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ज़ीरो FIR

  • 25 Jul 2023
  • 8 min read

प्रिलिम्स के लिये:

FIR प्रावधान, ज़ीरो FIR, संज्ञेय अपराध, POCSO अधिनियम

मेन्स के लिये:

FIR- प्रावधान, सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण

चर्चा में क्यों?  

मणिपुर में हिंसा और अपराध की हालिया घटनाओं में शून्य/ज़ीरो प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) की अवधारणा की सबसे अधिक चर्चा की गई है।

ज़ीरो FIR

  • परिचय : 
    • ज़ीरो FIR, जिसे किसी भी पुलिस स्टेशन द्वारा क्षेत्राधिकार की परवाह किये बिना, तब दर्ज किया जा सकता है जब उसे किसी संज्ञेय अपराध के संबंध में शिकायत मिलती है।
    • इस स्तर पर कोई नियमित FIR नंबर निर्दिष्ट नहीं किया जाता है।
    • ज़ीरो FIR दर्ज होने  के बाद रेवेन्यू पुलिस स्टेशन नई FIR दर्ज करता है और जाँच शुरू करता है।
    • इसका उद्देश्य गंभीर अपराधों के पीड़ितों, विशेषकर महिलाओं और बच्चों को बगैर एक पुलिस स्टेशन से दूसरे पुलिस स्टेशन गए, जल्दी और आसानी से शिकायत दर्ज कराने में सहायता करना है।
    • इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना भी है कि शिकायत दर्ज करने में देरी के कारण सबूत और गवाहों के साथ छेड़छाड़ न की जाए।
    • इन्हें संबंधित पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित कर दिया जाता है जहाँ अपराध हुआ है या जहाँ जाँच की जानी है।
  • ज़ीरो FIR का कानूनी आधार:
    • ज़ीरो FIR जस्टिस वर्मा समिति की सिफारिश के बाद प्रस्तुत की गई थी, जिसे वर्ष 2012 के निर्भया सामूहिक बलात्कार मामले के बाद स्थापित किया गया था।
    • ज़ीरो FIR का प्रावधान सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के विभिन्न निर्णयों द्वारा भी समर्थित है।
      • उदाहरण के लिये ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामले (वर्ष 2014) में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि जब सूचना किसी संज्ञेय अपराध के घटित होने का खुलासा करती है तो FIR दर्ज करना अनिवार्य है।
      • सतविंदर कौर बनाम दिल्ली राज्य मामले (वर्ष 1999) में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि एक महिला को घटना स्थल के अलावा किसी भी स्थान से अपनी शिकायत दर्ज कराने का अधिकार है।

प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR): 

  • परिचय: 
    • किसी संज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर पुलिस द्वारा तैयार किया गया लिखित दस्तावेज़ होता है।
    • यह जाँच प्रक्रिया की दिशा में पहला कदम है।
    • यह पुलिस द्वारा जाँच तथा आगे की कार्रवाई को गति प्रदान करता है।
  • संज्ञेय अपराधों में FIR का पंजीकरण: 
    •  CrPC की धारा 154(1) पुलिस को संज्ञेय अपराधों के लिये FIR दर्ज करने की अनुमति देती है।
  •  FIR दर्ज न करना: 
    • न्यायाधीश जे.एस. वर्मा समिति की सिफारिश के आधार पर IPC में धारा 166A जोड़ी गई।
    • संज्ञेय अपराध से संबंधित जानकारी दर्ज करने में विफल रहने वाले लोक सेवकों के लिये यह दंड का प्रावधान करता है।
    • सज़ा में दो वर्ष तक की कैद और जुर्माना शामिल है।

संज्ञेय और गैर-संज्ञेय अपराध

  • संज्ञेय अपराध: 
    • संज्ञेय अपराधों में एक अधिकारी न्यायालय के वारंट की मांग किये बिना किसी संदिग्ध का संज्ञान ले सकता है तथा उसे गिरफ्तार कर सकता है, यदि उसके पास "विश्वास करने का कारण" है कि उस व्यक्ति ने अपराध किया है और संतुष्ट है कि कुछ निश्चित आधारों पर गिरफ्तारी आवश्यक है। 
    • गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर अधिकारी को न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा हिरासत की पुष्टि करनी होगी। 
    • 177वें विधि आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, संज्ञेय अपराध वे हैं जिनमें तत्काल गिरफ्तारी की आवश्यकता होती है। 
    • संज्ञेय अपराध आमतौर पर जघन्य या गंभीर प्रकृति के होते हैं जैसे कि हत्या, बलात्कार, अपहरण, चोरी, दहेज हत्या आदि। 
    • प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) केवल संज्ञेय अपराधों के मामले में दर्ज की जाती है। 
  • गैर-संज्ञेय अपराध: 
    • गैर-संज्ञेय अपराध के मामले में पुलिस आरोपी को बिना वारंट के गिरफ्तार नहीं कर सकती है और साथ ही अदालत की अनुमति के बिना जाँच शुरू नहीं कर सकती।
    • जालसाज़ी, धोखाधड़ी, मानहानि, सार्वजनिक उपद्रव आदि अपराध गैर-संज्ञेय अपराधों की श्रेणी में आते हैं।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारत के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021) 

  1. न्यायिक हिरासत का अर्थ है कि एक अभियुक्त संबंधित मजिस्ट्रेट की हिरासत में है और ऐसे अभियुक्त को पुलिस स्टेशन के हवालात में रखा जाता है, न कि जेल में।
  2. न्यायिक हिरासत के दौरान मामले के प्रभारी पुलिस अधिकारी, न्यायालय की अनुमति के बिना संदिग्ध व्यक्ति से पूछताछ नहीं कर सकते हैं। 

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1  
(b) केवल 2 
(c) 1 और 2 दोनों   
(d) न तो 1 और न ही  2 

उत्तर: (b) 

  • न्यायिक हिरासत में एक अभियुक्त संबंधित मजिस्ट्रेट की हिरासत में होता है और जेल में बंद रखा जाता है, जबकि पुलिस हिरासत के मामले में ऐसे अभियुक्त को पुलिस स्टेशन के हवालात में रखा जाता है। अतः कथन 1 सही नहीं है।
  • न्यायिक हिरासत के दौरान मामले का प्रभारी पुलिस अधिकारी संदिग्ध व्यक्ति से पूछताछ कर सकता है लेकिन मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति के साथ। पुलिस हिरासत के मामले में पुलिस अधिकारी संदिग्ध व्यक्ति से पूछताछ कर सकता है लेकिन उसे 24 घंटे के भीतर न्यायालय के सामने पेश करना होगा। अतः कथन 2 सही है।

इसलिये विकल्प (B) सही उत्तर है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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