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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

आसान नहीं है सरदार पटेल होना

वल्लभभाई झावरभाई पटेल, जिन्हें भारत में प्रेमपूर्वक ‘सरदार पटेल’ के नाम से जाना जाता है, भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अग्रणी नेता थे। स्वतन्त्र भारत के महान दूरदर्शी राजनेता-प्रशासक होने के साथ साथ वे प्रतिष्ठित वकील, बैरिस्टर तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भी थे जिन्होंने आज़ादी के पश्चात 1947 से 1950 तक भारत के पहले उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की भूमिका निभाई। राष्ट्रीय आंदोलन से लेकर आज़ादी के बाद भी, सरदार पटेल का योगदान अविस्मरणीय है। पटेल जी के योगदान और दृढ़ व्यक्तित्व को देखते हुए इन्हें “भारत का लौह पुरुष” तथा “भारत के बिस्मार्क” के रूप में भी जाना जाता है। हाल ही में 2018 में, गुजरात में विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति “स्टेच्यू ऑफ़ यूनिटी” पटेल जी को समर्पित की गई है जोकि “देश की एकता में उनके योगदान” को इंगित करती है।

वास्तव में, सरदार पटेल होना आसान नहीं है। एक मज़बूत, अडिग और दृढ़ संकल्पित व्यक्तित्व के धनी थे पटेल। प्रस्तुत ब्लॉग में हम पटेल के योगदान पर चर्चा करेंगे और जानेंगे आख़िर किस प्रकार वे एक राष्ट्र निर्माता थे और कैसे उन्होंने भारत को अखंडता के सूत्र में पिरोया…

बारदोली सत्याग्रह

गुजरात के सूरत जिले के बारदोली तालुके में राजनीतिक गतिविधियों में तेजी आई, जब 1926 में स्थानीय प्रशासन ने भू-राजस्व दरों में 30 प्रतिशत की वृद्धि की घोषणा की। बारदोली सत्याग्रह गुजरात कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सरदार पटेल द्वारा फरवरी 1928 में शुरू किया गया। आन्दोलन को संगठित करने के लिए सरदार पटेल ने पूरे तालुके में 13 छावनियों की स्थापना की तथा किसानों को बढ़ी हुई दरों पर भू-राजस्व अदा करने से मना कर दिया। इसी अवसर पर पटेल ने “कर मत दो” का नारा दिया। इसी बीच, गांधीजी भी बारदोली पहुंच गए। अंततः एक न्यायिक जांच बैठाई गई, जब्त जमीनें लौटा दी गई। तदुपरांत ब्लूमफील्ड और मैक्सवेल समिति ने भू राजस्व में बढ़ोत्तरी 30 प्रतिशत से घटाकर लगभग 6 प्रतिशत कर दी। इस प्रकार, बारदोली सत्याग्रह ने सरदार पटेल को ‘गुजरात के नायक’ तथा राष्ट्रीय स्तर के प्रखर नेता के रूप उभारा।

भारत-विभाजन और शरणार्थियों की समस्या

1946 के दौर में भारत आज़ादी की दहलीज पर खड़ा था। मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में धर्म के आधार पर भारत के विभाजन की मांग तेजी से बढ़ रही थी। इसी बीच, 16 अगस्त 1946 को जिन्ना द्वारा “प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस” की घोषणा ने साम्प्रदायिकता का नग्न रूप सामने लाकर रख दिया। यह वही दिन था जब कलकत्ता की सड़कें नरक बन गईं। अतः वल्लभभाई पटेल मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में बढ़ते मुस्लिम अलगाववादी आंदोलन के समाधान के रूप में भारत के विभाजन को स्वीकार करने वाले पहले कांग्रेस नेताओं में से एक थे। क्योंकि साम्प्रदायिकता की अग्नि में पूरा उपमहाद्वीप जल रहा था। लगभग दस लाख लोग मरे गए, एक करोड़ से अधिक लोग बेघर हुए और लगभग 75,000 से अधिक स्त्रियों के साथ बलात्कार हुआ। उन परिस्थितियों में विभाजन अपरिहार्य हो गया था। माउंटबेटन के 3 जून 1947 को विभाजन के प्रस्ताव पर अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में पटेल ने कहा–

“मैं मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों के अपने भाइयों के डर की पूरी तरह से सराहना करता हूं। भारत का बंटवारा किसी को अच्छा नहीं लगता और मेरा दिल भारी है. लेकिन चुनाव एक विभाजन और कई विभाजनों के बीच है। हमें तथ्यों का सामना करना चाहिए। हम भावुकता को रास्ता नहीं दे सकते। हम इसे पसंद करें या न करें, वास्तव में पाकिस्तान पहले से ही पंजाब और बंगाल में मौजूद है। इन परिस्थितियों में मैं एक कानूनी पाकिस्तान को प्राथमिकता दूंगा, जो लीग को अधिक जिम्मेदार बना सकता है। आजादी आ रही है। हमारे पास 75 से 80 प्रतिशत भारत है, जिसे हम अपनी प्रतिभा से मजबूत बना सकते हैं।”

इसी प्रकार, भारत में जहां एक ओर कुछ लोग स्वतंत्रता मिलने की खुशियां मना रहे थे, वहीं दूसरी ओर शरणार्थियों और अल्पसंख्यकों को विभाजन का सबसे अधिक मूल्य चुकाना पड़ा था। ज्ञानेन्द्र पांडेय के अनुसार, केवल दिल्ली में ही 1947-48 के बीच लगभग 50,000 हिंदू और सिख शरणार्थियों ने शरण ली। तत्पश्चात, सरदार पटेल ने शरणार्थियों की समस्या को गंभीरता से हल किया। उन्होंने शांति को प्रोत्साहित करने के लिए राहत और आपातकालीन आपूर्ति के आयोजन, शरणार्थी शिविर स्थापित करने और पाकिस्तानी नेताओं के साथ सीमावर्ती क्षेत्रों का दौरा करने का बीड़ा उठाया। कुछ शरणार्थियों को शरणार्थी कैंपों में रखा गया, ग्रामीण और शहरी शरणार्थियों को उनके अनुसार सहायता देकर पुनर्वास किया गया।

भारत का एकीकरण: रियासतों का विलय

स्वतंत्रता और विभाजन के पश्चात् भारत के सामने एक अन्य बड़ी समस्या रजवाड़ों से संबंधित थी। गांधी ने पटेल से कहा था, “रियासतों की समस्या इतनी कठिन है कि आप अकेले ही इसे हल कर सकते हैं।” अतः 1947 में वल्लभभाई पटेल और उनके सचिव वी. पी. मेनन ने रजवाड़ों की समस्या का अंतिम समाधान करने का निश्चय किया। इस परियोजना में उन्हें लगभग 2 वर्ष लगे। लगभग 550 रियासतों में से अनेक राजाओं को "कर मुक्त विशेषाधिकार" ( प्रिवी पर्स) और अन्य लाभ पेंशन देकर रजवाड़ों से हटा दिया गया। किंतु मेनन के अनुसार, सभी रियासतें इस शांतिपूर्ण क्रांति में खुशी-खुशी शामिल नहीं हुई। प्रतिरोध करने वाली रियासतों में मुख्यतः तीन, जूनागढ़, कश्मीर और हैदराबाद रियासतें शामिल थी। प्रथम, जूनागढ़ का शासक महावत खान पाकिस्तान में शामिल होना चाहता था, जबकि उसकी हिंदू जनता भारत में। इस प्रकार, पटेल ने जनमत संग्रह के माध्यम से जूनागढ़ का भारत में विलय कर लिया।

द्वितीय, कश्मीर के महाराजा हरि सिंह भारत या पाकिस्तान किसी भी डोमिनियन में शामिल न होकर, अपनी रियासत को स्वतंत्र रखना चाहते थे किंतु इसी दौरान, पाकिस्तान की कबायली सेना द्वारा कश्मीर पर आक्रमण कर दिया गया। फलस्वरूप महाराजा हरि सिंह को विवश होकर 26 अक्टूबर 1947 को भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने पड़े। तत्पश्चात कबाइलियों को खदेड़ने के लिए भारतीय सेना जम्मू कश्मीर भेज दी गई। और कश्मीर भारत में शामिल हो गया।

तृतीय, हैदराबाद का निजाम अपनी संप्रभुता को बनाए रखने के पक्ष में था यद्यपि उसकी बहुसंख्यक जनता भारत में शामिल होने की इच्छुक थी। अतः उसने हैदराबाद को भारत में सम्मिलित करने के पक्ष में तीव्र आंदोलन आरंभ कर दिए। निजाम आंदोलनकारियों के प्रति दमन की नीति पर उतर आया। अंततः 13 सितंबर 1948 को भारतीय सेनाएं हैदराबाद में प्रवेश कर गई और 18 सितंबर को निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस प्रकार, 1949 में हैदराबाद को भी भारत में सम्मिलित कर लिया गया।

रियासतों के विलय के पश्चात भी कुछ समस्याएं थी। अलग अलग रियासतों को श्रेणीबद्ध करके भारतीय संघ में शामिल करना था। पटेल और उनके सचिव वीपी मेनन ने इस कार्य का निर्वहन बड़ी कुशलता के साथ किया। विभिन्न रियासतों को अलग अलग श्रेणी में सूचीबद्ध कर दिया गया। प्रारंभ में रक्षा, संचार तथा विदेशी मामलों के मुद्दों पर ही रियासतों का विलय किया गया था, किंतु कुछ समय पश्चात इनको पूर्णरूपेण भारत में सम्मिलित कर लिया गया तथा भारत की एकीकृत राजनीतिक व्यवस्था का अंग बना लिया गया।

संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका

भारत की संविधान सभा में वरिष्ठ सदस्य होने के नाते सरदार पटेल संविधान को आकार देने वाले प्रमुख नेताओं में से एक थे। वे प्रांतीय संविधान समितियों के अध्यक्ष थे। उन्होंने प्रांतों के लिए एक मॉडल संविधान का संचालन किया जिसमें राज्यपाल के लिए सीमित शक्तियां थी। ऐसा उन्होंने तात्कालिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए किया था। इसके अतिरिक्त, वे मौलिक अधिकारों, अल्पसंख्यकों एवं जनजातियों तथा बहिष्कृत क्षेत्रों के लिए सलाहकार समिति की अध्यक्षता कर रहे थे। पटेल ने यह प्रावधान दृढ़ता के साथ पेश किया था कि राज्य धर्म, नस्ल, जाति या लिंग के आधार पर किसी भी नागरिक से भेदभाव नहीं करेगा, साथ ही कुओं, तालाबों, घाटों, सड़कों तथा सार्वजनिक रिसॉर्ट जैसे आदि स्थानों पर निर्बाध पहुंच प्रदान करेगा। पटेल ने नेतृत्व में सलाहकार समिति ने इसे माना कि अस्पृश्यता के उन्मूलन को मौलिक अधिकारों में महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए और उनका मानना था कि यह खंड उचित तरीके से तैयार किया गया है इसमें कोई संशोधन नहीं होना चाहिए।

अखिल भारतीय सेवाओं के जनक

आज़ाद भारत में सरदार पटेल पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीय सिविल सेवाओं के महत्व को बखूबी समझा और भारतीय संघ के लिए उसकी निरंतरता को आवश्यक बताया। उनके अनुसार, सिविल सेवा एक देश को प्रशासित करने में अहम भूमिका निभाती है, न केवल कानून और व्यवस्था बनाए रखने में, बल्कि उन संस्थानों को चलाने में जो एक समाज को बाध्यकारी सीमेंट प्रदान करते हैं। इसीलिए पटेल ने भारतीय सिविल सेवाओं को “भारत का स्टील फ्रेम” की संज्ञा से विभूषित किया। और भारतीय परिदृश्य के अनुसार इसमें थोड़ा परिवर्तन भी किया। उन्होंने ICS से IAS तथा IP (इंपीरियल पुलिस) से IPS (भारतीय पुलिस सेवा) किया। संविधान सभा में भी उन्होंने इसकी महत्ता पर भाषण दिया–

इस प्रशासनिक व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है... संघ जाएगा, आपके पास एक अखंड भारत नहीं होगा यदि आपके पास अच्छी अखिल भारतीय सेवा नहीं है जिसके पास अपने मन की बात कहने की स्वतंत्रता है, जिसमें सुरक्षा की भावना है कि आप आपके काम में साथ देंगे... ये लोग निमित्त हैं। उन्हें हटा दें और मुझे पूरे देश में अराजकता की तस्वीर के अलावा कुछ नहीं दिखता।”

निष्कर्ष के रूप में देखा जाए तो, सरदार पटेल भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक महान हस्ती थे। पटेल जी की दृढ़ शक्ति, दृढ़ कार्रवाई की क्षमता, त्वरित निर्णय लेने की क्षमता,राष्ट्रीय गौरव की भावना और कुशल वाकपटुता उनके मजबूत और ठोस व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम थे जो उन्हें अन्य नेताओं से विशिष्ट बनाते हैं। सरदार पटेल ने गांधीवादी आंदोलनों में जीवंत भूमिका निभाते हुए, आज़ाद भारत के एकीकरण में, अखंडता बनाए रखने में सर्वोपरि योगदान दिया। जिसके बाद, इतिहासकारों और जीवनीकारों ने उन्हें “बिस्मार्क ऑफ़ इंडिया” से पुकारा।

आशू सैनी

आशू सैनी, उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले से हैं। इन्होंने स्नातक बी.एस.सी (गणित) विषय से और परास्नातक एम.ए (इतिहास) विषय से किया है। इन्होंने इतिहास विषय से तीन बार यू.जी.सी. नेट की परीक्षा पास की है। वर्तमान में इतिहास विषय में रिसर्च स्कॉलर (पी.एच-डी) हैं। पढ़ना, लिखना, सामजिक मुद्दों पर विचार-विमर्श करना और संगीत सुनना इनकी रुचि के विषय हैं। इनके कई लेख दैनिक जागरण और जनसत्ता में प्रकाशित हो चुके हैं।


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