती है। यह चुप्पी अपराधियों की रक्षा करती है तथा दुर्व्यवहार के चक्र को जारी रखती है।
भारत में बलात्संग की दोषसिद्धि दर इतनी कम क्यों है?
- कम दोषसिद्धि दर: रिपोर्ट किये गए बलात्संग की संख्या चिंताजनक रूप से अधिक (2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान गिरावट को छोड़कर) बनी हुई है (वर्ष 2012 से वार्षिक रिपोर्ट में लगातार 30,000 से अधिक मामलों को दर्ज किया जा रहा है)।
- वर्ष 2022 में बलात्संग के 31,000 से ज़्यादा मामले दर्ज किये गए, जो इस मुद्दे की गंभीरता को दर्शाते हैं। सख्त कानूनों के बावजूद बलात्संग के लिये सज़ा की दर कम (जो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार वर्ष 2018 से 2022 तक 27%-28% के बीच रही है) रही है।
- संस्थागत मुद्दे: रिश्वतखोरी और दुर्व्यवहार के साथ विधिक तथा कानून प्रवर्तन प्रणालियों में भ्रष्टाचार से बलात्संग के मामलों को सुलझाने में बाधा आती है।
- बलात्संग की कई घटनाएँ प्रतिशोध के भय, व्यवस्था में विश्वास की कमी या विधिक प्रक्रिया की अप्रभावीता के कारण रिपोर्ट नहीं की जाती हैं।
- सामाजिक-सांस्कृतिक कारक: सामाजिक दृष्टिकोण से पीड़ितों पर अनुचित जाँच-पड़ताल का दबाव पड़ता है, जिसके कारण पीड़ित को ही दोषी ठहराया जाता है और उन्हें न्याय पाने से हतोत्साहित किया जाता है।
- सामाजिक अस्वीकृति और कलंक के भय से पीड़ित विधिक प्रक्रिया से अलग रह सकते हैं।
- असंगत कानून प्रवर्तन: भारत में बलात्संग संबंधी कानूनों की प्रभावशीलता असंगत कानून प्रवर्तन के कारण कम हो जाती है, जिससे न्यायसंगत प्रवर्तन में बाधा उत्पन्न होती है।
- BNS, 2023 में पुरुषों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ यौन अपराधों की पर्याप्त रूप से व्याख्या नहीं की गई है, जो विधिक ढाँचे में महत्त्वपूर्ण अंतर तथा देश भर में सुसंगत एवं समावेशी कानून प्रवर्तन सुनिश्चित करने से संबंधित चुनौती को दर्शाता है।
- भारत में वैवाहिक बलात्संग को अपराध नहीं माना जाता है, जिसका समर्थन विवाह की पवित्रता की पुरानी धारणाओं द्वारा किया जाता है। यह विधिक उदासीनता एक ऐसी प्रवृत्ति को बनाए रखती है जहाँ विवाह में सहमति को अक्सर अनदेखा किया जाता है, जिससे बलात्संग की जटिलता व्यापक होती है।
- अपर्याप्त साक्ष्य संग्रहण और जाँच से मामले कमज़ोर हो सकते हैं, जिससे दोषसिद्धि सुनिश्चित करना कठिन हो जाता है।
- पुलिस बल में भ्रष्टाचार और अकुशलता से इन मुद्दों को बढ़ावा मिल सकता है, जिसके परिणामस्वरूप जाँच में अनियमितता हो सकती है।
- उदाहरण: वर्ष 2020 के हाथरस मामले में पुलिस की गंभीर खामियाँ उजागर हुईं, जिसमें देरी से कार्रवाई और सबूतों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना शामिल है, जिससे जाँच प्रक्रियाओं में प्रणालीगत मुद्दे उजागर हुए।
- अप्रभावी विधिक सहायता: बलात्संग के कई पीड़ितों को पर्याप्त मनोवैज्ञानिक, विधिक या चिकित्सीय सहायता नहीं मिल पाती है, जिससे न्याय पाने की उनकी क्षमता पर प्रभाव पड़ सकता है।
- मज़बूत समर्थन प्रणालियों के अभाव में न्याय पाने की प्रक्रिया अधिक कठिन हो सकती है तथा दोषसिद्धि की संभावना कम हो सकती है।
- न्यायिक प्रणाली पर अतिभार: भारतीय न्यायिक प्रणाली में मामलों की अधिकता बनी रहती है, जिसके कारण न्याय में देरी होने के साथ न्याय की गुणवत्ता से समझौता हो सकता है।
- कार्यभार के अत्यधिक बोझ से न्यायालय प्रत्येक मामले पर अपेक्षित ध्यान नहीं दे पाते हैं, जिससे समग्र मामले के परिणाम प्रभावित हो सकते हैं।
- न्यायिक कार्यवाही की धीमी गति से न्याय मिलने में देरी होती है। मुकदमों में देरी से सबूत और गवाहों की प्रभावशीलता कम हो सकती है, जिससे सज़ा मिलने की संभावना कम हो जाती है।
- उदाहरण: निर्भया मामले की त्वरित सुनवाई होने के बावजूद, निष्कर्ष तक पहुँचने में सात वर्ष से अधिक का समय लग गया, जो न्याय व्यवस्था की अक्षमताओं को दर्शाता है।
बलात्संग के बढ़ते मामलों के क्या निहितार्थ हैं?
- प्रतिबंध और सुरक्षा चिंताएँ: सामाजिक मानदंडों और सुरक्षा चिंताओं के कारण महिलाओं को पहले से ही अपनी आवाजाही तथा स्वतंत्रता पर काफी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है।
- बलात्संग के बढ़ते मामलों के कारण उनकी स्वतंत्रता और भी सीमित हो जाती है, क्योंकि हिंसा के भय से उनकी यात्रा करने तथा लोक जीवन में भाग लेने की क्षमता बाधित होती है।
- कार्यस्थल की गतिशीलता पर प्रभाव: कार्यस्थलों पर बढ़ते यौन अपराध महिलाओं के कॅरियर में बाधक बन सकते हैं, जिससे कंपनियों में लैंगिक विविधता प्रभावित हो सकती है।
- यदि कार्यस्थल पर सुरक्षा और उत्पीड़न के मुद्दों का समुचित समाधान नहीं किया गया तो कंपनियों को महिला कर्मचारियों की भर्ती करने तथा उन्हें बनाये रखने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।
- बलात्संग से बचे लोगों को आघात या कलंक के कारण रोज़गार बनाए रखने या कॅरियर के अवसरों का लाभ उठाने में चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
- आर्थिक परिणाम: जीवित बचे लोगों के लिये चिकित्सा उपचार और मनोवैज्ञानिक सहायता की आवश्यकता से स्वास्थ्य देखभाल की लागत बढ़ जाती है।
- ये खर्च सार्वजनिक स्वास्थ्य संसाधनों पर दबाव डाल सकते हैं तथा व्यक्तियों और परिवारों की आर्थिक स्थिरता को प्रभावित कर सकते हैं।
- यौन हिंसा का आर्थिक प्रभाव परिवारों और समुदायों तक विस्तारित है, जिससे समग्र उत्पादकता प्रभावित हो सकती है।
- विश्वास का क्षरण: बलात्संग की व्यापकता, विधि प्रवर्तन और न्याय प्रणाली में लोगों के विश्वास को कम कर सकती है, जिससे असुरक्षा की भावना उत्पन्न हो सकती है।
- लैंगिक रूढ़िवादिता को बल मिलना: बलात्संग के बढ़ते मामले नकारात्मक लैंगिक रूढ़िवादिता और भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण को बल देने एवं लैंगिक असमानता को बनाए रखने के साथ महिलाओं के अवसरों को सीमित कर सकते हैं।
आगे की राह
- विधिक सुधार: साक्ष्य बताते हैं कि मृत्युदंड जैसी कठोर सज़ा यौन हिंसा को रोकने में सक्षम नहीं हैं। भारत में बलात्संग के मामलों में सज़ा की दर 30% से कम है, इसलिये वास्तविक मुद्दा सज़ा की कठोरता के बजाय न्यायिक प्रक्रिया की दक्षता और निष्पक्षता में निहित है।
- इसके अतिरिक्त संभावित अपराधियों को रोकने के लिये बलात्संग के परिणामों और उससे संबंधित दंड के बारे में जागरूकता अभियान बढ़ाने चाहिये, क्योंकि बहुत से लोग विधिक परिणामों के बारे में जागरूक नहीं हैं।
- वर्ष 2013 की न्यायमूर्ति वर्मा समिति की रिपोर्ट को लागू करते हुए (जिसमें बलात्संग अपराधों से निपटने के लिये पुलिस सुधार और वैवाहिक बलात्संग के अपराधीकरण सहित महत्त्वपूर्ण सुधारों की सिफारिश की गई थी) अन्य सिफारिशों पर भी ध्यान देना चाहिये।
- इसके अतिरिक्त संभावित अपराधियों को रोकने के लिये बलात्संग के परिणामों और उससे संबंधित दंड के बारे में जागरूकता अभियान बढ़ाने चाहिये, क्योंकि बहुत से लोग विधिक परिणामों के बारे में जागरूक नहीं हैं।
- सामाजिक दृष्टिकोण बदलना: सहमति और सम्मानजनक व्यवहार के बारे में समाज को शिक्षित करना महत्त्वपूर्ण है। इसमें बलात्संग को नकारना तथा पीड़ित को दोषी ठहराने वाले दृष्टिकोण को चुनौती देना शामिल है। पीड़ितों के लिये सहानुभूति और समर्थन को बढ़ावा देने से सार्वजनिक धारणाओं को बदलने में मदद मिल सकती है।
- मीडिया की ज़िम्मेदारी: मीडिया आउटलेट्स को महिलाओं के प्रदर्शन को लेकर जवाबदेह ठहराया जाना चाहिये। महिलाओं को वस्तु के रूप में प्रस्तुत करने या उनका अपमान करने वाली सामग्री की आलोचना की जानी चाहिये और उसे विनियमित किया जाना चाहिये।
- स्वास्थ्य/यौन शिक्षा: स्कूलों और कॉलेजों में व्यापक यौन शिक्षा कार्यक्रम शामिल किये जाने चाहिये। इस शिक्षा में सहमति, सम्मान तथा पोर्नोग्राफी के हानिकारक प्रभावों पर ध्यान दिया जाना शामिल है।
- पीड़ितों के लिये सहायता: पीड़ितों के लिये एक सहायक वातावरण बनाना बहुत ज़रूरी है, जहाँ उन्हें दोषी न ठहराया जाए या उन पर दोष न लगाया जाए। मानसिक स्वास्थ्य संसाधन और विधिक सहायता प्रदान करने से पीड़ितों को न्याय पाने में मदद मिल सकती है।
निष्कर्ष
बलात्संग एक गंभीर अपराध है जो व्यक्तियों को नुकसान पहुँचाने के साथ सामाजिक मूल्यों और सुरक्षा को नष्ट करता है। भारत का विधिक ढाँचा पीड़ितों की सुरक्षा करने पर केंद्रित है लेकिन फिर भी महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ बनी रहती हैं। एक सुरक्षित समाज को बढ़ावा देने के लिये विधियों को सख्ती से लागू करना, लोगों को शिक्षित करना और यौन हिंसा के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण को बदलना महत्त्वपूर्ण है। पीड़ितों के लिये न्याय सुनिश्चित करना तथा अपराधियों को जवाबदेह ठहराना, सभी महिलाओं के लिये अधिक न्यायपूर्ण एवं सुरक्षित वातावरण सुनिश्चित करने हेतु महत्त्वपूर्ण हैं।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत में बलात्संग के मामलों में वृद्धि के मद्देनजर इससे संबंधित विधिक सुधारों के प्रभाव का मूल्यांकन कीजिये। सज़ा दरों को तार्किक करने एवं प्रणालीगत मुद्दों से निपटने के साथ बेहतर उत्तरजीविता हेतु सामाजिक दृष्टिकोण को बदलने के क्रम में आवश्यक रणनीतियों को बताइये। |
और पढ़ें: भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)मेन्सQ. हम देश में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों में वृद्धि देख रहे हैं। इसके खिलाफ मौजूदा विधिक प्रावधानों के बावजूद ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ रही है। इस खतरे से निपटने के लिये उचित उपाय सुझाइये। (2014) |
हैदराबाद के विलय की 76वीं वर्षगाँठ
प्रिलिम्स के लिये:हैदराबाद का विलय, ऑपरेशन पोलो, सरदार वल्लभभाई पटेल , रियासतें, भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस, संयुक्त राष्ट्र, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय, संविधान सभा, ब्रिटिश सर्वोच्चता। मेन्स के लिये:हैदराबाद और अन्य रियासतों का भारतीय संघ में एकीकरण, एकीकरण प्रक्रिया में विभिन्न नेताओं की भूमिका। |
स्रोत: डेक्कन हेराल्ड
चर्चा में क्यों?
17 सितंबर, 2024 को हैदराबाद के स्वतंत्र भारत में विलय की 76वीं वर्षगाँठ मनाई गई।
- हैदराबाद को भारतीय संघ के लिये सुरक्षा खतरा बनने से रोकने के लिये ऑपरेशन पोलो शुरू किया गया था ।
हैदराबाद के भारत में विलय से संबंधित प्रमुख तथ्य क्या हैं?
- हैदराबाद की पृष्ठभूमि: हैदराबाद दक्षिण भारत में एक बड़ी स्थल-रुद्ध रियासत थी जिसमें वर्तमान तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र का मराठवाड़ा क्षेत्र शामिल था।
- इसकी अधिकांश जनसंख्या हिंदू (87%) थी जबकि इसके शासक निज़ाम उस्मान अली खान मुस्लिम थे, जिन्हें मुस्लिम अभिजात वर्ग का समर्थन प्राप्त था।
- निज़ाम और इत्तेहादुल मुस्लिमीन (अखिल भारतीय मुस्लिम एकता परिषद) ने हैदराबाद की स्वतंत्रता के लिये प्रयास किया तथा वे चाहते थे कि यह राज्य भारत तथा पाकिस्तान के बराबर स्वायत्त हो।
- निज़ाम द्वारा स्वतंत्रता की घोषणा: जून 1947 में निज़ाम उस्मान अली खान ने एक फरमान जारी कर ब्रिटिश द्वारा भारत को सत्ता हस्तांतरण के बाद हैदराबाद के स्वतंत्र रहने के इरादे की घोषणा की थी।
- भारत ने इसे यह कहते हुए खारिज कर दिया कि हैदराबाद का स्थान भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण है।
- इस आलोक में अस्थायी स्टैंडस्टिल समझौते (यथास्थिति बनाए रखने के लिये) पर हस्ताक्षर किये गए, लेकिन हैदराबाद फिर भी भारत में शामिल नहीं हुआ।
- हैदराबाद की स्वतंत्रता की ओर कदम: निज़ाम ने पाकिस्तान को 200 मिलियन रुपए दिये थे तथा वहाँ एक बमवर्षक स्क्वाड्रन तैनात किया था, जिससे भारतीयों में संदेह की भावना और भी प्रबल हुई।
- हैदराबाद ने भारतीय मुद्रा पर प्रतिबंध लगा दिया तथा पाकिस्तान से हथियार आयात किये और अपनी सैन्य शक्ति का विस्तार किया।
- आस्ट्रेलियाई एविएटर सिडनी कॉटन को निज़ाम ने हैदराबाद में हथियारों की तस्करी के लिये रखा था।
- रजाकारों की भूमिका: रजाकार, इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (अखिल भारतीय मुस्लिम एकता परिषद) से संबद्ध मिलिशिया थे, जिसका नेतृत्व कासिम रजवी करते थे तथा ये मुस्लिम शासक वर्ग को किसी भी विद्रोह से बचाने के लिये कार्य करते थे।
- रजाकारों द्वारा हिंदुओं के विरुद्ध अत्याचारों सहित विपक्ष का हिंसक दमन करने से तनाव और भी बढ़ गया।
- उन्होंने उन हैदराबादी मुसलमानों को भी लक्ष्य बनाया जो भारत में विलय के पक्ष में थे।
- राजनीतिक आंदोलन: आंतरिक रूप से हैदराबाद को तेलंगाना में कम्युनिस्ट विद्रोह का सामना करना पड़ा। यह एक किसान विद्रोह था जिसे निज़ाम रोक नहीं सका, जिससे उसकी स्थिति और कमज़ोर हो गई।
- अंतर्राष्ट्रीय अपील: निज़ाम ने ब्रिटिश समर्थन मांगा और बाद में इसमें अभारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस से संबद्ध हैदराबाद राज्य कॉन्ग्रेस ने भारत में हैदराबाद के एकीकरण हेतु राजनीतिक आंदोलन शुरू किया था।
- मेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन तथा संयुक्त राष्ट्र को शामिल करने का प्रयास किया, लेकिन उनके प्रयास असफल रहे।
- अगस्त 1948 में माउंटबेटन द्वारा बातचीत के माध्यम से समाधान के प्रयास विफल होने के बाद , निज़ाम ने आसन्न भारतीय आक्रमण की आशंका के चलते संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में अपील की।
- ऑपरेशन पोलो (हैदराबाद पुलिस कार्रवाई): निज़ाम के साथ वार्ता का हल न निकलने के कारण सरदार पटेल चिंतित हो रहे थे।
- 13 सितंबर, 1948 को भारतीय सेना ने आंतरिक कानून और व्यवस्था की चिंताओं का हवाला देते हुए हैदराबाद में सैन्य अभियान “ऑपरेशन पोलो” शुरू किया।
- इसे "पुलिस कार्रवाई" कहा गया क्योंकि यह भारत का आंतरिक मामला था।
- 17 सितंबर, 1948 को निज़ाम ने प्रधानमंत्री मीर लाइक अली और उनके मंत्रिमंडल को बर्खास्त करके औपचारिक रूप से आत्मसमर्पण कर दिया।
हैदराबाद के भारत में विलय का क्या महत्त्व है?
- भारत की एकता और अखंडता: निज़ाम और रजाकारों के विरोध के बावजूद हैदराबाद के भारत में एकीकरण से भारतीय संघ की एकता, अखंडता एवं स्थिरता मज़बूत हुई।
- पंथनिरपेक्षता की जीत: यह न केवल एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक जीत थी बल्कि पंथनिरपेक्षता की भी जीत थी, क्योंकि इसमें भारत के साथ एकीकरण के क्रम में भारतीय मुसलमानों का समर्थन भी उजागर हुआ।
- भारत के पक्ष में भारतीय मुसलमानों की भागीदारी से पूरे देश में सकारात्मक प्रभाव पड़ा।
- आगे के संकट को रोका जाना: चल रही वार्ता के बावजूद हैदराबाद की सरकार ने संघर्ष की तैयारी करते हुए हथियारों का आयात जारी रखा।
- तत्काल सैन्य कार्रवाई से उग्रवाद जैसी स्थिति को रोका जा सका, जो विदेशी शक्तियों की मदद से दशकों तक रह सकती थी।
- बल प्रयोग: हथियारों के आयात और विदेशी शक्तियों की भागीदारी ने भारत के लिये हैदराबाद मुद्दे को हल करने की तात्कालिकता को बढ़ा दिया, जिसे अब एक संभावित सुरक्षा खतरे के रूप में देखा जा रहा था।
- ऑपरेशन पोलो से प्रदर्शित हुआ कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों के लिये बल प्रयोग करने से पीछे नहीं हटेगा।
- भारत की सफल कूटनीति: इससे भारत की कूटनीतिक और सैन्य रणनीतियों का संयोजन (विशेष रूप से हथियारों की आपूर्ति को रोकना) प्रदर्शित हुआ।
- उदाहरण के लिये, लंदन में तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त वी.के. कृष्ण मेनन के प्रयासों से हैदराबाद में हथियारों को सीमित किया गया था।
रियासतों के एकीकरण में सरदार पटेल की क्या भूमिका थी?
- अंतरिम सरकार में भूमिका (2 सितंबर, 1946): सरदार पटेल को गृह, राज्य और सूचना एवं प्रसारण विभाग आवंटित किये गये, जिससे स्वतंत्रता से पूर्व ही भारत के प्रशासन में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका देखी गई।
- नेहरू की स्वीकृति: स्वतंत्रता से दो सप्ताह पूर्व (1 अगस्त, 1947 को) जवाहरलाल नेहरू ने पटेल को अपने मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिये आमंत्रित किया और उन्हें "मंत्रिमंडल का सबसे मज़बूत स्तंभ" बताया।
- लॉर्ड माउंटबेटन के साथ सहयोग: पटेल एवं माउंटबेटन ने मिलकर कार्य किया तथा राजकुमारों को भारत में विलय के लिये सहमत करने में कूटनीति और दबाव का उपयोग किया।
- उन्होंने रियासतों को स्वतंत्र अस्तित्व के खतरों के प्रति आगाह किया।
- राज्य विभाग का गठन (5 जुलाई, 1947): पटेल ने राज्य विभाग का गठन किया और वी.पी. मेनन को इसका सचिव नियुक्त किया।
- इस विभाग का उद्देश्य रक्षा, विदेशी मामलों और संचार में राज्यों के हितों को सुरक्षित करना तथा साझा हितों के लिये स्थिर समझौतों को बनाए रखना था।
- प्रलोभन और दंडात्मक दृष्टिकोण: विलय के लिये बातचीत करने का दायित्व पटेल पर था, उन्होंने दबाव तथा आश्वासन के बीच संतुलन बनाते हुए एक समझौतापूर्ण एवं कूटनीतिक रुख अपनाया।
- उदाहरण के लिये, भारत ने जूनागढ़ के लिये अपनी सभी सीमाएँ बंद कर दीं और वस्तुओं तथा डाक की आवाजाही पर रोक लगा दी, जिसके कारण जूनागढ़ को भारत सरकार के साथ समझौता हेतु उसे आमंत्रित करना पड़ा।
- बाद में जनमत संग्रह कराया गया जिसमें 99% लोगों ने भारत में शामिल होने के पक्ष में मतदान किया।
- उदाहरण के लिये, भारत ने जूनागढ़ के लिये अपनी सभी सीमाएँ बंद कर दीं और वस्तुओं तथा डाक की आवाजाही पर रोक लगा दी, जिसके कारण जूनागढ़ को भारत सरकार के साथ समझौता हेतु उसे आमंत्रित करना पड़ा।
- मैत्री और समानता के लिये अपील: पटेल ने शासकों को स्वतंत्र भारत में मित्र के रूप में शामिल होने के लिये आमंत्रित किया तथा इस बात पर बल दिया कि अलग-अलग संस्थाओं के रूप में संधियाँ करने की अपेक्षा, मिलकर कानून बनाना बेहतर है।
- भारत के भूभाग पर एकीकरण का प्रभाव: विभाजन के दौरान भारत को 3.6 लाख वर्ग मील क्षेत्र और 81.5 मिलियन लोगों को खोना पड़ा लेकिन रियासतों के एकीकरण के माध्यम से 5 लाख वर्ग मील क्षेत्र तथा 86.5 मिलियन लोगों के रूप में इसकी भरपाई हुई।
रियासतों के एकीकरण में अन्य नेतृत्वकर्त्ताओं की क्या भूमिका थी?
- लॉर्ड माउंटबेटन: माउंटबेटन ने अनिच्छुक भारतीय रियासतों के शासकों को भारतीय संघ में विलय के लिये सहमत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- रियासतों के शासकों का यह मानना था कि माउंटबेटन ही इस बात की गारंटी दे सकते थे कि स्वतंत्र भारत में समझौतों का पालन किया जा सकेगा क्योंकि उन्हें भारत का पहला गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया था।
- जे.एल. नेहरू: नेहरू के दृष्टिकोण को लेकर रियासतों के शासक सहमत नही थे।
- जनवरी 1947 में उन्होंने राजत्व के दैवीय अधिकार को अस्वीकार कर दिया और मई 1947 तक उन्होंने घोषणा कर दी कि जो भी रियासत संविधान सभा में शामिल होने से इनकार करेगी, उसके साथ शत्रु राज्य जैसा व्यवहार किया जाएगा ।
- सी. राजगोपालाचारी: इन्होनें तर्क दिया कि रियासतों पर ब्रिटिश नियंत्रण यथास्थिति पर आधारित था, किसी समझौते पर नहीं, इसलिये यह स्वाभाविक है कि ब्रिटिश उत्तराधिकारी के रूप में रियासतें स्वतंत्र भारत को हस्तांतरित हो जाएँगी।
- एक संगठन के रूप में कॉन्ग्रेस : कॉन्ग्रेस ने ज़ोर देकर कहा कि रियासतें संप्रभु संस्थाएँ नहीं थीं और ब्रिटिश सर्वोच्चता समाप्त होने के बाद वे स्वतंत्रता का विकल्प नहीं चुन सकती थीं।
निष्कर्ष
562 रियासतों को भारत में एकीकृत करने में सरदार वल्लभभाई पटेल की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी, जिसमें कूटनीति और निर्णायक कार्रवाई का मिश्रण शामिल था। ऑपरेशन पोलो ने हैदराबाद के विलय को सुरक्षित किया, जिससे 212,000 वर्ग किलोमीटर तथा17 मिलियन लोग जुड़ गए। सरकारी आँकड़े, विभाजन के बाद भारत के क्षेत्रफल को 5 लाख वर्ग किलोमीटर तक विस्तृत करने में पटेल के प्रयासों को उजागर करते हैं, जो कि "भारत के लौह पुरुष" के रूप में उनकी भूमिका को स्थापित करते हैं।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: वर्ष 1948 में हैदराबाद के भारत में विलय के महत्त्व का मूल्यांकन कीजिये। ऑपरेशन पोलो के माध्यम से हैदराबाद के सफल एकीकरण में सरदार पटेल की भूमिका का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न: भारतीय इतिहास के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2021)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये- (a) 1 और 2 उत्तर:(a) प्रश्न. वर्ष 1931 में सरदार पटेल की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के कराची अधिवेशन हेतु मौलिक अधिकारों और आर्थिक कार्यक्रम पर संकल्प का मसौदा किसके द्वारा तैयार किया गया? (2010) (a) महात्मा गांधी उत्तर: (b) |
LAC से भारत-चीन सैनिकों की वापसी
प्रिलिम्स के लिये :वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC), डेपसांग मैदान, गलवान घाटी, पैंगोंग त्सो, ब्रिक्स, सियाचिन ग्लेशियर, अक्साई चिन, दारबुक-श्योक-डीबीओ रोड, G-20। मेन्स के लिये :भारत-चीन सीमा विवादों का प्रबंधन, सीमा विवादों के समाधान हेतु रोडमैप। |
स्रोत: TH
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के विदेश मंत्री ने कहा कि लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर चीन के साथ लगभग 75% सैनिकों की वापसी संबंधी समस्याओं को सुलझा लिया गया है।
- हालाँकि डेमचोक और डेपसांग मैदानी क्षेत्र में पिछले दो वर्षों में समस्या के समाधान की दिशा में कोई प्रगति देखने को नहीं मिली है।
LAC पर भारत-चीन के बीच सैनिकों की वापसी के संबंध में हाल ही में क्या घटनाक्रम हुए हैं?
- सत्यापित वापसी: भारत और चीन दोनों ने गैलवान घाटी, पैंगोंग सो तथा गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स सहित पाँच संघर्ष बिंदुओं से पीछे हटने को लेकर पारस्परिक सहमति व्यक्त की है एवं सत्यापित वापसी की है।
- हालाँकि डेमचोक और डेपसांग का मुद्दा अभी भी अनसुलझा है।
- सैनिकों की वापसी का कारण: हाल ही में उच्च स्तरीय राजनयिक वार्ता के परिणामस्वरूप LAC पर सैनिकों की वापसी का निर्णय लिया गया है।
- भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में ब्रिक्स NSA की बैठक के दौरान चीनी विदेश मंत्री वांग यी से मुलाकात की।
- साथ ही आशा की जा रही है कि आगे भविष्य में भी और अधिक सैनिकों के पीछे हटने की कार्रवाई देखी जा सकती है तथा ऐसा आकलन आगामी ब्रिक्स शिखर सम्मेलन जो कि रूस के कज़ान में अक्तूबर में होगा, में दोनों देशों (भारत -चीन) के नेतृत्वकर्त्ताओं के मध्य होने वाली वार्ता के आधार पर लागाया जा रहा है।
- सैनिकों की वापसी का महत्त्व: भारत-चीन सीमा मामले पर परामर्श और समन्वय के लिये कार्य तंत्र (WMCC) की 31वीं बैठक को “स्पष्ट, रचनात्मक तथा दूरदर्शी” बताया गया एवं पक्षों से “मतभेदों को कम करने” व “शेष मुद्दों का शीघ्र समाधान निकालने” का आग्रह किया गया है।
- सीमा गतिरोध पर द्विपक्षीय वार्ता में पहली बार "मतभेदों को कम करना" पद का इस्तेमाल किया गया एवं भविष्य में भी गतिरोध कम होना आशंका है।
सैनिकों की वापसी से संबंधित चुनौतियाँ:
-
- अवरुद्ध वार्ताएँ: कई दौर की वार्ताओं के बावजूद डेमचोक और डेपसांग पर समझौते नहीं हो पाए हैं।
- सैन्य निर्माण: भारत और चीन दोनों ने 3,488 किलोमीटर लंबी LAC पर बुनियादी ढाँचे का विकास तथा सैन्य तैनाती जारी रखी है।
- दोनों देशों के लगभग 50,000-60,000 सैनिक वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तैनात हैं।
- गतिरोध बढ़ने की आशंका: चीन द्वारा बड़े पैमाने पर बुनियादी ढाँचे और नए हथियारों के निर्माण ने यथास्थिति को मौलिक रूप से बदल दिया है। भारत ने भी इसी तरह के बुनियादी ढाँचे एवं क्षमता वृद्धि के साथ उत्तर दिया है।
- किसी भी भ्रामकता की स्थिति में सैन्य क्षमताओं में वृद्धि तेज़ हो सकती है।
डेपसांग मैदान और डेमचोक का सामरिक महत्त्व क्या है?
- डेपसांग मैदान: डेपसांग मैदान रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है, क्योंकि PLA के नियंत्रण से सियाचिन ग्लेशियर पर भारत के नियंत्रण को खतरा है, जिससे भारतीय सेना चीन और पाकिस्तान दोनों से घिर जाती है।
- चीन और पाकिस्तान के दोहरे हमले की स्थिति में सियाचिन ग्लेशियर पर भारत की सैन्य स्थिति अत्यंत कमज़ोर हो जाएगी।
- यहाँ मौजूद समतल भूमि के कारण भारतीय सेना इसे लद्दाख में सबसे सुभेद्य क्षेत्र के रूप में निर्देशित करती है, जो मशीनी युद्ध के लिये उपयुक्त है और अक्साई चिन क्षेत्र तक सीधी पहुँच प्रदान करता है।
- डेमचोक: डेमचोक पर नियंत्रण अक्साई चिन क्षेत्र में चीनी गतिविधियों और हलचलों पर प्रभावी निगरानी की अनुमति देता है।
- यह सड़क और संचार संपर्क को बढ़ावा देता है जो त्वरित सैन्य लामबंदी तथा सैन्य सहायता के लिये आवश्यक है।
भारत एवं चीन के मध्य गतिरोध के प्रमुख क्षेत्र कौन-से हैं?
- पैंगोंग झील क्षेत्र: इस क्षेत्र में भारत और चीन की सेनाओं द्वारा गश्त की जाती है।
- झील के उत्तरी किनारे को 8 फिंगर्स में विभाजित किया गया है। भारत फिंगर 8 तक अपना क्षेत्र होने का दावा करता है जबकि चीन का मानना है कि इसका क्षेत्र केवल फिंगर 4 तक है।
- झील में उभरी हुई पर्वत चोटियों को सैन्य भाषा में 'फिंगर्स' कहा जाता है।
- झील के उत्तरी किनारे को 8 फिंगर्स में विभाजित किया गया है। भारत फिंगर 8 तक अपना क्षेत्र होने का दावा करता है जबकि चीन का मानना है कि इसका क्षेत्र केवल फिंगर 4 तक है।
- डेमचोक क्षेत्र: इस क्षेत्र में चीनी गतिविधि और भारी उपकरणों के स्थान्तारण की सूचना मिली है।
- गलवान नदी बेसिन: उपग्रह चित्रों में गलवान नदी बेसिन के निकट चीनी टेंटों को देखा गया है, जो पारंपरिक रूप से भारतीय सैन्य कब्ज़े वाले क्षेत्रों में चीनी घुसपैठ का संकेत देते हैं।
- गोगरा पोस्ट: गोगरा पोस्ट के निकट चीनी सैन्य निर्माण ने गतिरोध को बढ़ाया है।
- दौलत बेग ओल्डी (DBO): चीन ने भारतीय सीमा में स्थित दौलत बेग ओल्डी (DBO) क्षेत्र में अतिक्रमण किया।
- भारत के लिये शीतकालीन अभियानों हेतु महत्त्वपूर्ण DBO हवाई पट्टी तक 255 किलोमीटर लंबी दारबुक-श्योक-DBO सड़क मार्ग से पहुँचा जा सकता है।
LAC पर चीन की आक्रामकता का कारण?
- बुनियादी ढाँचे के प्रति संवेदनशीलता: चीन का आक्रामक रुख भारत के हालिया बुनियादी ढाँचे (जिसे एक खतरे के रूप में या भारत के रणनीतिक सुधारों का पहले से ही मुकाबला करने के रूप में देखा जा सकता है) के विकास से प्रभावित हो सकता है।
- दबाव डालना: चीन की कार्रवाई का उद्देश्य भारत पर दबाव डालना हो सकता है।
- ऐतिहासिक रूप से दोनों देशों की रेड लाइन्स स्पष्ट थीं लेकिन वर्तमान में कई घुसपैठें भारत पर दबाव बनाने की रणनीति का संकेत देती हैं।
- वुल्फ-वाॅरियर कूटनीति: चीन का आक्रामक कूटनीतिक रुख (जिसे "वुल्फ-वाॅरियर कूटनीति" के रूप में जाना जाता है) वास्तविक नियंत्रण रेखा पर उसके सैन्य दृष्टिकोण में देखा जा सकता है।
- यह चीनी राजनयिकों द्वारा अपनाई गई सार्वजनिक कूटनीति का टकरावपूर्ण रूप है।
- लाभ उठाने की रणनीति: सीमावर्ती क्षेत्रों में सक्रियता को बढ़ाना, द्विपक्षीय संबंधों और G-20 तथा ब्रिक्स जैसे अन्य मुद्दों पर भारत से लाभ उठाने की चीन की व्यापक रणनीति का हिस्सा हो सकता है।
- आर्थिक और कूटनीतिक दबाव: कोविड-19 महामारी तथा वुहान में इसकी उत्पत्ति के कारण आर्थिक कठिनाइयों एवं तनावपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के बीच शक्ति प्रदर्शन की आवश्यकता से चीन की कार्रवाइयाँ प्रभावित हो सकती हैं।
चीन-भारत सीमा विवाद को सुलझाने के लिये क्या किया जा सकता है?
- LAC का निर्धारण: LAC को स्पष्ट करने के प्रयास फिर से शुरू होने चाहिये। इससे ओवरलैपिंग वाले क्षेत्रों में संभावित टकराव से बचा जा सकेगा।
- बफर ज़ोन: मौजूदा बफर ज़ोन को स्थायी बनाने और लगातार गतिरोध वाले क्षेत्रों में नए बफर ज़ोन बनाने पर विचार करना चाहिये। दोनों पक्षों को इन बफर ज़ोन की रक्षा के लिये तैयार रहना चाहिये।
- समझौतों का पालन करना: संघर्षों पर प्रतिबंध सहित मौजूदा द्विपक्षीय समझौतों का पालन करना जारी रखना चाहिये तथा प्रतिबद्धताओं की पुष्टि के लिये संयुक्त सार्वजनिक निर्देश जारी करने चाहिये।
- नो-पैट्रोल ज़ोन: विवादित क्षेत्रों में नो-पैट्रोल ज़ोन स्थापित करने चाहिये।
- ड्रोन उपयोग: खुफिया जानकारी जुटाने, निगरानी और टोही के लिये ड्रोन के उपयोग मापदंडों पर सहमति बनानी चाहिये।
- पारस्परिक सुरक्षा समझौता: "पारस्परिक और समान सुरक्षा के सिद्धांत" के आधार पर सीमा के पास बलों, हथियारों तथा सुविधाओं के स्वीकार्य स्तरों पर समझ तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिये।
- तीसरे पक्ष के संबंधों का प्रभाव: दोनों पक्षों को इस बात के प्रति संवेदनशील होना चाहिये कि तीसरे पक्ष (जैसे- भारत के लिये अमेरिका, चीन के लिये पाकिस्तान) के साथ उनके संबंध दूसरे की धारणाओं और कार्यों को किस प्रकार प्रभावित कर सकते हैं।
निष्कर्ष
औपनिवेशिक काल के निर्णयों में निहित चीन-भारत सीमा विवाद, बढ़ते राष्ट्रवाद और राज्य की मुखरता के कारण तीव्र हो गया है। वर्ष 2020 में लद्दाख क्षेत्र में हुए संघर्षों से यह संबंध कमज़ोर हुए हैं, जिससे आपसी अविश्वास के साथ सैन्य संघर्ष को बढ़ावा मिला है। शांति बनाए रखने के लिये भारत और चीन के संबंधों को बेहतर बनाने के साथ मज़बूत बफर ज़ोन स्थापित करने चाहिये तथा शीर्ष अधिकारियों के बीच संचार में सुधार को महत्त्व देना चाहिये। रणनीतिक प्रतिस्पर्द्धा से सीमा समझौता जटिल होने के साथ उच्च-स्तरीय संवाद आवश्यक हो जाता है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत और चीन भविष्य में गतिरोध को रोकने के लिये संघर्ष प्रबंधन के प्रति अपने दृष्टिकोण में किस प्रकार बदलाव ला सकते हैं? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. 'हैंड-इन-हैंड 2007' संयुक्त आतंकवाद विरोधी सैन्य प्रशिक्षण भारतीय सेना के अधिकारियों और निम्नलिखित में से किस देश की सेना के अधिकारियों द्वारा आयोजित किया गया था? (2008) (a) चीन उत्तर: (a) मेन्सप्रश्न. चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) को चीन की बड़ी 'वन बेल्ट वन रोड' पहल के मुख्य उपसमुच्चय के रूप में देखा जाता है। CPEC का संक्षिप्त विवरण दीजिये और उन कारणों का उल्लेख कीजिये जिनकी वज़ह से भारत ने खुद को इससे दूर किया है। (2018) |
सड़क सुरक्षा पर भारत स्थिति रिपोर्ट 2024
प्रिलिम्स के लिये:सड़क दुर्घटना में मृत्यु , प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) , संयुक्त राष्ट्र का सड़क सुरक्षा के लिये कार्रवाई दशक , विकलांगता-समायोजित जीवन वर्ष (Disability-Adjusted Life Years-DALYs), स्टॉकहोम घोषणा , ग्लोबल बर्डन ऑफ डिज़ीज़ (GBD) अध्ययन , नमूना पंजीकरण प्रणाली (SRS) , मोटर वाहन संशोधन अधिनियम, 2019, सड़क मार्ग द्वारा वहन अधिनियम, 2007 , राष्ट्रीय राजमार्ग नियंत्रण (भूमि और यातायात) अधिनियम, 2000 , भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण अधिनियम, 1998 , वैश्विक लक्ष्य 2030 को प्राप्त करने के लिये सड़क सुरक्षा पर तीसरा उच्च स्तरीय वैश्विक सम्मेलन। मेन्स के लिये:सड़क सुरक्षा 2024 पर भारत स्थिति रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष, भारत में सड़क दुर्घटनाओं में कमी। |
स्रोत: TH
चर्चा में क्यों?
IIT दिल्ली की सड़क सुरक्षा 2024 पर भारत स्थिति रिपोर्ट में सड़क दुर्घटना मृत्यु दर को कम करने के अंतर्राष्ट्रीय लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में भारत की धीमी प्रगति पर प्रकाश डाला गया है।
रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष क्या हैं?
- रिपोर्ट की कार्य पद्धति:
- रिपोर्ट के अंतर्गत भारत में सड़क सुरक्षा का मूल्यांकन किया गया है, जिसमें छह राज्यों (हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख, पंजाब, राजस्थान, उत्तराखंड एवं उत्तर प्रदेश) में दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्टों (FIR) के आँकड़ों के साथ-साथ सड़क सुरक्षा प्रशासन पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के साथ राज्यों के अनुपालन के ऑडिट का उपयोग किया गया है।
- रिपोर्ट के निष्कर्ष:
- विकलांगता-समायोजित जीवन वर्ष (Disability-Adjusted Life Years-DALYs) के अनुसार, वर्ष 2021 में सड़क यातायात दुर्घटनाएँ भारत में मृत्यु दर का 13वाँ प्रमुख कारण और रोग्यता का 12वाँ प्रमुख कारण थीं।
- राज्य में सड़क यातायात दुर्घटनाएँ रोग्यता के लिये शीर्ष 10 कारणों में शामिल हैं।
- सड़क सुरक्षा में राज्यों का प्रदर्शन:
- भारत में सड़क सुरक्षा के संदर्भ में मौजूद व्यापक क्षेत्रीय भिन्नता है तथा विभिन्न राज्यों में प्रति व्यक्ति सड़क यातायात मृत्यु दर में तीन गुना से अधिक का अंतर है।
- तमिलनाडु (21.9), तेलंगाना (19.2) और छत्तीसगढ़ (17.6) में प्रति 1,00,000 व्यक्तियों पर सबसे अधिक मृत्यु दर दर्ज की गई।
- पश्चिम बंगाल और बिहार में वर्ष 2021 में सबसे कम दर 5.9 प्रति 1,00,000 थी।
- उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान और तमिलनाडु में सड़क यातायात से होने वाली कुल मौतों में से लगभग 50% मौतें यहाँ होती हैं।
- रिपोर्ट में पैदल यात्रियों, साइकिल चालकों और मोटर चालित दोपहिया वाहन चालकों को सबसे अधिक असुरक्षित सड़क उपयोगकर्त्ता बताया गया है, जबकि ट्रकों के कारण सबसे अधिक दुर्घटनाएँ होती हैं।
- हेलमेट के उपयोग की जीवन-रक्षक क्षमता के बावजूद, केवल सात राज्यों में 50% से अधिक मोटर चालित दोपहिया वाहन चालक हेलमेट का उपयोग करते हैं।
- केवल आठ राज्यों ने अपने राष्ट्रीय राजमार्ग नेटवर्क के आधे से अधिक की ऑडिटिंग की है तथा इससे भी कम राज्यों ने राज्य राजमार्गों के लिये ऑडिटिंग की है।
- अधिकांश राज्यों में यातायात नियंत्रण, सड़क चिह्नांकन और संकेतन जैसे बुनियादी सड़क सुरक्षा उपाय अभी भी अपर्याप्त हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में हेलमेट का उपयोग विशेष रूप से कम है, तथा ट्रॉमा देखभाल सुविधाएँ अपर्याप्त हैं।
- रिपोर्ट में भारत में सड़क सुरक्षा संबंधी विविध चुनौतियों को संबोधित करने के लिये राज्य-विशिष्ट रणनीतियों की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है।
- भारत में सड़क सुरक्षा के संदर्भ में मौजूद व्यापक क्षेत्रीय भिन्नता है तथा विभिन्न राज्यों में प्रति व्यक्ति सड़क यातायात मृत्यु दर में तीन गुना से अधिक का अंतर है।
- भारत का विश्व स्तर पर प्रदर्शन:
- अधिकांश भारतीय राज्यों के लिये संयुक्त राष्ट्र का सड़क सुरक्षा के लिये कार्रवाई दशक के उद्देश्यों को पूरा करना संभव नहीं है, जिसका लक्ष्य 2030 तक यातायात से संबंधित मौतों को आधा करना है।
- रिपोर्ट में भारत और स्वीडन तथा अन्य स्कैंडिनेवियाई देशों जैसे विकसित देशों के बीच तुलना प्रस्तुत की गई है, जिन्होंने सड़क सुरक्षा प्रशासन में अनुकरणीय प्रदर्शन किया है।
- वर्ष 1990 में सड़क दुर्घटना में किसी भारतीय की मृत्यु की संभावना इन देशों की तुलना में 40% अधिक थी; वर्ष 2021 तक, यह असमानता बढ़कर 600% हो गई है, जो भारत में सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों में उल्लेखनीय वृद्धि को दर्शाती है।
नोट:
- सड़क सुरक्षा के लिये कार्रवाई दशक 2021-2030: संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2030 तक कम-से-कम 50% सड़क यातायात से होने मौतों और चोटों को रोकने के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य के साथ "वैश्विक सड़क सुरक्षा में सुधार" संकल्प अपनाया।
- यह वैश्विक योजना स्टॉकहोम घोषणा के अनुरूप है, जो सड़क सुरक्षा के लिये समग्र दृष्टिकोण के महत्त्व पर ज़ोर देती है।
स्वास्थ्य मंत्रालय की अनभिप्रेत (अनजाने में होने वाली) क्षतियों की रोकथाम हेतु राष्ट्रीय रणनीति
- भारत में सड़क यातायात दुर्घटनाएँ (RTC) अनभिप्रेत (अनजाने में होने वाली) क्षतियों के कारण होने वाली मौतों का सबसे बड़ा कारण हैं, जो कुल मौतों का 43.7% है।
- इन मौतों में 75.2% मौतें तेज़ गति से वाहन चलाने के कारण होती हैं, इसके बाद गलत दिशा में वाहन चलाने (5.8%) और शराब या नशीली दवाओं के प्रभाव में वाहन चलाने (2.5%) का स्थान आता है।
- सड़क यातायात दुर्घटनाएँ (RTI):
- RTI से होने वाली मौतों में 86% पुरुष हैं, जबकि 14% महिलाएँ हैं ।
- RTI से होने वाली 67.8% मौतें ग्रामीण क्षेत्रों में और 32.2% शहरी क्षेत्रों में होती हैं ।
- राष्ट्रीय राजमार्ग (कुल सड़क मार्ग का केवल 2.1%) सर्वाधिक सड़क दुर्घटनाओं के लिये ज़िम्मेदार हैं, वर्ष 2022 में प्रति 100 किमी. पर 45 मौतें हुईं।
सड़क सुरक्षा पर सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप
- भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अप्रैल 2014 में सड़क सुरक्षा पर तीन सदस्य वाले न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन पैनल का गठन किया था, जिसने नशे में वाहन चलाने पर रोक लगाने के लिये राजमार्गों पर शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी।
- इसने राज्यों को हेलमेट पहनने संबंधी कानून लागू करने का भी निर्देश दिया।
- इस समिति ने सड़क सुरक्षा नियमों के बारे में लोगों में जागरूकता उत्पन्न करने के महत्त्व पर ज़ोर दिया।
- सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2017 में सड़क सुरक्षा के संबंध में कई निर्देश जारी किये थे, जिनमें अन्य बातों के साथ-साथ कुछ उपाय भी शामिल थे।
- राज्य सड़क सुरक्षा परिषद का गठन
- सड़क सुरक्षा कोष की स्थापना
- सड़क सुरक्षा कार्य योजना की अधिसूचना
- ज़िला सड़क सुरक्षा समिति का गठन
- आघात देखभाल केंद्रों की स्थापना
- स्कूलों के शैक्षणिक पाठ्यक्रम में सड़क सुरक्षा शिक्षा को शामिल करना
सड़क सुरक्षा से संबंधित सरकारी पहल क्या हैं?
- मोटर वाहन संशोधन अधिनियम, 2019
- सड़क परिवहन अधिनियम, 2007
- राष्ट्रीय राजमार्ग नियंत्रण (भूमि एवं यातायात) अधिनियम, 2000
- भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण अधिनियम, 1998
- वैश्विक लक्ष्य 2030 को प्राप्त करने के लिये सड़क सुरक्षा पर तीसरा उच्च स्तरीय वैश्विक सम्मेलन
आगे की राह
- सड़क सुरक्षा पहलों को प्राथमिकता देना: इसके लिये परिवहन, स्वास्थ्य और विधि प्रवर्तन जैसे कई क्षेत्रों में समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता है ताकि समग्र रणनीति विकसित की जा सके जिससे मृत्यु एवं चोटों को काफी हद तक कम किया जा सके।
- इस क्रम में छोटे-छोटे कदम भी उठाए जा सकते हैं, जैसे- हेलमेट का अनिवार्य उपयोग, यातायात नियमों का पालन करना तथा वाहनों का रखरखाव आदि।
- घातक दुर्घटनाओं के संबंध में राष्ट्रीय डेटाबेस की स्थापना: राष्ट्रीय डाटाबेस आँकड़ों से नीति निर्माताओं, शोधकर्त्ताओं और प्रवर्तन एजेंसियों को वास्तविक समय के रुझानों का विश्लेषण करने तथा उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों की पहचान करने में मदद मिलेगी।
- सार्वजनिक पहुँच और पारदर्शिता: राष्ट्रीय दुर्घटना डेटाबेस तक सार्वजनिक पहुँच प्रदान करने से पारदर्शिता बढ़ेगी तथा हितधारकों के बीच जवाबदेही को बढ़ावा मिलेगा।
- निगरानी और मूल्यांकन: समय के साथ दुर्घटना दर और मृत्यु दर पर नज़र रखकर, सरकारें सड़क सुरक्षा अभियानों, विधियों एवं बुनियादी ढाँचे में सुधार के प्रभाव का आकलन कर सकती हैं।
- सड़क सुरक्षा के लिये प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: उभरती प्रौद्योगिकियों जैसे कि एआई-संचालित यातायात निगरानी, स्मार्ट साइनेज तथा डेटा एनालिटिक्स टूल को अपनाकर, सड़क सुरक्षा को और बेहतर बनाने के क्रम में राष्ट्रीय डेटाबेस के साथ इसे एकीकृत किया जा सकता है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत में सड़क सुरक्षा सुनिश्चित करने से संबंधित प्रमुख चुनौतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण करते हुए इसके समाधान हेतु उपाय बताइये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)मेन्स:Q. राष्ट्रीय शहरी परिवहन नीति वाहनों को चलाने के बजाय लोगों को ले जाने पर ज़ोर देती है। इस संबंध में सरकार की विभिन्न रणनीतियों की सफलता की आलोचनात्मक विवेचना कीजिये। (2014) |