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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

महिलाओं के खिलाफ हिंसा: आखिर कब तक?

‘निर्भया कांड’ कोई अकेली ऐसी घटना नहीं रही, जिसकी चीख हमारे दिमाग़ पर अमिट छाप छोड़ जाती है। हमें दुत्कार जाती है। ऐसी घटनाएं रोज कहीं-न-कहीं घट रही होती हैं। वो अलग बात है कि एक समाज के रूप में हमारे कान में जूं कुछ घटनाओं पर ही डोलती है। घटनाओं की लंबी फेहरिश्त कभी ना खत्म होने वाली है। बस कुछेक घटनाओं से इस ब्लॉग की शुरुआत करना चाहूंगा।

घटना: 1

27 नवंबर, 1973 की रात किंग एडवर्ड हॉस्पिटल में कार्यरत जूनियर नर्स अरुणा शानबाग के लिए अभिशाप बनकर आई। नाइट ड्यूटी के दौरान एक पुरुष सफाईकर्मी ने अरुणा के साथ नृशंसता की हदें पार करते हुए न सिर्फ़ उनका बलात्कार किया बल्कि कुत्ते को बांधने वाले पट्टे से उन्हें इस तरह चोक किया कि वे कोमा में चली गईं। इस घृणास्पद हरक़त के लिए आरोपी सोहन लाल वाल्मीकि को मात्र सात वर्षीय कारावास की सज़ा हुई, जेल से रिहा होने के बाद उसने विवाह भी किया और उसकी ज़िन्दगी सामान्य ढर्रे पर लौट आई। वहीं पीड़िता 1973 से 2015 तक लगभग 32 वर्ष तक उसी अस्पताल के एक बिस्तर पर कोमा में रहने के बाद मृत्यु को प्राप्त हुईं।

घटना: 2

9 अगस्त, 2024 की रात आर. जी. कर अस्पताल, कोलकाता में 31 वर्षीया महिला ट्रेनी डॉक्टर जब 36 घंटे की ड्यूटी के बाद सो रही थी, उस वक्त उनके साथ न सिर्फ़ बलात्कार किया गया, बल्कि आरोपी ने उनके पूरे शरीर को चोटिल करते हुए गला दबाकर हत्या भी कर दी।

1973 से 2024 तक क्या बदला है! सुबह अखबार पढ़ते हुए हर रोज़ आंखों के सामने ऐसी कई ख़बरें आतीं हैं, जिसे पढ़कर खून उबलने लगता है। महिलाएं कहांँ सुरक्षित हैं? 9 महिलाओं की बलात्कार-हत्या कर चुके बरेली के सुनसान गांवों में घूम रहे सीरियल किलर से लेकर शहरी अस्पताल…! हम महिलाओं के लिए ऐसा वातावरण क्यों नहीं बना पा रहे हैं, जिससे वो खुद को महफूज़ महसूस करके पुरुषों के साथ कदमताल करके चल सकें। अपनी ज़िंदगी को चहारदीवारी से बाहर की दुनिया से जोड़ सकें।

जब भी इस तरह के अपराध लाइमलाइट में आते हैं, जनता द्वारा आरोपी को कड़ी से कड़ी सज़ा देने की मांग ज़रूर की जाती है। आरोपी को सज़ा मिल भी जाती है। लेकिन थोड़े ही समय बाद फिर एक नया, वीभत्स अपराध प्रकट हो जाता है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि यह विफलता किसकी है? पुलिस की? न्यायतंत्र की? व्यवस्था की? या फिर समाज की?

अपराध के बाद सही तरीके से फोरेंसिक जांच तथा वीडियोग्राफी न‌ करना, मीडिया ट्रायल के दबाव में मामले को रफा-दफा करने के लिए स्केपगोट ढूंढने की प्रवृत्ति, पीड़ित पक्ष के लिए असंवेदनशील व्यवहार, इनकाउंटर जस्टिस, अपराधियों के घरों के ध्वस्तीकरण जैसे न्याय, चार्जशीट दाखिल करने में बेवजह देरी‌ जैसे कारणों से पुलिस, तत्कालिक तौर पर जनता का आक्रोश कम ज़रूर कर लेती है किंतु स्थाई तौर पर जनता का विश्वास प्राप्त करने तथा अपराधियों में खौफ कायम करने में असफल रही है।

न्यायपालिका की बात करें तो यहां लगभग 4 करोड़ मामले लंबित हैं। 14 अगस्त, 2024 को जारी कानून मंत्रालय की सूचना के अनुसार, देश के जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीशों के 5,238 पद रिक्त हैं तथा उच्च न्यायालयों में 359 पद रिक्त हैं। इस तरह, कार्यबल और संसाधनों की कमी से त्वरित न्याय प्राप्त करने की प्रक्रिया बाधित होती है। वहीं दूसरी ओर आरोपी पक्ष न्याय में देरी करने की मंशा से अपील, दया याचिका, क्यूरिटिव पेटिशन इत्यादि दायर करता रहता है।

उपर्युक्त वजहों से न्याय प्राप्त करना एक कष्टसाध्य प्रक्रिया बन जाती है जो कभी-कभी इतनी लंबी खिंच जाती है कि पीड़ित पक्ष का धैर्य जवाब ही दे जाता है। 1992 में हुए अजमेर रेप का फैसला 2024 में सुनाया जाना, इसी की एक बानगी है।

महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को रोकने में प्रशासन और न्याय तंत्र तो विफल रहा ही है, समाज के भीतर भी इस विषय को लेकर जो आक्रोश दिखता है, वह क्षणिक ही होता है। कैंडल मार्च और हड़ताल में बैठकर लोग यह समझते हैं कि हमने अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर दिया। महिला सुरक्षा पर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले लोग अपनी नज़रों के सामने किसी महिला का उत्पीड़न देखकर आगे बढ़ जाते हैं और कहते हैं कि ये तो उसका निजी मामला है। पिछले वर्ष, दिल्ली में एक 16 वर्षीय लड़की को उसका पूर्व प्रेमी तब तक चाकू मारता रहा जबतक वह ढेर नहीं हो गई। हैरानी की बात यह थी कि उसने इस घटना को सरे-आम सड़क पर अंजाम दिया, फिर भी किसी ने उसे रोकने की हिमाकत नहीं की।

ऐसी दरिंदगियों के पीछे की वज़ह:

अगर हम इस बीमारी की जड़ तक झांकने की कोशिश करें तो पाते हैं कि व्यक्तिगत स्तर पर निम्नलिखित कारणों से महिलाओं के विरूद्ध अपराध को बढ़ावा मिलता है-

1. घर के भीतर ख़राब माहौल- प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डॉक्टर गैबोर माते का कहना है कि "We are all victims of victims" अर्थात जिन लोगों के साथ बचपन में हिंसा या शोषण होता है, आमतौर पर वे ही बड़े होकर अपराधिक प्रवृत्तियों के प्रति उन्मुख होते हैं।

2. समाज में पुरुषत्व की ग़लत व्याख्या- पुरुष होने के बोध को सर्वशक्तिमान होने और प्राधिकार की स्थिति से जोड़ दिया जाता है। बचपन से ही जब एक बालक अपने घर की महिलाओं के साथ होने वाले ग़लत सलूक या हिंसा को देखता है तो उसे यह सब सामान्य लगने लगता है। उसमें खुद के श्रेष्ठ लिंग का होने और महिलाओं के पुरुषों के अधीन होने का बोध गहराई से भर जाता है।

3. सेक्स एजुकेशन का अभाव- साक्षरता और सेक्स एजुकेशन के अनुपस्थिति में एक जैसा वैक्यूम पैदा होता है जिसमें पहले तो जिज्ञासा के कारण नकारात्मक कंटेंट देखा जाता है, फिर उसकी लत लग जाती है। और धीरे-धीरे सेक्स जैसी चीजें किशोरों के भीतर जीवनभर के लिए एक गहरी कुंठा बन जाती हैं।

4. पॉर्न से उपजी मानसिक विकृति- बाजार ने सभी चीजों को बेचने का काम किया है। ऑनलाइन और इंटरनेट के व्यापक प्रसार के बाद उस बाजार को पंख मिल गये। उसने सेक्स और स्त्रियों को भी अनुभवहीन किशोरों के समक्ष उपभोग की वस्तु के रुप में आकर्षक ढंग से प्रचारित किया है। धीरे-धीरे पॉर्न एडिक्ट्स महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझने लगते हैं तथा हिंसात्मक तरीके से महिलाओं पर काबू पाने का प्रयास करते हैं। ऐसे लोगों में धीरे-धीरे पाशविक प्रवृत्तियों का जन्म होता है और यहीं प्रवृत्तियां हैवानियत की हद तक चली जाती हैं।

5. नशाखोरी तथा ड्रग्स की आदत- नशे में धुत व्यक्ति सही-ग़लत के परे सिर्फ अपने शारीरिक संतुष्टि के वशीभूत होकर औरत के शरीर को भोगना चाहता है।

6. सिनेमा द्वारा नकारात्मक कंटेंट प्रचलित करना- कोई कलाकार जब पर्दे पर गाता है कि "तू हां कर या ना कर, तू है मेरी किरण" तो वो अनजाने में एक बहुत ग़लत प्रिसिडेंट रखते हैं कि एक महिला के कंसेंट या सहमति का कोई महत्त्व नहीं है। फ़िल्म, टीवी, सोशल मीडिया, हर जगह ऐसे कंटेंट का बोलबाला है जहां महिलाओं को उनकी औकात दिखाई जाती है।

समाधान क्या हो सकता है?

कोलकाता जैसी दुखद घटना दोबारा न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए कुछ कदम उठाए जाने अत्यावश्यक हैं-

अपराधी के परिप्रेक्ष्य में-

1. बच्चों की पहली पाठशाला घर ही होता है। इसलिए घर में माता-पिता द्वारा बचपन से ही बालकों को संवेदनशील बनाया जाना
2. स्कूल में बच्चों के लिए अनिवार्य और नपा-तुला सेक्स एजुकेशन
3. स्कूल में मानसिक स्वास्थ्य प्रकोष्ठ की स्थापना करना ताकि समय-समय पर बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य की जांच की जा सके
4. समाज के सबसे वंचित वर्ग में तथा स्लम बस्तियों में जागरूकता का प्रसार
5. पॉर्न को बैन करने की बजाय इसे विनियमितिकरण करना
6. सेक्स वर्क को मुख्य शहर से दूर निर्धारित भौगोलिक परिधि के भीतर वैध करना

महिलाओं के परिप्रेक्ष्य में

1. महिलाओं को स्व-सुरक्षा का प्रशिक्षण देना
2. सेफ स्पेस बनाना- सीसीटीवी, सही लाइटिंग, पैनिक अलार्म, बायोमेट्रिक दरवाज़े, लंबी अवधि के कार्यस्थलों पर सुरक्षित ठहरने व शयन कक्ष की व्यवस्था इत्यादि के द्वारा सुरक्षित माहौल बनाना
3. अपराध तथा हिंसा की स्थिति में त्वरित न्याय सुनिश्चित करवाना
4. पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसॉर्डर यानी अपराध के पश्चात पीड़िता को हुई मानसिक पीड़ा को कम करने हेतु काउंसिलिंग उपलब्ध कराना
5. आरोपी के रसूखदार और हिंसक होने पर पीड़िता को पुख्ता सुरक्षा प्रदान करना

 पुलिस के परिप्रेक्ष्य में

1. जांच प्रक्रिया का पालन करना
2. पीड़ित पक्ष के मनोविज्ञान को समझते हुए उनके साथ मित्रवत और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार
3. ग़ैर पक्षपाती होकर अभिसाक्ष्य इकट्ठा करना
4. त्वरित न्याय सुनिश्चित करने की लिप्सा में आक्रामक न्याय से परहेज़
5. केरल जैसे राज्यों की तर्ज़ पर महिला थाने स्थापित करना
6. समय पर चार्जशीट दाखिल करना

 सरकार के परिप्रेक्ष्य में

1. अल्प अवधि, मध्यम अवधि तथा दीर्घ अवधि की रणनीति तय करना
2. निर्भया फंड का समुचित उपयोग करना
3. पुलिस बल तथा न्यायपालिका की क्षमताओं और कार्यबल में वृद्धि करना
4. अपराध के प्रति ज़ीरो टोलरेंस नीति का निर्माण

गांधीजी ने कहा था कि जब तक कोई समाज महिलाओं को उचित सम्मान नहीं देगा तब तक वह प्रगति नहीं कर सकता। ऐसे में समय की मांग की है कि महिलाओं के विरूद्ध होने वाले अपराधों के प्रति कड़े कदम उठाए जाएं। भारत को वास्तविक स्वतंत्रता तभी मिलेगी जब भारतीय नारियां इस देश में किसी भी समय, कहीं भी आने-जाने और अपने हिसाब से ज़िन्दगी जीने में समर्थ होंगी।

  संजीव कौशिक  

(लेखक संजीव कौशिक टेलीविजन दुनिया के जाने-माने विश्लेषक और डिबेटर हैं। वरिष्ठ पत्रकार संजीव सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक समेत विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर तर्कपूर्ण मुखरता से अपनी बात रखने के लिए जाने जाते हैं।)

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