कृषि
एक आवश्यक वस्तु के रूप में सोया मील
प्रिलिम्स के लिये:आवश्यक वस्तु, आवश्यक वस्तु अधिनियम मेन्स के लिये:आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 से संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सरकार ने 30 जून, 2022 तक 'सोया मील' को आवश्यक वस्तु घोषित करने के लिये आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के तहत एक आदेश अधिसूचित किया है।
- इस कदम से बाज़ार में किसी भी अनुचित व्यवहार (जैसे ज़माखोरी, कालाबाज़ारी आदि) को रोका जा सकेगा, जिससे सोया मील की कीमतों में वृद्धि की संभावना हो।
- यह पोल्ट्री फार्म और मवेशियों के भोजन के निर्माताओं जैसे उपभोक्ताओं के लिये उपलब्धता में वृद्धि करेगा।
प्रमुख बिंदु:
- सोयाबीन मील:
- सोयाबीन मील सबसे महत्त्वपूर्ण प्रोटीन स्रोत है जिसका उपयोग कृषि में संलग्न जानवरों को खिलाने के लिये किया जाता है। इसका उपयोग कुछ देशों में मानव उपभोग के लिये भी किया जाता है।
- यह प्रोटीन फीडस्टफ के कुल विश्व उत्पादन के लगभग दो-तिहाई का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें अन्य सभी प्रमुख तेल भोजन और मछली भोजन शामिल हैं।
- सोयाबीन मील सोयाबीन तेल के निष्कर्षण का उप-उत्पाद है।
- आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955
- भूमिका: ईसीए अधिनियम 1995 ऐसे समय में बनाया गया था जब देश खाद्यान्न उत्पादन के लगातार निम्न स्तर के कारण खाद्य पदार्थों की कमी का सामना कर रहा था।
- देश आबादी की खाद्य आपूर्ति हेतु आयात और सहायता (जैसे पीएल-480 के तहत अमेरिका से गेहूँ का आयात) पर निर्भर था।
- खाद्य पदार्थों की ज़माखोरी और कालाबाज़ारी को रोकने के लिये1955 में आवश्यक वस्तु अधिनियम बनाया गया था।
- आवश्यक वस्तु: आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में आवश्यक वस्तुओं की कोई विशिष्ट परिभाषा नहीं है।
- धारा 2 (ए) में कहा गया है कि "आवश्यक वस्तु" का अर्थ अधिनियम की अनुसूची में निर्दिष्ट वस्तु है।
- कानूनी क्षेत्राधिकार: अधिनियम केंद्र सरकार को अनुसूची में किसी वस्तु को जोड़ने या हटाने का अधिकार देता है।
- केंद्र, यदि संतुष्ट है कि जनहित में ऐसा करना आवश्यक है, तो राज्य सरकारों के परामर्श से किसी वस्तु को आवश्यक रूप में अधिसूचित कर सकता है।
- उद्देश्य: ईसीए 1955 का उपयोग केंद्र को विभिन्न प्रकार की वस्तुओं में व्यापार के राज्य सरकारों द्वारा नियंत्रण को सक्षम करने की अनुमति देकर मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिये किया जाता है।
- कार्यान्वयन एजेंसी: इस अधिनियम को उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय लागू करता है।
- प्रभाव: किसी वस्तु को आवश्यक घोषित करके सरकार उस वस्तु के उत्पादन, आपूर्ति और वितरण को नियंत्रित कर सकती है और स्टॉक की सीमा तय कर सकती है।
- भूमिका: ईसीए अधिनियम 1995 ऐसे समय में बनाया गया था जब देश खाद्यान्न उत्पादन के लगातार निम्न स्तर के कारण खाद्य पदार्थों की कमी का सामना कर रहा था।
- आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 से संबंधित मुद्दे:
- आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि ईसीए 1955 के तहत सरकारी हस्तक्षेप ने अक्सर कृषि व्यापार को विकृत किया है, जबकि यह मुद्रास्फीति को रोकने में पूरी तरह से अप्रभावी रहा।
- इस तरह के हस्तक्षेप से किराए की मांग और उत्पीड़न के अवसर बढ़ते’ हैं। किराया मांगना अर्थशास्त्रियों द्वारा भ्रष्टाचार सहित अनुत्पादक आय का वर्णन करने के लिये इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है।
- व्यापारी अपनी सामान्य क्षमता से बहुत कम खरीदारी करते हैं और किसानों को अक्सर खराब होने वाली फसलों के अतिरिक्त उत्पादन के दौरान भारी नुकसान होता है।
- इसकी वजह से कोल्ड स्टोरेज, गोदामों, प्रसंस्करण और निर्यात में निवेश की कमी के कारण किसानों को बेहतर मूल्य नहीं मिल पा रहा था।
- इन मुद्दों के चलते संसद ने आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 पारित किया। हालाँकि, किसानों के विरोध के कारण सरकार को इस कानून को निरस्त करना पड़ा।
- आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि ईसीए 1955 के तहत सरकारी हस्तक्षेप ने अक्सर कृषि व्यापार को विकृत किया है, जबकि यह मुद्रास्फीति को रोकने में पूरी तरह से अप्रभावी रहा।
आगे की राह
- ECA 1955 तब लाया गया था जब भारत खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था। हालाँकि अब भारत में अधिकांश कृषि-वस्तुओं में अधिशेष की स्थिति है और ECA 1955 में संशोधन सरकार द्वारा किसानों की आय को दोगुना करने तथा व्यवसाय करने में आसानी के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
स्रोत: पी.आई.बी.
भारतीय राजनीति
बेलागवी सीमा विवाद
प्रिलिम्स के लिये:एस.के. धर समिति, जे.वी.पी. समिति, महाजन समिति, राज्य पुनर्गठन अधिनियम। मेन्स के लिये:भारत में राज्यों का पुनर्गठन और संबंधित विवाद। |
चर्चा में क्यों?
कर्नाटक और महाराष्ट्र राज्यों के मध्य बेलागवी को लेकर दशकों पुराना विवाद तथा महाराष्ट्र जिसे बेलगाम ज़िला कहता है फिर से सुर्खियों में बना हुआ है।
- बेलगाम या बेलागवी वर्तमान में कर्नाटक राज्य का हिस्सा है लेकिन महाराष्ट्र द्वारा इस पर अपना दावा किया जाता है।
प्रमुख बिंदु
- बेलागवी सीमा विवाद के बारे में:
- वर्ष 1957 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के कार्यान्वयन से आहत महाराष्ट्र ने कर्नाटक के साथ अपनी सीमा के पुन: समायोजन की मांग की।
- महाराष्ट्र ने अधिनियम की धारा 21 (2) (b) को लागू किया और कर्नाटक में मराठी भाषी क्षेत्रों को जोड़ने पर अपनी आपत्ति व्यक्त करते हुए गृह मंत्रालय को एक ज्ञापन सौंपा।
- महाराष्ट्र द्वारा 2,806 वर्ग मील के क्षेत्र पर अपना दावा प्रस्तुत किया गया जिसमें 814 गाँव शामिल थे और लगभग 6.7 लाख की कुल आबादी के साथ बेलागवी, कारवार और निप्पनी की तीन शहरी बस्तियाँ। स्वतंत्रता से पहले ये सभी मुंबई प्रेसीडेंसी का हिस्सा थे।
- ये गाँव उत्तर-पश्चिमी कर्नाटक के बेलागवी, उत्तर कन्नड़ और उत्तर-पूर्वी कर्नाटक के बीदर और गुलबर्गा ज़िलों में फैले हुए हैं जो सभी महाराष्ट्र के साथ सीमा साझा करते हैं।
- बाद में जब दोनों राज्यों द्वारा चार सदस्यीय समिति का गठन किया गया, तो महाराष्ट्र ने मुख्य रूप से लगभग 3.25 लाख की आबादी और 1,160 वर्ग मील के कुल क्षेत्रफल के साथ कन्नड़ भाषी 260 गांँवों को स्थानांतरित करने की इच्छा व्यक्त की।।
- यह 814 गांँवों और तीन शहरी बस्तियों की मांग को स्वीकार करने के बदले में था, जिसे कर्नाटक राज्य द्वारा मानने से इनकार कर दिया गया।
- महाराष्ट्र के दावे का आधार:
- अपनी सीमा के पुन: समायोजन की मांग करने का महाराष्ट्र का दावा भाषायी बहुमत और लोगों की इच्छाओं के आधार पर था। बेलागवी और आसपास के क्षेत्रों पर दावा मराठी भाषी लोगों और भाषायी एकरूपता पर आधारित था, अतः इसने कारवार और सुपा पर अपना दावा प्रस्तुत किया क्योंकि यहाँ कोंकणी को मराठी की उपबोली के रूप में बोला जाता है।
- यह तर्क इस सिद्धांत पर आधारित था कि गाँव गणना की इकाई हैं और प्रत्येक गाँव में भाषायी जनसंख्या की गणना की जाती है। महाराष्ट्र ऐतिहासिक तथ्य की ओर भी इशारा करता है कि इन मराठी भाषी क्षेत्रों में राजस्व रिकॉर्ड भी मराठी भाषा में ही रखा जाता है।
- कर्नाटक की स्थिति:
- कर्नाटक ने तर्क दिया है कि राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अनुसार सीमाओं का समझौता अंतिम है।
- राज्य की सीमा न तो अस्थायी थी और न ही लचीली। राज्य का तर्क है कि यह मुद्दा उन सीमा मुद्दों को फिर से खोल देगा जिन परअधिनियम के तहत विचार नहीं किया गया है, अत: ऐसी मांग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।
- समस्या के समाधान के लिये उठाए गए कदम:
- वर्ष 1960 में दोनों राज्य प्रत्येक राज्य के दो प्रतिनिधियों के साथ एक चार सदस्यीय समिति गठित करने पर सहमत हुए। निकटता के मुद्दे को छोड़कर समिति एक सर्वसम्मत निर्णय पर नहीं पहुँच सकी।
- 1960 और 1980 के दशक के बीच कर्नाटक और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों ने इस उलझे हुए मुद्दे का समाधान खोजने के लिये कई बार मुलाकात की, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ।
- केंद्र सरकार की प्रतिक्रिया:
- केंद्र सरकार ने स्थिति का आकलन करने के लिये वर्ष 1966 में महाजन समिति का गठन किया। दोनों पक्षों, महाराष्ट्र और तत्कालीन मैसूर राज्य के प्रतिनिधि समिति का हिस्सा थे।
- 1967 में समिति ने सिफारिश की कि कर्नाटक के कारवार, हलियाल और सुपर्णा तालुका के कुछ गाँव महाराष्ट्र को दे दिये जाएँ लेकिन बेलागवी को दक्षिणी राज्य के साथ छोड़ दिया।
- सर्वोच्च न्यायालय का जवाब:
- 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इस मुद्दे को आपसी बातचीत से सुलझाया जाना चाहिये और भाषायी मानदंड पर विचार नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि इससे अधिक व्यावहारिक समस्याएँ पैदा हो सकती हैं।
- इस मामले की सुनवाई अभी भी सर्वोच्च न्यायालय में चल रही है।
- विभिन्न राज्यों के बीच अन्य सीमा विवाद:
भारत में राज्यों का पुनर्गठन:
- वर्ष 1947 में स्वतंत्रता के समय भारत में लगभग 550 असंबद्ध रियासतें शामिल थीं।
- वर्ष 1950 में संविधान में भारतीय संघ के राज्यों का चार गुना वर्गीकरण था- भाग A, भाग B, भाग C और भाग D राज्य।
- भाग A राज्यों में ब्रिटिश भारत के नौ तत्कालीन गवर्नर प्रांत शामिल थे।
- भाग B राज्यों में विधायिकाओं के साथ नौ पूर्ववर्ती रियासतें शामिल थीं।
- भाग C राज्यों में तत्कालीन मुख्य आयुक्त के अंतर्गत ब्रिटिश भारत प्रांत और कुछ पूर्ववर्ती रियासतें शामिल थीं।
- भाग D राज्य में केवल अंडमान और निकोबार द्वीप समूह शामिल थे।
- उस समय राज्यों का समूहीकरण भाषायी या सांस्कृतिक विभाजन के बजाय राजनीतिक और ऐतिहासिक विचारों के आधार पर किया जाता था, लेकिन यह एक अस्थायी व्यवस्था थी।
- बहुभाषी प्रकृति और विभिन्न राज्यों के बीच मौजूद मतभेदों के कारण राज्यों को स्थायी आधार पर पुनर्गठित करने की आवश्यकता थी।
- इस संदर्भ में भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की आवश्यकता पर गौर करने के लिये सरकार द्वारा 1948 में एस.के. धर समिति का गठन किया गया था।
- आयोग द्वारा भाषायी आधार पर नहीं बल्कि ऐतिहासिक और भौगोलिक आधार को शामिल करते हुए प्रशासनिक सुविधा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन को प्राथमिकता दी गई।
- इससे बहुत आक्रोश पैदा हुआ और एक अन्य भाषायी प्रांत समिति की नियुक्ति की गई।
- दिसंबर 1948 में इस मुद्दे का अध्ययन करने के लिये जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल और पट्टाभि सीतारमैया की जेवीपी समिति का गठन किया गया था।
- समिति ने अप्रैल 1949 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के विचार को खारिज़ करते हुए कहा कि जनता की मांग के आलोक में इस मुद्दे को नए सिरे से देखा जा सकता है।
- हालाँकि अक्तूबर 1953 में विरोध के कारण भारत सरकार ने तेलुगू भाषायी क्षेत्रों को मद्रास राज्य से अलग करके पहला भाषायी राज्य बनाया जिसे आंध्र राज्य के रूप में जाना जाता है।
- 22 दिसंबर, 1953 को जवाहरलाल नेहरू ने राज्यों के पुनर्गठन पर विचार करने के लिये फज़ल अली के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया।
- आयोग ने 1955 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तथा सुझाव दिया कि पूरे देश को 16 राज्यों और तीन केंद्र प्रशासित क्षेत्रों में विभाजित किया जाना चाहिये।
- सरकार ने सिफारिशों से पूरी तरह सहमत न होते हुए नवंबर 1956 में पारित राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तहत देश को 14 राज्यों और 6 केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया।
- वर्ष 1956 में राज्यों के बड़े पैमाने पर पुनर्गठन के बाद भी लोकप्रिय आंदोलनों और राजनीतिक परिस्थितियों के दबाव के कारण भारत के राजनीतिक मानचित्र में निरंतर परिवर्तन होते रहे।
- 5 अगस्त, 2019 को भारत के राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 370 के खंड (1) द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए संविधान (जम्मू और कश्मीर के लिये आवेदन) आदेश, 2019 जारी किया था।
- इसके द्वारा जम्मू और कश्मीर राज्य को दो नए केंद्रशासित प्रदेशों (UTs)- जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख में विभाजित कर दिया गया।
- हाल ही में दादरा और नागर हवेली तथा दमन और दीव (केंद्रशासित प्रदेशों का विलय) अधिनियम, 2019 द्वारा केंद्रशासित प्रदेशों (UTs)- दमन और दीव (D&D) तथा दादरा और नागर हवेली (DNH) का विलय कर दिया गया है।
- वर्तमान में भारत में 28 राज्य और 8 केंद्रशासित प्रदेश हैं।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
कृषि
स्टेट ऑफ इंडियाज़ लाइवलीहुड (SOIL) रिपोर्ट 2021: FPOs
प्रिलिम्स के लिये:किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ), एफपीओ से मिलने वाले लाभ, लघु कृषक कृषि व्यापार संघ (एसएफएसी), राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड), '10,000 एफपीओ का गठन और संवर्द्धन'। मेन्स के लिये:किसानों की आय दोगुनी करने में एफपीओ की उपयोगिता, एफपीओ के सामने आने वाली चुनौतियाँ और सरकार द्वारा की गई पहल। |
चर्चा में क्यों?
‘स्टेट ऑफ इंडियाज़ लाइवलीहुड (SOIL) रिपोर्ट’ 2021 में कहा गया है कि पिछले सात वर्षों में केंद्र सरकार की योजनाओं के तहत सिर्फ 1-5% किसान उत्पादक संगठनों (FPO) को फंडिंग प्राप्त हुई है।
प्रमुख बिंदु
- रिपोर्ट के संबंध में:
- एक्सेस डेवलपमेंट सर्विसेज़ नामक एक राष्ट्रीय आजीविका सहायता संगठन ने SOIL रिपोर्ट तैयार की है।
- इसने केवल किसान उत्पादक कंपनियों (एफपीसी- कंपनी अधिनियम, 2013 के तहत पंजीकृत FPO) का विश्लेषण किया है क्योंकि वे हाल के वर्षों में शुरू किये गए संगठनों का एक बड़ा बहुमत है।
- सहकारी समितियों या समितियों के रूप में पंजीकृत FPO की संख्या बहुत कम है।
- किसान उत्पादक संगठन (FPOs):
- अवधारणा: 'किसान उत्पादक संगठन (FPO)' की अवधारणा में उत्पादकों, विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसानों का सामूहिकीकरण शामिल है ताकि सामूहिक रूप से कृषि की कई चुनौतियों जैसे- निवेश, प्रौद्योगिकी, इनपुट और बाज़ारों तक बेहतर पहुँच का समाधान करने के लिये एक प्रभावी गठबंधन बनाया जा सके।
- एफपीओ एक प्रकार का उत्पादक संगठन (PO) है जिसके सदस्य किसान होते हैं।
- एक PO प्राथमिक उत्पादकों द्वारा गठित एक कानूनी इकाई है, अर्थात- किसान, दुग्ध उत्पादक, मछुआरे, बुनकर, ग्रामीण कारीगर, शिल्पकारों का समूह।
- स्वैच्छिक संगठन: FPO अपने किसान-सदस्यों द्वारा नियंत्रित स्वैच्छिक संगठन हैं जो अपनी नीतियों को निर्धारित करने और निर्णय लेने में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं।
- ये उन सभी व्यक्तियों के लिये खुले होते हैं जो अपनी सेवाओं का उपयोग करने में सक्षम हैं और बिना लैंगिक, सामाजिक, नस्लीय, राजनीतिक या धार्मिक भेदभाव के सदस्यता की ज़िम्मेदारियों को स्वीकार करने के इच्छुक हैं।
- शिक्षा और प्रशिक्षण प्रदान करना: FPO संचालक अपने किसान-सदस्यों, निर्वाचित प्रतिनिधियों, प्रबंधकों और कर्मचारियों के लिये शिक्षा और प्रशिक्षण सुविधा प्रदान करते हैं ताकि वे अपने FPO के विकास में प्रभावी रूप से योगदान कर सकें।
- अवधारणा: 'किसान उत्पादक संगठन (FPO)' की अवधारणा में उत्पादकों, विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसानों का सामूहिकीकरण शामिल है ताकि सामूहिक रूप से कृषि की कई चुनौतियों जैसे- निवेश, प्रौद्योगिकी, इनपुट और बाज़ारों तक बेहतर पहुँच का समाधान करने के लिये एक प्रभावी गठबंधन बनाया जा सके।
- FPOs का महत्त्व:
- औसत भूमि जोत का घटता आकार: औसत खेत का आकार वर्ष 1970-71 में 2.3 हेक्टेयर (हेक्टेयर) था जो वर्ष 2015-16 में घटकर 1.08 हेक्टेयर रह गया। लघु और सीमांत किसानों की हिस्सेदारी वर्ष 1980-81 में 70% थी जो वर्ष 2015-16 में बढ़कर 86% हो गई।
- FPOs किसानों को सामूहिक कृषि (Collective Farming) के लिये प्रेरित कर सकते हैं और छोटे आकार के खेतों की उत्पादकता के मुद्दों का समाधान प्रस्तुत कर सकते हैं।
- इसके परिणामस्वरूप खेती की बढ़ती गतिविधियों के कारण अतिरिक्त रोज़गार सृजन भी हो सकता है।
- कॉरपोरेट्स के साथ बातचीत: FPOs किसानों को सौदेबाज़ी में बड़े कॉर्पोरेट उद्यमों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने में मदद कर सकते हैं, क्योंकि ये सदस्यों को एक समूह के रूप में बातचीत करने हेतु एक मंच प्रदान करते हैं और छोटे किसानों को इनपुट व आउटपुट दोनों बाज़ारों में मदद कर सकते हैं।
- समुच्चय/समूहन का अर्थशास्त्र: FPO सदस्य किसानों को कम लागत और गुणवत्तापूर्ण इनपुट प्रदान कर सकता है। उदाहरण के लिये फसलों हेतु ऋण, मशीनरी की खरीद, इनपुट कृषि-आदान (उर्वरक, कीटनाशक आदि) और कृषि उपज की खरीद के बाद प्रत्यक्ष विपणन की सुविधा।
- यह सदस्यों को समय पर लेन-देन लागत,मूल्यों में उतार-चढ़ाव, परिवहन, गुणवत्ता रखरखाव आदि के मामले में बचत करने में सक्षम बनाएगा।
- सामाजिक प्रभाव: सामाजिक पूंजी FPOs के रूप में विकसित होगी, क्योंकि इससे FPOs में शामिल महिला किसानों का लेैगिक अनुपात और उनकी निर्णय लेने की क्षमता में सुधार हो सकता है।
- यह सामाजिक संघर्षों को कम कर सकता है और समुदाय में भोजन एवं पोषण मूल्यों में सुधार कर सकता है।
- औसत भूमि जोत का घटता आकार: औसत खेत का आकार वर्ष 1970-71 में 2.3 हेक्टेयर (हेक्टेयर) था जो वर्ष 2015-16 में घटकर 1.08 हेक्टेयर रह गया। लघु और सीमांत किसानों की हिस्सेदारी वर्ष 1980-81 में 70% थी जो वर्ष 2015-16 में बढ़कर 86% हो गई।
- FPOs का समर्थन:
- संस्थानों/संसाधन एजेंसियों (RAs) को बढ़ावा: FPOs को आमतौर पर संस्थानों/संसाधन एजेंसियों (RAs) को बढ़ावा देकर संगठित किया जाता है।
- लघु कृषक कृषि व्यवसाय संघ (SFAC) एफपीओ को बढ़ावा देने में सहायक होते हैं।
- संसाधन एजेंसियांँ, राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक जैसी एजेंसियाँ सरकारों से उपलब्ध सहायता का लाभ उठाती हैं।
- 10,000 एफपीओ का गठन और संवर्द्धन: कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने केंद्रीय क्षेत्रक योजना के तहत '10,000 किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) के गठन एवं संवर्द्धन' (FPOs) शीर्षक से केंद्रीय क्षेत्र की योजना शुरू की है।
- इक्विटी अनुदान योजना: वर्ष 2014 से SFAC द्वारा तीन वर्ष की अवधि के भीतर दो चरणों में अधिकतम 15 लाख रुपए तक इक्विटी अनुदान की पेशकश की गई है।
- पिछले सात वर्षों में सितंबर 2021 तक केवल 735 संगठनों को अनुदान दिया गया जो देश में वर्तमान में पंजीकृत कुल उत्पादक कंपनियों (PCs) का केवल 5% है।
- क्रेडिट गारंटी योजना: यह उन बैंकों को ज़ोखिम कवर प्रदान करती है जो FPCs को 1 करोड़ रुपए तक के संपार्श्विक मुक्त सावधि ऋण (Advance Collateral-Free Loans) प्रदान करते हैं।
- केवल 1% पंजीकृत निर्माता कंपनियांँ ही इसका लाभ उठा पाई हैं।
- संस्थानों/संसाधन एजेंसियों (RAs) को बढ़ावा: FPOs को आमतौर पर संस्थानों/संसाधन एजेंसियों (RAs) को बढ़ावा देकर संगठित किया जाता है।
- FPOs के समक्ष चुनौतियाँ:
- व्यावसायिक कौशल का अभाव: यद्यपि संसाधन एजेंसियों (RAs) में सामान्य रूप से सोशल मोबिलाइज़ेशन स्किल होती हैं लेकिन उनके पास व्यवसाय विकास और विपणन कौशल की कमी होती है जो एक व्यावसायिक इकाई के रूप में FPOs की सफलता के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
- अनुपलब्ध आपूर्ति शृंखला संचालन क्षमताएँ: आपूर्ति शृंखला संचालन में प्रबंधन क्षमताओं, बाज़ार की गतिशीलता, लिंकेज की बारीकियाँ, बाज़ार की खुफिया जानकारी तथा FPOs की संरचना एवं कार्यप्रणाली में स्पष्टता और समरूपता का अभाव है।
- व्यावसायिक कौशल का अभाव: यद्यपि संसाधन एजेंसियों (RAs) में सामान्य रूप से सोशल मोबिलाइज़ेशन स्किल होती हैं लेकिन उनके पास व्यवसाय विकास और विपणन कौशल की कमी होती है जो एक व्यावसायिक इकाई के रूप में FPOs की सफलता के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
- अनुपलब्ध आपूर्ति शृंखला संचालन क्षमताएँ: आपूर्ति शृंखला संचालन में प्रबंधन क्षमताओं, बाज़ार की गतिशीलता, लिंकेज की बारीकियाँ, बाज़ार की खुफिया जानकारी तथा FPOs की संरचना एवं कार्यप्रणाली में स्पष्टता और समरूपता का अभाव है।
- विभिन्न विकृतियाँ: वर्तमान प्रणाली कई बिचौलियों जैसी विकृतियों, ऊर्ध्वाधर एकीकरण की कमी (उत्पादन के दो या दो से अधिक चरणों की एक फर्म में संयोजन सामान्य रूप से अलग-अलग फर्मों द्वारा संचालित), कृषि वस्तुओं की आवाज़ाही पर खराब बुनियादी ढाँचे के प्रतिबंध आदि से ग्रस्त है।
- सीमित बाज़ार विकल्प और पारदर्शिता की कमी: सीमित बाज़ार विकल्प और पारदर्शिता की कमी किसानों के लिये बेहतर मूल्य प्राप्ति में प्रमुख बाधाएँ रही हैं।
- बिचौलियों के वर्तमान चक्रव्यूह को दरकिनार करते हुए सही बाज़ार खोजना महत्त्वपूर्ण है।
- कई FPOs में आपूर्ति-शृंखला के संचालन के प्रबंधन और बिना बिके उत्पादों को संग्रहीत करने की क्षमता का अभाव है।
आगे की राह:
- क्षमता निर्माण: FPOs को अन्य बातों के अलावा फंडिंग सुरक्षित रखने, ग्राहकों की पहचान और उनके साथ संबंध स्थापित करने, आंतरिक शासन प्रक्रियाओं को स्थापित करने की आवश्यकता है। इसके लिये उन्हें क्षमता निर्माण की आवश्यकता होती है ताकि वे स्टार्टअप चरण से विकास के साथ अंततः परिपक्वता की ओर बढ़ सकें।
- पात्रता के लिये सीमा को कम करना: FPOs को इक्विटी अनुदान और ऋण प्रदान करने के लिये सरकारी कार्यक्रमों और योजनाओं का लाभ उठाने की प्रक्रिया को आसान बनाना आवश्यक है। यह पात्रता के लिये सीमा को कम करके या पात्रता मानदंड तक पहुँचने के लिये FPOs का समर्थन करके या दोनों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
- संरचनात्मक मुद्दों से निपटना: कई FPOs में तकनीकी कौशल की कमी है, अपर्याप्त पेशेवर प्रबंधन, कमज़ोर वित्तीय स्थिति, ऋण, बाज़ार तथा बुनियादी ढाँचे तक अपर्याप्त पहुँच है।
स्रोत: डाउन टू अर्थ
सामाजिक न्याय
राज्य स्वास्थ्य सूचकांक का चौथा संस्करण
प्रिलिम्स के लिये:इंडेक्स के बारे में, राज्यों की रैंकिंग। मेन्स के लिये:भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र की चुनौतियाँ और इससे निपटने के लिये चलाई जा रही प्रमुख पहल |
चर्चा में क्यों?
वर्ष 2019-20 के लिये नीति आयोग ने राज्य स्वास्थ्य सूचकांक का चौथा संस्करण जारी किया है।
- "स्वस्थ राज्य, प्रगतिशील भारत" शीर्षक वाली रिपोर्ट राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को स्वास्थ्य परिणामों में साल-दर-साल वृद्धिशील प्रदर्शन के साथ-साथ उनकी समग्र स्थिति के आधार पर रैंक प्रदान करती है।
- इससे पहले ग्लोबल हेल्थ सिक्योरिटी (GHS) इंडेक्स 2021 को न्यूक्लियर थ्रेट इनिशिएटिव (NTI) और जॉन्स हॉपकिन्स सेंटर की साझेदारी में विकसित किया गया था। भारत का स्कोर 42.8 (100 में से) है और वर्ष 2019 की तुलना में इसमें 0.8 अंकों की गिरावट हुई है।
प्रमुख बिंदु:
- परिचय:
- राज्य स्वास्थ्य सूचकांक राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के प्रदर्शन का आकलन करने के लिये एक वार्षिक उपकरण है, जिसे वर्ष 2017 में संकलित और प्रकाशित किया गया है।
- यह 'स्वास्थ्य परिणामों', 'शासन और सूचना' तथा 'प्रमुख इनपुट/प्रक्रियाओं' के डोमेन के तहत समूहीकृत 24 संकेतकों पर आधारित एक भारित समग्र सूचकांक है।
- स्वास्थ्य परिणाम:
- इसमें नवजात मृत्यु दर, अंडर-5 मृत्यु दर, जन्म के समय लिंगानुपात जैसे पैरामीटर शामिल हैं।
- शासन और सूचना:
- इसमें स्वास्थ्य से सम्बंधित वरिष्ठ अधिकारियों की संस्थागत प्रसव और औसत ऑक्यूपेंसी जैसे पैरामीटर शामिल हैं।
- मुख्य इनपुट/प्रक्रियाएँ:
- इसमें स्वास्थ्य देखभाल में कमी का अनुपात, कार्यात्मक चिकित्सा सुविधाएँ, जन्म और मृत्यु पंजीकरण तथा तपेदिक उपचार आदि शामिल हैं।
- स्वास्थ्य परिणाम:
- विकास:
- इस रिपोर्ट को नीति आयोग द्वारा विश्व बैंक की तकनीकी सहायता और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW) के गहन परामर्श से विकसित किया गया है।
- चौथे संस्करण का फोकस/केंद्रीय बिंदु:
- रिपोर्ट का चौथा दौर वर्ष 2018-19 से वर्ष 2019-20 की अवधि में राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के समग्र प्रदर्शन और वृद्धिशील सुधार को मापने और उजागर करने पर केंद्रित है।.
- राज्यों की रैंकिंग:
- समान संस्थाओं के मध्य तुलना सुनिश्चित करने हेतु रैंकिंग को इस प्रकार वर्गीकृत किया गया है:
- बड़े राज्य:
- बड़े राज्यों' की श्रेणी के तहत ‘वार्षिक क्रमिक प्रदर्शन’ (Annual Incremental Progress) के मामले में उत्तर प्रदेश, असम और तेलंगाना शीर्ष रैंकिंग वाले तीन राज्य हैं।
- छोटे राज्य:
- ‘छोटे राज्यों' की श्रेणी में मिज़ोरम और मेघालय ने अधिकतम वार्षिक क्रमिक प्रगति दर्ज की है।
- केंद्रशासित प्रदेश:
- केंद्रशासित प्रदेशों की श्रेणी में दिल्ली के बाद जम्मू और कश्मीर ने सबसे अच्छा क्रमिक प्रदर्शन किया है।
- समेकित/ओवरआल:
- वर्ष 2019-20 में समेकित सूचकांक अंक के आधार पर व्यापक रैंकिंग के तहत 'बड़े राज्यों' में केरल व तमिलनाडु, 'छोटे राज्यों' में मिज़ोरम व त्रिपुरा और केंद्रशासित प्रदेशों में दादरा एवं नगर हवेली व दमन व दीव तथा चंडीगढ़ शीर्ष रैकिंग वाले राज्य हैं।
- बड़े राज्य:
- समान संस्थाओं के मध्य तुलना सुनिश्चित करने हेतु रैंकिंग को इस प्रकार वर्गीकृत किया गया है:
- इंडेक्स का महत्त्व:
- नीति निर्माण:
- राज्य द्वारा इसका उपयोग नीति निर्माण और संसाधनों के आवंटन में किया जाता है।
- यह रिपोर्ट प्रतिस्पर्द्धी और सहकारी संघवाद दोनों का उदाहरण प्रस्तुत करती है।
- राज्य द्वारा इसका उपयोग नीति निर्माण और संसाधनों के आवंटन में किया जाता है।
- स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा:
- यह सूचकांक राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा एवं क्रॉस-लर्निंग को प्रोत्साहित करता है।
- इसका उद्देश्य राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में मज़बूत स्वास्थ्य प्रणाली विकसित करने और सेवा वितरण में सुधार करना है।
- यह सूचकांक राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा एवं क्रॉस-लर्निंग को प्रोत्साहित करता है।
- सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) की प्राप्ति में सहायक:
- इस अभ्यास से स्वास्थ्य संबंधी सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) को प्राप्त करने के लिये राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के प्रयासों में मदद मिलने की आशा है, जिसमें यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज (UHC) और अन्य स्वास्थ्य परिणामों से संबंधित लक्ष्य शामिल हैं।
- राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में भूमिका:
- राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत प्रोत्साहन प्राप्त करने हेतु सूचकांक को जोड़ने में MoHFW के निर्णय से इस वार्षिक रिपोर्ट के महत्त्व पर ज़ोर दिया गया है।
- नीति निर्माण:
- सूचकांक की सीमाएँ:
- महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को कवर नहीं किया गया:
- कुछ महत्त्वपूर्ण क्षेत्र जैसे- संक्रामक रोग, गैर-संचारी रोग (एनसीडी), मानसिक स्वास्थ्य, शासन और वित्तीय जोखिम संरक्षण के वार्षिक आधार पर डेटा की स्वीकार्य गुणवत्ता की अनुपलब्धता के कारण स्वास्थ्य सूचकांक में ये सभी क्षेत्र पूरी तरह से शामिल नहीं हैं।
- सीमित डेटा:
- कई संकेतकों के लिये स्वास्थ्य सेवाओं के संबंध में निजी क्षेत्र के डेटा की कमी और असमान उपलब्धता के कारण डेटा सार्वजनिक सुविधाओं में सेवा वितरण तक सीमित है।
- परिणामी संकेतकों के लिये, जैसे- नवजात मृत्यु दर, पाँच वर्ष से कम मृत्यु दर, मातृ मृत्यु अनुपात और जन्म के समय लिंग अनुपात संबंधी डेटा केवल बड़े राज्यों के लिये उपलब्ध है।
- कई संकेतकों के लिये स्वास्थ्य सेवाओं के संबंध में निजी क्षेत्र के डेटा की कमी और असमान उपलब्धता के कारण डेटा सार्वजनिक सुविधाओं में सेवा वितरण तक सीमित है।
- बिना क्षेत्रीय सत्यापन के डेटा का उपयोग:
- कई संकेतकों के लिये, स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना प्रणाली (HMIS) डेटा और अन्य कार्यक्रम संबंधी डेटा का उपयोग बिना किसी क्षेत्रीय सत्यापन के किया गया था, क्योंकि स्वतंत्र क्षेत्रीय सर्वेक्षण आयोजित करने में व्यवहार्यता की कमी देखी गई।
- महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को कवर नहीं किया गया:
संबंधित पहल
- राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम)
- आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (AB PM-JAY)
- प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना (पीएमएसएसवाई)
- प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि योजना।
- आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन
स्रोत: पी.आई.बी.
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
त्रिंकोमाली तेल टैंक फार्म सौदा: भारत-श्रीलंका
प्रिलिम्स के लिये:त्रिंकोमाली तेल टैंक फार्म सौदा, त्रिंकोमाली बंदरगाह की अवस्थिति, कच्चातीवु द्वीप संबंधी मुद्दा, भारत और श्रीलंका के मध्य संयुक्त सैन्य अभ्यास, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI), लाइन ऑफ क्रेडिट, मुद्रा स्वैप समझौता मेन्स के लिये:भारत-श्रीलंका संबंध, भारत-श्रीलंका समझौता 1987 |
चर्चा में क्यों?
भारत और श्रीलंका जल्द ही त्रिंकोमाली तेल टैंक फार्मों को संयुक्त रूप से विकसित करने हेतु लंबे समय से लंबित सौदे पर हस्ताक्षर करने जा रहे हैं।
- दोनों देशों के मध्य तनावपूर्ण संबंधों के बीच समझौते पर हस्ताक्षर एक सकारात्मक संकेत को दर्शाएगा।
प्रमुख बिंदु
- ‘त्रिंकोमाली तेल टैंक फार्म’ के विषय में:
- तेल टैंक फार्म द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ईंधन भरने वाले स्टेशन के रूप में अंग्रेज़ों द्वारा बनाया गया था।
- यह त्रिंकोमाली के गहरे पानी में स्थित प्राकृतिक बंदरगाह के करीब 'चाइना बे' में स्थित है।
- इस संयुक्त विकास के प्रस्ताव की परिकल्पना 35 वर्ष पूर्व भारत-श्रीलंका समझौते (1987) में की गई थी।
- इसमें 99 भंडारण टैंक शामिल हैं, जिनमें से प्रत्येक में 12,000 किलोलीटर की क्षमता है, जो लोअर टैंक फार्म और अपर टैंक फार्म के रूप में फैले हुए हैं।
- वर्ष 2003 में इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन ने इस तेल फार्म पर काम करने के लिये अपनी श्रीलंकाई सहायक कंपनी ‘लंका IOC’ की स्थापना की थी।
- वर्तमान में ‘लंका IOC’ के पास 15 टैंक हैं। शेष टैंकों के लिये नए समझौते पर वार्ता चल रही है।
- समझौते का महत्त्व:
- त्रिंकोमाली तेल टैंक फार्मों की अवस्थिति इसे कई अनुकूल कारक प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिये:
- आसान पहुँच: यह त्रिंकोमाली के गहरे जल के प्राकृतिक बंदरगाह पर स्थित है।
- हिंद महासागर में रणनीतिक स्थान: ये तेल फार्म विश्व के कुछ सबसे व्यस्त शिपिंग लेन के साथ स्थित हैं।
- इस प्रकार त्रिंकोमाली बंदरगाह से सटे एक अच्छी तरह से विकसित तेल भंडारण सुविधा और रिफाइनरी का भारत और श्रीलंका दोनों के लिये बहुत आर्थिक मूल्य होगा।
- त्रिंकोमाली तेल टैंक फार्मों की अवस्थिति इसे कई अनुकूल कारक प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिये:
भारत-लंका समझौता:
- इस समझौते के सूत्रधार भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी और श्रीलंका के राष्ट्रपति जे.आर. जयवर्धने थे, यह समझौता मुख्य रूप से राजीव-जयवर्धने समझौते के रूप में जाना जाता है। वर्ष 1987 में इस समझोते पर हस्ताक्षर किये गए थे।
- इस समझौते पर श्रीलंका में गृहयुद्ध (तमिलों और सिंहल समुदाय के बीच) के बहाने हस्ताक्षर किये गए थे।
- समझौते में भारत के सामरिक हितों, श्रीलंका में भारतीय मूल के लोगों के हितों और श्रीलंका में तमिल अल्पसंख्यकों के अधिकारों को संतुलित करने की मांग की गई थी।.
- समझौते के तहत श्रीलंकाई गृहयुद्ध को हल करने हेतु श्रीलंका में भारतीय शांति रक्षा बल (Indian Peace Keeping Force- IPKF) की नियुक्ति की गई।
- समझौते के परिणामस्वरूप श्रीलंका के संविधान में 13वें सविधान संशोधन और वर्ष 1987 के प्रांतीय परिषद अधिनियम को भी लागू किया गया।
भारत-श्रीलंका संबंधों में तनाव:
- चीन का हस्तक्षेप: श्रीलंका में चीन का तेज़ी से बढ़ता हस्तक्षेप (और इसके परिणाम के रूप में राजनीतिक दबदबा) भारत-श्रीलंका संबंधों को तनावपूर्ण बना रहा है।
- चीन पहले से ही श्रीलंका में सबसे बड़ा निवेशक है, जिसका श्रीलंका में वर्ष 2010-2019 के दौरान कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में 23.6% हिस्सा है, जबकि भारत का हिस्सा 10.4% है।
- चीन श्रीलंकाई सामानों के लिये सबसे बड़े निर्यात स्थलों में से एक है और अपने विदेशी ऋण का 10% से अधिक रखता है।
- चीन श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह को भी संभाल रहा है, इस बंदरगाह को चीन की स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स रणनीति के हिस्से के रूप में देखा जाता है।
- कच्चातीवु द्वीप मुद्दा: भारत ने वर्ष 1974 में एक सशर्त समझौते के तहत कच्चातीवु नामक निर्जन द्वीप को अपने दक्षिणी पड़ोसी देश को सौंप दिया।
- हालाँकि भारत-श्रीलंका के दृष्टिकोण के बजाय यह विवाद कई बार मछुआरों से संबंधित घरेलू संघर्ष के कारण उत्पन्न होता है।
- श्रीलंका के संविधान का 13वाँ संशोधन: श्रीलंका के संघर्ष के राजनीतिक समाधान के लिये वर्ष 1987 में भारत-श्रीलंका समझौते पर हस्ताक्षर किये गए थे।
- यह एक संयुक्त श्रीलंका के भीतर समानता, न्याय, शांति और सम्मान के लिये तमिल लोगों की उचित मांग को पूरा करने हेतु प्रांतीय परिषदों को आवश्यक शक्तियों के हस्तांतरण की परिकल्पना करता है।
- इस समझौते के प्रावधान श्रीलंका के संविधान में 13वें संशोधन द्वारा किये गए थे।
- बावजूद इसके प्रावधानों को धरातल पर लागू नहीं किया जा रहा है। आज भी श्रीलंकाई गृहयुद्ध (2009) से बचने वाले बहुत से श्रीलंकाई तमिल तमिलनाडु में शरण मांग रहे हैं।
- श्रीलंका का पीछे हटना: हाल ही में श्रीलंका घरेलू मुद्दों का हवाला देते हुए कोलंबो पोर्ट पर अपने ईस्ट कंटेनर टर्मिनल प्रोजेक्ट के लिये भारत और जापान के साथ त्रिपक्षीय साझेदारी से पीछे हट गया।
भारत-श्रीलंका सहयोग: हाल के घटनाक्रम:
- फोर-पिलर इनिशिएटिव: हाल ही में भारत और श्रीलंका ने श्रीलंका के आर्थिक संकट को कम करने में मदद हेतु खाद्य एवं ऊर्जा सुरक्षा पर चर्चा करने के लिये चार सूत्री रणनीति पर सहमति व्यक्त की है।
- इस फोर-पिलर इनिशिएटिव में लाइन ऑफ क्रेडिट, करेंसी स्वैप एग्रीमेंट, मॉडर्नाइज़ेशन प्रोजेक्ट (जैसे द इंडियन हाउसिंग प्रोजेक्ट) और भारतीय निवेश शामिल हैं।
- संयुक्त अभ्यास: भारत और श्रीलंका संयुक्त सैन्य अभ्यास (मित्र शक्ति) तथा नौसैनिक अभ्यास- स्लीनेक्स (SLINEX) का आयोजन करते हैं।
- समूहों के बीच भागीदारी: श्रीलंका भी बिम्सटेक (बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिये बंगाल की खाड़ी पहल) और सार्क जैसे समूहों का सदस्य है जिसमें भारत प्रमुख भूमिका निभाता है।
- SAGAR विज़न: श्रीलंका अपनी 'पड़ोसी पहले' नीति और सागर (क्षेत्र में सभी के लिये सुरक्षा और विकास) के साथ हिंद महासागर की सुरक्षा के लिये भारत की चिंता का समर्थन करता है।
आगे की राह
- श्रीलंका के साथ ‘नेबरहुड फर्स्ट’ नीति का संपोषण भारत के लिये हिंद महासागर क्षेत्र में अपने रणनीतिक हितों को संरक्षित करने के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है।
- श्रीलंका के प्रति अपनी 'द्वीपीय कूटनीति' के हिस्से के रूप में भारतीय विदेश नीति को भी आकस्मिक वास्तविकताओं और खतरों के अनुरूप विकसित करना होगा।
- दोनों देश आर्थिक लचीलापन पैदा करने के लिये निजी क्षेत्र में निवेश को बढ़ाने में भी सहयोग कर सकते हैं।
स्रोत: द हिंदू
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
मिशन सागर
प्रीलिम्स के लिये:मिशन सागर, मोज़ाम्बिक की अवस्थिति, हिंद महासागर क्षेत्र, आसियान देश। मेन्स के लिये:मिशन सागर और भारत के लिये इसका महत्त्व। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में आईएनएस केसरी, मोज़ाम्बिक की सरकार के प्रयासों का समर्थन करने हेतु चल रहे सूखे और महामारी की समवर्ती चुनौतियों से निपटने के लिये 500 टन खाद्य सहायता देने हेतु ‘मापुटो’ (मोज़ाम्बिक) के बंदरगाह पर पहुँच गया है।
- भारत ने मोज़ाम्बिक को दो तेज़ इंटरसेप्टर क्राफ्ट और आत्मरक्षा सैन्य उपकरण भी दिये हैं।
- ‘क्षेत्र में सभी के लिये सुरक्षा और विकास’ (सागर) के प्रधानमंत्री के दृष्टिकोण के अनुरूप यह आठवीं ऐसी तैनाती है तथा विदेश मंत्रालय एवं भारत सरकार की अन्य एजेंसियों के साथ निकट समन्वय में आयोजित की जा रही है।
प्रमुख बिंदु
- मिशन सागर:
- मई 2020 में शुरू किया गया 'मिशन सागर' हिंद महासागर के तटवर्ती राज्यों में देशों को कोविड-19 संबंधित सहायता प्रदान करने हेतु भारत की पहल थी। इसके तहत मालदीव, मॉरीशस, मेडागास्कर, कोमोरोस और सेशेल्स जैसे देश शामिल थे।
- मिशन सागर ’के तहत भारतीय नौसेना हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) और उसके तटवर्ती देशों में चिकित्सा और मानवीय सहायता भेजने के लिये अपने जहाज़ों को तैनात कर रही है।
- इस मिशन के तहत भारतीय नौसेना ने 15 मित्र देशों को 3,000 मीट्रिक टन से अधिक खाद्य सहायता, 300 मीट्रिक टन से अधिक तरल चिकित्सा ऑक्सीजन, 900 ऑक्सीजन कंसंट्रेटर और 20 आईएसओ कंटेनरों की सहायता प्रदान की है।
- नवंबर 2020 में मिशन सागर-द्वितीय के हिस्से के रूप में आईएनएस ऐरावत ने सूडान, दक्षिण सूडान, जिबूती और इरिट्रिया को खाद्य सहायता पहुँचाई।
- मिशन सागर-III वर्तमान कोविड-19 महामारी के दौरान मित्र देशों को भारत की मानवीय सहायता और आपदा राहत सहायता का हिस्सा है।
- यह सहायता वियतनाम और कंबोडिया को भी दी गई है। यह आसियान देशों को दिये गए महत्त्व पर प्रकाश डालता है और मौजूदा संबंधों को और मज़बूत करता है।
- मई 2020 में शुरू किया गया 'मिशन सागर' हिंद महासागर के तटवर्ती राज्यों में देशों को कोविड-19 संबंधित सहायता प्रदान करने हेतु भारत की पहल थी। इसके तहत मालदीव, मॉरीशस, मेडागास्कर, कोमोरोस और सेशेल्स जैसे देश शामिल थे।
- महत्त्व:
- भारत का विस्तारित समुद्री पड़ोस:
- यह तैनाती भारत के विस्तारित समुद्री पड़ोस के साथ एकजुटता में आयोजित की गई है और इन विशेष संबंधों के माध्यम से भारत के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया।
- यह मित्र राष्ट्रों की आवश्यकता के समय भारत की प्रथम प्रतिक्रिया के रूप में भूमिका के अनुरूप है।
- आतंकवाद से निपटने में उपयोगी:
- यह उपयोगी उपकरण होगा क्योंकि मोजाम्बिक का उत्तरी क्षेत्र आतंकवाद की चपेट में है।
- आतंकवादी समूह इस्लामिक स्टेट, जिसे दाएश (Da’esh) के नाम से भी जाना जाता है, इसके सहयोगी मध्य अफ्रीका में तेजी से फैल गया है।
- यह उपयोगी उपकरण होगा क्योंकि मोजाम्बिक का उत्तरी क्षेत्र आतंकवाद की चपेट में है।
- सामान्य समुद्री चुनौतियों से निपटना:
- यह इस क्षेत्र में आम समुद्री चुनौतियों (राष्ट्र-राज्यों के बीच पारंपरिक समुद्री संघर्ष, पर्यावरणीय खतरों, अन्य-राज्यों द्वारा उत्पन्न खतरों, समुद्री आतंकवाद और समुद्री डकैती), अवैध समुद्री व्यापार व तस्करी से निपटने में भी मदद करता है।
- नवंबर (2021) में गोवा मैरीटाइम कॉन्क्लेव के दूसरे संस्करण में यह चर्चा का एक प्रमुख विषय था, जो कि हिंद महासागर क्षेत्र के देशों को एक साथ जोड़ता है।
- भारत का विस्तारित समुद्री पड़ोस:
सागर (SAGAR) पहल:
- सागर पहल (Security and Growth for All in the Region-SAGAR) को वर्ष 2015 में शुरू किया गया था। यह हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) के लिये भारत की रणनीतिक पहल है।
- सागर के माध्यम से भारत अपने समुद्री पड़ोसियों के साथ आर्थिक और सुरक्षा सहयोग को मज़बूत करने और उनकी समुद्री सुरक्षा क्षमताओं के निर्माण में सहायता करना चाहता है।
- इसके अलावा भारत अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना चाहता है और हिंद महासागर क्षेत्र में समावेशी, सहयोगी तथा अंतर्राष्ट्रीय कानून का सम्मान करना सुनिश्चित करता है।
- सागर की प्रमुख प्रासंगिकता तब सामने आती है जब समुद्री क्षेत्र को प्रभावित करने वाली भारत की अन्य नीतियों जैसे- एक्ट ईस्ट पॉलिसी, प्रोजेक्ट सागरमाला, प्रोजेक्ट मौसम, को ब्लू इकोनॉमी आदि पर 'शुद्ध सुरक्षा प्रदाता' के रूप में देखा जाता है।
स्रोत: द हिंदू
जैव विविधता और पर्यावरण
हरित वित्तपोषण
प्रिलिम्स के लिये:COP-26 जलवायु शिखर सम्मेलन, वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन, जलवायु वित्तपोषण के लिये वैश्विक ढाँचा , क्योटो प्रोटोकॉल, UNFCCC, वैश्विक पर्यावरण कोष (GEF) मेन्स के लिये:भारत में जलवायु वित्त पोषण की स्थिति, जलवायु वित्त पोषण, हरित वित्त की आवश्यकता और इसका महत्त्व। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री ने COP-26 जलवायु शिखर सम्मेलन में घोषणा की है कि भारत वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन स्थिति प्राप्त करेगा।
- इन जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिये भारत जैसे देश को अगले दस वर्षों में अतिरिक्त वित्तपोषण के लिये लगभग 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता होगी।
प्रमुख बिंदु:
- परिचय:
- ग्रीन फाइनेंसिंग सार्वजनिक, निजी और गैर-लाभकारी क्षेत्रों से सतत् विकास प्राथमिकताओं के लिये वित्तीय प्रवाह (बैंकिंग, माइक्रो-क्रेडिट, बीमा और निवेश से) के स्तर को बढ़ाने के लिये है।
- इसका एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा पर्यावरणीय और सामाजिक ज़ोखिमों को बेहतर ढंग से प्रबंधित करना है, ऐसे अवसरों का लाभ उठाना जो प्रतिफल की एक अच्छी दर और पर्यावरणीय लाभ के साथ ही अधिक जवाबदेही सुनिश्चित करते हैं।
- जलवायु (हरित) वित्त की आवश्यकता:
- ‘प्रदूषणकर्त्ता द्वारा भुगतान’ का सिद्धांत (Polluter Pays Principle)
- ‘प्रदूषणकर्त्ता द्वारा भुगतान’ का सिद्धांत (Polluter Pays Principle) आमतौर पर स्वीकृत प्रथा है जिसके अनुसार प्रदूषण उत्पन्न करने वालों को मानव स्वास्थ्य या पर्यावरण को नुकसान से बचाने के लिये इसके प्रबंधन की लागत वहन करनी चाहिये।
- सामान्य लेकिन विभेदित उत्तरदायित्व और संबंधित क्षमता (सीबीडीआर-आरसी):
- यह जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने में अलग-अलग देशों की विभिन्न क्षमताओं और अलग-अलग ज़िम्मेदारियों को स्वीकार करता है।
- अंतर्निहित सिद्धांत: विकसित देश ऐतिहासिक रूप से प्रमुख पर्यावरण प्रदूषक रहे हैं।
- इसलिये उपर्युक्त सिद्धांतों के आधार पर विकसित देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये प्रौद्योगिकी और वित्त प्रदान करने हेतु नैतिक रूप से ज़िम्मेदार हैं।
- ‘प्रदूषणकर्त्ता द्वारा भुगतान’ का सिद्धांत (Polluter Pays Principle)
- जलवायु वित्तपोषण की स्थिति:
- विकसित देशों से अपेक्षित योगदान: विकसित देशों से आवश्यक जलवायु वित्त विकासशील देशों को उनके जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिये प्रतिवर्ष 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर हस्तांतरित करना।
- विकसित देशों द्वारा वास्तविक योगदान: वर्ष 2010 में ‘कैनकन समझौतों’ के माध्यम से विकसित देशों ने विकासशील देशों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये वर्ष 2020 तक प्रतिवर्ष संयुक्त रूप से 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाने के लक्ष्य हेतु प्रतिबद्धता ज़ाहिर की थी।
- हालाँकि ‘ग्लासगो जलवायु समझौते’ (COP26) ने नोट किया कि विकसित देशों की प्रतिबद्धता अभी तक पूरी नहीं हुई है।
- इस संबंध में ‘COP26’ ने ‘संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज’ (UNFCCC) को वित्त पर स्थायी समिति से वर्ष 2022 में ऐसे देशों पर एक रिपोर्ट तैयार करने का अनुरोध किया है, जो विकासशील देशों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये प्रतिवर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाने के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में प्रगति कर रहे हैं।
- ग्लोबल फ्रेमवर्क फॉर क्लाइमेट फाइनेंसिंग:
- जलवायु वित्त के प्रावधान को सुविधाजनक बनाने हेतु UNFCCC ने विकासशील देशों को वित्तीय संसाधन प्रदान करने के लिये वित्तीय तंत्र की स्थापना की है।
- क्योटो प्रोटोकॉल के तहत अनुकूलन कोष: इसका उद्देश्य उन परियोजनाओं और कार्यक्रमों को वित्तपोषित करना है, जो विकासशील देशों में संवेदनशील समुदायों की मदद करते हैं और जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिये क्योटो प्रोटोकॉल के पक्षकार हैं।
- ग्रीन क्लाइमेट फंड: यह वर्ष 2010 में स्थापित UNFCCC का वित्तीय तंत्र है।
- भारत, प्रतिवर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर की पेरिस समझौते की जलवायु वित्त प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिये विकसित देशों पर ज़ोर दे रहा है।
- वैश्विक पर्यावरण कोष (GEF): वर्ष 1994 में कन्वेंशन लागू होने के बाद से ‘वैश्विक पर्यावरण कोष’ ने वित्तीय तंत्र की एक परिचालन इकाई के रूप में कार्य किया है।
- यह एक निजी इक्विटी फंड है जो जलवायु परिवर्तन के तहत स्वच्छ ऊर्जा में निवेश द्वारा दीर्घकालिक वित्तीय रिटर्न प्राप्त करने पर केंद्रित है।
- जीईएफ दो अतिरिक्त फंड, स्पेशल क्लाइमेट चेंज फंड (SCCF) और कम विकसित देशों के फंड (LDCF) का भी रखरखाव करता है।
- जलवायु वित्त के प्रावधान को सुविधाजनक बनाने हेतु UNFCCC ने विकासशील देशों को वित्तीय संसाधन प्रदान करने के लिये वित्तीय तंत्र की स्थापना की है।
भारत में जलवायु वित्तपोषण:
- घरेलू संसाधनों से वित्तपोषण: भारत की जलवायु क्रियाओं को अब तक बड़े पैमाने पर घरेलू संसाधनों द्वारा वित्तपोषित किया गया है।
- वर्ष 2014 और 2019 के बीच यूएनएफसीसीसी द्वारा जारी भारत की तीसरी द्विवार्षिक अद्यतन रिपोर्ट 2021 के अनुसार, वैश्विक पर्यावरण सुविधा और हरित जलवायु कोष ने कुल 165.25 मिलियन यूएसडी का अनुदान प्रदान किया है।
- हरित वित्तपोषण के लिये धन: जलवायु परिवर्तन से संबंधित हरित वित्तपोषण प्रमुख रूप से राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा कोष (एनसीईएफ) और राष्ट्रीय अनुकूलन कोष (एनएएफ) द्वारा जुटाया जाता है।
- भारत सरकार जलवायु परिवर्तन के लिये राष्ट्रीय कार्य योजना के तहत स्थापित आठ मिशनों के माध्यम से वित्तपोषण भी प्रदान करती है।
- इसने वित्त मंत्रालय में एक जलवायु परिवर्तन वित्त इकाई (सीसीएफयू) की स्थापना की है, जो सभी जलवायु परिवर्तन वित्तपोषण मामलों के लिये नोडल एजेंसी है।
हाल ही में भारत सरकार की पहल:
- प्रदर्शन उपलब्धि और व्यापार (पीएटी) योजना: सरकार ने 13 ऊर्जा गहन क्षेत्रों में कार्बन उत्सर्जन में कमी को लक्षित करते हुए पीएटी योजना शुरू की है।
- विदेशी पूंजी को प्रोत्साहित करना: सरकार ने अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में स्वचालित मार्ग के तहत 100 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की अनुमति दी है।
- अक्षय ऊर्जा को प्रोत्साहन:
- सरकार ने परियोजनाओं के लिये सौर और पवन ऊर्जा की अंतर-राज्यीय बिक्री हेतु अंतर-राज्यीय पारेषण प्रणाली (आईएसटीएस) शुल्क माफ कर दिया है।
- अक्षय खरीद दायित्व (आरपीओ) के लिये प्रावधान करना और अक्षय ऊर्जा पार्क स्थापित करना।
- राष्ट्रीय हाइड्रोजन मिशन की घोषणा।
- भारत का राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान: इसे पेरिस समझौते के तहत वर्ष 2015 में हस्ताक्षरकर्त्ता देशों द्वारा अपनाया गया था, भारत ने निर्धारित लक्ष्यों के साथ राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NCD) प्रस्तुत किया था:
- अपने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की उत्सर्जन तीव्रता को वर्ष 2030 तक वर्ष 2005 के स्तर से 33-35% तक कम करना।
- वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा संसाधनों से लगभग 40% संचयी विद्युत शक्ति स्थापित क्षमता प्राप्त करना।
- वर्ष 2030 तक अतिरिक्त वन और वृक्षों के आवरण के माध्यम से 2.5-3 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर अतिरिक्त कार्बन सिंक निर्मित करना।
आगे की राह
- सहयोग के दायरे का विस्तार: सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ वित्तीय बाज़ारों, बैंकों, निवेशकों, सूक्ष्म-ऋण संस्थाओं, बीमा कंपनियों में प्रमुख भागीदारों को शामिल करने हेतु बहु-हितधारक भागीदारी को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- समग्र ढांँचा: निम्नलिखित को बढ़ावा देकर हरित वित्तपोषण को बढ़ावा दिया जा सकता है:
- देशों के नियामक ढांँचे में बदलाव लाकर।
- सार्वजनिक वित्तीय प्रोत्साहनों के सामंजस्य से।
- विभिन्न क्षेत्रों से हरित वित्तपोषण में वृद्धि करके।
- सतत् विकास लक्ष्यों के पर्यावरणीय आयाम के साथ सार्वजनिक क्षेत्र के वित्तपोषण निर्णय लेने के संरेखण द्वारा
- स्वच्छ और हरित प्रौद्योगिकियों के निवेश में वृद्धि करके।
- टिकाऊ प्राकृतिक संसाधन-आधारित हरित अर्थव्यवस्थाओं और जलवायु स्मार्ट नीली अर्थव्यवस्था हेतु वित्तपोषण द्वारा।
- ग्रीन बॉण्ड के उपयोग को बढ़ावा देकर।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
भारत में 5G सेवा
प्रिलिम्स के लिये:5G, IoT, बिग डेटा, AI, एज कंप्यूटिंग, चौथी औद्योगिक क्रांति। मेन्स के लिये:5G का उपयोग, भारत में 5G रोलआउट के लिये चुनौतियाँ, दूरसंचार प्रौद्योगिकी का विकास |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में दूरसंचार विभाग (DoT) ने घोषणा की है कि भारत के प्रमुख महानगरों में अगले साल 5G सेवाएँ संचालित होंगी।
- अन्य वैश्विक देशों की तरह भारत ने वर्ष 2018 में अतिशीघ्र 5G सेवाओं को शुरू करने की योजना बनाई थी, जिसका उद्देश्य उस बेहतर नेटवर्क गति और शक्ति का लाभ उठाना था, जिसका वादा प्रौद्योगिकी ने किया था।
प्रमुख बिंदु
- 5G तकनीक:
- 5G 5वीं पीढ़ी का मोबाइल नेटवर्क है। यह 1G, 2G, 3G और 4G नेटवर्क के बाद एक नया वैश्विक वायरलेस मानक है।
- यह एक नए प्रकार के नेटवर्क को सक्षम बनाता है जिसे मशीनों, वस्तुओं और उपकरणों सहित लगभग सभी को और सब कुछ एक साथ जोड़ने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
- 5G के हाई-बैंड स्पेक्ट्रम में इंटरनेट की गति का परीक्षण 20 Gbps (गीगाबिट प्रति सेकंड) के रूप में किया गया है, जबकि अधिकांश मामलों में 4G में अधिकतम इंटरनेट डेटा गति 1 Gbps दर्ज की गई है।
पहली पीढ़ी से पाँचवीं पीढ़ी तक का विकास
- 1G को 1980 के दशक में लॉन्च किया गया था, यह एनालॉग रेडियो सिग्नल पर काम करता था और केवल वॉयस कॉल का समर्थन करता था।
- 2G को 1990 के दशक में लॉन्च किया गया था जो डिजिटल रेडियो सिग्नल का उपयोग करता है और 64 Kbps की बैंडविड्थ के साथ वॉयस और डेटा ट्रांसमिशन दोनों को सपोर्ट करता है।
- 3G को 2000 के दशक में 1 एमबीपीएस से 2 एमबीपीएस की गति के साथ लॉन्च किया गया था और इसमें डिजिटल वॉयस, वीडियो कॉल और कॉन्फ्रेंसिंग सहित टेलीफोन सिग्नल प्रसारित करने की क्षमता है।
- 4G को वर्ष 2009 में 100 Mbps से 1 Gbps की ‘पीक स्पीड’ के साथ लॉन्च किया गया था और यह ‘3D वर्चुअल रियलिटी’ को भी सक्षम बनाता है।
- विभिन्न प्रकार के 5G बैंड्स:
- 5जी में बैंड्स- 5G मुख्य रूप से 3 बैंड (लो, मिड और हाई बैंड स्पेक्ट्रम) में कार्य करता है, जिसमें सभी के बैंड्स के कुछ विशिष्ट उपयोग और कुछ विशिष्ट सीमाएँ हैं।
- इसका मतलब यह है कि दूरसंचार कंपनियांँ इसे वाणिज्यिक सेलफोन उपयोगकर्त्ताओं जिनकी बहुत तेज़ गति के इंटरनेट की विशिष्ट मांग नहीं होती, के उपयोग हेतु स्थापित कर सकती हैं।
- हालांँकि उद्योग की विशेष ज़रूरतों के लिये लो बैंड स्पेक्ट्रम इष्टतम नहीं हो सकता है।
- 5जी में बैंड्स- 5G मुख्य रूप से 3 बैंड (लो, मिड और हाई बैंड स्पेक्ट्रम) में कार्य करता है, जिसमें सभी के बैंड्स के कुछ विशिष्ट उपयोग और कुछ विशिष्ट सीमाएँ हैं।
- इस बैंड का उपयोग उद्योगों और विशेष कारखाना इकाइयों द्वारा कैप्टिव नेटवर्क के निर्माण हेतु किया जा सकता है जिसे उस विशेष उद्योग की ज़रूरतों में ढाला जा सकता है।
- यह बैंड इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) और स्मार्ट तकनीक जैसी भविष्य की 5G प्रौद्योगिकी अनुप्रयोगों को बढ़ावा देता है, लेकिन इसके लिये उचित बुनियादी ढांँचे की आवश्यकता होगी।
- लो बैंड स्पेक्ट्रम (Low Band Spectrum): इसमें इंटरनेट की गति और डेटा के इंटरैक्शन-प्रदान की अधिकतम गति 100Mbps (प्रति सेकंड मेगाबिट्स) तक होती है।
- मिड बैंड स्पेक्ट्रम (Mid-Band Spectrum): इसमें लो बैंड के स्पेक्ट्रम की तुलना में इंटरनेट की गति अधिक होती है, फिर भी इसके कवरेज क्षेत्र और सिग्नलों की कुछ सीमाएँ हैं।
- हाई बैंड स्पेक्ट्रम (High-Band Spectrum): इसमें उपरोक्त अन्य दो बैंड्स की तुलना में उच्च गति होती है, लेकिन कवरेज और सिग्नल भेदन की क्षमता बेहद सीमित होती है।
- 5G के अनुप्रयोग:
- उन्नत मोबाइल ब्रॉडबैंड: हमारे स्मार्टफोन को बेहतर बनाने के अलावा 5G मोबाइल तकनीक वर्चुअल रियलिटी (Virtual reality- VR) और ऑगमेंटेड रियलिटी (Augmented Reality- AR) जैसे नए इमर्सिव सेवाओं को शुरू कर सकती है, जिसमें तीव्र, अधिक समान डेटा दर, कम विलंबता और कम लागत-प्रतिशत-अंश शामिल हैं।
- मिशन-क्रिटिकल कम्युनिकेशंस: 5G नई सेवाओं को सक्षम कर सकता है जो उद्योगों को अति-विश्वसनीय, उपलब्ध, कम-विलंबता लिंक जैसे महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढांँचे, वाहनों और चिकित्सा प्रक्रियाओं के रिमोट कंट्रोल के साथ परिवर्तित कर सकता है।
- मैसिव इंटरनेट ऑफ थिंग्स: 5G डेटा दरों, पावर और मोबिलिटी को कम करने की क्षमता के माध्यम से बड़ी संख्या में एम्बेडेड सेंसरों को मूल रूप से जोड़ने से संबंधित है जो अत्यंत क्षीण और कम लागत वाला कनेक्टिविटी सल्यूशन प्रदान करता है।
- सामान्यत: 5G का उपयोग तीन मुख्य प्रकार की कनेक्टेड सेवाओं में किया जाता है, जिसमें उन्नत मोबाइल ब्रॉडबैंड, महत्त्वपूर्ण संचार मिशन और बड़े पैमाने पर इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) शामिल हैं।
- IoT, क्लाउड, बिग डेटा, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एज कंप्यूटिंग के साथ, 5G चौथी औद्योगिक क्रांति का एक महत्त्वपूर्ण प्रवर्तक हो सकता है।
नोट
- भारत की राष्ट्रीय डिजिटल संचार नीति 2018 में 5जी के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है, इसमें कहा गया है कि 5जी, क्लाउड, इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) और डेटा एनालिटिक्स सहित क्रांतिकारी प्रौद्योगिकियों का एक समूह बढ़ते स्टार्ट-अप समुदाय के साथ अवसरों का नया क्षितिज खोलता है और डिजिटल जुड़ाव को अधिक तीव्र तथा मज़बूत करता है।
- भारत में 5G रोलआउट के लिये चुनौतियाँ:
- कम फाइबराइज़ेशन फुटप्रिंट: पूरे भारत में फाइबर कनेक्टिविटी को अपग्रेड करने की आवश्यकता है, जो वर्तमान में भारत के केवल 30% दूरसंचार टावरों को जोड़ता है।
- कुशलता पूर्वक 5G को लॉन्च करने के लिये इस संख्या को दोगुना करना होगा।
- 'मेक इन इंडिया' हार्डवेयर चुनौती: कुछ विदेशी दूरसंचार OEMs (मूल उपकरण निर्माता) पर प्रतिबंध, जिस पर अधिकांश 5G प्रौद्योगिकी विकास निर्भर करता है, अपने आप में एक बाधा प्रस्तुत करता है।
- उच्च स्पेक्ट्रम मूल्य निर्धारण: भारत का 5G स्पेक्ट्रम मूल्य वैश्विक औसत से कई गुना महँगा है।
- यह भारत के नकदी संकट से जूझ रही दूरसंचार कंपनियों के लिये नुकसानदायक होगा।
- इष्टतम 5G प्रौद्योगिकी मानक का चयन: 5G प्रौद्योगिकी कार्यान्वयन में तेज़ी लाने हेतु घरेलू 5Gi मानक और वैश्विक 3GPP मानक के बीच संघर्ष को समाप्त करने की आवश्यकता है।
- जबकि 5Gi का स्पष्ट लाभ है, यह टेलीकॉम के लिये 5G इंडिया लॉन्च लागत और इंटरऑपरेबिलिटी मुद्दों को भी बढ़ाता है।
- कम फाइबराइज़ेशन फुटप्रिंट: पूरे भारत में फाइबर कनेक्टिविटी को अपग्रेड करने की आवश्यकता है, जो वर्तमान में भारत के केवल 30% दूरसंचार टावरों को जोड़ता है।
आगे की राह
- घरेलू 5G उत्पादन को बढ़ावा देना: देश को भारत में 5G के सपने को साकार करने के लिये अपने स्थानीय 5G हार्डवेयर निर्माण को अभूतपूर्व दर से प्रोत्साहित करने और बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
- मूल्य निर्धारण युक्तिकरण: इस स्पेक्ट्रम के मूल्य निर्धारण के युक्तिकरण की आवश्यकता है, ताकि सरकार भारत में 5G के कार्यान्वयन योजनाओं को बाधित किये बिना नीलामी से पर्याप्त राजस्व उत्पन्न कर सके।
- ग्रामीण-शहरी अंतर को कम करना: 5G को विभिन्न बैंड स्पेक्ट्रम और निम्न बैंड स्पेक्ट्रम पर तैनात किया जा सकता है, यह सीमा बहुत लंबी है और ग्रामीण क्षेत्रों के लिये भी सहायक हो सकती है।